डायरी अंग्रेजी भाषा से लिया गया शब्द है |प्राचीन भारत साहित्य में इसे लिखने की प्रथा दिखाई नहीं देती |हमारी सभ्यता में भी इसका कोई साक्ष्य नहीं है |क्योंकि गंगा-जमुना संस्कृति में इसका चलन नहीं था। और अगर किसी लेखक ने स्वयं के साथ-साथ तत्कालीन समाज पर कुछ लिखा भी है तो उसका रूप, स्वरूप व विधा भिन्न थी।
लेकिन आज डायरी लेखन को भी एक साहित्यिक विधा के रूप में स्वीकार किया जा चूका है |
कहा जाता है कि जो बात किसी से भी नहीं कही जा सकती वो डायरी में लिखी जा सकती है। डायरी अंतरंग, विशिष्ट व भरोसे का मित्र है। यह अंतर्मन की अभिव्यक्ति है।स्वयं से साक्षात्कार है ,एक सच्चे मित्र की तरह है जो गलत काम करने पर आत्मग्लानिरूपी दण्डऔर अच्छा काम करने पर आत्मसम्मान रूपी पुरस्कार देती है |
डायरी लेखन का मूल स्वभाव गोपनीयता है इसलिए इसमें मन की कोमल भावनाओं को उंडेला जा सकता है। अपनी बेबाक टिप्पणी, राय व विचार बेधड़क होकर लिखे जा सकते हैं। यह तभी तक सत्य व संभव है जब तक इसे बिना किसी उद्देश्य के लिखा जाए। प्रकाशित करने के लिए लिखे जाने पर इसकी सत्यता, मौलिकता व पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है। क्योंकि डायरी लेखक संभावित प्रतिक्रिया के डर से या किसी मोह में फंसकर उसमें आवश्यकतानुसार उलट-फेर जरूर करता है। बस यहीं से शुरू होती है मिलावट। दिल की जगह दिमाग का खेल प्रारंभ हो जाता है।
ओम नागर
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जन्म: 20 नवम्बर, 1980, अन्ताना, तह. अटरु, जि. बाँरा (राज.)
शिक्षा: एम. ए. (हिन्दी एवं राजस्थानी) पीएचडी, बी.जे.एम.सी.
प्रकाशन: 1. ‘‘छियांपताई’’, 2. ‘‘प्रीत’’, 3. ‘‘जद बी मांडबा बैठूं छूँ कविता’’ (राजस्थानी काव्य संग्रह), 4. ‘‘देखना एक दिन’’ (हिन्दी कविता संग्रह) 5 . "विज्ञप्ति भर बारिश "(हिंदी कविता संग्रह ) 6."निब के चीरे से"
( कथेत्तर गद्य-डायरी)
राजस्थानी अनुवाद - ‘‘जनता बावळी हो’गी’’ (रंगकर्मी व लेखक शिवराम के जननाटक), ‘‘कोई ऐक जीवतो छै’’ कवि श्री लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह ‘‘अनुभव के आकाश में चांद’’ और ‘‘दो ओळ्यां बीचै’’ श्री राजेश जोशी के कविता संग्रह ‘‘दो पंक्तियों के बीच’’ साहित्य अकादमी द्वारा अनुवाद योजना के अन्तर्गत प्रकाशित।
प्रकाशन व प्रसारण: देश की प्रमुख हिन्दी व राजस्थानी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएॅ प्रकाशित। आकाशवाणी कोटा, जयपुर और जयपुर दूरदर्शन से समय-समय पर प्रसारण।
रचना अनुदित: पंजाबी, गुजराती, नेपाली, संस्कृत और कोंकणी। वागर्थ, परिकथा, संवदिया के युवा कविता विशेषांक व राजस्थानी युवा कविता संग्रह ‘मंडाण’ में कविताओं का अनुवाद।
संपादन: राजस्थानी-गंगा (हाड़ौती अंचल विशेषांक)
पुरस्कार व सम्मान:
01 . कथेतर गद्य की पांडुलिपी "निब के चीरे से " के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार -2015
02 . केन्द्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी कविता संग्रह ‘‘जद बी मांडबा बैठू छूँ कविता’’ पर ‘‘युवा पुरस्कार-2012’’
03 . राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा हिन्दी कविता संग्रह ‘देखना, एक दिन’ पर सुमनेश जोशी पुरस्कार, 2010-11
04 . राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवराम के जननाटक ‘‘जनता पागल हो गई है’’ के राजस्थानी अनुवाद ‘‘जनता बावळी होगी’’ पर ‘‘बावजी चतरसिंह’’ अनुवाद पुरस्कार- 2011-12
05 . प्रतिष्ठित साहित्य पत्रिका "पाखी " द्वारा "गांव में दंगा " कविता के लिए "शब्द साधक युवा सम्मान
06 . राजस्थान सरकार जिला प्रशासन बारां व कोटा, काव्य मधुबन, साहित्य परिषद, आर्यवर्त साहित्य समिति, शिक्षक रचनाकार मंच, धाकड़ समाज पंचायत सहित कई साहित्यिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सदस्य: राजस्थानी भाषा परामर्श मण्डल, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली।
संप्रति: लेखन एवं पत्रकारिता
पता: 3-ए-26, महावीर नगर तृतीय, कोटा - 324005(राज.)
मोबाइल-9460677638
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ओम नागर
मोबा: 09460677638
ई-मेल: omnagaretv@gmail.com
निब के चीरे से ...संग्रह जिसके लेखक ओम नागर और प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ है ,जिसे ज्ञानपीठ से २०१५ का नवलेखन पुरस्कार भी मिला है ..डायरी की शक्ल में आत्मकथ्य है |गद्य और पद्य का समुहचीत संग्रह ।
कड़ाके की ठण्ड में नव वर्ष के आगमन की ख़ुशी और हर्ष के बीच बरसती मावठ लेखक को शहर के अभिजात्य उल्लास से निकाल कर ,गाँव में खेतों की चिंता में डुबो देता है ।
जमीं से जुड़ा लेखक जिसकी कलम में खेतों और गावों की मिठ्ठी की खुशबु महकती है ,वो उनके सुख दुख को अपने सिरहाने रख कर सोता और जागता है । इस संग्रह में लेखक की कविताओं के साथ उन कवियों की कविताओं की पंक्तिया भी सुशोभित है ,जिनका कवित्व और व्यक्तित्व लेखक की प्रेरणा रही है ।
हाडौती की आँचलिक बोली में लेखक का अपने मित्रों ,परिचितों से संवाद करना अपनी माँ बोली के रस में डुबो देता है ।आज की पीढ़ी जिस भाषा के अमृत से अनभिज्ञ है ,उस अमृत का रसपान कर पाठक तृप्त सा होता है ।संग्रह में अधिकांश विवरण गांव की जीवनशैली का मिलता है जहाँ लेखक शहर में रहते हुए भी ,फिर फिर लौटता है ।प्रकृति के मौसमों का चित्रण इस तरह से किया है कि प्रतिक बने शब्द लेखन कौशल को सुगन्धित कर देते है ।"आकाश हँसता है बारिश की हँसी" जिसके साथ संपूर्ण वातावरण मुस्करा उठता है ,हां कभी यह हँसी धरती पुत्र के लिए सहज सुलभ होकर जीवन दान दे देती है और कभी दुर्लभ होकर उसके प्राण भी हर लेती है ।कृषि जीवन पूर्णता वर्षा पर ही निर्भर है ।
"डरी हुई रात की हँसती हुई सुबह " भय जो अफवाहों के पैर से चलकर एक मुहँ से सहस मुखं पर स्थापित हो जाता है ,इसी भय की कहानी लिखी लेखक ने ।आधुनिक युग में भी मृत्यु का भय या अनहोनी घटित हो जाने का पूर्वानुमान देती अफवाएं क्या नही करवा लेती है इंसान से ।बड़ा रोचक लगा इसे पढ़ना ।
जुलेहा ,टर्की की मित्र कला साहित्य प्रेमी .. एक समान रूचियां हमें कहाँ ज़े कहाँ ले जाती है और किस किस से जुड़ जाती है रिश्तों की डोरी ,जुलेहा से मिलना और पुनः सारोला हॉउस में मिलना अच्छा लगा ।
विद्धार्थी जीवन में गुरूजनों का सम्मान और उनका स्मृति में बने रहना ,लेखक का आज की शिक्षा नीति और अपने काल के शिक्षक और विद्धार्थी के रिश्तों की तुलना पाठक को भी सोचने पर मजबूर करती है ।आज की शिक्षा बच्चों को तकनीकी ज्ञान की अधिकता से मशीनी बना रही है ,नैतिक शिक्षा की अभिवृद्धि करने वाले किस्से सुनाने वाले अध्यापक अब कहाँ ।
संग्रह में डूब कर पाठक अपने उस जीवन की झलक पाता है जिसका जिक्र उसके सपनो में कही न कही तो अवश्य था ।
प्रवेश सोनी
कड़ाके की ठण्ड में नव वर्ष के आगमन की ख़ुशी और हर्ष के बीच बरसती मावठ लेखक को शहर के अभिजात्य उल्लास से निकाल कर ,गाँव में खेतों की चिंता में डुबो देता है ।
जमीं से जुड़ा लेखक जिसकी कलम में खेतों और गावों की मिठ्ठी की खुशबु महकती है ,वो उनके सुख दुख को अपने सिरहाने रख कर सोता और जागता है । इस संग्रह में लेखक की कविताओं के साथ उन कवियों की कविताओं की पंक्तिया भी सुशोभित है ,जिनका कवित्व और व्यक्तित्व लेखक की प्रेरणा रही है ।
हाडौती की आँचलिक बोली में लेखक का अपने मित्रों ,परिचितों से संवाद करना अपनी माँ बोली के रस में डुबो देता है ।आज की पीढ़ी जिस भाषा के अमृत से अनभिज्ञ है ,उस अमृत का रसपान कर पाठक तृप्त सा होता है ।संग्रह में अधिकांश विवरण गांव की जीवनशैली का मिलता है जहाँ लेखक शहर में रहते हुए भी ,फिर फिर लौटता है ।प्रकृति के मौसमों का चित्रण इस तरह से किया है कि प्रतिक बने शब्द लेखन कौशल को सुगन्धित कर देते है ।"आकाश हँसता है बारिश की हँसी" जिसके साथ संपूर्ण वातावरण मुस्करा उठता है ,हां कभी यह हँसी धरती पुत्र के लिए सहज सुलभ होकर जीवन दान दे देती है और कभी दुर्लभ होकर उसके प्राण भी हर लेती है ।कृषि जीवन पूर्णता वर्षा पर ही निर्भर है ।
"डरी हुई रात की हँसती हुई सुबह " भय जो अफवाहों के पैर से चलकर एक मुहँ से सहस मुखं पर स्थापित हो जाता है ,इसी भय की कहानी लिखी लेखक ने ।आधुनिक युग में भी मृत्यु का भय या अनहोनी घटित हो जाने का पूर्वानुमान देती अफवाएं क्या नही करवा लेती है इंसान से ।बड़ा रोचक लगा इसे पढ़ना ।
जुलेहा ,टर्की की मित्र कला साहित्य प्रेमी .. एक समान रूचियां हमें कहाँ ज़े कहाँ ले जाती है और किस किस से जुड़ जाती है रिश्तों की डोरी ,जुलेहा से मिलना और पुनः सारोला हॉउस में मिलना अच्छा लगा ।
विद्धार्थी जीवन में गुरूजनों का सम्मान और उनका स्मृति में बने रहना ,लेखक का आज की शिक्षा नीति और अपने काल के शिक्षक और विद्धार्थी के रिश्तों की तुलना पाठक को भी सोचने पर मजबूर करती है ।आज की शिक्षा बच्चों को तकनीकी ज्ञान की अधिकता से मशीनी बना रही है ,नैतिक शिक्षा की अभिवृद्धि करने वाले किस्से सुनाने वाले अध्यापक अब कहाँ ।
संग्रह में डूब कर पाठक अपने उस जीवन की झलक पाता है जिसका जिक्र उसके सपनो में कही न कही तो अवश्य था ।
प्रवेश सोनी
रचना प्रक्रिया को किसी भी परिभाषा की परिधि में बाँध देना आसान नहीं होता |भीतर की कोई आग जिसे निरंतर जलते रहना है ,भीतर का कोई तरल जिसे इंसान की आँख की नमी बनाए रखनी है ,भीतर का कोई ठोस जिसे इस्पात होने तक तपते रहना है |यह कहना है संग्रह के लेखक का |
लेखन का आगाज़ 1 जनवरी २०१५ से किया
जिसमे लेखक की आसपास की दुनिया के रंग बिखरे है |लेकिन इसमें कवि व्यष्टि से समष्टि की यात्रा करता दिखता है |उसमे संतोषी नगर चौराहे पर सैलून चलाने वाले कविमित्र मनोज मोरवाल और पान की दूकान वाले के फक्कड़पनकी चर्चा है तो तेजाजी गायन को रेखांकित करते हुए जीवन शैली में आये बदलाव भी उनकी सोच के विषय है ,वहीँ कवि ने इस बात को भी महीन उदासी के साथ रेखांकित किया है कि शहरो में नयी पीढ़ी का मायड भाषा से जुड़ाव कम होता जा रहा है
यह डायरी कोटा शहर के अतरंग जीवन समाज का कोलाज है |जिसमे साधारण ,अतिसाधारण अपरिचित ,अल्पपरिचित लोगों की व्यथा पर रौशनी है लेखक की निगाह उधर अधिक गई है जहां शोषित ,प्रवंचित के जीवन में अँधेरा है |अंधेरेमे बारीक़ प्रकाश रेखा के उल्लास को भी उनकी नज़र अचूक ढंग से पकडती है
यह डायरी अपने शहर और शहर के लोगों के कारण अपना मकाम बनाती है ,जिसमे अपने परिवार से अधिक किसान ,मजदुर और साधारण जन की व्यथा अभिव्यक्त होती है |
अतुल कनक
दुःख ही तो है जो स्रष्टि को अपूर्ण रखता है |
किसान की मौत अंतहीन बहस छोड़ जाती है |
मौसम में ठहराव की कमी खलती है ,और मन की भी |
किसी की खींची गई लकीर को मिटाने के कौतुक रचने की बजाय ,हमें उस लकीर के बगल में लम्बी लकीर खीचने की कोशिश करनी चाहिए |
गावं में भले ही सुख का परिचय कम होता हो लेकिन दुःख का प्रसार अधिक होता है |गाँव की यह सनातन संवेदनशीलता होती है |
ओम नागर की कुछ कवितायें
पिता की वर्णमाला
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पिता नहीं गए कभी स्कूल
जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला
पिता ने कभी नहीं किया
काली स्लेट पर
जोड़-बाकी, गुणा-भाग
पिता आज भी नहीं उलझना चाहते
किसी भी गणितीय आंकड़े में।
जो सीख पाते दुनिया की वर्णमाला
पिता ने कभी नहीं किया
काली स्लेट पर
जोड़-बाकी, गुणा-भाग
पिता आज भी नहीं उलझना चाहते
किसी भी गणितीय आंकड़े में।
किसी भी वर्णमाला का कोई अक्षर कभी
घर बैठे परेशान करने नहीं आया
पिता को।
घर बैठे परेशान करने नहीं आया
पिता को।
पिता
बचपन से बोते आ रहे हैं
हल चलाते हुए
स्याह धरती की कोख में शब्द बीज
जीवन में कई बार देखी है पिता ने
खेत में उगती हुई पंक्तिबद्ध वर्णमाला।
बचपन से बोते आ रहे हैं
हल चलाते हुए
स्याह धरती की कोख में शब्द बीज
जीवन में कई बार देखी है पिता ने
खेत में उगती हुई पंक्तिबद्ध वर्णमाला।
पिता की बारखड़ी
आषाढ़ के आगमन से होती है शुरू
चैत्र के चुकतारे के बाद
चंद बोरियों या बंडे में भरी पड़ी रहती है
शेष बची हुई वर्णमाला
साल भर इसी वर्णमाला के शब्दबीज
भरते आ रहे है हमारा पेट।
आषाढ़ के आगमन से होती है शुरू
चैत्र के चुकतारे के बाद
चंद बोरियों या बंडे में भरी पड़ी रहती है
शेष बची हुई वर्णमाला
साल भर इसी वर्णमाला के शब्दबीज
भरते आ रहे है हमारा पेट।
पिता ने कभी नहीं बोई गणित
वरना हर साल यूं ही
आखा-तीज के आस-पास
साहूकार की बही पर अंगूठा चस्पा कर
अनमने से कभी घर नहीं लौटते पिता।
वरना हर साल यूं ही
आखा-तीज के आस-पास
साहूकार की बही पर अंगूठा चस्पा कर
अनमने से कभी घर नहीं लौटते पिता।
आज भी पिता के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर ही है
मेरी सारी कविताओं के शब्दयुग्म
नहीं बांध सकतें पिता की सादगी।
काला अक्षर भैंस बराबर ही है
मेरी सारी कविताओं के शब्दयुग्म
नहीं बांध सकतें पिता की सादगी।
पिता आज भी बो रहे है शब्दबीज
पिता आज भी काट रहे है वर्णमाला
बारखड़ी आज भी खड़ी है
हाथ बांधे
पिता के समक्ष।
पिता आज भी काट रहे है वर्णमाला
बारखड़ी आज भी खड़ी है
हाथ बांधे
पिता के समक्ष।
भूख का अधिनियम: तीन कविताएं
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(एक)
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(एक)
शायद किसी भी भाषा के शब्द कोश में
अपनी पूरी भयावहता के साथ
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलांग पाती भूख।
अपनी पूरी भयावहता के साथ
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलांग पाती भूख।
पूरे विस्मय के साथ
समय के कंठ में
अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।
समय के कंठ में
अर्द्धचन्द्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।
छोटी-बड़ी मात्राओं से उकताई
भूख की बारहखड़ी
भूख की बारहखड़ी
हर पल गढ़ती है जीवन का व्याकरण।
आखिरी सांस तक फड़फड़ातें है
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख्त चांेच
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख्त चांेच
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।
भूख के पंजों में जकड़ी यह पृथ्वी
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई
लौट आती है आरंभ पर
जहां भूख की बदौलत
बह रही होती है
एक नदी।
(दो)
एक दिन
भूख के भूकंप से
थरथरा उठेंगी धरा
इस थरथराहट में
तुम्हारी कंपकंपाहट का
कितना योगदान
यह शायद तुम भी नहीं जानते
तनें के वजूद को कायम रखने के लिए
पत्त्तियों की मौजूदगी की
दरकार का रहस्य
जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट।
भूख के भूकंप से
थरथरा उठेंगी धरा
इस थरथराहट में
तुम्हारी कंपकंपाहट का
कितना योगदान
यह शायद तुम भी नहीं जानते
तनें के वजूद को कायम रखने के लिए
पत्त्तियों की मौजूदगी की
दरकार का रहस्य
जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट।
पेट के लिए पीठ ने ढोया
दुनिया भर का बोझा
पेट की तलवार का हर वार सहा
पीठ की ढाल ने।
भूख के विलोम की तलाश में निकले लोग
आज तलक नही तलाश सकें
प्रर्याय के भंवर में डूबती रही
भूख का समाधान।
आज तलक नही तलाश सकें
प्रर्याय के भंवर में डूबती रही
भूख का समाधान।
(तीन)
इन दिनों
जितनी लंबी फेहरिस्त है
भूख को
भूखों मारने वालों की
उससे कई गुना भूखे पेट
फुटपाथ पर बदल रहें होते है करवटें।
जितनी लंबी फेहरिस्त है
भूख को
भूखों मारने वालों की
उससे कई गुना भूखे पेट
फुटपाथ पर बदल रहें होते है करवटें।
इसी दरमियां
भूख से बेकल एक कुतिया
निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें
घीसू बेच चुका होता है कफन
काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी
इरोम शर्मिला चानू पूरा कर चुकी होती है
भूख का एक दशक।
भूख से बेकल एक कुतिया
निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें
घीसू बेच चुका होता है कफन
काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी
इरोम शर्मिला चानू पूरा कर चुकी होती है
भूख का एक दशक।
यहां हजारों लोग भूख काटकर
देह की ज्यामिति को साधने में जुटें रहते हैं अठोपहर
वहां लाखों लोग पेट काटकर
नीड़ों में सहमें चूजों के हलक में
डाल रहे होते है दाना।
देह की ज्यामिति को साधने में जुटें रहते हैं अठोपहर
वहां लाखों लोग पेट काटकर
नीड़ों में सहमें चूजों के हलक में
डाल रहे होते है दाना।
एक दिन भूख का बवंडर उड़ा ले जायेगा अपने साथ
तुम्हारें चमचमातें नीड़
अट्टालिकाओं पर फड़फड़ाती झंडियाँ
हो जायेगी लीर-लीर
फिर भूख स्वयं गढ़ेगी अपना अधिनियम।
तुम्हारें चमचमातें नीड़
अट्टालिकाओं पर फड़फड़ाती झंडियाँ
हो जायेगी लीर-लीर
फिर भूख स्वयं गढ़ेगी अपना अधिनियम।
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