Sunday, May 22, 2016

वैकल्पिक लोकतंत्र की अभिकल्पना 
और विद्यमान लोकतंत्र की अलोकतांत्रिकता
                          डॉ. संजीव कुमार जैन

वर्तमान लोकतंत्र की अलोकतांत्रिक ‘जड़ता’ के विकल्प के रूप में क्या ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की कोई अभिकल्पना संभव है? ‘वास्तविक और वस्तुगत लोक’ को तंत्र से बाहर रखकर लोकतंत्र का प्रकटीकरण या व्यवहारीकरण कितना लोकतांत्रिक हो सकता है, इस ‘तथ्यगत’ और ‘अनुभवगत’ स्थिति पर विचार करने पर ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की अभिकल्पना स्वयं आकार लेने लगती है। ‘विद्यमान लोकतंत्र’ अपनी तमाम सौन्दर्यात्मक परिकल्पना के साथ जड़ता की गतिहीन और अलोकतंत्रात्मक सडांध में बदल गया है, क्या ऐसा हमें महसूस नहीं होता। चारों ओर तमाम तरह के मूल्यों के सड़ने और निरंतर एक ही स्थिति में स्थित रहने से गलने और ‘बू’ उत्पन्न करने के ‘‘दृष्य’’ आम बात नहीं है। यदि है तो क्या हमें ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की अभिकल्पना पर विचार करने की बैचेनी नहीं हो रही? सड़ांध कितनी भयावह है इस बात का अनुभव  ‘‘स्वच्ठता के लिए चलाये जाने वाले अभियान’’ के प्रस्तोता के पद के स्तर से की गंभीरता से लगाया जाना चाहिए। जिस देष के प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रूचि लेकर गंदगी साफ करने के लिए कृत्रिम कचराघरों तक आना पड़ा हो उस देष के लोकतंत्रात्मक मूल्यों की वास्तविकता को सूंघना बहुत मुष्किल काम नहीं हैं।
दुनिया का कोई भी तंत्र या व्यवस्था यदि गतिषीलता को निरंतर एक ही जगह पर घूमने के स्वरूप में कमतर करके गतिषील होने का भ्रम पाले रहे तो ‘‘परिवर्तनहीन’’ स्थितियाँ अपने ही अंदर से नई और पूर्ण परिवर्तनकामी षक्तियों को जन्म देने लगती हैं, यह जमीन की जड़ता को तोड़कर एक अंकूर के फूटने की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जिसे जमीन के अंदर की दबी हुई ऊर्वरता नई संभावनायें पैदा करने के लिए उकसाती हैं।
‘विद्यमान लोकतंत्र’ अपने प्रतिनिधित्व के मताधिकारी संस्करण तक सीमित होकर व्यक्ति के पूर्ण और स्वतंत्र विकास की उन संभावनाओं को (जो मात्र आर्थिक उपलब्धि तक सीमित तो कदापि नहीं है, भौतिक वस्तुओं के अनावष्य और अनुत्पादक ‘मार्कात्मक’ ‘‘ढेर’’ तक भी स्वयं को पहुँचाने में ही ‘विकास’ की प्राप्ति को नहीं पायेगी) रसातल तक पहुँचाने के लिए प्रयत्नषील है, जिनके विकास के लिए ही मानवीय समाज ने एकतंत्रात्मक और तानाषाही के बरक्स ‘लोकतंत्र’ स्वयं को प्रत्यर्पित किया था, इस प्रत्यर्पित होने की प्रक्रिया में उन सभी मानवीय समाजों ने, जिन्होंने इसे कमोबेष अपनाया है, अपने ही नेतृत्व से धोखा खाया है। विद्यमान लोकतंत्रों का यह ‘नेतृत्व’ अपने अंदर जिस राजत्वषाही की अनुगूँज पैदा करता है, उस अनुगँूज को गंुजायमान होने की असली ताकत प्रतिनिधित्व के उस मतांकन से ही मिलती है, जिसे वही नेतृत्व अंततः विस्मृति और अभावों की जड़ता में जीने के लिए छोड़कर मखमली परिस्थितियों में स्वयं को समर्पित करता है। यह मखमली परिस्थितियाँ अंततः उन मतांकित करने वाले मनुष्यों के दैनिक अभावों और उसके साथ बर्बरतापूर्ण परिस्थितियों में जीते रहने की कीमित पर ही उपलब्ध की जाती हैं।
‘विद्यमान लोकतंत्र’ इसी मखमली विरासत की जड़ता में निरंतर रहने का अभ्यासी हो चुका है और उसे अपनी मखमली परिस्थितियों से बाहर बर्बरता और दुर्गंधतापूर्ण परिस्थितियों का होना एक तात्कालिक उलकापात की तरह प्रतीत होता है जो अपनी प्राकृतिक नियति में अनिवार्यतः घटित होना ही था। इस विसंगतिपूर्ण अन्तर्विरोध के साथ ही हमें ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की अभिकल्पना पर विचार आरंभ कर देना चाहिए।
‘विकल्पहीनता की स्थिति’ के प्रति अनुभूत और अनुकूलित षिक्षा पद्धति के विकास का जनक ‘विद्यमान लोकतंत्र’ अपनी तात्काल्किता में निर्विकल्पता के मूल्यों को ही प्रश्रय देने के लिए निरंतर प्रयत्नषील है। यह इतिहास की ऐतिहासिक परिर्वतनषील ताकतों की अनदेखी और ‘विल्फुल इग्नोरेंष’ ही माना जायेगा। यह ठीक उसी तरह है कि तूफान आने पर खरगोष का रेत में मुंह छिपाकर यह मान लेना की तूफान उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। इतिहास की परिर्वतनषील ताकतें हर युग में पानी की सतह के नीचे की हलचल की तरह निरंतर गतिषील और क्रियाषील रहती हैं।
‘विद्यमान लोकतंत्र’ जिस तरह से समृद्धि के एवरेस्ट और अभावों के गर्त पैदा कर रहा है, वह तरीका ‘लोकतंत्र’ की मानवीय अवधारणा से बहुत परे चला गया है। इस तंत्र ने विद्यमान मानवीय संबंधों के बीच जिस तरह से वस्तुओं को प्रतिष्ठिापित करके उन्हें सम्माननीय और स्पृहणीय बना दिया है, उस तरह से यह मानवीय जीवन की रिक्तता को उच्च मूल्यात्मक संक्रमण से ग्रसित करता जा रहा है। एक ओर अति उत्पादन से वस्तुओं की मांग में निरंतर कमी आती जा रही है, दूसरी ओर जीवन के लिए आवष्यक साधन-सामग्री की उपलब्धता के अभाव में हिंसा और आतंकवाद के साथ साथ आत्महत्या के लिए नये वर्ग उत्प्रेरित होते जा रहे हैं।
आवश्यकता और आकांक्षा के बीच के द्वंद्व को जिस तरह यह तंत्र उभारता और उकसाता है, उस तरह से तो जीवन की मूलभूत आवष्यकतायें निरंतर अल्पस्थिति के गर्त में समाहित होती जायेंगी क्योंकि आकांक्षाओं को जीने वाले वर्ग के पास अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु असीमित वस्तुओं की असीमित क्रयक्षमता है, और यही वर्ग अत्यावष्यक वस्तुओं की उपलब्धता को दुष्वार करता जा रहा है। मानवीय जीवन के लिए अत्यावष्यक और समान रूप से सबको आवष्यक प्राकृतिक वस्तुओं में पानी और भोजन के अभाव को भी इसी तंत्र ने विकसित होने में सकारात्मक भूमिका निभाई है, यद्यपि वह इस अभाव को पैदा न होने देने के लिए ही अपनाया गया था। इस अर्थ में और इस जैसे हजारों समान अर्थों में जिन पर वैकल्पिक लोकतंत्र की अभिकल्पना के साथ विचार किया जा सकता है, ‘विद्यमान लोकतंत्र’ पूर्णतः विफल  और निरर्थक होते जाने की दिषा में निरंतर तीव्र गति से वृद्धिंगत है। यह तंत्र अपनी पूर्ण असफलता के साथ अराजकता को पैदा करके, और ऐसा होना निकट भविष्य में लाजिमी है, मानवता के विनाष के संकट को ही उपस्थित करेगा।
निरंतर संपूर्ण विनाष की ओर अग्रसर मानवता ने जिस तंत्र पर अपना भरोसा जताया था और हर पांचवे वर्ष अपने मतांकन के द्वारा इसी भरोसे को पुनः पुनः जीवित होने की आकांक्षा की तरह जताती है, पर उसके साथ क्या घटित होता है, हर मतांकन के परिणाम के बाद अरब पतियों की संख्या में वृद्धि, विद्यमान अरबपतियों की विद्यमान पूँजी में पाँच से दस गुना की वृद्धि, और बजट में निरंतर छूट की मांग करने वाली इंडस्ट्री के बीमार और  होने का तकाजा और विकास के लिए ढेर सारे प्रावधान। दूसरी ओर आत्महत्या करने वाले किसानों का बढ़ता ग्राफ, भूख और पीने के पानी की अत्यंत निम्नतम जरूरतों के भी पूरा न होने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि, मृत्यु, अपराधीकरण का बढ़ता ग्राफ, गाँव के गाँव भूख से मरने के लिए मजबूर होकर जीने को विवष हो रहे हैं, पानी के लिए इस लोकतंत्र में हत्यायें होना आमबात है, बेरोजगारी और काम का अभाव, युवाओं की जिंदगी को व्यर्थ और निरर्थकता की ओर धकेल रहा है, यही कारण है कि असफल होने की आषंका मात्र से नवयुवा आत्महत्या को कमिट कर रहा है, यह इस ‘विद्यमान लोकतंत्र’ के पूर्ण असफल होने की घोषणा करने के लिए  पर्याप्त कारण नहीं है क्या? क्यों यह ‘लोक’ इस तंत्र को झेल रहा है, अपने मतांकन की ताकत को अपने ही शोषण के पक्ष में अंकित करने के लिए चेतन्य पषुओं की तरह हांका जाता है? क्यों नहीं अस तंत्र को तहस नहस करके नये ‘‘अधिक और अधिक मानवीय वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की संभावना को प्रस्ताविक करने के लिए सक्रिय नहीं हो रहा?

‘‘अपेक्षाकृत विपरीत अपने जीवन की परिस्थितियों का अंत किए बिना अपनी मुक्ति संभव नहीं कर सकते। अपने जीवन की परिस्थितियों को तब तक खत्म नहीं किया जा सकता जब तक समाज की सभी अमानवीय परिस्थितियों को खत्म नहीं किया जाता।’’  मार्क्सवाद और शैक्षिक सिद्धांत, पृ. 233
मानवीय जीवन को जीवित रहने के लिए ब्रांडेड वस्तुओं और मॉल कल्चर की कतई आवष्यकता नहीं है, इनके न होने पर भी जीवन बहुत उम्दा और खूबसूरती से जिया जाया करता था, पर व्यक्तिगत विकास के अहंकार ने जिस होड़ को पैदा किया है उसमें मुनाफ कमाने की तकनीकों ने ब्रांडेड वस्तुओं की अत्यधिक उपलब्धता को बढ़ाया है, जबकि दुनिया में न्यूनतम वस्तुओं के अभाव में लोग आत्महत्या कर रहे हैं, या स्वयं को बाजार में सदेह बेचने को विवष हैं। जिस दुनिया में लोग रूखी रोटी या सड़ी और फंेक दी गई वस्तुओं के लिए भी तरसते हों और लड़ते हों उस देष की किसी होटल या रेस्तरां में पिज्जा के पचास फ्लेवर, वटर की दस फ्लेवर और बर्गर के पन्द्रह प्रकार और इसी तरह पेय पदार्थोंं के कई तरह के उत्पाद या दस तरह की रोटी और बीस तरह के पराठे का मैन्यू देखकर आष्चर्य होता है और शर्म महसूस होती है, कि हम किस अमानवीय लोकतंत्र में रह रहे हैं, हमारी चेतना कितनी जड़ और क्रूरता की स्थिति तक पहुँच चुकी है, यह सोच पाने का विकल्प भी संभव नजर नहीं आता है।
‘‘विद्यमान लोकतंत्र’’ अत्यधिक नियतिवादी किस्म का ढांचा है। यह तंत्र यह मानकर चलता है कि कोई गरीब है तो गरीब होना उसकी नियति है, भीख माँग रहा है तो यह उसकी नियति है। नियति इस अर्थ में कि वह या तो मक्कार है, काम नहीं करना चाहता, जो कमाता है वह शराब और जुऐं में उडा देता है, ट्रेंड नहीं, किसी काम के योग्य नहीं है, उसके पास आज के आधुनिकतम उद्योगों के लिए उत्पादन बढ़ाने की तकनीकी क्षमता नहीं है, इसलिए वे भूखों मरने, भीख मांगने, रेल्वे की झूठी बाटल बीनने और तंत्र की मलाई चाटने वालों की फेंकी हुई झूठन खाना ही उसके होने की योग्यता है।
इसके स्थान पर ‘वैल्पिक लोकतंत्र की अभिकल्पना’ यह प्रष्न करती है कि उसे इस स्थिति तक पहुँचाने की जिम्मेदार स्थितियाँ किसने पैदा कीं, कौन है जो उनके हक का खाद्यान्न खा नहीं रहा खाने के नाम पर फेंक रहा है, बर्बाद कर रहा है, ‘फेक कल्चर’ को पैदा करने के लिए कौन जिम्मेदार है ? कौन जिम्मेदार है उनके परंपरागत कामों के मिट जाने के लिए, जिसमें वे और उनके परिवार के लोग पूर्ण तकनीकी योग्यता रखते थे, कौन जिम्मेदार है? उन्हें व्यर्थ और निरर्थक बनाने के लिए? क्या हमारा तंत्र और व्यवस्था उनकी इस नियति के लिए जिम्मेदार नहीं है? क्या हमारे तंत्र चलाने वाले जिस वर्ग के हितों के लिए काम करते हैं और काम करने का अधिकार जिस जनता से पाते हैं, वे इन अमानवीय स्थितियों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं? कौन जिम्मेदार है हमारी परंपरागत और सर्वसुलभ षिक्षा और योग्यता पाने की संस्थाओं को पैसे देकर खरीदने वाली षिक्षा और तकनीक संस्थाओं में बदलने के लिए? किसके हितों के लिए काम करते हैं ये षिक्षा और तकनीक संस्थान? क्या हमारे ब्यूरोक्रेटस या आई. आई. टी., आई. आई. एम. के उत्पाद और उनके द्व्वारा बनाई गई कार्ययोजनायें और हमारे जन नेता जो पूँजीपतियों के मैनेजरों की तरह कार्य करते हैं, इन सबके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? क्या ‘लोक वासियों’ के लिए यह प्रष्न पूछने का अधिकार नहीं है? क्यों हमारे खिलाफ ही हमारे मताधिकार का प्रयोग आप कर रहे हैं? और क्या इसी तंत्र को लोकतंत्र कहा जाता है? यदि ऐसा है तो हमें ‘‘न’’ कहना होगा इस ‘‘विद्यमान लोकतंत्र’’।
क्या एक पूर्ण और वैकल्पिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी जानी अभी शेष नहीं है? संघर्ष की स्थितियों को ‘पूर्ण स्वतंत्रता के भय’ में बदलने वाला यह ‘विद्यमान लोकतंत्र’ निरंतर अभावों को नितांत अभावों में बदले जाने के ‘भय’ से डराकर मतांकन कराके अपने हितों को सुरक्षित रखता है, परन्तु इस तरह के मतांकन कराने वाली स्थितियांे को बदलने की जिम्मेदारी इस ‘लोक’ की उन शक्तियों पर है जो इस ‘विद्यमान लोकतंत्र’ को लूटने और स्वयं लुटने की ताकत प्रदान करती हैं। ये ही ताकते हैं जो ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की अभिकल्पना को रूपायित करेंगी। इनके पास अभावों के, भूख और हिंसा के अतिरक्ति कुछ नहीं है खोने के लिए और पाने के लिए पूरी दुनिया है। एक ऐसी दुनिया जिसका सृजन, संरक्षण और संचालन ये ताकतें स्वयं सामूहिक प्रक्रिया और नवीन सामाजिक सहयोगिता के मूल्यों के माध्यम से करने की ओर संकल्पित हो सकेंगी।
‘‘पूँजीवाद अपनी परिभाषा में, एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें अल्पसंख्यक वर्ग (पूँजीपति वर्ग) बहुसंख्यकों (श्रमिक वर्ग) का शोषण, उनकी श्रम शक्ति के अतिरेक मूल्य को हड़प् कर करता है। जिस भूमंडलीकरण की चर्चा ऊपर की गई है अब प्रभुत्वषाली ढंग से नव उदारवाद के रूप में आ गई है, जिसका मुख्य जोर सामुदायिक या सरकारी के बजाय निजी पर है और मानवमात्र के कल्याण के स्थान पर लोभ या लालच पर है, जिसके माध्यम से इस शोषण को और व्यापक बनाया जा सके। इसलिए जो दावे भूमंडलीकरण के पैरवीकार करते हैं कि इसमें विष्विक पूँजी पर कुछेक का नहीं बल्कि कइयों का नियंत्रण होगा कहीं भी दिखाई नहीं देता है। भूमंडलीकरण हमेषा से पूँजीवाद की उन्नति और उसकी देखरेख के अपने मुख्य ऐजेंडे पर हुआ है।’’ (मार्क्सवाद और शैक्षिक सिद्धांत पृ. 162)
‘‘विद्यमान लोकतंत्र’’ अपने आंतरिक स्वरूप और गुप्त ऐजेंडे में उपर्युक्त विष्लेषण के अनुरूप ही क्रियाषील है। इसमें विकास के चक्रीय स्वरूप को लोभ और लालच की धूरी पर निरंतर घुमाया जाता है। इस चक्रीय गति में निरंतरता को बनाये रखने के लिए ‘वस्तुओं’ और ‘तकनीक’ को स्वयं भूमंडलीय व्यवस्था ही, जो कि इनके उत्पादन और इनसे कमाये गए मुनाफे को अपनी पोटली में बाँध चुकी है, पिछड़ा और अनुपयोगी सिद्ध करती जाती है, यह वस्तुओं और तकनीक की ‘व्यर्थता’ का प्रमाणीकरण है, और यही वह बिन्दु जहाँ से वैकल्पिक लोकतंत्र को अपना काम आरंभ करना है। जिन वस्तुएँ और तकनीक के गुणों को कल तक विज्ञापन माध्यम और संचार साधन एक विकल्पहीन और उसके बिना जीवन निरर्थक है, इस तरह प्रचारित कर रहे थे, दूसरे ही दिन जब नया मॉडल या नयी वस्तु कारखाने में उत्पादित कर ली जाती है तो पुरानी वस्तु और तकनीक को यही विज्ञापन अनुपयोगी और अलाभकर सिद्ध कर देते हैं, क्यों? इसी स्थिति को मैंने चक्रीय अवधारणा कहा है, यह अवधारण स्वयं के उत्पाद को स्वयं ही व्यर्थ और अनुपयोगी बनाती जाती है। इसके पीछे मानवीय आवष्यकता नहीं है, उसके मूल में मुनाफे की निरंतरता यानि मानवीय शोषण की निरंतरता को बनाए रखना है।
एक बहुत प्रचलित तकनीक और वस्तु के उदाहरण से बात स्पष्ट हो सकेगी। मोबाईल फोन आज के कुछ लोगों की अनिवार्य आवष्यकता हो सकती है, यद्यपि ऐसा मानना पूर्ण सच नहीं है, तथापि यह मान लें तो भी यह कैसे हो सकता है कि मोबाईल हर छह माह में या नया मॉडल आते ही बदला जाये। निरंतर बदलने की विवषता को जिस मानवीय आकांक्षा और स्टेटस् सिम्बल के तहत प्रचारित किया जाता है, उसके पीछे न तो मानवीय स्वभाव है और न मानवीय आवष्यकता, उसके पीछे विषुद्ध तरीके की हिंसा और मुनाफा कमाने की गलीच मानसिकता है, यह हिंसा इसलिए है कि जिस मोबाइल को हम चार छह माह में बदलते हैं, और पुराने को कचरे की तरह फैंक देते हैं, उसके बनने में कई बच्चों का बचपन दांव पर लगता है और उन्हें बेमौत मरना होता है। उनका मरना मौत नहीं हैं हत्या है जिसके पीछे मुनाफे की लत और हमारी गैरजिम्मेदार स्टेटस् की भूख है।
यह तंत्र निरर्थकता और व्यर्थताबोध को निरंतर उत्पादित करता है, यही अमानवीय मूल्य मानवीय चेतना में बर्बरता के मूल्यों यानि हिंसा और बलात्कार की घटनाओं को उत्पादित करते हैं। इन अत्यंत क्रूर स्थितियों के पैदा होने की जिम्मेदारी कभी भी तंत्र अपने ऊपर नहीं लेता और इन्हें एक दुर्घटना की तरह तात्कालिक राहत और प्रतिक्रिया के साथ अनेदखा कर देता है। यही इस तंत्र का एक अन्य अंतर्विरोध है जिसके बढ़ते जाने से यह इस व्यवस्था को बदलने की परिस्थितियाँ पैदा करेगा, क्योंकि मानवीय स्वभाव एक सीमा तक ही दबाव और शोषण को सहन करता है, सहन करने की परिस्थितियाँ जब अपनी सीमा को लांघ जाती हैं तो पूर्ण परिवर्तन की मांग उठने लगती है, जो कुछ सुधारों से दबायी नहीं जा सकती। इस परिवर्तन की परिस्थितियों को सही दिषा देने और उन्हें निरंतर विकसित करने के लिए हमें ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ की अभिकल्पना को रूपायित करना ही होगा।
दुनिया के तमाम उत्पीड़ित वर्गाें को ‘‘नई दुनिया के संभवन’’ के विकल्पों पर विचार करने के लिए स्थानीय स्तर से आरंभ करके विष्वव्यापी स्तर तक विमर्ष और विकल्प खड़े करने होंगे। इस ‘‘वैकल्पिक लोकतंत्र’’ लोकतंत्र जब अपनी नई दुनिया को संभव कर लेगा तो सबसे पहले डिक्षनरी से बहुत से शब्दों को खारिज कर देगा। हमारी भाषाई डिक्षनरी में कई शब्द हैं जिन्हें एक सर्वांगीण मानवीय व्यवस्था में नहीं होना चाहिए। मसलन जब दुनिया में उत्पादन की इतनी उन्नत तकनीक विद्यमान हैं कि वे बिना पर्यावरण को हानि पहुँचाये जीवन के साधन-सामग्री न केवल उत्पादित कर सकतीं हैं बल्कि  सबको सब स्थितियों में वितरित भी कर सकती है तो ‘भूख’, ‘अभाव’, ‘गरीबी’ ‘कुपोषण’, जैसे शब्द क्यों होने चाहिए डिक्षनरी में?
                                              डॉ. संजीव कुमार जैन
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