Friday, June 21, 2019


प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में मांडना कला का महत्वपूर्ण स्थान है |इसे चौसठ कलाओं में गिना जाता रहा है |होली, दिवाली ,नौदुर्गा उत्सव ,महाशिवरात्रि ,संझा पर्व और मांगलिक अवसर  पर इन्हें विशेषतौर पर  घर में मंगल चिन्हों के रूप में उकेरा जाता है |

मांडना भारत की बहुत ही प्राचीन परम्परा रही है |सिन्धु घाटी की प्राचीन सभ्यताओं ,मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में इसके चिन्ह पाए गए है |
आज  के अति आधुनिक युग में इस परम्परा को सहेजना अति महत्वपूर्ण कार्य है ,इसमें  अनीता सक्सेना ने महती भूमिका निभाई है |आप ने लोक कला मांडना पर पुस्तक लिखी और प्रत्येक अवसर पर सजाये गए मांडनो के बारे में विस्तृत जानकारी भी दी है |लोक कला प्रेमियों को निश्चय ही यह पुस्तक लाभान्वित करेगी 







माँडणा मालवा की एक लोक कला 

समीक्षा - मधु सक्सेना

 
मधु सक्सेना 

आस्था और विश्वास मनुष्य की शक्ति है । जन्म से ही व्यक्ति इसी के सहारे अपना विकास करता है । सामाजिक प्राणी होने के कारण सम्प्रेषणीयता के साधन खोजता रहा । शुरुआत में गुफाओं की दीवार पर चिन्ह बनाये । विकास की अवस्थाऔर आवश्यकता को भी कलात्मक रूप दे देती है ।कल्पना शक्ति ।मनुष्य की कोमलता ने प्रकृति से सीखा रेखाओं और रंगों का संयोजन और निर्मित किये ज़मीन पर ,दीवार पर । अपने सुलभ साधनों से नए तरीके निकाले ।चित्र बनाये ।उन्हें सजाया सँवारा । जो लोककला के रूप में हमारे साथ है ।







जाने कितने बरसों के विकास की कहानी अपने में छुपाए हुए है ये चित्र जिन्हें हम माँडना कहते है । माँडणा स्त्रियाँ ही बनाती है । स्त्री ने सदा परिवार और समाज का सुख चाहा ,मंगल कामना की । यही मंगल कामना मांडणा के रूप में चित्रित होती है । जन्मजात कलाप्रेमी और कुशल सर्जक की भूमिका कुशलता से निभाती है स्त्रियाँ । उनके लिए माँडणा जीवन है ।जीवन जीने की कला है। सपनो की उड़ान है ।अदृश्य के प्रति आभार है ।
मंगल कामना है ।
अलग अलग क्षेत्र में माँडना बनाये जाते है सदियों से परम्परा के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी ये लोक कला हस्तांतरित होती रही । माँडने उनकी जीवन शैली, त्योहार और उत्सव के साक्षी होते है । ऐसे ही माँडनों को खोज निकाला है मालवा के अंचल से अनिता सक्सेना ने। माँडनों को संकलित कर उनपर शोध किया और ये पुस्तक तैयार की जिसका नाम है -
'
माँडणा मालवा की लोककला '

भारत के हृदय स्थल मालवा के बारे में राजबल्लभ ने भोज चरित (1/3 ) लिखा है -
"
भारत देश मध्यस्थो मालव संज्ञकः
अनेकनगरग्रामपत्तनै: प्रविराजित : "

जनकवि कबीर की वाणी भी आज तक फलीभूत है -
"
देश मालवा गहन गभीर , डग डग रोटी पग पग नीर"





तेरह अध्याय में मालवा के परिचय से लेकर माँडणा के हर पहलू को दर्शाया है लेखिका ने ।ये एक शोध ग्रन्थ है । माँडना के इतिहास और अर्थ खोजने अनिता जी अनेक जगह घूमी । इस इस कला को समझने के लिए मालवा के गुफा चित्र ,नदियां , वनस्पति , वनौषधि , रहन सहन ,फसल ,त्योहार आदि को जानना जरूरी था ।लेखिका ने मालवा के कई स्थानों का भ्रमण किया । वहाँ माँडणा के बारे में कलाकरों से बातचीत की ।इस अंचल की महिलाओं ने इस कला के बारे में बताया ।लेखिका ने मांडनों के चित्र , रंग संयोजन ,उनके अर्थ और उपयोगिता पर शोध किया ।


कई गांवों में जाकर बात करना .. बातों को संकलित कर उन कड़ियों को मिलाना, माँडनों में बनाई आकृतियों के नाम और उनसे सम्बंधित समय और स्थान की पड़ताल करना ,विश्लेषण करना ,इतिहास और मिथक को जोड़ना आदि काम आसान नही थे पर लेखिका ने अथक परिश्रम कर ये कर दिखाया और किताब तैयार की । युवा और बुजुर्ग महिलाओं के स्मृतियों के द्वार खटखटाते हुए कई कटु अनुभवों से भी वास्ता पड़ा होगा पर लेखिका ने इस लोककला को सहेजने, संकलित करने ,समझने और बचाने के दृढ़ संकल्प ने हर बाधा को सरल बना दिया।

प्रस्तुत पुस्तक में मालवा की माटी से जुड़ी 'माँडणा लोककला' पर विस्तार से शोधपरक जानकारी समाहित की गई है ।इस कला में 'सर्वमंगल मांगल्ये' का भाव सजोंये हमारी संस्कृति और सभ्यता के मूल तत्व है । माँडना की इन आकृतियों में जहां एक तरफ अद्भुत ज्यामितीय गणित का समावेश है तो साथ ही नक्षत्रों के प्रतीक चिन्ह सूरज चाँद , पर्यावरण का संदेश देते तुलसी ,बड़ पीपल,आंवला,नीम आदि का चित्रण है ।पशु- पक्षियों का चित्रण मावन से उनकी मित्रता के प्रतीक है । सांस्कृतिक प्रतीक चिन्ह स्वस्तिक , शंख ,कलश, वस्त्र ,अलंकार
आदि का चित्रण हमारी धरोहर है । पौराणिक कहानियां, उनके पात्र और दैनिक जीवन के कार्यकलापों का चित्रण मानव की सजगता और सहजता के प्रतीक है ।










पुस्तक का हर अध्याय अपने आप मे सार्थकता और पूर्णता लिए हुए है और अन्य अध्याय का दिशा निर्देश भी । पहला अध्याय 'महि महति मालवा देस ' के नाम से है जिसमे मालवा के बारे में हुआ लेखन , जिलों की जानकारी, वहां का सौंदय , भित्ति चित्र , रंगों के उपयोग , उपजाऊ मिट्टी , आदि का महत्व और जानकारी है । प्रागैतिहासिक काल के सघन गुफा चित्रों से आज तक के माँडणा तक, इस चित्रकला ने जनमानस को आकर्षित किया , अपना प्रभाव बनाये रखा और लोककला का रूप लिया ।

दूसरे अध्याय में नदियां, वनौषधि फसल और भौगोलिक स्थिति की जानकारी है। पारंपरिक जनश्रुति के अनुसार मालवा की सीमा इस प्रकाए बताती है -
'
इत चंबल उत बेतवा मालवसीम सुजान
दक्षिण दिस है नर्मदा ,यह पूरी पहचान '
इसी तरह तीसरा अध्याय त्योहारों और वृक्षों का महत्व और उनका माँडणा में चित्रण मनुष्य का प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान दर्शाता है । पशु पक्षियों का चित्रण में शामिल होना उनका आपसी तालमेल और सहयोग की कहानी कहता है।

तीसरे अध्याय में सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार बालकवि बैरागी की माँडणा पर एक रोचक लोककथा है ।

इसी तरह अन्य अध्यायों में माँडनों का वर्गीकरण उनके विषय ,समय और आकृति के अनुसार किया गया है । ,त्योहारों पर बनने वाले माँडनों में सम्बंधित कथाओं और उनके पात्रों को उकेरा जाता है । भूमि चित्र और भित्ति चित्र के सिवाय भी पट चित्र और देह चित्र भी बनाये जाते है ।देह चित्र में मेहंदी ,महावर गोदना आदि का वर्णन है । दीवार और ज़मीन पर बनाये जाने वाले माँडनों के तरीकों का विस्तृत वर्णन सहज भाषा मे किया गया ।





मुख्यतः भूमि चित्र और भित्ति चित्र दो तरह के माँडनों को बनाया जाता है । इनमें भी त्योहार ,विवाह उत्सव ,पर्व आदि पर अलग अलग तरीके और रंगों से माँडने बनाये जाते है । हर त्योहार, पूजा, व्रत आदि पर उनसे जुड़ी कथाओं के अनुसार मांडनों को उकेरा जाता है । मंगल कामना , आशा , उल्लास, विश्वास ,सहयोग, भाईचारा आदि मानवीय संवेदनाओं के वाहक है ये मांडने ।

ज़मीन पर माँडणे गोबर से लीपकर छुई मिट्टी ,गेरू , आदि से बनाये जाते है ।इसी तरह दीवारों को पोतकर तरह -तरह की आकृति बना कर सुंदर भी बनाया जाता है । इनमें प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है । पिसे चावल , गेरू ,हल्दी ,गोबर आदि से रंगों को बनाया जाता है । कपड़ा , रुई , बाल या ब्रश की सहायता से या अंगुलियों की पोरों से माँडने बनाये जाते है ।

कला हमेशा समिष्टि को अपने मे समेट कर अभिव्यक्त करने की क्रिया है । कला आत्मिक आनन्द भी देती है ।प्रकृति और मनुष्य के आत्मिक मिलन का प्रतीक भी है। ज्ञान का खजाना है । आपसी सद्भाव और प्रेम का संवाहक है जो पीढ़ी दर पीढ़ी सहजता से हस्तांतरित होता रहता है । लिंग ,आयु ,जाति, रंग आदि का भेदभाव नही करती कोई भी कला ।मांडणा भी इन्ही विशेषताओं और विशिष्टताओं को अपने मे समेटे है ।
लगभग एक सो पचास छोटे बड़े मांडनों से सजी ये किताब जिनमे कुछ में कुछ रंगीन भी है आकर्षक लगते हैं ।
हर मांडने का विवरण और बनाने के तरीके लिखे हुए है ।










1976
में मालवा से परिचित लेखिका ने जिस विश्वास और हौसले से वहां की कला और संस्कृति के प्रतीक मांडनों को आत्मसात किया , उसे सहेजा वोअत्यंत प्रशंसनीय कार्य है ।
परिवर्तन के इस समय में कई कारणों से लुप्त होती इस कला को बचाये रखने में अनिता जी ने ये दुष्कर कार्य किया और ये पुस्तक तैयार की है जो वर्तमान और भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगी ।शोध कर रहे विद्यार्थियों , कलाविदों और संस्कृति से विषयो पर अध्ययन से जुड़े लोगो के लिए मददगार होगी ।

पुस्तक का कलेवर ,छपाई ,कागज़ , भाषा और भाव ,रोचकता आदि सभी मिलकर 'माँडणा मालवा की लोककला ' पुस्तक को पठनीय बनाते है ।पाठक इसके साथ चल पड़ता है और इस कला के प्रति उसके मन मे असीमित प्रेम और सम्मान जाग जाता है ।यही लेखिका की सफलता है ।
लोक कला का क्षेत्र असीमित होता है कई रहस्य आज भी अनबूझे रहे होगें ।अनिता जी सतत खोज में लगी है आगे भी इस विषय पर महत्वपूर्ण काम होगा । अनिता जी की लेखन यात्रा सतत चलती रहे इसी मंगल कामना से अपनी बात यहीं समाप्त करती हूँ ।


 अनीता सक्सेना 



संकलन और लेखन -अनीता सक्सेना
प्रकाशन - बुकवेल एवं इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय ,भोपाल
ISBN : 987-93-86578-01-3
मूल्य - रुपये 1650 .00मात्र
 


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