Thursday, May 31, 2018

मदारीपुर जंक्शन:बालेन्‍दु द्विवेदी


व्यंग्यात्मक उपन्यासों की कड़ी में एक और सशक्त किस्सागोई
ओम निश्चल

 ओम निश्चल
कभी ‘राग दरबारी’  आया था तो लगा कि यह एक अलग सी दुनिया है। श्रीलाल शुक्‍ल ने ब्‍यूरोक्रेसी का हिस्‍सा होते हुए उसे लिखा और उसके लिए निंदित भी हुए पर जो यथार्थ उनके व्‍यंग्‍यविदग्‍ध विट से निकला, वह आज भी अटूट है; गांव-देहात के तमाम किरदार आज भी उसी गतानुगतिकता में सांस लेते हुए मिल जाएंगे। तब से कोई सतयुग तो आया नही है बल्‍कि घोर कलियुग का दौर है । इसलिए न भ्रष्‍टाचार पर लगाम लगी, न भाई भतीजावाद, न कदाचार पर , न कुर्सी के लिए दूसरों की जान लेने की जिद कम हुई। इसलिए आज भी देखिए तो हर जगह ‘राग दरबारी’ का राग चल रहा है। कहीं द्रुत-कहीं विलंबित । लगभग इसी नक्‍शेकदम पर चलने का साहस युवा कथाकार बालेन्‍दु द्विवेदी का उपन्‍यास '' मदारीपुर जंक्‍शन'' करता है। मदारीपुर जंक्‍शन जो न गांव रहा न कस्‍बा बन पाया। जहां हर तरह के लोग हैं जुआरी, भंगेडी, गंजेड़ी, लंतरानीबाज, मुतफन्‍नी, ऐसे-ऐसे नरकट जीव कि सुबह भेंट हो जाए तो भोजन नसीब न हो।

मदारीपुर पट्टियों में बँटा है। अठन्‍नी, चवन्‍नी और भुरकुस आदि पट्टियों में। यहां लोगों की आदत है हर अच्‍छे काम में एक दूसरे की टांग अड़ाना। लतखोर मिजाज और दैहिक शास्‍त्रार्थ में यहां के लोग पारंगत हैं। गांव है तो पास में ताल भी है जो जुआरियों का अड्डा है। पास ही मंदिर है जहां गांजा क्रांति के उदभावक पाए जाते हैं। एक बार इस मंदिर के पुजारी भालू बाबा  की ढीली लंगोट व नंगई देख कर औरतों ने पनही-औषधि से ऐसा उपचार किया कि फिर वे जीवन की मुख्‍य धारा में लौट नहीं पाए। याद आए काशीनाथ सिंह रचित ‘रेहन पर रग्‍घू’  के ठाकुर साहब जिनका हश्र कुछ ऐसा ही हुआ। हर उपन्‍यास की एक केंद्रीय समस्‍या होती है। जैसे हर काव्‍य का कोई न कोई प्रयोजन । हम सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ की ज़मीन पर ‘मैला आंचल’ पढ चुके हैं,  राजकृष्ण मिश्र का ‘दारुलसफा’‘सचिवालय’ पढ़ चुके हैं, विभाजन की ज़मीन पर ‘आधा गांव’ पढ चुके हैं।  गांव और कस्‍बे जहां जहां सियासत के पांव पड़े हैं, ग्राम प्रधानी,ब्‍लाक प्रमुखी और विधायकी के चुनावों के बिगुल बजते ही हिंसा व जोड तोड शुरु हो जाती है। हर चुनाव में गांव रक्तरंजित पृष्ठभूमि में बदल जाते हैं। इसलिए कि परधानी में लाखों का बजट है, पैसा है, लूट है। सो मदारीपुर जंक्‍शन के भी केंद्र में परधानी का चुनाव है।

परधानी का चुनाव मुद्दा है तो अवधी कवि विजय बहादुर सिंह अक्‍खड़ याद हो आए –'कब तक बुद्धू बनके रहबै अब हमहूँ चतुर सयान होब। हमहूं अबकी परधान होब।'

एक कवि ने लिखा है, ‘नहर गांव भर की पानी परधान का।‘ सो इस गांव में भी भूतपूर्व प्रधान छेदी बाबू, वर्तमान प्रधान रमई, परधानी का ख्‍वाब लिये बैरागी बाबू, उनकी सहायता में लगे वैद जी, दलित वोट काटने में छेदी बाबू के खड़े किये चइता, केवटोले कें भगेलूराम, छेदी बाबू के भतीजे बिजई ---सब अपनी अपनी जोड तोड में होते हैं। ऐसे वक्‍त गांव में जो रात रात भर जगहर होती है, दुरभिसंधियां चलती हैं, तरह तरह के मसल और कहावतें बांची जाती हैं वे पूरे गांव की सामाजिकी के छिन्‍न-भिन्‍न होते ताने बाने के रेशे-रेशे उधेडती चलती हैं। श्रीलाल शुक्‍ल ने ‘रागदरबारी’ में कहा था---'यहां से भारतीय  देहात का महासागर शुरु होता है ।' यह उसी देहात की बटलोई का एक चावल है।

कभी समाजशास्‍त्री पी सी जोशी ने कहा था कि ‘रागदरबारी’ या ‘मैला आंचल’ जैसे उपन्यासों को समाजशास्‍त्रीय अध्‍ययन के लिहाज से क्‍यों नही पढा जाना चाहिए?आजादी के मोहभंग से बहुत सारा लेखन उपजा है। ‘राग दरबारी’ भी,मैला आंचल भी,विभाजन के हालात पर केंद्रित ‘आधा गांव’ भी।बालेन्दु का मदारीपुर भी गंगोली गांव, शिवपालगंज या मेरीगंज से बहुत अलग नहीं है ।इसलिए यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए मदारीपुर जंक्शन भी एक सहयोगी उपन्यास हो सकता है।


विमर्शों के लिहाज से देखें तो दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श दोनों मदारीपुर में  नजर आते हैं। एक सबाल्‍टर्न विमर्श भी है कि आज भी सवर्ण समाज की दुरभिसंधियां आसानी से दलितों को सत्‍ता नही सौंपना चाहतीं, लिहाजा वह उनके वोट किधर जाएं, कैसे कटें, इसके कुलाबे भिड़ाता रहता है। यहां परधानी के चुनाव में बुनियादी तौर से दो दल हैं एक छेदी बाबू का दूसरा बैरागी बाबू का। पर चुनाव के वोटों के समीकरण से दलित वर्ग का चइता भी परधानी का ख्‍वाब देखता है और भगेलू भी। पर दोनों छेदी और बैरागी के दांव के आगे चित हो जाते हैं। चइता को छेदी के भतीजे ने मार डाला तो बेटे पर बदलू शुकुल की लडकी को भगाने के आरोप में भगेलू को नीचा देखना पड़ा ।पर राह के रोड़े चइता व भगेलू के हट जाने पर भी परधानी की राह आसान नहीं। हरिजन टोले के लोग चइता की औरत मेघिया को चुनाव में खड़ा कर देते हैं । दलित चेतना की आंच सुलगने नहीं बल्‍कि दहकने लगती है जिसे सवर्ण जातियां बुझाने की जुगत में रहती हैं।--- और संयोग देखिए कि वह दो वोट से चुनाव जीत जाती है। पर चइता की मौत की ही तरह उसका अंत भी बहुत ही दारुण होता है। लिहाजा जब जीत की घोषणा सुन कर पिछवाड़े पति की समाधि पर पहुंचती है पर  जीत कर भी हरिजन टोले के सौभाग्‍य और स्‍वाभिमानी पीढ़ी को देखने के लिए जिन्‍दा नही रहती। शायद आज का कठोर यथार्थ यही है।


कहना यह कि सत्‍ता की लड़ाई में दलितों की राह आज भी आसान नहीं।  वे आज भी सवर्णों की लड़ाई में यज्ञ का हविष्‍य ही बन रहे हैं।आज गांव किस हालात से गुजर रहे हैं,यह उपन्यास इसका जबर्दस्त जायज़ा लेता है। बालेन्‍दु द्विवेदी गंवई और कस्‍बाई बोली में पारंगत हैं। गांव के मुहावरे लोकोक्‍तियों सबमें उनकी जबर्दस्‍त पैठ है। चरित्र चित्रण का तो कहना ही क्‍या। पढ़ते हुए कहीं श्रीलाल शुक्‍ल याद आते हैं, कहीं ज्ञान चतुर्वेदी तो कहीं परसाई भी । कहावतें तो क्‍या ही उम्‍दा हैं :'घर मा भूंजी भांग नहीं ससुरारी देइहैं न्‍योता।'


कुल मिला कर दुरभिसंधियों में डूबे गांवों के रूपक के रुप में मदारीपुर जंक्‍शन इस अर्थ में याद किया जाने वाला उपन्‍यास है कि दलित चेतना को आज भी सवर्णवादी प्रवृत्‍तियों से ही हांका जा रहा है।सबाल्‍टर्न और वर्गीय चेतना भी आजादी के तीन थके हुए रंगों की तरह विवर्ण हो रही है। गांवों को सियासत ने बदला जरूर है पर गरीब दलित के आंसुओं की कोई कीमत नहीं।बालेन्‍दु द्विवेदी ने यहां लाचार आंसुओं को अपने भाल पर सहेजने की कोशिश बड़ी ही पटु भाषा में की है,इसमें संदेह नहीं।





उपन्यास अंश

मंदिर के ठीक सामने एक गहरा तालाब स्थित था जिसके बारे में यह कहा जाता था कि यह इतना गहरा था कि इसमें सात हाथियों की 'थाह' भी न मिले.बहरहाल इसकी ख्याति दूसरे कारण से थी.किंवदंती थी कि एक बार कोई राजा,जो पुरानी और लगभग असाध्य कोढ़ का शिकार था,लड़ाई के मैदान से विजय प्राप्त कर वापस लौट रहा था.रास्ते में उसे पाख़ाना लगा.राजा ने पहले तो इसे अपने स्तर पर ही रोकने की कोशिश की;फिर बेसब्र होने पर अपने इस 'दीर्घ और तीव्र आवेग' के बारे में मंत्री आदि से मंत्रणा की.मंत्री ने राजा को सुझाया -
 'मान्यवर..!!आपकी धोती से बड़ी है आपकी इज्ज़त! और वह मुख़्तसर इसी धोती के संरक्षण में है.अगर एक बार वह प्रजा के बीच में खुल गई तो आपका और आपके राज्य का सारा वैभव जाता रहेगा.इसलिए सरकार! धोती भले ही ख़राब हो जाए पर उसे यूँ सरेआम खोलना युद्ध में पराजय स्वीकार करने जैसा और कदाचित उससे भी विनाशकारी सिद्ध होगा.'






राजा अपने मंत्री की बात पर अमल तो करना चाहता था,पर उसकी आंतें उसे निरंतर किसी नए विध्वंश की ओर धकेल रही थीं. जब तक राजा को मंत्री की बात समझ में आती,उसके पहले ही यह तालाब दिखाई पड़ा.राजा के पास अपने को हल्का करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.मल-त्याग के बाद राजा ने जब पानी-छूने के लिए हाथ तालाब में डाले तो उसके हाथों की कोढ़ अचानक से सूखने लगी.राजा हतप्रभ रह गया.उसने झट अपने मंत्री को यह बात बताई और फिर खुश होकर,एक योगी साधक  को यहाँ की ज़मींदारी दे दी.बस यहीं से मदारीपुर के वैभव की शुरुआत मानी गई थी.

तहसील की खतौनी में दर्ज़ इन्द्राज़ के मुताबिक़ शिवमंदिर चवन्नी पट्टी की संपत्ति मानी जाती थी.इसलिए इस मंदिर-परिसर में लगे पेड़ों से टपकने वाले एक-एक आम से लेकर खर-पतवार बीनने आने वाली कन्याओं तक पर पहला अधिकार इसी पट्टी का बनता था.ऐसे तमाम अन्य अघोषित 'प्रशासनिक अधिकार' भी फिलहाल इसी पट्टी के पास सुरक्षित थे.मसलन पट्टी के युवा इस चीज़ की जानकारी प्राप्त में लगे रहते थे कि कौन सी कन्या ने सोलह बरस का आँकड़ा पार कर लिया है;कौन फिलहाल कौमार्य-भंगापेक्षिणी है;किसे अरहर की खेतों में उन्मुक्त अठखेलियाँ करने का शौक है;किसके गवने की तारीख़ नज़दीक आ गई है;कौन अभी-अभी अपने साजन के पास से लौटी है-आदि-आदि.'अज्ञात के प्रति जिज्ञासा' रूपी इस शोध और संधान के मूल में अपने निजी भावनाओं की तृप्ति के साथ-साथ संभवत: विदा के कगार पर खड़े चवन्नी पट्टी के पुरुषों की अंतिम इच्छा के पूरे किये जाने का सद्प्रयास भी सम्मिलित था.


सड़क कहे जाने वाले इन मार्गों का एक अतिरिक्त लाभ यह भी था कि यदि इनसे होकर इलाके की किसी गर्भवती स्त्री को प्रसव हेतु अस्पताल ले जाया जाता तो वह अस्पताल पहुँचाने से पहले ही बच्चा जन देती थी.इस प्रकार ये सड़कें अघो षित तौर पर न केवल डॉक्टर-वार्डब्वाय- अस्पताल की सामूहिक जिम्मेदारी निभाती थीं बल्कि सरकारी मुलाज़िमों को 'अनावश्यक के सिरदर्द' से मुक्त रखने की कोशिश भी करती थीं.'संसार के आठवें आश्चर्य' के रूप में घोषित होने की अपेक्षा लिए ये सड़कें फिलहाल सरकारी अभिलेखों में राजमार्ग का दर्ज़ा धारण किये हुए थीं और इस ऐतिहासिक राजमार्ग से होकर जब भारी सामानों से लदा हुआ कोई वाहन गुज़रता था तो मदारीपुर और आस-पास  के तमाम गाँवों  के निवासी उस वाहन के बोझ को हल्का करने का कोई अवसर नहीं चूकते थे.


एक बार ऐसा वाक़या हुआ बताते हैं कि एक रात को इस रास्ते से गुज़रते हुए काजू-किशमिश-बादाम से लदे एक ट्रक के पहियों ने थक-हारकर और आगे चलने में असमर्थ होकर,बीच-सड़क में अपने हाथ खड़े कर दिए.फिर क्या था! इलाके के लोगों ने इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाने की नीयत से वाहन के ड्राइवर-क्लीनर के ऊपर सामूहिक हल्ला बोल दिया और इस आपसी-प्रतिस्पर्धा में लग गए कि कौन शख्स कम-से-कम समय में,ज्यादा-से-ज्यादा माल पार कर सकता है..!हालांकि अमावस की रात के घुप्प अँधेरे की वजह से इस प्रतिस्पर्धा के वास्तविक विजेताओं के सम्बन्ध में अंतिम निर्णय तो नहीं हो सका किन्तु इतना जरूर हुआ कि इलाके की मज़दूर और मेहनतकश कही जाने वाली महिलाओं ने अपने पतियों-बेटों के साथ मिलकर उनके इस पवित्र कर्म में जमकर हाथ बँटाया.कुछ महिलाओं ने तो बोरों और झोलों के अभाव में अंत:वस्त्र कहे जाने वाले अपने ‘पेटीकोट’ के मुँह को एक ओर से बंद कर तात्कालिक तौर पर न केवल झोलों का विकल्प प्रस्तुत किया बल्कि उसमें काजू-किशमिश-बादाम ठूँस-ठूँसकर और सिर पर लादकर अपने घर ले आयीं.इस अभूतपूर्व और अविस्मरणीय आंदोलन का क्रांतिकारी परिणाम यह हुआ कि इलाके के जिन घरों में अनाज के अभाव में कई दिनों तक चूल्हा तक नहीं जलता था;उन घरों के बच्चे अब आठों पहर काजू-किशमिश-बादाम का सेवन करने लगे और  इलाके की कुपोषण की समस्या रातों-रात उड़न-छू हो गई.यही नहीं,दिन भर कटोरे लेकर सड़कों पर घूमने वाले छोटे बच्चों से लेकर भीख माँगने वाले बूढ़े-महीनों तक अपने घर से नहीं निकले और चोरी की घटनाओं में भी गिरावट देखी गई.दरअसल कुछ ही समय के लिए ही सही,पूरे इलाके के कोलाहल भरे वातावरण में अचानक से 'सम्पन्नता का छद्म सन्नाटा' सा छा गया था.लोगों के इस छोटे से सद्प्रास का एक प्रभाव यह भी हुआ कि देखते-ही-देखते यह इलाका अब जिले के सबसे समृद्ध इलाके के रूप में गिना जाने लगा था और सबसे बढ़कर सरकार के मुलाजिमों ने हमेशा की तरह इस बार भी इस बदलाव को अपने दिन-रात के संघर्ष का परिणाम बताना नहीं छोड़ा.





डॉक्टर साहब अभी ऑपरेशन थियेटर में थे और संभवत: गाँव के ही  केवटोली के मोहन नामक किसी युवा मरीज़ के गंभीर ऑपरेशन में व्यस्त थे.ऑपरेशन थियेटर को बाहर से देखने पर यह अपने नाम को चिढ़ाता हुआ ही लगता था.दरअसल इसमें थियेटर जैसा कुछ भी न था.डॉक्टर साहब के कमरे के भीतर ही एक कोने में एक सरकारी चारपाई डाल दी गई थी और एक सफ़ेद चादर को बगल के दीवार की खिड़की के सहारे से एक आड़ का रूप दे दिया गया था.सफ़ेद कहे जाने वाले चादर पर खून के इतने धब्बे थे कि कई बार उसके रंगीन होने का भ्रम हो जाता था और फैली हुई चादर में इतने छेद थे कि यदि वह हटा भी दी जाती तो भी वस्तुस्थिति में कोई ख़ास अंतर नहीं आता! लेकिन इसे बनाए रखना भी एक प्रकार की पेशेगत-मजबूरी थी.

ऑपरेशन थियेटर के भीतर चार-पाँच मुस्टंड आदमी,मरीज़ के हाथ और पैरों को इस कदर कसकर पकडे हुए थे जैसे किसी 'बलि के बकरे' को हलाल करने के पहले पकड़ा जाता होगा.कायदे से वे सभी बेहोशी की दवा का मुकम्मल विकल्प प्रस्तुत कर रहे थे. 'बेड' कहे जाने वाले बिस्तर पर 'मोहन' नामक  मरीज़ लेटा हुआ था और निरंतर चिल्ला रहा था.इस क्रम में उन सभी मुस्टंडों के बाप-दादाओं का बारी-बारी से नाम लेता जाता था.साथ ही उनके साथ देशी गालियाँ अभिधान के रूप में जोड़ता जाता था और कई बार वह मुस्टंडों और उनके पुरखों के आपसी रिश्ते को भी गड्ड-मड्ड कर दे रहा था,जैसे-'हरे सारे! सुकुलवा के दमाद..!','का रे फोफियाs..!','तोहरे महतारी केs..!' आदि-आदि.पर मुस्टंडे भी जैसे इस प्रकार के  अवसरों के लिए अभ्यस्त थे और शायद सहनशीलता जैसे भावों को कब का आत्मसात कर चुके थे.इसलिए ज्यों ही मरीज़ कोई ऐसा उदगार व्यक्त करता था,सभी एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते थे.इस पर मरीज़ का तेवर और उच्चारण का स्वर और अधिक आक्रामक हो जाता.लगभग दस मिनट के रगड़-घस्स के बाद डॉक्टर साहब के द्वारा ऑपरेशन की सफलता की घोषणा की गई.मरीज़ चिल्ला-चिल्ला कर पस्त हो चुका था.अब जाकर उसने डॉक्टर की ओर थोड़ा संकोच की नज़र से देखा. डॉक्टर ने आँखों-ही-आँखों में उसे नीचे पड़े बाल्टी की ओर देखने को कहा, मानो कहना चाहते हों कि-'मोहन बेटा..!जब थैले में ढाई पसर मवाद लेकर घूमोगे तो ऑपरेशन तो कराना ही पड़ेगा!फिर चाहे जितना चिल्लाओ..!!'



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