Friday, September 9, 2016

कुछ कविताएँ ऐसी होती हैं जो कल्पना की क्षमता को तो बताती ही हैं, साथ में किसी परंपरा के सौन्दर्य तत्व को भी चतुराई से आगे बढ़ा देती हैं, और किसी नियम पर एसा सवाल खड़ा करती हैं कि नियम बनाने वाले और चलाने वाले बौखला जायें. दरअसल ऐसी कविताएँ ही बदलाव के लिए ज़मीन तैयार करती हैं. आज यहाँ हम ऐसी ही कविताएँ पेश कर रहे हैं जिनको रचा है मंदसौर में रहने वाली चर्चित कवि आरती तिवारी ने. 

इन कविताओं पर जबरदस्त बहस हुई, वाटस एप समूह साहित्य की बात में. जिसके संचालक हैं ब्रज श्रीवास्तव. 

पेश है समूची चर्चा. 





नाम--आरती तिवारी

पति--रवीन्द्र तिवारी
जन्म-- 08 january
जन्म स्थान--पचमढ़ी
शिक्षा--बीएससी एम ए बी-एड
अध्यापन अनुभव--लगभग 15 वर्ष
                          पूर्व शिक्षिका
प्रकाशन---विगत कुछ वर्षों से मध्य-प्रदेश के प्रमुख समाचार पत्रों में विभिन्न विधाओं पे रचनाएँ प्रकाशित
नई दुनिया,दैनिक भास्कर,राज एक्सप्रेस,नवभारत व् सरस्वती साहित्य,शब्द-प्रवाह,सृजन की आँच, अक्सर,निकट,नेपाल की पत्रिका संयोजन व् अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन
सम्मान __2014 में नागदा की साहित्यिक ,सामाजिक,सांस्कृतिक संस्था "अभिव्यक्ति विचार मंच"द्वारा प्रदत्त
              राष्ट्रीय विष्णु जोशी(अंशु) सम्मान से सम्मानित
वनारस के कैथी फेस्टिवल में जनवादी कवि गौरख पाण्डेय सम्मान 2015
पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष सक्रिय संस्था__"अनुराग" से जुड़ाव व् मन्दसौर विकास समिति से संलग्न
मुख्य विधा-नई कविता
आकाशवाणी इंदौर से कविताओं का प्रसारण
संबंधित संस्थायें-प्रगतिशील लेखक संघ,म प्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन व् अन्य सांस्कृतिक सामाजिक संस्थायें
संप्रति-स्वतन्त्र लेखन
वर्तमान पता-आरती तिवारी
               dd/05 चम्बल कॉलोनी मन्दसौर 458001 म प्र
              मोबाइल--09407451563
         ईमेल--atti.twr@gmail.com



🔴 1 *कई बार पढ़ी गई किताब*

तुम फिर मुझे पढ़ रही हो
और बिल्कुल वैसे ही
  जैसे पहली बार

जब तुम्हारी नाज़ुक गुलाबी उँगलियाँ
पलटती थीं मेरा एक पन्ना
और नशीली आँखें
गड़ी रहतीं थीं मुझ पर
मैं सिहर-सिहर जाती थी

जब कहानी की एक नायिका
प्रताड़ित होती
और तुम तड़प उठतीं
भींच लेती मुट्ठियाँ
और तुम्हारी आँखों के सैलाब
बेताब हो जाते
ये दुनिया बदल डालने को

तुम वो पृष्ठ बार बार पढ़तीं
जहाँ इनकार कर देती है नायिका
बिस्तर पे बिछी,एक बासी चादर बनने को

चौंक गईं न
ये वही मोरपंख है
हाँ तुम्हारा बुकमार्क
और ये धूसर धब्बे
तुम्हारे सूखे हुए आँसू
जो नायिका के मार दिए जाने के दुःख में इस पृष्ठ पर
एक भावांजलि में
चस्पां हुए आज भी
अपनी नमी दर्ज़ करा रहे हैं
इतिहास में

तुम्हे याद है न
जब तुमने मन ही मन खाई थी ये कसम
तुम नहीं मानोगी हार
ज़ुल्म से,ज़ोर से या छल से

और आज मैं तुम्हारे हाथों में हूँ
हूबहू वही हो
वे ही गुलाबी उँगलियाँ
हाँ बालों में हल्की सफेदी और पतलापन
छरहरी काया,बदल गई गदराये जिस्म में
पर आँखों में वही आग
और चेहरे पे वही मासूमियत
हाँ जब मेरे प्रकाशन का
पहला वर्ष था
तुम्हारी उम्र का उन्नीसवां
हाँ हम दोनों युवा थे
भरपूर अंदर से और बाहर से भी

और आज मैं भी आ गई हूँ
कुछ चर्चित किताबों के बीच
और तुम भी जी रही हो
अपनी दूसरी पारी को सफल होके

मैं कई कई बार पढ़ी गई
कई कई चाहने वालों द्वारा
सुनो,पर वैसे नही
जैसे तुमने पढ़ा था मुझे
और जी ली एक उम्र
मुझे ही पढ़ते हुए



     ( 2 ) *घडी*

वो पिता की घड़ी थी
चांदी सी चमकती चेन में मढ़ी थी
घड़ी की भी एक कहानी थी
सुनी पिता की ही जुबानी थी

वे कहते
कभी दो सेकंड भी
आगे पीछे नही हुई
जबसे खरीदी है
सदा नई है

उनकी घडी का ये फलसफा था

घड़ी वो
जो बीस रूपये में ली हो
टाइम ठीक बताती हो
बिना रसीद की हो
हम विभोर हो सुनते
घड़ी को छूकर गौरान्वित होते
पिता चौबीस घण्टे में
एक बार चाबी भरते
और घड़ी सदा टिकटिक करती रहती
मुस्तैदी से

घड़ी ने निकाल दी
एक पूरी उम्र
बिना नागा,सुबह चार बजे जगा देती
उसकी सुइयों पर
दौड़ता था वक़्त
पिता कभी नही हुए किसी काम में लेट
वे अपनी घड़ी के
घण्टे वाले कांटे को अतीत कहते
जो मिनटों पर थिरकता
वही उनका वर्तमान था
और साइड बार के छोटे से कांटे को
वे बड़ी आशान्वित निगाहों से देखते
और उनके सपनों में
वो बड़ा हो जाता

उन्होंने नही की कोई शिकायत
कभी घण्टे वाले कांटे से
जिसकी चाह थी
क्यों नही मिला वो
वे साइड बार को भी साइड में ही रखते
कहते अपेक्षा मत करो
और भागते हुए मिनट वाले कांटे को
जीते रहे हर पल

उनकी घड़ी बड़ी विश्वसनिय थी


  3 *स्त्री से पुरुष*

ऋतु-स्नान के पश्चात्
लहरा रहे थे उसके चमकीले रेशमी केश
उसका सद्य स्नात सौंदर्य
भोर की प्रथम रश्मि सा
फूट कर प्रविष्ट हो रहा था
सृष्टि के सूक्ष्म कण में

तुम बढ़े आगे
तुम मुग्ध हुए
वो भी खिंची
तुम्हारी मर्दानी गन्ध के भरोसे में
एकाकार हुए दो स्वप्न
तुम रिक्त हुए
भर भर गई वो

तुम्हारा बीज धारण कर
धरती हो गई वो
उसके रज से
देह में पनपा एक और जीवन
उसके गर्भाशय का कोटर
तुम्हारे बीज का अभेद कवच था
नौ महीने अंकुरण से भ्रूण् यात्रा में
उसके रक्त से पोषित
एक और पुरुष
बढ़ते और बनते रहे तुम
खिलते रहे चंद्रकलाओं से

वाद्य-यंत्र सी
बजती रही उसकी कोंख
गर्भनाल से तुम्हे चुगाती रही चुग्गा
तुम्हे पोषने तुम्हारे लिए ही
खाती रही पौष्टिक आहार
चाहे मन कभी कुछ न खाना चाहे तो भी

तुम भी जन्मे थे
जैसे सहस्त्राब्दियों से जन्मता आ रहा था तुम्हारा पितृ-पुरुष
हाँ सुनो तुम भी एक योनिजा हो
रुधिर और श्वेत स्राव में लिपटे
क्षत-विक्षत करते हुए उसके कोमलांग
भूमि पर आये थे

वात्सल्य के झरने में नहला
ममत्व की चिकनाई से
मलकर पुष्ट करती वो
तुम्हारा शैशव
अपने स्तनों से उड़ेलती अमृत धार
तुम्हारे छोटे से मुँह में
और झाँकती तुम्हारी झपझप करती आँखों में
पढ़ लेती तुम्हारी तुष्टि
तुम्हारी किश्तों में पूरी होती नींद
घटा देती उसकी नींद
घण्टों से मिन्टो में

और आज तुम एक पूर्ण पुरुष हो
अपने पिता की तरह

तुमने निषिद्ध कर दिए है
उसके प्रवेश किन्ही विशिष्ट मन्दिरों में
गर्भगृहों में

उसकी देह एक मन्दिर है
जिसकी अंतर्यात्रा तय करके
बाह्य-जगत में आये हो तुम

जिसके लिए अस्पृश्य घोषित किया उसे
उसी संसर्ग उसी रज उसी रक्त से निर्मित तुम
उसी गर्भगृह में पड़े रहे नौ माह
शुचितवादियो सुनो,
जिस मार्ग से आये बाहर
वो अपवित्र ?

उस मन्दिर में जिस दिन हो जायेगा
तुम्हारा प्रवेश वर्जित
रह पायेगी क्या दुनिया
और तुम्हारे बनाये नियम भी?

🔴 ||  हमारे डर  ||

घर से निकलते ही
भीड़ में खो जाने के डर
अच्छे कपड़ों में
नज़र लग जाने के डर
सादे कपड़ों में
आम नज़र आने के डर

अव्वल आने पर
साथियों की ईर्ष्या के डर
औसत रहने पर
पिछड़ जाने के डर
प्रेम की अभिव्यक्ति पर
ठुकराये जाने के डर


ब्रांडेड माल से ठगे जाने के डर
सस्ते में घटिया उत्पाद के डर
दस्तावेजों के नकली पाये जाने के डर


बाढ़ और सूखे से
बाज़ार बैठ जाने का डर
मन्दी में, बेरोज़गार हो जाने के डर

हमारे छरहरे डर
अब भीमकाय हो चले हैं
हमारे डर करने लगे है
दबाव का विस्फ़ोट

हमे ज़रूरत है, एक मसीहा की
बदल डाले जो दुनिया
बना दे जन्नत ऊगा के खुशियों की फसल
मिल जाये कोई जादुई चिराग
और पल भर में,हो जाएँ
सारे रास्ते आसान

मिट जाएँ हमारे  डर

हम नही करते कोशिशें
बदलने की खुद को
और स्वयं को छलकर
डरते रहते हैं


© आरती तिवारी

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प्रतिक्रियाएँ

[09/09 10:15] Sandhya: *डर*कविता की हर पंक्ति एक अलग विस्तार लिए है खुद को नहीं बदल पाने से उपजी यथास्तिथि को बता रही हैं कवयित्री
[09/09 10:19] Sandhya: *कई बार पढी गयी किताब*में बहुत खूबसूरती से संप्रेषित किया है अपनी बात को ।
[09/09 10:21] Sandhya: *घड़ी*कविता में समय को भी लिखते हुए पिता को भी शब्द दे दिए खूब ।
[09/09 10:21] Sudhir Deshpande Ji: आरती तिवारी की कविताएं अपने आसपास पैनी नजर रखती है। वे भीतर भी उतनी ही शिद्दत से झांकती है। पाठक उनकी कविताओं मे बहने लगता है और उन्हें अपना मान लेता है। संवेदना से भरपूर कविताएं और कवि आरती तिवारी अभिनंदन।
[09/09 10:30] Sandhya: *स्त्री से पुरुष* कविता में
पितृ सत्ता को यथावत उकेरने में सफल रही कवयित्री ,लेकिन पितृसत्ता का आदिम भय स्त्री की शक्ति है जिसे बनाये रखकर ही पितृसत्ता कायम रखी जाती रही है इसके प्रति एक व्यामोह ही दृष्टित होता है इसका पुष्ट विरोध का अभाव सा लगा जो स्वयं स्त्री के हाथों में है 💥
[09/09 12:02] Aalknanda Sane: आरती की ये  कविताएं  पढ़ी हुई हैं , लेकिन आज फिर ख़ासा प्रभाव छोड़ रही हैं. चाहे वह ''हमारे डर'' हो या ''कई बार पढ़ी गई किताब'' हो. ''घडी'' मुझे हमारे समय की याद दिलाती है, जब वह न सिर्फ समय देखने के काम आती थी, बल्कि अनुशासन में भी बांधकर रखती थी. ''स्त्री से पुरुष'' स्त्री विमर्श की एक अनोखी कविता है. वह पुरूष के लिए लगभग चेतावनी की तरह है.अनेक चीजों को संयत शब्दों में स्पष्ट करती ऐसी कविता लिखने के लिए हिम्मत की जरूरत होती है. आरती , एक बार फिर बधाई.
[09/09 12:13] ‪+91 98939 44294‬: आरती ने अपनी इन कविताओं में स्त्री और जीवन से जुड़े बहुत संवेदनशील मुद्दों पर अपनी कलम चलाई है।उनकी अनुभूतियों को बहुत खूबसूरती से यहां स्थान मिलता है जिन पर बहुत से कोणों से विमर्श सम्भव होता है।यही इन कविताओं की ताकत भी है। आरती बहुत मेहनती रचनाकार हैं,निश्चित ही इन कविताओं के शिल्प और संपादन पर वे और काम अभी करेंगीं,उन्हें यादगार बनाने में सफल भी होंगीं।बधाई और शुभकामनाएं।💐💐
[09/09 12:30] Dinesh Mishra Ji: आरती जी
सारी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं
और आपकी पैनी नज़र और नज़रिये को उद्घाटित करती हैं, छोटी छोटी चीज़ों को इतनी संवेदनशीलता के साथ महसूस कर उपजी ये कवितायेँ अपने कथ्य को लेकर बहुत निश्चल और निष्पाप लगीं, बधाइयाँ।
[09/09 12:59] Meena Sharma Sakiba: आरती जी की कविताएँ, उनके अन्तर की सिहरन को कविताओं के रूप में प्रस्तुत करती हैँ.कई बार पढी गई किताब, घड़ी,जैसेस्मृति के पृष्ठ पलटकर डूबी हों उनमें,सुन्दर शब्द...भावों के सिरे पकड़कर, और जी ली एक उम्र कविता के साथ...स्त्री से पुरुष कविता का एक-एक शब्द वाक्य का हाथ पकड़ कर एक लम्बी कविता कह रहा है.उत्कृष्ट रचना है यह !  दुरूहता से दूर सहज अभिव्यक्ति जीवन मूल्य ों केप्ति संवेदना से भरी हुई कविताएँ.
[09/09 13:02] Meena Sharma Sakiba: बध्ई आरती जी ,फिर फिर चिन्तन के लिये आवाज देती कविताओं की सुन्दर प्रस्तुति के लिए ब्रज जी का आभार, बधाई आरती जी श्रेष्ठ रचनाओं  से परिचय कराने के लिये !
[09/09 13:04] Chandrashekhar Ji: घड़ी के माध्यम से पिता पर बहुत ही प्रभावी और स्पर्शी आख्यान...
वर्तमान समय में पसरी हुयी विसंगतियों का सामना करने का उपाय "हमारे डर " में है।
स्त्री से पुरुष निश्चिति ही साहसिक प्रयास है लेखन के दृष्टिकोण से।
भरपूर मेहनत के उपरांत पटल पर रखी गयी कविताओं के लिए आरती जी को बधाई।
[09/09 13:14] Saksena Madhu: आरती की कविताएँ ..उनके काव्यकर्म को सार्थक कर रही हैं ।भाषा विम्ब कसावट सब है ।कहीं कोई झोल नहीं ।लगता है खुद ही खुद की समीक्षक है ।

कई बार पढ़ी गई किताब में एक बात और लिखना था कुछ ख़ास पढ़कर कितनी रातों को सो नहीं पाई थी ।मेरे साथ हुआ यही ....स्पार्टकस पढ़ कर हफ्ता भर  ठीक से सो नहीं पाई थी ।आप बीती सी लगी कविता ।

 घड़ी पर बहुत कविताएँ लिखी गई है फिर भी आरती कविता सबसे अलग और ताजगी लिए हुए है । जीवन की सीख देती ये कविता...समय का महत्व बताती हैं ।

स्त्री से पुरुष कविता ने विस्तार जयदा ले लिया पर उबाऊ होने से बची रही ।यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है ।
बात कुंती से शुरू होकर पुरे समाज पर चली गई ...

अच्छी कविताओं के लिए बधाई आरती ।
आभार एडमिन जी ।
[09/09 13:42] Bhavna Sinha Sakiba: पहले भी पढ़ी हूँ  और आज फिर से पढते हुए मुझे "घड़ी "कविता  सबसे अच्छी लगी ।  सचमुच चीजों से हमारी संवेदनाएं  जुड़ी होती है। "डर" कविता  भी  बहुत प्रभावित करती है--
स्वयं को छलकर डरते रहते हैं।
"स्त्री से पुरुष "कविता का  विषय हालाँकि पुराना लेकिन कवयित्री ने इसे जिस तरह निभाया है वह तारीफ के कबिल है। बहुत ही नपे तुले शब्दों में  कही गई संतुलित कविताएँ, ,,,,,,,
बधाई आरती जी।
[09/09 13:48] Rajendr Shivastav Ji: आरती जी की अच्छी कविताएँ ।
"हमारे डर " अपने मनोविज्ञान को उकेरती कविता ।
....हम नहीं करते कोशिशें बदलने की खुद को....।
कईबार पढ़ी गई किताब अंतर्यात्रा जैसी कविता ,गुजर गई जो एक उम्र याद दिलाती हुई।
घङी- वक्त का पर्याय,भूत वर्तमान भविष्य के अच्छे प्रतीक  ।बहुत विश्वास से लिखी गई कविता ,"जो भी  है बस यही एक पल है..."
स्त्री से पुरुष -स्त्रीविमर्श की प्रभावी कविता ,ऐसे ही भावार्थ  लिये एक कविता इसी पटल पर पहिले भी पढ़ने का अवसर मिला है ।नाम भूल रहा हूँ।
सभी  कविताएँ भाषाई दुरूहता से परे हटकर सरलत व सहज अभिव्यक्ति के साथ पाठक को प्रभावित करती लगी।
बहुत बधाई आरती जी ।
[09/09 13:59] Ghanshym Das Ji Sakiba: आरती जी सभी कवितायेँ बहुत ही गहन अर्थ समाये हुये है । हमारे डर  कविता के माध्यम से हमारी उस मानसिकता की और इंगित किया है जिसके कारण सदियों से हम अपनी मुसीबतो / अत्याचारों से संघर्ष करने के स्थान पर हमेशा किसी तारणहार का इंतजार करते उनको सहते रहते हैं , घड़ी कविता अपने पिता की अच्छाईयों को बहुत खूबसूरती से बयां करती है । स्त्री से पुरुष तो बहुत ही अद्भुत ही रचना है जिसमे पुरुष का अहं नारी पर तरह तरह के बंधन आरोपित करता है । कितनी बड़ी बात कहती हैं ये पंक्तियाँ "शुचितावादियो सुनो ........और तुम्हारे बनाये नियम भी ?" अच्छी रचनाओं के लिये बधाई
[09/09 14:02] Dipti Kushwaha: आरती समय और परिस्थतियों से सार्थक संवाद करती हैं और काव्यगत अनुकूलताओं को और प्रिय बनाती हैं ।
स्त्री से पुरुष के बारे में मधु जी ने जो कहा है, उस पर अंगुलि धरती हूँ ।
मुझे लगता है, उम्दा प्रतीकों के माध्यम से आगे बढ़ती प्रभावी कविता 'घड़ी' की अंतिम पंक्ति कुछ और बात...पंच सी पंक्ति माँगती है।
प्यारी सखी है, आरती मेरी ! कोशिश की है तटस्थ पाठक की दृष्टि से उसकी कविताएँ देखूँ ।

बहुत बधाई आरती, बहुत अच्छा कर रही हो !
[09/09 14:03] Pravesh soni: आरती की कवितायेँ  एक लम्बे इन्तजार के बाद पटल पर आई है ,इसके लिए एडमिन जी से थोड़ी शिकायत है ।
स्त्री विषयक कवितायेँ लिखने में आरती की कलम को प्रणाम करती हूँ ।बेजोड़ विषय लेकर कवित्व रचती है ।डर का भीमकाय हो जाना ,और खुद को न बदल कर मसीहा की दरकार रखना ... इन्सान की आश्रित होने की प्रवर्ति को दर्शाता है।

किताब के माध्यम से बहुत ही अच्छी कविता लिखी है ।इस कविता में विचारों को खूब संजोया है ,संवेदना भी पुस्तक के चरित्र के साथ साथ बहती गई ,मन को उद्वेलित भी किया ।इस कविता  में स्त्री विषयक का छौंक   ने पाठक को लज्ज़त दी है ।

घड़ी अपने आपमें अनूठी कविता लगी ।समय के साथ साथ जीवन का संतुलन बनाती हुई अच्छी कविता ।
स्त्री से पुरुष में पितृसत्ता को ललकारती एक आदिम सत्य से रूबरू करवाती शानदार कविता लिखी गई
एक बार नहीं तुम्हे बार बार बधाई आरती ।
तुम्हारे कवि मन  से स्नेह है ।
💐💐💐💐
[09/09 14:17] Komal Somrwaal: आरती जी की रचनाएँ प्रथम बार पढ़ी। इन्हें दूसरी बार पढने से स्वयं को नहीं रोक पायी। उत्कृष्ट लेखन में बेहतरीन भावों से लबरेज कवितायें। हर पंक्ति एक गूढ़ सन्देश लिए हुए है।
'डर'कविता वर्तमान समय में सभी मनुष्यों के मन में पल रही किंचित असुरक्षा को दर्शाती है। इस डर के साथ आज लगभग हर व्यक्ति न चाहते हुए भी जीने को विवश है क्योंकि आस पास का वातावरण ऐसे सैंकड़ों डर उपजा देता है।
'कई बार पढ़ी गयी किताब' हर पाठक को उसकी सबसे पसंदीदा किताब की याद दिला ही देती है। पाठक कविता पढ़ते समय खुद को इससे जोड़ने से नहीं रोक पाता और इसे खुद के द्वारा सबसे अधिक पढ़ी गयी किताब से तुलना कर ही बैठता है।
"घड़ी" कविता में वर्तमान,भूत और भविष्य का सामंजस्य घड़ी के कांटों द्वारा दिखाया रचनाकार ने। तर्कसंगतता का सुंदर उपयोग।
'स्त्री से पुरुष' कविता पौरुष मानसकिता पर कठोर प्रहार करने में सफल।
सभी कवितायें शानदार लगी।👏🏼👏🏼
[09/09 15:59] Shaahnaaz: बहुत सुंदर संवेदनशील और प्रभावशाली कविताएँ जो अपने कथ्य में बहुत महत्वपूर्ण हैं । बढ़िया कविताओं के लिए बधाई आरती जी को 💐
[09/09 17:48] HarGovind Maithil Ji Sakiba: सभी कवितायें बहुत ही संवेदनशील और संप्रेषणीय है ।जो पाठक के मन तक पैठ बनाने में सफल होती है ।सुन्दर रचनाओं के लिए आरती जी को बधाई और एडमिन जी का आभार 🙏
[09/09 18:14] Braj Ji: *डर* कविता अदभुत काव्य विधान लिए है. किताब में भी नया कहन है और यह एक आयामी नहीं है. पिता की घड़ी के लिए कविता कहना कोई आरती से सीख सकता है, आखरी कविता पर तो बोलने को हजार बातें हैं. वाह वाह वाह. |
[09/09 18:32] Arti Tivari: साहित्य की बात पर मेरी कविताओं को स्थान देने का आभार ब्रज जी,.ये एक साहित्यिक समूह ही नही वरन एक ऐसा संयुक्त परिवार है,.जहाँ सब सहज ,सुखी और खुशहाल लोग रहते हैं,.मित्रों ने मेरी कविताओं पर लिखा मैं शुक्रगुज़ार हूँ,.समय निकाल कर कवितायेँ पढ़ना और उन पर लिखना एक अतिरिक्त बौद्धिक श्रम मांगता है,.फिर भी मित्रों के इसी श्रम से समूह में जीवन्तता बनी रहती है। जिन्होंने कवितायेँ पढ़ीं पर लिख नही सके वे अधिक व्यस्त होंगे,.उनका भी आभार,.जिन्होंने नही पढ़ीं,.वे किसी अधिक ज़रूरी काम में व्यस्त होंगे ,कोई बात नही😊 जब कभी मुमकिन हो पढ़ें🙏🙏 साहित्य की बात समूह के सभी एडमिनो का आभार🌹🍀
[09/09 18:37] Aanand Krishn: हमारे छरहरे डर
अब भीमकाय हो चले हैं ।

समकालीन आतंक की सरलतम शब्दों में अभिव्यक्ति ।
[09/09 19:01] Padma Ji: आज पटल पर आरती जी कवितायेँ नवीन उद्भावनाएँ लिए सहज सरल शैली में उपस्थित हैं।

  कई बार पढ़ी गयी किताब

में किताब का मानवीकरण कर सुन्दर अभिव्यक्ति की है।


स्त्री से पुरुष कई प्रश्नों को उपस्थित करती है।
 पर शीर्षक सही नही लगा।
कवयित्री का अपना निर्णय है।

कवितायेँ प्रभावपूर्ण और प्रवाहपूर्ण हैं।

बधाई आरती जी
💐
धन्यवाद एडमिन जी
🌹
[09/09 19:03] Sanjiv. sahity Ki Baat: आरती जी की कवितायें पढी । बढिया हैं। स्त्री से पुरुष लिखने के लिए बधाई। यह कविता अपने अंतर्पाठ के दौरान कई रिक्त जगह छोडती है। इन रिक्तियों को पकडने के लिए स्त्री विमर्श के कई अन्य आयामों पर बहस करने की आवश्यकता है। स्त्री की गरिमा सबसे अधिक यौनिकता के संबंध में प्रश्नांकित की जाती है न कि मातृत्व के संबंध में। पितृ सत्ता ने मातृत्व को यौनिकता से अलग रखा है।
[09/09 19:35] ‪+91 74703 34648‬: Bahut shaandaar kavitayen hain. Stree se  purush kavita to master peace hai.pitrrasatta pr  sawal khade krti yah kavita darasl pitrrasatta ki seema  ko bhi batati.yah kavita yah batati ki nafrat ka jabab nafrat ni..lekin  ek soft chetavni hai pitrrasatta ko.yah artistic visheshta ise  narivaad ke prachlit loud kavitaon se  alag kr  k poori  shrishti khaskr prem wa srijan ke paksh me sochne wali kavita banati hai.kavita yah ishara karti ki prem wa daihik samarpan stree  ki kamjori nahi...WO mamtva samjhti hai ...
[09/09 19:36] ‪+91 74703 34648‬: Yah kavita us social construction ko chinhit krti Jo janm ke baad hi shuru ho jata hai.basicly garbh se  hi
[09/09 19:37] ‪+91 74703 34648‬: Sirf  stree hi nahi banayi jati purush bhi banaya jata hai.social valueloadings  ke dwara
[09/09 19:40] ‪+91 74703 34648‬: Dar kavita par kya kahu.raam manohar lohia ne  kaha tha  ki agar apko lagta hai ki kahi kuch  galat hai to aap jaha  khade hain  pahla kadam  wahi se  uthaiye.kisi kalpit kranti ki kalpana me hath pr  haath dhare  na baithe rahiye.ya ki Gandhi ne  kha tha  ki koi kisi ko swaraj lakar  ni dega sbko Apna swaraj khud praapt krna hoga.ya appa deep bhav Buddha ka
[09/09 19:40] ‪+91 74703 34648‬: In sbka poetic transformation hai Jo bahut sundar hai
[09/09 20:31] Anil Analhatu: 'स्त्री से पुरुष'  अद्भुत रूप से स्पष्टवादी और  पितृसत्ता को खुली चुनौती देती हुई एक बोल्ड कविता है जो गर्हित पितृसत्ता के छद्म और हिपोक्रिसी को तार तार कर देता है। कवयित्री यह बिल्कुल सही प्रश्न उठाती है कि जिस देह रूपी मंदिर की अन्तर्यात्रा करके वाह्य जगत में तुम आये हो, उसी  देह के प्रवेश को किन्हीं विशिष्ट मंदिरों के गर्भ गृहों में तुमने निषिद्ध कर दिया है? क्या यह पुरुषों का  पाखण्ड नहीं है?  नासिक के त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के गर्भ गृह में अभी हाल हाल तक स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था , क्या यह ढोंग और पाखण्ड नहीं है कि जिस गर्भ गृह में नौ महीने रहकर पुरुष बाहर आता है, जिस गर्भ गृह में पुरुष अपने देवताओं की स्थापना करता है ( यह भी जानने की जरूरत है कि देवताओं की प्रतिमा मंदिर के गर्भ गृह में ही क्यों होती है ?क्या इसका साम्य स्त्री की देह नहीं है , इसीलिए कवयित्री ने स्त्री देह को मन्दिर कहा है और उसका गर्भ गृह उसकी कोख है जहां वह एक नया सृजन करती है , शायद इसी साम्य पर पुरातन काल से देव प्रतिमाएं मंदिर के गर्भ गृहों में रखी जाती हैं।)उसी गर्भ गृह को स्त्रियों के लिए निषिद्ध कर देता है क्योंकि उठाके देवगण अपवित्र हो जाएंगे।कवयित्री इसका भी जवाब देती है कि 'जिसके लिए अस्पृश्य घोषित किया तुमने स्त्री को ,उसी संसर्ग,उसी रज और उसी रक्त से निर्मित गर्भ गृह में नौ महीने पड़े रहे ' वह कबीर की भांति पितृसत्ता के छद्म को ललकारते हुए कहती है कि जिस मार्ग से तुम बाहर आए, दुनिया मव कदम रखा ,तुम्हें एक नया जीवन मिला ,वह मार्ग अपवित्र हो गया।
कवयित्री चेतावनी देते हुए कहती है कि हे पुरुषों !जिस दिन स्त्री के देह रूपी मंदिर में तुम्हारा प्रवेश वर्जित हो जाएगा ,रह पाएगी क्या यह दुनिया? और तुम्हारे बनाए नियम भी ?
साधु साधु आरती जी , इस जबरदस्त साहस और दो टूक कहने की हिम्मत पर। और सबसे बड़ी बात की कविता के कहन और कथन को पवित्र के शिल्प में निभा ले जाना। यह संतुलन साधना बड़ा कठिन होता है जिसका बड़ा सार्थक निर्वहन आपने किया है। बधाई और शुभकामनाएं।
[09/09 20:40] Dr Mohan Nagar Sakiba: आरती जी की कविताओं पर बात करने का मतलब है कि तारीफ तारीफ और केवल तारीफ .. इन कविताओं में तो कम अज कम । नये शब्द हैं नहीं इसलिए सभी गुणीजनों के वक्तव्यों से पूर्ण सहमति  । स्त्री से पुरुष कविता में सबसे खास बात मुझे ये लगी कि इस तरह की कविताएँ अमूनन आग उगलते शब्दों की दरकार रखती हैं .. बहुत बार अतिरेक में तक चली जाती हैं ..  आग यहाँ भी है .. पर अद्भुत कविताई के शब्दों में .. जहीन भाषा में .. यूं कि जैसे अंगारे हैं .. और राख के साथ .. ऐसे अंगरे मगर देर तक संरक्षित भी रहते हैं  ! बहुत सुकून मिला आज इस पाठक को .. व्यक्तिगत आभार लेखिका को इस दौर में भी ऐसा कुछ लिखने को जो मन हहरा दे 👏
[09/09 20:51] Dr Mohan Nagar Sakiba: मैं सबसे बेहतरीन कविता उसे मानता हूँ जो सब कुछ न लिखे .. कुछ पाठकों के लिए भी छोड़ दे जिसे पाठक खुद सोचें और कविता से जुड़ जाए .. अनिल जी का वक्तव्य अद्भुत .. इस कविता पर आज अनिल जी सहित लगभग सभी पाठक जुड़े .. लिखा जा सकता है अब भी ऐसा कुछ इस तरह की रचनाओं में .. पता नहीं क्यों इस दौर में लोग इस तरह के विषय को गलीचपन में ले जाते हैं  👏
[09/09 21:03] Naresh Agrawal Sakiba: डर अच्छी कविता बनते बनते अंत में बिगड़ गई। जैसे नदी के तेज प्रवाह को बीच में बांध दिया गया हो। आरती जी ने अगर अंतिम 10 12 पंक्तियों में और भी मेहनत की होती  तो यह कविता और अधिक सशक्त हो पाती। कविता  की अंतिम पंक्तियां एक सामान्य तरह का उपदेश देती हुई प्रतीत होती है ।

इनकी दूसरी कविता कई बार पढ़ी गई किताब बिल्कुल नए ढंग की कल्पना है जिसे महसूस करना और कागज पर व्यक्त करना इतना आसान नहीं है, कविता को छोटा करके और अधिक कसाव पैदा किया जा सकता था, जिससे यह और अधिक भाव पूर्ण होती । कविता की अंतिम 6 पंक्तियों में तो अद्भुत सौंदर्य है साथ ही इन से बने अनेक बिंब आपको स्वप्नलोक की सैर करा देते हैं, जैसे आप किताब और आरती जी लेखिका।

घड़ी एक सामान्य कविता है और इस विषय पर अनगिनत बार लिखा जा चुका है, इसलिए यह कोई घिसा-पिटा विषय ही लगता है।

 उनकी अंतिम कविता स्त्री से पुरुष बहुत अच्छी कविता बनते बनते अंत में भटक जाती है। यह अपने बाणों से लक्ष्य भेद तो करती है लेकिन सिर के बजाए पैर में । इस कविता में भी उन उनकी प्रखर कल्पना शक्ति मुखरित होती है और सुंदर सुंदर बिंबों को रच पाने की उनकी कला पर आश्चर्य भी होता है।

 आरती जी निसंदेह  ही एक सशक्त कवित्री हैं जिनका लेखन  दिन पर दिन जरूर  निखरेगा। आज उनकी कविताओं को पढ़कर जो सुख की अनुभूति हुई उसके लिए उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद।

[09/09 21:49] Dr Dipti Johri Sakiba: आरती जी की कवितायेँ खूबसूरत हैं और सुंदरता से काव्य को निरूपित करती है।
   तीनो कविताओं पर काफी कुछ कहा गया ,इनमे से तीसरी कविता को इसके निहितार्थों के सन्दर्भ में व्याख्यायित करना मुझे आवश्यक लगा क्योंकि एक स्त्री कैसे स्वतः पित्रसत्ता की वाहक बन जाती है इसको गौर से अंडरलाइन किये जाने की जरुरत है ।


जैसा कि संजीव जी जिन रिक्तियों की बात कर रहे है वही से ये कविता एक तरह से पित्रसत्ता के मातृत्व को glorify करने की प्रवृति को पोषित करके , स्त्री को एक मातृत्व धारण करने वाली देह में रिड्यूस कर देने की वकालत करती प्रतीत होने लगती है इन अर्थों में यह पित्रसत्ता के support में जाती है जहाँ स्त्री की sexuality को मातृत्व के माध्यम से mitigate करने का पित्रसत्ता पूरा प्रयास करती है ।।                     
         स्त्री का सम्मान पुरुषों को इसलिए करना चाहिए क्योंकि वह उन्हें जन्म देती है न की वह एक स्वतंत्र सत्ता है ऐसे में उन स्त्रियों को क्या पूजनीय नही माना जायेगा जो मातृत्व नही धारण करती या पुत्रियों को जन्म देती है । यहाँ पुरुषो को स्त्री की मातृत्व की वास्तविकता द्वारा उनकी सीमाओं का ज्ञान कराया जा रहा है न की एक इंसान के रूप में सहअस्तित्व के लिए समान अधिकारों की मांग की जा रही है । 

    ये कुछ बिंदु है जो इस कविता के अन्तर्पाठ में पित्रसत्ता के पाले में जाते दिखाये देते है जिससे ये पता चलता है कि पित्रसत्ता की कितनी गहरी conditioning है कि स्त्री कब पित्रसत्ता की वाहक बन जाती है उसे पता ही नहीं चलता । और मातृत्व तो हमेशा से ही स्त्री यौनिकता को नष्ट कर देने का पुरुषों का  हथियार रहा है ।

[09/09 21:52] ‪+91 74703 34648‬: Naarivad ki ek dhaara maatratva ko kamjori ni power manti.radical feminism se baat kafi aage  badh chuki hai.maatratva ki shakti ko rekhankit karna pitrrasatta ke paale me Jana nahi varan apne vaishistya ko rekhankit karna hai
[09/09 22:01] Dr Mohan Nagar Sakiba: मैं आज बहुत से अद्भुत वक्तव्यों की थाह में जाने के प्रयास में हूं जो कविता के नयी द्रष्टि से पाठ का आग्रह कर रहे हैं .. किया .. फिर भी अन्यथा न लें .. सहमत नहीं  । शायद ये की इसपर वे तस्लीमा से लेकर शुभम श्री जैसी भाषा चाहते थे  ( अन्यथा न लें  ) या फिर ये की .. वे रचना से इतना जुड़े की उन्हें लगा कि ये .. वे लिखते तो इससे बेहतर लिखते  ( ये भी एक जुड़ाव ही है हकीकतन जिसका मैंने जिक्र किया था )
[09/09 22:03] Dr Dipti Johri Sakiba: Now feminism has travelled long since Germaine grears " respect the difference" and ecofeminist' s views of femininity supremacy over masculinity to  structuralist and deconstructivists
[09/09 22:04] ‪+91 74703 34648‬: Ab yah apni soch ki aap kisi dhaara ko maante
[09/09 22:04] ‪+91 74703 34648‬: Gaarda lernor ko maanenge.ki firestone ko
[09/09 22:05] ‪+91 74703 34648‬: Radical or liberal.so kavita me liberal aaya hai.haan WO kahin bhi pitrrasatta ke paale me nahi jaati
[09/09 22:06] Sanjiv. sahity Ki Baat: दीप्ती जी ने मेरी रिक्तयों को बखूबी स्पष्ट किया है। कविता की भव्यता उसके पितृसत्ता की धारा मे "पीयूष" स्रोत सी बह जाने में ही प्रतीत हो रही है। पितृसत्ता के बरक्स विरोध या विद्रोह के स्वर यहां नहीं है।
[09/09 22:08] ‪+91 74703 34648‬: Warning bhi pratirodh hai.hamesa loud hi ho pratirodh yah jruri ni.khaskr kavita me
[09/09 22:10] Anil Analhatu: मातृत्व से इतर स्त्री यौनिकता की स्वच्छंदता स्त्रियों को फिर से पुरुषों की सत्ता यानी पितृ सत्ता को ही पोषित करती है।
[09/09 22:12] Rajendra Gupta Ji Babuji: स्त्री से पुरुष। अद्भुत है। एक यथार्थ, जो इस पूरे सामाजिक ढांचे पर एक ज़रूरी प्रश्न खड़ा करता है। बहुत सीधा और सटीक प्रश्न। आरती जी को सलाम।आपके विचारों, आपकी साफगोई, आपकी कविता को सलाम।🌻🙏🏽🌻
[09/09 22:16] Anil Analhatu: पुरुषों द्वारा या पितृसत्ता द्वारा मन्दिरों के गर्भ गृह में स्त्रियों का प्रवेश निषेध ही इसलिए किया गया था कि उनको उनके कमतर होने का एहसास कराया जा सके , उन्हें यह बताया जा सके कि वे पुरुषों से एक पायदान नीचे हैं , कुछ यही खेल दलितों और अंत्यजों के साथ भी इसी कारण किया गया। यहां कवयित्री ने पितृसत्ता की इसी मानसिकता को अपने धारदार तर्कों से खुली चेतावनी दी है।
[09/09 22:17] Dr Mohan Nagar Sakiba: क्योंकि आप एक बहुत बहुत बेहतरीन कविता लिखेंगे शायद .. जो ये कविता नहीं ककह पाई और आपने नोट किया .. या फिर जब प्रयास करेंगे आप .. तब समझें की .. कितना साधना पड़ा होगा इस कविता को लेखिका को 👏
[09/09 22:21] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी .. इस कविता से मैं कुछ कविताएँ निकलते देख रहा हूँ .. क्योंकि ये महज आगाज है .. काफी कुछ छूटा है जो किसी की कलम से जरुर निकल सकता है .. मैं बस जता रहा हूँ .. मैं खुद भी तैयार कर रहा हूँ शायद खुद को
[09/09 22:22] Sharad Kokas Ji: आरती की यह कविताएं पहले भी पढी हैं । यहअच्छी कविताए हैं । किताब पर लिखी कविता अपने आप में एक अलग तरह की कविता है । यह ऐसे विषय हैं जिन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है फिर भी आरती ने अपनी क्षमता और अपने अनुभव के आधार पर इन्हें एक संपूर्ण कविता का रुप दिया है ।
डर कविता मनुष्य के मनोविज्ञान की कविता है। मनुष्य धीरे-धीरे अपने विकास में सुविधा भोगी होता जा रहा है और यह सुविधाएं उसके विचार कई तरह के फ़ोबिया पैदा कर रही हैं । कुछ डर वास्तविक होते हैं कुछ अवास्तविक लेकिन मनुष्य का अवास्तविक भय को भी इतना बड़ा लेता है कि वह असुरक्षा की स्थिति में आ जाता है ।
डर मूलतः एक असुरक्षा का भाव है और जैसे ही सुरक्षा का चक्र टूटता है मनुष्य भय ग्रस्त  हो जाता है ।आरती ने अंतिम बहुत अच्छी कही  है कि हम भय से मुक्ति पाने के लिए किसी मसीहा किसी अवतार की बाट जोहते  हैं लेकिन वास्तव में हमें अपने आप को बदलने की जरूरत है अपने आप को बदलना दरअसल हमारे अपने अवचेतन को समझना है । चेतन से असुरक्षा के भाव को दूर करना है यह काम बहुत कठिन है लेकिन कविता इसी बात का आव्हान  करती है
[09/09 22:30] Dr Dipti Johri Sakiba: Deconstructionist opines that to understand a women' subordination and patriarchal conditioning              " language plays the most imp role " and in order to situate a women' position in society  all prose and poetry should be re understood and re analyzed  in terms of language .

  यहाँ पर इस कविता की भाषा को समझना आवश्यक है की वह अपनी अन्तर्निहित अर्थों में पित्रसत्ता को पोषित ही करती है और सरसरी तौर पर देखने पर जबकि वह पित्रसत्ता के विरोध में दिखती है ।

यही भाषा का सूक्ष्म है जो पितृसत्तात्मक गौरव गाथा का परचम लहराता है और मातृत्व को एक मूल्य की तरह स्थापित करता है एवं स्त्री की यौनिकता का निषेध करता है  चूँकि स्त्री पुरुष की जन्मदात्री है इसलिए वह पूजनीय और गौरवशाली है यह जो अनिवार्यता का तर्क है जो मत्तरत्व के साथ स्त्रीत्व की सार्थकता को जोड़ता है,इस तर्क का निषेध पुरजोर तरीके से होना चाहिए ।
[09/09 22:34] ‪+91 74703 34648‬: Patriarchal conditioning to thik  par yah Jo antim lines hain  WO kaha pitrrasatta ko poshit krti
[09/09 22:35] ‪+91 74703 34648‬: Kavita ki bhasha kahi aisi nahi hai.haan yah jrur krti ki stree jise prem samjhti baad me wahi uski gulaami ka karan  banta.isko rekhankit krti
[09/09 22:36] Dr Mohan Nagar Sakiba: दीप्ति जी यदि पुरुष ने महज उसकी ताकत ज्यादा है .. वो सबल है .. संरक्षण दे सकता है के नाम पर तमाम धर्मग्रंथ ही अपनी सत्ता को स्थापित करने रच दिए .. तो क्या एक स्त्री को ये अधिकार नहीं की वो अपनी सबसे बड़ी मात्रत्व की ईश्वर प्रदत्त नैमत को सामने रख कर ही इसका प्रतिकार करे ?
[09/09 22:37] Anil Analhatu: अगर  स्त्री यौनिकता का उत्सव ही स्त्री मुक्ति का चरम ध्येय है तो फिर बात ही खत्म। लेकिन तब भी स्त्री मुक्त नहीं होती उत्तर औपनिवेशिक पूंजीवादी बाजार व्यवस्था यही चाहती भी है कि स्त्रियों को मातृत्व बोझ से मुक्त कर पुरुषों के अबाध भोग के लिए स्वतन्त्र कराया जाए। दुर्भाग्य से कुछ फेमिनिस्ट इसे ही अपनी आज़ादी समझती हैं।
[09/09 22:39] Anil Analhatu: मोहन ही आपकी बात से सहमत।
[09/09 22:43] Anil Analhatu: स्त्रियों की जिस यौनिक आज़ादी की वे बात करते हैं ,उसकी चरम परिणति अन्ना कारेनिना और मदाम बावेरियों के रूप में कथा संसार को मिल चूका है।
[09/09 22:43] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी और सभी मित्र माफ करें पर अनिल जी, अरुणेश जी, मुझ सहित पाठक मात्रत्व की शक्ति को ( कविता के इतर भी) बड़ा मानते हैं और वहाँ हमें इसे नकारने का आग्रह मिलता है .. आग्रह क्या  ? कठोर आग्रह .. दीप्ति जी के वक्तव्य में ... मैं कोशिश कर रहा हूँ समझने की .. पर पुरुष होकर भी नहीं समझ पा रहा
[09/09 22:46] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी .. सभी मित्र माफ करें पर अनिल जी, अरुणेश जी, मुझ सहित पाठक मात्रत्व की शक्ति को ( कविता के इतर भी) बड़ा मानते हैं औरनकारने का आग्रह मिलता है  आग्रह क्या  ? कठोर आग्रह .. दीप्ति जी के वक्तव्य में ... मैं कोशिश कर रहा हूँ समझने की .. पर पुरुष होकर भी नहीं समझ पा रहा
[09/09 22:46] ‪+91 74703 34648‬: Aagrah is baat ka hona chahiye ki stree ki apni deh hai.us par uska niyantran ho.WO jise  chahe use apni deh de.nirnaya uska ho.
[09/09 22:47] Dr Mohan Nagar Sakiba: अनिल जी .. सभी मित्र माफ करें पर अनिल जी, अरुणेश जी, मुझ सहित पाठक मात्रत्व की शक्ति को ( कविता के इतर भी) बड़ा मानते हैं और वहाँ हमें इसे नकारने का आग्रह मिलता है .. आग्रह क्या  ? कठोर आग्रह .. दीप्ति जी के वक्तव्य में ... मैं कोशिश कर रहा हूँ समझने की .. पर पुरुष होकर भी नहीं समझ पा रहा
[09/09 22:48] Anil Analhatu: बिल्कुल सही मोहन जी। अगर पुरे विश्व की स्त्रियां अपने मातृत्व से इंकार कर दें ,की वे सिर्फ सेक्स करेंगी। माँ नहीं बनेंगी तब तो यह सृष्टि ही समाप्त हो जायेगी , दीप्ति जी क्या कहना चाह रही हैं,मुझे भी स्पष्ट नहीं हो रहा।
[09/09 23:01] Arti Tivari: अनिल जी,..पूरी टिप्पणियाँ तो पढ़ नही सकी अभी घर आई हूँ किन्तु मुझे फख्र है कि जिन मूल्यों और और अस्मिता को लेकर मैंने ये कविता लिखी थी,.आपके अंदर हूबहू वैसी ही प्रविष्ट हुई है,..अपने लेखन की इस यात्रा में आज जिस भावना ने मुझे स्पर्श किया है,.मैं इतनी द्रवित और चकित हूँ कि आपने इसे बिलकुल वैसे ही महसूस किया है,.बौद्धिकता के तमाम आडम्बरों से मुक्त होकर विभिन्न कोणों के विमर्श की किसी भी सीमा के परे जाकर,..🙏🙏
[09/09 23:05] Dr Dipti Johri Sakiba: जूलिया क्रिस्टेयवा कहती है कि विमर्श को ऐसा बनाया जाना चाहिए जो लगातार मुठभेड़ की स्थिति में रहे और भाषा के गतिरोधों को तोड़ सके।देह के विमर्श को केंद्र में लाने का अर्थ है स्त्री की दुनिया को रेखांकित करना। कारन यह है कि देह को हमेशा कमजोर,अपवित्र अनैतिक माना गया है ।पितृसत्तात्मक सारे रूपों और लिंग भेद पर आधारित शक्ति संरचनाओं को नष्ट करने के लिए ही deconstructivist दृष्टि की आवश्यकता है 

 और अंत में .....मातृत्व को glorify करने और उसको  matter ऑफ़ चॉइस कहने में ही भाषा का सूक्ष्म निहित है इसे समझने और पढ़ने में जो सार निहित है उसे स्त्री या पुरुष हो कर समझने की नही , महज एक मनुष्य हो कर भी समझा जा सकता है ।
[09/09 23:09] ‪+91 74703 34648‬: Ji to deh ko kendra me lane ka Matlab yah ki social value loading to toda  jaye.Jo gender oriented hain..jaise  stree ke lips sexuality ka symbol ho gye
[09/09 23:09] ‪+91 74703 34648‬: Purush ke ni.deh ko kendra me laana is satta sanrachna ko todna hai ..moolbhoot cheezon ka nakar nhi
[09/09 23:12] Mukta Shreewastav: आरती जी,कमाल करती हैं आप.डर कविता पढ़कर हमारा डर खत्म सा हो गया.घड़ी ने भी ताज्जुब दिया.आखिरी कविता तो है ही विचारों को उकसाने वाली .चिंता की बात यह कि ये विचार क्या धर्म के ठेकेदारों तक पहुँच पाएगा.
[09/09 23:15] Anil Analhatu: देह के विमर्श को केंद्र में लाना अंततः स्त्री को एक इंसान रहने न देकर मात्र शरीर , शरीर ही नहीं उसके यौनांगों में रिड्यूस कर देना है। जहां स्त्री बाजार के एक उत्पाद में रिड्यूस हो जाती है और उसे इसकी पूरी आज़ादी होती है कि वह अपना मूल्य तय करे ,यद्यपि वह भी बाजार ही तय करता है यानी स्त्री की यह तथाकथित विखंडनवादी आज़ादी भी बाजार के द्वारा ही तय होती है। अस्तु।
[09/09 23:15] Sandhya: मैं दीप्ति की बात से पूर्णत:सहमत हूँ और यह बात जो स्त्री होने की सार्थकता मात्र उसके मातृत्व से जुड़े होने के तर्क से पाबस्ता है का विरोध करती हूँ मातृत्व यदि एक मूल्य है तो पितृत्व क्यों नहीं ?उसका पूज्यनीय होना मात्र उसके मातृत्व से नहीं जुड़ा होता और ।और मातृत्व ही मात्र ईश्वर प्रदत्त नेमत नहीं है मोहन जी पितृत्व भी उसी स्थान पर है ।मातृत्व की गौरव गाथा गा गा कर स्त्री को बांधे रखने का पितृसत्ता का विधान है ।और उसे स्त्री यौनिकता का उत्सव जैसे शब्दों से उसे न नवाज़ें कृपया माँ बनना या न बनना ये उसका स्वतंत्र निर्णय है इसमें सिर्फ स्वतंत्रता का सवाल है ।और जिस और मोहन जी इशारा कर रहे हैं उसका मातृत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है ये सिर्फ एकतरफा दृष्टिकोण है 💥
[09/09 23:23] Dr Mohan Nagar Sakiba: आप मुझे फिलवक्त उसी पित्रसत्ता की वाहक दिख रही हैं इस लिहाज से तो माफ करें .. क्योंकि उन तमाम धर्मग्रंथों की वाणी हकीकतन पित्रसत्ता को ही महिमा मंडित करती है .. बहुत हल्की सी रेखा है जो आप उधर से देख रही हैं स्त्री होकर .. मैं इधर से .. पुरुष के नाते
[09/09 23:23] Arti Tivari: माँ  बनना या न बनना स्त्री को पूर्ण नही करता वरन उससे पूर्ण होता है संध्या जी,.मेरी कविता में ये कहीं नही लिखा कि स्त्री माँ बनकर ही पूर्ण है,.मातृत्व सृष्टि को निर्बाध गति देता है जिसमे स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका है,.जिसका वो निर्वाह करती है किन्तु उसी स्त्री से जन्मा पुरुष उसे उसके रजोधर्म की वजह से अस्पृश्य घोषित करता है क्यों??
[09/09 23:23] ‪+91 74703 34648‬: Maatratva ko nahi mahimamandit kiya.Putra prapti ko mahima  mandit  kiya.stree ki dhanyata ek laal ki maai hone me hi rhi
[09/09 23:24] ‪+91 74703 34648‬: Maatratva aur  Putra prapti ka maatratva se judna do alag alag cheezen hain.
[09/09 23:30] Dr Dipti Johri Sakiba: शुक्रिया संध्या जी ,  ये जो चयन की स्वतंत्रता है  इसी में अस्तित्व की सारता निहित है । और कविता की भाषा में यह चयन की स्वतंत्रता और आत्मगौरव न दिखाई देकर , धर्म के ठेकेदारों से अपने मातृत्व की दुहाई देकर मंदिर प्रवेश का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास है । 

   इस औचित्य- साधन में मनुष्य की गरिमा न दिखकर स्त्री की करुण कातरता दिख रही है।यही भाषाई चिह्न और संकेत समझना अनिवार्य है।

[09/09 23:30] ‪+91 74703 34648‬: Yah sandarbh apki kavita ka nahi samajik hai.samaaj me Putra ka mahima mandan kiya gya hai

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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