Thursday, June 30, 2016

आज की औरत मूक है उसके आंसुओं को दुनिया देखती है उसके हिस्टिरिया के दौरे ,उसके चीखने चिल्लाने पर लोग कानों पर हाथ रख लेते है |स्त्री होना अपराध नहीं है पर नारीत्व की आँसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है ...
शब्दों का अपना इतिहास होता है ,और यदि वो छप जाए तो क्या यों उनकी उपेक्षा करना सम्भव होगा ?
जिंदगी कितनी रहस्मयी हो जाती है जब आप उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाते ?जबकि आपका सारा प्रयास होता है उसे पारदर्शिता का जामा पहनाने का ,मगर क्या जिंदगी को यूँ खोलकर रखा जा सकता है ?
उपन्यास से ...

छिन्नमस्ता हिंदी की प्रसिद्द लेखिका प्रभा खेतान अपने उपन्यास छिन्नमस्ता में स्त्री मुक्ति की कामना लेकर सवाल करती है ....कब तक आखिर कब तक पुरुष द्वारा स्त्री को रोंदा जाएगा |
परुष सिर्फ पुरुष है ,उसे बाप ,भाई ,पिता ,पुत्र के रिश्ते का नाम कथित सभ्य समाज में उज्जवल छवि दिखाने मात्र के लिए है |पुरुष की कामुकता इन नाम के रिश्तों में आज भी छिपी हुई है ....
9 वर्ष की उम्र में सगे भाई ,नौकर ..की वासना का शिकार हुई उपन्यास  की नायिका अपने बचपन को तो खो ही देती है ,तमाम उम्र पुरुष के दमघोंटू साथ से मुक्ति के लिए कसकती रहती है |
छिन्नमस्ता पर डॉ संजीव जैन का आलेख पढ़िए और अपने बहु मूल्य विचार दीजिये |हो सकता है लेखिका के सवाल का जवाब आपके पास ही हो .......



पितृसत्तात्मक वर्चस्व और छिन्नमस्ता के स्त्री चरित्र
डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
गुलाबगंज, म.प्र.

हिन्दी उपन्यास के इतिहास में प्रभा खेतान का नाम चिरस्थायी हो गया है। यद्यपि उनके उपन्यासों का मूल्यांकन अभी होना शेष है। छिन्नमस्ता और पीली आँधी के अलावा उनके अन्य उपन्यासों पर किसी भी नामधारी आलोचक ने कोई खास टिप्पणी नहीं की और न उन लेख लिखे। आज स्थिति यह है कि उनके उपन्यास अप्रकाषत हैं। सामान्यतः पाठक और शोधार्थियों को पढ़ने के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं। इसके पीछे जो कारण है, उसमें हिन्दी साहित्य की खेमेबाजी तो है ही, साथ ही प्रभा जी का आलोचकीय व्यक्तित्व भी है। प्रभा जी ने स्त्री विमर्ष के क्षेत्र में जो वैचारिक लेखन कार्य किया है, वह उनके रचनात्मक लेखन पर छा गया। उनकी विचारधारात्मक पुस्तकें जो उपन्यासों के बाद आयीं - भूमंडलीकरण और ब्रांड संस्कृति, उपनिवेष में स्त्री मुक्ति कामना की दस वार्तायें, बाजार के बीच बाजार के खिलाफ, स्त्री उपेक्षिता (अनुवाद) और स्त्री विमर्ष पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वैचारिक आलेखों ने उनकी छवि उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होने दी।
बावजूद इसके उनका उपन्यास लेखन उनकी स्त्री विमर्ष की ही पहली कड़ी है। उनमें प्रभाजी का अनुभव क्षेत्र, संवेदना और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में घुटती स्त्री की मुक्ति का आख्यान दिखाई देता है। उनका अनुभव क्षेत्र न केवल भारतीय स्त्री तक सीमित है, उसमें अमेरिका, चीन, हांगकांग और कोरिया का परिवेष भी समाहित है। विदेषी परिवेष पर आधारित उपन्यास हैं ‘आओ पे पे घर चलें,’ अग्निसंभवा और एड्स। भारतीय समाज और राजनीति के परिवेष में वे मारवाड़ी समाज की पुरुष प्रधान सामंतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था को लक्ष्य बनाती हैं। उनके पीली आंधी और छिन्नमस्ता में मारवाड़ी जीवन के बीच स्त्री की दयनीय स्थिति को स्थान मिला है तो उसी परिवेष के बीच से विद्रोह करती स्त्री भी हमें दिखाई देती है। मारवाड़ी समाज मे हो रहे बदलावों, उनकी जीवटता और संयुक्त परिवार के टूटने की कहानी हमें प्रभा जी के यहाँ प्रमाणिकता से प्राप्त होती है।
एक बंद समाज में स्त्री पुरुष के बीच के संबंधों की कहानी भी है और उनके बीच से टूटते बनते रिष्तों और संबंधों का लेखा जोखा भी है। व्यापार और पैसा ही जिस समाज में महत्वपूर्ण हो वहाँ मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हैं प्रभा जी। उनके उपन्यासों में दमघोटू वातावरण से मुक्ति पाने का संघर्ष करती स्त्री भी है और उसमें ही स्वयं को खपाती स्त्रियाँ भी हैं। यौनषुचिता, सेक्स, समलिंगी प्रवृत्तियाँ, वैवाहेतर देह संबंध, देह संबंधों में विष्वास का टूटना, विवाह नामक संस्था के बिखरते जाने के लक्षण, सामंतीय परिवार के टूटने के स्वर और नए बनते परिवारों का स्वरूप हमें उनके उपन्यासों में मिल जाता है।
इस तरह प्रभा जी के उपन्यास संसार में जीवन की विविधता के साथ-साथ अनुभवों की भी गहराई और बदलते समय और समाज की आहट भी दिखाई देती है।
परंपरागत भारतीय समाज में स्त्री की भूमिका पूर्व निर्धारित है और उसे जन्म के साथ ही यह भूमिका घुट्टी में मिलाकर पिलाई जाती है। घर की चाहरदीवारी में माँ, दादी, बड़ी बहन, भाभी, चाची, बुआ इत्यादि स्त्रियाँ जो पितृसत्ता द्वारा थोपी गई भूमिका और स्वरूप को अंगीकार कर चुकी होती हैं, वे एक लड़की को जो जैविक इकाई के रूप में ठीक उसी तरह जन्म लेती है जैसे लड़का, एक सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से औरत या स्त्री बनाने की कार्यवाही को निरंतर अंजाम देती हैं। इन्हें हमारे समाज में संस्कार देने का काम माना जाता हैं। ‘संस्कार’ देने के नाम पर दरअसल एक जैविक इकाई को जो स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के साथ पैदा होती है, उसे ‘स्त्रीत्व’ की परंपरित और रूढ़ छवि में ढाला जाता है।
प्रभा खेतान के उपन्यासों में स्त्री चरित्रों की विविधता है। उनके उपन्यास - आओ पेपे घर चलें, तालाबंदी, छिन्नमस्ता, पीली आंधी, अपने-अपने चेहरे, अग्निसंभवा, स्त्री पक्ष और एड्स। इन आठ उपन्यासों में स्त्री जीवन का विविधरंगी चित्र हमें देखने को मिलते हैं। ‘आओ पेपे घर चलें’ की आइलिन, मिसेज डी. हेल्गा, केथरीन, एडिना, लारा, क्लारा ब्राउन, मरील; ‘तालाबंदी’ की पुष्पा; ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया, नीना, कस्तूरी, सरोज, जूड़ी, श्रीमती अग्रवाल, दाई माँ, तिलोत्तमा; ‘पीली आँधी’ की सोमा, सरोज चंद्रा, संगीता, बड़ी भाभी, चित्रा, लता, रेखा, राधा, पद्यावती, मोहन की पत्नी, निमली बाई, ताईजी; अपने अपने चेहरे की रमा, रीतू, श्रीमती गोयनका; ‘अग्निसंभवा’ की आई. वी., लियेना, ‘स्त्री पक्ष’ की वृंदा, रीया, सुनीता इत्यादि के अलावा भी जीवन के विविध प्रसंगों में आये अनेक स्त्री चरित्र हैं। पीली आँधी में बहुत से स्त्री चरित्र हैं, जो उपन्यास की कथा को विस्तार भी देते हैं और उसकी व्यापक जीवन दृष्टि को प्रमाणित भी बनाते हैं। परिवेष और प्रसंग के अनुकूल स्त्री चरित्रों का सृजन प्रभा जी की विषेषता है।
प्रभा जी का नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, वह उसकी परंपरागत छवि के साथ, समाज के व्यापक संदर्भ में उसकी नई छवि और भूमिका का निर्माण करना है। वे अपने वैचारिक क्षेत्र में स्त्री की स्वतंत्रता और उसकी मुक्ति की व्यापक पक्षधर रहीं हैं। उनके उपन्यासों में स्त्री चरित्रों की खास प्रवृत्ति है विवाह नामक संस्था को मृत संस्था सिद्ध करना है। उनका मानना है कि परिवार और विवाह का पितृसत्तात्मक ढांचा स्त्री के जीवन को जकड़ कर रख देता है। उसके विचारों और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को सामने लाने का अवसर नहीं देता। उसकी इच्छा-अनिच्छा को उसी सीमित बाड़े में घुट-घुट कर जड़ होने के लिए छोड़ देता है। यही कारण है कि उनके अधिकांष स्त्री चरित्र विवाह की घेरेबंदी को तोड़ते नजर आते हैं। यद्यपि वे पुरुष के साथ से इंकार नहीं करतीं, परन्तु पुरुष के चयन का अधिकार वे अपने स्त्री चरित्रों को देने की पक्षपाती हैं।
प्रभा जी ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘‘अक्सर सोचती हूँ कि औरत अपने बारे में ऐसा कुछ लिखे जिसे किसी पुरुष ने अभी तक न लिखा हो। क्या लिखना चाहिए? मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूँ ऐसी कोई स्पष्ट विचारधारा मेरे पास नहीं है। किंतु जानती हूँ स्त्री के अनुभवों की अभिव्यक्ति कुछ विषेष और अलग रंगों और रेखाओं की पहचान है। कम से कम कुछ तो ऐसा अखोजा रहा है जिसे केवल औरत ही खोज सकती है।’’ उनकी यह बैचेनी दरअसल पितृसत्तात्मक विचारपद्धति के बरक्स बिल्कुल नये जीवन संबंधी विचारों, संस्थाओं, संबंधों, और व्यवहारों के वर्णन में देखी जा सकती है। उन्होंने स्त्री के द्वारा चयनित कई ऐसे विकल्प खोजे हैं जो रिष्तों और संबंधों की नई इबारत लिखते नजर आते हैं।
प्रभा जी के प्रमुख स्त्री चरित्र अपने अस्तित्व और अस्मिता को खोजने की कोषिष में अपना जीवन होम करते दिखाई देते हैं। वे अपने वजूद और पहचान को अब तक दी गई भूमिका के खिलाफ बनाने का प्रयास करते हैं। उनके इन प्रयासों में परंपरागत मूल्य, नैतिकता के मानंदड़, संस्थाओं की घेराबंदी, संबंधों की मर्यादा, यौन शुचिता की अवधारणा, पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई भूमिकाओं, इत्यादि के नकार में देखा जा सकता है। वे अपने जीवन को पुरुष के संदर्भ में ही परिभाषित और निर्धारित कर देने के खिलाफ हैं और इसीलिए वे अपनी भूमिका स्वयं चुनती हैं। बने-बनाये रास्तों पर न चलकर स्वयं अपने लिए नए और बीहड़ रास्तों की खोज भी वे करतीं हैं। इन रास्तों पर चलने की कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना भी साहस के साथ करतीं हैं और हमेषा ही लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन के प्रयास में रावण की लंका में ही नहीं कैद हो जातीं। वे अपने लिए वन का आश्रम और राम की अयोध्या की रचना भी करती हैं। 
छिन्नमस्ता के स्त्री चरित्र
स्त्री चरित्रों की दृष्टि से छिन्नमस्ता एक सषक्त उपन्यास है। प्रभा जी का स्त्री विमर्ष संबंधी दृष्टिकोण और विचारधारा इस उपन्यास में खुलकर सामने आया है। इसकी नायिका प्रिया मध्यवर्गीय स्त्री जीवन की प्रतिनिधि चरित्र है। प्रिया बचपन से ही दुतकार और फटकार की पीड़ा को सहन करती है, क्योंकि वह अपने सात भाई बहनों में पाँचवीं संतान थी। उसके शेष भाई बहन सुंदर थे और वह सांवली और हट्टी कट्टी थी। अपनी बड़ी बहन से वह देखने में बड़ी लगती है। उसकी माँ को संुदर बच्चे पसंद थे, इसलिए उस पर हमेषा डांट पड़ती रहती थी। नौ वर्ष की उम्र में ही उसके पिता का निधन हो गया था और उसके बड़े भाई ने उसे अपनी वासना का षिकार बनाया था। इन सब कारणों से वह डरी सहमी रहने लगी थी। इस डर और सहमेपन के बावजूद उसका बजूद उसे पितृसत्ता को चुनौती देने के लिए तैयार करता रहा और अन्ततः उसने पितृसत्ता के प्रतीक पति को और बेटे को चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया।
विवाह के बाद भी उसके जीवन में खुषी नहीं आयी। पति नरेन्द्र एक मर्द भर बनकर आता था उसके पास। उसकी वहषी भूख के कारण प्रिया को अपने औरतपन से चिढ़ हो गई। और उसे अपनी कोमल और स्त्रियोचित भावनाओं को कुचलने में ही मजा आने लगा। सेक्स के प्रति उसकी अरुचि बचपन की घटनाओं के कारण थी ही पति के लिए भी वह एक औरत भर ही थी। अतः उसने अपने औरतपन की चुनौती को स्वीकार किया और एक स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्वतंत्र पहचान बनाने में लग गई जो उसके औरतपन को उससे अलग कर सके। एक व्यक्ति के रूप में, एक इंसान के रूप में अपना वजूद उसने बनाया।
माँ बनना स्त्री के लिए सबसे अधिक महिमामंडित करता है, परन्तु प्रिया माँ बनने के बाद भी स्त्रियोचित खुषी नहीं पा सकी। अतः उसने स्वयं को एक व्यवसायी के रूप में स्थापित किया। वह अपने बेटे को नौ वर्ष की उम्र में छोड़ कर चली जाती है, क्योंकि वह जानती है कि वह भी अपने पिता की तरह बनेगा। 
’’यह उपन्यास प्रिया नामक एक ऐसी नारी का आख्यान है, जो निरंतर शोषित है-समाज की जर्जर मान्यताओं से भी और पुरुष की आदिम भूख से भी, टूट जाने की हद तक, लेकिन वह टूटती नहीं बल्कि शोषक शक्तियों के लिए चुनौती बनकर एक नई राह पर चल पड़ती है, और यहाँ से आरंभ होती है उसकी बाहरी और आंतरिक यात्राएँ संघर्षों का एक अटूट सिलसिला, बीच-बीच में वह शिथिलता अनुभव जरूर करती है, लेकिन उसके सामने एक लक्ष्य है-समाज की जिन बर्बर मर्यादाओं शक्तियों के सामने एक दिन वह मेमने की तरह मिमियाती रही थी, वे देखें कि नारी सदा ऐसी ही निरीह नहीं रहेगी। और सचमुच, प्रिया उभरती है अपनी निरीहता से। अपनी खोई अस्मिता को पुनः प्राप्त करके वह एक सबल नारी के रूप में उपस्थित होती है। संक्षेप में कहंे, तो प्रिया के माध्यम से लेखिका ने नारी-स्वातंत्र्य की भावना का वास्तविक रूप उद्घाटित किया है।’’1 
हमारी जीवन शैली और रोज-रोज की गतिविधियों में निरंतर इस बात की टेªनिंग दी जाती है कि वह एक लड़की है, उसका उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना-फिरना, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना, प्रतिक्रिया व्यक्त करना, निर्णय करना, सोचना-विचारना, आस-पड़ोस में आना-जाना, बाहर के लोगों के सम्पर्क आना या न आना, घर से बाहर कब निकलना कब नहीं निकलना, स्कूल और मोहल्ले में दोस्त बनाना आदि सब कुछ नियंत्रित और अनुकूलित किया जाता है। इन आम और रोजमर्रा की गतिविधियों को भी परिवार के बुजुर्ग सदस्य अपने अनुसार निर्धारित करते हैं और लड़की को उनके नक्षे कदम पर ही चलना होता है। उसी घर में लड़के के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। इस अन्तर को वह लड़की धीरे-धीरे महसूस करती है और स्वयं को नियंत्रण में रहने के अनुकूल ढालती चलती है। सामान्यतया ऐसा होता है, परन्तु सभी लड़कियाँ इस भूमिका को यथावत स्वीकार नहीं करतीं। वे इस भूमिका और नियंत्रण के खिलाफ या तो तत्काल विरोध करती हैं, या अपने अंदर विद्रोह को पालती रहती हैं और अवसर आने पर अपनी प्रतिक्रिया और विद्रोह को क्रियान्वित करती हैं।
यह नियंत्रण और पूर्वनिर्धारित भूमिका विवाह के बाद पुनः बदल जाती है। अब उसे एक नए घर में नए नियंत्रणों और नई पूर्वनिर्धारित भूमिका को निभाने के लिए तैयार होना होता है। यहाँ उसे अपनी वह आजादी भी छिन जाने का अहसास होता है, जो थोड़ी बहुत अपने मायके में उसे मिली हुई थी। इस कठोर नियंत्रण के चक्रव्यूह में स्त्री अपने को कैसे जिंदा रखपाती है, यह उसके धैर्य और साहस और अन्नत ऊर्जा का परिणाम ही है।
छिन्नमस्ता की ‘प्रिया’ एक ऐसी ही नायिका है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा प्रदत्त और परिवार द्वारा अनुकूलित भूमिका की सीमाओं को तोड़कर, नकारकर, परिवार और समाज तथा व्यवस्था से बाहर अपनी पहचान बनाती है। अपना अस्तित्व, अपने होने को प्रतिष्ठिापित करती है बिना किसी ‘मर्दत्व’ के सहयोग के। 
‘‘आखिर तक नरेन्द्र ने मेरे साथ सही साझा नहीं किया। उसने समाज में मुझे जलील किया, लेकिन नरेन्द्र का समाज बड़ा छोटा है। वह सिफ दो-ढाई सौ पैसेवाले घरानों का समाज है, और मानव समाज इससे बहुत बड़ा है, और जब से मेरे कदम इस बृहत्तर समाज की ओर उठे, मैं रुक कहाँ पाई? मैं जितना ही अपने काम में सफल हो रही थी, उतना ही नरेन्द्र से किए जानेवाले रोज रोज के टुच्चे समझौते मुझे खलते थे। मेरे व्यापार की एक दुनिया थी, जहाँ काम करके मेरा आत्मविष्वास बढ़ता था। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह व्यापार में दस संभावनाओं के बीच चुनाव करती थी। अपने चुनाव पर डटे रहना भी मेरे लिए कठिन नहीं होता है।’’2
वह शोषित है, प्रताड़ित है अपनी माँ के द्वारा भी और बड़े भाई के द्वारा भी। कॉलेज में प्रोफेसर के द्वारा भी और अंत में अपने पति नरेन्द्र के द्वारा भी। उसका संपर्क पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष से जहाँ कहीं भी होता है, वहीं वह उसके द्वारा शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में उत्पीड़ित होती है और अन्त में अपने पुत्र के द्वारा भी जो कि उसे भुला ही देता है और पिता की भूमिका को आगे बढ़ाता है।
‘छिन्नमस्ता’ में ‘निरंतर शोषित’ प्रिया ‘अर्थ और सेक्स’ यानी दोनों ही मोर्चाें पर कुचले जाने के विरुद्ध या/और कुचले जाने से बचने के लिए शोषक शक्तियों के लिए चुनौती बनकर नई राह (?) पर चल पड़ती है यहाँ प्रिया भी आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के लिए संघर्ष करती हुई स्त्री है, जिसके सामने है संघर्षों का एक अटूट सिलसिला।’’3 प्रिया एक ऐसी स्त्री चरित्र है जो इंकार का साहस रखती है, अपने प्रति होने वाले शोषण और उत्पीड़न का विरोध करती है। पति से अलग होने की हिम्मत और आर्थिक रूप सुदृढ़ स्थिति में अपने खड़ा करने का विकल्प चुनती है। उसमें परिस्थितियों का सामना करने की हिम्मत और विवेक दोनों हैं। वह हार कर पलायन का रास्ता नहीं अपनाती, बल्कि नरेन्द्र को इस बात का अहसास कराती है कि वह अपने बल पर जिंदा रह सकती है। वह पितृसत्ता द्वारा दी गई भूमिकाओं से इंकार करती है। वह कहती है ‘‘नहीं, मुझे अम्मा की तरह नहीं होना, कभी नहीं। भाभी की घुटन भरी जिन्दगी की नियति मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। मैं अपने जीवन को आँसुओं में नहीं बहा सकती। क्या एक बूँद आँसू में ही स्त्री का सारा ब्रह्मांड समा जाए? क्यों? किसलिए? रोना और केवल रोना, आँसुओं का समन्दर, आँसुओं का दरिया और तैरते रहो तुम। अम्मा, जीजी, भाभीजी, ताई, चाचियाँ, यहाँ तक कि मेरी षिक्षिकाएँ भी, जिनकी ओर मैंने बड़ी ललक से देखा, जिनको मैंने क्रान्तिचेता पाया था, वे भी तो उसी समन्दर को अपने-अपने आँसुओं से भरती चली जा रही थीं। क्यों नहीं लड़कियाँ वैसे ही खिलखिला कर हँसतीं, मदमस्त, जैसे कॉलेज में लड़के हँसते हैं?’’4 ‘‘साधन-संपन्न उच्चवर्गीय संयुक्त परिवारों में बेटी से बहू तक, प्रायः हर स्त्री तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के बावजूद अनाथ और असहाय-सी व्यवस्था के सम्मोहन में सुरक्षा खोजती हुई व्यवस्था का एक हिस्सा बनने की पूरी चेष्टा में ही जिंदगी बिता देती है, लेकिन ‘छिन्नमस्ता’ की नायिका अंततः कहती है, ‘‘नरेंद्र की व्यवस्था के सामने हार मानने का अर्थ यह नहीं हुआ कि तुम सारे मुकामों पर हार गई। उसे वहीं छोड़ दो, वहाँ वह है। तुम खुद अपनी व्यवस्था बन सकती हो, अपनी जमीन।’’ इस यात्रा में लेखिका ने ‘‘नारी-स्वातंत्र्य की भावना का वास्तविक रूप उद्घाटित’’ करने के लिए ‘स्थिति और समस्या’ का ‘चिंतन मनन और बौद्धिक विश्लेषण’ की किया है। दर्शनशास्त्र से समाजशास्त्र तक सभी प्रमुख किताबी विचारों के बावजूद प्रिया की ‘जिंदगी विरोधाभासों का बंडल’ ही बनी रही है, खोई हुई अस्मिता को पुनः प्राप्त करने के संघर्ष में प्रिया के सामने जो मॉडल है, वह उसे लगातार वही बनाता है, जिसके खिलाफ उसकी सारी ‘लड़ाई’, ‘विद्रोह’ या ‘क्रांति’ है- यानी वह स्वभाव से मर्द बनती जाती है, अंततः अकेली और मृत्यु-इच्छा के विषाद से घिरी हुई, अपनी व्यवस्था और जमीन होने का भ्रम लिये हुए।’’5 
नहीं चाहिए उसे पुरुष की सुरक्षा और परिवार का संरक्षण, नहीं चाहिए उसे पुत्र का सुख और परिवार की सुविधा। वह घर और परिवार के सुरक्षा के आतंक के घेरे को तोड़कर देष विदेष की यात्रा करती है और अपनी पहचान को स्थापित करती है। वह पुरुष के संदर्भ में और उसके द्वारा दिए गए स्वरूप से बाहर स्त्री का अपना अलग स्वरूप और संदर्भ खड़ा करती है।
‘‘कि मेरे स्व का घेरा वृहद् से वृहत्तर की ओर अग्रसर हो रहा है। नहीं, मैं दुनिया में असुरक्षित नहीं। मेरे पास मेरा व्यवसाय है।’’6  प्रिया की खासियत यह है जो अन्य उपन्यासों के स्त्री चरित्रों से उसे अलग करती है, वह यह कि वह नरेन्द्र से अलग होकर अपनी यौनिकता को नियंत्रित रखती है। वह किसी अन्य पुरुष का दामन नहीं थामती। उसके किसी अन्य पुरुष से सैक्सुअल संबंध नहीं हैं। यद्यपि वह अपने स्त्री होने के अहसास को खोती नहीं है। वह पुरुषत्व के गुण भी नहीं अपनाती। यह जो आत्मनियंण वह अपनाती है, यह उसे एक नए संदर्भ में देखने परखने के लिए विवष कर देते है। फिलिप से उसके मित्रता के संबंध हैं, उससे मिलकर, बातें करके वह अपने अन्दर पूर्णता का अहसास करती है। यह मिलना कुछ-कुछ कठगुलाब के रिचर्ड और मनु के संबंधों की याद दिला देता है, यद्यपि उनके बीच शारीरिक संबंध भी थे, परन्तु वे इतने उदात्त रूप में हैं कि वहाँ शारीरिकता गौण हो जाती है, और एक दूसरे का होना मात्र शेष रह जाता है। ठीक इसी बिन्दु पर प्रिया और फिलिप के रिष्ते खड़े हैं। फिलिप पुरुष है, परन्तु पितृसत्ता का प्रतिनिधि नहीं है। वह एक मनुष्य है और प्रिया को भी एक मानवीय इकाई के रूप में ही स्वीकारता है। यह यह अस्तित्व युक्त मित्रता का संबंध है यही वह बिन्दु जहाँ से स्त्री विमर्ष अपनी सफलता की लड़ाई जीतने का प्रयास कर सकता है।
फिलिप और प्रिया के संबंधों की पड़ताल होनी चाहिए और उनके बीच के मानवीय संबंध को रेखांकित किया जाना चाहिए। स्त्री विमर्ष स्त्री और पुरुष के बीच के इसी संबंध को कायम करना चाहता है। फिलिप की नजरिया न केवल प्रिया के प्रति बल्कि उसकी पत्नी जूडिथ के प्रति भी वैसा ही है। उसमें पितृसत्तात्मकता की बू कहीं भी आती नहीं दिखाई देती। इस संदर्भ में रोहिणी अग्रवाल का यह कथन सटीक बैठता है -
‘‘चूँकि नारीवाद अपने मूल रूप में लैंगिक लड़ाई को बढ़ावा देने के बजाय सह-अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना है अतः प्रत्येक संवेदनषील-विवेकषील स्त्री एवं पुरुष स्त्री-सषक्तीकरण का अनिवार्य एवं वांछित संवाहक बन जाता है।’’7 प्रिया और फिलिप का संबंध इसी सह-अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना को साकार रूप देने का प्रयास माना जाना चाहिए। ऐसा ही एक अलग प्रयास कठगुलाब की नीरजा और विपिन के बीच बनने वाले नए संबंध की परिकल्पना में मृदुला जी ने की थी।
पितृसत्ता द्वारा शोषित और प्रताड़ित - ‘‘बचपन में बड़े भाई द्वारा यौन-शोषण के बारे में चुप्पी और किसी से न कहने की सौगंध के साथ प्रिया को लगता है ‘यह मेरा कलंक है’। शील, कुँआरापन और पवित्रता के मिथकीय संस्कारों की शिकार प्रिया गहरे अपराध-बोध के कारण ही आत्महत्या की कोशिश करती है। इस दुर्घटना का ही प्रभाव है कि प्रिया ने ‘‘मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि मुझे लड़की ही बने रहना है, औरत नहीं बनना’’, लेकिन बार-बार सोचती है कि ‘‘क्या था मेरी आँखों में कि हमेशा पुरुषों की गिद्ध-दृष्टि मुझ पर पड़ती।’’ एक क्षण वह कहती है, ‘‘भीतर रोती हुई इस वर्ष की लड़की को एक दिन मैंने जिंदा दफना दिया था। नहीं मैं औरत नहीं होना चाहती’’, लेकिन अगले ही क्षण सोचती-विचारती है,ं ‘‘सदियों की इस अमानवीय परंपरा को किस बीमारी का नाम दूँ, जहाँ मेरी-जैसी विद्रोही लड़कियाँ भी समर्पित पत्नी और माँ बन जाने को विवश हो जाती है’’। बड़े भाई द्वारा बचपन में यौन-शोषण की दहशत भरी स्मृतियाँ ‘अँधेरी सुरंगों में दिन-रात दर्द का बोझ लिये दौड़ती रही हैं’ और प्रिया को हमेशा यह यहसास बना रहता है, ‘‘मैं ने फूल बनी, न नागफनी का काँटा। कुछ नहीं, बस एक सुलगता हुआ अंगारा या फिर एक धुआँ उगलती हुई आँसुओं से तर गीली लकड़ी।’’8 
प्रिया के रूप में एक ऐसा स्त्री चरित्र हमारे सामने आता है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतिपक्ष रचता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की संरचना -सत्ता और वर्चस्व - की राजनीति पर आधारित होती है और उसके मूल में है आर्थिक स्रोतों पर पुरुष का वर्चस्व। छिन्नमस्ता की दो अन्य स्त्री चरित्र - प्रिया की माँ और सास, दूसरी सास पितृसत्ता के इसी आर्थिक रूप के द्वारा शासित हैं। प्रिया की सास अपने लड़के नरेन्द्र की अनाधिकार और नाजायज चेष्टाओं को सहन करती रहती है। उधर उसकी माँ प्रिया के भाई की नाजायज हरकतों पर परदा डालती रहती है। प्रिया ने इन दोनों ही घरों में पैसे की ताकत को पुरुष का हथियार बनते देखा था और महसूस किया था कि उत्पादन के स्रोत और आथर््िाक संसाधनों पर जिसका अधिकार होगा, घर, परिवार, समाज और देष में उसकी पहचान, वर्चस्व कायम रहता है।
अपनी ससुराल में उसे घर से बाहर निकलने के लिए और अपनी पहचान कायम करने के लिए, एक अवसर मिलता है और वह उस अवसर का फायदा अपने अस्तित्व को बनाये रखने में करती है। अपना व्यवसाय प्रारंभ करके। यहाँ देखने लायक बात यह है कि पुरुष के लिए पैसा वर्चस्व की सत्ता कायम करने का हथियार होता है, वह इसके आधार पर परिवार के अन्य सदस्यों पर अपनी दादागिरी चलाता है और अपनी जायज नाजायज कार्यों को बेखौफ करता है, परन्तु एक स्त्री के लिए पैसा उसकी पहचान होती है, उसकी आत्मिक संतुष्टी और अपने होने की सार्थकता को महसूस करती है। प्रिया सफल उद्योगपति बन कर भी अपने अहं को तुष्ट नहीं करती, न किसी पर षासन चलाती और किसी के अधिकारों का अतिक्रमण करती, वह उसके अपनी भावी पीढ़ी अपनी ननद को सौपने के लिए मानसिक रूप से तैयार होती है।
वह कहती है ‘‘नरेन्द्र, मैं व्यवसाय रुपए के लिए नहीं कर रही। हाँ चार साल पहले जब मैंने पहले-पहल काम शुरु किया था, मुझे रुपयों की भी जरूरत थी। पर आज मेरा व्यवसाय मेरी आइडेंटिटी है। यह आये दिन की मेरी विदेषों की उड़ान...यी मेरी जिन्दगी के कैनवास को बड़ा करती है। नित्य नए लोगों से मिलना - जुलना, जीवन के कार्य जगत को समझना। मुझे जिन्दगी उद्देष्यहीन नहीं लगती।’’9  स्त्री की इस पहचान और बढ़ते कैनवास को देखकर पितृसत्ता हमेषा से आतंकित होती आई है और अपने डर को स्त्री पर लांछन लगा कर नीचा दिखाना और उसे कमजोर करने का कार्य करती है। नरेन्द्र भी यही कहता है ‘‘तुम यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम्हें अकेले मौज करने की आदत पड़ गई है।’’10
पितृसत्ता के लिए स्त्री का काम करना दूसरे दर्जे का  काम है, पत्नी होना, माँ होना, बहू होना प्राथमिक कार्य है। इसी तर्क से स्त्री दोहरे-तिहरे शोषण का षिकार बनाई जाती है। नरेन्द्र भी यही कहता है - ‘‘काम करो पर यह मत भूलो कि तुम विवाहिता हो, एक बच्चे की माँ हो, अग्रवाल हाउस की बहू हो।’’11
पितृसत्ता स्त्री की अलग पहचान नहीं बनने देने चाहती है। इसीलिए वह निरंतर उसे परंपरागत भूमिकाओं में घकेलते रहने का प्रयास करती है। जो स्त्री काम को अपनी पहचान बनाने का प्रयास करतीं हैं उनके पर इसी तरह कतर दिए जाते हैं। आज की सबसे बड़ी बिडंबना यही है कि घर बाहर काम करने वालों मेें स्त्री की संख्या तो बड़ी है, परन्तु वे उस काम को अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं बना पायीं हैं। काम उनके लिए पति की आय में थोड़ी सी वृद्धि करने तक ही सीमित होती है। आज मेरा अपना अनुभव यह जानता है कि मेरे आस-पास काम करने वाली सैकड़ों स्त्रियाँ जो अच्छे पदों पर हैं, वे भी अपनी मर्जी से अपने वेतन को खर्च नहीं कर सकतीं। कई स्त्रियों के साथ यह भी है कि उनका वेतन उन्होंने कभी देखा ही नहीं। बैंक में जमा होने वाला वेतन पति अपनी मर्जी से निकलता है, खर्च करता है और अपना षासन उसी तरह चलाता है जिस तर घरेलू स्त्री का पति। बहुत सी ऊँची तनख्वाह पाने वाली स्त्रियों ने तो कभी बैंक का मूँह भी नहीं देखा। अगर उनको अकेले बैंक भेज  दिया जाये तो वे बैंक से पैसा भी नहीं निकाल सकतीं। तो इस स्थिति में वे घर के काम के साथ पैसे कमाने की मषीन और बन जाती हैं। यह स्थिति है आज के समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की।
प्रिया इस स्थिति को स्वीकार करने से इंकार कर देती है। वह पितृसत्ता की किसी भी व्यवस्था में फिट होने से स्वयं को अनुकूलित होने से बचा लेती है। यही उसका शांत विद्रोह है, एक मूक क्रांति है जो धीरे से उपन्यास में घटित हो जाती है। इसकी प्रतिक्रिया में नरेन्द्र आहत होता है, विचलित होता है, इसलिए नहीं की प्रिया उसकी पत्नी उससे अलग हो गई बिना तलाक दिए, बल्कि इसलिए कि वह पति होकर, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का संचालक होकर एक स्त्री को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका और इस रूप में वह असफल हो गया। इसी कारण उसके पुरुषत्व को चोट लगती है और वह एकदम अमानवीय स्तर पर उतर आता है। उसकी प्रतिक्रिया में कहे गऐ वाक्य पुरुषत्व के अंह को लगी चोट की प्रतिक्रिया ही अभिव्यक्त करते हैं।
उसका कहना है ‘‘दरअसल तुम्हें इतनी खुली छूट देने की गलती मेरी ही थी। मुझे पहले ही चिड़िया के पंख काट डालने चाहिए थे। पर मैं तुम्हारी बातों में आ गया। तुम्हारे इस भोले चेहरे के पीछे एक मक्कार औरत का चेहरा है।’’12 जब नरेन्द्र उससे प्यार और वफादारी, ईमानदारी, समर्पण की बात करता है तो प्रिया का जबाव पितृसत्ता की भाषा के चक्रव्यूह को विखेर कर रख देता है। ‘‘कुछ नहीं। सच कहूँ नरेन्द्र, ये शब्द भ्रम हैं। औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि वह इन शब्दों के चक्रव्यूह से कभी नहीं निकल पाए ताकि युगों से चली आती आहुति की परंपरा को कायम रखे।’’13 पुरुष का अहं जब चोट खाता है तो वह बौखला जाता है। नरेन्द्र में इस बौखलाहट को देखा जा सकता है। ‘‘हाँ, यह घर मेरा है, और सुनो, संजू भी मेरा है।  कानून की नजर में बेटे की कस्टडी बाप को मिलती है।’’..... यह मत भूलो प्रिया कि मैं पुरुष हूँ, इस घर का कर्ता। यहाँ मेरी मर्जी चलेगी; हाँ सिर्फ मेरी।’’14 
पितृसत्ता कभी यह सहन नहीं कर सकती है कि उसकी पत्नी उससे अधिक कमाये और उसकी जगह वह घर पर अपना वर्चस्व कायम कर ले। प्रिया एक नया रास्ता चुनती है। वह घर की सुरक्षा और पति के संरक्षण को ठोकर मार देती है। उसमें इंकार करने का साहस है। वह पितृसत्ता के समक्ष अपने का कमजोर नहीं करती। स्वयं को स्थापित करती है, एक व्यक्ति के रूप में, एक व्यवसायी के रूप में, एक मित्र के रूप में, एक भाभी (नीना की) के रूप में। वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उन सारे रूपों को नकार देती है जो उसे जन्म से घुट्टी की तरह पिलाये जा रहे थे।
प्रिया कई अवसरों पर स्वतंत्र निर्णय लेती है। वह बिना पति की इजाजत के अपनी दूसरी सास और ननद से मिलने जाती है। संजू को भी ले जाती है। पति के मना करने पर भी उनसे मिलना नहीं छोड़ती। नीना जो उसकी ननद है, उसे भावी पीढ़ी के रूप में देखती है और उसे स्वयं के बारे में निर्णय करने के लिए स्वतंत्र छोड़ती है। पति से अलग रहने का फैसला बहुत मायने रखता है। स्वतंत्र रूप से व्यवसाय करने का निर्णय भी उसका अपना है। वह सुरक्षा और मोह के मायाजाल को तोड़ने का निर्णय भी करती है।
एक स्त्री को संस्कार के रूप में स्त्री की पराधीनता की बेड़ियाँ मिलती हैं, अधिकांष स्त्रियाँ इन्हीं बेड़ियों को अपना स्वभाव बना लेती हैं। इसे ही स्त्री की नियति भी मान लिया जाता है। प्रिया अपने बचपन के शोषण में ही इस द्वंद्व को झेलती है- ‘’क्यों? मैं क्यों इतनी दब्बू? इतनी कायर? क्या दाई माँ के कारण भय का संस्कार पनपा? या अम्मा की उपेक्षा में या फिर हमारे समाज की हजारों-लाखों स्त्रियों के साथ ऐसा ही घटता रहा है? पर हर औरत मूँह खोलने से घबड़ाती है। क्या सबको एक ही निर्देष मिला है अपनी माँ से? अपनी बहन से? मत बोलना, बिटिया! कभी नहीं। क्या घुटती हुई हर माँ ने औरत के जनम को ही नहीं कोसा? क्यों? नहीं, मैं औरत होना नहीं चाहती। मैं कभी किसी से प्रेम नहीं करूँगी। कभी शादी नहीं। सेक्स से घृणा है मुझे, बेहद घृणा। मैं एक ठंडी औरत हूँ, ठंड़ी रहूँगी। पुरुष से बदला लेने का मुझे एक यही तरीका समझ आया।’’15 पुरुष के लिए स्त्री चाहे पत्नी रूप में हो या बहन या दोस्त, एक सेक्स की चीज ही होती है। नरेन्द्र प्रिया से कहता है ‘‘प्रिया, नहीं, तुम मेरी चीज हो....लोग इतनी अच्छी चीज को देखकर लार टपकाएँ, इसके पहले मुझे स्वाद चखने दो।’’16 
 पुरुष की यह सोच स्त्री के लिए उस क्षण के सुख को नफरत में बदल देती है। प्रिया के साथ भी यही होता है। बचपन में भाई की कामुकता, कॉलेज में प्रोफेसर का दिया हुआ घोखा और अब पति की बहषी भूख ने उसकी ‘देहिकता’ की आवष्कता और उससे मिलने वाले मानसिक सकून को घृणा और नफरत में बदल दिया।
नरेन्द्र के लिए प्रिया की इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती। न ही सेक्स के मामले में और न अन्य स्थलों पर, वे चाहे हॉटल में खाने का आर्डर देना हो या कोई सामान खरीदना हो।
‘‘नरेन्द्र ने मेरे अतीत के बारे में जानने की कोई चेष्टा ही नहीं की, ना ही मेरी पसन्द-नापसन्द के बारे में उसने कुछ पूछा। वह खाने का आर्डर भी अपनी मर्जी से दे दिया करता और खाते-खाते जब पेट भर जाता तो अचानक पानी पीकर उठ जाता। यह भी नहीं देखता कि मैं अभी तक पहली रोटी ही नहीं निगल पाई हूँ।’’17 प्रिया स्त्री की रूढ़ छवि के किसी भी रूप में अपने को फिट महसूस नहीं करती। उसे गहने पसंद नहीं है, जो स्त्री समाज के लिए स्टेट्स का प्रतीक बना दिए गए हैं। वह अपनी सास से कहती है ‘‘मम्मी मुझे गहने नहीं सुहाते.....और यह साड़ी तो अच्छी ही है, मम्मी।’’18 घर की तरह स्त्री का सजना भी उसे नहीं भाता था। ‘‘पार्टी में न केवल घर और मेज ही सजाना पड़ता, बल्कि खुद को भी।’’19 
इस बात पर उसकी प्रतिक्रिया थी कि उसकी इन सब में रुचि कम होती जा रही थी और वह बात-बात पर झल्ला पड़ती। दाई नौकरों पर बरस पड़ती। उसकी जिन्दगी में पैसे से आयातित मँहगी वस्तुओं के खिलाफ विद्रोह पनपने लगा था। इस सबके बीच जो संबंधों की मिठास और जीवन की महक होती है वह इस दो ढाई पैसे वाले मारवड़ियों के बीच नहीं थी। एक रसता, ऊब और वातावरण में व्याप्त नंगेपन की घुटन से उसका जी विद्रोह कर उठता था। वह भिन्न प्रकार की वस्तुओं के बीच सजी संवरी माँसल जिस्म बन कर रहने से इंकार करती है और अपने होने का वस्तु में तब्दील नहीं होने देना चाहती। इस सबसे घबराकर ही उसने अपना व्यापार प्रारंभ किया और अलग इंसानियत के रिष्ते बनाए।
प्रिया कभी हार न मानने का संकल्प करती है और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। वह कीमत चुकाती है, अकेलापन चुनती है, पति और बेटे का साथ और सुरक्षा की कीमत चुकाती है। ‘‘नहीं, मैं हार नहीं मानूँगी, और बड़ी कीमत दूँगी.... और बड़ी आहूति। देखूँ कैसे कोई मेरी उपेक्षा करता है? मैं जरूरी हूँ। इस समाज का, अपने परिवार का बहुत जरूरी खम्भा हूँ, नींव का पत्थर हूँ। मेरे बिना सब कुछ ढह जायेगा।’’20 
नीना - छिन्नमस्ता की दूसरी स्त्री चरित्र है जो स्त्री विमर्ष की आधुनिक कड़ी को रेखांकित करती है और स्वयं को पितृसत्ता के दलदल में फँसने ही नहीं देती। नीना नरेन्द्र की सौतेली बहन है। नरेन्द्र के पिता की रखैल या प्रेमिका की बेटी। यह एक अलग किस्म का चरित्र है। इसकी सामाजिक स्थिति द्वंद्वपूर्ण है क्योकि बिन ब्याही माँ की बेटी को समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। पितृसत्ता के इस षड्यंत्र और पिता की दयनीय विवषता को वह अपनी मजबूरी और विवषता नहीं बनने देती। वह पितृसत्ता के हर तरह के जाल को छिन्न-भिन्न करती है और अपनी अलग स्वंतत्र पहचान कायम करती है। इसी तरह का एक चरित्र दिलो दानिष की महकबानो की पुत्री का भी है। नीना से जब प्रिया पहली बार मिली तो वह उन्नीस वर्ष की थी।
‘‘नीना को देखकर मैं निहाल हो गई थी। उन्नीस बर्ष की वह लम्बी छरहरी नवयौवना, घने काले बाल, बड़ी-बड़ी आँखे और होंठ तथा चिबुक पापा की तरह निखर आई है।’’21 
नीना एक आधुनिक विचारों वाली आत्मविष्वासी स्त्री है। उसके विचार और निर्णय उसके स्वयं के हैं। वह अपने बारे में स्वयं निर्णय लेती है और उन पर चलती है। अपने विवाह के संबंध में उसका कहना है कि ‘‘देखो भाभी, पापा चाहते हैं कि मेरी शादी हो जाए लेकिन मैं नहीं करूँगी। मैं पहले अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी।’’22
यह जो उसका आत्मविष्वास है, वह उसे एक नई स्त्री के प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। वह अपने अपमान, उपेक्षा और पीड़ा को भी अपने अंदर सहेज कर रखती है, उसे अपनी प्रेरणा और ताकत के रूप में इस्तेमाल करती है। उसका यह कहना ‘‘नहीं, जिन्दा रहने और अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपमान और बंचना को भी याद रखें। मुझे आप ये सब ‘चुप-चुप रहो’ वाली बातें न सिखलाएँ तो!’’23 
‘‘यदि दुखी हूँ तो सुख को भी अर्जित करूँगी। अपने पैरों पर खड़ी स्त्री का कोई निरादर नहीं कर सकता। भाभी! पापा का यों महीने का महीने रुपया देना? मुझे नफरत होती है उनसे। सच कहती हूँ भाभी, ऐसे बुजदिल इंसान से मुझे सख्त नफरत है।’’24 प्रिया को उसकी दाई माँ ने हमेषा चुप रहने का पाठ पढ़ाया था, वह उस समय चुप भी रही और अपने प्रति होने वाले अन्याय और उत्पीड़न को सहती रही, परन्तु आज की नई स्त्री की प्रतिमूर्ति नीना यह चुप रहने वाला पाठ नहीं सीख सकती। उसे स्वयं पर विष्वास है, संघर्ष करने की क्षमता है और सुख पाने का संकल्प और साहस भी। ‘‘सुख नहीं है तो उसे अर्जित करके दिखा दूँगी।’’25
नीना अंत में अपने प्रेमी से विवाह करती है और अपने निर्णयानुसार जीवन यापन करती है।
जूडी - छिन्नमस्ता की एक और स्त्री चरित्र है जूड़ी जो कि फिलिप की पत्नी है और प्रिया की दोस्त। जूड़ी एक सुलझे हुए विचारों वाली संतुलित स्त्री है। जिसका जीवन और संबंधों का आधार एक दम स्पष्ट है। खुले विचारों की है और फिलिप के साथ पति-पत्नी के रिष्तों के साथ-साथ दोस्ती के रिष्ते में भी बंधी है। पूर्व और पष्चिम के बीच स्त्रियों को लेकर जो भ्रम है, वह उसकी सच्चाई और वास्तविकता को जानती है और प्रिया के समक्ष स्पष्ट भी करती है।
‘‘नहीं, सारी भूमिकाओं से परे एक हमदर्द औरत हूँ। औरत के दर्द को समझती हूँ। प्रिया, क्या केवल तुम्हीं ने नहीं सहा है? एक तुम ही नहीं जो दुख पा रही हो, हर औरत के अपने-अपने दर्द के तहखाने हैं।’’26
स्त्री विमर्ष के बीच अक्सर पूर्व और पष्चिम के परिवेष और भिन्न विचारधाराओं का आरोप लगाया जाता है। भारतीय स्त्री विमर्ष में देहवाद और यौन स्वच्छन्दता के लक्षणों को पष्चिम का असर और प्रभाव बताया जाता है। जूडी एक ऐसी स्त्री चरित्र है जो यह बताता है कि ‘औरत’ हर जगह औरत है और उसे औरत होने के नाते लगभग एक से दुखों को भोगना पड़ता है।
‘‘जिन्दगी जीने के लिए अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। यदि औरत व्यवस्था के बाहर कदम बढ़ाती है तो उसे ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पडे़गी। मैं जानती हूँ कि पष्चिम की हम स्त्रियों पर तुम लोग हँसते हो, तुम्हें लगता होगा कि हम स्वच्छन्द हैं, घरफोडू हैं, हर किसी के साथ पलँग पर साझा करने को तैयार रहती हैं।’’27
जूड़ी प्रिया से कहती है कि तुमने जितनी पीड़ा सही और संघर्ष किया है उससे तुम्हारे अनुभवों का संसार व्यापक हुआ और दुनिया के बारे में संबंधों के बारे में भ्रम टूटे हैं। ‘‘तुमने जितनी भी पीड़ा झेली पर तुम्हारी चेतना का विकास ही हुआ है, तुम्हारे भ्रम टूटे हैं, सीमाओं से बाहर आकर तुमने पारस्परिकता का संबंध स्थापित किया है। पर नरेन्द्र की पीड़ा देखो, उसकी चेतना तो मालिकाना अहम में ठस होती जा रही है। धन और सत्ता का मद उसे कितना अहंकारी और पागल बनाए रखता है। वह सोचता है कि पैसे से वह सब कुछ हासिल कर सकता है। पर जरा सोच कर देखो, उसने क्या हासिल किया? किसको उससे सहानुभूति है? कौन उससे प्रेम करता है? उसकी मुट्ठियों में बन्द संजू क्या खुली हवा में सांस लेने के लिए नहीं छटपटा रहा? और नरेन्द्र ने संजू को कौन से मूल्य दिए?’’28 
छिन्नमस्ता के अन्य स्त्री चरित्र - इन स्त्री चरित्रों के अतिरिक्त कम से कम चार और स्त्री चरित्र हैं जो उल्लेखनीय हैं। इनमें प्रिया की माँ, दाई माँ, सास और सौतेली सास। दो माँ मायके में दो सास ससुराल में। दोनों ही स्थानों पर दूसरी माँ से प्रिया को प्रेम और स्नेह मिलता है। प्रिया की माँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चलाने के लिए कटिबद्ध है। प्रिया उसके लिए फालतू ही आ गई इसलिए वे उसकी उपेक्षा और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं। प्रिया का बड़ा भाई जो उसके साथ यौन संसर्ग बनाता है। उसकी माँ और दाई माँ उसके पुरुष होने के नाते उसके इस कूकृत्य पर परदा डालती हैं। इधर सास भी अपने लड़के के पुरुषत्व और आर्थिक स्रोतों पर वर्चस्व के कारण उसकी नाजायज हरकतों को सहन करती रहती हैं। और अपने खालीपन को जेवरों, साड़ियों और इसी तरह की वस्तुओं से भरने की कोषिष करती हैं।
संदर्भ ग्रंथसूची
1. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, प्रभा खेतान के उपन्यास ’छिन्नमस्ता’ का फ्लैप नंबर 2
2. छिन्नमस्ता, पृ. 184
3. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 55 
4. छिन्नमस्ता, पृ. 98
5. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 55  
6. छिन्नमस्ता, पृ. 183
7. आलोचना जुलाई-सितम्बर, 2003, रोहिणी अग्रवाल, पृ. 174
8. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 57 
9. छिन्नमस्ता. पृ. 10
10. वही, पृ. 10  
11. वही, पृ. 10
12. वही, पृ. 11
13. वही, पृ. 11-12
14. वही, पृ. 12
15. वही, पृ. 103
16. वही, पृ. 115
17. वही, पृ. 115
18. वही, पृ. 116 
19. वही, पृ. 115
20. वही, पृ. 172
21. वही, पृ. 124
22. वही, पृ. 124
23. वही, पृ. 125
24. वही, पृ. 125
25. वही, पृ. 130
26. वही, पृ. 161
27. वही, पृ. 161
28. वही, पृ. 163


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Friday, June 24, 2016


राजस्थान की पृष्टभूमि पर दो बिनब्याही माओं की कहानी ,जिसे अपनी सुगड शब्द शैली में लिखा  है सुश्री वंदना देव शुक्ल ने |बिन ब्याही माँ होना समाज की द्रष्टि में एक ऐसा कलंक है जिसे पीढियों तक ढोना पढता है |राजस्थान की भूमि ...जहां शूरवीरों की गाथा गाते जुबां नहीं  थकती ,वहीं बांदी बनाई गई स्त्रीयों  के शोषण की कई कहानियाँ इस मिटटी में  दफ़न है |
प्रस्तुत कहानी ,विलासी रजवाड़ों  के  कूटनीति की दास्ताँ है | रिसाला के किरदार में स्त्री एक वस्तु की तरह दासता में बंधी दहेज़ में आती है  ,,जहाँ उसका ,उसके तन और  मन पर कोई अधिकार नहीं रहता | वो छली जाती है भोग्या बनाई जाती है, अप्रत्यक्ष रूपसे मातृत्व को बचाने की खातिर अंत में निष्कासन .......और समाज द्वारा उसे हीन द्रष्टि का उपहार |जिसे वो नम आँखों से स्वीकार करती है |कहानी में भाषा का प्रवाह पाठक को बांधे रखता है सामंती परिवेश का चित्रं भी सटीक और बांदी के किरदार में रिसाला के जीवन की जद्दोजहद को खूब उकेरा है | 
वंदना देव शुक्ल 
परिचय ...
शिक्षा -- बी एस सी, एम . ए , एम म्यूज , बी. एड, डिप्लोमा इन फ़ूड एंड न्यूट्रीशन (मुम्बई) , शोध कार्य  (हिन्दी )
२०१० में पहली कहानी वागर्थ  में उड़ानों के सारांश'' प्रकाशित | तद्भव, हंस, कथादेश , परिकथा, कथाक्रम, , पहल, नया ज्ञानोदय, आउट  लुक, जनसत्ता, रसरंग (भास्कर ), पाखी, लमही  सहित हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ /लेख प्रकाशित |
आकाशवाणी कलाकार (सुगम संगीत एवं नाटक ) अस्थाई उद्घोषक, 
रंगकर्मी |प्रेमचन्द की तीन कहानियों का नाट्यरूपांतरण , एवं मंचन ( निर्देशन )
कहानी संग्रह ''उड़ानों के सारांश '' एवं  उपन्यास '' मगहर की सुबह '' प्रकाशित | कथासंग्रह ''दूसरी इबारत'' शीघ्र प्रकाश्य 
पुरस्कार /सम्मान 
कमलेश्वर कथा सम्मान ( मुंबई)
कथादेश एवं सर्नुनाह ( सिंगापुर ) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ''रहस्य कथा प्रतियोगिता '' में पुरस्कृत 
बी एस ऍफ़ (इण्डिया) द्वारा आयोजित सरहद की कहानियाँ में पुरस्कृत  (देहली)
शब्द निष्ठां पुरस्कार ( अजमेर)
कादम्बिनी कथा लेखन पुरस्कार (ग्वालियर)
संबोधन , मध्य प्रदेश के रचनाकार,गाथान्तर , यात्रा, कविता संकलन (बोधि प्रकाशन ),शतदल आदि के  कहानी /कविता  संकलन '' में कहानी/ कविता  चयनित /प्रकाशित 
कहानियों का तमिल, उडिया, उर्दू, पंजाबी , गुजराती , कन्नड़ भाषा के अतिरिक्त अंगरेजी व् चीनी भाषा में अनुवाद 
हाल ही में क्रोएशिया यूनिवर्सिटी ( योरोप) के इंडोलोजी विभाग के पाठ्यक्रम में तीन कवितायें शामिल 
सम्प्रति - शिक्षिका ( राज.)-

कहानी
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                          *चरम मोक्ष*
२७ अक्टूबर २००५
मैं अनब्याही माँ की संतान हूँ और मेरी बेटी भी | यद्यपि मेरी माँ ताजिन्दगी लज्जा को औरत का गहना मानती रहीं पर बचा नहीं पाईं जबकि मैंने पाखंडों को नकारते हुए मर्यादा की मिसाल कायम करना चाही ,पर ..... |मैं और माँ दौनों ही अपने अपने ‘’विश्वासों’’ के हाथों पराजित हुए | राई बराबर फर्क के साथ हम दौनों माओं में एक फासला रहा | माँ परम्परा की ओट में माँ बना दी गईं और मैं परम्पराओं को तोड़ने की जिद में माँ बनी | मेरे मन के भीतर जिद्द की कई गठानें हैं उन्हें एक एक कर खोलना ही अब मेरी ज़िंदगी का मकसद है |अपनी माँ के लिए मैं दुनिया का सबसे खूबसूरत बोझ थी लेकिन मेरी बेटी मेरे लिए एक सतत चुनौती है |
माँ को अग्नि के हवाले कर ,म्रत्यु के उस हवन कुंड में उनकी तमाम कुंठाओं,पीडाओं की आहुति दे और उस अभिशप्त धरती ,जहाँ कहते हैं कि मैं पैदा हुई थी से अलविदा कहकर वापस अपने कुरुक्षेत्र बेंगलोर लौट रही हूँ | उसी पीठ से मुह फेरकर जो बुरे दिनों में मेरी एक मज़बूत टेक थी | माँ निर्दोष होते हुए भी जीवन पर्यंत स्वयं को दोषी मानती रहीं, क्या इसलिए कि उन्होंने अपने भविष्य बल्कि समूचे जीवन को एक सुरक्षापूर्ण बंधन से मुक्त कर स्वयं को एक खुले युद्धक्षेत्र में झोंकने का दुस्साहस किया था लेकिन सामंतवाद की जड़ें उखाड़ फेंकने में असफल रहीं ? माँ जिन्हें मेरे संघर्ष समझती थी उस चुनौती और प्रतिशोध को देखने के लिए काश वो कुछ दिन और जिंदा रहतीं
अंतिम नमन माँ ...
किराए के मकान के उस फर्स्ट फ्लोर के कमरे में ,जहाँ मैं नौकरी के शुरुवाती दिनों में रही थी और अभी दो दिनों से रह रही थी, तकिये के नीचे मुझे ये पुर्जा मिला था
सुनो...मैंने झाडू बुहारू करने वाली बाई को टेरा जो छत की सफाई कर रही थी
हाँ जी ...
मेरे बाद यहाँ कौन किरायेदार आया था ?
कोई नहीं
मेरा मतलब इस कमरे में ?
वो कुछ देर सोचती रही ...फिर कुछ हिकारत से बोली ...किरायेदार तो कोई नहीं आया मैडम जी |हाँ ,वो बांदी की छोरी है न सुनीता ...अपनी माँ के ख़तम होने पर वो ही आई थी यहाँ ..वो रही थी इसमें ..बस कुछ घंटे के लिए ..फिर चली गयी हवाई जहाज से ..अंतिम पंक्ति उसने कुछ आश्चर्य से कही |
रिसाल की बेटी ? ..
जी मैडम जी वही रिसाल ..जो अम्माजी के कने रहती थी | बांदी....जैसी महतारी वैसी बेटी ...ऐसी औरतें तो..
जस्ट शटअप ...जाओ यहाँ से ..मैं अचानक जैसे फट पडी |वो घबरा गयी और वहां से भाग गयी
वो कागज का टुकडा उलटते पुलटते हुए न जाने कितने द्रश्य कितनी कहानियाँ आँखों से होकर गुज़रने लगे|’मैंने वो चिट्ठी अपने सिरहाने तकिये के नीचे रखी और आँखें मींचकर लेट गयी |                                                
                                (१)
‘’रिसाल कंवर खत्म हो गयी’’ ....खबर क्या थी एक ज़लज़ला था |
रिसाल अकेली ख़त्म नहीं हुई | न जाने कितनी त्रासदियाँ,कितनी परम्पराएं,कितनी जर्जर हवेलियों के भीतर के सच ,कितने रस्मो रिवाज़ और तहजीब उसके साथ दफ़न हो गईं | एक पूरा युग बनाम राजपूताना इतिहास हवा के झोंके की नाईं आँखों के सामने से सहसा गुज़र गया ....|.सदाबहार मुस्कराहट, अदब कायदे ,तीखे नाकनक्श,बोलती ऑंखें ,तराशी हुई देह | इस रूखे सूखे प्रदेश में रिसाल की उस मनमोहक मुस्कान के साथ स्वागत की नर्म बैछारों का सुखद अहसास यहीं हुआ था |मकान नंबर १३४ब शिव कॉलोनी ,नूतन बाजार की गली नंबर तीन की इस कोठी’ में  | ये तब का वाकया है जब मैं अपनी तमाम स्म्रतियों ,आगाहों व् हिदायतों को अपने साथ बटोरे मध्य प्रदेश से आठ सौ किलोमीटर की यात्रा कर राजस्थान के इस सूखे सट्ट इलाके में शिक्षिका की नौकरी के लिए बज़िद आई थी  न जाने कितना खोकर ..न जाने क्या पाने |राजस्थान और राजस्थानियों से ये पहला ही तार्रुफ़ था नहीं तो अभी तक तो बस फिल्मों में ही यहाँ के रेतीले टीले,राजे रजवाड़े,महल,हवेलियाँ ,ठकुराई और बोली बानी सुनी थी |
भारत के नक़्शे में राजस्थान का ये हिस्सा डेज़र्ट एरिया में आता था |ट्रेन मैं ऑंखें मींचे यहाँ के जो काल्पनिक द्रश्य बना कर आई थी वो तो दूर तक रेत का समुद्र ,ऊंट गाडी, सूखे लम्बे बबूल के दरख्त और तपती धूप में दूर दराज़ से पानी ले जाती हुई सर पर मटकी रखी औरतें थीं | देश के उस मशहूर एजुकेशनल इंस्टीट्युट की उस विशाल केम्पस बाउंड्री के बाहर का कस्बा बिलकुल वैसा ही था जैसा राजस्थान के किसी आम कसबे को होना चाहिए| झुलसे हुए पेड़ पौधे ,कंधे पर पड़े अंगोछे से पसीना पोंछते रिक्शा खींचते आदमी , सडकों पर डोलते बैचेन गाय ,बैल और कुत्ते  ,सूखे से अघाए खेत, लेकिन जब रिक्शा बस स्टेंड से निकलकर केम्पस में प्रविष्ट हुआ तो उसकी हरियाली और सुन्दरता देख कर मन प्रफ्फुल्लित हो गया |राहत मिली कि हमारी दुनिया तो यहाँ बसेगी वहां नहीं ,लेकिन ये खुशी ज्यादा देर नहीं टिक पाई जब पता चला कि परिसर के अन्दर अभी एक भी स्टाफ क्वार्टर खाली नहीं है| अभी आपको स्कूल केम्पस के बाहर कसबे में ही किसी किराए के घर में ही रहना होगा |यद्यपि हाउस रेंट स्कूल दे रहा था और ये भी कहा गया था कि जैसे ही कोई क्वार्टर खाली होगा सबसे पहले आप को ही देंगे | बहुत बुझे मन से मैं अपना सीमित सामान लेकर स्कूल द्वारा मेरे साथ भेजे गए उस बूढ़े मारवाड़ी चपरासी के साथ ऑटो रिक्शा में बैठ गयी जिसने रास्ते में मुझे उस घर जिसमे मैं किराए पर रहने जा रही थी के संक्षिप्त इतिहास और उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में यथासंभव पर्याप्त से ज्यादा ही बता दिया |उन कस्बाई खूसट सड़कों पर उछलते,कूदते  से चलते ऑटो की खड़ खड़ में मैं जितना सुन पाई उसका सार संक्षेप ये था कि ये घर यहाँ के पुराने ‘सेठ’ स्वर्गीय दीनानाथ जी शर्मा का है जो एक बड़े ठेकेदार थे अब उस कोठी में उनकी पत्नी एक सेविका के साथ अकेली रहती हैं |कहाँ कॉलेज केम्पस की वो साफ़ चमकती लम्बी चौड़ी कोलतार पुती सडकें ,स्कूल व् कॉलेज की भव्य इमारतें ,व्यवस्थित स्टाफ क्वार्टर और बड़े बड़े पार्क और कहाँ स्कूल गेट के बाहर का ये ठेठ राजस्थानी कस्बा |सामने से हिचकोले खाती ऊँट गाडी जिसपर ऊंघता हुआ एक आदमी सवार था और निश्चिन्त खरामा २ चलता वो ऊंट जिसके चेहरे पर सुस्ती,बेफिक्री और जीवन की निस्सारता टंगी थी मस्त जुगाली करता हुआ चला आ रहा था |उधर एक छकडा जिसमे गधा जुता हुआ था सवार लड़के के चाबुक से पिटता बहराया भागा जा रहा था |लाल मटीली कच्ची सडक के आसपास मिट्टी की चिनाई पर चूने की पुताई हुई ऊबड़ खाबड़ सी दीवारों वाली छोटी २ कपडे,नाई ,बढ़ई, सब्जी आदि की दुकानें | दूकान पर बैठे अलसाए से ,टाईम पास करते दुकानदार | कुछ दुकानदार ज़मीन पर दरी बिछाकर आसपास की गतिविधियों से बेखबर बिंदास ताश खेलते हुए |उस किराए के घर के भी मेरे मन में अजीबोगरीब बल्कि डरावने से बिम्ब बन बिगड़ रहे थे लेकिन जब मकान मालकिन शर्मा आंटी को और घर देखा तो नितांत संतोष हुआ कि वैसा बिलकुल भी नहीं है ये जैसा सोचा था |
 वो एक अपेक्षाकृत साफ़ सुथरी कॉलोनी में एक बड़ा मकान था जिसे यहाँ कोठी कहते थे  |मकान के बाहर नेमप्लेट थी जिस पर अंग्रेजी में ‘’शर्माज’’ लिखा था|
जब मैं अपना सूटकेस लेकर ऑटो रिक्शा से उस ‘’कोठी’’ पर पहुँची तो आंटी जी बाहर दालान में ही बैठी ‘’राजस्थान पत्रिका’’ पढ़ रही थीं |
’’या मैडम जी आपके घर्यां रहण खातर आयां से जी | स्कूल से थारे कन्ने कोय मेसेज आयो होगो ‘’साथ आये मारवाड़ी पियूंन ने मेरा परिचय दिया 
उन्होंने घूरकर मुझे देखा फिर अपनी भारी आवाज में बोलीं ‘’हाँ हाँ आया था फोन हमारे पास ...वो देख लो ऊपर का कोने वाला कमरा ..वही है किरायेदारों का | लेट बाथ उसी में अटेच्ड है |’’ उन्होंने कुछ रूखेपन से कहा और फिर सहज भाव से पेपर पढने लगीं | वो वृद्ध स्त्री जो इस दुमंजिली कोठी की मालकिन थी यानी आंटी जी पहली मुलाक़ात में मुझे कुछ रूखी ,तटस्थ और मतलब से मतलब रखने वाली स्त्री लगी थीं |
जी थेंक्यु मैंने कहा और सीढियां चढ़कर कमरे की चटखनी खोलकर अन्दर चली गयी |पियूंन ने मेरा सामान कमरे में रखा और कहा ‘’मैडम जी ,माताजी घणी भली औरत हैं |संकोच मत करना |जो ज़रुरत हो उनसे कह देना ‘’ कहकर वो चला गया | शर्मा आंटी के पति का देहांत हो चुका था |एक बेटी अंजू थी जो विवाहित थी व् बेंगलोर की एक कम्पनी में सॉफ्ट वेयर इंजीनियर थी |आंटी एक तरक्कीपसंद ,सह्रदय और समझदार महिला थी | उनका परिवार यहाँ का पुराना रसूखदार और रईस परिवार था जो झरते झरते अब बस आंटीजी पर टिका था |
मेरा कमरा छत पर एकांत में ,खुला,हवादार और शांत था |बड़ी बड़ी दोतरफा खिड़कियाँ जिनमे मोटे परदे झूल रहे थे | मैंने पर्दा खिसका दिया और सूटकेस एक और टेबल पर रख दिया और बैड पर बैठकर चारों और देखने लगी |तभी एक औरत ने कमरे में प्रवेश किया |पीला लाल छींटदार लहंगा ,लाल छापे की लूंगडी ,पीली ओढ़नी हाथ भर भर पहने चूडले ,बोडले को ढंकता माथे तक पल्लू और बेहद खूबसूरत उस औरत ने जब हाथ जोड़कर मुस्कुराकर ‘’राम राम से मड्डम जी ‘’ कहा तो मैं एक पल के लिए ठिठकी उसे देखती रह गयी | किसी अनजान शहर में जहाँ कोई हमको नहीं पहचानता वहां कोई इतने अपनापे से स्वागत करे तो एक सुखद सी अनुभूति होती है |लम्बे सफ़र की थकान और अपरिचित जगह की शंकाएं दौनों ने मिलकर मन को बड़ा बैचेन कर रखा था | गर्मी और थकान से बुरा हाल था |
नमस्ते ...मैंने उसका ज़वाब दिया ..|कहना चाहती थी कि राम राम से बेहतर था कि एक ग्लास ठंडा पानी पिला देती |औरत कमरे से बाहर जा चुकी थी |
मैं खिड़की के पास खडी हो बाहर झाँकने लगी |गर्मी की उस मरुस्थलीय दोपहर में इक्का दुक्का लोग उस गली में आते जाते दिखाई दे रहे थे | कुछ देर पहले बारिश के कुछ छींटे पड़े थे और अब धूप खिल आई थी |उमस और बढ़ गयी थी | नई जगह और नए लोगों को देखकर थोडा असहज सा महसूस करना स्वाभाविक था |जैसा शुष्क प्रदेश है वैसे ही लोग ...मैं सोच रही थी|
गला अलग प्यास से तडक रहा था लेकिन वहां कोई ऐसा दिखाई नहीं दे रहा था जिससे पानी मांगूं |वो औरत भी न जाने कहाँ गायब हो गयी थी |कोठी क्या है कोई पुराने हवेली सी है |भूल भुलैया...|इतने सारे कमरे जैसे ज़मीन के नीचे खोहें हों |’’क्यूँ बनाते थे पहले के लोग इतने बड़े बड़े घर ? क्या उन्हें लगता था कि वो सब अमृत पीकर आये हैं ?हज़ारों साल इन मज़बूत और नक्काशीदार कमरों में राज करेंगे?...इतने विशाल सन्नाटेदार घर में दो खँडहर सी औरतें |एक तन से एक मन से |इनके बीच में ये कहाँ आ गयी मैं ...|सब ने कितना समझाया था कि यहीं भोपाल में और अच्छी नौकरी मिल जायेगी लेकिन मेरी जिद्द को टालना भला किसी के वश का रहा है ?और जिद्द जब फितूर में तब्दील हो गयी हो ?अब पछताए होत क्या ....भोपाल की पिछली नौकरी भी अब भूतकाल हो चुकी थी |
मद्दम जी लो पाणी पियो...वही ‘वेश’ वाली औरत मेरे पास मुस्कुराती हुई ट्रे में पानी का गिलास लिए खडी थी |
ओह थेंक्यु ...धन्यवाद ..दरअसल मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस औरत का किन लफ़्ज़ों में शुक्रिया अदा करूँ ?इसके ठेठ राजस्थानी वेशभूषा से लगता तो नहीं था कि ये कोई और भाषा समझती होगी |
एक बात कहूँ मैडम जी ?
हाँ हाँ कहो ...लेकिन मुझे मैडम नहीं कुछ और कहो |
वो कुछ और जोर से हंसी .गोया ताजगी के कई सुगन्धित फूल एकसाथ कमरे भर में बिखर गए हो .’’क्या कहूँ आप ही बताइए’’ ..
कुछ भी ...मैंने कहा
अच्छा ठीक है ..दीदी जी कहती हूँ
हाँ ठीक है..दीदी से भी काम चल जाएगा ..मैंने मुस्कुराते हुए कहा
दीदी खाणा तो नहीं खाया होगा आपने |बताइये क्या खायेंगी ?कुछ हलका फुल्का बना दूँ या फिर दाल रोटी सब्जी सब ?
अरे नहीं मुझे बिलकुल भूख नहीं है ...बना सको तो थोड़ी चाय बना दो
ठीक है जी ...लेकिन थोडा तो कुछ खा लीजिये |खाली पेट चाय मत पीजिये ..बाय  करती है जी ... 
नहीं नहीं ...बस चाय ..मैंने कहा 
खाना बनाने में तो अभी देर है |मेरे पास रोटी और लहसुन का अचार पड़ा है ..घर का बना ..आपको कोई एतराज़ न हो तो ले आती हूँ
अरे नहीं २ ...बस चाय बना सको तो बना दो ‘’ मेरे स्वर में कुछ खीज थी |...क्या चेंट औरत है भाई ? यहाँ तो थकान से बुरा हाल हो रहा है और ये खाने की जिद कर रही है |हालाकि मैं कल की भूखी थी लेकिन थकान और नींद ने भूख को पीछे खदेड़ दिया था |
मैं कहती ही रही और वो जाकर एक स्टील की तश्तरी में लहसन का अचार और मोटी मोटी दो रोटी ले आई | ‘’खायेंगी तो भूख खुल जायेगी ‘’हँसते हुए उसने बहुत ही प्रेम से मेरे सामने रख दिया
अरे दो रोटी ?नहीं नहीं ..इतना नहीं बस एक दो कौर
ठीक है जी एक रोटी खा लीजिये  |परदेस में आकर ऐसे भूखे नहीं रहते ...
उसके इस आत्मीय अनुरोध में न जाने कैसा सम्मोहन था मैं मना नहीं कर पाई और मैंने एक दो गस्से उसके कहने पर खा लिए |
 और खाओ न जी ...वो खुश दिखाई दे रही थी ..
मैंने हाथ से ‘बस’ का इशारा किया...’’बहुत टेस्टी बनाया है ‘’ मैंने कहा | मेरे इस कहने में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था ..वाकई लाज़वाब था 
क्या नाम है तुम्हारा ?मैंने पानी पीकर गिलास ट्रे में रखती हुए कहा
रिसाल है जी ..उसने मुस्कुराते हुए कहा |
यहाँ काम करती हो?
हाँ जी ....माताजी भोत अच्छी हैं ..उन्होंने मुझे अपने घर में एक कमरा रसोई दे रखी है |यहीं रहती हूँ |नौकरानी नहीं हूँ बस समझ लीजिये सेवा करती हूँ माताजी की ..बिचारी वो भी अकेली हैं जी ..हम दौनों एक दूसरे का सहारा हैं |
ठेठ राजपूताना पोशाक और कितनी साफ़ हिन्दी ... कितनी मीठी बोली ...मैं उसकी तहजीब पर फ़िदा थी
 ‘’कोई काम हो तो बुला लेना दीदी जी ...बस यहीं रहती हूँ वो कमरा देख रही हैं न नीचे ...रसोई के बाजू..उसमे
 ..आप बहुत अच्छी हैं ...मैंने कहा वो हंसने लगी |
’’दीदी जी जानती हूँ न नए शहर में आये लोगों की दिक्कतें ?’’उसने तश्तरी उठाते हुए कहा
एक बार जब वो ऊपर चाय देने आई मैंने उससे पूछा ‘’तुम्हारे बच्चे हैं “?
हाँ जी एक बेटी है ...माताजी की बेटी अंजू जी के साथ बंगलौर में रहती है |वो ही उसे पढ़ा रही हैं |
तुम्हारे पति भी यहीं काम करते हैं ?
दीदीजी ...आपका स्कूल का टाईम क्या होगा |मैं आपको नाश्ता बनाकर दे दूंगी |लंच आप आकर खा ही लेंगी ..उसने बात पलट दी
ये तो सही २ कल पता पडेगा जब ज्वाइन करूंगी |लेकिन नाश्ते के लिए परेशान मत होना |मुझे वैसे भी नाश्ता करने की आदत नहीं है |और लंच मैं वहीं स्कूल मैस में ले लूंगी
अरे दीदी ..रहेंगी यहाँ हमारे घर में और लंच वहां खायेंगी ..ऐसा नहीं चलेगा उसने हँसते हुए कहा |माताजी के लिए तो बनाना ही पड़ता है न ...आप जिस टाईम पर कहेंगी आपको भी बना दूंगी |
मुझे दो हफ्ते हो चुके थे यहाँ रहते हुए |मैं कमरे से बाहर कम ही निकलती |स्कूल से आकर सीधे कमरे में | अब धीरे धीरे यहाँ के माहौल में रच बस रही थी |स्कूल जाने का समय निश्चित था लेकिन आने का अनिश्चित |वजह मीटिंग ,एक्स्ट्रा क्लास वगेरह होना | लेकिन रविवार को हम लोग साथ बैठकर खाना खाते |मैं और आंटी जी उन्ही की डायनिंग टेबल पर |रिसाल गर्मागर्म फुल्के सेंककर देती जाती |खूब अपनापे से खिलाती |कमाल का स्वाद था उसके हाथ में |आंटी जी अब मुझसे थोड़ा घुल मिल रही थीं |अपनी व्यक्तिगत बातें भी शेयर करतीं |छुट्टी वाले दिनों में हम दौनों बाहर आँगन में बैठते और दुनिया जहाँ की बातें करते |साथ बैठकर टी वी देखते और धारावाहिकों पर चर्चा करते| कभी कभी हम दौनों सामने वाले मार्केट में सब्जी वगेरह लेने भी चले जाते |
कस्बा छोटा था | आधुनिक मॉल संस्कृति वाले बड़े शहरों जैसी यहाँ फितरत नहीं थी | टुच्ची २ बेईमानी, चोर उचक्के ,धोखाधड़ी के बावजूद यहाँ के लोग सह्रदय, सहयोगी व् आपस में सरोकार रखने वाले थे |
रिसाल जब कमरे में चाय वगेरह देने आती तब कुछ अनौपचारिक वार्तालाप भी हो जाता |एक सोंधी सी गंध वाला पौराणिक सौन्दर्य और आत्मीय स्वभाव के बेजोड़ मेल का अनूठा व्यक्तित्व था उसका |अ रेयर ब्यूटी | मैं उसे ‘’बनी ठनी’’(राजस्थानी कलाकृति) कहती थी और वो खिलखिलाकर हंस देती
’’आप भी जी...
.’’तुम हो ही इतनी खूबसूरत ...कहे बिना रहा ही नहीं जाता |शहरी औरतें तो इस रूप सौन्दर्य के लिए जाने क्या क्या नहीं करतीं ..मेरी इस तारीफ़ पर उसे खुश होना चाहिए था  ...लजाना चाहिए था लेकिन वो अचानक बुझ सी जाती ....क्या उमर है तुम्हारी ?
 जी ठेठ तो पता नहीं ..यही पैंतालीस पचास के आसपास ..
.माशाल्लाह ..इस उमर में इतना रूप तो फिर ..
.अच्छा मैडम ...जाणा है ..कहकर वो चली जाती ...
यहाँ कुछ दिन रहने के बाद मुझे ये अहसास हो गया कि रिसाल में कुछ विरोधाभासी गुण हैं |जैसे वो जन्मजात गरीब और अपढ़ है लेकिन उसकी बोलचाल निहायत पढ़े लिखे लोगों जैसी और रहन सहन सुसंस्कारित है |बेटी का ज़िक्र वो कभी नहीं करती न ही उसकी बेटी यहाँ आती | पति का नाम लेते ही वो उदास हो जाती और बात पलट देती |मुझे उसके अतीत को जानने का एक अजीब सा जूनून पैदा हो गया |रिसाल के कुछ चारित्रिक रहस्य मुझे उसके बारे में जानने को उकसा रहे थे |सायकोलोजी की टीचर जो ठहरी ....लेकिन ये ‘’केस हिस्ट्री’’ इस कदर अजीबोगरीब होगी ,वाकई मुझे इल्म न था |
धीरे धीरे रिसाल की उस तहजीब और उसकी अजीबोगरीब ज़िंदगी से पर्दाफ़ाश होने लगा निस्संदेह उसका मुख्य निमित्त आंटीजी थीं |और फिर सामने खडी थी हिन्दुस्तान की एक बेबस ,बहादुर और ज़िंदगी से बाकायदा मुठभेड़ करती वो निपट राजपूताना स्त्री ... जिसके नसीब पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा था ‘’बांदी’’|
कहानी कुछ यूँ थी ...
रिसाल चौदह बरस की उम्र में पास के ही एक छोटे और पौराणिक शहर में एक राजशाही राजपूत खानदान जिनका ताल्लुक छोटी मोटी रियासत से था के परिवार में ठाकुर साहब के बेटे की पत्नी के साथ बांदी बनकर दहेज़ में आई थी |तात्कालीन रिवाज के मुताबिक बांदी सदा के लिए उस घर की सेविका बनाकर भेजी जाती थी | इस तबके की औरतें ब्याही नहीं जातीं थीं |वो फ़कत एक खानदान की ‘बांदी’ बनकर जीवन गुजारती थीं |उनकी देह भर उनकी अपनी होती थी ,लेकिन उनके तन और मन पर उनके मालिकों का हक होता था| ये बुराई नहीं रवायत थी |राजपूताना शान मानी जाती थी | इन औरतों की इस तन मन की कुर्बानी के एवज में उन्हें ताजिन्दगी हवेली के भीतर रहने,भोजन ,पहनने ओढने और सुरक्षा की सुविधा मुहैया थीं |ये लड़कियां उन गरीब घरों से ताल्लुक रखती थीं जो पैदा होते ही ‘’अफीम चटा कर मार दिए जाने ’’ के चलन से भाग्य (?) से बच जाती थीं |तब उन्हें जीवन सुरक्षा और संघर्ष हीन गुज़ारने की गर्ज़ से बचपन से बांदी बनने की ट्रेनिंग दी जाती थी | घरवालों को उसकी अच्छी खासी रकम भी दी जाती थी |लड़कियों को किसी रईस औरत के साथ दहेज़ में भेजने के साथ ही उनकी याद पर मिट्टी डाल दी जाती |
रिसाल को भी तहजीब ,सहनशीलता और सेविका का पूरा प्रशिक्षण उसी के घर की औरतों द्वारा देकर भेजा गया था ताकि शिकायत का कोई मौक़ा न आये | |जितनी खूबसूरत और हुनरमंद बांदी उतना रसूखदार ठकुराइन का खानदान माना जाता और उतनी ही ससुराल में उनकी इज्ज़त यानी वाह वाही |ठाकुर विश्राम सिहं की नई नवेली पत्नी ठकुराइन सुदर्शना कंवर रुआब दार,भरे बदन,गेहुएं रंग और सामान्य नाक नक़्शे की स्त्री थीं लेकिन उनके साथ दहेज़ में आई बांदी कमसिन रिसाल ने अपनी खूबसूरती व् हुनरमंदी से उनकी हर कमज़दी को ढँक लिया था | फिलहाल रिसाल कंवर का काम ‘बींदणी’’ की सेवा करना था |उन्हें वो ‘’रानी सा’’ कहती थी | उनको उबटन लगाना ,स्नान कराना , उनकी केशसज्जा ,साज श्रंगार और उनकी हर ज़रुरत को पूरा करना ही बांदी का काम था |यहाँ रिसाल को राजपूती सुहागिन स्त्री की पोशाक यानी ‘’वेस’’ पहनना पड़ता और माथे तक पल्लू रहता जो ताजिन्दगी उसके ज़ख्मों को छिपाता रहा |
वो जब शुरू में हवेली में आई तो उसे कुछ दिन अच्छा लगा |रिसाल छोटी ठकुराइन यानी अपनी मालकिन का खूब ख्याल रखती |ठकुराइन भी उससे सखी की तरह पेश आतीं |उन्हें तनिक भी मायके की याद आती तो वो उदास हो जातीं |तब रिसाल उन्हें चुटकुले सुनाती, गाने गाकर उनका मन बहलाती |रिसाल गाती बहुत अच्छा थी |उसे गाने का शौक भी था |शौक तो फ़िल्मी गानों पर नाचने का भी था लेकिन नाचना वहां अछा नहीं माना जाता था |ठकुराइन सा कभी मूड में आतीं तो उससे अलबत्ता नाचने की फरमाइश कर बैठतीं और वो द्वार बंद कर ग्रामोफोन की आवाज़ पर खूब नाचती | रानी सा के आराम के वक़्त रिसाल कांसे की कटोरी से रानी सा के तलवे सहलाती |बाज बख्त चांदी के पानदान के नक्काश्दार ढकने से उन की नंगी पीठ भी हौले हौले खुजलाती |ठकुराइन अतीव आनंद में आँखें बंद कर लेती| ठकुराइन के इस अनजान और आभिजात्य ससुराल में रिसाल एकमात्र उनका भावनात्मक सहारा थी जो मायके की याद को धूमिल भी कर देती |
छोटी ठकुराइन पूरे दिन खूब सजी धजी और स्वर्ण आभूषणों से लदी रहतीं लेकिन रंग बिरंगे लहरिया छापे के गंवई सूती ‘वेस’ और माथे तक परदे में भी लम्बी नाज़ुक टहनी सी रिसाल उनसे कई गुना आकर्षक लगती |ठकुराइन को इस बात का फख्र भी था और खौफ भी |फख्र इसका कि रिसाल उनके मायके से आई बांदी थी और भय पुरुषों का क्यूँ कि वो ये भी जानती थीं कि खानदान के पुरुषों को कोई बंदिश नहीं है |वो जिसके साथ चाहे रह सकते हैं अपना मन बहला सकते हैं |कई बार उन्होंने बातों २ में रिसाल से अपनी घुटन और उसे यथासंभव सतर्क रहने को कहना भी चाहा लेकिन रिसाल उस वक़्त इतनी छोटी और भोली थी वो ये बातें समझ नहीं पायेगी ,उन्होंने सोचा और चुप रहीं |फिलहाल उन्होंने रिसाल को हवेली के मर्दों के सामने ठोडी तक पर्दा करने की हिदायत दे रखी थी |रिसाल ने इस हिदायत को बाखुशी कुबूला |
 छोटे ठाकुर सा यानी ठकुराइन सुदर्शना देवी के पति विश्राम सिहं खूब ऊंचे पूरे और दिखनौट नवयुवक थे |शिकार के शौक़ीन और अपनी मौज में रहने वाले | |कई एकड़ में फ़ैली उस पुश्तैनी हवेली के इकलौते वारिस |हवेली के एक हिस्से में शानदार रिजोर्ट था |स्वीमिंग पूल ,बार, जिम ,और मनोरंजन के लिए एक बड़ा हॉल भी था |इनमे विदेशी सैलानियों के अतिरिक्त कुंवर विश्राम सिहं के अपने ख़ास मेहमानों के मनोरंजन के लिए व्यवस्था थी |
 अभी छोटी ठकुराइन सुदर्शना कंवर को ब्याहकर आये एक महीना ही हुआ था | हवेली में कोई जश्न था | ठकुराइन सुदर्शना गहनों से लदी फदी औरतों से घिरी बैठी थीं | खूब रंगीन माहौल था | उस दिन बड़े ठाकुर सा यानी  ठाकुर विश्राम सिहं के पिता का फरमान था कि मेहमानों को खाना और शराब बांदियां और नौकरानियां ही परोसेंगी | सुदर्शना का मन रिसाल में ही रखा था जो सामने के कक्ष में पुरुष मेहमानों को मुस्कुराकर मदिरा पेश कर रही थी | हालाकि रिसाल ने पर्दा कर रखा था लेकिन घूँघट से झांकती उसकी वो दिलकश और भोली मुस्कराहट देखने वालों के दिलों में एक तूफ़ान सा पैदा कर रही थी |ठकुराइन को  याद आया और अपनी गलती का अहसास भी हुआ कि उन्होंने रिसाल को मुस्कुराने के लिए मना नहीं किया |रिसाल के सुन्दर चेहरे पर मुस्कराहट देह के हज़ार कौंधते आभूषणों को मात देती थी |बीच में पड़े झीने परदे में से रानी सुदर्शना देख रही थीं और कुढ़ रही थीं |ठाकुर विश्राम सिंह ने भी पहली बार रिसाल को इतने निकट व् उसके पारदर्शी घुंघट में से गौर से देखा था और देखते ही उस पर रीझ गए |
इधर आओ ...उन्होंने शराब का ग्लास हाथ में लिए उसे बुलाया
हुकम सा  ....रिसाल ने आँखें नीची करके कहा
हमने सुना है तुम गाती बहुत अच्छा हो ..तुम्हारे गुणों में बताया गया था हमें ...ज़रा कुछ सुनाओ मेहमानों को
उस हवेली में ‘’ना’’ कहने का रिवाज़ नहीं था ये रिसाल एक माह में जान चुकी थी |ये उसके जीवन का पहला मौक़ा था जब इतने मर्दों के बीच उससे गाने की फरमाइश की गयी थी |रिसाल ने कनखियों से ठकुराइन की ओर देखा जैसे अनुमति मांग रही हो | घूँघट ज़रा सा और ओढ़ लिया और सकुचाई सी जाकर तख़्त पर बैठ गयी | ‘’म्हारो छैल छबीलो नाख्राडो ‘’उसने गाया तो मेहमान वाह वाह कर उठे | जश्न ख़त्म हो चूका था और ठाकर सा का चैन भी |उधर शराब की खुमारी अलग | तभी रानी सा का बुलावा आ गया और रिसाल उनके साथ रानी सा के कक्ष में आ गयी |
...लाइए आपके गहने उतार दूं ..कहकर रिसाल ने उनका हाथ पकड लिया और चूडा उतरने लगी
रहने दो...कर लूंगी मैं ..
रिसाल के चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गयी |समझ गयी कि रानी सा उससे नाराज़ हैं लेकिन उससे क्या खता हुई  ..ये न समझ पाई |वो चुपचाप उनके कपडे तहाने लगी |
’’किवाड़ बंद करो’’ ठकुराइन ने रिसाल को हुक्म दिया |
 उसने किवाड़ बंद कर दिए |
यहाँ आओ ...रिसाल ठकुराइन सा के निकट गयी |ठकुराइन सा कुछ पल उसकी और एकटक देखती रहीं |
’’और पास आओ’’ उन्होंने रिसाल से कहा |वो डरी हिरनी सी और निकट आ गई |ठकुराइन सा ने एक भरपूर तमाचा रिसाल के गाल पर जड़ दिया |दुबली पतली छरहरी काया दूर छिटककर गिरी |वो रोने लगी |
सुण...बांदियों को यहाँ रोने की इजाज़त नहीं समझी?...तेरी बर्बादी को अब मैं टाल न पाउंगी ...चल जा अब यहाँ से उन्होंने गुस्से में कहा
आधी रात बीत चुकी थी |मेहमान जा चुके थे |ठकुराइन पति का इंतजार करती रही मगर ठाकुर सा तो किसी और ही दुनिया में थे | रिसाल को ठाकुर साहब ने कमरे में बुलवाया था |
खम्भा घणी हुकम ....रिसाल ने कमरे में जाकर नज़रें झुका अदब से कहा  
घणी खम्भा ...द्वार बंद करो |उन्होंने कहा |रिसाल ने वैसा ही किया
अब मेरे पास आओ और ये पर्दा हटाओ सर से
कुछ देर रिसाल मौन खडी रही |उसे ठकुराइन की हिदायत याद आई ‘’किसी मर्द को तुम्हारा चेहरा नहीं दिखना चाहिए ‘’
मैंने कहा पर्दा हटाओ ...ठाकुर सा ने कुछ कडक आवाज़ में कहा |रिसाल डर के मारे सिहर गयी |उसने घूँघट हटा दिया |ठाकुर विश्राम सिहं देखते रह गए उसे अपलक |
 ....इधर आओ हमारे पास बैठो
डर से कांपती -सिहरती रिसाल ठाकुर सा की बगल में बैठ गयी |लम्बे चौड़े ठाकुर सा की मज़बूत छाती में अब एक निरीह गौरैया सी रिसाल दुबकी हुई थी |ठाकुर साहब के दिल की धड़कन उसे किसी तोप की गरज जैसी लग रही थी ...तालबद्ध...लयबद्ध गर्जना ...|ठाकुर विश्राम सिहं ने रिसाल की ठुड्डी उठाकर उसे निहारा |
...माशाल्लाह....उनके मुहं से बेसाख्ता निकल गया
उसने अपनी ऑंखें बंद कर लीं |
‘’मुंदे पलक देखें बस उर में ‘’
ठाकुर साहब ने उसे अपने सीने से लगा लिया और उसके घने लम्बे बालों में उँगलियाँ फिराने लगे |रिसाल को मदहोशी आने लगी |और उस दिन रिसाल पूरी तरह बांदी बन गयी थी |उसे याद आया वो पल जब रिसाल की माँ ने आते वक़्त उसे समझाया था ‘’बेटी अब थारा ठौर ठिकाना ठाकर सा का घर ही है ...उणक़ा हुकुम ही इब थारा मण है ..बांदी बनकर जा रही है...राणी णा समझणा ...सबका खैर ख्याल रखियो री छोरी |’’ पहला ‘’भोग’’ रवायत के हिसाब से ठाकर सा ने लगा दिया था | एक पुरानी वृद्ध बांदी गुलाब कंवर जो बड़ी ठकुराइन के साथ ज़हेज़ में आई थी और बुढापे में हवेली के ही एक छोटे से कमरे में रहती मुफलिसी के दिन गुज़ार रही थी ने रिसाल को समझाया |’’ री छोरी, रोण धोण से कुछ कोणी फायदा ... बांदी अइयां ही नसीब लेके पैदा होवे छे रे बापरी ... |’’
रोज रात में रिसाल को ठाकुर सा के कक्ष में जाना होता |एक अजीबोगरीब स्थित से गुज़र रही थी वो |इधर रानी सा उससे सौतनों जैसा सुलूक करतीं और उधर उसे दिन भर ठाकर सा की याद आती |उनका प्रेम करना याद आता |उसकी ऑंखें विरह से बोझिल रहतीं |आखिर उसकी कमसिन उम्र और जीवन का पहला प्रेम था वो | उस कडक युवावस्था में ठाकुर सा ने उससे दिल से मुहब्बत की और रिसाल ने भी ,पर बिना प्रेम की परिणिति जाने अकूत प्रेम करने का परिणाम क्या होगा इस सत्य से वो अनभिग्य थे | उधर ठकुराइन भी नई नई ब्याहता ही थीं लेकिन ठाकुर साहब तो रिसाल बांदी के दीवाने होचुके थे |रात भर ठकुराइन अकेली मीन सी तडपती और दिन में रिसाल को खोई खोई देखकर ठकुराइन की छाती पर सांप लोटते | तभी रिसाल गर्भवती हो गयी |मानो ज़लज़ला ही आ गया |
छोरी ...या तो भोत गल्त हो गया ...इसे सपा करा दे ...पुरानी बांदी गुलाब ने हिदायत दी
सपा के होबे है बड़ी अम्मा ?
सपा यानी गरभ गिरया दे ...राणी सा थारे से ज्यूँ ही चिढती से..पता चल गया ते मारकर जंगल में गडवा देगी पता भी ना चलेगा किसी ने...
रिसाल बुरी तरह डर गयी |उसे कुछ समझ में न आया कि ये क्या हो गया |वो रोने लगी |
गुलाब ने उसे समझाया  ‘’मरद की फितरत अण बांदी की किस्मत अईया ही होबे है छोरी | ठकुराइन थारी कोख से हुकम (ठाकुर सा) का टाबर कइयां बर्दास्त कार्या सी ? ने तू हवेली में रहण की बचेगी री छोरी ने बाहर ..‘’....
गुलाब ने सोचा तो ये था कि रानी सा को खबर भी नहीं होगी और वो चुपचाप उसे ‘कड़ा’’ खिलाकर उसका गर्भ गिरा देगी लेकिन समय ज्यादा बीत चूका था ..खतरा था सो ठकुराइन को खबर देनी पडी |
ठकुराइन ने सुना तो जैसे काठ मार गया उन्हें |वो खामोश रहीं और गुलाब से कहा 
इसका ख्याल रखो...खाने पीने का ध्यान और इसका काम तुम करोगी अब जब तक इसकी जचकी हो नहीं जाती |हवेली के अन्य नौकर चाकरों से ये खबर छुपा कर रखने की सख्त हिदायत थी | ठाकुर विश्राम सिहं अपनी पत्नी ठकुराइन सुदर्शना का आदर करते थे |और उनकी रसूखदार खानदान का लिहाज भी |जब ठकुराइन ने रिसाल से सम्बन्ध रखने पर पति से नाराजगी प्रकट की तो उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने रिसाल से कोई सम्बन्ध न रखने का वचन दे डाला |
रिसाल को बेटा हुआ था |हवेली में कानो कान किसी को खबर न लगी सिवाय ठाकुर साब ,ठकुराइन और गुलाब के |गुलाब को उसे पालने का जिम्मा सौंपा गया |जचकी के बाद तो रिसाल और भी सुन्दर दिखने लगी थी |ठाकुर साब वचन बद्ध थे लेकिन ठकुराइन को ये भांपते देर न लगी कि ठाकुर सा का शरीर भले ही उनके पास रहता है लेकिन तडपते वो अब भी रिसाल के लिए ही हैं
ठाकुर साहब दो दिनों के लिए कसबे से बाहर गए हुए थे |ठकुराइन ने एक चाल चली ...
हवेली में काम करने वाले माली मलखान सिंग को बुलाया |
तुमने बाग़ बहुत खूबसूरत कर रखा है तुम्हे इनाम देना चाहते हैं
मेहरबानी ठकुरानी ..उसने नज़रें झुकाकर बड़े अदब से कहा
लेकिन इनाम ये होगा वो तो मलखान ने सपने भी ना सोचा था |
‘’रिसाल बांदी को ले जाओ अपने साथ ...दो दिन की तुम्हारी छुट्टी मौज मनाओ ....जाओ
...रिसाल रोती रही ...अपने दुधमुहे बच्चे से बिछुड़ने की टीस से वो दुःख में डूब गयी ..खूब तडपी लेकिन ठकुराइन का दिल न पसीजा |’’ थारा टाबर तो गुलाब संभालेगी ना |फिकर की के बात  ..जा मौज करे ...|
ना रानी सा ..रहम ...रिसाल गिडगिडाई
अरे तो थाणे हवेली के बाहर थोड़ा ही भेज रहे हैं ...? अपणा आदमी  ही तो है विशवास का ..’’ठकुराइन ने लाड़ का नाटक करते हुए दलील दी |मलखान सिंह हवेली में ही नौकरों को दिए गए घरों में रहता था |रिसाल को जबरन उसके साथ जाना पडा |ठाकुर साब जब वापस लौटे तो ठकुराइन ने उन्हें रिसाल का माली के साथ रात गुजारना बताया |विश्राम सिहं दुखी तो हुए लेकिन कुछ कहा नहीं ...बांदी थी ..क्या और किससे कहते |
अभी जवान लडकी है ..उसे भी तो हक़ है मौज मस्ती करने का ...उसकी अपनी हैसियत के लोग उसे मिल गए ...|ठकुराइन ने कहा |ठकुराइन जानती थी हवेली के कायदे क़ानून |एक बार बांदी का उपभोग कोई और निम्न वर्गीय कर्मचारी कर ले तो ठाकुर खानदान के मर्द उसकी और देखते तक नहीं |
उस दिन के बाद रिसाल की ज़िंदगी नरक बन गयी |
न सिर्फ हवेली के मेहमान बल्कि हवेली के किसी भी कर्मचारी,सेवक आदि जैसे लोगों के हाथ का खिलौना बन गयी वो| मेहमानों के सामने उसे नजराने और हवेली के नौकरों के लिए बतौर इनाम इकराम पेश किया जाता |ठकुराइन को फ़िक्र और कुढ़न से निजात मिल गयी |
 तब रिसाल उन्नीस बरस की थी जब उसका पहला प्रेम ठाकुर साहब के कार ड्राईवर लाखन सिहं से हुआ |लाखन सिहं अछे खानदान का और थोडा बहुत पढ़ा लिखा युवक था |वो हवेली से बाहर कसबे में रहता था |वो रिसाल को मन ही मन न जाने कबसे प्रेम करता था लेकिन कहने का न कभी मौका मिला न हिम्मत ही हुई | हवेली की मज़बूत दीवारों के भीतर रिसाल के साथ क्या हो रहा है इसका ज़रा भी इल्म न था |लाखन चाहता तो ठाकुर साहब से विनती करके रिसाल को ले जा सकता था |वो बांदी थी |बांदी का काम ही हवेली से ताल्लुक रखने वाले लोगों का मन बहलाना था |लेकिन लाखन सिहं रिसाल को दिल से प्यार करता था |मन के किसी कोने में उससे ब्याह करने का सपना भी उसने संजो रखा था |
एक दिन बाग़ के घने नीम के पेड़ के पीछे उसने रिसाल को बुलाया |रिसाल के हाथ को चूमकर उसने मुहब्बत का इज़हार किया |
‘’मुझे यहाँ से ले जाओ लाखन..ये लोग मुझे नोंच खायेंगे ..सब गिद्ध हैं
मतलब ? मैं समझा नहीं
बस इतना ही समझ लो कि मैं बांदी हूँ इंसान नहीं ...
ठीक है ...कल तू मुझे यहीं मिलना ...मैं तुझे इस नरक से निकालूँगा ....कहकर लाखन चला गया | जैसे तैसे मौक़ा देखकर रिसाल पोटली में अपने कुछ कपडे लत्ते रखकर अँधेरे में पेड़ के नीचे खडी हो गयी |लाखन उसका इंतज़ार कर रहा था |वो दौनों जैसे ही वहां से धीरे धीरे बाहर जाने को हुए ठकुराइन की कार की लाईट उनके चेहरों पर चमकी |वो कहीं से लौट रही थीं
‘’कौन है वहां इधर आओ
लाखन और रिसाल डरे हुए से उनके पास खड़े थे
कहाँ जा रहे हो दौनों ..और ये क्या है ? उन्होंने रिसाल की पोटली की और इशारा किया |
कपडे हैं राणी सा ....
भागने की तैयारी थी ?
रिसाल डरकर कांपने लगी |
जा भीतर जा .....हमारे लिए खस का शरबत बनाकर रख ..
रिसाल को तो लग रहा था कि रानी सा उसे भयानक सज़ा देंगी ...बांदी होकर भागने की जुर्रत ?लेकिन वो तो बिलकुल ही सामान्य थीं| ..उसे खुशी हुई ...
जी रानी सा  ..नीची निगाह कर उसने कहा और हवेली के भीतर चली गयी |लेकिन उसके बाद लाखन सिहं ऐसा गायब हुआ कि फिर न मिला |रिसाल  विक्षिप्त सी हो गयी |न खाना खाती थी न सोती थी |रात रात भर पूरी हवेली में घूमती रहती | सूखकर काँटा हो गयी |लेकिन ठकुराइन को उसमे इसके अलावा कुछ और भी बदलाव दिख रहे थे |
पेट से है क्या ? उन्होंने रिसाल से पूछा
पता नहीं ...रिसाल ने अनमने मन से कहा ..मेरा शरीर मेरा रहा है क्या ...ये तो वो लोग बताएँगे जिनका मेरे शरीर पर अधिकार रहा है
बहुत बोलने लगी है ...बांदी को इतना बोलने की इजाजत नहीं जानती नहीं क्या ? ठकुराइन के स्वर में तल्खी थी 
बोलने दीजिये मुझे रानी सा ...रिसाल अप्रत्याशित रूप से चीखी |’’बांदी की सिर्फ देह नहीं मुहं में जबान भी होती है ..उसके सिर्फ छातियाँ नहीं उसके भीतर एक दिल भी होता है’’ तमाम तहजीब धूप में बर्फ सी गलने लगी |अनर्गल विलाप....... चीखने का सिलसिला बडबड़ाने और फिर निढाल हो जाने पर टूटा
ठकुराइन अचम्भे से सिर्फ देखती रह गयी |आज पहली दफा उस नखरीली,रोबदार,नकचढी ठकुराइन की हिम्मत ने थकान महसूस की थी
परे जांण दें हुकम ..या छोरी बाबली हो गयी सैय.....घबराई हुई गुलाब बांदी ने घिघियाकर कहा और अधमरी सी रिसाल को घसीटती हुई भीतर कोठरी में ले जाने लगी
अभी इसे कड़ा खिला |जानती नहीं क्या बांदी माँ नहीं बन सकती ? ठकुराइन  गुस्से में बोली
‘’माफी चाहूँ रानी सा ....माँ तो मैं पहले ही बन चुकी हूँ ...सुमेर की माँ ...’’ रिसाल अपने ही वश में नहीं थी
हाँ लेकिन वो तो ठाकुर सा का ...अचानक बोलते बोलते ठकुराइन रुक गयी |  ठकुराइन के ज़ख्म हरे हो गए |पांच सालों में वो माँ नहीं बन पाई थीं
ठाकुर सा ने सुना तो उन्होंने रिसाल को बुलाया 
क्या चाहती है?
बच्चा ...बच्चा चाहती हूँ हुकम ...
लेकिन तू जानती है यहाँ बांदियां सिर्फ सेवा के लिए होती हैं बच्चे जनने के लिए नहीं |सोच ले...यदि बच्चा होगा तो तुझे हवेली छोडनी पड़ेगी |और यदि बच्चे का  मोह छोड़ देती है तो तुझे यहाँ कोई तकलीफ नहीं होगी |ज़िंदगी भर बेहतर खाना कपड़ा,रहना सब हमारी ज़िम्मेदारी
माफी हुकम ...पर मैं भी माँ कहलाना चाहती हूँ
ठीक है...तूने इन पांच बर्षों में हमारी खूब सेवा की है |हम तेरी हिफाजत से जचकी कराएँगे ..लेकिन उसके बाद तुझे यहाँ से कहीं और ठौर देखना होगा
मंजूर हुकम
रिसाल ने बेटी को जन्मा |वो दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दिन था |एक तो अपनी संतान का सुख और दूसरे अब इस कैद से बाहर जाने का रास्ता साफ़ था |
जब रिसाल हवेली के उस विशाल ,मज़बूत और नक्काशीदार द्वार से बाहर सदा के लिए निकली उसके पास एक टीन का बक्सा था ,गोद में दुधमुही बेटी सुनीता और थीं बेहद कडवी व् डरावनी स्म्रतियां| सुमेर को तो ठकुराइन ने देखने भी ना दिया |सुमेर खुद नहीं जानता था कि उसकी असल माँ कौन हैं |
कुछ दिन कसबे के मुहल्लों गलियों में इधर उधर भटकने के बाद ठाकुर साहब के किसी दयालु कारिंदे के मार्फ़त ही वो इस ‘कोठी’ में आई | कस्बा छोटा था और लोग पुराने |सो बदनामी ने उसका दामन यहाँ भी न छोड़ा | कभी कभार ठाकुर साहब भी आंटी (शर्माइन) के फोन पर उससे बातचीत करते और हालचाल पूछते |बेटी की पढाई लिखाई के लिए पैसा भी देते लेकिन रिसाल के जीवन में सुकून अब भी न आया था |वहां उसका तन उसका बैरी बना हुआ था और हवेली के बाहर आने पर उसके मन पर आघात होते थे |उसे देखकर लोग नफरत से मुहं फेर लेते |जो लोग रिसाल का अतीत जानते थे वो उसकी बेटी को अजीब सी नज़रों से घूरते |’’न जाने किसकी बेटी है? बाप का भी पता ठिकाना किसी को नहीं पता ‘’लोग कहते |‘’सच तो कहते हैं ...लोग |.फिर वो क्यूँ दुखी होती है लोगों की बात पर? क्या सच्चाई से उसे डर लगता है? जो कुछ हुआ वो क्या उसकी मर्जी थी?नहीं वो राजपूतनी है किसी से नहीं डरती |और डरे भी क्यूँ ?अपने अतीत को तो वो हवेली की उन दमघोंट परम्पराओं की ज़मीन में बहुत गहरे दबा आई है जो उसकी खामोश चीखों और उसके वुजूद की न जाने कितनी बार हुई ह्त्या की गवाह थीं |..अपनी बेटी सुनीता को खूब पढ़ायेगी लिखायेगी |उसके साथ बाकायदा एक पति का नाम होगा |रिसाल के ख़्वाबों का साथ आंटी ने दिया |रिसाल की बेटी सुनीता को स्कूल की पढाई करवाई |आंटी एक रसूखदार खानदान की महिला थीं जिनकी सामाजिक छवि व् सह्रदयता ने रिसाल के अतीत और सुनीता के भविष्य की काली परतों को ढँक दिया था |अब सुनीता बंगलौर में माताजी की बेटी अंजू के पास रहकर कॉलेज की पढाई कर रही थी और उसका रहन सहन किसी सभ्रांत सुसंस्कारित परिवार की तरह था |वो अंजू को दीदी कहती |
वक़्त गुजर रहा था मंथर और सुनियत गति से | बंगलौर में सुनीता का प्रेम उसी के साथ पढने वाले एक मराठी लड़के से चल रहा था |उसने ये बात माँ रिसाल को भी फोन पर बताई थी लेकिन उसकी इस खबर से रिसाल बहुत विचलित हो गयी थी |उसे हमेशा ये भय सताता कि कहीं उसका वो काला अतीत सुनीता व् लड़के को पता चल गया तो? जब लड़के के माता पिता सुनीता के पिता के बारे में पूछेंगे तो वो क्या ज़वाब देगी ?लेकिन जब अंजू ने फोन पर बताया कि सुनीता अपने उस दोस्त के साथ अलग रहने लगी है |ये इस ज़माने में बुरी बात नहीं समझी जाती |ये एक आधुनिक व्यवस्था है बिना किसी रस्मो रिवाज के साथ रहने की इसे यहाँ लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं |माता जी ये खबर सुनकर सन्न रह गईं |हालाकि उन्होंने ये अप्रत्याशित खबर रिसाल को बहुत सामान्य तरीके से बताई  लेकिन रिसाल दुखी हो गयी |वो रोने लगी |
माताजी ,एक ही तो सहारा था मेरे जीवन का वो ही ...आप लोगों जैसे इज्ज़तदार घर में उसकी शादी करना चाहती थी मैं |
 अरे बड़े शहरों में ये आम बात है ...चिंता की कोई बात नहीं |तू ये तो सोच यदि समाज के भय से किसी गंवार दारूखोर आदमी से बचपन में ही ब्याह दी होती तूने अपनी छोरी तो अब तक तो तीन चार बच्चों की माँ बन गयी होती वो |सुनीता और उसका वो दोस्त दौनों समझदार और पढ़े लिखे हैं |कम से कम उस बात की नौबत तो नहीं आई जिससे तू डर रही थी |बाप का नाम ....
रिसाल ने अपने जीवन में कई चोटें सही थीं सो इसका ज़ख्म भी वो हमेशा की तरह उसे भूलकर या अपने को समझाकर भरने की कोशिश करने लगी |
ठाकुर विश्राम सिहं के इंतकाल की जब रिसाल को खबर मिली वो कमरा बंद करके बेतहाशा रोई |आंटीजी ने उसे नहीं रोका | रिसाल जब कमरे के बाहर निकली तो वो पूरी तरह बदल चुकी थी |उसने सफ़ेद पोशाक पहन रखी थी |गले में तुलसी की माला |बदन पर कोई सुहाग का चिन्ह न था |उसकी आँखें सूजी और लाल थीं
 मुझे स्कूल परिसर में क्वार्टर मिल चुका था और मैं आंटी और रिसाल से विदा लेकर भारी मन से उसमे पहले ही शिफ्ट हो चुकी थी | शुरू में आंटी और रिसाल से मिलने मैं हर छुट्टी में ‘’शिव कॉलोनी ‘’उनके घर आती |फोन से उनसे तारतम्य बना हुआ था |
दिन बीतते गए |रिसाल का पहले वाला स्वभाव न जाने कहाँ लुप्त हो गया था |वो अचानक से बूढ़ी हो गयी थी| देह और मन दौनों से |जैसे नसीब और उसके वुजूद की लड़ाई में जूझते जूझते अचानक वो थक गयी हो |उसने हार मान ली हो |कुछ चिडचिडी भी हो गयी थी |बेटी सुनीता ने कई बार यहाँ आना चाहा या उसे बंगलौर बुलाना तो रिसाल ने इनकार कर दिया |कहा ’’जहाँ रह रही हो खुश रहो बस.. |’’
उस दिन सुबह आंटी जी दूध लाने के लिए आवाज लगाती रहीं लेकिन रिसाल सोकर उठी ही नहीं |उन्हें आश्चर्य हो रहा था |रिसाल को तो उन्होंने सिवाय तबीयत खराब के कभी इतनी देर तक सोते देखा ही नहीं था |आंटी जी खुद उसके पलंग के पास गईं लेकिन तब तक रिसाल इस निष्ठुर ,स्वार्थी संसार से बहुत दूर जा चुकी थी हमेशा के लिए | उन्होंने मेरे स्कूल में फोन लगाया लेकिन उस वक़्त मैं एक सेमीनार के सिलसिले में जोधपुर गयी हुई थी |उन्होंने तुरंत पड़ोसियों को बुलाया |अपनी बेटी अंजू को बंगलौर में फोन किया | करीब साढ़े चार बजे अंजू फ्लाईट से सुनीता को लेकर आ गयी | सुनीता माँ की मृत देह को देर तक अपलक देखती रही |जब रिसाल को ले जाने लगे सुनीता ने कहा वो भी जायेगी सबके साथ और माँ की चिता को अग्नि वो देगी | वहां मौजूद ठाकुरों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गयी |सुनीता को समझाने की कोशिशें भी हुईं लेंकिन वो माहौल किसी बहस का न था सो सब चुप्पी लगा गए |
गोधुली बेला होने को थी |शमशान घाट पर पहले से ही एक गाडी एक पेड़ के नीचे खडी हुई थी |जिसके पास एक औरत और एक जवान लड़का खड़े हुए थे |जब रिसाल की देह को चिता पर रखा गया ,और जैसे ही उसे उसकी बेटी सुनीता ने अग्नि देने के लिए एक हाथ बढाया अचानक एक बूढा दुबला पतला सा आदमी आया और उसने सुनीता के हाथ से वो लकड़ी ले ली
ला छोरी ...अभी मैं ज़िंदा हूँ ....या कारज मैं ही करूंगा और चिता को आग दी |वो लाखन सिहं था |रिसाल का गुमशुदा प्रेमी |
सारे लोग आँखें फाड़े कभी उस बूढ़े को देख रहे थे और कभी उस कार में आयी ठकुराइन और उस लम्बे चौड़े युवक को...रिसाल और ठाकुर साहब की नाजायज़ औलाद |सबके चेहरे पर एक अजीब सी तटस्थता थी |ठकुराइन अब भी निर्भाव खडी थी |कुछ देर वो रिसाल की धू धू जलती हुई चिता को अपलक देखती रहीं और फिर अपने सौतेले बेटे सुमेर सिंग के साथ गाडी में बैठकर चली गईं |कुछ देर उनकी कार के पीछे उड़ता धूल का गुबार और चिता की लपटों से निकलता धुंआ इस कद्र आपस में घुल मिल गए मानो एक दूसरे को अंतिम विदाई दे रहे हों |.वो  फ़कत एक आम औरत नहीं थी जिसे अग्नि के सुपुर्द कर वो लोग वापस लौट रहे थे ,बल्की वो धूल मिट्टी की कई तहों के नीचे लिपटा हुआ एक काल था जो सदा के लिए ज़मीदोज़ हुआ था
 रिसाल मुक्त हो चुकी थी अपनी हैसियत, रूप,देह,मन ,पीड़ा, मुहब्बत और संसार सब से ....|मुक्त वो भी हो चुके हैं जिन्होंने उस पर राज किया |उसे तोहमतें व् दुःख दिए| जिन्होंने उसे सहारा दिया,मुहब्बत की ...सब समय की खोह में विलीन हो गए |
सुनीता की बेटी अपनी सिंगल पेरेंट के साथ बड़ी हो रही है.... नन्हें पाँव... और रास्ता मीलों लंबा  ......

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 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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