Wednesday, January 2, 2019

पितृसत्ता के बरक्स महिला उपन्यासकार
डॉ. संजीव कुमार जैन


डॉ संजीव जैन 


हिन्दी साहित्य में महिलाओं ने आजादी के बाद से उपन्यास लेखन के क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। यद्यपि ऐसा नहीं है कि आजादी के पहले उपन्यास लेखन के क्षेत्र में उनका कोई योगदान ही नहीं था, तथापि एक व्यापक पहचान के रूप में 1960 के बाद ही महिलाओं ने उपन्यास लेखन में कदम रखा।
इस दौर की महिला उपन्यासकारों में प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में हम उषा प्रियंवदा, मन्नूभंडारी, चन्द्रकिरण सौनेरेक्सा, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, अलका सरावगी, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, नमिता सिंह, क्षमा शर्मा, मधुकांकरिया, गीतांजलि श्री, जया मित्रा, कृष्णा अग्निहोत्री, राजी सेठ, अनामिका, लता शर्मा, सारा राय, सुधा अरोड़ा, शरद सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ के साथ एक लंबी परंपरा है जो स्त्री की आवाज को, उसके होने को, उसके स्वत्व को, उसके वजूद को, अस्मिता को, उसकी नई भूमिकाओं को, नई चुनौतियों को, नए विचारों और पितृसत्ता के खिलाफ नई कार्यवाहियों और गतिविधियों को रेखांकित कर रही हैं।

स्वतंत्रता के बाद हिन्दी साहित्य में यदि कोई सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई देता है, तो वह है लेखन के क्षेत्र में महिलाओं के हस्तक्षेप की वृद्धि। आधुनिक गद्य के इतिहास में उपन्यास सबसे महत्वपूर्ण और सशक्त विधा है। हिन्दी उपन्यास के स्वातंत्र्योत्तर विकास में महिलाओं द्वारा लिखे गए उपन्यास आंदोलित करते हैं। इस अवधि में प्रभूत संख्या में महिला उपन्यासकार सामने आते हैं।

 ये उपन्यासकार कथ्य और संवेदना, भाषा और शिल्प, अनुभूति और अभिव्यक्ति, परिवेश और प्रमाणिकता इत्यादि सभी आधारों पर सार्थक बहस खड़ी करतीं हैं। साहित्य और उपन्यास में अभी तक पुरुषों के नजर और नजरिये से स्त्री आती थी और अपनी परंपरागत भूमिका का निर्वाह करती रही। कुछ उपन्यासकारों ने उसकी परंपरागत छवि को तोड़ने का प्रयास भी किया, परन्तु उसकी चेतना और संवेदना, अनुभूति और अभिव्यक्ति को उसके नुक्ते नजर से देखने और अभिव्यक्त करने के बारे में सोचना भी संभव नहीं हुआ। यह संभव हुआ तब जब कि महिलाओं ने अपनी चेतना से भोगे और जाने हुए सच को अपने ही शब्दों और प्रतीकों से अभिव्यक्त करना प्रारंभ किया। यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन था, जिसने साहित्य के एक दम अनछुए आयामों को दुनिया के सामने रखा। मानवीय चेतना और संसार जो अब तक पुरुष के नुक्ते नजर से देखी और अभिव्यक्त की जा रही थी, वह स्त्री की नजर से जब अभिव्यक्त हुई तो पितृसत्ता भौंचक देखती रह गई और उसे अपना एकाधिकार समाप्त होता दिखाई देने लगा।

वर्चस्वशाली सिंहासन जो हजारों वर्षाें से अपना आतंक बनाए हुए था उसकी चूलें हिलने लगीं। साहित्य का नया संसार ही रचा जाने लगा जिससे दुनिया अब तक अन्जान थी।

पितृसत्ता ने स्त्री की आवाज, उसके सुख-दुख, आनंद-पीड़ा, इच्छा-अनिच्छा, हंसी-क्रोध, सभी को सामाजिक परिदृश्य से गायब कर दिया। उसके रोने की आवाज भी घूंघट के नीचे से ही आती रही। हंसने का तो उसे अधिकार ही नहीं था। हंसी की आवाज तो उसके लिए अभिशाप बन जाती है। उसके विचारों और भावनाओं को भी पूरे परिदृश्य में कभी नहीं आने दिया जाता। यह स्त्री के ‘न होने’ का सबूत है। यह स्त्री को अदृश्य करने का षड्यंत्र पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने बहुत ही सोची समझी नीति के तहत अंजाम दिया। सदियों से तमाम रीति रिवाज, परंपराओं ने, धार्मिक सिद्धांत और शास्त्रों ने एक ही काम किया है, वह यह कि स्त्री को सामाजिक परिदृश्य में न आने दिया जाये। उसे घर तक ही नहीं घर के भी उन अंधेरे कमरों तक सीमित रखा गया जहाँ देश और समाज की कोई हलचल न पहुँच सके और उसकी आवाज घर का दूसरा सदस्य भी न सुन सके।





पितृसत्तात्मकता एक विचारधारा है, एक राजनीति है, एक अवधारणा है और इन सबके साथ एक व्यवस्था है जो समाज में पुरुषों द्वारा स्त्री और बच्चों पर आधिपत्य जमाने और उनकी ‘चेतना’ और ‘देह’ दोनों पर नियंत्रण करने का कार्य करती है।

‘‘स्त्री को जो कहा जाए, उसका पालन करे, अनुकरण करें। यही पितृसत्तात्मक लिंग अवधारणा का मूलमंत्र है। पितृसत्तात्मक विचारधारा के ‘स्वभाविकीकरण’ के कारण स्त्री का आख्यान, उसका कहा हुआ, उसकी व्याख्या और दृष्टिकोण कभी स्वाभाविक लग ही नहीं सकते। वे हमेशा ही असंबद्ध, बिखरे-बिखरे से और अपने प्रभाव में निरर्थक लगते हैं।’’1

 पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ महिला उपन्यासकारों का अध्ययन क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का उत्तर हमें ‘स्त्री’ के उस इतिहास में मिलेगा जो कभी लिखा नहीं गया। पितृसत्ता का वर्चस्व सिर्फ स्त्रियों की ‘चुप्पी’ पर निर्भर करता रहा है। स्त्रियों ने सार्वजनिक रूप से अपने न बोलने की भूमिका को चुनौती देने के लिए उपन्यास और कहानी लिखना प्रारंभ किया। ‘स्त्री’ भी बोलना जानती है - मतलब अपने अस्तित्व और पहचान के प्रति सोच-विचार करने लगी है और अपने अस्तित्व और पहचान को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठित करना भी चाहती है। इस बात का मूल्यांकन उपन्यासों के स्त्री चरित्रों के अध्ययन ही संभव है।

‘‘स्त्री की चुप्पी का उसकी पहचान की जंग के साथ गहरा संबंध है। सवाल यह है कि स्त्री अर्थ अथवा अस्मिता कैसे निर्मित होगी? स्त्री अस्मिता के निर्माण के लिए जरूरी है कि स्त्री को पुरुष संदर्भ से अलग करके देखा जाए, स्त्री की चुप्पी को तोड़ा जाए, उसे बोलने का मौका दिया जाए।’’2

हिन्दी महिला उपन्यासकारों ने स्त्री को पुरुष संदर्भ और उसके द्वारा दी गई व्यवस्था से अलग करके देखने और प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अब स्त्री ने बोलना प्रारंभ किया है तो उन्होंने अपना संसार भी नए सिरे से सृजित करने भी प्रारंभ किया है।
‘‘स्त्री जब बोलती है तो अपने भावों को ही अभिव्यक्त नहीं करती बल्कि अपना संसार नए सिरे से बनाती है। अमूमन औरतें सार्वजनिक बहसों में मूकदर्शक बनी रहती हैं, अस्मिता की स्थापना के लिए यह स्थिति बदलनी चाहिए। स्त्री जब बोले तो चुप्पी टूटती है और स्त्री अर्थ के निर्माण की प्रक्रिया पुष्ट होती है, भाषा अपर्याप्तता विकल्प ढूँढने पर बाध्य करती है। संसार का वर्गीकरण स्त्री नजरिए से होता है। इस प्रक्रिया से ही स्त्री भाषा का विकास संभव है।’’3 

महिला उपन्यासकारों ने पितृवर्चस्व को सार्थक रूप से चुनौती देने का काम किया है, अपने स्त्री चरित्रों के माध्यम से। कठगुलाब की स्मिता और असीमा जब बोलती हैं तो पितृसत्ता के पास कोई रास्ता नहीं होता अपने बचाव का। ठीकरे की मंगनी की महरूख जब रफत भाई से विवाह करने से इंकार करती है और गांव में जाकर सेवा करने का संकल्प करती है तो रफत भाई जैसे मर्दों को - जो अपने लिए सब जायज मानते हैं और स्त्री को सिर्फ समर्पण करने, इंतजार करने और व्यवस्था के साथ समझौता करने की सलाह देते हैं - सांप सूंघने लगता है। छिन्नमस्ता की प्रिया का सुन्दर सजी-धजी बीबी बनकर नरेन्द्र की पार्टियों में जाने से इंकार और अपना स्वयं का व्यापार खड़ा करने की चुनौती नरेन्द्र के अहं को चकनाचूर कर देती है। शाल्मली अपने पैरों पर खड़े होकर पति के वर्चस्व को समाप्त कर देती है। मंदा और सारंग सम्पूर्ण सामंतीय मर्दवादी समाज की जड़ों को उखाड़ने का कार्य करती है। एक जमीन अपनी की अंकिता बाजारवाद और पितृसत्ता दोनों को उनके बीच रहकर ही चुनौती देती है और अपनी इयत्ता और अस्मिता को बिना पुरुष के संदर्भ और सहारे के बनाए रखती है।

महिला उपन्यासकारों ने पुरुष वर्चस्व और ईश्वर के आतंक दोनों को सार्थक ढंग से चुनौती दी है। सदियों से स्त्री के जीवन का पूरा ‘समय’ और ‘स्पेस’ पुरुष और ईश्वर ने घेर रखा था। महिला उपन्यासकारों ने अपने स्त्री चरित्रों के माध्यम से अपने समय और स्पेस की मांग की और अवसर आने पर उसे छीनने के लिए संघर्ष भी किया। स्त्री का अपने जीवन पर उसका अधिकार है, उसका समय उसका अपना है, जिसे वह अपने तरीके से जी सकती है।

राजीसेठ ने ’तत्सम’ में लिखा ‘‘सार्थकता और पुरुष दोनों एक ही चीज के नाम क्यों हैं? स्त्री के जीवन में इतनी बड़ी जगह क्यों घेर ली है इस संबंध ने कि हर चीज की व्याख्या इस बिन्दु से ही होने लगे।’’







यह स्त्री का अपने समय और स्पेस की मांग ही है, जो सार्थक ढंग से प्रत्येक महिला उपन्यासकार उठा रहीं हैं। नासिरा जी ने महरूख और शाल्मली के माध्यम से स्त्री और पुरुष के संबंध को स्त्री के संदर्भ से व्याख्यायित करने का प्रयास ही किया है जिसमें दोनों ही पुरुष के द्वारा घेर ली गई जगह को रिक्त करती हैं और अपने लिए स्वयं जमीन तलाशती हैं और अपना स्वयं का समय भी जिसमें किसी भी रूप में पुरुष और ईश्वर नहीं होते।

 ‘‘रफत भाई के व्यक्तित्व का फानूस टूटना था सो टूट गया। उससे फूटती फैलती रोशनी के दायरे से वह हमेशा के लिए आजाद हो गई थी, मगर जिस अंधेरे से वह जा लगी थी, उसने जिंदगी का मकसद ही खत्म कर दिया था।’’4 यह महरूख (स्त्री ) का रफत (मर्द) की रोशनी के दायरे से आजाद करने की चेतना ही स्त्री का वास्तविक संघर्ष है। स्त्री किसी भी रूप में पुरुष पर निर्भर नहीं रहना चाहती। न प्यार के लिए न दया के लिए। सदियों से पुरुष ही स्त्री को रचने और गढ़ने का दायित्व लिए हुए हैं। इसे ही सिमोन ने कहा था कि औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है।
महरूख मर्द के द्वारा स्वयं को निर्मित किए जाने का विरोध करती है ‘‘ रहम खाइये, रफत भाई, मुझ पर रहम खाइए। मुझे फिर तराशने और चमकाने की जिम्मेदारी मत लीजिए। मुझे फिर एक खूबसूरत जिंदगी का भुलावा मत दीजिए। मेरा सुकुन मत छीनिये। मैंने बड़ी मुश्किलों से दोबारा इसे पाया है।’’5 

पुरुष हमेशा ही औरत के समय, स्पेस (चेतना) और देह पर अपना हक जमाता रहा और धीरे-धीरे स्त्री का उसकी चेतना और देह पर से अधिकार समाप्त होता गया और वह स्वयं को पूर्णतः पुरुष के संदर्भ में परिभाषित करती रही। पर अब महरूख जैसी स्त्रियाँ इस छलावे को समझने लगीं हैं
‘‘अब मेरे पास समझ है। मैं अपना बुरा-भला खुद समझ सकती हूँ। ठोस जमीन पर ठोस जिन्दगी चाहती हूँ। मेरी जिन्दगी पर सिर्फ मेरा हक है।’’6 

स्त्री को यदि मुक्त होना है, थोपी गई भूमिकाओं से तो उसे स्वयं फैसले लेने होंगे और साहस के साथ चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना होगा। प्रिया, महरूख, नमिता, स्मिता, असीमा, दर्जिन बीबी आदि स्त्रियाँ स्वयं को देह मानने और उस पर पुरुष के अधिकार के होने से इंकार करने लगीं हैं। वे अपने जीवन के संबंध में स्वयं निर्णय लेने लगीं हैं और उस पर चलने का साहस भी दिखाने लगीं हैं - दर्जिन बीबी कहती है ‘‘मुझे मात्र शरीर बनकर जीना पसंद नहीं था और मैं दया की पात्र भी नहीं बनना चाहती थी।’’7

तो महरूख कहती है ‘‘तो मैंने भी अपने पसन्द की जिन्दगी जीने की कीमत अदा की है, मैं अपनी जिन्दगी से मुतमईन हूँ। मैंने कुछ खोकर पाया है अम्मी! आप इसे न जान सकें तो वह अलग बात है, मगर मैंने सचमुच हादसों से घिर कर तजुर्बों की सुरंगों से निकल कुछ पाया है जो बहुत कीमती, बहुत पुरमयानी है जो आप नहीं मगर आने वाली नस्लों की औरतें समझेंगी कि उसका सफ़र कब से शुरू हुआ था - और वह औरत भावनात्मक धरातल पर हमसे ज्यादा मजबूत होगी, हर चोट को हर चिटकन को गहराई से समझ कर उसे रचनात्मक मोड़ देना इमसे कहीं ज्यादा जरूरी समझेगी।’’8 

महरूख के इस निर्णय से भविष्य की औरत आजाद होगी, स्वतंत्र व्यक्तित्व की धनी होगी और अपने फैसले स्वयं करेगी।
मर्द से अलग अपना भी औरत का घर हो सकता है, उसकी दुनिया हो सकती है, उसका अपना परिवेश और समूह हो सकता है। जिसमें मर्दों का बहिष्कार नहीं साथ भी हो सकता है और उनका वर्चस्वी रूप भी नहीं होगा।

‘‘एक घर औरत का अपना भी तो हो सकता है, जो उसके बाप और शौहर के घर से अलग, उसकी मेहनत और पहचान का हो।....मेरा अपना घर वही पुराना है, जहाँ मैं पिछले तीस साल रही हूँ। तुम लोग अपने-अपने घर रहे हो, मैं अपने घर लौट रही हूँ। इसमें इतना पेरशान होने की क्या बात है? महरूख ने बड़े इत्मीनान से कहा।’’9

जब पति पत्नी के संबंधों मंे पत्नी स्वयं को एक लिबास महसूस करने लगे, एक भोग का उपकरण महसूस करने लगे तो उस संबंध को तो बिखरना ही है। शाल्मली और नरेश के संबंधों में यही घटित होता है, बारंबार। ‘‘उसे लगता है, जैसे वह एक बेजान लिबास है, जिसे जरूरत पड़ने पर पहना जाता है और जरूरत खत्म होते ही उतारकर रख दिया जाता है। रोज रोज की इस लिबासपोशी से वह थकने लगी है। प्यास बुझने की जगह भड़कती है। देह से हटकर भी तो आवश्यकता होती है मनुष्य की वरना कान, आँख, जबान और दिल मनुष्यों को क्यों मिले हैं? अच्छा सुनने, और बोलने-समझने और महसूस करने को, अपनी इस शक्ति को किस पत्थर के नीचे दबा दे, जो अपना सिर उठा न सके?’’10

शाल्मली का यह महसूस करना स्वयं को मात्र जिस्म मानने से और भोग की वस्तु में तब्दील होने से इंकार करने की दिशा में अपनी चेतना की पहचान स्थापित करने के लिए किया गया चिन्तन है। शाल्मली के नरेश और छिन्नमस्ता के नरेन्द्र में औरत के जिस्म को लेकर एकसा बहशीपन है। यह पितृसत्ता द्वारा स्त्री को भोग की वस्तु मानने और देह तक रिड्यूस करने का प्रतीक है। उधर प्रिया और शाल्मली भी एक सी प्रतिक्रिया दिखाती हैं - ‘‘मैं एक पल नहीं जी सकती! इतना वहशीपन, इतना दुर्व्यवहार आखिर किस लिए! गुस्से से पागल सी हो गई शाल्मली। आंखें निकाल कर जैसे उसे अंधे कुएं में किसी ने फेंक दिया हो। वह एक अजीब पीड़ा से छटपटा उठी थी। इस हद तक संबंधों और भावनाओं को कोई अपमानित कर सकता है! इस सीमा तक कोई निर्दय हो सकता है! कहाँ आकर फंस गई है वह...! यही मेरा भाग्य है! हाँ, माँ यही कहती हैं कि यही तेरा भाग्य है।’’11

छिन्नमस्ता की ‘प्रिया’, एक जमीन अपनी की ‘अंकिता’, कठगुलाब की असीमा और दर्जिन बीबी, स्मिता, नीरजा, उसके हिस्से की धूप की ‘मनीषा’, चित्तकोबरा की ‘मनु’, अनित्य की संगीता और काजल, पीली आंधी की ‘सोमा’, इदन्नमम् की ‘मंदा’, चाक की ‘सारंग’, ठीकरे की मंगनी की ‘महरूख’ और शाल्मली की ‘शाल्मली’ इत्यादि स्त्री चरित्र पितृसत्ता की वर्चस्वी विचारधारा और प्रवृत्तियों के खिलाफ एक सशक्त विरोध दर्ज कराती हैं। उनमें कोरी भावुकता या नारेवाजी नहीं है। उनके पास जीवन भर अपने निर्णय को जीने का साहस और हिम्मत है। खतरों को झेलने का माद्दा है। सुरक्षा छिन जाने का डर नहीं है। नई परिस्थितियों में अपने को बनाए रखने का निरंतर का संघर्ष है और पराजित न होने का संकल्प है।






पितृसत्ता के वर्चस्व के जितने रूप हैं, उनमें विवाह-पत्नीत्व,, मातृत्व, घर और परिवार। महिला उपन्यासकारों ने इन सबको प्रश्नांकित किया है। कठगुलाब में नीरजा और असीमा ने विवाह और पत्नीत्व को सिरे से नकार दिया और नीरजा ने मातृत्व को नए सिरे से परिभाषित करने का रास्ता प्रस्तुत किया। एक जमीन अपनी की नीता पत्नीत्व को दासी का रूप मानती है और विवाह संस्था उसके लिए जेल की सजा है। यद्यपि यह सच है, परन्तु समाज व्यवस्था का आधार जब तक नहीं बदलेगा इस व्यवस्था के बाहर जीना स्त्री के लिए दुष्कर ही रहेगा। नीता कहती है - ‘‘पत्नी...या मात्र एक व्यवस्था? माता-पिता द्वारा सौंपी गई व्यवस्था! ने उन्हें सास-सुसर बनने के संतोष से ही नहीं पूरती तथाकथित कौटुंबिक और उसके सामाजिक दायित्व से भी उऋण करती है। जितनी खोखली रीति-नीति उतनी ही आडंबर पुती उसकी महत्ता! ऊपर से पुष्ट, भीतर से पोली। सात फेरों के स्वांग में रची-बसी।’’12 

अंकिता उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है जो घर को अन्तिम हद तक सम्हाल के रखना चाहती है, पर जब जीना ही दूभर हो जाये तो छोड़ना ही श्रेयस्कर है ‘‘मेरे लिए घर की व्यवस्था का अर्थ है...अब भी है..... विश्वास करो, अपनी सामर्थ्य और सहिष्णुता की अंतिम सीमा तक मैं घर बचाने के लिए हाथ-पाँव मारती रही...सहन नहीं हुआ तो अलग हो जाना ही जी पाने का एकमेव विकल्प लगा....कारण न दूसरी औरत थी, न आर्थिक तंगी, न संदेह, न ईर्ष्या-द्वेष...जीने नहीं दे रही थी तो सुधांशु की निरंकुश प्रवृत्ति।....उसने सदैव अपने को थोपने की कोशिश की...उसकी निरंकुशताएँ घर के अर्थ को भ्रष्ट करने लगी थीं....’’13

इस तरह महिला उपन्यासकारों ने पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध का स्वर मुखर किया है। इस प्रतिरोध में व्यवस्था को बदलने का स्वर भी सुना जा सकता है। यद्यपि यह सच है कि व्यवस्था को बदले बिना स्त्री मुक्ति का सपना कभी पूरा नहीं होगा। इसीलिए सवाल वर्तमान व्यवस्था में थोड़ी अनुकूल जगह बनाने का, या कुछ अधिकार पाने का, या कुछ सुविधायें पाने का नहीं होना चाहिए। सवाल यह होना चाहिए कि यदि स्त्री मुक्ति की जो अवधारणा विकसित हो रही है, या जो विमर्श स्त्री मुक्ति के लिए रचा जा रहा है, वह मुक्त स्त्री इस सड़ी गली व्यवस्था में रह सकेगी, क्या यह गलीच व्यवस्था उस मुक्त स्त्री की आजादी को झेल सकेगी? क्या वह उसे पुनः उसी पिंजरे वाली मुनिया में बदलने के लिए नए षड्यंत्र नहीं रचेगी? तो क्यों न स्त्री मुक्ति के सवाल को व्यवस्था को तोड़कर नई व्यवस्था बनाने के सवाल से जोड़ दिया जाये। हाँ इसमें सावधानी यही रखनी होगी कि यह नई व्यवस्था स्त्रियों के द्वारा ही सृजित हो, उसमें पितृसत्ता की जरा सी भी सड़ांध घुसपैठ न कर सके। अन्यथा यह प्रयास पुनः विफलता के गर्त में जा गिरेगा, क्योंकि पितृसत्ता बहुत नफीस तरीके से हर आने वाली व्यवस्था से अपनी सांठ-गांठ बिठा लेती है और स्त्रियों को उसकी हवा भी नहीं लग पाती, जैसे कि उसने आधुनिकता और उत्तरआधुनिकता से अपना तालमेल बिठा लिया और समाजवाद में भी अपने पैर पसार लिए थे। इसलिए सावधानी और सतर्कता पूर्वक पूर्ण विवेक और तर्क से नई व्यवस्था को रचने का प्रयास करना होगा।

    संपर्क
    डॉ. संजीव कुमार जैन
    522-आधारशिला, ईस्ट ब्लॉक एक्सटेंशन
    बरखेड़ा, भोपाल म.प्र. 462021
    मो. 09826458553

संदर्भ
1. ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, पृ. 67
2. ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, पृ. 110
3. ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, पृ. 110
4. ठीकरे की मंगनी, पृ. 61
5. ठीकरे की मंगनी, पृ. 116
6. ठीकरे की मंगनी, पृ. 117-118
7. कठगुलाब, पृ. 160
8. ठीकरे की मंगनी, पृ. 194
9. ठीकरे की मंगनी, पृ. 197
10. शाल्मली, पृ.26
11 शाल्मली, पृ. 40
12. एक जमीन अपनी, पृष्ठ क्र. 160
13. एक जमीन अपनी, पृष्ठ क्र. 163

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