Saturday, December 17, 2016


डायरी अंग्रेजी भाषा से लिया गया शब्द है |प्राचीन भारत साहित्य में इसे लिखने की प्रथा दिखाई नहीं देती |हमारी सभ्यता में भी इसका कोई साक्ष्य नहीं है |क्योंकि गंगा-जमुना संस्कृति में इसका चलन नहीं था। और अगर किसी लेखक ने स्वयं के साथ-साथ तत्कालीन समाज पर कुछ लिखा भी है तो उसका रूप, स्वरूप व विधा भिन्न थी।
लेकिन आज डायरी लेखन को  भी एक साहित्यिक विधा के रूप में स्वीकार किया जा चूका है |
कहा जाता है कि जो बात किसी से भी नहीं कही जा सकती वो डायरी में लिखी जा सकती है। डायरी अंतरंग, विशिष्ट व भरोसे का मित्र है। यह अंतर्मन की अभिव्यक्ति है।स्वयं से साक्षात्कार है ,एक सच्चे मित्र की तरह है जो गलत काम करने पर आत्मग्लानिरूपी दण्डऔर अच्छा काम करने पर आत्मसम्मान रूपी पुरस्कार देती है |
डायरी लेखन का मूल स्वभाव गोपनीयता है  इसलिए इसमें मन की कोमल भावनाओं को उंडेला जा सकता है। अपनी बेबाक टिप्पणी, राय व विचार बेधड़क होकर लिखे जा सकते हैं। यह तभी तक सत्य व संभव है जब तक इसे बिना किसी उद्देश्य के लिखा जाए। प्रकाशित करने के लिए लिखे जाने पर इसकी सत्यता, मौलिकता व पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है। क्योंकि डायरी लेखक संभावित प्रतिक्रिया के डर से या किसी मोह में फंसकर उसमें आवश्यकतानुसार उलट-फेर जरूर करता है। बस यहीं से शुरू होती है मिलावट। दिल की जगह दिमाग का खेल प्रारंभ हो जाता है। 

ओम नागर ---------------------- जन्म: 20 नवम्बर, 1980, अन्ताना, तह. अटरु, जि. बाँरा (राज.) शिक्षा: एम. ए. (हिन्दी एवं राजस्थानी) पीएचडी, बी.जे.एम.सी. प्रकाशन: 1. ‘‘छियांपताई’’, 2. ‘‘प्रीत’’, 3. ‘‘जद बी मांडबा बैठूं छूँ कविता’’ (राजस्थानी काव्य संग्रह), 4. ‘‘देखना एक दिन’’ (हिन्दी कविता संग्रह) 5 . "विज्ञप्ति भर बारिश "(हिंदी कविता संग्रह ) 6."निब के चीरे से" ( कथेत्तर गद्य-डायरी) राजस्थानी अनुवाद - ‘‘जनता बावळी हो’गी’’ (रंगकर्मी व लेखक शिवराम के जननाटक), ‘‘कोई ऐक जीवतो छै’’ कवि श्री लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह ‘‘अनुभव के आकाश में चांद’’ और ‘‘दो ओळ्यां बीचै’’ श्री राजेश जोशी के कविता संग्रह ‘‘दो पंक्तियों के बीच’’ साहित्य अकादमी द्वारा अनुवाद योजना के अन्तर्गत प्रकाशित। प्रकाशन व प्रसारण: देश की प्रमुख हिन्दी व राजस्थानी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएॅ प्रकाशित। आकाशवाणी कोटा, जयपुर और जयपुर दूरदर्शन से समय-समय पर प्रसारण। रचना अनुदित: पंजाबी, गुजराती, नेपाली, संस्कृत और कोंकणी। वागर्थ, परिकथा, संवदिया के युवा कविता विशेषांक व राजस्थानी युवा कविता संग्रह ‘मंडाण’ में कविताओं का अनुवाद। संपादन: राजस्थानी-गंगा (हाड़ौती अंचल विशेषांक) पुरस्कार व सम्मान: 01 . कथेतर गद्य की पांडुलिपी "निब के चीरे से " के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार -2015 02 . केन्द्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी कविता संग्रह ‘‘जद बी मांडबा बैठू छूँ कविता’’ पर ‘‘युवा पुरस्कार-2012’’ 03 . राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा हिन्दी कविता संग्रह ‘देखना, एक दिन’ पर सुमनेश जोशी पुरस्कार, 2010-11 04 . राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवराम के जननाटक ‘‘जनता पागल हो गई है’’ के राजस्थानी अनुवाद ‘‘जनता बावळी होगी’’ पर ‘‘बावजी चतरसिंह’’ अनुवाद पुरस्कार- 2011-12 05 . प्रतिष्ठित साहित्य पत्रिका "पाखी " द्वारा "गांव में दंगा " कविता के लिए "शब्द साधक युवा सम्मान 06 . राजस्थान सरकार जिला प्रशासन बारां व कोटा, काव्य मधुबन, साहित्य परिषद, आर्यवर्त साहित्य समिति, शिक्षक रचनाकार मंच, धाकड़ समाज पंचायत सहित कई साहित्यिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्मानित। सदस्य: राजस्थानी भाषा परामर्श मण्डल, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली। संप्रति: लेखन एवं पत्रकारिता पता: 3-ए-26, महावीर नगर तृतीय, कोटा - 324005(राज.) मोबाइल-9460677638 -- ओम नागर मोबा: 09460677638 ई-मेल: omnagaretv@gmail.com

निब के चीरे से ...संग्रह जिसके लेखक ओम नागर और प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ है ,जिसे ज्ञानपीठ से २०१५ का नवलेखन  पुरस्कार भी मिला है ..डायरी की शक्ल में आत्मकथ्य है |गद्य और पद्य का समुहचीत संग्रह ।
कड़ाके की ठण्ड में नव वर्ष के आगमन की ख़ुशी और हर्ष के बीच बरसती मावठ लेखक को शहर के अभिजात्य  उल्लास से निकाल कर ,गाँव  में खेतों की चिंता में डुबो देता है ।
जमीं से जुड़ा लेखक जिसकी कलम में खेतों और गावों की मिठ्ठी की  खुशबु महकती है ,वो उनके सुख दुख को अपने सिरहाने रख कर सोता और जागता है । इस संग्रह में  लेखक की कविताओं के साथ उन कवियों की कविताओं की पंक्तिया भी सुशोभित है ,जिनका कवित्व और व्यक्तित्व लेखक की प्रेरणा रही है ।
हाडौती की आँचलिक बोली में लेखक का अपने मित्रों ,परिचितों से संवाद करना अपनी माँ बोली के रस में डुबो देता है ।आज की पीढ़ी जिस भाषा के अमृत से अनभिज्ञ है ,उस अमृत का रसपान  कर पाठक  तृप्त सा होता है ।संग्रह में अधिकांश विवरण गांव की जीवनशैली का मिलता है जहाँ लेखक शहर में रहते हुए भी ,फिर फिर लौटता है ।प्रकृति के मौसमों  का चित्रण इस तरह से किया है कि प्रतिक बने शब्द  लेखन कौशल को सुगन्धित कर देते है ।"आकाश हँसता है बारिश की हँसी"  जिसके साथ संपूर्ण वातावरण मुस्करा उठता है ,हां कभी यह हँसी धरती पुत्र के लिए सहज सुलभ होकर जीवन दान दे देती है और कभी दुर्लभ होकर उसके प्राण भी हर लेती है ।कृषि जीवन पूर्णता वर्षा पर ही निर्भर है ।
"डरी हुई रात की हँसती हुई सुबह "  भय जो अफवाहों के पैर से चलकर एक मुहँ से सहस मुखं पर स्थापित हो जाता है ,इसी भय की कहानी लिखी लेखक ने ।आधुनिक युग में भी मृत्यु का भय  या अनहोनी घटित हो जाने का पूर्वानुमान देती अफवाएं क्या नही करवा लेती है इंसान से ।बड़ा रोचक लगा इसे पढ़ना ।
जुलेहा ,टर्की की मित्र  कला साहित्य प्रेमी .. एक समान रूचियां हमें कहाँ ज़े कहाँ ले जाती है और किस किस से जुड़ जाती है रिश्तों की डोरी ,जुलेहा  से मिलना और पुनः सारोला हॉउस में मिलना अच्छा लगा ।
विद्धार्थी जीवन में गुरूजनों का सम्मान और उनका स्मृति में बने रहना ,लेखक का आज की शिक्षा नीति और अपने काल के  शिक्षक और विद्धार्थी के रिश्तों  की तुलना पाठक को भी सोचने पर मजबूर करती है ।आज की शिक्षा   बच्चों को तकनीकी ज्ञान की अधिकता से मशीनी बना रही है ,नैतिक शिक्षा की अभिवृद्धि करने वाले किस्से सुनाने वाले अध्यापक अब कहाँ ।
संग्रह में डूब कर पाठक अपने उस जीवन की झलक पाता है जिसका जिक्र उसके सपनो में कही न कही तो अवश्य था ।
प्रवेश सोनी


रचना प्रक्रिया को किसी भी परिभाषा की परिधि में बाँध देना आसान नहीं होता |भीतर की कोई आग जिसे निरंतर जलते रहना है ,भीतर का कोई तरल जिसे इंसान की आँख की नमी बनाए रखनी है ,भीतर का कोई ठोस जिसे इस्पात होने तक तपते रहना है |यह कहना है  संग्रह के लेखक का |

लेखन का आगाज़  1 जनवरी २०१५ से किया 
जिसमे लेखक की आसपास की दुनिया के रंग बिखरे है |लेकिन इसमें कवि व्यष्टि से समष्टि की यात्रा करता दिखता है |उसमे संतोषी नगर चौराहे पर सैलून चलाने वाले कविमित्र मनोज मोरवाल और पान की दूकान वाले के फक्कड़पनकी चर्चा है तो तेजाजी गायन को रेखांकित करते हुए जीवन शैली में आये बदलाव भी उनकी सोच के विषय है ,वहीँ कवि ने इस बात को भी महीन उदासी के साथ रेखांकित किया है कि शहरो में नयी पीढ़ी का मायड भाषा से जुड़ाव कम होता जा रहा है 
यह डायरी कोटा शहर के अतरंग जीवन समाज का कोलाज है |जिसमे साधारण ,अतिसाधारण अपरिचित ,अल्पपरिचित लोगों की व्यथा पर रौशनी है लेखक की निगाह उधर अधिक गई है जहां शोषित ,प्रवंचित के जीवन में अँधेरा है |अंधेरेमे बारीक़ प्रकाश रेखा के उल्लास को भी उनकी नज़र अचूक ढंग से पकडती है 
यह डायरी अपने शहर और शहर के लोगों के कारण अपना मकाम बनाती है ,जिसमे अपने परिवार से अधिक  किसान ,मजदुर और साधारण जन की व्यथा अभिव्यक्त होती है |
                                                                       अतुल कनक 


कुछ पंक्तियाँ संग्रह की 

दुःख ही तो है जो स्रष्टि को अपूर्ण रखता है |

किसान की मौत अंतहीन बहस छोड़ जाती है |

मौसम में ठहराव की कमी खलती है ,और मन की भी |

किसी की खींची गई लकीर को मिटाने के कौतुक रचने की बजाय ,हमें उस लकीर के बगल में लम्बी लकीर खीचने की कोशिश करनी चाहिए |

गावं में भले ही सुख का परिचय कम होता हो लेकिन दुःख का प्रसार अधिक होता है |गाँव की यह सनातन संवेदनशीलता होती है |



ओम नागर की कुछ कवितायें

पिता की वर्णमाला
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पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर।
पिता नहीं गए कभी स्कूल
जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला
पिता ने कभी नहीं किया
काली स्लेट पर
जोड़-बाकी, गुणा-भाग
पिता आज भी नहीं उलझना चाहते
किसी भी गणितीय आंकड़े में।
किसी भी वर्णमाला का कोई अक्षर कभी
घर बैठे परेशान करने नहीं आया
पिता को।
पिता
बचपन से बोते आ रहे हैं
हल चलाते हुए
स्याह धरती की कोख में शब्द बीज
जीवन में कई बार देखी है पिता ने
खेत में उगती हुई पंक्तिबद्ध वर्णमाला।
पिता की बारखड़ी
आषाढ़ के आगमन से होती है शुरू
चैत्र के चुकतारे के बाद
चंद बोरियों या बंडे में भरी पड़ी रहती है
शेष बची हुई वर्णमाला
साल भर इसी वर्णमाला के शब्दबीज
भरते आ रहे है हमारा पेट।
पिता ने कभी नहीं बोई गणित
वरना हर साल यूं ही
आखा-तीज के आस-पास
साहूकार की बही पर अंगूठा चस्पा कर
अनमने से कभी घर नहीं लौटते पिता।
आज भी पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर ही है
मेरी सारी कविताओं के शब्दयुग्म
नहीं बांध सकतें पिता की सादगी।
पिता आज भी बो रहे है शब्दबीज
पिता आज भी काट रहे है वर्णमाला
बारखड़ी आज भी खड़ी है
हाथ बांधे
पिता के समक्ष।



भूख का अधिनियम: तीन कविताएं
 -------------------///------ --------                                  
                             (एक)                
शायद किसी भी भाषा के शब्द कोश में
अपनी पूरी भयावहता के साथ
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलांग पाती भूख।
पूरे विस्मय के साथ
समय के कंठ में
अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।
छोटी-बड़ी मात्राओं से उकताई
भूख की बारहखड़ी


हर पल गढ़ती है जीवन का व्याकरण।

आखिरी सांस तक फड़फड़ातें है
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख्त चांेच
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।
भूख के पंजों में जकड़ी यह पृथ्वी
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई 

लौट आती है आरंभ पर
जहां भूख की बदौलत
बह रही होती है
एक नदी।
(दो)

एक दिन
भूख के भूकंप से
थरथरा उठेंगी धरा
इस थरथराहट में
तुम्हारी कंपकंपाहट का
कितना योगदान
यह शायद तुम भी नहीं जानते
तनें के वजूद को कायम रखने के लिए
पत्त्तियों की मौजूदगी की
दरकार का रहस्य
जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट।
भूख ने हमेशा से बनायें रखा
पेट और पीठ के दरमियां
एक फासला


पेट के लिए पीठ ने ढोया
दुनिया भर का बोझा
पेट की तलवार का हर वार सहा
पीठ की ढाल ने।

भूख के विलोम की तलाश में निकले लोग
आज तलक नही तलाश सकें
प्रर्याय के भंवर में डूबती रही
भूख का समाधान।
(तीन)
इन दिनों
जितनी लंबी फेहरिस्त है
भूख को
भूखों मारने वालों की
उससे कई गुना भूखे पेट
फुटपाथ पर बदल रहें होते है करवटें।
इसी दरमियां
भूख से बेकल एक कुतिया
निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें
घीसू बेच चुका होता है कफन
काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी
इरोम शर्मिला चानू पूरा कर चुकी होती है
भूख का एक दशक।
यहां हजारों लोग भूख काटकर
देह की ज्यामिति को साधने में जुटें रहते हैं अठोपहर
वहां लाखों लोग पेट काटकर
नीड़ों में सहमें चूजों के हलक में
डाल रहे होते है दाना।
एक दिन भूख का बवंडर उड़ा ले जायेगा अपने साथ
तुम्हारें चमचमातें नीड़
अट्टालिकाओं पर फड़फड़ाती झंडियाँ
हो जायेगी लीर-लीर
फिर भूख स्वयं गढ़ेगी अपना अधिनियम।



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Thursday, December 15, 2016


एक ज़माना था, जब कवि खुद संपादक होते थे, और ख़ुद ही प्रकाशक होते थे, |तब लेखकों में संपादक का और प्रकाशक का किरदार भी गुंथा होता था, उस ज़माने में साहित्य विशुद्ध व्यवसाय न होकर साहित्य की स्थापना के लिए होता था, पर आज ऐसा कोई ही प्रकाशक होगा जो स्वयं रचनाकार भी हो, माया मृग के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह ऐसे ही रचनाकार हैं, कहना न होगा कि माया मृग की कविताएँ, आमद की ज़्यादा  लगती हैं, सायास कम लगती हैं| वह जैसे कविता की ऐसी नदी बहा पाते हैं जिसमें भाषा - पानी, धार - कथ्य, संदेश-, रंगों की तरह होता है और पाठक किनारे पर खड़ा हुआ कविता की इन गहराईयों को समझ संवेदित होता हुआ नज़र आता है| आज वाटस एप समूह साहित्य की बात यानि साकीबा में, बोधि प्रकाशन के संचालक, और सुकवि, माया मृग की कविताएँ प्रस्तुत हुईं थीं , जिन पर जानदार चर्चा हुई| साथ ही मधु सक्सेना, एवं प्रवेश सोनी के साथ साकीबा के संचालक ब्रज श्रीवास्तव ने बातचीत की. 
*ब्रज श्रीवास्तव *
प्रस्तुत है यह सब, आपके प्रिय इस रचना प्रवेश ब्लॉग में...



"कविता में जरा सी कविता जरूर हो। वट का पेड़ न सही बीज भर तो हो"
यह कहना है  कवि ,सम्पादक  ,प्रकाशक श्री माया मृग  जी का ,जिन्होंने साहित्य की बात समूह में दिए सदस्य मित्रो के सवालों के जवाब ......



❇साक्षात्कार ❇
प्र0:1  आपका सृजन कब और कैसे शुरू हुआँ,लेखन की प्रेरणा कहाँ से मिली ?

उ0:   ठीक से कहना मुश्किल है पर लिख्‍ाित रुप में मेरी पहली डायरी में पहली कविता 25 जनवरी 1980 को दर्ज है। उससे पहले कुछ कुछ इधर उधर कागजों पर ीिखा होगा या स्‍कूल की कापियों के पिछले पन्‍नों पर--- जिनका अब कुछ अता पता नहीं।
घर में लिखने पढ़ने का माहौल था, पिताजी की अच्‍छी खासी घरेलू लाइब्रेरी थी--- जिनकी ि‍कताबों की धूल झाड़ने का काम अक्‍सर मेरे हिस्‍से अाता था घर में सबसे छोटा होनेके कारण---। किताबों से प्रेम शायद वहीं से शुुरु हुआ होगा। गीताप्रेस गोरखपुर की किताबों से शुरु हुुआ और हिन्‍द पाकेट बुक्‍स की किताबों के जरिये साहित्‍य से जुड़ाव---। इसी के बीच कहीं ीिलखना भी शुरु होगया---


प्र0:2  बोधि प्रकाशन आज शीर्ष पर है ,सफ़र  की शुरूवात से इस मक़ाम तक पहुँचने में कोई बड़ी कठिनाई?

उ0:  सबसे पहले तो यहां संशोधन जरुरी। शीर्ष जैसा कुछ नहीं है, बोधि प्रकाशन केवल अपनी ओर से प्रयास कर रहा है और उसमें व्‍यवसाय भी शामिल है। मुकाम तक पहुंचने की कठिनाई तो हर कदम है ही-- किताबों के हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में जगह ना मिलने या कि क्रम में नीचे जगह मिलने से। यात्रा है, जारी है, कोई बड़ा पड़ाव अभी नहीं आया इसलिए यह कहना मुश्किल है कि सफल होने का रास्‍ता कया है--। एक रास्‍ता जो समझ आया, उस पर चल पड़े हैं--- कहीं तो पहुंचेंगे--- इस यकीन के साथ।


प्र0:3  कवि होते हुए प्रकाशक होना, कुछ विरोधाभासी नहीं लगता आपको...?


उ0: कविता लिखना पहले शुरु हुआ 1980 से ही मान लूं तो-- प्रकाशन शुरु किया 1995 में। इस तरह कविता से प्रेम पहला प्रेम है-- प्रकाशन उसी प्रेम का विस्‍तार भर है। इसमें विरोधाभासी तो कुछ है ही नहीं-- पूरक जैसा ही भले हो कुछ। प्रकाशक होकर हर समय कविताएं पढ़ने सुनने का अवसर मिलता है, खुद को भी बेहतर करने का मौका मिलता है, अच्‍छा ही है यह। व्‍यावसायिक रुप ेस कभी कभी कविसुलभ संवेदनाएं आड़े आ जाती हैं तो आर्थिक रुप ेस नुकसान के काम भी कर बैठते हैं--- पर चलता है इतना तो---। दिया भी तो प्रकाशन ने ही है, जरा सा इसमें लग जाए तो क्‍या दिक्‍कत।


प्र0:4  आपकी कविताओ में प्रेम और दर्शन का मिश्रण है तो कविता लिखते समय कैसा महसूस करते है ? क्या कोई ध्यान की अवस्था होती है वो ...?

उ0:  कविता हर स्थिति में एक ध्‍यान की ही अवस्‍था है। ध्‍यान का अर्थ आध्‍यात्मिक भी हो सकता है और केन्द्रित होे जाना भी। कविता सघन संवेदनाओं की अभिव्‍यक्ति ही है, ऐसे में ध्‍यान के बिना कविता होगी भी कैसे। प्रेम हम सबके जीवन में है, होता ही है, होना भी चाहिए। यह संवेनदना की सबसे सुखद परिणति है। दर्शन परंपरागत अर्थ में बहुत गूढ़ रहस्‍यों को जानने के लिए की गई परख है, वह सहज रुप में हम सबके जीवन का ि‍हस्‍सा है। इसलिए  कुछ भी अजीब नहीं लगता कि कविता में भी यही सब आए।

प्र0:5  आपकी नज़रों में कविता क्या है?
प्रेम कविता में स्वानुभूति कितनी होती है ?कोई प्रेरणा 😊?

उ0:  कविता की काव्‍य्‍शास्‍त्रीय परिभाषा में नहीं जाउंगा- बस इतना कह सकता हूं कि कविता मेरे तईं संवेदनाओं का सुविचारित प्रवाह है जो पाठक तक जाकर पूरा होता है-- । केवल संवेदना या केवल अभिव्‍यक्ति का कौशल कविता का अधूरा होना है--। पाठक तक ना पहुंच पाना भी कविता मे एक कमी छोड़ देता है-- उसे जरा सा अौर पूरा होना चाहिए। 
कविता का लक्ष्‍य इन्‍सान को बेहतर बनाना है, सब इस पर एकमतहैं। भिन्‍नता यह कि कोई इसे कविता में घुले विचार के माध्‍यम से कोई संवेदना जगाकर तो कोई अन्‍य तरीके से इस बेहतरी के लिए कविता रचता हैं। 
कविता स्‍वानुभूति ही है।जिसे अन्‍यानुभूति कहेंगे वह भी तभी कविता में आ पाती है जब वह आत्‍मसात कर ली जाए--- यानी आत्‍मसात करने के बाद तो वह भी स्‍वानुभूति ही हो गई--।


प्र0:6  एक चुप्पे शख्स की डायरी की भूमिका कैसे बनी ...?चुप्पा शख्स है कौन ?

उ0:  एक चुप्‍पे शख्‍स की डायरी में वह आ सका जो कविताओं से छूट गया। यह डायरी जैसी डायरी नहीं है,  इसमें दिनचर्या भी नहीं बल्कि दिनचर्या के साथ जो भीतर चलता रहता है वह है। हम सबके भीतर एक चुप्‍पा शख्‍स होता है जो कहना चाहता है पर कहता नहीं, सामाजिकता का दबाव कह लो या अभिव्‍यक्ति की सीमा--। वे बेवजह से ख्‍यालात इसमें हैं, कुछ आत्‍म प्रलाप जैसा भी कहीं कहीं।

प्र0:7   आपके संकलन 
शब्द बोलते है ,कि जीवन ठहर न जाए,जमा हुआ हरापन ,कात रे मन...कात, चुप्पे शख्स की डायरी .....
के बाद नए की किस तरह की भूमिका तैयार हो रही है ,गद्य या पद्य ?


उ0: रचना सतत प्रक्रिया है, चलती रहती है। मूल बात है जो उथल पुथल भीतर है, वह कही जा सके। गद्य या पद्य माध्‍यम हैं बस, माध्‍यम का चुनाव संवेदनाएं स्‍वयं कर लेती हैं। पूर्वानुमान कुछ नहीं, क्‍या लिखा जाएगा, क्‍या नहीं। हां कविताएं काफी हैं, एक किताब से अधिक लेकिन अभी किसी किताब की जल्‍दी नहीं-- ।


प्र08  वॉट्सएप के साहित्यिक समूहों के बारे में आपके विचार और साकीबा के नए कवियों और सदस्यों 
को क्या कहना  चाहेंगे ?

उ0:  व्‍हासप समूहों की अपनी शक्ति है और अपनी सीमा भी। तकनीक के साथ एक सीमा तक सहयोग संभव है उसके बाद थकान होने लगती है। समूह जिस मकसद से शुरु होते हें उनसे भटकने में भी देर नहीं लगती, अग्रेषित किए जाने वाले रेडिमेड मेसेज से भरने लगते हैं समूह। कुछ समूह अनुशासित हैं जिनमें साकीबा भी है, दस्‍तक, सृजनपक्ष भी। सार्थक चर्चाएं होती हैं बहुधा। कभी कभी अति अनुशासन भी दिखता है, जिससे इस माध्‍यम की सीमा उजागर होती है लेकिन मोटेतौर पर इन तीन चार समूहों से बहुतकुछ सीखने को मिलता है मुझे। साकीबा गंभीर प्रयास है, नए जुड़ने वाले मित्र इसकी गंभीरता को समझकर ही शामिल होते हैं इसलिए अपनी ओर से कुछ कहने की जरुरत मुझे नहीं लग रही। 
अपनी रचना सबको प्रिय होती है, यह हम सब जानते हैं । ऐसे में कभी कभी किसी साथी की आलोचना अखर भी सकती है लेकिन इसे दृष्टि की भिन्‍नता और अनुभव के आधार पर ही स्‍वीकार करना उचित है। अपनी ओर से सफाई देने की बजाय हम अपनी रचना का स्‍वयं पुनर्पाठ करें-- जरुरी लगे तो बदलाव भी करें। बस इतनी सी बात। समूह हमें जोड़ने के लिए हैं--- यह हमेशा ध्‍यान में रहे तो अप्रिय स्थितियों से बचा जा सकता है जो कि कभी कभी नजर आ जाती हैं।


प्र ०...अखिलेश ,
कविता के पाठक लगातार कम हुये है आप किसे दोषी मानते है कवि की, प्रकाशक/संपादक की या स्वयं अकविता की ?
उ ० ...कोई एक तो नही हो सकता। और इनके अलावा भी कारण मौजूद हैं। समय जितना तेजी से बदला है कविता उतनी तेज नही बदल सकती। जीने की लड़ाइयां अधिक हो गई पूरा साहित्य ही प्राथमिकता क्रम में नीचे चला गया है।
प्र०..अखिलेश ,
कविता को पाठकीय दृष्टि से एक मरती विधा मान भी लिया जाये तो भी क्या संपादको की कोई नैतिक जिम्मेदारी नही होनी चाहिए, इंडिया टुडे में समीक्षा हेतु पृष्ठ है पर कविता हेतु नही है ?
उ०,..कविता मरती विधा नही रूप बदलती विधा है। पत्रिकाओं का अपना गणित और नज़रिया है|
प्र०..,Braj Shivastav: एक आसान सा सवाल मेरा भी अपना कवि नाम माया मृग रखने की क्या कहानी है?
उ०... एक आकर्षण था कुछ भिन्न साहित्यिक सा नाम रखने का। 1985 के आस पास। मायामृग इसलिए कि हम सब जो बाहर सोने के हैं, भीतर मारीच से। मारीच रामकथा में सबसे इंसानी पात्र लगा। विवश भी और नैतिक-अनैतिक के द्वद्व में उलझा भी।
प्र०...Jatin: माया जी...कोई रचना एक अर्थ व भाव लेकर लिखी गई पर पाठक तक पहुँचते पहुँचते कई अर्थ व भाव में बंट गई.क्या लेखन सफल रहा?
उ०...कविता में अगर संप्रेषणीयता है तो इतना अधिक पाठान्तर नही होगा। पाठक अपने जीवनानुभव और संवेदना से उसे अपने अर्थ में ग्रहण करे तो रचना का विस्तार ही मानें
प्र०...Suren: मायाजी ,हम कब  कहते है कि कविता सायास हो गयी है ? जबकि हर कविता का सूत्र या विचार हमारे अवलोकन की प्रक्रिया में अनायास ही आता है और उसको प्रेसेंटेबल हम सायास ही कर पाते है ?
उ०....कविता का पहला ड्राफ्ट सहज प्रवाह में होता है। सुधार निखार अनुभव से। 🙏🏼
प्र०...Madhu Saksena: माया जी कविताओं का वर्गीकरण जरूरी है क्या ..जनवादी , मार्क्सवादी प्रगतिशील या कोई और ..?
उ०,.. ये वर्गीकरण केवल कविता को समझने के लिए हैं। समग्र रूप से कविता इंसानियत के हक़ में ही है। विचार की अभिव्यक्ति के आधार पर ये धाराएं प्रवाहित हैं|
Jatin: माया जी....सोशल मीडिया का जमाना है.किंडल हैं..पेपरलैस दुनिया...आने वाले दस साल में क्या किताबें होंगी?
उ०,,किताबें हमेशा रहेंगी। जिन देशों में डिजिटल क्रांति बहुत पहले हो गई वहां आज भी किताब की अपनी जगह बनी हुई है  रूप प्रकार बदलते रहेंगे छपी किताब की अपनी जगह बनी रहेगी। ऐसा विश्वास है
प्र०,,.Sayeed Ayub Delhi: एक आख़िरी सवाल मेरा- नोटबंदी का आपके प्रकाशन पर क्या प्रभाव पड़ा है? 😊 और आपके कवि पर भी?
उ०...डिस्पेच का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ। नकदी नही रही तो डाक नही भेज पाये। सरकार सबको सलाह दे रही पर अपने विभाग ही कैशलेस पेमेंट लेने की हालत में नही। 
कवि भी इंसान है और इसी देश का वासी तो प्रभावित हुए बिना कैसे रहता। 


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*कविताएं *


 पूछते रहना
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कहा था फकीर ने
मेरे पीछे मत आना
मेरे पीछे रास्‍ता मुझ तक नहीं अाता
ना ही मैं चला जाता हूं रास्‍तों के साथ कहीं
चलते रहने से बदलते रहते हैं रास्‍ते----।

किसी के पीछे नहीं रहता कोई रास्‍ता
आगे हो ना हो, होना वहीं होता है रास्‍ते को
कदमों के निशान पर नहीं बनते नए निशान
फकीरों की बनाई लकीरें नहीं समझ्  सकते लकीर के फकीर्----।

मत पूछना कि कहां गया फकीर
पूछना कि किधर जाती है यह राह
टोके जाने का बुरा मत मानना
रोके जाने का बुरा मानना---।

मसखरों के लिए नहीं होती कोई नसीहत
इसलिए संकोच मत करना
हर साथ चलते रहने वाले से पूछने में
किधर जाता है यह रास्‍ता, किधर जा रहे हो---।

पूछते रहना कभी कभी खुद से भी
यह रास्‍ता किधर जाता है, किधर जा रहे हो--- ?


                    
 नीले स्‍वेटर पर चिडि़या
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कितने सारे फंदे, कितने सारे घर
इनसे क्‍या बुनेगी स्‍त्री
क्‍या क्‍या बुनेगी स्‍त्री
कि बुनते बुनते बुना जाएगा स्‍वेटर भर एक...।

घर में फंदे हैं, फंदों में घर
एक फंदे से निकलती सलाई
दूसरे घर को ले आती है अपने साथ
और स्‍त्री बुनती है वह सब,
जो उधेड़ दिया गया है कितनी ही बार....।

नहीं भूली अभी भी
नीले स्‍वेटर के बीचों बीच बुनना चिडि़या
सुनहरी ऊन से
उड़ान न बुनी जा सके भले, बुनी जा सकती है
एक चिडि़या...जो भूली ना हो पंख फड़फड़ाना...।

स्‍त्री घरों के बीच में है
स्‍त्री फंदों के बीच में है
उसकी उंगुलियों को आंख खोलकर देखने की जरुरत नहीं होती
ना फंदे छूटते हैं, ना घर
फंदे घर बन जाते हैं....घर फंदे
बुनना चलता रहता है हर हाल में
सलाइयां रुक जाने के बाद भी...।

उसकी उंगुलियों में बसी है नाप
कितना खुल सकता है गला
और कितने चौड़े हो सकते हैं कन्‍धे
सीवन के टांके बाहर से ना दिखें
इतनी सफाई तो उसने बचपन से सीख ली....।

उसे नहीं पता कि तुम पहन सकोगे कि नहीं नीला रंग
तुम्‍हें पसंद आएगी कि नहीं चिडि़या...सुनहरी पंख वाली
बेमेल रंगों से चिढ़ सकते हो तुम
स्‍त्री नहीं चिढ़ती तुम्‍हारी चिढ़ से
जानती है, जो पसंद ना हो
उसे उधेड़कर बुना जा सकता है दुबारा....कितनी भी बार

(लो इसे पहन लो तुम....उसने शुरु कर दिया है नया कुछ बुनना....)                      


 पीपल के नीचे एक दीया
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इसी अंधेरे रास्‍ते से गुज़रा था फ़कीर
पत्‍थरों पर निशान नहीं हैं भले ही चलने के
पर पैरों पर निशान हैं पत्‍थरों के
तुम पत्‍थर क्‍यूं देखते हो, पैर क्‍यूं नहीं देखते--।

इससे फर्क नहीं पड़ता कि रास्‍ता दिखता है कि नहीं दिखता
फर्क इससे पडता है कि रास्‍ता है, बस है अपनी जगह
ठोकर लगने पर कराहता नहीं है फ़कीर
हर बार कहता है - वाह, सब तेरी मरज़ी---।

जो नहीं दिखता वह भी होता है अपनी जगह
होने पर नहीं असर होता तुम्‍हारे देख सकने का
तुम आंख भर मापते रहोगे दृश्‍य को
तुम्‍हारी परीक्षा अंधेरे और उजाले से आगे क्‍यूं नहीं जाती---।

दूरियों को नजदीकियों से पाटता चलता है फ़कीर
फ़कीरी नहीं मानती दूरी को
जानता है वह, पास आने के रास्‍ते में दूरियां में नहीं होती
तुम दूरियां ही क्‍यूं देखते हो हमेशा इतने पास से---।

अंधेरा भय नहीं है, भय है अंधेरे पर संदेह का होना
जो ढंका है वह उघड़े से अलग नहीं है कुछ
ये जानने के लिए तुम ठहरकर इंतजार करते हो
फ़कीर का इंतजार चलता है उसके कदमों के साथ---।

चले अाओ कि देखे जाने को बहुत कुछ आएगा आगे
चले जाने का रास्‍ता इतना ही है
जितना कट जाएगा चलने से
भला हो फ़कीर का कि उसने निशानदेही कर दी है
यहीं से कटना शुरु होगा अंधेरा
पीपल के नीचे जलाकर रख गया है एक दीया, माया मृ
                    
 उस ईश्‍वर का पता
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जब जब लड़खड़ाया
मंदिर की सीढि़यों पर आकर गिरा
विश्‍वास का बोझ अपने सिर से उतार
तुम्‍हारे कन्‍धे पर रख दिया
यह जाने बिना कि तुम उठाओगे कि नहीं.....।

अपने ही भय से भयभीत
बुदबुदाए तुम्‍हारे मंत्र
वे कि जिनका अर्थ कभी न जाना
न जानना चाहा....बताने वालों ने जरुरी भी नहीं समझा.....।

भले ही सिखाया जाता रहा
सिर उठाकर जीना,
पर तुमने सिर झुकाए को ही देखा
मेरी पराजय के क्षणों में मुस्‍कुराए तुम
यह कुटिलता थी कि करुणा, निर्णय न कर सका.....।

रोया तो आंसुओं में तुम्‍हारी छवि देखी
जरा सी मुस्‍कुराहट से
ओझल हो गए तुम
निर्भय हंसी को राक्षस कहती हैं तुम्‍हारी किताबें
सिखाती हैं मौन रहना समाधियों में
अधनींद में जब भी बोला, उच्‍चरित किया तुम्‍हारा नाम.....।

भूख से पराजित भीड़ में सदियों से खड़ा
जयकार करता, प्रयास में रहा कि
तुम भी मुझे भीड़ में एक नजर ही सही, देख तो सको
तुम्‍हें लगा मैं तुम्‍हारा प्रसाद पाकर संतुष्‍ट हूं.......।

तुम मेरे लड़खड़ाने की प्रतीक्षा करते हो
तुम मेरी पराजय में मुस्‍कुराते हो
तुम मेरी भूख पर पिघलते हो
सिर झुकाने पर ही देखते हो मुझे......।

सिर उठाकर भी देख सकूं जिसे....उस ईश्‍वर का पता चाहिए....।

माया मृग
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सुरेन सिंह 
माया जी की कविताओं से फेसबुक के माध्यम से कई वर्षों से परिचित हूँ और आज लगी कविताओं को देखकर कविता पढ़ने का सुकून मिला ।


आज प्रस्तुत कविताओं का स्वर मद्धम है और अपने कहन में कवि के आध्यात्मिक मूल्यों से परिचित कराती हुई पाठक को अपने प्रेममय संसार में इस भांति ले जाती है कि पाठक कविता को घूंट घूंट आस्वादित करते हुए पढता है ,रुकता है ,सोचता है ,मुस्कुराता है और ठंडी सी सांस छोड़ते हुए विचार मग्न हो जाता है ।


पहली कविता  , पूछते रहना और तीसरी कविता , पीपल के नीचे एक दिया  , एक ही जोनर की कविताये है ।इन कविताओं में  कवि  सम्भवतः नीत्शे के दस स्पोक जरथुस्त्र और खलील जिब्रान के प्रॉफेट से प्रभावित होकर फ़क़ीर के माध्यम से पाठक के समक्ष नीति सूत्र को काव्य में उतारना चाह रहा है । इस चाह में वह शब्द के चमत्कारिक उपयोग को साधन बनाता है पर मुझे इन शब्दिक चमत्कारों से वैसी लाक्षणिकता उत्पन्न होती नही प्रतीत होती जैसे की विनोद शुक्ल जी सरलता से कर जाते है ।

दूसरी कविता ,नीले स्वेटर ..  एक सहजता से कही गयी सुन्दर कविता है । यहाँ भी शब्द से कवि के खेलने को पाठक पढ़ मुस्कुराता भर है और कविता के अंत तक आते आते ... स्त्री नही चिढ़ती तुम्हारी चिढ से / जानती है ,जो पसंद न हो /उसे उधेड़कर बुना जा सकता है /दुबारा ...कितनी भी बार
इन पंक्तियों से पूरी कविता का काव्य पाठक के दिलोदिमाग पर छा जाता है । इन चार पंक्तियों में कवि क्या क्या नही समेट देता । सुन्दर कविता ।

चौथी कविता , जब दुबारा पढ़ रहा था तो अनायास ही सर्वेश्वर की प्रार्थना सीरीज की कविताये याद आयी,  नही नही प्रभु शक्ति नही मागूँगा ... यहाँ कवि उस ईश्वर को ढूँढना चाह रहा है जो , दीन दयाल.....  टाइप का न हो । ये कविता की रेशनालिटी को आकाशकुसुम सा कर देता है । मतलब पाठक सोचता है कि ईश्वर हो भी और अपने गुणधर्मो से भिन्न भी हो ,तो वह थोड़ा कंफ्यूज सा हो फिर कविता पढता है पर ...


यह मेरे पाठ की पाठकीय टिप्पणी है जिससे असहमति की पूरी गुंजाइश है । माया जी को उनके काव्य कर्म के लिए शुभकामनाये 💐💐

सईद अय्यूब 
आज पटल पर माया जी की कविताएँ पाना सुखद आश्चर्य की तरह है। इनमें से अधिकांश कविताएँ स्वयं माया जी से सुनने का अवसर मिला है। अभी लगभग तीन महीने पूर्व माया जी के जन्मदिन पर हमने ग़ाज़ियाबाद में एक गोष्ठी आयोजित की जिसमें माया जी का एकल काव्य पाठ हुआ। माया जी ने छोटी-मँझली-बड़ी कुल मिला कर 62 कविताओं का पाठ किया और श्रोता थे कि और सुनने को उत्सुक थे। फ़क़ीर सीरीज की कविताएँ, नदी सीरीज़ की कविताएँ और ताजमहल सीरीज की कविताएँ तो ग़जब थीं/हैं।

फेसबुक पर माया जी से बहुत पहले से जुड़ाव था पर पहली व्यक्तिगत मुलाक़ात 2012 में जयपुर साहित्य महोत्सव में हुई और वहीं से मित्रता और मिलने मिलाने का वह क्रम शुरु हुआ जो आजतक ज़ारी है। अभी पिछले रविवार को दिल्ली के नेशनल म्यूजियम में आयोजित कैलिफोर्निया निवासी कवि-चित्रकार दर्शवीर संधु के प्रथम काव्य संग्रह 'पोरों पे जमे सच' के लोकार्पण कार्यक्रम में मंच से लेकर घर के रास्ते तक हमने कई घण्टे साथ गुज़ारे। तो माया जी की नज़दीक़ी ने माया जी को, उनकी कविताओं को और उनके पूरे व्यक्तित्व को समझने के कई अवसर दिये हैं। जयपुर में उनके ऑफ़िस में, अपने मित्रों के घरों पर, जवाहर कला केन्द्र में, दिल्ली एनसीआर की बहुत सारी महफ़िलों में, दूसरों के आयोजनों से लगायत ख़ुद के आयोजनों में माया जी की न केवल कविताएँ सुनने को मिली हैं बल्कि कविता पर आपके अद्भुत ज्ञान व बातों से कविता की समझ विकसित करने में भी सहायता मिली है।

माया जी के व्यक्तित्व का खुलापन उनकी कविताओं के फलक को विस्तृत करता है तो हर वस्तु पर, हर जगह, कभी भी कविता न लिख देने की उनकी तीव्र इच्छा शक्ति उनकी कविताओं की सान्द्रता को अत्यंत तीक्ष्ण बनाती है। जहाँ उनकी संवेदनायें देश-जीवन-जगत की छोटी से छोटी घटना, लघु से लघु वस्तुओं और हाशिये पर पड़े या डाल दिये गये मनुष्यों तक पहुँचती हैं वहीं उनकी भाषा भी उसी के अनुरूप चलती है। वे बिम्ब रचते नहीं हैं बल्कि समाज में मौजूद उन बिम्बों की पहचान करते हैं जहाँ हम-आप की नज़र भी नहीं जाती।

आज प्रस्तुत सभी कविताओं के प्रति यह मेरी समेकित प्रतिक्रिया है। एक बात और कहना चाहूँगा कि माया जी की कविताओं को उनके गद्य के साथ पढ़ना चाहिये। उनका गद्य उनकी कविताओ को समझने में बड़ी भूमिका निभाता है।

और सबसे अंत में आजके प्रस्तुतकर्ता ब्रज जी का शुक्रिया!


अपर्णा 
माया मृग जी से कई बार मिलना हुआ है। दो बार उनका काव्यपाठ सुना है और एक बार अपनी कविताएँ सुनाने का, उनकी टिप्पणी सुनने का सुअवसर भी मिला है। नए स्वर को हमेशा प्रोत्साहन देते देखा है सर को।
चार वर्ष पूर्व हिंदी कविताओं को पढ़ना शुरु किया था तब माया मृग की डायरी पढ़ी। तब से फेसबुक पर कविताएँ पढ़ती रहती हूँ। प्रीता व्यास जी के स्वर में सुनती भी रहती हूँ।

पहली कविता में फ़कीर का, राह का और मंज़िल का ज़िक्र में सावधान करता स्वर है। बिना सोचे समझे अंधअनुसरण किसी काम की नहीं। किसी का भी हित नहीं साधती। स्वंय को सजग रखते आगे बढ़ने की बात करती है ये।

दूसरी कविता में शब्दों का खेल है। घर, फंदा, बुनना, उधेड़ना, नीला विस्तार और सुनहली चिड़िया, सीवन, टांके, सफाई, पसंद, नापसंद और फिर से उधेड़बुन की वही अनवरत कवायद। सब गहरे बिंब हैं। और सबके बीच में है स्त्री। बहुत अच्छी लगी यह कविता।

पहली कविता का विस्तार तीसरी कविता में प्रतिध्वनित है। सुंदर, दिखते से  बिंब हैं। आध्यात्मिकता और यथार्थ के बीच की राह दिखाती कविता है।

चौथी कविता 'ईश्वर' से संवाद होते हुए भी ईश्वर की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। भय, अभाव और लालसा के बीच खड़ा है ये संबंध।

मेरी पाठकीय प्रतिक्रिया मात्र। संभव है ये सही न हो। माया सर को नमस्कार। शुभकामनाएँ। 🙏🏽

आभार ब्रज जी। 🙏🏽


 Ghanshym Das Ji: 
आज प्रस्तुत सभी रचनायें बहुत ही शानदार व उच्च स्तरीय हें lस्वेटर बुनने के माध्यम से कवि स्त्री स्वयं को बार बार आपके अनुरूप ढालने के प्रयास करती है तथा कवि उसके त्याग व धैर्य को दर्शा रहा है l पूछते रहना में बहुत ही शानदार शब्दों में उन बातो को बता रहा है जो सभी महापुरुषों ने कहीं हें कि अपना रास्ता खुद बनाओ दूसरों के पद चिन्हों पर मत चलों l आजकल हम लोगों की सबसे बड़ी बिडम्बना ये है कि हमने अलग क्या हमने तो महापुरुषों रास्ते पर चलने के स्थान पर मात्र उनके स्वरुप/ मूर्ति/चित्र को पूजना ही उनका रास्ता मान लिया है l उस ईश्वर का पता मुझे ईश्वर के प्रति विद्रोह की रचना प्रतीत होती है l क्या ये हम,हमारा ही स्वार्थ नहीं की हम अपने अपनी पराजय / दुःख के समय ही उसके सामने पहुचें यानि हमारे अंतर्मन में एक यकीन है जब कोई सहारा नहीं तो उसका सहारा मिलेगा ही ये बात अलग है कि हमको ऐसा नहीं लगता कि तत्काल राहत दी हो और फलस्वरूप हम उसके प्रति विद्रोह दिखाने लगते हें ,पर उसकी मुस्कराहट व्यंग नहीं है l मायामृग जी व ब्रज जी का आभार बहुत ही स्तरीय रचनाओं की प्रस्तुति के लिये l                      

Mani Mohan Ji:
माया जी की बेहतरीन कविताएं ।
बड़े फलक की कविताएं हैं इस मायने में कि यहां न तो किसी विचारधारा का बोझ है और न ही भाषा का बोझ इन कविताओं पर है । बहुत सहजता से इन कविताओं में स्वप्न , यथार्थ , मिथक , बिम्ब सब घुले मिले से जान पड़ते हैं ।बधाई माया जी ।


प्रवेश सोनी 
फकीरों की बनाई लकीरें नही समझ सकते लकीर के फ़कीर
शब्दों की जादूगिरी ...और हर शब्द गूँथ कर  बन जाता हैएक वाक्य जो किसी पाठ से कम नही होता ।
माया मृग जी की कवितायेँ सघन संवेदनाओ  की अभिव्यक्ति है ।
स्त्री नही चिढ़ती तुम्हारी चिढसे ,.... हर फंदे में घर और घर एक फंदा......स्त्री मन की गहरी परत जिसे शब्दबद्ध  करने में महारत हासिल है माया जी को ।एक पुरुष का चिंतन जब स्त्री मन की सम्वेदनाओं तक पहुँचता है तब सृजन होता है ऐसी ही अद्भद कविताओं का ।
दर्शन का अद्भद दर्शन
बोधमयी कवितायेँ
शुभकामनाएं


अखिलेश श्रीवास्तव
माया मृग जी की एकाध कविताओं से मुलाकात पहले भी है पर खजाना यूं हाथ नही लगा था ।इन कविताओं को पढते हुए जड़ खोदने की आवश्यकता ही नहीं, सहज भाषा विन्यास से ये सीधे पाठक से जुडती हैं इन कविताओं की पृष्ठभूमि जल जैसी तरल है जिस पर पाठक मन दूर तक तैर तो सकता ही है, तृप्ति भी होती है
कुछ भवरे है जो समीक्षा की सम्भावना को नकारती नही, पर अक्सर सीधा संवाद करती है ये यात्रा कराती कविताएं है एक फकीर के जैसी ।

भाषा के स्तर पर कविता अनायास चमत्कारो से पाटी नही गई है उन्हे ठहरने को कह, सिर्फ अद्भुत भाव का कलेवर ले ये कविताएं सार में बतियाती है व्यथा का अतिशय प्रलाप भी नही है उतना ही कहा है जितना कवि का सच है । अज्ञेय की बात पर हुहंकारी भरते माया मृग शब्दो से कविता का आखेट नही करते बल्कि उसे निषेध करने की चेतावनी देते है ।

अकविता मे छंद सा प्रवाह देखना हो तो इन कविताओं के तट पर पहुंचे, हाथ अनजाने में ही कागज की कश्ती न बनाने लगे,तो कहियेगा ।

अखिलेश

अनीता मंडा 
पूछते रहना
पंथवाद पर कटाक्ष -लकीर के फकीर।
यही सच है, जिन कुरीतियों से लड़ने को फकीर बने, लकीरवादियों ने उन्हें उसी में कैद कर दिया,  मूर्ति पूजा के धुर्र विरोधी रहे बुद्ध को आखिर मूर्ति बना कर रख दिया, ताउम्र हिन्दू मुस्लिमो को एक करने की जद्दोजहद में लगे कबीर के शव तक भी वो झगड़ा नही मिटा तो नही ही मिटा।
स्व के भीतर की यात्रा को चेताती पंक्ति-
पूछते रहना कभी कभी खुद से भी
यह रास्‍ता किधर जाता है,
बाहर की भटकन पर तो दूसरे भी टोक देते हैं।
भीतर के लिए सावधानी की जिम्मेदारी खुद की ही है।
बहुत अच्छी लगी कविता।  

अर्चना नायडू 
मुददत से मायामृग सर की कविताओं का इंतजार था। अचानक ऐसा सरप्राइज पाकर बहुत अच्छा लगा।
सारी की सारी कविताएँ   मन की गहराइयों में डूब जाती है।  कहा जाता है कि गुरुजनों से जहाँ भी, जैसे भी सीखा जा सकता है।   और सर को तो फेसबुक के जरिये मै बहुत पहले से गुन रही हूँ।
  बृजजी ऐसी बेहतरीन कवितायें भेजने का आपका आभार। 🙏    


रेखा दुबे 
मायामृग जी की,मन को छू जाने वाली कविताएं एक बार पढ़ कर मन भरता ही नहीं है बार-बार पढ़ना और मनन करते हुए लगना इनकी गहराई में पहुँचने में हमारी पकड़ अभी अधूरी है और खोजी निगाहों का एक बार फिर कविता पढ़ने के लिए बेचैन हो जाना ही मायामृग जी की कविताओं की गहराई को दर्शाता है।
इतनी सहज और उच्चस्तरीय कवितायेँ पढ़ाने के लिए ब्रज जी का शुक्रिया  

ज्योत्सना प्रदीप 
उस ईश्वर का पता
एक उच्चस्तरीय कविता...परम  सत्ता को पूर्ण समर्पित रचना..
वो मुझे देख ले  'भीड़ में एक नज़र' या फिर मै  उसे देख सकूं " सिर उठाकर" हर दशा में मिलनें की तड़प है उस परम सत्ता से।
आसक्ति  में या फिर विरक्ति में..चाह उसी की है क्योंकि 'उसका 'सुख में ओझल होना भी  तो ठीक नहीं...मिलना है ...पर सुख में भी..एक विश्वास के साथ ।
बहुत सुन्दर...बहुत गहरी  रचना
माया मृग जी की लेखनी को नमन🙏
आभार बृज जी🙏      


आरती तिवारी 
माया मृग सर की कविताओं को पढ़ना खुद को समृद्ध करना है। हर बार अपनी नई कविता में वे चकित कर देते हैं। उनकी कवितायेँ मैं फेसबुक पर पढ़ती हूँ। बेटे और पिता के द्वंदात्मक अन्तर्सम्बंधों पर उनकी एक कविता मैंने फेसबुक पर ही पढ़ी थी और उसी दिन एक स्थानीय काव्यगोष्ठी में उसका पाठ किया था। मैं प्रायः ऐसे स्थानीय कार्यक्रमों में समूह के साथियों की अच्छी कवितायेँ या आर्टिकल ही पढ़ती हूँ बजाए अपनी कवितायेँ पढ़ने के,और जो भी कवितायेँ अच्छी लगती हैं उन्हें अन्य समूहों पर साझा भी करती हूँ। शरद सर की मस्तिष्क की सत्ता की पिछली बार पोस्ट की सभी कड़ियाँ मैंने मन्दसौर के समूहों में लगाई थीं और वहाँ की टिप्पणियॉ भी साझा की थीं
साहित्य की बात समूह में सभी साथियों का परस्पर अपनत्व इसे पारिवारिक वातावरण देता है।
प्रवेश ने आज बहुत अच्छे से साक्षात्कार के प्रश्न रखे। साकीबा का आभार इतनी सुंदर कवितायेँ पढ़वाने के लिए👍🏼👍🏼👏🏼👏🏼🙏

Thursday, December 8, 2016




वाट्स अप के साहित्यिक समूहों में आजकल नित नए प्रयोग हो रहे है। जिससे नव लेखकों को तो लाभ मिल ही रहा है, पाठक भी नई उर्जा के साथ सक्रीय होता है। आज साहित्य की बात समूह पर "तैरते पत्थर " विषय पर कविताये पोस्ट की गई जिन्हें लेखकों ने कविता की पाठ शाला में लिखा था। कई सदस्यों ने उल्लासित होकर तुरंत कविताये भी लिखी। सबसे ज़्यादा आकर्षण का केंद्र रहा विंग कमांडर अनुमा आचार्य का संचालन, जिन्होंने अपने शब्दों के जादू से सभी को बाँध लिया। प्रत्येक टीप की प्रतीटीप में उनका भाषा कौशल झलक रहा था। रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है आज की कविताये और प्रतिक्रयाए|


मुख्य टीप कविता पाठशाला के  प्रमुख श्री ब्रजेश कानूनगो 
'कविता की पाठशाला' एक ऑनलाइन कार्यशाला की तरह सक्रीय एक वाट्सएप समूह है। जो 'सकीबा' का ही अनुषंगी समूह है।
अक्सर कुछ ऐसे मित्र यहां संवाद करते हैं जिनकी थोड़ी रूचि कविता को लिखने,समझने की होती है और जो कुछ दिशा में आगे बढ़ने को इच्छुक होते हैं।
यह मान्यता है कि किसी को कविता लिखना कैसे सिखाया जा सकता है? यह तो भीतर से,अनुभूतियों के कारण स्वयं निकलकर आती है।ऐसा हो सकता है,लेकिन भीतर से आने वाली हर बात कविता तो नहीं हो सकती।कविता का अपना सौन्दर्यशास्त्र,अपना कहन याने भाषा शैली, और विधान भी होते हैं।
सह्रदय व्यक्ति अपनी संवेदनाओं को,अनुभूतियों को व्यक्त करता है। लेकिन विधागत कला को बेहतर और उसे संवारने की प्रक्रिया तो अनन्त तक चल सकती है।
इसी काम के लिए पाठशाला जैसे समूह की भूमिका निर्धारित और समझी जा सकती है।
एडमिन ब्रज श्रीवास्तव जी ने मुझे भी यहां कुछ सहयोग की अपेक्षा की तो मैं भी चला आता हूँ,दूसरों से बतियाते,सुधारते,खुद को संवारने का लालच बना रहता है।बंधन में कुछ अपनी नई कविताओं का आधार तैयार हो जाता है।
किसी एक तय विषय पर कविता लिखना तो एक बहाना है।इसके बहाने हम अपने विचारों को शब्द देना और किसी अलग दृष्टि से चीजों को देखना भी सीखते हैं।कल्पना और यथार्थ के पंखों से हम कितनी उड़ान और दूरी तय कर पाते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
एक ही विषय अंत में हरेक की अपनी भिन्न कविता बन जाती है। शीर्षक भी बदले जा सकते हैं।
तैरते पत्थर से शुरू हुई कविता,जीवन के दर्शन के सूक्ष्म की कविता भी बन सकती है,और स्त्री विमर्श या प्रकृति का चित्रण भी। पहाड़ के दुःख और पक्षियों के कलरव को भी महसूस किया जा सकता है अंत में।यह कवि की अपनी सामर्थ्य और विवेक पर निर्भर करता है।
कक्षा के कोलाहल के बीच पत्थरों के तैराने के प्रसंग के बीच खीज के चलते मैंने कहा कि ' अब लिखये इसी विषय पर कविता। यह बहुत सुखद रहा की इतनी खूबसूरत कवितायेँ यहाँ आईं।
कुछ पर मेरे सुझावों पर संशोधन भी हुए।लेकिन यह अंत या फसिंल नहीं है।होना भी नहीं चाहिए।यही कविता का विकास है।कवि का विकास है।
सभी रचनाकारों को बधाई।
अनुमा जी ने बहुत मन से आज सत्र संचालन किया,उनको भी बहुत बधाई। अध्यक्षीय जैसा तो नहीं लेकिन पाठशाला के एक संकाय सदस्य के नाते अपनी बात कही है।बातें होती रहेंगी।
बहुत धन्यवाद,आभार और शुभकामनाएं।
ब्रजेश कानूनगो

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 तैरते पत्थर
कहाँ नहीं हैं पत्थर?
पृथ्वी को कंपित कर
अहसास करा देते -                        
पृथ्वी के नीचे अपने अस्तित्व का।
जब फिसलती हैं चट्टाने एक-दूसरे पर
खेल-खेल में अथवा पारस्परिक रोष में।

पृथ्वी तो भरी है पत्थरों से-
नींव के पत्थर ,मील के पत्थर
और रास्ते के पत्थर भी ।
टकराते पैरों से ठुकराये गये बार-बार ।

अन्तरिक्ष भी  रिक्त नहीं है पत्थरों से।
तीव्र गति से भागते ,तैरते पत्थर जैसे उल्कापिंड  तत्पर हैं , वहाँ भी ।
 पृथ्वी की ओर आने को आतुर
 राजेंद्र श्रीवास्तव

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 अपराध बोध

ऐसा फिसला कि
संस्कारों की पोटली जा गिरी
लालच की आग में


आँख खुली तो
आत्मा मूसल की तरह
कुचलने लगी अस्तित्व को

पश्चाताप के समुद्र में
आंसूओं का नमक मिला  
तो बिखर गया भारी पत्थर

तैरने लगा दुःख
हल्का होकर।

ब्रजेश कानूनगो                    
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 बोलो राम
सच सच बताओ राम
क्यों तैरे थे पत्थर
तुम्हारे नाम के
श्रद्धा थी या मर्यादा पूजी गई तुम्हारी,
या प्रिया की विरहाग्नि ने
पिघला दिया
उनका पत्थरपन ,
हल्के हो तैर गए

समंदर की छाती पर,

हरण हो रही आज भी सीतायें
बिक रही है मंडियों में
निर्जीव बन
नुचे पंख छितरा देती
बेदम हवा यहाँ से वहा
कोई पुल नही उन तक ..

बोलो राम ,
क्यों जरुरी नही समझते अब तुम
सीताओं को बचाना ???
जबकि पुकारती है वो तुम्हें
विदीर्ण हृदय में पीड़ा के आर्तनाद से

तुम चुप हो
क्यों ?

शायद ..!
तुम्हारी निःस्पृहता से  ही
भारी होकर
तिरते नही अब आस्था के पत्थर ...!!

प्रवेश सोनी                      
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"तैरते पत्थर"

कभी-कभी बन्धनों में जकड़
ऐसी सुलगती है
मन की भट्टी
कि लगता है
झोंक दूँ
सब कुछ इस भाड़ में।
धुआँ कोहरा बन
ढक लेता है
जीवन के रंग।
घुट रही होती है
हर स्वप्न की साँस।

तभी कोहरे को चीर कर
निकलता है सूरज

कहता है बार-बार
जिन्होंने समझा
आकर्षण के
बंधन को त्याज्य
वो पत्थर उल्का बन तैर रहे हैं
अंतरिक्ष  में अब भी
ढूँढ़ते हुए अपनी पहचान।

अनिता मण्डा    
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 |||  तैरते पत्थर  ||||

यादों के पत्थर तेरते रहते है
टकराते हुए .....
टूटते .हुए
बिखरते हुए ......

काश.... इन ...पत्थरों से
बना पाती गिप्पा
और उछाल देती
किसी खाने में
और बना लेती उसे अपना घर

काश ...इन पत्थरों से
बना पाती सतोलिए
और एक पर एक रख
समय की गेंद आने से पहले
बना देती पिरामिड
और जीत जाती ...

काश इन पत्थरो से
तराश पाती
कोई मूरत
रख देती मन्दिर में
प्राण प्रतिष्ठा कर के
कर देती निष्क्रिय ....

यादों के पत्थर
कुशल तैराक की तरह
तैर रहे .....
और मैं जीवन चलन में
अकुशल होती जा रही ।
         
          मधु सक्सेना      
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 स्त्री जीवन एक प्यूमिक स्टोन

जड़ों से फूटीे वे तंतुनुमा बालियाँ
बाहर आयीं
कुछ दिनों बाद दिखने लगी
ललछौंही हरीतिमा
वे इठलाने के दिन थे
नरम नरम उजाले,सुनहरी मुस्कानें
मिट्टी भी हुलसती,देती असीसें

बीतता चला गया
शैशव,बालापन,कैशौर्य भी
होंने लगीं सख़्त,
लाल लाल कोंपलें खा खाकर ठोकरें
घिसाती रहीं बर्तनों सी
फ़ीची गई कपड़ों सी
उलीची जाती रहीं
बावड़ियों सी

सुख झरते रहे भीतर से
सरंघ्र  होते रहे मन के ठोस पत्थर
दुःख का रास्ता साफ होता गया दिनों दिन
मिट्टी की तरह देह
होती चली भुरभुरी

प्यूमिक स्टोन सी
जीवन को उजला बनाती रही
स्त्रियां।
 आरती तिवारी
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तैरते पत्थर :

हमने प्रवाह दिया पत्थरो को
सुझाया कि
इन तैरते पत्थरों पर चलकर
किया जा सकता है
भवसागर पार ।
हम खूब चले इन राहो पर
तुमने पहले हमें पांव कहा
फिर कहा पांव की जूती ।

तुमने स्थापित किया पत्थरों को
लगाया सिंदूर, चंदन, रोली
मठ बनाये और मुडाया सर
फिर लगा लिया
वही सिंदूर,चंदन,रोली
कहा वह पत्थर अब प्राणवान
होकर बन गया है माथा
रखो इस पर मुकुट ।

हम भव सागर पार कर
थके हारे पहुंचे ईश्वर के पास
हम वृद्ध थे
हमारे सर जूती के तलवो की तरह चिकने थे.
उन्होंने गले नहीं लगाया
मल भरी एक खांची
रख दी हमारे सर पर
उस खांची मे एक भी पत्थर नही है
सारे पत्थर मठो मे है
रेशमी परिधानो मे
पुष्पो के बीच,सुगंधित।

अखिलेश    
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खून में पानी

अकसर गिरती बनती हैं
बचपन में दीवारें
भाई भाई में
दोस्त दोस्त में
आहिस्ता आहिस्ता गाढ़े खून में मिलता जाता है पानी
पक जाती है दीवार
पर्वत से भी भारी  रिश्तों पर
कुछ यूँ दीवार बनकर तैरते हैं पत्थर

जतिन अरोरा
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पत्थर

जो लाया था

गुरुडोगमर झील से

तुमने कहा

हाथ में रख

बंद करो मुट्ठी

याद करो उस क्षण को

जब मिले थे पहली बार

तुम तैर जाओगे

उस पल में

उस तन्मयता की ओर

पत्थर की नाव के साथ।

संजीव जैन      
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तैरते पत्थर 

हम बच्चों के लिए
सितोलिये के पत्थर हैं
कैसे मगन हैं वो
ऐसे ही मगन हो जाओ बड़ी उमर के लोगों

और हम कुंए में तलहटी में बैठे
पत्थर हैं
जब कछुआ आकर आराम करता है
हम तो जैसे वात्सल्य से भर जाते हैं
हम पहाड़ पर इस कदर
कि हम विशालकाय
हमारा ही राज है पहाड़ों की बस्ती में
हम पत्थर
बदनाम हैं कठोरता के लिए
जबकि हमारा भी होता है दिल
हमें भी चूरा किया जाता है
हमें हथौड़ा से संवारने के नाम पर
पीटा जाता है
हमारे रोने की आवाज
कौन सुनता है
मूर्ति का भला हो कि
उसके सहारे हम पत्थरों को
मान मिल जाता है

हम ऐसे पत्थर जैसे होना
तुम्हें सिखाया जाता है
कभी कभी,
थोड़ा पत्थर तो अब कवि भी हो गये हैं
हम ही वो जो हथियार बने
हम ही वो जो वजन दार
कि हम नहीं हैं
तैरते पत्थर.

ब्रज श्रीवास्तव    
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पहले मैं,पहले मैं

तालाब किनारे से गुज़रते हुए
मैंने एक पत्थर उठाया
निशाना लगा के फेंका ज़ोर से
हवा में उड़ता हुआ
पानी में टप्पे खाता हुआ
पहुँच गया वो तालाब के उस पार
मैंने पत्थर को उड़ना और तैरना सिखाया
जब आगे बढ़ा तो जिस भी पत्थर पे नज़र पड़ती
वो कहता पहले मैं, पहले मैं।।
दुष्यंत तिवारी

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ऑसू जब बनेगा पत्थर
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तमाम स्त्री जाति के आंसुओ को
धीरे-धीरे इकट्ठा कर 
एक सांद्र विलयन बनाऊंगी
      
फिर आह की ऑच से तपा कर
 धीरे-धीरे कठोर कर....
 एक वज्र सम डली (पत्थर)बनाउंगी
 जो फोड़ देगी दु:ख का कपाल

ऑसू, जो पर्याय कमजोरी का 
इस संघटना के घटने के बाद 
आने को होगा ऑखों मे जब
डर जायेगा दु:ख हर बार 

 सुराग पा गयी है स्त्री 
   उससे पार पाने का।


              -डाॅ अलका प्रकाश 
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इनसान    
यह पत्थर में भगवान।                           
चमड़ी में बसते इंसान ।।।                      
 दूध जिन्हें पिलाते हैं                          
 पत्थर को देते मान ।।।                      
 पाई-पाई को तरसे                                
सब मंदिर में देते दान ।।।              
  भूखाप्यासा फिरता है                       
 जीवित है जो इंसान ।।।                   
 खा न सके जी भर कर                    

 मूर्ति को मिलते पकवान ।।।

ओम प्रकाश क्षत्रिय 

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सुरेन सिंह
पत्थर सुनकर ,देखकर  एक ठोस ,ठस और ठहराव का भाव प्रायः आता है मन में । ऐसे प्रत्यय को लेकर जब तैरने की ,तैराने की बात हमारे मन में आती है तो उसमें प्रचलित मिथक और एक वस्तु या भाव में उसके गुणधर्मो से विपरीत जाने को कहते है और इसी निरूपण में काव्य भी व्युत्प्न्न करने की ताब किसी पाठक को कवि में परिवर्तित कर देती है ।

राजेंद्र जी की कविता अपने काव्य में टेक्टोनिक थ्योरी की अवधारणा को उतारते हुए  पत्थर के विविध रूप और रूपको  को  प्रस्तुत करते है । फिर पृथ्बी से अंतरिक्ष में जा गुरुत्वाकर्षण  की अनुपस्तिथि में पत्थर को तैराते है और पत्थर के यत्र तत्र सर्वत्र होने को कहते हुए  ,उन्हें पृथ्वी की ऒर मतलब अपने ही समूह से मिलने , अपने ही जैसे से किसी से मिलने , गति में एक स्थिरता प्राप्त  आदि आदि को जब निरूपित करते है मुझे लगता है इन सारी ऊपर की पंक्तियों  से एक काव्य को निचोड़ देते है । ये अंतिम पंक्ति कविता को कविता बना देती है । इसी पंक्ति से पाठक का मन आज़ाद हो जाता है ,पत्थर में ,उसके रूपको में ,उसके गुणधर्मो में मानवीकरण लाने को
अपराध बोध पर लिखी ब्रजेश जी की कविता -- अपराध के बोध के  होने ,उसमे स्वयं के गिर जाने ,  उसके मन में घर बनाने और उसके सबलीमेशन की ऐसी  कविता है जो संक्षिप्तता में अपनी बात इस तरह कहती है कि पाठक अपनी ग्रंथियों के बारे में सोचता है , मुस्कुराता है ,थोड़ा कसमसाता है और फिर कुछ हल्कापन लिए कविता में उतर जाता है ।
इस कविता की usp ये लगी कि ये सभी से जुड़ जाती है क्योंकि कोई न कोई अपराधबोध हर एक से कही न कही जुड़ा ही रहता है । ये अपराधबोध  कैसे हमारे व्यक्तित्व को भिन्न परिस्थितियों में भिन्न तरह से मोल्ड करता है ये सम्भवतः कवि कहना चाहता है ।
अपराधबोध एक ऐसा विषय है जिस पर दस्तोवस्की जैसे महान उपन्यास कार  क्राइम एंड पनिशमेंट जैसे मोटे उपन्यास लिखते है वही ब्रजेश जी एक छोटी सी कविता में उसे उतारने की कोशिश करते है तो ये कोशिश ,अच्छी लगती है ।
हाँ ,जब वो संस्कार की बात करते है तो  , अगर ये संस्कार ..  कंडीशनिंग का पर्याय है तो ठीक अगर इससे इतर होता है तो आम पाठक इससे जुड़ने में  कठिनाइ सी महसूस कर सकता है ।
कभी न कभी  सभी ने सुनी होगी ये दम्भ भरी आवाज  ,    . ........ हम तो संस्कारी लोग है  । इस दम्भ ,इसकी बू से अधिकांश पाठक अपनी आशनाई नही कर पाते । हो सकता है विषयान्तर हो गया हो ।
पर ये पंक्ति मन में आत्मसात होती है कि तैरने लगा दुःख ,हल्का होकर । ये हल्का होने का जो अभिलाषी भाव है वो इस युग की वाकई एक त्रासदी है । जिसे कवि जिलाये रखता है । भले ही इस कविता में पत्थर तैरा न हो पर अपनी सीमाओं में यह कविता उन्हें अतिक्रमित करने का जज़्बा रखती प्रतीत होती है ।                    


 Anuma Aachary:
"तैरते पत्थर" विषय एक धनात्मक विरोधाभास की ओर इशारा है, जहाँ पत्थर के ठोस पन की बात से हट कर, उसके अंदर की तैर पाने की सम्भावनाओं की बात है. ना केवल यह, बल्कि यह भी कि "पत्थर" के घनत्व में भी उनके अंदर हवा और porous होने की गुंजाइशे बाक़ी हैं.....यानी कि पत्थर की जड़ता हावी नहीं है....क्षितिज पर उम्मीदें दिख रही हैं.
लगता है, यह गुरुवार कुछ और सदस्यों की साहित्यिक उर्वरता का प्रतीक बनेगा...
तो निजामत तो नहीं जानती मैं, पर निवेदक भी नहीं हूँ...आपका आह्वान करती हूँ कि
इस "तैरते पत्थर" के अनूठे विषय को अपनी कल्पना और क़लम से कुछ हम सब भी नवाजे 😀                      
इस ठंडी सुबह को गर्मजोशी के पहले प्याले देने वाले Early birds को salute है जी 🙏.
......बाक़ी के हम सब धूप के फैलने तक अपने अंदर के ठोस होते जा रहे हिस्सों से परे   कुछ पल कृतित्व के नाम करें.....शब्दों को, भाषा को खंगाले और एक वह कोशिश कर ही डालें, जो अरसे से मन में है.
राजेंद्र जी...पत्थर की तासीर टकराना तो है ही. लेकिन फिर बदलेंगे मिट्टी में.... मिट्टी से पत्थर और फिर पत्थरों के मिट्टी होने की दास्ताँ जारी रहेगी..सुंदर संयोजन
ब्रजेश जी...एक पूरी जीवन यात्रा ही समा गयी इन कुछ पंक्तियों में. प्रगति की गति, किए समझौतों, अहसासों और फिर उबर आने का सफ़र.
प्रवेश जी, तैरने पत्थरों का राम और आस्था से सीधा सम्बंध है और आपने वहीं भेदन किया है - लक्ष्य भेद 👌
अनिता जी, होने और ना होने के बीच की उहापोह में "होना" और "होने" मे पूरी आस्था, ये पढ़ा मैंने आपकी रचना में.
मधु जी....वक़्त की तेज़ रफ़्तारी शिद्दत से छू  रही है कविता में. एक सरल मन के "छूटते जाने" का अहसास शायद....मेरे अंदर भी बेसाख़्ता ही चला आता है. आपसे बहुत सीखने को  है - संप्रेषण और expression.
आरती जी, केवल आत्म उत्सर्ग का ढोल क्यों पीटे स्त्री !!! प्यूमिक स्टोन बड़ी वांछनीय धरोहर है. कितनी अच्छी बात है कि अंततः "ठस" या "ठोस" नहीं हो जाती स्त्री और सम्भावनाएँ सहेजे रहती है, पारदर्शिता की, समा लेने की, चिरकाल तक...

अखिलेश जी, पूरी कविता सुंदर लेकिन खाँची के कोंटेंट्स मे मार्क्सवाद बचाया भी तो जा सकता है प्रभु 😇                
ब्रजेश कानूनगो
कवि आखिर चाहता भी यही है कि कविता पाठक तक सम्प्रेषित हो।कुछ कठिनाई आती भी है तो समालोचक या टीकाकार सेतु की भूमिका निभाता है।अनुमा जी,इसमें काफी सफल होती हैं।

दुष्यंत तिवारी
तैरते पत्थर विषय पर इतने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से लिखी कविताए पढ़कर आश्चर्य होता है।
राजेंद्र श्रीवास्तव जी की कविता पत्थर के अस्तित्व का एहसास कराती है और उसके उलतप्रध बोध कविता में ब्रजेश जी ने पत्थर की कहानी लिख दी है। दोनों कविताओ में पत्थर की भूमिका कविता में बिलकुल उलट है।
प्रवेश जी ने तैरते पत्थरो को सहारा लेकर सामाजिक परिस्तिथि पे चोट की है और सवाल उठाया है की आज धर्म मौन क्यों है।
अनीता जी की कविता बार बार पढ़ने में समझ आई, शिल्प की दृष्टि से आज की कविताओ में सबसे उत्कृष्ट।
मधु जी की कविता नॉस्टॅल्गिक है इसलिए आसानी से किसी के भी दिल में जगह बना लेगी, उन्होंने इसको पूरी तरह निभाया भी और कहीं भी कविता में ढील नहीं दी।
आरती जी ने स्त्री जीवन को बहुत अचे से जोड़ा विषय से और अंत में अखिलेश जी की कविता स्वादिष्ट भोजन के बाद मिठाई का काम करती है, उन्होंने विषय की गहराई में जाकर सिम्बोलिस्म का उपयोग किया।।

ये प्रयास एक सोशल एक्सपेरिमेंट भी हो सकता है की कैसे किसी को एक ही विषय पर अपना बचपन याद आया तो किसी को सामाजिक बुराइया।




हरमिंदर सिंह
पत्थर तैरते हैं, उम्मीद की किरणों के साथ, कुछ ख्वाहिशें हैं. शब्दों को यूं नहीं तैराया जाता, वे जानते हैं.
अखिलेश जी की सुंदर रचना.🙏🏼


 Meena Sharma: तैरते पत्थर जिस तरह भी तैेेरे हो्, हर किसी कविता में अलग भाव लिए हुए हैं ।
हर ओर पत्थर हैं,  " तैरते पत्थर"  पर हर ओर से जैसै चित्र खींच लिया हो राजेंद्र जी ने ....और वे चित्र हर साकीबाई कै जे़हन में ठहरे से हैं । विरोधाभासी इशारे बहुत सी अनकही कह रहे हैं ।
बधाई राजेंद्र जी एक अद्वितीय कविता के लिए ।।              
 अपराध बोध
ब्रजेश जी , संस्कारों के मूसल
आत्मा पर भारी हर बोझ को हटाकर, आँसुओं में बहा देनेका माद्दा रखते हैं, दिल पर रखा पत्थर ,हल्का होकर तैर जाए तो ज़िंदगी आसान कर देता है ।
वाह ब्रजेश जी । पत्थर का तैरना 💐💐                      
बोलो राम
आस्था के पत्थरों का तैरना ,कल भी था आज भी है । नाम का गुणगान है वरना क्या दूसरों को तारने वाले💐💐 राम , गर्भवती पत्नि को बनवास भेज देते ?
कविता की बात करें ,सुंदर शब्द संयोजन किन्तु ,तैर ही गई, डूबी नहीं ।। 💐                      
 तैरते पत्थर
एक और नए रंग-रूप के साथ अनिता जी की कविता मेंबंधनों की जकड़ से निकलना, और त्याज्य पत्थरों की कल्पना उल्का के रूप में, खूबसूरत बिंब ।।  💐💐                      
 तैरते पत्थर
यादों के पत्थर और उन्बें सहेज लेने का हुनर कोई मधु जी से सीखे ।
कभी सतोलिया,पिरामिड बना अपनी जीत दर्ज करना,कभी मंदिर की मूरत, कभी कुशल तैराक बनाकर,जीवन चलन की अकुशलता दर्शाना,
मन में उतर जाता है ।
बढ़िया रचना ।। 💐💐                      
 प्यूमिक स्टोन
के रूप में सारा जीवन उतार कैसा अद्भुत बिंब रचा,उलीची जाती बावड़ी, और सुख के झरने से सरंध्र होते मन के पत्थर का प्यूमिक स्टोन बन ,स्त्रीयों का जीवन उजला बनाना ,खूबसूरत कविता ।
बधाई । 💐💐                      
 अखिलेश जी  ने तैरते पत्थरों को प्रवाह देकर ,अद्भुत रंगोंनमें रंग दिया ।
मठों में रेशमी परिधानों में पुष्पों के बीच ,सुगंधित करना ,एक अनूठा प्रयास ।व्यंग्य की झलक के साथ ,बढ़िया प्रयास । वाह 💐💐                      
 अनुमा जी ,आपका सुंदर ,सार्थक प्रयास स्तुत्य कि डूबने वाले पत्थर भी तैरा देने वाली कविताओं से रूबरू कराया ।
सभी की रचनाओं के पत्थर तैर कर ,रामेश्रम का पुल बना गए ।। बधाइयाँ ।।
सभी रचनाधर्मियों को ।। 💐💐💐💐💐💐💐                      
 कुछ यूँ दीवार बनकर तैरते हैं, पत्थर ।। जतिन जी की रचना , 💐



भावना कुमारी
अनिता मण्डा जी की कविता तैरते पत्थर टटके बिंब और अपने कहन के अंदाज़ की वजह से अलग आस्वाद की कविता है ।

जिन्होंने समझा
आकर्षण के
बंधन को त्याज्य
वो पत्थर उल्का बन तैर रहे हैं

गज़ब ।हार्दिक बधाई ।                  

सौरभ शांडिल्य 
राजेंद्र श्रीवास्तव जी की कविता पढ़ने पर ऐसा लगता है जैसे हम कुछ विशेष शिल्प में गढ़ी कविता पढ़ रहे हों।इस कविता को भूगोल या खगोल विज्ञान की कसौटी पर कस के देखें तो सच में अलहदा कविता है।भूगोल का मनोविज्ञान से गहरा रिश्ता है।अक्सर दोनों के कुछ ख़ास सिद्यांत एक से लगते हैं।कहने कि ज़रूरत नहीं कि यह एक बेहतरीन कविता है।
बृजेश कानूनगो सर की कविता कम शब्दों एवं काम पंक्तियों में पूर्ण कविता है।महज़ 11 पंक्तियों में कविता अपना चमत्कार कर देती है।इस कविता में बहुत स्पेस है,बहुत कुछ कहा जा सकता है।(एडमिन से अनुरोध कि सर की कविताएँ जिस दिन लगाएँ,इस कविता को आवश्य लगाएँ)
प्रवेश सोनी जी की कविता विमर्श खड़ा करती है।जिस आम फ़हम जवान में कविता है वही इसकी ताक़त है।भाषा ऐसी कि सभी समझ जाएँ और विचार करने के लिए मजबूर कि कई कई शताब्दियों से महिलाओं की स्थिति ज्यों की त्यों क्यों?
अनीता मण्डा जी की कविता उम्दा कविता है।इस कविता पर भी अलग से बात होनी चाहिए।कई विशेषताओं से पूर्ण कविता है।काम पंक्तियों की पर अन्त तक बाँधने वाली कविता।अद्भुत भाषा।
मधु सक्सेना जी की कविता स्मृतियों को जीने की अदम्य इच्छा की कविता है।बहुत सघन बहुत ठोस।जहाँ से मधु जी आती हैं वहाँ के खेल का स्थानीय नाम इस कविता में आया है।कविता का लोक से जुड़ाव ऐसे भी होता है।मेरे यहाँ यही खेल दुसरे नाम से जाने जाते हैं।
अखिलेश जी की कविता में गति है।कविता कहीं जा रही है।लय है।एक बेहतर प्रयोग अखिलेश जी।यह कविता अपने में एक यात्रा है।इतिहास से भविष्य की यात्रा।इस कविता में यात्रा के साथ साथ संवाद भी है।


दीप्ती कुशवाह                  
क़माल है कवियों की दृष्टि !! पत्थर भी इठला रहे हैं अपने भाग्य पर...।
इन सारे तैरते पत्थरों को इकठ्ठा कर लिया है । ये फूल बन कर मेरे ख़ज़ाने में जमा हो गए हैं और छाई हुई है इनकी सुगन्ध मेरे आसपास ।

आज कोई द्वितीय पुरस्कार नहीं है, मात्र प्रथम ।
हाँ, विंग कमांडर को विशेष पुरस्कार


घनश्याम दास सोनी 
कुछ विशेष पत्थरों को पानी में तैरते देखा अन्तरिक्ष में सभी प्रकार के पत्थर तैर सकते हें l liइस साकीबा रूपी अन्तरिक्ष में तो संस्कारों, आस्थाओं जीवन की उलझन , बचपन की यादों , महिलाओं की बेबसी तथा मठों मूर्तियों के रूप में पूजते पत्थर को तैरा दिया lll अनोखा है साकीबा जिसमे भाई भाई के बीच रिश्ते में आती दीवार के पत्थरों को  तेरा कर उसे स्थायी नहीं बनने दिया li सभी रचनाकारों को सलाम तथा lइस अनोखे विषय पर रचनाएँ आमंत्रित करने पर साकीबा संचालक समूह को बधाई व आभार, जिनके कारण किसी एक विषय पर इतनी शानदार तथा विविध विचारों की रचनायें पढ़ने मिली l

मधु सक्सेना 
पत्थर ...वो भी तैरते हुए ..
कितने नल और नील हो गए यहां तेरा दिए पत्थर .....हल्के ,भारी ,रंग बिरंगे जाने कितने कितने ....सबके अलग अलग पत्थर ...टूटता बिखरता हुआ , पिघलता हुआ , हंसता और रोता हुआ ।
मूरत बनता हुआ ..।
 जिसने जिस नज़र से देखा वैसा ही बन गया पत्थर ...भावों से भरा ,अपने ही भार से मुक्त तैरता हुआ ...
अलग अलग नज़र ....अलग अलग नज़रिया ..अद्भुत नज़ारा ..
आज पत्थर भी सर झुका लेगें ।जवाब जो नहीं उनके पास ..
सभी की मासूम और बेहतरीन रचनाएँ ..
शुभकनाएं ।

अविनाश तिवारी 
आज बृज जी ने गोटमार मेले.का आयोजन किया है।सब तरफ से अलग अलग अंदाज़ से रंग बिरंगे छोटे बड़े पत्थरों की बौछार हो रही है परन्तु टकराने पर ये फूल का एहसास दे रहे हैं तभी तो सब हस हस कर गन पत्थरों का सितम सह रहे हैं।सबने अपने अपने चश्मे से पत्थरों को देखा है और कल्पनाओं के औजारों से शिल्प तराशे हैं ।सभी संगतराशों का आभार संचालकजी और एडमिनजी का शुक्रिया।👌👍💐 



कविता वर्मा 
तैरते पत्थर शीर्षक अपने आप में एक व्यंजना है जिसके गहन अर्थ हैं। आज शामिल कवितायेँ एक शीर्षक के तहत अलग अलग भावों को प्रेषित कर रही हैं।
राजेंद्र श्रीवास्तव जी की कविता 'पृथ्वी तो भरी है पत्थरों से-' समाज में व्याप्त पत्थर दिलों की मौजूदगी को कितनी आसानी से बयान करती है।

 पृथ्वी की ओर आने को आतुर जैसे यही सबसे माकूल जगह है पत्थरों के रहने के लिए। वैज्ञानिक धरातल पर लिखी कविता मानवीय स्वाभाव फितरत को बयान करती है।
ब्रजेश जी की कविता
पश्चाताप के समुद्र में
आंसूओं का नमक मिला  
तो बिखर गया भारी पत्थर।पत्थर में मौजूद नरमी को बयान करते हुए उसके अंतस के दुःख के बिखर जाने को दर्शाती हुई बेहद खूबसूरत कविता है।
प्रवेश सोनी की कविता पौराणिक सन्दर्भ को वर्तमान तक सम्प्रेषित करती है
शायद ..!
तुम्हारी निःस्पृहता से  ही
भारी होकर
तिरते नही अब आस्था के पत्थर ...!! बड़ी मारक पंक्तियाँ हैं।
अनीता मांडा जी की कविता भटकते मन की कशमकश और उनके कोई मंजिल न पा पाने के दुःख को बयां करती है।
मधु जी की कविता तैरते पत्थरों के बहाने बचपन की सैर करवाते हुए जिव्वेन की गूढता की ओर इशारा करती है और सोचने पर मजबूर करती है।
बहुत अच्छी लगी आज की कवितायेँ बाकि कविताओं पर थोड़ी देर में।



जतिन अरोरा 
बहुत सुंदर रचना है। हर तरफ पत्थर और पत्थर...भूकम्प से लेकर नींव रास्ते के पत्थर. अंतरिक्ष में भी पत्थर...
पाठक के ताैर पर मैं अंत ढूंढ रहा था।  हर पहलू को उजागर करती रचना अंत मैं मुझे लटका गई। गहरी रचनाओं की मुझे कोई समझ नहीं है और शायद मैं अंत नहीं देख पा रहा हूँ।
आँसुओं में बड़े बड़े दुःख हल्के हो जाते हैं। पत्थर का आँसुओं से बिखरना और दुःख का तैर जाना खूब लिखा है..हर जीवन में कुछ एेसा है जो इस कविता में कहा गया है।


तनूजा चौधरी 
अनुमा,आपके पत्थर आज स्पन्दन से भर गये,ऐसे मे पत्थर होना कोई विडम्बना नही एक उपलब्धि लगती है विभिन्न कोणो से देखकर  कविताऐ जीवित लगने लगी है,दर्द का दर्द से गुणा नही किया जा सकता।बस।



संतोष श्रीवास्तव 
आज साकीबा का अद्भुत रूप देखने मिला ।कविताओं की बानगी और विषय तैरते पत्थर। क्या बात है। सब की एक से बढ़कर एक कविताएं। इतनी ज्यादा समीक्षाएं और प्रतिक्रियाएं पढ़कर अब मैं कुछ कहने लायक स्थिति में तो नहीं हूं। वैसे भी समीक्षक नहीं हूं लेकिन हां बस इतना कहूंगी कि मुझे कविताएं बेहद अच्छी लगी और साकीबा का आज का प्रस्तावित रूप भी बहुत अच्छा लगा ।खासकर विंग कमांडर अनुमा जी का मुस्तैदी से डटे रहना। इसी को कहते हैं स्त्री शक्ति जहां छा जाए वहाँ कमाल कर देती है। अनुमा जी बहुत बधाई ।सभी कवियों को भी बहुत बधाई। शुक्रिया।🌹


उदय ढोली 
बहुत अद्भुत उपक्रम रहाआज. पत्थरों में बहुत ख़ूबसूरत कविता के फूल खिले, साकीबा गुलज़ार हो गया विंग कमांडर अनुमा जी व ग्रुप केप्टन ब्रज जी को साधुवाद.
एक शेर
मील के पत्थर पे लिक्खे हर्फ़ सारे मिट गये,
किससे पूछें अपनी मंज़िल और कितनी दूर है.

कोमल सोमरवाल 
तैरते पत्थर विषय पर बेहतरीन सृजन और भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और भाव पढने को मिले.. ब्रजेश जी ने संस्कारों से, प्रवेश जी ने रामायण से तो अनिता जी ने विज्ञान और बन्धनों से और इस प्रकार सभी विद्वान् जनों की उत्कृष्ट लेखनी से इस विषय के हर आयाम को पढने में एक अनूठा आनन्द आया..    


               


              

           

Tuesday, December 6, 2016

बच्चे ,फूल से कोमल ह्रदय वाले जिनकी मासूमियत भरी मुस्कान दो जहाँ की दौलत लुटा देती है |किसे प्यारे नहीं लगते हँसते - खिलखिलाते  बच्चे |यदि यही मासूम खिलखिलाहट कहीं खोई खोई सी मिले , फूल सा कोमल ह्रदय मुरझाया हुआ मिले तो क्या कहेंगे आप उस बचपन को | चिंता का विषय  है बच्चो का अपने आप में गुम हो जाना |इस संजीदा विषय पर  परिचर्चा की गई वात्स अप के साहित्यिक समूह "विश्व मैत्री मंच " पर ,जिसकी मुख्य एडमिन है सु श्री संतोष श्रीवास्तव और परिचर्चा का विषय  दिया अमर  त्रिपाटी जी ने |चर्चा के दौरान कई बिंदु इस विषय पर सामने आये जिन्हें हम किसी भी हाल में नकार नहीं सकते |तकनिकी प्रिय जीवन आज मासूम  बचपन को  कहाँ से कहाँ ले गया ...विचार करने योग्य है की इसके लिए हम  किसे कुसूरवार ठहराए .....??

समूह के जागरूक सदस्यों ने इस परिचर्चा में अपने अपने विचार रखे
रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है समूह की परिचर्चा ****





बच्चे कही शिकार न हो जाये'
   मानसिक रोग के।
आने वाले दिनों में जो सबसे बड़ा खतरा हमारे जीवन मे हैं वह हैं मानसिक रोग का। यूथ तो इसके शिकार हो ही रहे है,पर ख़तरा बच्चो पर ज्यादा मंडरा रहा है।बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक पहुँचते पहुँचते जिस तरह से बच्चो मे मोबाइल फ़ोन और टेब की आदत पड़ती जा रही है उसका परिणाम यह हैं कि उनकी सम्बेदना धीरे धीरे कम होती जा रही है।परिवार में रहकर भी अकेले होते जा रहे है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की बहुतायत आबादी मानसिक रोग से त्रस्त हैं और उनको पता भी  उन्हें नही है।
मानसिक रोगों की दवा सस्ती है dr महंगे। समय रहते लोग डॉ के पास जाने से कतराते है।
समय रहते सचेत होने की आवश्यकता है। अगर बच्चे  लंबे समय तक मो 0 पर गेम खेल रहे है तो समय सीमा तय करने की आवश्यकता है।
गाँव में गरीबी थी ।इतनी सुविधा नही थी।बच्चे सुबह उठकर खेलते थे,दौड़ते थे, लोगो के साथ रहते थे,परिवार से जुड़े रहते थे।
शहर ने सुविधा  तो दी पर बच्चो को अवसाद भी दिया। पहलेसुबह उठकर रेडियो के गाने सुनकर दिनभर हँसते गाते थे।अब जानकारी को बढ़ाने में इंटरनेट ने मदद जरूर की पर बच्चे अकेले होते जा रहे है।

कुछ बाते ध्यान देने की है।
1
कही आपका बच्चा ख़ामोश तो नही होता जा रहा है,टीचर से पता लगाएं और टीचर से प्यार से ही बात करे।

2 बच्चो के सामने किसी भी हालत में झगड़ा न करे ।

3
अपने दुःख या किसी बड़े परेशानी की भी बात उनसे मत कीजिये

ख़ुशनुमा माहौल बनाये रखें, किसी नज़दीकी जिसे वो बहुत सम्मान करते हो उनके बारे में कोई झगड़ा या उनके अपमान की जानकारी  देने से बचें ।

सबसे महत्वपूर्ण
अगर आपका मान लो किसी सम्बन्धी से झगड़ा है तो आप भले सम्बन्ध तोड़ ले वहाँ  मत जाइये पर बच्चो को उनसे या खासकर उनके बच्चों से अलग मत कीजिये।

मूलमन्त्र


बच्चो को तो बच्चे चाहिए हरहाल में, अपने मतभेदों की सज़ा उनको मत दीजिये
🙏🏽
अमर त्रिपाठी
परिचय
लेखक और कहानीकार,कवि तथा चित्रकार तथा गुणवत्ता के आधार पर साहित्यिक रूप से सम्पन्न हर विधा में अंग्रेजी,मराठी तथा हिंदी भाषा में बिना धन लिए पुस्तक प्रकाशित करने के एक शानदार प्लेटफॉर्म स्टोरी मिरर में कॉन्सेप्ट एडिटर।



















एडमिन सुश्री संतोष श्रीवास्तव का कथन 
अमर त्रिपाठी द्वारा प्रस्तुत किए गए आज के विषय को लेकर मुझे मन्नू भंडारी लिखित आपका बंटी याद आ रहा है। वैसी ही पीड़ा और मानसिक स्थिति से  गुजरते न जाने कितने बच्चे आपका बंटी हो जाते हैं।

बच्चों का किसी बात पर उदास होना, चोट पहुँचना, उखड़ जाना और बढ़ती हुई उम्र में कई तरह की भावनाओं से गुज़रना सामान्य बाते हैं. लेकिन, कुछ बच्चों में ये भावनाएँ लंबी अवधि के लिए रह जाती हैं और उनके भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालती हैं.
अवसाद बच्चों के लिए एक बड़ी वास्तविक चिंता है. इसका असर बच्चों के सोचने, महसूस करने और उनके व्यवहार पर पड़ सकता है।
आज के प्रतिस्पर्धी युग में, बच्चों पर पढ़ाई लिखाई और अन्य गतिविधियों में बेहतर से बेहतर प्रदर्शन का अनावश्यक दबाव हो गया है. अभिभावक और शिक्षक इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि हर बच्चा अलग है. बच्चे को जबरन एक कट्टर सिस्टम और कड़े नियमों का पालन करने के लिए कहा जाता है। लेकिन इस दबाव को झेलना उनके लिए मुश्किल भी हो जाता है. बच्चों में अवसाद की एक प्रमुख वजहों में से एक ये भी हो सकती है क्योंकि वे अपना अधिकांश समय सीखने में ही बिताते हैं चाहे घर पर हों या स्कूल में. इसके साथ ही कई अन्य मनोवैज्ञानिक कारक भी हो सकते हैं जो बच्चे की मानसिक सेहत पर असर डालते हैं. ऐसे बच्चे जो भावनात्मक और मानसिक उतारचढ़ाव नहीं झेल पाते हैं, वे अवसाद के संभावित शिकार हो सकते हैं.।
वजह माता पिता के तनावपूर्ण या टकराहटभरे माहौल से लंबे समय तक बने रहने वाला मानसिक तनाव, मिसाल के लिए पिता नशा करते हों या माँ बाप के बीच वैवाहिक संबंध अच्छे न हों.।कई बार बच्चे सदमे वाली स्थितियाँ जैसे हिंसा, शारीरिक या मानसिक शोषण या उपेक्षा का भी शिकार हो जाते है। इस अवसाद से घिरा बच्चा खुद को व्यर्थ महसूस करता है. उसे अपना जीवन बेकार लगता है. उसे उदासी की भावना और नकारात्मक विचार लगातार घेरे रहते हैं और वह उनसे निकल नहीं पाता है.। अगर सचमुच अभिभावक बच्चों को लेकर  सही दृष्टिकोण अपनाएं हैं तो उन्हें बच्चों की सार-संभाल बहुत सावधानी से करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा।
 संतोष श्रीवास्तव




सरोज ठाकुर 
आज पटल.. हमारे आदरणीय अमर त्रिपाठी जी  ने.. बहुत  ही सुंदर महत्वपूर्ण विषय रखा है.. वाकई आज मोबाइल और टेब बच्चों की जरूरत नही आदत बन गई  है  आज सुबह से शाम तक बस इसी में व्यस्त रहते है..... जिसके चलते वे अपनो के बीच में  होते हुये भी अकेले  है। उनको लगता है कि उनकी खुशी इसी में है। क्यो कि आज हमारे बडों के पास भी अपने बच्चों के लिऐ वक्त नहीं है। आज हमें अपने बच्चों को इन सबसे बचाने के लिये पहल हमें करनी होगी... ऐ एक महत्वपूर्ण विषय है हम सबके लिये.....
डॉ निरुपमा वर्मा 
आदरणीय अमर जी ने ज्वलन्त विषय उठाया है । यहाँ बात मोबाईल , टी वी से ज्यादा चिंता का विषय है बच्चों की परवरिश में परिवार की चूक कहाँ हो रही है ?  मोबाईल आदि तो भौतिक संस्कृति है , जिस की गति हमेशा तीव्र होती है । यही कारण है कि अभौतिक संस्कृति उस से पिछड़ जाती है ।
सच है ये कि बच्चों ने हंसना ही छोड़ दिया है। यह भी तो एक कटु सत्य है कि जब बच्चे हंसेंगे नहीं तो गुमसुम रहेंगे तथा अपने आप में ही डूबे-डूबे और खोए रहेंगे जब यह स्थिति बनी रहेगी तो वह अपने ही विचारों की उठती उथल-पुथल के कारण मानसिक तनाव झेलेंगे। बच्चों को ऐसी हालत में देखना किसी भी तरह सुखद तो नहीं कहा जा सकता।

जब वयस्कों ने तनाव झेलना शुरू कर दिया है तो परिवार के बच्चे इससे अछूते कैसे रह सकते हैं। आजकल पैरेंट्स संतान के जन्म लेते ही तनाव में आ जाते हैं। वह दिन-रात इस चिंता में घुलने लगते हैं कि पता नहीं बच्चे का भविष्य क्या होगा? वह पढ़ाई में कैसा रहेगा? स्कूल में कैसा परफॉर्म करेगा। इसका मस्तिष्क किन विद्युत तरंगों को आत्मसात करेगा जिनके कारण वह जीनियस कहलाएगा। जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ उनकी पढ़ाई अथवा उनके परीक्षा परिणामों को लेकर ही लगातार बात करते रहेंगे कि उसे तो केवल परीक्षा परिणाम में अच्छे प्रतिशत लाना है और इसके अतिरिक्त न तो किसी बात के विषय में सोचना है और न ही ध्यान देना है। सच ये भी है कि बच्चा जन्म से रोने और हँसने के सिवा और कुछ भी सीखकर नहीं आता। यदि यह समस्या विकट होती गई (वैसे अब भी कम विकट नहीं है।) तो हंसना केवल एक यौगिक क्रिया रह जाएगी जिसे पूरी कृत्रिमता के साथ योग करते समय एक क्रिया तक करना सीमित रह जाएगा। जब तक यह क्रिया जारी रहेगी लोग हंसेंगे तो नहीं पर हंसने की आवाजें जरूर निकालेंगे। शायद हम वर्तमान पीढ़ी को यहीं तक सीमित रहने की बंदिश में बांध रहे हैं। यदि ऐसी नौबत तक नहीं पहुंचना है और बच्चों की स्वभाविक और प्राकृतिक हंसी को लौटाना है तो कोशिश करें कि वह कुछ समय अपने फ्लैट या घर से निकलकर अपने हम उम्र साथियों के बीच जाएं।
मनोवैज्ञानिक हेरियट मैक्समिलन ने अपने पांच सहयोगियों के साथ काॅलेज मे अध्ययन करने वाले लगभग पांच हजार युवकों की प्रवृतियों का अध्ययन किया। अध्ययन से यह पता चला कि जिन युवकों की बचपन मेें पिटाई होती थी, उनमें से 21 प्रतिशत युवाओं में उग्रता के लक्षण पाए गए। 13 प्रतिशत शराब और नशीली दवाओं के आदी हो गए। 12 प्रतिशत अपराधी प्रवृति वाले, 10 प्रतिशत उम्र के हिसाब से कम बौद्धिक स्तर वालें तथा 9 प्रतिशत गंभीर मानसिक तनाव से ग्रस्त पाए गए। एक अन्य मनोवैज्ञानिक का कहना है कि अति किसी भी चीज की बुरी होती है, चाहे वह बच्चों के साथ अति प्यार की बात हो या मारपीट की, बच्चों के साथ हमेशा की जाने वाली डांट-डपट या मारपीट से बच्चा डरा सहमा रहता है। इस वजह से उसके काम में गलतियां अधिक से अधिक होती है जरूरी नहीं कि इसके परिणामस्वरूप बच्चें उग्र स्वभाव के ही होते है या कि गलत दिशा की ओर ही अग्रसर होते है। कई बार ऐसे बच्चें बिल्कुल चुप हो जाते हैं। वे दब्बू और डरपोक हो जाते है। उनका आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। उनकी निर्णय क्षमता तो प्रभावित होती है, साथ ही उनका बौद्धिक विकास भी रूक जाता है। कई बार बच्चें कुछ ऐसे कदम भी उठा लेते है, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
शोधकर्ता मैरीलीन कैंपबेल ने कहा कि डर और मानसिक तनाव के बीच सीधा संबंध है। ज्यादातर बच्चे जिन गतिविधियों में आनंद अनुभव करते हैं उन्हीं से कुछ बच्चे डरते हैं।
शोधकर्ताओं ने कहा कि यह कोई निष्कर्ष नही है लेकिन यह एक संकेत है कि डरपोक बच्चे भविष्य में तनाव के शिकार हो सकते हैं। जीवन भर तनाव से गुजरना एक त्रासद अनुभव है। अगर हम बच्चों में पहले ही तनाव के कारणों का पता लगा लें तो यह उनके भविष्य के लिए बेहतर होगा।
अपर्णा शर्मा 
आदरणीया ड़ाॅ.निरूपमा जी - आपने बच्चों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आधार पर उनके अंदर ही अंदर एकाकी होते जाते और गलत आदतों के शिकार होने के प्रभावी विचार रखें हैं । आजकल के एकल परिवारों में जहाँ अधिकांश युगल में से दोनों नौकरीपेशा वहाँ बच्चों को पर्याप्त समय और देखरेख न दे पाने अभाव में बच्चे स्वाभाविक रूप से सहज उपलब्ध सोशल वेब साइट्स और इंटरनेट के माध्यम से खुद को व्यक्त करने और एकाकीपन दूर करने का जरिया बना लेते हैं जहाँ गंभीर रूप से छिपी पहचान वाले अपराधी,   विकृत मानसिकता के लोग आसान शिकारों को अपनी चपेट में जकड़ लेते हैं । बच्चों का कोमल भावुक मन सही-गलत की पहचान न होने के कारण अक्सर ही गलत संगत में पड़ जाता है। हर परिवार में बच्चों के साथ रोज आत्मीय संवाद और उनके मित्र और गतिविधियों पर नजर रखना आवश्यक है। ये भी कि वे सोशल वेबसाइट्स पर किस तरह की गतिविधियों में लिप्त हैं या कैसे दोस्त रखते हैं ।

मैंने स्वयं देखा है कि परिवारों में बच्चों को साथ लेकर चला जाता है और  आपसी संवाद के जरिए उनको स्वयं को व्यक्त करने पूरा मौका दिया जाता है वहाँ बच्चे मानसिक रूप से अधिक मजबूत होते हैं ।

सुरेश राजन अय्यर 
        आज का विषय बच्चे . बहुत ही गंभीर विषय है. मेरा ये मानना है कि बच्चे कभी भी गलत नहीं होते. उनके मातापिता जिम्मेदार होते हैं. बच्चे वही करते हैं जो उनके मातापिता करते हैं इसलिए किसी भी पालक को बहुत सोच समझ कर हर काम करना चाहिए . Child psychology में बच्चा छे साल की आयु तक बहुत कुछ सीख लेता है. उसके बाद  वह बच्चा अपने सीखे हुए बातों को अपने जीवन में अमल करता है. यह बात भी सच है आपका बच्चा ही आप को माता या पिता बनाताहै.  इसलिए बच्चोंकी देखभाल में मातापिता की बहुत बडी नैतिक जिम्मेदारी होती है . -  सुरेश राजन अय्यर 


महेश दुबे 
आदरणीय अमर त्रिपाठी जी का इतना संक्षिप्त परिचय चौंका गया।  दरअसल ये किंग मेकर हैं । परदे के पीछे रहने के उस्ताद । विषय बहुत अच्छा चुना है जिसपर विद्वानों ने खूब लिखा भी है।  कुछ और कहने की योग्यता तो मुझमें नहीं है । इसी विषय पर एक अपनी रचना प्रस्तुत है ।



बल्ली

           आज फिर बल्ली को खूब पीटा । दोनों हाथों से बाल पकड़ कर इतनी जोर से खींचे कि कई सारे तो जड़ से उखड़ गए । गालों पर तड़ातड़ इतने तमाचे जड़ेे कि गोरे गाल सिंदूरी लगने लगे और उनपर उँगलियों की छाप उभर आई। पीठ पर घमाघम कई मुक्के धरे पर मजाल है जो इस लड़के के मुंह से चूँ भी निकली हो। आँखों से पानी छलछला आया आँखें ऐसी लाल हो गई मानो सुबह का सूरज हो पर इसने मुंह नहीं खोला । परसों रात को रमन की दूकान से चांदी की जो ठाकुर जी की मूर्ति ले आया था और कल एकादशी को पंडित जी को दान करनी थी वह इस बल्ली के बच्चे ने किसके हाथ बेची वह नहीं बताया। मुझे खूब याद है । रमन की दूकान से डिबिया लेकर निकला और लाकर सीधे मंदिर की दराज में रखी । रास्ते में न कहीं रुका न किसी से मिला । अब देखा तो केवल रसीद और खाली डिबिया । तो क्या ठाकुर जी कहीं उड़ गए? वैसे भी जब डिबिया रख रहा था तब बल्ली महाराज पलंग पर लेटे दीदे फाड़े देख रहे थे।और कल शाम शिवलोचन ने इसे गुरशरण छोले वाले के यहां छोले और कुल्फी उड़ाते अपनी आँखों से देखा था।
        जब से इसकी माँ मरी है ये लड़का मानो मेरी जिंदगी का नासूर हो गया है । न पढ़ना न लिखना। केवल मुहल्ले के नालायकों की संगत और मुझे दुःख देने के सारे उपक्रम करता रहता है । ढीठ भी इतना हो गया है कि किसी तरह काबू में नहीं आता । बस ओठ सी लेता है। और चुप्पे से भला कभी जीता है कोई ? पर आज मैंने भी पूरी भड़ास निकाली । पीट पीट कर बेदम कर दिया और जब खुद थक गया तो बाजार को निकला। आखिर सुबह ही रामाधार शास्त्री जी दान लेने प्रकट जो हो जाते । रमन की दूकान में घुसते ही दूर से उसने पालागन की,और नजदीक आकर बोला,भइया आज कल कहाँ खोये रहते हो? परसों पैसा दिए रसीद कटवाए और ठाकुर जी को यहीं भूलकर खाली डिबिया लेकर चल दिए? इतना कहते उसने ठाकुर जी की नन्ही सी मूर्ति काउंटर पर रख दी। मेरे मुंह से बोल न फूटा । लाल रेशमी कपड़े में लिपटे ठाकुर जी मानो मुझे घूर रहे थे ।

                        महेश दुबे      

रूपेंद्र 
आदरणीय अमर जी प्रिय अपर्णा जी सर्वप्रथम तो आप दोनों को हार्दिक बधाई मंच पर द्वीय संचालन की।👏👏👏🌹💐
आदरणीय अमर जी एक सामयिक विषय पर आज आपका लेख परिचर्चा हेतु सटीक एवं सार्थक लेख हुआ।आज अपने आसपास घटता हुआ बच्चों का मानसिक स्तर देखने को मिलता है।संस्कार और सभ्यता से छूट कर आधुनिकता के अंधेपन का अनुसरण करते हुए हमारे भविष्य गर्त में गिर रहे हैं।न चाहते हुए भी अभिभावक यह सब सह रह रहे हैं। तकनीक के साथ समझौता हमें भारी पड़ रहा है।छोटे बच्चों का मानसिक विकास भी शिथिल हो रहा है जो अपने वातावरण में पनपता है वह अस्वाभाविक ढंग से विकसित हो रहा है जो उनके और सामाजिक भविष्य के लाए भी घातक है।स्वास्थ्य पर विपरीत असर छोड़ने वाले तथा मानसिक रूप से दुर्बल करने वाले मीडिया के यह उपकरण हमारे विकास के नहीं नाश को द्योतक न बन जाएं।सहज रूप से एक खिलौना लगने वाला उपकरण शिशुओं को पकड़ा दिया जाता है उसके रंग बिरंगे पटल उसके मनस पर विपरीत प्रभाव डालते हैं उसका खान पान सब प्रभावित होता है जिसका परिणाम उसके मानसिक व शारीरिक विकास पर पड़ने लगता है।

ईरा पन्त
गरीब बच्चे दिल से अमीर होते हैं, दिल खोल के हँसते है ख़ुशी बांटते है इसलिए शायद उदासी उनके पास आने से डरती है ।
🙏 सार्थक पोस्टर।

आज की परिचर्चा का विषय बहुत ही संवेदनशील है।
आधुनिकता के रंग में रंगे बच्चों का सबसे आकर्षक खिलौना आज मोबाइल ही है। कितना भी रो रहा हो बच्चा हाथ में मोबाइल आते ही चुप।
बच्चों को खाना खिलाना आज हर माँ पिता की समस्या है, और तब टीवी, मोबाइल या टैब, का ही सहारा होता है।
असल में बच्चे नहीं माँ बाप ही इस समस्या के जनक हैं। बालू में मत खेलो, पत्थर न उठाओ, भाई तो स्वाभाविक विकास कैसे होगा उनका।

मुझे लगता था काश मेरी पोती जो अमेरिका में है, बालू मिट्टी पानी से जी भर खेले, पर कैसे? लेकिन जब मैंने उसका स्कूल देखा तो मन तृप्त हो गया। यहाँ 5 बरस तक बच्चे सिर्फ और सिर्फ खेलते हैं और बालू के टीले, पानी, बागवानी सब से जी भर खेलते हैं बच्चे।
एक बैडमिंटन खिलाड़ी क्लब में अपनी जुड़वाँ बच्चियों को लाता है। दोनों को टैब दे रखा है। जब तक वो खेलता है, यानी 3 घण्टे,  बच्चियां टैब में उलझी रहती हैं।
एक बात यह भी है कि वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों को बहुत लाड़ प्यार से पाल रही है। आत्मविश्वासी हैं आज के बच्चे। हमारी तरह डरपोक नहीं।

बच्चों से पेरेंट्स की दोस्ती ज़रूरी है। हर बच्चा अपने पैरेंट्स से हर बात शेयर कर सके ताकि कोई उसे भयभीत न कर सके और न शोषण।

मेरा बेटा जब मेरी बात नहीं मानता था तो कई बार ख़ुशी होती थी कि वह अपने निर्णय खुद ले रहा है।

अपने झगड़े मतभेदों, दुश्मनी से नन्हों को अछूता ही रखना चाहिए ताकि कोमल मन मुरझाने न पाए।
और अवसाद से न भरे।

कच्ची मिट्टी से हैं ये बच्चे, इसे सुन्दर आकार दीजिये,
असमय न मुरझाये कोई फूल ये  जतन कीजिये,
घर, समाज, देश की पहचान हैं, शान हैं ये बच्चे,
इनके नन्हे सपनों को साकार कीजिये।
🙏
ईरा पन्त


जयश्री 
माँ बाप आज की परिस्थिति में माता पिता बच्चों में संस्कार दाल ही नहीं प् रहे हैं 
बच्चे जब ढाई साल का होता है उसे किसी नर्सरी स्कुल में दाल दिया जाता है जहाँउसे एक प्रोफेशनल शिक्षिका मिलती है जिसका उद्देश्य अपनी दाल रोटी होता है उसे बहुत कम पैसा मिलता है जिससे उसकी आवश्यकता की पर्ति नहीं होती
उसका व्यवहार बच्चों के प्रति म
उतना स्नेह मयि नही होता 
मेंजितने स्नेह की आवश्यकता बच्चे को होती है

बच्चा माँ के स्नेह से वंचित भी रहता है  हम इस गलत फहमी


सुनीता जैन 
अमर जी
नमस्कार!
आज आपने चर्चा को जो मुद्दा उठाया है वो बेहद अहम् है, ज़िम्मेदाराना है और सामयिक भी!
  मैं जब 87में सरिता ,धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,गृहशोभा में लिखना शुरू हुई ,तब भी ऐसे विषयों के आलेख की माँग होती थी ,मैंने लिखा भी! किंतु हर युग में ये समस्या जस की तस सो लेखन भी सामयिक!
     पहले मोबाइल और इंटरनेट नहीं थे ,तो भी समस्या थी, बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक वे कुंठाओं का शिकार ,गलत संगत या नशे में लिप्त हो जाना ,घर से भागना ,असफल प्रेम में आत्म हत्यायें या शिक्षा की असफलता से आहत हो जीवन बर्वाद कर लेना --- कुछ ऐसी समस्याएँ हैं ,जिनसे बाल मन को आहत होने का विशेष डर बना रहता है ,तब भी / अब भी! 

 आपके लेख में सब कुछ दर्शाया ,समझाया है ,अनुभव भी हैं तो तथ्य भी! 


नीलम दुग्गल 
 बढ़िया विषय। 
यदि बचपन स्वस्थ (मानसिक तौर पर भी) होगा तभी एक स्वस्थ समाज की रचना संभव है। पर हो इसके विपरीत रहा है। मैंने एक स्कूल ज्वॉइन किया कुछ वर्ष पूर्व। वहां अनुशासन की समस्या इतनी विकराल और विकट थी कि पूरे पी जी टी स्टाफ ने रिजा़इन देने की ठान ली। फिर चेयरमैन ने बुला कर बात की कि ज्यादातर बच्चे टूटे परिवारों से थे। धीरे-धीरे समस्याएं समझ आने लगी और कई केस सुलझाए भी। पर बच्चों को समझाना आसान था बनिस्पत मां बाप के।                        

 बच्चे बड़ों से बचने के लिए भी मोबाइल टैब में व्यस्त रहना पसंद करते हैं


सुरभि पाण्डेय 
हाजिर हूँ अमर जी, बात तो अभी करनी बाक़ी हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी.......
लेकिन आप जो मुझे ये विनम्र कहते हैं तो मेरे बच्चे बड़ा हँसते हैं, वो कहते हैं कि ये जोक ऑफ़ द डे नहीं, इस सदी का सबसे बड़ा मजाक़ है😀
मैंने भी कह रखा है कि दरअसल अमर जी ही हमें सही समझे हैं🌹
हाँ मैं चर्चा को हमेशा बल देना चाहती हूँ ,बल्कि सच कहूँ तो सच बात कहने से वो बलशाली हो जाती है, मेरी ही नहीं किसी की भी बात!!!!!!!!!
अभी दो तीन दिन पहले एक कहानी पढ़ी, एक आदमी घर में आये हर पुरुष मेहमान पर शक करता है कि वो उसके छोटे से घर में उसके बेटे के साथ वैसे ही यौन दुराचार करेगा जैसा उसके साथ उसकी किशोर उम्र में हो चुका है, घर आये हाई प्रोफ़ाइल मेहमान के द्वारा........कहानी का नायक साल में कई बार रातों को यूं ही जागता , चक्कर काटता रहता है, यहाँ तक कि बीवी के प्रिय कज़िन पर भी शक की सुई, जाते वक्त दोअर्थी कमेंट्स!!!!!!!!

न मेहमान को बात समझ आती है न बच्चों को और बीवी को तो आख़िर आख़िर तक.....बस कथाकार ने गोपन तऱीके से पाठक को बता रखा है उसके बचपन का ब्लैक पार्ट😌

मौक़ा मौज़ू है एक बात और निवेदित, अंग्रेजी की कहावत है कि ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं रह सकता इसलिये वो माँ बनाता है, लेकिन ये माँ बस माँ ही बनी रहे तो अच्छा , कभी कभी ये माँ मासूम बचपन पर प्रेत की तरह से चढ़ जाती है और फिर ये प्रेत बेताल सिद्ध होता है, कभी बच्चे के सर से उतरता ही नहीं है।

कभी कभी ये प्रेत की तरह से बच्चे के अंतर्मन पर सवारी करने का काम पिता श्री भी करते हैं, लेकिन उनका प्रतिशत थोड़ा कम होता है।चूंकि मां को पूरा समाज दबाये रखता है तो बच्चा हाथ में आते ही वो उसे अपनी निजी संपत्ति समझती है फिर उसके स्वतंत्र विकास का सत्यानाश करती है और जब तक जीवित रहती है करती रहती है, कई बार तो बच्चे समझ ही नहीं पाते कि इसके मरने पर हंसें या रोएं।

लेखा सिंह 

आज परिचर्चा के लिये जिस विषय का चुनाव किया गया है वो वाकई ज्वलंत है।

आज के अभिभावक निस्संदेह अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिये जी तोड़ मेहनत तो करते हैं परन्तु अपने ही बच्चों को उनके हक का समय दे नहीं पाते। और यहाँ ये कहना गलत नहीं होगा कि बच्चों को समय देना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि हम अपने आपको देते हैं।

अमूमन यही पाया जाता है और देखा भी जाता है, कामकाजी अभिभावक स्वयं के आराम करने में कोई बाधा न हो करके अपने बच्चों को उनके पसन्द के चैनल देखने या मोबाइल व् टैब ने उनके पसन्द के खेल खेलने की मंज़ूरी दे देते हैं जो सरासर गलत है।

अब, यदि आप इन कामकाजी अभिभावकों (सभी नहीं ) से कहेंगे कि ये सही नहीं है तो उनका जवाब यही होता है कि.... बाहर से थककर घर आते हैं तो थोड़ी सुकून की साँस चाहिये होती है, अतः उन्हें उनके हाल पर छोड़कर ज़रा सा आराम कर लेते हैं...... अब, इनका कहना भी गलत नहीं होता है। आज की भाग दौड़ की जिंदगी की भी यही माँग होती है। परन्तु..... इन सभी परिस्थितियों में सामन्जस्य बिठाकर, यदि चला जाय तो बहुत कुछ सम्भव हो सकता है। मसलन, बच्चों को समय देकर उनके साथ quality time  बिताना। और समय बिताते हुये उन्हें व्यवहारिक जानकारियाँ भी दे सकते हैं।

मेरा भी यही मानना है कि बच्चे जो देखते हैं, सुनते हैं, वही सब उनके आचरण में शनैः शनैः घर करने लगता है। अतः हम अभिभावकों को चाहिये कि उनके समक्ष आपस में सन्तुलित व्यवहार करना चाहिये। हमारा यही  सन्तुलित व्यवहार हमारे बच्चों में शिष्टता व् व्यवहारिकता लाएगा जिसकी भविष्य में उनके सफल होने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उनके सही मार्गदर्शन हेतु उनके समक्ष हमे एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।
हम स्वयं अनुशासन ने रहकर बच्चों को अनुशासित कर उन्हें शिष्ट व् व्यावहारिक बना सकते हैं जो हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
मैं स्वयं दो वर्ष से, शिक्षिका पद से इस्तीफ़ा देकर अपने पुत्र के साथ समय व्यतीत कर रही हूँ और उसमें सकारात्मक बदलाव देख रही हूँ ।
मैंने जो भी लिखा है वो केवल शब्दों का समूह नहीं है बल्कि मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है जिसे मैं इस ज्वलंत विषय पर, पटल  पर साझा करना चाहती थी।
अब, आप श्रद्धेय जनों से मार्गदर्शन की अपेक्षा है।

............ लेखा ...............

आशा रावत : 
अमर जी! बहुत महत्वपूर्ण विषय उठाया आपने।आज के बच्चे बचपन को इंजॉय करें तो कैसे? न वे खेल के मैदान रहे न वह सामाजिक साहचर्य का तानाबाना।एकल परिवार में एकाकी से बच्चे हैं।माता पिता के पास भी उनके लिए इतना समय नहीं है । पर हल तो उन्हीं को निकालना है ताकि आगे स्थिति विस्फोटक न हो।उन्हें अपने बच्चों को भरपूर समय देने के साथ ही शाम को किसी हाॅबी क्लास में डालना चाहिए । इससे उनमें एक अतिरिक्त रचनात्मक व्यस्तता आएगी, जो दिमाग को खालीपन से उपजी कुंठाओं से बचायेगी।                        
 Madhu Saksena: 

अमर जी .....विषय हमारे नोनिहालों से जुड़ा है जिनकी परवाह हमे है ... पर क्या हम पूर्ण माता -पिता है .? बच्चों के साथ कहाँ कैसा व्यवहार करना चाहिए क्या ये हम जानते हैं ? अपने में झांक कर देखें क्या हर बार हमने सही किया .. क्या उनके सामने झूंठ नही बोले ,किसी की बुराई नही की , काम चोरी नही की ..? पापा को मत बताना या चॉकलेट या कोई चीज का लालच देकर काम करवाना ..नही किया ?

बात बच्चों को नही खुद को  सुधारने की है ...बच्चे उपदेशों से नही अनुसरण से सीखते है ।
मुझे तो लगता  है कोर्स होना चाहिए बच्चों को पालने का ।उस कोर्स को किये बिना माता -पिता बनने की इज़ाज़त न हो ।

बच्चों को मोबाइल से खेलना या फास्ट फ़ूड खाना कौन सिखाता है ? हम अपनी सुविधा के लिए उन्हें मोबाइल , टैब , इंटरनेट सब मुहैया करा देते है ..वो जब उसके आदी  हो जाते है तो चिंता करते है ।बच्चों को सुधारने की बात करते है। पत्तों को खाद पानी देते है, जड़ को भूल जाते हैं । सदियों से यही चल रहा ।और सदियों से चिन्ता चल रही ।और नतीजा वही 'ढाक के तीन पात ' । शब्दों की जुगाली कर के थक कर बच्चों के हाथ में खिलोना पकड़ा कर सो जाते हैं । 

मन्नू भंडारी के 'आपका बंटी ' ही नहीं मुझे तो  ' हज़ार चोरासी की माँ ' भी याद आ गई ।

अर्पणा ....अमर जी .. जो कुछ आज इस मंच से कहा जा रहा है ... अमल  में भी हो। ... बच्चे तो गीली मिट्टी है .. आकार के आकांक्षी .. 

आवेश में  बहुत कह गई ... मन दुखी हो गया ... सबसे पहले अपना गिरेबां देखना है ।हमारा बचपन जैसा भी बीता हो अगला बचपन अपनी पूरी ऊर्जा और विश्वाश से जिए ।दुआएं है ।

     .......मधु सक्सेना ....

गीता भट्टाचार्य 
बच्चे कोमल मिट्टी कीतरह होते हैं।जिन्हें  माती-पिता जैसा चाहेआकार दें।आजकल  माता -पिता अतिमहत्वाकांक्षीहोगये हैं।हर किसीको अपना बच्चासवॆगुणसंपन्नचाहिए।हरकोई अपना बच्चा डाॅक्टर,इंजीनियर ,कलेक्टर ही बनाना चाहता है।बच्चे की चाहे संगीत-नृत्य ,चित्रकला,खेलकूद की ओर  रूझान क्यों न हो।बस यहीं से शुरू हो जाती है जद्दोजहद।बच्चे पर माता -पिता अपनी इच्छा  थोप देते हैं बच्चा बनना चाहता है कुछ और बन जाता है कुछ और फिर आजकल  एकल परिवार का चलन है।जहाँ
माता-पिता दोनोंकामकाजीहैं ।सो बच्चों  को समय नहीं  दे पाते बदलेमे वे भारीजेबखचॆ,मोबाईल,लेपटाप,गाड़ी इत्यादि दे देते हैं ।इसके साथ ही बच्चे को अगर गलतसंगति मिल गई तो सोने पेसुहागा होजाता है।इसीलिए कहा जाता हैअति सवॆत्र वजॆयेत"।अतः माता -पिता को बच्चोंकी परवरिशके लिए बच्चों के भीतर झांकने कीजरूरत होती है।बच्चा क्या चाहता हैइस पर सबसे पहलेध्यान दें।
किशोरवय के बच्चे शारीरिक -मानसिक परिवर्तन के चलते वैसे ही परेशान रहते हैं तिस पर परिवार से पूणॆ सहयोग न मिल पाना उन्हें कुंठित करदेता है।परित्यकता,तलाकशुदामाताएँ या विधुर पिता बच्चों के खचॆ जैसे-तैसे उठा लेते हैं लेकिन  बच्चों  की मानसिक अवस्था काआंकलन ठीक  से नहीं  करपातेऔर उन्हे अवसादग्रस्त कर देते हैं ।अतः माता-पिता अगरसुयोग्य,मजबूत बच्चेचाहते हैं तो बच्चोंकी मनोदशा की ओर अवश्यध्यान देवेउन्हेंभरपूरप्यार देवें।पति-पत्नी  के आपसी संबंध भी मजबूत होने चाहिए ।अपने -अ पने अहं का त्याग
करें क्योंकि माता-पिता की असली संपत्ति है सुयोग्य बच्चे जिनके लिए उन्हें भी सुयोग्य होना पड़ेगा।
गीता भट्टाचार्य


शरद कोकास 
धन्यवाद अमर जी मैं आपके प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूं कि आपने आज चर्चा का यह बहुत महत्वपूर्ण विषय उठाया है।
 सभी लोगों ने बहुत अच्छे विचार दिए है ।
दरअसल यह इतना व्यापक विषय है कि इस पर काफी कुछ लिखा जा सकता है । हम लोग मध्यवर्गीय हैं इसलिए हम अपने वर्ग के भीतर सबसे पहले इन चीजों को देखते हैं लेकिन जहां तक बच्चों की मानसिकता और उनके विकास की बात है वे एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां पर सभी वर्गों के लोग रहते हैं इसलिए उनका अपरिपक्व मानस और उसकी निर्मिति पर भी विभिन्न वर्ग के बच्चों का प्रभाव पड़ता है जैसे एक वैज्ञानिक के घर के बच्चे को उसके घर काम करने वाला एक नौकर भी भूत-प्रेत जादू-टोने जैसे अंधविश्वास उसके मन में डाल सकता है । इसलिए यदि हम समग्रता में इसे देखें तो यह एक सामाजिक प्रश्न है जिसका हल हम सबको मिल जुलकर ढूंढना है ।
मैंने इस विषय पर काफी लिखा है और एक पुस्तक मस्तिष्क की सत्ताभी इस विषय पर फिलहाल लिखना जारी है जिसमें संस्कार , व्यक्तित्व ,सेल्फ सजेशन के नियम जैसे विषय शामिल है । इन विषयों पर लगातार चर्चा होनी चाहिए।


ज्योति गजभिये 
बचपन फूल सा कोमल, उसे पुष्पित और सुगंधित होने के मध्य कोई भी बाधा नहीं आनी चाहिये पर ऐसा कई बार नहीं हो पाता और बच्चे झेलते हैं उदासी, तनाव , अकेलापन ....जैसे क्यारी को काँटे की बाड़ से बाँध दिया हो....
आजकल ही डिप्रेशन बच्चों पर हावी होता है, यह कहना गलत है, जैसा कि सुनीता जी ने बताया पहले भी पत्रिकाओं में इस विषय पर लेख आते रहे हैं, पहले भी बच्चों का शारीरिक, मानसिक शोषण होता आया है जिसे भूत-प्रेत बाधा या किसी की बुरी नजर या साया कह टाल दिया गया, आज पालक जागरूक हो गये हैं, वे बच्चों को मनोचिकित्सक के पास ले जाने का साहस करते हैं, इसे योग्य भी समझते हैं, आधुनिक युग में कई समस्याओं के साथ एक यह भी समस्या उभरी है कि पति -पत्नि दोनों नौकरी करते हैं और उनके पास बच्चों के लिये समय नहीं होता , कई दम्पत्ति तो शीघ्र बच्चे ही नहीं चाहते क्योंकि जो धरती पर पैदा हुआ वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व बनने वाला है उसे अपने हिस्से की धरती अपने हिस्से का आकाश चाहिये, बच्चों को पैदा करने से पहले उनके पालन-पोषण के विषय में जानकारी आवश्यक है.
हमारे समय में इतनी जल्दी विवाह होते थे कि माता-पिता खुद बच्चे होते थे, उन्हें क्या जानकारी बच्चों को पालने की बड़े लोग भी कई बार योग्य सलाह नहीं देते थे, पल जाते थे बच्चे मार खाकर, या अत्याधिक लाड़ पाकर, आज उम्र वाले माँ-बाप है फिर भी दूसरी समस्यायें हैॆ.
बहुत कुछ लिखना था पर संभव नहीं है,
अमर जी ने इस विषय पर लिखने के लिये प्रवृत किया, धन्यवाद

ज्योति गजभिये


डॉ लता 
अभी जस्ट यूनिवर्सिटी से सेमिनार अटैंड कर आ रही हूँ। संयोग वहाँ भी यही चर्चा महिलाओं में कि बच्चों को समय नहीं दे पा रहे। कहीं यह विवशता है तो कहीं महत्वाकांक्षा । किन्तु सत्य यही है कि  परिस्थितियां सभी के लिए विकट हैं। कुछ बच्चों की मानसिकता में भी अंतर आया है। जो बच्चे कभी तेज आवाज से डरते थे, अंधेरों से उन्हें भी लगता था आज वे तेज स्वर में संगीत सुनना पसंद करते है। सस्पेंस के नाम पर भूतिया फिल्में पसन्द करते हैं। इन्हें देखकर लगता है बच्चे मानसिक रोगी हो चुके हैं।
डॉ लता

Varhsa Raval:
अमर जी ,आपको साधुवाद इतना सम्वेदनशील विषय देने के लिए । सुबह से अकुलाहट है कि इतना विस्तृत विषय संकुचित कैसे हो , कहाँ से बात शुरू की जाए । जिससे एक नवजात शिशु से लेकर अच्छा इंसान बनने तक की सफल कहानी निहित हो , लेकिन बात  कहीं से तो शुरू करना ही है।
,,आजकल बच्चों को नींद सुहानी नही आती
क्योंकि दादा दादी को कहानी नही आती,,
वैसे भी अब संयुक्त परिवार रह कहाँ गए हैं जो बच्चों में प्रेम, सहयोग, सामंजस्य, कर्तव्य , और भावनाओं से रूबरू करवा सकें,, खैर संयुक्त परिवार एक अलग तरह का विषय हो सकता है जिस पर शायद फिर कभी चर्चा हो । लेकिन फिर भी बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उसकी भूमिका को नज़रअंदाज़ करना सही न होगा । एकल परिवार में बच्चों की मानसिक स्थिति और यूँ कहूँ कि स्तर भी बनाने में अभिभावक की भूमिका होती है , निश्चित ही पूरी तरह से तब तक , जब तक वो स्कूल नही जाता उसके बाद ही धीरे2 बाहर की दुनिया से उसका सामना होता है और उसके लिए बेहद मुश्किल समय भी होता है क्योंकि तभी उसे माता पिता के अलावा और लोगों के साथ भी सामंजस्य सीखना होता है । अगर घर में माता पिता जो अक्सर दोनों ही जॉब पर होने लगे हैं तब परवरिश उचित तरह से हो नही पाती क्योंकि दो कुंठाग्रस्त लोग जो ऑफिस और घर की ज़िम्मेदारियों में खुद दिमागी रूप से असन्तुलित हों उनसे किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा कर सकता है बच्चा, ऐसे में इतने छोटे से दिमाग में तमाम परेशानियां लिए घूमता है बच्चा , जो उसे मानसिक रोगी , मोबाइल , टीवी या वीडियो गेेम का एडिक्ट बना देता हैं  । इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण है माता पिता के आपसी सम्बन्ध। दोनों का एक दूसरे के प्रति सम्मानजनक न होना बच्चे में भी वैसा ही इंसान बनने की बीज डालता होता है , कुछ अवसरों में ये अपवाद अवश्य हो सकता हैं । हमने डाकू को इंसान बनते और इंसान को डाकू बनते भी देखा है । लेकिन मूल में हमेशा ही एक नर्म दिल बच्चा होता है जिसे समय रहते पहचाना सुधारा जा सकता है। जीवन मूल्य क्या है ,वही जिसे करते देख बच्चा बड़ा होता है । हमेशा बच्चे पर रोक टोक नही किया जाना चाहिए, उसे खुद ही परिणाम तक पहुंच पाने में सक्षम बनाना चाहिए , निर्णय लेने की क्षमता भी सिखाना चाहिए । दूर से देखकर सही गलत की पहचान करवाना ज़रूरी है बनिस्बत अपनी मर्ज़ी थोपने के। अक्सर हम बड़ों की आदत होती है अपनी छोटी बड़ी गल्ती दूसरे पर थोपते हैं , एक बार भी नही सोचते कि वजह क्या हो सकती है । पिता गल्ती पत्नी पर ,बच्चा अपने भाई बहन पर ,बॉस अपनी गल्ती कर्मचारियों पर आप चाहे कोई भी रिश्ता देख लें । ऐसा करके हम अपने अहम्  को ही सन्तुष्ट करते हैं ।ऐसा इसलीए कि हमने यही सीखा है , अपने को निर्दोष साबित करने के लिए दूसरों को वजह बता दो ,जिस दिन अपना मूल्यांकन करने की बात हम सोचने लगेंगे तब निश्चित ही बेहतर समाज बनेगा जिसके कर्णधार होंगे आजके नौनिहाल।
मेरा अपना मानना है कि बच्चे में किसी भी तरह की कला का विकास उसे मानसिक टूटन से न केवल बचाता है बल्कि उसमे विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ना और जीतना सिखाता है सो हमे ध्यान देना होगा कि उसकी अपनी अभिरुचि किसमे दिख रही है और उस ओर ही हमे प्रेरित करना है ।ख़ुशी की बात है कि विदेशो की तर्ज़ पर हमारे यहां भी अभिभावकों के लिए जीवन मूल्यों पर ट्रेनिग होती है , जिसमे अभिभावक भी बच्चे के साथ अपने व्यवहार का पाठ पढ़ते हैं। छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र,गुजरात में इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं जो धीरे2 अन्य राज्यों में भी सफल हो रहे हैं। मेरी तरह छत्तीसगढ़ के अन्य साथी जानते हैं कि ,, जीवन विद्या,, को ट्रेनिग है जिसमे हम सही अभिभावक ही नही बल्कि सही इंसान कैसे बनते हैं , यही सीखते हैं और क्रियान्वयन करते हैं। इसमें बच्चों की स्कूल भी हैं जो अभी प्रारम्भिक अवस्था में है वो प्रभावित करती है उन स्कूलों का नाम ही , अभिभावक विद्यालय, है । ये तो थी महज़ एक जानकारी , लेकिन फिर भी बच्चों की बढ़ती मानसिक बीमारी दरअसल उनकी नही हम्म अभिभावकों की है बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारे देश में एक बहुत बड़ा प्रतिशत किसी न किसी रूप में मानसिक बीमारी के रूप में सभी में है , जिसका पता स्वयं उसे भी नही होता ,लेकिन जिसका असर साथ रहने वाले सदस्यों के जीवन पर गम्भीर रूप से पड़ता है और अगर घर में भी इस ओर ध्यान न दिया जाए तो उसकी हरकतों का असर समाज के कई लोगों पर पड़ता है । इसलिए आत्मावलोकन ज़रूरी है ताकि समय रहते हम इसे समझ सकें और बाक़ी लोग प्रभावित न हों । बच्चों को हम जो सिखाते हैं ज़रूरी नही कि वे केवल वही सीखते हैं बल्कि अनजाने, अनचाहे ही हम उन्हें विरासत के रूप में वो सौंप जाते हैं जो उनके व्यक्तित्व के निर्माण में कदापि सही नही ।
निश्चित ही बहुत कुछ छूट गया होगा विषय से और कुछ अनावश्यक आ गया होगा , ये विषय ही ऐसा है जो परेशान कर देता है मानसिकता को ,आज इतना ही..........

वर्षा......                      
91 98181 03292: बालदिवस पर विशेष-
माता-पिता के अनावश्यक लाड़-प्यार के कारण आज बहुत से बच्चे असहिष्णु होते जा रहे हैं। आजकल बच्चों में जिद करना, कहना न मानना, तोड़फोड़ आदि की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और वे दिन-प्रतिदिन ईर्ष्यालु व अहंकारी बनते जा रहे है। यह वास्तव में चिन्ता का विषय है।
         आज इस इक्कीसवीं सदी में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है। इसलिए घर में पति-पत्नी दोनों ही उच्च शिक्षा ग्रहण करके नौकरी अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। सवेरे से शाम तक अपने कार्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने बारे में भी सोचने का समय नहीं होता। इससे उनका अपना सामाजिक जीवन भी प्रभावित होता जा रहा है।
           वे लोग अपने परिवार के बारे में सोचने से पहले कैरियर के विषय में सोचते हैं। इसीलिए समयाभाव के कारण पहली बात तो वे बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहते और यदि चाहते भी है तो बस एक। चाहे वह लड़की हो या लड़का, उन्हें इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
           आज परिवार सीमित होते जा रहे हैं। बच्चों की जायज-नाजायज माँगों को पूरा करके वे उन्हें जिद्दी बना रहे हैं। जब उनकी माँग किसी कारण से पूरी नहीं हो सकती तो वे पैर पटकते हैं और तोड़-फोड़ करते हैं। सारे घर को सिर पर उठा लेते हैं। और हंगामा करते हैं।
          किसी दूसरे बच्चे के पास जो भी नई वस्तु देखते है वही उन्हें चाहिए होती है। चाहे उसकी जरूरत उन्हें हो या न हों। चाहे  खरीदकर उसे कोने में पटक दें। दूसरों को अपने से छोटा समझने की प्रवृत्ति उनमें बढ़ती जा रही है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनके माता-पिता के पास बहुत-सा पैसा है और वे जो चाहें या जब चाहें कुछ भी खरीद सकते हैं। इस प्रकार के व्यवहार से वे अहंकारी बनते जा रहे हैं। यह किसी भी प्रकार से उनके सर्वांगीण विकास लिए उपयुक्त नहीं है।
        हर उस बच्चे से वे ईर्ष्या करते है जो उनसे किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ रहा हो। वे इस बात को आत्मसात नहीं कर सकते कि उन्हें कोई भी किसी भी क्षेत्र में हरा दे और उनसे आगे निकल जाए। हर समय तो भाग्य साथ नहीं देता और जब ऐसा हो जाता है तो मानो उनकी दुनिया में कुछ भी नहीं बचता। अपने को पटकनी देने वाले का समूल नाश करने के लिए षडयन्त्र करने लगते हैं। ऐसे ही बच्चे बागी होकर फिर  गैगस्टर बन जाते हैं और हाथ से निकल जाते हैं।
         उनके माता-पिता उस अवस्था में स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं। तब उनकी सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे जाती है और वे सोच भी नहीं पाते कि इन सपूतों को वापिस फिर इंसान कैसे बनाया जाए।
          माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को उनकी आवश्यकता के अनुसार सब कुछ खरीद कर दें। साथ ही उन्हें न सुनने की आदत भी डालें। ऐसा होने से बच्चे को यह समझ में आ जाएगा कि हर बात के लिए जिद नहीं की जाती। यदि कोई मनचाही वस्तु किसी कारण से न मिल पाए तो घर में न तो हंगामा करना होता है और न ही तोड़फोड़। इससे उनमें स्वत: सामंजस्य की समझ भी आ जाएगी।
         बच्चे घर की शोभा होते हैं, माता-पिता का मान होते हैं और राष्ट्र की धरोहर होते हैं। वे कच्ची मिट्टी की तरह कोमल होते हैं। उन्हें जिस भी साँचे में ढाला जाए वे वही आकार लेते हैं। इसलिए उनका चरित्र निर्माण करते समय बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है।
        अत: माता-पिता का नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से थोड़ा-सा समय निकालकर बच्चों को संस्कारित करें। अति लाड-प्यार से उन्हें बिगाड़कर उनके शत्रु न बनें और अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारकर जीवन भर का सन्ताप मोल न लें।
चन्द्र प्रभा सूद

वन्या जोशी                      
 मंच पर सभी को यथायोग्य  नमस्कार 🙏🏻 आज का पोस्टर  बहुत बढिया लगा👌🏻 आज अमर जी ने जो जीवंत  मुद्दा मंच पर रखा है वो बहुत ही महत्वपूर्ण  है ! बच्चे  कहीं मानसिक रोग का शिकार  न बने ये हर परिवार  की मूल जिम्मेदारी  होनी ही चाहिये | पर ये बढते मोबाइल लगाव की वज़ह से कदापि नहीं  हो सकता ! ये तो सदियों से चली आ रही एक ज्वलंत  वेदना है जिसे पहले स्वीकारा ही नहीं गया ! लालन पालन,मार,शोषण ,बच्चे के डर या परेशानी  को नज़रअंदाज  करना ,रोते बच्चे को रोने के लिए  भी पीट देना और सास या पति के लिए  खाना बनाना इत्यादि  ज्यादा  जिम्मेदार  हैं ! बच्चों  के लिए  समय निकालना, उनको विश्वास  दिलाना कि उन्हें सिर्फ  बच्चा समझकर नज़रअंदाज़  नहीं किया जायेगा ,बहुत ज्यादा  टोका टाकी न करना( जैसे बाथरूम  जाओ ,पानी पी लो ,नाणा बांध  लो !)उनको जताना कि वो गलती करने पर घर वालों को बता सकते हैं उन्हें ग़लती की ढांठ तो पडेगी पर वो फिर भी घर की प्यारी संतान रहेंगे ! इन सब बातों से एक सकारात्मक  बदलाव  आएगा ही ! मंच के सामने मोबाइल  के पक्ष में यह कहना चाहूंगी कि आजकल  कई साईट्स हैं जो बच्चो को अपनी पीडा अपनी वेदना share करने के लिए प्रोत्साहित  करते हैं जैसे the artidote जिससे बच्चे अपना मन हल्का कर लेते हैं ! आदरणीय  ने जो विषय उठाया  है उस मानसिक पीडा के निवारण हेतू कई वषों  से सक्रिय हूं और बच्चों को भी उनके rights से अवगत  कराने  का कार्य  भी कपती हूं |१०९८ मिलाकर  बच्चे तुरंत  न्याय पा सकते हैं ! मंच ने इतना अच्छा  विषय उठाया  उसके लिए धन्यवाद  और बधाई इस विषय ने और सभी बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियाओं ने मंच की गरिमा बढाई

आनंद बाला शर्मा 
ज्वलन्त और सामयिक समस्या ।
बच्चों के लालन पालन में अक्सर आड़े आते हैं
हमारे सपने,हमारे डर एवं कुंठाएँ,हमारी सामाजिक ,पारिवारिक और आर्थिक स्थिति ,
हमारी सोच, आदतें और स्वभाव ,हमारी शिक्षा व
कामकाज की स्थिति ,परिवेश आदि आदि।परिणाम
जो भी हों हम भी  झेलते हैं और बच्चे भी।अगर
कहीं कुछ गलत है तो उसे बदलने की आवश्यकता
है।
        हम कुछ सदस्य जो गायत्री परिवार से जुड़े
हैं।स्कूलों में जाकर बाल संस्कार शाला के अन्तर्गत बच्चों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देते हैं और कहानी,कविता सुनाकर साहित्य के प्रति रुचि
पैदा करते हैं।
नौनिहालों के प्रति छोटा सा योगदान


रूपेंद्र 
बहुत ही सार्थक चर्चा हो रही है। मिडिया ,मोबाईल और सोशल साइट्स की तिकड़ी ने जैसा जकड़ रखा है लगता नहीं उससे आज़ाद होना आसान है।महेश जी से सहमत हूँ स्वयं पर तो हम प्रतिबद्ध हैं नहीं बच्चो को कैसे टोकें।मैंने ऐसी माओं को देखा है जो अबोध बच्चों को यह उपकरण पकड़ा कर निश्चित हो जाती हैं।घर मे बड़ो के मना करने पर उन पर ही बिफर जाती हैं।समय के व्यस्थित नहीं कर पा रहे हैं।आज भी जिस पर चर्चा हो रही है वह भी यही माध्यम है।केवल ऊब ही हमें इसके अति प्रयोग से बचा सकती है अथवा इसके प्रयोग से होने वाले हमे शारीरिक व मानसिक स्थितियों पल  विपरीत प्रभाव।


डॉ निरुपमा वर्मा 
बच्चों में भारी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल कहीं सहानुभूति, सामाजिक एवं समस्या समाधान के कौशल को बाधित कर कर सकता है। ये सारी योग्यताएं बच्चों में अध्ययन, खेल और साथियों से बातचीत के जरिए अर्जित होती हैं।  इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बच्चों में ज्ञानेंद्रिय एवं दृश्य-मोटर कौशल के विकास के लिए आवश्यक गतिविधियों की जगह ले लेते हैं। यह कौशल गणित एवं विज्ञान सीखने और जीवन में उनके इस्तेमाल के नजरिए से महत्वपूर्ण है।
यह बात सर्वज्ञात है कि छोटे बच्चे चेहरे की भावनाओं और गतिविधियों को देखकर ज्यादा सीख पाते हैं। मोबाईल , या अन्य इलेक्ट्रॉनिक बच्चे को भाव भंगिमा से परिचित नहीं करा सकता । इसे समझना जरूरी है                      
हनुमंत शर्मा 
Vmm पर चर्चा का विषय अच्छा रहा...उम्दा टिप्पणीया  भी आई....पिश्ट पेषण और पुनरावृत्ति दोनों ही अनुचित होगी...
लेकिन यहाँ सवाल बच्चो का उतना नहीं है जितना बडो का
हर नई पीढी  अपने साथ नये गेजेट्स नयी तकनीक लेकर आती है
आयेगी ही
हम नहीं रोक सकते
हम जो बात रोक सकते है वह है जीवन को मशीन होने से रोकना
और जीवन को वापस जीवंतता की तरफ़ लौटाना काम मुश्किल है लेकिन और विकल्प नहीं है
पुरानी पीढी tv पर लगी रहे
और
नयी नेट पर
फर्क ज्यादा नहीं है
हाँ नई पीढ़ी को और तेज़ स्पीड चाहिये
लेकिन 4G और बुलेट ट्रेन कौन लेकर आ रहा है साठोत्तरी पीढी का नेता
तो हमारा पूरा समाज अब एक ऐसे ट्रेप मे फँस चुका है
जिसका अंत अपने ही भार से चरमराकर टूटी हुई सभ्यता मे होना तय है
कारण वापस लौटा नहीं जा सकता
और आगे सिर्फ डेड एंड आना है
मुझे वुदरिंग हाइट्स की याद आती है
जहाँ काला ही सफेद के रूप मे स्थापित हो जाता है
एक लिँगोदर समय
मनोहर श्याम जोशीके हरिया क्योलीस का गूम लेंड या उनका ही हमजाद
तो हमारा मेट्रो  समाज एक मेंटल असाय्लम मे लगभग बदल चुका है
पता नहीं कैसे इसे समाज कहा जा सकता है
सामाजिकता के तमाम लक्षणों से रिक्त
फिर भी जैसा विषय है बच्चो को इस भयानक असमाजीकता की व्याधि से बचाकर हम शायद भविष्य बचा ले
मैरे लिहाज से डीटेकनालाईजेश्न और रूसो के बेक टू नेचर के बारे मे सोचने का समय आ गया है
लेकिन नेचर भी कहाँ बचा है
इसलिये मोदी बाबा को स्वैप मशीन से पहले एक पौधा बाँटने पर विचार करने की ज़रूरत है
Thnx vmm उम्दा परिचर्चा के लिये


डॉ अल्का प्रकाश 

मुझे अपना बचपन याद आ रहा,जब हम सब भाई-बहन आपस मे ख़ूब खेलते,लड़ते-झगड़ते थे।कोई कमी नहीं थी।उदासी क्या होती है?यह पता ही नहीं था।दरअसल आज औरत  गृहणी मात्र नहीं रही,उसका कार्य -क्षेत्र बढ़ गया है।परिवार मे पुरुष अपनी भूमिका आज भी नहीं बदल पाया है।महिलाओं पर काम का दुहरा बोझ है और ऊपर से यह मोबाइल । समयाभाव के कारण माॅएं बच्चों का पहले जैसा ध्यान नहीं दे पा रहीं।जब बड़े कंट्रोल नहीं कर पा रहे तो बच्चे कहाँ तक करेंगे?एक क्लिक पर उपलब्ध पोर्न सामग्री बूढों तक को लम्पट बना रही,फिर बच्चे? ?कोई माॅनिटरिंग नहीं है।यौन -अपराध बढ़ने मे स्मार्ट फोन की भी भूमिका है। बच्चे जितना  प्रोजेक्ट नहीं तैयार करते या ऑन लाईन पढ़ते नहीं, उससे ज्यादा चैट करते और गेम खेलते हैं ।गेम भी  ज्यादातर हिंसक किस्म के हैं ।यू ट्यूब पर सर्च कुछ करो रीलेटेड लिंक कुछ और ही आने लगता है।साइबर क्रांति ने माता-पिता की ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ा दी है।अनवरत निगरानी और ख़ुद स्मार्ट फोन से दूरी बना कर ही बच्चों का भविष्य बनाया जा सकता है।दरअसल बच्चों की एकाग्रता कम हो रही ।उनका पूरा ध्यान गेम के अगले लेवल तक पहुँचने मे लगा हुआ है।हम जितना ज्यादा त्याग करेंगे हमारे बच्चों का भविष्य उतना सुंदर बनेगा।निर्णय हमें लेना है कि ख़ुद की लोकप्रियता जरूरी है या बच्चों का भविष्य ।सब एक साथ नहीं सधता ,सच यही है।बच्चों के सामने आदर्श उपस्थित करने के लिए हमे स्वयं आभासी दुनिया से एक निश्चित दूरी बनानी होगी।मेरे साथ साइबर-अपराध हो चुका है,भुक्तभोगी हूँ ।उचित वक्त आने पर यह लड़ाई लड़ूंगी।
          -डाॅ.अलका प्रकाश


अमर त्रिपाटी 
Internet ke liye
  जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है
न तेरी सी खुशबू न  तेरी सी बू है
रहे ख़ुद पे काबू तो ,तुझसा ना कोई
बहे ज्ञान गंगा,गजब यार तू है
 
बस थोड़ा सा ही इस्तेमाल हो तो इंटरनेट वरदान है नही तो लोग रस्ता चलते एक दूसरे से टकरारहे है और व्हाट्सप पर लगे हुए है।पत्नी पूछ रही है एक रोटी और दू
पति का जवाब ही नही आ रहा है एक हाथ से खाना एक हाथ से whatsap

ड्राइविंग करते वक्त भी चेक कर रहे है लोग घँटी बजते ही मोबाइल ऑन

आज बहुत सुंदर सुन्दर लेख पढ़े, बहुत कुछ सीखा अर्पणा जी का साथ मिला स्टोरी मिरर के बिभू जी बहुत प्रभावित है जी आपसे ।
साथ जुड़ने वाले सभी साथियों को प्रणाम खासकर राजम नटराजन बिभू दत्ता जो दोपहर को ओडिशा से आये और व्यस्त समय से भी समय निकाल कर अपना वक्त दिया।

आप सब को पढ़ने और आप सब से बहुत कुछ सीखने को मिला

इस चर्चा को फिर कभी आगे बढ़ाएंगे,विशेषज्ञ बुलाकर उनकी भी राय लेंगे।
बहुत कुछ शेष है फ़िर कभी
अमर त्रिपाठी🙏🏽

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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