Friday, August 5, 2016



किशोर कुमार का जन्म 4 अगस्त 1929 को मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में वहाँ के जाने माने वकील कुंजीलाल के यहाँ हुआ था। किशोर कुमार का असली नाम आभास कुमार गांगुली था। किशोर कुमार अपने भाई बहनों में दूसरे नम्बर पर थे। उन्होंने अपने जीवन के हर क्षण में खंडवा को याद किया, वे जब भी किसी सार्वजनिक मंच पर या किसी समारोह में अपना कर्यक्रम प्रस्तुत करते थे, शान से कहते थे किशोर कुमार खंडवे वाले, अपनी जन्म भूमि और मातृभूमि के प्रति ऐसा ज़ज़्बा बहुत कम लोगों में दिखाई देता है।

शिक्षा

किशोर कुमार इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़े थे और उनकी आदत थी कॉलेज की कैंटीन से उधार लेकर खुद भी खाना और दोस्तों को भी खिलाना। वह ऐसा समय था जब 10-20 पैसे की उधारी भी बहुत मायने रखती थी। किशोर कुमार पर जब कैंटीन वाले के पाँच रुपया बारह आना उधार हो गए और कैंटीन का मालिक जब उनको अपने एक रुपया बारह आना चुकाने को कहता तो वे कैंटीन में बैठकर ही टेबल पर गिलास और चम्मच बजा बजाकर पाँच रुपया बारह आना गा-गाकर कई धुन निकालते थे और कैंटीन वाले की बात अनसुनी कर देते थे। बाद में उन्होंने अपने एक गीत में इस पाँच रुपया बारह आना का बहुत ही खूबसूरती से इस्तेमाल किया। शायद बहुत कम लोगों को पाँच रुपया बारह आना वाले गीत की यह असली कहानी मालूम होगी।


किशोर दा  के मस्त मौला  अभिनय और गायन के अंदाज़ से भला कौन  वाकिफ़ नहीं है |रूप तेरा मस्ताना ......,पाचँ रुपैया बारह आना .....जैसे गीत जब भी कभी कानों में रस घोलते है किशोर कुमार की अलमस्त अदा आँखों से चिरौरी करने लग जाती है |क्या आज भी किशोर दा की रूह उसी मस्ती और पुरसुकूं को महसूस करती है ??  यह महसूस करने के लिए पढ़ते है 
4  अगस्त २०१६ को उनके जन्म दिन पर खंडवा के ही किशोर दा के प्रशंसक  श्री संतोष तिवारी  का लिखा एक व्यंग ...





व्यंग (संतोष तिवारी )

अल सुबह 5 बजे डोर बैल बजी। उनींदा डगमगाते कदमो से नीचे पहुँच के दरवाज़ा खोला तो सामने किशोर दा एक पैर पर थोड़ा झुके हुए और  चेहरे पर वही मुस्कान। ताज़े गुलाब की तरह तरोताज़ा।  दरवाज़ा खोलते ही उछल कर बोले- बांगड़ू हमारा बर्थडे विश नही करेगा। मैं आधा जागा आधा सोया अलसाया सा बोला - हैप्पी बर्थडे दादा। पर आप तो ..... ? मेरी बात को बीच में ही लपकते हुए दादा बोले - दुनियां में नही रहा यही ना? ऊपर वाले को दो घण्टे  बैठा कर गाने सुनाये तब जा कर आज आने की मोहलत मिली।  पर  सिर्फ आज भर की। क्या है कि अपनी उधर भी बहुत डिमांड है।  पीठ घुमा कर अंदर आते हुए मैंने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उनसे कहा- बैठिये। पर दादा तो मस्ती के मूड में थे । आँखें घुमाते हुए बोले- एक दिन तो मिला है उसको भी बैठने में बर्बाद कर दूँ क्या बांगड़ू। चल  दूध जलेबी खाएंगे और आज के दिन तो बस खंडवे के हो जायेंगे। 
"दादा फ्रेश तो हो जाऊं? "
"ठीक है पर जल्दी करले मेरे लड्डू गोपाल।"
हाज़त से फारिग होते होते राशोकि रमाकु ने घर भर में वो धमाचौकड़ी की कि श्रीमती जी ने आँखों आँखों में मुझे उन्हें जल्दी ले जाने का फरमान सुना डाला। बासे मुंह निकल पड़े मैं और दादा। मेरी खुमारी अभी तक उतरी नही थी। चाल थोड़ी मद्धम थी। दादा कूदते फांदते आगे आगे चले जा रहे थे। एक तो उनका उत्साह और दूसरे वक़्त की कमी। वो एक पल भी बर्बाद करने को राज़ी नही थे। बातें करते करते गौरी कुञ्ज आ गए। किशोर कुमार की माता गौरी देवी और पिता कुञ्जी लाल की याद में बना ऑडिटोरियम। आसपास झाड़ झंखाड़ और गंदगी का पसारा, भवन पर जगह जगह काई को देखते देखते दादा की चाल थोडी कम पड़ गयी। हॉल में दाखिल होते ही दर्शकों के एंगल से स्टेज निहारने के लिए जैसे ही सामने की एक कुर्सी पर बैठने को उद्यत हुए मैंने चिल्ला कर उनका हाथ थाम लिया-दादा दादा ज़रा बच के , कुर्सी टूटी हुई है। सहमे से वो मेरी और देखने लगे। उत्साह का एक हिस्सा दरक गया था और मायूसी का प्रश्नवाचक उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। धीरे से एक बच्चे जैसे उन्होंने अपनी  एक ऊँगली उठा कर लघुशंका जाने की फरियाद की। मैंने उन्हें हाल के बाजू से लगा कक्ष दिखा दिया। निपटने के बाद दादा ने आवाज़ दी - बांगड़ू पानी मिलेगा। मैंने कहा - दादा पानी का इंतज़ाम तो आयोजक ही करते हैं। दादा बोले - चल मेरे प्यारे! ज़रा ग्रीन रूम तो दिखा। मैंने कहा- चलिये आगे। दादा बोले -यहीं बाथरूम के अंदर से ??  थोड़ी सी शर्म अब मुझे भी आने लगी थी। धीरे से जवाब दिया - हां। ग्रीन रूम में जाकर दादा का चेहरा और उतर गया जब उन्होंने पाया कि जिसे ग्रीन रूम कह के मैं दिखला रहा हूँ वहां ड्रेसिंग टेबल तो छोड़िए एक अदद आईना तक नही है। दादा ने तंज़ कसा बड़ा अच्छा ऑडिटोरियम है। ज़रा गा कर तो देखूं। देखें तुम्हारा साउंड सिस्टम कैसा है। मैंने गर्दन छुपा लेने वाले अंदाज़ में कहा - दादा साउंड का इंतज़ाम भी आयोजक ही करते हैं। ऑडिटोरियम का अपना साउंड सिस्टम तो धूल फांक रहा है। प्रत्येक रहस्य से पर्दा उठाने के साथ मैं  किशोर दा की मस्ती और उत्साह में गिरावट दर्ज कर रहा था। "रख रखाव नही होता यहाँ?" दादा ने पूछा। 
" होता होगा दादा। मतलब चार्ज तो इसी का लिया जाता है।" 
" कितना चार्ज?"
" बारह हज़ार ।"
"छूट या रियायत नही मिलती।"
"दादा सरकारी कार्यक्रम या सरकार का कार्यक्रम हो तो मुफ्त भी मिल जाता है ऐसा सुना है मैंने। पर कलाकारों को तो....।" 
" समझ गया समझ गया।"
किशोर दा के चेहरे का वो बचपना जिसे सुबह दरवाज़ा खोलते वक़्त मैंने देखा था गायब सा हो रहा था और गम्भीरता आने लगी थी। वैसी ही जैसे किसी सैड सांग को गाते वक़्त आ जाया करती थी।
" लगता है सब भूल गए मुझे।" उन्होंने निराश स्वरों में कहा।
"नही दादा। हम सब आपको याद करते हैं। आपका नाम ले ले कर इतराया करते हैं। मंच से प्रेरणा देने का काम तो हर साल बिला नागा करते हैं।"
किशोर दा के चेहरे पर मुस्कान खिली। पूछ बैठे -अच्छा तो इस बार किस खंडवा वाले को प्रेरणा मिली है। मैंने कहा - दादा खण्डवा शहर से तो कोई नही है। हाँ आसपास के अंचलों और ज़िलों से ज़रूर लोगों के नाम आगे आये हैं। वो प्रश्न भरी निगाह से मुझे देखने लगे। 
हम गौरी कुञ्ज से बाहर निकले और शहर से होते हुए समाधि तक जाने लगे। रस्ते में उन्होंने खुद के घर की दशा देखी। मायूसी का अंधकार घना हो गया था। मैं अंदर चलने को कहता इसके पहले ही उन्होंने इशारे से मना कर दिया। रास्ते भर जाने किस किस को याद करते रहे अपनी बातों में।  कइयों के तो मैं नाम भी नही जानता। 
समाधि पर जाकर तो जैसे वो टूट से गये।  आँख की पोरों में मैंने कुछ नमी महसूस की। किशोर दा गुनगुना उठे- रहने दो छोडो जाने दो यार हम ना करेंगे प्यार। चलते चलते समाधि पर लगे दूध जलेबी के भोग में से अनमने तरीके से जलेबी का एक हिस्सा मुंह में डाला और धीरे धीरे उसी समाधि में जैसे  विलीन हो गए। 
मैं उन्हें इस तरह गायब होते देख ज़ोर से चिल्लाया-  दादा। 
अचानक झकझोरते हुए पत्नी ने जगाया। उठ जाओ सूरज सिर पर आ गया है। ओ तेरी की ये तो सपना था। सपने में महसूस हुई शर्म को मैं भूल गया जैसे हम खंडवे वाले भूल जाते हैं। और दादा के जन्मदिन के कार्यक्रमों को रिकॉल करने लगा। समाधि पर दूध जलेबी का भोग, फिर वहीँ ऑर्केस्ट्रा पर बड़े बड़े अधिकारियों की मान मनौव्वल कर एक दो लाइने गवाना, फिर जगह जगह किशोर दा की तस्वीरों पर  माल्यार्पण। शाम को प्रेरणाओं को पुरस्कार ऑर्केस्ट्रा की धमाचौकड़ी। और फिर बस।

टीवी पर गाना चल रहा था- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।
ओ माँ किशोर दा का सपना पर मैं सपने को सपने में भी याद नही करना चाहता था। तैयार होते समय आईने के सामने खड़ा मैं गुनगुना रहा था- 
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नही।

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परिचय 

संतोष तिवारी
#जन्म- 14 दिसम्बर 1966
#मुख्य विधा- कविता /ग़ज़ल
#अन्य विधाओं में भी कार्य

#कवि सम्मेलनों और अखिल भारतीय स्तर के मुशायरो में शिर्कत
#लगभग 200 सुप्रभात संदेशो की श्रृंखला का लेखन जिसमे जीवन जीने की कला और मानवीय संबंधों पर नए दृष्टिकोण से विश्लेषण किया है।
# सांध्य दैनिक अग्निबाण में  मन्तर नाम से कॉलम का प्रकाशन जिसमे सत्यार्थ के छद्म नाम से लेखन।
#स्थानीय समाचार पत्रों में कवितायेँ ग़ज़लें प्रकाशित
# इ टीवी उर्दू द्वारा प्रसारित ग़ज़ल के एक कार्यक्रम में ग़ज़ल पाठ
# आकाशवाणी खण्डवा एवं इंदौर से कवितायेँ एवं वार्ताएं प्रसारित
# कुछ अप्रकाशित व्यंग्य जिनमे से प्रस्तुत भी एक है।

# अखिल भारतीय साहित्य परिषद की जिला इकाई का सचिव
साहित्य की बात  'व्हाट्स अप समूह पर प्रस्तुत हुई आज मुकेश कुमार सिन्हा की कवितायें | जिसके मुख्य एडमिन है ब्रज श्रीवास्तव 
यह कवितायें आम आदमी की भाषा से गुजरती है |अपनी ही विशेष शैली में लिखी गई कविताओं की आधार भूमि कभी रेखागणित के समकोण त्रिभुज होते है तो कभी  रिश्तों की बायोलोजिकल कैमिस्ट्री ...कभी कभी ये डस्टबिन से भी कविता का उद्गम  कर लेते है तो कभी  मनीप्लांट की बेल में भी जीवन की जिजीविषा तलाश  कर कविता रच लेते है  |सामान्य से दिखने वाले प्रतिक इनकी कविताओं को असामान्य  अर्थ प्रदान करते है |जीवन की तमाम  उलझनों  से गुजरते हुए भी इनकी  कविताई द्रष्टि प्रेम की उस संरचना को पहचान लेती  है जहाँ प्रेम कविता की सुवास पाठक को ठहरने पर मजबूर कर देती है |ठीक उसी प्रकार जेसे कंटीली झाड़ियो में सुगन्धित गुलाब  पथिक की द्रष्टि को बाँध लेता है .....
.रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है कुछ कविताये और साथ ही पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियाएं .....

परिचय 

नाम :  मुकेश कुमार सिन्हा
जन्म : 4 सितम्बर 1971 (बेगुसराय, बिहार)
शिक्षा : बी.एस.सी. (गणित) (बैद्यनाथधाम, झारखण्ड)
इ-मेल: mukeshsaheb@gmail.com
ब्लॉग: "जिंदगी की राहें" (http://jindagikeerahen.blogspot.in/ )
      ( 2014-15 के सौ श्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग में शामिल )
      “मन के पंख” (http://mankepankh.blogspot.in/ )
फेसबुक पेज: मुकेश कुमार सिन्हा (https://www.facebook.com/mukeshjindagikeerahen)
ट्विटर हैंडल : https://twitter.com/Tweetmukesh
मोबाइल: +91-9971379996
निवास: लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली 110023
वर्तमान: सम्प्रति कृषि राज्य मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली के साथ सम्बद्ध I
संग्रह : “हमिंग बर्ड” कविता संग्रह (सभी ई-स्टोर पर उपलब्ध) (बेस्ट सेलर)
सह- संपादन: "कस्तूरी", "पगडंडियाँ", “गुलमोहर”, “तुहिन” एवं “गूँज”  (साझा कविता संग्रह)
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह:

1.अनमोल संचयन, 2.अनुगूँज, 3.खामोश, ख़ामोशी और हम, 4.प्रतिभाओं की कमी नहीं (अवलोकन 2011), 5.शब्दों के अरण्य में , 6.अरुणिमा, 7.शब्दो की चहलकदमी, 8.पुष्प पांखुड़ी
  9. मुट्ठी भर अक्षर (साझा लघु कथा संग्रह), 10. काव्या
सम्मान: 1. तस्लीम परिकल्पना ब्लोगोत्सव (अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन) द्वारा वर्ष 2011 के
    लिए सर्वश्रेष्ठ युवा कवि का पुरुस्कार.
2. शोभना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा वर्ष 2012 के लिए "शोभना काव्य सृजन सम्मान"
3. परिकल्पना (अंतर्राष्ट्रीय ब्लोगर्स एसोसिएशन) द्वारा ‘ब्लॉग गौरव युवा सम्मान’ वर्ष
   2013  के लिए
4. विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ से हिंदी सेवा के लिए ‘विद्या वाचस्पति’ 2014 में
5. दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल 2015 में ‘पोएट ऑफ़ द इयर’ का अवार्ड
6. प्रतिमा रक्षा सम्मान समिति, करनाल द्वारा ‘शेर-ए-भारत’ अवार्ड मार्च, 2016 में

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🔯पिता

पिता का बेटे के साथ संबंध
होता है सिर्फ बायोलोजिकल -
खून का रिश्ता तो होता है सिर्फ माँ के साथ
समझाया था डॉक्टर ने
जब पापा थे किडनी डोनर
और डोनर के सारे टेस्ट से
गुजर रहे थे पापा
"अपने मंझले बेटे के लिए"

जितना हमने पापा को पहचाना
वो कोई बलशाली या शक्तिशाली तो
कत्तई नहीं थे
पर किडनी डोनेट करते वक़्त
पूरी प्रक्रिया के दौरान
कभी नहीं दिखी उनके चेहरे पे शिक़न
शायद बेटे के जाने का डर
भारी पड़ रहा था स्वयं की जान पर

पापा नहीं रहे मेरे आयडल कभी
आखिर कोई आयडल चेन स्मोकर तो हो नहीं सकता
और मुझे उनकी इस आदत से
रही बराबर चिढ !
पर उनका सिगरेट पीने का स्टाइल
और धुएं का छल्ला बनाना लगता गजब
आखिर पापा स्टायलिस्ट जो थे !
फिर एक चेन स्मोकर ने
अपने बेटे की जिंदगी के लिए
छोड़ दी सिगरेट, ये मन में कहीं संजो लिया था मैंने !

पापा के आँखों में आंसू भी देखे मैंने
कई बार, पर
जो यादगार है, वो ये कि
जब वो मुझे पहलीबार
दिल्ली भेजने के लिए
पटना तक आये छोड़ने, तो
ट्रेन का चलना और उनके आंसू का टपकना
दोनों एकसाथ, कुछ हुआ ऐसा
जैसे उन्होंने सोचा, मुझे पता तक नहीं और
मैंने भी एक पल फिर से किया अनदेखा !
ये बात थी दीगर कि वो ट्रेन मेरे शहर से ही आती थी
लेकिन कुछ स्टेशन आगे आ कर
छोड़ने पहुंचे. किया 'सी ऑफ' !

पाप की बुढ़ाती आँखों में
इनदिनों रहता है खालीपन
कुछ उम्मीदें, कुछ कसक
पर शायद मैं उन नजरों से बचता हूँ
कभी कभी सोच कहती है मैं भी अच्छा बेटा कहलाऊं
लेकिन
'अच्छा पापा' कहलाने की मेरी सनक
'अच्छे बेटे' पर,पड़ जाती है भारी

स्मृतियों में नहीं कुछ ऐसा कि
कह सकूँ, पापा हैं मेरे लिए सब कुछ
पर ढेरों ऐसे झिलमिलाते पल
छमक छमक कर सामने तैरते नजर आते हैं
ताकि
कह सकूँ, पापा के लिए बहुत बार मैं था 'सब कुछ'
पर अन्दर है गुस्सा कि
'बहुतों बार' तो कह सकता हूँ,
पर हर समय या 'हर बार' क्यों नहीं ?

रही मुझमे चाहत कि
मैं पापा के लिए
हर समय रहूँ "सब कुछ"
आखिर उम्मीदें ही तो जान मारती है न !!


🔯पाइथोगोरस प्रमेय 

सुनो
पाइथोगोरस प्रमेय के
तहत
क्या प्रेम भरा रिश्ता
हो सकता है सिद्ध?

किसी ने बताया
गणित में कुछ भी सिद्ध करने से पहले
"मान लिया"
शब्द का करते हैं प्रयोग

तो सुनो
मान लो तुम हो समकोण त्रिभुज की
सबसे छोटी भुजा
तो भी हो अकड़ी,
चुप चाप खड़ी

और चलो मैंने माना
स्वयं को
सबसे बड़ी भुजा,
यानी कर्ण या विकर्ण
आखिर हूँ न बलिष्ठऔर वरिष्ठ

पर फिर भी मेरा पूर्णतया झुकाव
न्यूनकोनिक सा
है तुम्हारे प्रति !

दोनों के आधार के बीच की दूरी
यानी
प्रेम व आकर्षण का परिमाण
है लम्बाई में इतना
ताकि
संभव हो मिलन
पूर्णतया
ऐसे कह लो
अधरों का मिलन है संभव

यानी
पाइथोगोरस का प्रेम सिद्धांत
कहेगा
तुम्हरे प्रेम का परिमाण
व हम दोनों के बीच के
आकर्षण का परिमाण
का वर्गफल
है मेरे प्रेम के बराबर
खालिस प्यार

समझी न
ख़ाक समझोगी
पहले पहाड़ा पढो
दो का
दो मने
मैं और तुम...........!

दो दुनी चार का मतलब मत निकाल लेना
बेवकूफ !


🔯. राखी 

ईमेल एसएमएस की दुनिया में
डाकिये ने पकड़ाया लिफाफा
22 रुपए के स्टेम्प से सुसज्जित
भेजा गया था रजिस्टर्ड पोस्ट
पते के जगह, जैसे ही दिखी
वही पुरानी घिसी पिटी लिखावट
जग गए, एक दम से एहसास
सामने आ गए, सहेजे हुए दृश्य
वो झगड़ा, बकबक, मारपीट
सब साथ ही दिखा,
प्यार के छौंक से सना वो
मनभावन, अलबेला चेहरा
उसकी वो छोटी सी चोटी,
उसमे लगा काला क्लिप जो होती थी,
मेरे हाथों कभी
एक दम से आ गया सामने
उसकी फ्रॉक, उसका सैंडल
ढाई सौ ग्राम पाउडर से पूता चेहरा
खूबसूरत दिखने की ललक
एक सुरीली पंक्ति भी कानों में गूंजी
“भैया! खूबसूरत हूँ न मैं??”

हाँ! समझ गया था,
लिफाफा में था
मेरे नकचढ़ी बहना का भेजा हुआ
रेशमी धागे का बंधन
था साथ में, रोली व चन्दन
थी चिट्ठी.....
था जिसमे निवेदन
“भैया! भाभी से ही बँधवा लेना !
मिठाई भी मँगवा लेना !!”
हाँ! ये भी पता चल चुका था
आने वाला है रक्षा बंधन
आखिर भाई-बहन का प्यारा रिश्ता
दिख रहा था लिफाफे में ......
सिमटा हुआ...........!!!


🔯सुट्टे के अंतिम कश से पहले  सोचता  हूँ 

सुट्टे के अंतिम कश से पहले  सोचता  हूँ
कि क्या सोचूं ?
जी.एस.टी. के उपरान्त लगने वाले टैक्स पर करूँ बहस,
या, फिर सेवेंथ पे कमिशन से मिलने वाले एरियर का
लगाऊं लेखा जोखा
या, सरकारी आयल पूल अकाउंट से
पेट्रोल या गैस पर मिलने वाली सब्सिडी पर तरेरूं नजर
पर, दिमाग का फितूर कह उठता है
क्या पैसा ही जिंदगी है ?
या पैसा भगवान् नहीं है,
पर भगवान की तुलना में है ज्यादा अहम् !
और, अंततः, बस अपने भोजपुरी सिनेमा के रविकिशन को
करता हूँ, याद, और कह उठता हूँ
"जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा"

अब, अंतिम कश लेने के दौरान
चिंगारी पहुँचती है फ़िल्टर वाले रुई तक
भक्क से जल उठता है
तर्जनी और मध्यमा के मध्य का हिस्सा
और फिर बिना सोचे समझे कह उठता हूँ
भक्क साला .....
जबकि कईयों के फेसबुक स्टेटस से पा चुका हूँ ज्ञान
गाली देना पाप है
रहने दो, डेली पढ़ते हैं, डब्बे पर स्मोकिंग इज इन्ज्युरिअस टू हेल्थ
जलते गलते जिगर की तस्वीर के साथ
फिर भी, वो धुएं का अन्दर जाना,
आँखों को बाहर निकलते हुए महसूसना
है न ओशो के कथन जैसा
बिलिफ़ इज ए बैरियर, ट्रस्ट इज ए ब्रिज !

लहराता हूँ हाथ
छमक कर उड़ जाती है सिगरेट, साथ ही
हवाओं के थपेड़े से मिलता है आराम
फिर बिना सोचे समझे महसूसता हूँ
उसके मुंह से निकलने वाले जल मिश्रित भाप की ठंडक
देती है कंपकपी
ऐसे भी सोचा, उसकी दी हुई गर्मी ने भी दी थी कंपकंपी
अंततः
दिमाग कह उठा,  कल का दिन डेटिंग के लिए करो फिक्स

प्यार समय मांगता है
बिना धुंआ बिना कंपन

बेटर विदाउट सिगरेट ... है न !!!!

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प्रतिक्रियायें 
 Saksena Madhu: मुकेश की कविताएँ आत्मीयता से बात करती प्रतीत होती हैं ...अपने पढ़े हुए विषयों को कविता के घोल कर कर  अलग रंग चढ़ा कर काव्य में नए समीकरणों को स्थापित किया है । पिता और  राखी कविता लिखने में पूरी सच्चाई और ईमानदारी दिखती है  नाटकीय महानता का जाम पहन कर आदर्श स्थापित करने का प्रयास किया नही किया ... मुकेश के काव्य सन्ग्रह ' हमिंग बर्ड की ' समीक्षा लिखते समय भी मुझे मुकेश के काव्य में सच्चाई , अवगुणों  स्वीकारोक्ति और बेबाकी बहुत अच्छी लगी ..'जस की तस धर दीन्ही चुनरिया ' वाली सहजता प्रभावित करती है । 'सुट्टे के अंतिम कश ' में एक आम आदमी की चिंता और पीड़ा है ।
अच्छी और अलग सी कविताओं के लिए बधाई मुकेश को ...
आभार प्रवेश .....

 Chandrashekhar Ji: मुकेश जी की कविताएँ कसी हुई लगीं...लगा की बार बार काम करते हैँ वे अपनी कविताओं पर...राखी मुझे सबसे अच्छी लगी..
बधाई मुकेश जी।

 अपर्णा: मुकेश जी की कविताओं का संसार हमारे आस-पास का संसार है। मनीप्लांट का पौधा,ऑफ़िस की घड़ी, दरवाज़ो की दरारें, प्रदूषित यमुना, गृहनगर का पुल, सिगरेट के छल्लों के पीछे का मन और उसका विज्ञान, सड़क, लिफ्ट सीढ़ियाँ ये सब इनकी कविताओं का विषय बनते आए  हैं। और हर कविता में टंका होता है एक सरोकार। मैंने इनकी कविताई को परिपक्व होते देखा है। 
आज की कविताओं में 'पिता' और 'सुट्टे के कश..' बहुत अच्छी लगीं। कहीं कहीं तनिक कसाव की ज़रूरत लगी मुझे। कहीं तनिक गद्यात्मकता की ओर भी झुकती हैं कविताएँ। पर एक निराले अंदाज़ को अनदेखा नहीं किया जा सकता। 
सृजनशीलता को प्रतिबद्ध इस 'ज़िद्दी' कवि को मेरी ढेरों शुभकामनाएँ। 
साकीबा पर इस प्रथम प्रस्तुति की बधाई दोस्त।
😊👍🏽
Sharad Kokas Ji: पिता पर लिखी कविता एक संस्मरण की तरह है । इसमें ब्यौरों की अधिकता है जो कविता में रूचि तो उत्पन्न करती है लेकिन कथ्य में अपनी बात शामिल करने से कवि को रोकती है । यह बात कविता के अंत में आ पाती है । पायथागोरस प्रमेय निस्संदेह अच्छी कविता है और बिम्बो का इसमें बेहतरीन प्रयोग  है जो कविता के प्रारंभ से ही अपनी विषय वस्तु में स्पष्ट है । यहाँ निर्वाह ठीक ढंग से हुआ है ।

 Nasir Ahamad Sikandar: बी एस सी गणित से हूँ सो पाइथागोरस प्रमेय कविता पसन्द आई।

 Braj Ji: कविता का एक अर्थ होता है भाव भरे वाक्य का संप्रेषित होने योग्य प्रवाह से भी भरा होना. ऐसा जुमला जो हमें बार बार अनन्य कल्पना लोक में ले जाये और कविता की अगली पंक्ति हमें फिर मुस्कराते हुए बुला ले, हम चकित से होते रहें, संवेदित होते रहें, और हाँ पढ़ते समय हमारा आलोचना वाला दिमाग कुछ न कहे, रसिक वाला दिल ही धड़कता रहे. 

ऐसे विचार मेरे मन में तब आये, जब मैं मुकेश कुमार सिन्हा की प्रस्तुत कविताएँ पढ चुका, इन कविताओं के विषय कोई नये नहीं, लेकिन कहन अलग है, अंदाज़ ए बयां और है, कवि के विचार जिस  शिद्दत से मन में आते हैं वह सघन होकर आते हैं, पिता पर कविता की मौलिकता ध्यान खींचती है, पायथागोरस की प्रमेय को कविता में इतने अच्छे से गठित करने का प्रयास विफल हो सकता था. पर कमाल हुआ.

थोड़ा और गठन पर ध्यान दीजिए, वैसे बायोडाटा कहता है कि यह अभ्यासी और सिद्ध कवि हो चले हैं. 

प्रस्तुत ठीक से किया गया है. समूह पर ऐसी ही पेशकश होना चाहिए. 

शुभकामनायें ||

ब्रज श्रीवास्तव.
 Anita Manda: मुकेश जी की सभी कविताएँ बहुत अच्छी लगी

Archana Naidu: मुकेश जी,  की कविताएँ यानि ताजगी भरा सुकूनी झोका।
जहां  प्यारी सी फिलिंग को शेयर करने के लिए  आसपास की तमाम चीजों को बिम्ब उपलब्ध रहते हैं। पाइथागोरस, के फार्मूले, डस्टबिन,  सिगरेट और न जाने क्या क्या। सच,   कवि की सोच का जवाब नहीं।  आपकी उपलब्धियां   और आपकी कलम की  अच्छी दोस्ती है।  सारी की सारी कविताएँ  अच्छी लगी। आप बहुत ऊंचे जायेंगे,। दुआयें है हमारी 😊

 Arti Tivari: सारी कवितायेँ बहुत सुंदर पर..पाइथोगोरस प्रमेय सबसे अच्छी लगी। इस कविता को कवि ने जैसे साधा है👌🏼👌🏼👌🏼👌🏼👌🏼 लाजवाब है🍀🌸😊

 Mukesh Kumar Sinha: सबसे पहले तो शुक्रिया और फिर माफ़ी, मुझे जरा भी भान नहीं था कि मेरी कवितायेँ साकीबा के विस्तृत फलक पर सुशोभित होगी ! बहुत दिनों पहले प्रवेश ने मेरी कुछ कवितायेँ ली थी, पर ये नहीं बताया था कि उन कविताओं का क्या प्रयोग होगा साथ ही अंतिम कविता मैंने प्रवेश को बस दिखाने भर के उद्देश्य से कल थी ............बहुत बहुत धन्यवाद मित्र !!

 Mukesh Kumar Sinha: दिल से आभार व्यक्त करता हूँ  पीयूष जी, के.के.श्रीवास्तव सर, मधु जी, चंद्रशेखर सर, अपर्णा , शरद सर, नासिर अहमद जी, ब्रज श्रीवास्तव सर, अनीता जी, अर्चना व आरती जी ......... | आप सबका तहे दिल से शुक्रिया जो मेरे जैसे नए रचनाकार के लिए आप सबने समय निकला !

 Hariom Rajoriyaa Ji: मैंने मुकेश की कवितायें पहली बार पढ़ीं । इन कविताओं में भविष्य की एक उम्मीद है । हम जो सोचते हैं उसे भाषा के माध्यम से पकड़ने का प्रयास कराटे हैं , कई बार घनीभूत अनुभव बेचैनी के साथ हमसे कविता लिखवा लेते हैं और शिल्प अपने आप बन जाता है । मुकेश की कवितायें उसी तरह की हैं । ये ऐसी नहीं , ऐसी होतीं ? जैसी कोई बात नहीं , ये जैसी हैं , बैसी ही हैं ।  मुकेश को बधाई ।
 +91 80850 96010: मुकेश जी मेरी भी बधाई स्वीकार कीजिए । अब आप नए रचनाकार नहीं अनुभवी हो चले हैं तभी तो जीवन की इतनी हलचल और आपाधापी में एक हल्की लरज के साथ आप प्रयोग कर पाते हैं  भले ही गद्य भाग थोड़ा ज्यादा हावी रहता है पर बात तो दिल तक पहुँच ही जाती है । आपकी कविता ठन्डे पानी का झोंका जो चेहरे पर मुस्कान ला देता है । मुझे भी पाइथोगारस कविता सबसे अच्छी लगी।   । बधाई आपको । । हमिंग बर्ड की उड़ान जारी रहे । 
धन्यवाद प्रवेश जी ।

 Meena Sharma Sakiba: मुकेश जी की कविताएँ कुछ अलग अन्दाज में गणित और प्रेम 
का भूगोल के साथ उत्सुकता से बाँध लेने में सफल. 
अच्छी या बहुत अच्छी की बात
नहीं..बस पढ़कर जरा मुस्कुराएँ..
पिता के सिगरेट के छल्ले आँखों मं
घूम गये..! मनीप्लाँट से लेकर राखी तक के रिश्ते पर बेबाक कलम
चलाकर खूबसूरत गठन में कसी कविताएँ...बधाई मुकेश जी
धन्यवाद प्रवेश जी.
Bhavna Sinha Sakiba: मुकेश जी की सारी कविताएँ  बहुत कोमल और संवाद करती हुई है।  इनके कविता को बयान करने का अंदाज अनोखा है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में  राखी मेरी पसंदीदा कविता हैं  --ढाई सौ ग्राम पाउडर से पूता चेहरा --  बस वाह वाह ।

अच्छी प्रस्तुतिकरण के लिए  प्रवेश जी को बधाई ।
 Mukesh Kumar Sinha: आभार हरीओम राजोरिया जी का ............ये ऐसी नहीं , ऐसी होतीं ? जैसी कोई बात नहीं , ये जैसी हैं , बैसी ही हैं । ..........आपका ये स्टेटमेंट दिल में लगा, बेहद शुक्रिया !!
 Mukesh Kumar Sinha: आभा .......आपको तो पता है, मेरी कविताओं के शब्द कैसे किस तरह से जूझते हैं, तभी तो वो समय दर समय संस्मरणात्मक से लगने लगते हैं ............कोशिश जारी है...शुक्रिया मित्र ! ..........अपर्णा ने सही कहा था, जिद्दी कवि😜 !  तभी तो एक व्यक्ति जो क से सिर्फ कहानी ही समझता था, वो भी पाठक के तौर पर, आज बेवजह की कवितायेँ रचने लगा है ........!! दिल से शुक्रिया

 Meena Sharma Sakiba: जूझते हुए  शब्द ही कविता को
नए अंदाज़ देते हैं.
 Mukesh Kumar Sinha: बेहद शुक्रिया मीना शर्मा जी ...........अगर मेरी कविता एक पल के लिए भी मुस्कान लाने में सफल है, तो मैं स्वयं को सफल ही समझूंगा ! दिल से आभार


Dr Mohan Nagar Sakiba: मैंने मुकेश जी की पायथागोरस प्रमेय शायद फेसबुक पर पढ़ी है और अन्य कविताएँ भी कुछ या हो सकता है भ्रम हो .. एकदम नये कलेवर की कविताएँ .. शैली और लेखन पर किसी भी तरह की छाप नहीं बल्कि अपनी ही मुकम्मल होती शैली अद्भुत लेकर आते दीखते हैं वे .... तमाम कविताएँ सरल सहज छूटी हुई लगती हैं .. लिखने की कोई कोशिश या ड्राफ्ट मिला मिलाकर तैयार हुई तो कतई ही नहीं। मेरी शुभकामनाएं उनकी आगे की यात्रा के लिए .. अद्भुत रचनाएँ


नरेश अग्रवाल ,....मुकेश जी की सारी कविताएँ  पिता,  पाइथोगोरस प्रमेय, राखी, सुट्टे के अंतिम कश से पहले  सोचता  हूँ , सभी अच्छी हैं। 
हां यह तो महत्त्वपूर्ण है की इन चारों कविताओं के शीर्षक याद करते ही कविता की कोई न कोई  पंक्ति याद आने लगती है जो कवि के प्रतिभाशाली होने का संकेत है। बधाई मुकेशजी को। पूरी उम्मीद है भविष्य में वे और भी अच्छा लिखेंगे।

साथ ही अच्छी प्रस्तुतिकरण के लिए  प्रवेश जी को बधाई ।

Saiyd ayyub इससे पहले कि आज की पोस्ट आ जाये, थोड़ा मुकेश कुमार सिन्हा भाई और उनकी कविता पर। मुकेश भाई मित्र हैं, बड़े भाई की तरह है। जहाँ-तहाँ हम लोग टकराते रहते हैं। दिल्ली की सभा-गोष्ठियों से लेकर फेसबुक तक। फेसबुक पर एक-दो बार बहुत तीखी नोक-झोंक भी हुई है। उसके बावजूद हम मित्र हैं। मुकेश भाई निहायत ही सज्जन आदमी हैं। अक्सर लड़ाई-बहस आदि से दूर रहने वाले। प्रधामंत्री कार्यालय में पोस्टेड हैं और कई प्रधानमंत्रियों के साथ फोटो खिंचवा चुके हैं। 😊 आपकी पत्नी अंजू सिन्हा जी बहुत ही भली महिला हैं। आप संपादक हैं और अपने संपादन में दो (या संभवतः चार) कविता संग्रह निकाल चुके हैं। एक का नाम है ''गूँज'' और दूसरे का संभवतः ''गुलमोहर।'' कुछ कविता केंद्रित कार्यक्रम भी आपने आयोजित किये, करवायें हैं और मेरे द्वारा आयोजित कुछ कार्यक्रमों में आपने कवि और श्रोता दोनों के रूप में भाग लिया है। 


अब आपकी कविता पर। यह तुलना थोड़ी अजीब होगी और शायद मैं तुलना कर भी नहीं रहा पर इस समय मुझे चेखव की वह प्रसिद्ध कहानी याद आ रही है जिसका मुख्य किरदार एक टाँगे वाला है। वह कहानी इसलिये महत्वपूर्ण है कि उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। वह साधारणता की असाधारण कहानी है। मुकेश भाई की कविताओं के बारे में यह तो नहीं कहूँगा कि वे साधारणता की असाधारण कविताएँ हैं पर इतना ज़रूर कहूँगा कि वे साधारणता की अच्छी और आवश्यक कविताएँ लिखते हैं। यहाँ प्रस्तुत की गयी उनकी कविताएँ और उनकी जो कविताएँ पहले पढ़-सुन चुका हूँ, उसके आधार पर यह बात कह रहा हूँ। जिस तरह उनकी कविताओं के विषय साधारण हैं उसी प्रकार कविता को लिख ही देने के उनके प्रयास भी साधारण हैं और इसी साधारणता में एक जादू है जो खींचता है, एक चुम्बक है जो चिपका लेता है, एक आकर्षण है जो आकर्षित करता है। उनकी कवितओं में कविता लिख देने का कहीं संघर्ष नहीं है, बिम्ब-प्रतीकों के प्रयोग को लेकर कहीं सायासता नहीं है, बस जो कुछ भी है, सहज-सरल रूप में रच दिया गया है। यह सहजता और साधारणता का जादू बना रहे, यही दुआ है।

 Hargovind maithili मुकेश कुमार जी की सुन्दर कवितायें ।पाइथोगोरस प्रमेय कविता अच्छी लगी ।बधाई मुकेश कुमार जी व प्रवेश जी का आभार ।

 Alaknanda sane Taai पहली कविता छोडकर सभी पसंद आईं । सुट्टे का अंतिम कश बेहतरीन है । पायथागोरस भी अच्छी है । ताजी हवा का झोंका ।

 Mani mohan mehata ji मुकेश भाई की कविताओं में एक ताजगी दिखी ।शेष वक्तव्य भाई मोहन नागर जी का जस का तस , कवि को बधाई ।

 Sudhir desh paande प्रवेश का आजमुकेश कुमार सिन्हा की कविताओं को प्रस्तुत करने का अंदाज ईर्ष्या भर गया।

रश्क करने लायक मनोज की कविताएं भी हैं। विषय विषयवस्तु अंदाजे बयां अलहदा है। प्रस्तोता और कवि दोनों को बधाई।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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