Sunday, February 21, 2016


🔷 देह भर नहीं
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🔵नवनीत मिश्र
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‘ आज मन कैसा है? ’ पूछने के साथ ही इनका एक हाथ मेरी एक बांह पर आ जाता है,कुछ ऐसे कोण से कि मुझे लगे कि हाथ मेरी बांह पर रखा गया है,लेकिन तीन अंगुलियों के बाहरी पोर . . . .
मेरा ही शरीर और मेरे साथ ही धोखा- इनकी ‘चतुराई’ पर मन ही मन हंसी आती है।
बेटू ने पहली बार जब मेरी एक बांह के घेरे में मुझसे एकदम सट कर अपने गुलाबी और नरम होठों से छुआ था,उसी दिन से मेरे लिए अपने इन भंडारागारों की भूमिका जैसे बदल गई थी। पहले, इनको अपने मोह-पाश में बांधकर अवश करने के लिए,जिनको अस्त्र की तरह प्रयोग में लाती थी,उनके जरिए मैं बेटू की नस-नस में प्रवहित हो रही थी। मेरे प्राणों का एक हिस्सा बेटू के होठों के रास्ते उसके अंदर खिंच रहा था। जब बेटू एक पर अपना कब्जा जमाए रखते हुए दूसरे को भी अपने नन्हें हाथ से दबोचे रखता तो उसकी इस अधीरता को देख हुलास से भर कर सोचती कि लालच कैसे पैदा होते ही शुरू हो जाता है।
मेरा कद मेरी ही निगाहों में बढ़ गया था। मैं गर्व से छलकती रहती कि एक छोटे से संसार को जीवित रखने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है,कि यह काम मैं और सिर्फ मैं ही कर सकती हूं। और कैसी थी वह अनुभूति कि इतने वर्षों बाद भी वह ज्यों की त्यों ताजा है,मगर देखती हूं कि इनकी बौनी अंगुलियों के लिए जैसे कहीं कुछ बदला ही नहीं है।
‘ क्या?’ पूछकर मैं, ‘मन कैसा है ?’ का जवाब तय करने के लिए जरा देर की मोहलत ले लेती हूं।
यह तो अब हो रहा है कि ‘मन कैसा है’ के जवाब की प्रतीक्षा की जा रही है, नहीं तो कोई और समय होने पर अगर जवाब होता,‘ठीक है’, तब तो इनके लिए जैसे खुला आमंत्रण ही होता और अगर जवाब होता ‘ठीक नहीं है’ ,तो इनके हिसाब से सारी तकलीफों का बस एक ही कारगर इलाज होता है . . . .
अब तो बस जी करता हैकि घंटों चुपचाप बैठकर गुजार दूं। अगर हो सके तो इनका अपने पास होना कुछ उस तरह महसूस कर सकूं ,जैसा कि वास्तव में पास रहते हुए भी कभी महसूस नहीं कर सकती। मैं जहां आ गई हूं ,वहां पहुंचने के लिए मैं देह को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर चुकी हूं। अब चाहती हूं कि इन्हें देह से परे करके भी देखूं-देह से परे होकर भी इनसे मिलूं। मगर पता नहीं ऐसा कभी होगा या नहीं,या होगा तो कब? ये कभी नहीं समझेंगे कि मेरे पास होने का हर समय सिर्फ एक ही प्रयोजन और एक ही अर्थ नहीे होता। ये कभी समझना ही नहीं चाहते कि मन के ऋतु-चक्र में मधुमास लौटकर नहीं आता,उसकी सुखद स्मृतियों से ही पतझड़ की पीली,सूखी पत्तियों को बुहार कर मन-आंगन चमचमाता हुआ रखना होता है।
पिछले कई अवसरों की तरह एक बार जब मैं मिनट-मिनट गिनकर उस समय के गुजर जाने की प्रतीक्षा कर रही थी,मेरा ठंडापन इनसे छिपा नहीं रह सका।
‘ प्यार में देह ही सब कुछ होती है ,बाकी सब झूठ और आत्मप्रंवचना है . . . शरीर न हो तो प्यार के लिए कुछ भी बचा नहीं रहता। तुम इतनी सी बात भी नहीं समझतीं? मैं तुम्हें जीवन भर इसी तरह प्यार करता रहूंगा,चाहे जितनी भी उम्र के हम क्यों न हो  जाएं . . . .मगर तुम्हारे पास आकर लगता है जैसे मैं कोई पूरंपूर पुरूष न होकर कोई बलात्कारी हूं ’ . . . ये उन्मादी की तरह कह रहे थे और मैं सोच रही थी कि हर समय अपनी ही इच्छाओं की सुगंध की गमक में बेसुध ये,क्यों नहीं सोचते कि देह का पेड़ अब हर रोज,हर समय वसंत से लदा नहीं मिल सकता। इनसे अपनी ययाति आकांक्षा से छुटकारा पाने की विनती करते हुए कहना चाहती थी कि मैं नारीत्व के जितने ऊंचे शिखर पर चढ़ना चाहती हूं ,तुम मुझे उतना ही मांस के पोखर में खीच ले जाना चाहते हो।
मैं जहां से खड़ी होकर इन्हें अपने साथ चलने के लिए आवाज लगाती हूं ,वहां तक पहुंचने का इनको बस एक ही रास्ता मालूम है। ये उसी रास्ते में भटक कर रह जाते हैं और मैं इनकी प्रतीक्षा करती फिर अकेली खड़ी रह जाती हूं। ये जितनी बार मुझ तक पहुंचने में असफल रहे हैं,उतनी बार मेरे हाथ से जैसे कुछ छूट-सा गया है। जब-जब इन्होंने अपने आपको मेरे ‘ निकट हो जाना ’ समझा है,दरअस्ल तब-तब मैं इनसे जरा-जरा दूर होती गई हूं।
बी0एससी के पहले साल मेें ही बेटू का दाखिला मेडिकल कालेज में हो गया था और पढ़ने के लिए उसे बाहर जाना था। उसके जाने के दिन जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे थे,मेरे अंदर से कोई चीज जैसे बाहर को खिंचती जा रही थी। मेरे दिमाग में जैसे  हिसाब-सा चलता रहता कि एम0डी0 या एम0एस0 करके एक सुयोग्य डाॅक्टर बनने में जो आठ-दस साल लगेंगे उनमें तो बेटू हमसे अलग रहेगा ही,फिर शादी हो जाने के बाद हमारे साथ रहा भी तो कितना हमारे साथ का रह जाएगा। मोह से मेरा वह सीधा परिचय हो रहा था। तभी तो कभी-कभी सोच बैठती थी कि इससे तो अच्छा होता अगर बेटू अभी बी0एससी या एम0एससी ही करता रहता। हाॅस्टल के लिए उसका सामान बांधते न जाने कितनी बार बिखरी थी। मेरी सारी दिनचर्या तो बेटू की दिनचर्या के हिसाब से ही निर्धारित हो गई थी। रात-रात भर पढ़ा करने वाले बेटू को चाय बना-बना कर देती,सवेरे उसके यूनिवर्सिटी चले जाने के बाद उसकी बिखरी किताबें और कापियां सहेजती और यहां तक कि दस बजे इनके आॅफिस के लिए निकल जाने के बाद किसी न किसी बहाने रूकी रहा करती थी कि पौने ग्यारह-ग्यारह बजे बेटू लौट आए तब नहाने के लिए गुसलखाने में घुसूं नहीं तो उसे बाहर खड़े रहना पड़ेगा।
बेटू के हाॅस्टल चले जाने के बाद मेरी तो जैसे सारी व्यस्तताएं ही खत्म हो गईं। जैसे करने को कुछ रह ही न गया हो। उसके कमरे में जाती तो डबडबाई आंखों में माइकल जैक्सन और सचिन तेंदुलकर के उतार लिए गए पास्टरों के पीछे दीवार पर छूट गईं आयताकार छायाएं गड्ड-मड्ड होती हुई मुझे याद दिलातीं कि बेटू अपना नया संसार हाॅस्टल के किसी कमरे में बसा रहा होगा। एक बेटू के सूने कमरे की वजह से पूरे घर में सन्नाटा टनकने लगा था। नहाते समय उसका जोर-जोर से गाना याद आने पर मैं विह्वल हो उठती।  छटपटाते मन को एक ही प्रतीक्षा थी कि ये बेटू को छोड़ कर लौटें और मैं उसके राजी-खुशी होने का समाचार सुनूं तो इस उदासी और अकेलेपन से शायद कुछ त्राण मिले।
ये चार दिन बाद लौटे। दरवाजा खोलते ही इनको सामने खड़ा देखा तो लगा जैसे श्रीराम को वन के कठिन रास्तों पर छोड़कर खाली रथ लिए सुमंत अयोध्या वापस लौटे हों। इन्होंने अपनी अटैची एक तरफ रखकर खोली और उसमें से तौलिया निकालकर गुसलखाने में घुस गए। मैंने अनुमान लगाया कि शायद बेटू को लेकर ये भी अंदर से भरभराए हुए हैं और ऐसे में अपने को हल्का करने के लिए बाथरूम से अच्छा स्थान और कौन सा हो सकता है। अब ऐसा भी क्या? आखिर पढ़ने ही तो गया है। क्या लोगों के बच्चे पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं जाते? मैं इनके लिए चाय बनाते हुए सोच रही थी कि इस समय इनको ऐसे ही किसी दिलासे की जरूरत होगी। ये गुसलखाने से बाहर निकले तो मैंने इनको चाय का मग थमा दिया। इन्होंने मग पास की तिपाई पर रख दिया और मुझे अपने से लिपटा लिया। मैं जान गई कि बेटू के विलगाव से अपने अंदर घुमड़ रहे दुःख को अब ये अकेले में बहा देना चाहते हैं।
और ठीक भी है,मैंने सोचा,पुरूष हैं ऐसे कैसे किसी के भी सामने रोने बैठ जाते? औरत का क्या,जहां चाहे टेसुए बहाकर अपने को हल्का कर ले। मैंने सोचा तो इनके ऊपर दया हो आई कि पुरूष बेचारे धैर्य धारण करने के सिवाय और कुछ नहीं कर पाते। कुछ देर पहले दिलासा के तौर पर जो कहने की सोच रही थी,उसे दबा गई। कभी कभी रो लेना भी दिलासा होता है। कई दिनों के गर्द-गुबार के बाद ऐसे ही खाली पानी से भिगो लेने के कारण चीकट से हो गए इनके बालों में अंगुलियां उलझाने-निकालने लगी। इनके दुःख को सहलाने के लिए इनका सिर अपने सीने में छिपा लिया।
तभी एकाएक मैंने जाना कि ये सुमंत  नहीं थे।
जाते समय जरूर ये रथ लेकर गए थे लेकिन लौटे थे एक जर्जर छकड़े पर जिसमें थरथराती टांगों वाले,कामनाओं के मरियल बैल जुते हुए थे। क्या पिछले चार दिनों तक बेटू की सारी व्यवस्था करते हुए इनका मन,यहां घर के अंदर सुलभ हो गए निर्विघ्न एकांत के अवसर को लार बहाता देखता रहा था? अचानक इन्होंने अपने चुंबनों के थूक से मेरी गरदन,मेरे कंधे और मेरे होठों को लसलसा दिया था।
मैं अवाक् रह गई।
‘ प्लीज,मुझे बेटू के बारे में बताओ न . . .’ मैंने इनको अपने पैरों पर सीधे खड़े रहने के लिए कंधों से पकड़कर थोड़ा पीछे किया और कुछ मचल कर कहा।
‘ बेटू के बारे में भी बताऊंगा . . .’ इन्होंने सूख रहे गले से कहा और बेसब्री से ब्लाउज के हुक खोलने लगे।    
‘ तुमको तो हर वक्त बस . . . दुनिया में इसके अलावा और भी बहुत कुछ होता है . . .’ मैंने अपनी उकताहट दबाते हुए कहा और धीरे से इनका हाथ हटा दिया।
‘ दुनिया में इसके अलावा भी कुछ होता है क्या? ’ इन्होंने फिक्क से हंसते हुए ढिठाई से कहा और मुझे अपने से जकड़ने लगे।
‘ मैं चार दिनों से अधमरी-सी घर के इस कोने से उस कोने तक घूम रही हूं कि तुम आओ तो . . छोड़ो मुझे. .’ मैंने विरक्ति से भर कर कहा और इनकी जकड़न से छूटने की कोशिश करने लगी।
‘ जाओ छोड़ दिया। अब छत पर जाकर खड़ी हो जाओ और सबको चीख-चीख कर बताओ कि मैं कितना नीच आदमी हूं जो अपनी बीवी को प्यार करना चाहता हूं। ’ इनका सारा उत्ताप खिसियाहट बनकर पिघल रहा था। इन्होंने नथुने फुलाकर चीखते हुए कहा और लगभग धक्का देकर मुझे अपने से दूर करके अपने कमरे में जाने के लिए मुड़े। मैं जान गई कि नाराज होकर अपने को कई घंटों के लिए कमरे में बंद कर लेने का सीन शुरू होने को है। अब तो बेटू भी नहीं था जिसे मध्यस्थ बना कर जरा देर में स्थिति सामान्य बना लिया करती थी।
‘ देखो नारान मत हो। मैं बेटू के बारे में एक-एक बात जानने के लिए कितनी बेचैन हूं तुम नहीं जानते . . .’ मैंने इनको कमरे में जाने से रोका और इनका एक हाथ अपने हाथ में ले लिया।
‘ तुमसे जरा भी सब्र नहीं होता। मैंने क्या कहा कि बेटू के बारे में नहीं बताऊंगा? ’ इन्होंने मान-सा करते हुए कहा जो उस समय मुझे एक आंख नहीं सुहाया।
‘ तुमको भी तो बिलकुल सब्र नहीं है . . .’ मैंने बात को संभालने के लिए हल्के-फुल्के ढंग से कहा।
‘ हां,नहीं है सब्र। अपनी चीज के लिए क्यों करूं सब्र? ’ इन्होंने मेरे कहने को अपने ढंग से लिया। अचानक इन्होंने मुझे गोद में उठा लिया और कमरे में ले जाकर बिस्तर पर गिरा दिया।
‘ ये समय जो जा रहा है,लौट कर नहीं आएगा। इसके एक-एक पल में भरे आनंद को निचोड़ लेंगे हम . .देखो तो,इतने बड़े सुख के लिए कितना कम समय मिला है हमें . . .’ मुझे पीसते हुए सन्निपात के किसी रोगी की तरह ये बोले जा रहे थे।
‘ मुझे अपने बेटू की याद आ रही थी कि यह समय उसके यूनिवर्सिटी से लौटने का हुआ करता था और मैं उसके आने तक नहाने के लिए रूकी रहा करती थी। ‘ अब तो बस घर में मैं हूं और तुम हो . .अब तो जब भी जी करे . . .’
मुझे ध्यान आ रहा था कि मेडिकल कालेजों में नये लड़कों की कभी-कभी ऐसी रैगिंग की जाती है कि कभी-कभी एकाध बच्चा तंग आकर आत्महत्या तक कर लेता है। बेटू की याद से पहले से ही बोझिल मैं,उसकी कुशल-कामना के लिए ईश्वर से भीख-सी मांगती हुई कातर ढंग से रो पड़ी।
‘ क्या इसी को कहते हैं रति-विलाप? ’ ये कह कर जरा सा हंसे।
 मैं बेटू के पास से एकाएक कमरे में लौट आई थी और इस बार इनके बोले शब्दों को स्पष्ट सुन सकी थी।
हां,यह भी रति-विलाप ही है। अंतर केवल इतना है कि रति के विलाप करने पर क्रुद्ध शिव ने अपने श्राप को कम करते हुए उसके पति काम को निराकार रूप में मन में जीवित रहने दिया था, पर बेटू की याद और उसकी चिंता के मेरे पवित्र अनुष्ठान को भंग करने के लिए काम को भेजकर तुमने उसके निराकार रूप को भी मेरी घृणा का शिकार बना दिया है। अब वह मेरे मन में भी जीवित नहीं है,जिसके साथ अभी मैं कई वर्षों तक और रहना चाहती थी- मैंने सोचा और सिसक कर रो पड़ी।
‘ आनंद के चरम क्षणों में कभी-कभी रोने का भी मन करता है . . .लेकिन औरत शुरू में इंकार करने के नखरे न करे तो आदमी को पागल कैसे बनाए? ’ इन्होंने किसी विशेषज्ञ की तरह कहा और मेरे गाल पर एक हल्की-सी चपत लगा कर उठ गए।
मैंने चपत वाली जगह पर गाल को हथेली से खूब रगड़ कर साफ किया। जरा-सी  देर में मैं सूखे कुएं जैसी हो गई थी जिसमें सारे अहसास छूंछे बर्तनों की तरह ठन्-ठन् बजने लगे थे। ये जैसे वेश्यागमन करकेे जा चुके थे और मैं इनके पसीने और अपनी देह पर छूट गई खट्टी गंध से पैदा हो रही तेज उबकाई से छुटकारा पाने के लिए वाॅश-बेसिन पर झुकी कै करने के लिए जोर लगाती रही।
‘ आदमी का दिन कैसा बीतेगा यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी पिछली रात कैसी बीती। ’ एक दिन इन्होंने अपने मित्रों और उनकी पत्नियों के बीच तीर-सा छोड़ते हुए कहा। ये तीर उन रातों से पैदा हुए जहर से बुझा हुआ था,जो मैंने इनकी ओर पीठ फेरकर गुजारी थीं। निशाने पर मैं थी,यह बात सिर्फ मैं जान सकी थी क्योंकि बेटू को हाॅस्टल छोड़कर आने के बाद की घटना से मैं सचमुच ही जैसे बुढ़ा गई थी।
‘ हां भई, आप लोग ठहरे पुरूष-समाज के अमीर। आप लोगों के पास ले-देकर करने के लिए वही एक ‘श्रम’ बच रहता है और हम ठहरी स्त्रियां-समाज की गरीब,बेचारी स्त्रियां। हमारे जीवन में तो कहने को वही एकमात्र ‘मनोरंजन’ है। ’ मैंने उस दिन की घटना को याद कर-करके जो खौलता हुआ लावा अपने अंदर इकट्ठा कर लिया था,उसे हंसी में लपेटते हुए इनके चेहरे पर दे मारा।
तिलमिलाकर भी जब ये किसी बात का जवाब नहीं दे पाते हैं तो इनके दाहिने नथुने के किनारे ऊपरी होठ के ठीक ऊपर एक गड्ढा-सा बन जाता है और कनपटी की तरफ आंखों के कोनों पर कौए के पंजों की तरह की लकीरें खिंच जाती हैं।
मेरी बात सुनकर इनके नथुने के किनारे गड्ढा भी बना और आंखों के किनारे लकीरें भी खिंचीं,लेकिन बात को जब इनके मित्रों और खासकर उनकी पत्नियों ने हाथों-हाथ उठा लिया तो ये भी अपनी ‘खेल-भावना’ का परिचय देते हुए हो-हो करके हंसने लगे।
बेटू को हाॅस्टल छोड़कर लौटने के दिन की घटना के बाद कई हफ्ते बीत गए थे। ये देह के संधि-पत्र के नये-नये मसौदे लिए मेरे चक्कर लगाते रहे थे,लेकिन हस्ताक्षर करना तो दूर मैंने किसी प्रस्ताव की तरफ देखना भी मंजूर नहीं किया था। अपमान,दुःख और क्रोध का एक दावानल था जिसने मेरे अंदर की सारी हरीतिमा को जला डाला था।
वे दिन अब स्मृतियों में ही शेष थे जब आफिस जाने से इनको रोकने के लिए इनके सामने ठुनका करती थी। अब तो दिन-भर इनका आफिस में रहना एक छुटकारे जैसा लगने लगा है। पास-पड़ोस की औरतों से घनिष्ठता मजबूरी में ही बढ़ानी पड़ी क्योंकि इतवार और छुट्टियों के दिन सारी दोपहर घर में पंचायत जोड़कर ये पड़ोसिनें ही मुझे इनका चेहरा देखने से बचाती हैं। कैसा विचित्र था कि हम दोनों को संतुलित रूप से चलाए रखने के लिए जो जरूरी बीच की धुरी चिटक गई थी,उसके बारे में ये एकदम बेपरवाह थे तभी तो इनकी कोशिशों में कोई कमी नहीं आई थी। एक-दो बार इन्होंने मुझे ‘युद्ध’ के लिए उकसाया भी लेकिन एक ‘निहत्थी’ पर वार करने का साहस ये शायद खो चुके हैं। मैं देर रात या तो रसोई निपटाने मे ‘व्यस्त’ रहती और इनके सो जाने के बाद ही कमरे में जाती या इनसे पहले आ जाती तो सो जाने का ढोंग करती पड़ जाती। डबल-बेड के एक बेड की पाटी पर पड़ी इनकी एक-एक आहट लेती रहती। ये देर रात तक करवटें बदलते रहते और खांस-खखार कर अपने ‘जागे होने’ की सूचना देते रहते लेकिन मैं ‘जाग नहीं पाती’।
उस दिन ये आफिस जाने के लिए तैयार होकर कमरे से निकले तो मैं नहाने के बादआंगन में सिर आगे को झुकाए तौलिए से अपने बाल झाड़ रही थी। ये जाते-जाते रूक गए और मेरे झुके कंधों के नीचे अंदर की तरफ ललचाई निगाहों से देखने लगे। मैंने बाल झाड़ना बंद कर दिया और तौलिया अपने सामने डाल ली।
वे दिन अब स्मृतियों में ही शेष थे जब ये मुझे सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में कमर हिलाने वाली काठ की गुड़िया बनाकर किसी बल्ब के सामने खड़ा कर दिया करते थे और इनको रिझाने के लिए मैं दीवार पर दीख पड़ती अपनी पतली-कमर  हिलाती रहती। ये मेरी दीवार पर पड़ती छाया को मंत्र-मुग्ध से न मालूम कितनी देर देखते रहते। उस दिन आंगन में ये मेरे सामने ठिठक कर रूके तो ऐसा लगा जैसे असावधानी में घर का दरवाजा बंद करना भूल गई हूं और कोई अजनबी बिना दस्तक दिए अंदर आ गया हो।
‘ तुम्हारी जैसी औरतों के पति ही घर से बाहर चले जाते हैं।’ मुझे तौलिए से अपने बदन को ढंकते हुए इन्होंने कड़वाहट के साथ कहा चले गए।
धड़ाम की एक तेज आवाज के साथ मेरी पीठ पीछे इन्होंने दरवाजा बंद किया था लेकिन मैं चैंकी अपने अंदर हुए धमाके से।
‘ क्या यह मुझे धमकी दी गई है?’ मैं अपने आप से पूछ रही थी।
किन औरतों के पति घर से बाहर चले जाते हैं ? उनके न जो रोज रात को गंदी होने के लिए सफेद चादर की तरह बिछने को तैयार नहीं होतीं ? या उनके जो इस सारे कार्य-व्यापार का चाहे हल्का-सा ही सही,एक सूत्र अपनी मरजी की अंगुली में फंसाए रखने की जिद किए रहती हैं? या उनके जो अपनी देह को पेड़ की किसी शाख की तरह प्रस्तुत नहीं करतीं जिस पर पति नाम का बंदर अपने नितंब उछाल-उछाल कर जब चाहे भोंडे ढंग से नाच सके?
‘ अगर मेरी जैसी औरतों के पति घर से बाहर चले जाते हैं तो वो घर से बाहर ही रहने के लायक होंगे। ’ मैंने अपने अंदर एक खौलन-सी महसूस की ,जो आंखों के रास्ते बह निकली थी।
जो एक कसैलापन ये मेरे कानों में उंड़ेलकर चले गए थे उसने जीवन के कई ऐसे बेस्वाद क्षणों को मेरे सामने फिर लाकर खड़ा कर दिया था जिनको मैं कुछ समय बाद यही सोच कर भूल गई थी कि पुरूष की अपनी बहुत सीमित सीमा होती है,वह कितना भी सोचे स्त्री तो वह हो नहीं सकता। लेकिन बेटू को छोड़कर आने वाले दिन मालूम हुआ कि वह मां तो नहीं ही हो सकता ,बाप भी पूरा नहीं बन सकता।
जिसे कभी शर्मिंदा होना तक नहीं आया उसे घर से बाहर चला जानेवाला पति बनना कितनी आसानी से आ गया . . .
वह विवाह के शुरू-शुरू के दिन थे। हम दोनों को उन दिनों देह के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था। नहीं जानती थी कि देह इतने रंगों में खिलती है। अपने अंदर छिपे संगीत को पहली बार सुन रही थी। ये मेरे अभिमान थे,जिन्होंने मेरे रंगों से,मेरे संगीत से और मेरे छिपे हुए नये रूप से मुझे परिचित कराया था। एक नयी-सी मैं थी,अपने ही सामने खड़ी जिसे मैं पहली बार जान रही थी। मैं इनके साथ मिलकर एक बिलकुल नई और अब तक अपरिचित रही आई भाषा गढ़ने में व्यस्त थी जैसे उस भाषा को जाने बिना हम एक-दूसरे को पढ़ ही नहीं सकेंगे।
उसी दौरान किसी दिन मैंने इनका दिया,उस भाषा का एक अक्षर-बीज अपने पास चुपके से रोक लिया था जो मेरे दिए अक्षरों से मिलकर एक नई इबारत बनने लगा था। वह थी प्यार की इबारत। भाषा की खोज का मेरा मकसद पूरा हो चुका था। एक कथा लिखी जा चुकी थी-बेटू शीर्षक की कथा- जिसका बस सबके सामने आना ही शेष रह गया था।
अक्सर जैसे नई खरीदी गई चप्पलों के दोष दूकान पर उन्हें नापते समय ध्यान में नहीं आते। उस समय तो उनकी चमक और उनका नयापन भरमाता है। दूकान की चिकनी फर्श पर कुछ कदम चलकर देख भर लेने पर वह बड़ी आरामदेह लगती है लेकिन जब उन्हें पहन कर ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना होता है और पट्टियों से बंधा पैर अपनी मनचाही जगह बनाने की कोशिश करता है,तब पता लगता है कि वह पैर को कहां-कहां से दबा रही है जिसकी वजह से चाल में हल्की-सी लंगड़ाहट आने लगी है। हमारा नयापन भी जा रहा था और पहली बार मुझे एक हल्की-सी लंगड़ाहट की तरह का कुछ अनुभव हुआ था।
‘ नहीं अब नहीं। डाक्टर ने अब ऐसी हालत में मना किया है।’ इनकी मनुहार पर मुझे आश्चर्य हो रहा था।
क्या मेरे भीतर जो महागाथा अपने अंतिम अध्याय में है,उससे ज्यादा प्रीतिकर है यह? इनकी जिद मुझे जरा अच्छी नहीं लगी,लेकिन इनका मन रखने के लिए मुझे दिखाना पड़ा कि मैं इनके साथ शामिल हूं। लेकिन सच बात तो ये है कि उस दिन पहली बार ये मुझे बहुत भारी लगे।
विवाह के दो वर्षो बाद मैं पूर्ण हो रही थी। जीवन के उस पहले अनुभव को लेकर मैं मगन थी,चकित थी और आशंकित भी। मेरे दिन-रात रोज ही अपने अंदर कुछ नया होने की प्रतीक्षा में बीत रहे थे। सपनों की नन्हीं,गुलाबी हथेलियां मेरे गाल छूती रहतीं,घुटनों के बल खिसकती मेरी कल्पनाएं मेरी गोदी चढ़ने के लिए मचलती रहतीं,पक चुका कोई विचार जैसे कागज पर आने के लिए अंदर से पैर की ठोकरें मारता-सा लगता। उठने-बैठने से लाचार मैं हवा के परों पर सवार आगत वर्षों की मीलों लंबी दूरियां हर पल तय करती रहती। मैं चाहती थी कि ये कभी मुझसे पूछें कि मैंने अपने सपने को बसाने के लिए कौन-कौन सी बस्तियां देखी हैं। मैं अपने मन में एक मूर्तिकार थी,कलाकार थी एक भाषा की अनुवादक थी- लेकिन उस दिन की उनकी अश्लील मनुहार ने मुझे बताया कि वास्तव में मैं कुछ नहीं थी . . .
हर महीने तकलीफ के उन चार-पांच दिनों में,जब औरत को अपने ही शरीर से घिन छूटती है,उसका सारा आत्मबल,सारा आत्मविश्वास थक्के बन कर नाली में बह जाता है- ये कैसे उन दिनों में भी अपनी अघोरी इच्छा लिए सामने आ जाते थे, जो कह कर गए थे कि मेरी जैसी औरतों के पति ही घर से बाहर चले जाते हैं।
‘ सुनो प्लीज . . .। ’ मैं दिन में डाक्टर के पास गई थी और उन्हें बताया कि शुरू के एक-दो दिन मुझे बहुत दर्द रहता है। मैंने बताया कि दवा लेने से दिन में जरा देर आराम मिला था और इस समय फिर तेज दर्द उठ रहा है।
इन्होंने सुना नहीं क्योंकि इनके कानों में उस समय कोई और ही सनसनाहट बज रही थी।
वह एक प्राणांतक हमला था। आरी के तेज दांते एक के बाद एक दर्द की लकीरें छोड़ रहे थे। पीड़ा की ऊंची लहरों से शरीर कांप-कांप उठता। मैंने दर्द पर काबू पाने के लिए अपने दांत भींच लिए और आंखें बंद करके उस तूफान के जल्द-से-जल्द गुजर जाने की प्रतीक्षा करने लगी।
उस रात पहली बार मुझे अपने स्त्री होने और इनके पुरूष होने से घृणा हुई।
‘ कोई भी आनंद ऐसा नहीं है,जिसमें आंखें खुली रह सकें,ऐसा ही होता है न? ’ ये मेरे कानों में फुसफुसा कर पूछ रहे थे। मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही थी,इनके हिसाब से मैं आनंद में थी। आनंद की इनकी अपनी परिभाषा है। रतिविलाप की तरह आनंद शब्द भी सुन लिया होगा कहीं से-क्या जवाब देती?
‘ मेरी जैसी औरतों के पति ही घर से बाहर चले जाते हैं ’-रसौली की तरह हमारे बीच आ गई थी और लगता था कि रोज उसका आकार कुछ बड़ा हो रहा था।
चुप्पी का एक प्रेत मेरे अंदर आकर बैठ गया था जो दिन-भर मुझसे बातें करता रहता,तब भी जब मैं पड़ोसिनों के साथ बैठ कर बातें कर रही होती। मैं उसी प्रेत से पूछती कि क्या बाहर चले जाने का विचार ही बाहर चले जाना नहीं है? मैं अपने हाथ से कोई चीज पटककर चकनाचूर करना चाहती थी ताकि हम दोनों का आपस में टूटना रूक सके। वह प्रेत जो दिन भर मुझसे बातें करते थकता नहीं था,इनके घर में घुसते ही चुप हो रहता और मुझे टहोके लगाता रहता कि मैं अपनी तरफ से कोई बात चलाऊं और तनाव को समाप्त कर लूं। लेकिन मैं अड़ी हुई थी कि अब तो इन्हें ही अपने आप समझना होगा कि इन्होंने क्या कहा और जो कुछ कहा उसका क्या मतलब होता है . . .
‘ आखिर तुमको हुआ क्या है ?’ महीना पूरा होते न होते आखिर एक रात इन्होंने कहा और मेरा हाथ अपने सीने पर रख लिया।
उन दिनों को गुजरे एक जमाना हो चुका था जब मैं इनके सीने के काले बालों पर अंगुलियां चलाती थी और इनके पूरे शरीर में जैसे किसी मादक संगीत की लहरें मचलने लगती थीं।
‘ मुझे क्या होगा ?’ मैंने अपना हाथ खींचते हुए कहा,जैसे कमरे के अंधेरे में भी इनके सीने के सफेद होने लगे बाल दीख गए हों।
‘ क्या तुम अब मुझे प्यार नहीं करतीं ?’ अंधेरे में इनका कातर सवाल मेरे कानों से टकराया।
कैसा करूण,भीख मांगता-सा स्वर। करूण, लेकिन उसमें मेरे मन के लिए कोई दर्द नहीं था। भीख,मेरे उस शरीर की जो इनकी भूख शांत करने की एक मशीन से ज्यादा कुछ नहीं।
मैं चुप रही।
‘तुमने जवाब नहीं दिया . . .’
इन्होंने बात का आगे की ओर ठेला।
‘ हां-हां करती हूं। सो जाओ अब . . .’
 मैंने कहा और बेड की पाटी के अंतिम सिरे तक खिसक गई।
‘ तो फिर हमारे बीच यह दूरी क्यों ?’
इन्होंने फिर उसी याचक स्वर में कहा जिसे सुन कर मेरा सर्वांग जल उठा।
आखिर आ गए न असली बात पर। यह एक शरीर ही तो है ,जिसके लिए तुम मरे जाते हो। कितने दीन-हीन-से हो गए हो कि मेरे इस तरह बोलने और झिड़कने पर भी तुम्हें जरा गुस्सा नहीं आता-जो घर से बाहर चले जाने वाले होते हैं,वह पति तुम्हारी ही तरह होते हैं? घिघियाने वाले?
मैं चुप रहीं।
‘ अब तुम पहले जैसी नहीं रहीं।’
 इन्होंने मेरा सबसे बड़ा अपराध गिनवाया।
‘ यानी मैं पहले कैसी थी,आपको पता है?’ मैं अपने वैवाहिक जीवन के पिछले पच्चीस वर्षों का हिसाब करने को तैयार थी।
‘ हां,अच्छी तरह पता है। पहले तुम्हारी एक-एक छुअन मुझे अंदर तक दहका देती थी,मगर अब . .’ इससे ज्यादा और ये कहते भी क्या।
‘ पच्चीस बरस तक साथ रहने के बाद तुम्हें मेरी छुअन के अलावा और कुछ याद नहीं और कहते हो कि तुम जानते हो कि मैं पहले कैसी थी? कभी तुमने जाना कि इस शरीर के अंदर एक मन भी होता है? देह का जो ललित प्रसंग संगीत की बढ़त की तरह आलाप से शुरू होता है और क्रमशः जोड़ और द्रुतलय से होता हुआ झाले के आंदोलन तक पहुंचता है,तुम्हारे साथ मुझे उस संगीत का सिर्फ विद्रूप ही देखने को मिला है जिससे मैं बेतरह ऊब चुकी हूं।’ मैंने जैसे सारा कुछ पहले से सोच रखा हो,इस तरह से कहा। नहीं जानती कि मेरी कही बात इनके पल्ले पड़ी या नहीं . . . इसके बाद कमरे में सन्नाटे की सत्ता फिर लौट आई।
पचास-पचपन की उम्र,जो कुछ मिल गया उसे देखने की नहीं ,जीवन में जो नहीं कर सके या जो नहीं हो सका उसके बारे में सोचने की होती है। ये जो बिना किसी विचलन के पीठ घुमा कर लेटे हुए हैं इन्हें अपने आप से कुछ नहीं पूछना,कोई जवाब नहीं देना-पर क्या कभी कुछ सोचना भी नहीं? ठीक भी है,सोचना हो तो क्यों ? इनके अपने खाते में तो फिर अपनी मजबूत पहचान के साथ  दो-दो प्रमोशन हैं,साधन चाहे जैसे रहे हों कहा तो यही जाएगा कि अपने बाहुबल से खड़ा किया गया छः कमरे का मकान और बेटे को डाक्टर बना ले जाने की उपलब्धियां चढ़ी हुई हैं। मगर मेरे खाते के पन्नों में क्या दर्ज है? रोटियां पकाने और पति के लिए ‘पेनकिलर’ बनने के अलावा और क्या लिखा जा सका उनमें ? यह इनकी चिंता के बाहर का विषय है कि एक पूरी उम्र के हिस्से में आया घर के एक-एक बेलन और दरवाजों की आहट याद रखना,सबकी रूचि-अरूचि और फरमाइशों के इशारों पर अपनी ताल और अपनी लय को मिलाए रखना और चावल-दाल की जलती पतीलियों को बर्नर पर से उतारते हुए भी अपनी अंगुलियों को जलने से बचाए रखने का हुनर . . .और ‘नखरे करके’ आदमी को पागल कर देने का कौशल . . .
मैं पहले जैसी नहीं रही। हां,नहीं रह गई। पहले जैसा मुझमें अब है क्या? जब मेरा अपना आप ही नहीं रह गया,तब पहले जैसा और क्या रहता? ये मेरे पति हैं इसलिए मेरी पहचान इनकी पत्नी की है। इनके बच्चे की मां हूं इसलिए बेटू की मां कहलाती हूं। और इन्हीं रिश्तों और संबोधनों के कारण स्वामिनी हूं इस घर की।
मगर इस सारे कुछ में मैं कहां हूं? हां मैं हूं,हर जगह हूं। उपलब्धियों की इनकी बड़बोली अट्टालिकाओं की नींव में झांकिए और मुझे निर्जीव पत्थर की शक्ल में देखिए, या अगर वहां नजर न आऊं तो घर-परिवार के इस महावृक्ष की जड़ों में खाद की तरह सड़ती हुई देखिए . . .
ये भला कब जान पाएंगे कि अपना सितार सीखना जारी रख पाती और एक दिन किसी खचाखच भरे हाॅल में मंच पर बैठी तालियां समेटती-तो वह मैं होती। ये भला क्यों जानना चाहेंगे कि किसी आर्ट गैलरी में अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में दरवाजे पर खड़ी सबका स्वागत करती-तो हाथ जोड़े वह मैं होती। ये तो अब भूल भी चुके होंगे कि अगर, शादी के बाद नौकरी और परिवार चलाना मुश्किल होगा, कहकर नौकरी न छुड़वा दी गई होती- तो आज स्कूल के एक अलग कमरे में प्रिंसिपल बनकर जो बैठी होती-वह मैं होती . . .
‘ आज मन कैसा है ?’ कुछ दिनों की चुप्पी के बाद ये लगातार तीसरी रात है,जब मुझसे सहलाती-सी आवाज में पूछा जा रहा है।
अब ये सवाल मुझे अपने सामने अश्लील रूप में खड़ा दिखाई देता है। जैसे मुझे चिढ़ाते हुए,मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा जा रहा है कि,तुम्हारी यही तो शर्त है न कि शरीर से पहले तुम्हारे मन के बारे में भी पूछ लिया जाए। तो लो बाबा,अब तो तुम्हारे मन के बारे में भी पूछ लिया, अब तो खुश?
एकाएक मेरे अंदर कोई तड़पकर उठ बैठी। उसी ने चुपके से मेरा हाथ दबाकर कुछ भी बोल देने से मुझे रोका कि ‘मन’ को लेकर किए गए इस क्रूर और भद्दे मजाक जैसे इनके सवाल के जवाब में कोई जलती हुई बात सोचने के लिए ‘क्या’ पूछ कर जरा-सी मोहलत ले लूं।    


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 नवनीत मिश्र मो0 94 500000 94
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प्रतिक्रियाएँ
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: इसे कहते हैं कहानी। नवनीत मिश्र की लेखनी का मैं तब कायल हुआ था जब लगभग 30 वर्षों पूर्व 'सारिका' में उनकी अखिल भारतीय प्रथम पुरस्कार प्राप्त कहानी पढ़ी थी। नाम याद नहीं आ रहा लेकिन वह कहानी एक रंगकर्मी पर एकाग्र थी। इस कहानी में स्त्री के देह-विमर्श को इतने कलात्मक और महीन रेशों से बुना गया है कि अचम्भा होता है कि क्या पुरुष कथाकार भी ऐसी कहानी लिख सकता है ? वाह ! निःशब्द कर देने वाली कथा। हेड्स ऑफ़ राजेश द एडमिन।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: स्त्री देह के साथ स्त्री मन की परत दर परत खोलती कहानी। सेक्स भी रूटीन की तरह पुरुष  के तन की जरुरत होती है और स्त्री अपनी उम्र के साथ सभी रिश्तों को जीना चाहती है सिर्फ नारी देह तक सीमित नहीं होना चाहती।उसे एक उम्र में ये सब बेकार की बातें लगने लगती है और शायद पुरुष का भटकाव भी यहीं से शुरू होता  है।ज्यादातर घरों की यही कहानी है।
पुरुष होकर स्त्री मन को बखूबी जानना और उस पर लिखना आसान नहीं है लेकिन नवनीत जी ने इतनी बारीकी से वर्णन किया है कि मैं हतप्रभ हूँ।
और क्या लिखूं सूझ नहीं रहा।शब्द नहीं प्रशंसा के मेरे पास।
बेहतरीन कहानी नवनीत जी की।
बहुत बहुत बधाई।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: अर्चना जी स्त्री को एक उम्र  में बेकार की बातें लगने लगती है ,क्यों ।
वेसे इसका वैज्ञानिक आधार भी है ।लेकिन  यह कहानी पत्नी मन को पति के द्वारा समझने भर की सोच पर आधारित है ।
एक पत्नी माँ बन कर भी तृप्त हो जाती है ,यह बात इस कहानी में बहुत ही सौंदर्यतापूर्वक  से लिखी गई है ।लेकिन पति सिर्फ एक अतृप्त इच्छा को ही जीता आया है सदा ।
और अतृप्ति सदैव कुंठा को जन्म देती है ,जिससे वो अपनी भूख से इतर सोचने समझने में  असमर्थ रहता है ।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: ओह पच्चीस साल का एक एक पल इतनी बारीकी से गुंथा गया है हर पल सजीव हो गया ।आभार एक खूबसूरत कहानी  पढ़वाने के लिये।

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: स्त्री की देह की परतों में उलझा रहने वाला पुरुष कभी समझ ही नहीं पाता है कि औरत कब अपने महत्तम अर्थों अर्थात माँ होने के अहसास में डूब उतरा रही है। औरत के मन की इतनी गहराई में उतर कर पड़ताल कि कब वह प्रेयसि है और कब देह से ऊपर उठकर मन को पाकर सम्पूर्ण होना चाहती है। एक स्त्री भी अगर यह कहानी लिखती तब भी नारी मन का इतनी गहनता और ईमानदारी से विश्लेषण नहीं कर पाती। इतनी सच्चाई से शायद नहीं लिख पाती। नवनीत जी का हार्दिक आभार। 🙏🙏🙏🙏
मंच का भी बहुत बहुत धन्यवाद एक बहुत ही अच्छी और गहरी कहानी यहाँ देने के लिए। 🙏🙏🙏🙏😊😊

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: राजेश भाई.कहानी में यह खास बात होती है कि जब आप उसमें होते हो तो फिर कहीं और नहीं हो पाते.यह ऐसी ही कहानी है जिसमें से मैं अभी बाहर निकल सका और उस पर लिखते हुये प्रकारांतर से फिर उसी के अहाते में आ गया.
ये कहानी अब शायद ही पीछा छोड़े.दरअसल पति और पत्नी के बीच सैक्स का जो व्यवहार रहता है.वो या तो ऐसा होता है या कभी तो ऐसा होना चाहता है.पर पत्नी कब स्त्री की तरह सोच रही है.यह आवेग से ग्रस्त पति को पता न चल पाता है क्योंकि वो अपने विद्रूप पुरूष की गिरफ्त में जो होता है.

नवनीत जी ने मनोविग्यान का अचछा सहारा लिया.कई बार लगा कि कहानी को गरम रखना सायास तो नहीं.बेटू को केवल दृश्यांतर की तरह तो प्रयुक्त नहीं किया गया.फिर लगा कि कहानी में यह आवश्यक ही रहा.बहुत अच्छी योजना...बहुत अच्छा वाक्य संयोजन
और बहुत जरूरी साहस से बनी ये कहानी याद रह जायेगी.

नवनीत जी को बधाई और मंच के प्रशासकों का आभार.


ब्रज श्रीवास्तव.


विदिशा...म.प्र.

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: निरंजन जी पढ़ते हुए मैने भी यही सोचा था कोई पुरुष स्त्री मन की इतनी सूक्ष्म परतों को इतनी सहजता से शब्द दे वह कितने संवेदनशील हैं ।
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: सबसे बड़ी और चमत्कारिक बात यह लग रही है कि पुरुष लेखक ने स्त्री मन की इतनी महीन मनोदशा को चित्रित किया है जिसे वो जीती तो है लेकिन शायद  कह नही पाती ।
नवनीत जी ने तो उसके एक एक तार को उधेड़ कर रख दिया ,कमाल किया है । स्त्री मनोविज्ञान की कहानी है इसलिए ही नही ,बल्कि उनके लेखन की बुनावट की कायल होकर मेने इसे अभी तक की पढ़ी कहानियॉ में से श्रेष्ट कहानी की   श्रेणी में रख कर सहेज लिया है ।
ब्रज जी ने बहुत अच्छा लिखा ,आवेग ग्रस्त पति नही सोच पाता की पत्नी कब स्त्री की तरह सोच रही है ।
धन्यवाद ब्रज जी ।

निरंजन सर सहमत हूँ आपकी बात से ,वाकई अचंभित किया है इस कहानी ने ।देह से परे होकर स्त्री की सोच को शब्द शब्द पढ़ कर ।

पुनः प्रणाम नवनीत जी ,एक  उत्तम कहाँनी पढ़वाने के लिए ।

🙏
[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: दाम्पत्य के सभी दृश्यों को एक नारी के दृष्टिकोण और अनुभूत सत्य की तरह चित्रित किया है नवनीत जी ने ।
बहुत सुन्दर💥

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: लाजवाब कहानी ,अभी तो डूब गई हूँ ,निकल पाई तो कुछ लिख सकुंगी ।
नवनीत मिश्र जी को प्रणाम करती हूँ ।
थैंक्स राजेशजी ,बेहतरीन चयन के लिए

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: कल असफल जी की कहानी पढ़ी थी । दोनों कितने अलग अनुभव। दोनों आत्मीय। दोनों सच। एक में देह का स्पर्श दिव्या प्रेम की ओर ले जाता है सारी सीमॉओं के परे।  वही देह पर बलात् स्पर्श उसे घृणित और दयनीय बना देता है।
मन और तन - कितने पूरक हैं

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: राजेश जी बधाई आपको एक से बढ़कर एक कहानियों के लिए🙏नवनीत जी आज की कहानी जिस स्त्री मनोदशा को समझकर लिखी गई है ,विश्वास नही होता कि अनुभव कर नही लिखी गई  । स्त्री का प्रेम मन से शुरू होकर तन तक पहुचता है ,पर मूल मन ही होता है । इसे जो समझ जाए निश्चित ही सच्चा प्रेम उसे मिलता है ताउम्र। बहुत सुंदर कहानी के लिए बधाई ...

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: प्रेम पनपता भले ही देह की जमीन पर हो l पर परवान हमेशा मन की आकाश पर ही चढ़ता हैं l मन और देह के  द्वंद से दो चार होती हुई,बहुत ही बढ़िया कहानी l मिश्र जी  को बहुत बहुत बधाई l

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: कहानी पर इतनी सारी और अभिभूत करने वाली प्रतिक्रियाएं मिलेंगी सोचा नहीं था। कुछ कहना आत्मश्लाघा लग सकता है इसलिए कुछ कहना नहीं चाहता लेकिन एक बात साझा करने का मन है कि स्त्री बन कर सोचना एक नये तरह का अनुभव था।

मैं सभी के प्रति जिन्होंने कहानी पर अपनी राय व्यक्त की हृदय से आभार प्रकट करता हूं।
बहुत बल प्रदान करने वाली थी आप सबकी राय।
धन्यवाद।

नवनीत मिश्र

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: सच में प्रवेश जी ,बहुत अच्छी कहानी.नारी मन के रेशे रेश का बखूबी बयान करती इस कहानी के ले खक को मेरी बधाई.

[21/02 22:38] ‪+91 94500 00094‬: 00 आज आप सभी ने हमारे समय कूे महत्वपूर्ण रचनाकार आदरणीय नवनीत मिश्र की कहानी ‘ देह भर नहीं ‘ पढ़ा और अपनी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया से मंच को अवगत कराया। शुक्रिया मित्रो...

00 इसी के साथ मिश्रजी का विषेश आभार और शुक्रिया, जिन्होंने मंच के आग्रह पर इस कहानी को टाईप करा कर हमें भेजा। पहले यह कहानी हमें स्केन की हुई प्रति में प्राप्त हुई, जिसे मंच पर लगाना सम्भव नहीं था।

00 कल  तीन बजे जब यह कहानी टाईप होकर हमें मिली तो फौरन इसे यूनीकोड में बदलकर मंच पर लगाने का मोह  संवरण नहीं कर पाया।

00 देह की और देह से परे भी एक भाषा होती हैं लेकिन कितने पुरुष इसे पढ़ पाते हैं, समझ पाते हैं... जैसे सवालों से रूबरू कराती बेहतरीन कहानी के लिए लेखक को हार्दिक बधाई।
 लेखक ने अपने स्त्रैण पक्ष को कितनी मजबूती से थामा और संजोये रखा इसका पुख्ता प्रमाण है देह से परे भी।

पुनः सभी को धन्यवाद और शुभरात्रि ।

कल एक बेफ्रिक लड़की की प्रेम कहानी के साथ पुनः भेंट होगी।

राजेश झरपुरे

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