उपन्यासनामा: भाग तीन ,रुकोगी नहीं राधिका
उषा प्रियंवदा
उषा प्रियंवदा |
आधुनिक बोध की अग्रदूत "रुकोगी नहीं राधिका"
रुकोगी नहीं राधिका उषा प्रियंवदा का दूसरा उपन्यास है। ‘राधिका’ जो कि आधुनिक बोध की प्रतीक है, इसकी नायिका है जो विदेश में कुछ समय रहने के बाद वापस भारत आयी है। यहाँ उसके पिता हैं, सौतेली माँ विद्या है। उसके भाई-भाभी हैं, कुछ मित्र हैं और सहेली हैं, नानी हैं,रज्जू मामा हैं, अक्षय, मनीश और डैन जैसे व्यक्ति मित्र हैं। राधिका के व्यक्तित्व की रेखाएं जिस परिवेश में खींची गईं हैं वह अपने समय से बहुत आगे की सोच के रंग है। वह सही अर्थों और संदर्भों में आधुनिक स्त्री है। वह पत्रकार डैन के साथ विदेश गई और वहाँ कुछ समय तक रहने के बाद वापस भारत आयी है। यहाँ उसके पिता हैं, जो कुछ असामान्य हैं, कम बोलते हैं, अपने काम में मस्त रहते हैं। उनकी दूसरी पत्नी विद्या है, उससे भी कोई खास आत्मीय संबंध नहीं है। यह एक नगरीय पारिवारिक परिवेश है जिसमें राधिका पली बढ़ी है।
राधिका के माध्यम से एक आधुनिक स्त्री की सोच, विचारधारा, दृष्टिकोण और जीवन तथा पुरुष के प्रति उसका अपना रवैया प्रस्तुत है। राधिका का चरित्र बहुत गहरे तक स्पष्ट है। वह जीवन से क्या चाहती है? पुरुष का साथ भी चाहिए मगर सिर्फ ‘प्ले बॉय’ की तरह नहीं। एक स्थायी जीवन साथी चाहिए। अक्षय के प्रति उसका झुकाव और आकर्षण इसी स्थायित्व को लेकर है। मनीश के स्वभाव में वह स्थायित्व नहीं है। मनीश विदेश में विश्वविद्यालय में उसके साथ था पर वह राधिका को उस रूप में प्रभावित नहीं कर सका यद्यपि - ‘‘कामना उसकी मनीश ने भी की थी, पर उसे राधिका ने दूर रखा था, उसकी ओर तीव्र आकर्षण अनुभव करते हुए भी वह संयत रही थी, उसने अपने को बार-बार याद दिलाया था कि मनीश जल्दी ही स्त्रियों से थक जाता है।’’1
डैन के साथ के गुजारे वक्त से मिले अनुभव के बाद राधिका का जीवन दृष्टिकोण अलग तरह से निर्मित हुआ जैसा कि उषा जी ने लिखा - ‘‘और डेन के बाद, राधिका किसी पुरुष के लिए शृंखला में एक कड़ी नहीं रह जाना चाहती थी। वह तो एक छत्र साम्राज्ञी बनना चाहती थी, जैसाकि केवल अक्षय के साथ ही संभव था।’’2
राधिका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की और देश दुनिया के अनुभवों से पकी स्त्री है। वह अपने निर्णय स्वयं साहसपूर्वक लेने की क्षमता रखती है और समय समय पर निर्णय लेती भी है। इस अर्थ में वह एक आधुनिकता बोध से संपन्न स्त्री है। स्त्री जब घर और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के घेरे से बाहर निकल पाती है तो उसके अनुभव उसे मजबूत बनाते हैं, परिपक्व बनाते हैं और पुरुष पर निर्भरता कम होती जाती है। राधिका जीवन में पुरुष पर निर्भरता और पुरुष के नियंत्रण से स्वयं को मुक्त कर लेती है -
‘‘पापा को छोड़ डेन के संग रहते हुए उस एक वर्ष में राधिका में जैसे कई वर्षों का अनुभव, पकापन एकाएक आ गया था और तभी डैन से अलग होने का साहस उसमें जगाा था। अब मैं स्वतंत्र हूँ, परिपक्व भी और गढ़ सकती हूँ अपना जीवन, अपना भविष्य।’’3
इस तरह अपना जीवन गढ़ सकने का साहस और निर्णय आज भी कितनी पढ़ी-लिखी स्त्रियां ले पा रही हैं। यह देखने और समझने की बात है। राधिका अपने समय और समाज में स्त्रियों की पराधीनता और दोयम दर्जे के लिये सोचती है -‘‘राधिका ने कहा, तभी तो हमारे यहाँ कितनी लड़कियों का चरित्र पूर्णतः विकसित हो पाता है? माता-पिता अपने ही विचारों को उन पर थोपते रहते हैं। रहा मेरा सवाल, मैं स्वेच्छापूर्ण जीवन की इतनी आदी हो गई हूँ कि विघ्न सह नहीं पाती।’’4 यह अपना जीवन गढ़ने का संकल्प और साहस घर से बाहर निकलने से आया है।
घर की चाहरदीवारी में कैद स्त्री अपना भविष्य गढ़ने के बारे में सोच भी नहीं पाती। वह स्वयं को वस्तु बनने से इंकार करने वाली है, वह दूसरों से इस्तेमाल की जाये यह भी वह नहीं होने देती तभी तो मनीश को रिजेक्ट करती रहती है। यद्यपि वह महसूस करती है कि पुरुष विहीन जीवन में एक बोरियत और ऊब है - ‘पुरुषहीन जीवन में एक उकताहट तो अवश्य होती है, पर साथ ही एक निश्चिन्तता भी, जो कि राधिका को काफी सुखद लगने लगी थी। अब मनीश उस संतुलन को फिर गड़बड़ कर देगा। वह चाहता क्या है? उसे न मित्रों की कमी है न लड़कियों की।’’5
राधिका मनीश से कहती है कि ‘‘हो सकता है कि मैं अक्षय से विवाह कर लूँ। मेरे जीवन में प्ले-ब्वॉय’ के लिए स्थान नहीं है। मैं संगी चाहती हूँ, जिसमें स्थिरता हो, औदार्य हो, जो मुझे मेरे सारे अवगुणों सहित स्वीकार कर ले। मेरे अतीत को झेल ले।’’6
राधिका की स्वतंत्र चेतना को झेलना आधुनिक पुरुष के बस में नहीं है। वह घर से बाहर तो राधिका को जीना चाहता है पर घर में पत्नी के रूप में नहीं। अक्षय भी पितृसत्तात्मक मानसिकता वाला है तभी तो वह सोचता है - ‘‘ठीक है, उसने सोचा राधिका मुझे आकर्षित करती है - उन्हीं सब बातों के कारण, जिन्हें मैं पत्नी में नहीं देखना चाहता। पत्नी मेरे घर में रहेगी, मेरी और बच्चों की देखभाल करेगी और मेरे प्रकाश से आलोकित होगी। राधिका स्वेच्छाचारिणी है, राधिका में तेज है, और राधिका एक अर्थ में दूसरे की विवाहिता है...फिर भी अच्छी लगती है। इस बार वह अपने को दमित नहीं करेगा, अगर एक उमड़ती हुई लहर उसे बहा ले जायेगी, तो उससे उबरने के लिए हाथ-पैर नहीं मारेगा।’’7
यह पुरुष का दोहरा चरित्र हैं।
राधिका यह सोचना भी कितना अलग है कि जब उसके पापा ने अपनी राह अलग चुन ली तो वह भी अपनी राह स्वयं चुनेगी। ‘‘पापा ने जब अपने जीवन की राह चुन ली, तो वह क्यों नहीं स्वतंत्र, निर्मम हो अपने लिए राह खोज लेती।’’8
राधिका एक स्वतंत्र सोच वाली लड़की है। वह आत्मविश्वास से भरपूर और स्वयं निर्णय करने की क्षमता और साहस रखती है। तभी तो वह पिताजी और बड’दा के सामने विवाह न करने का फैसला सुना देती है और उनके हर निर्णय को मानने से इंकार करती है।
‘‘मैं अभी विवाह नहीं करना चाहती,’’ राधिका ने दृढ़ स्वर में कहा।....‘‘जो आप चाहते हैं वही हमेशा क्यों हो? क्या मेरी इच्छा कुछ भी नहीं है? मैं आपकी बेटी हूँ, यह ठीक है, पर अब मैं बड़ी हो चुकी हूँ और मैं जो चाहूँगी वही करूंगी।’’ इतना आत्मविश्वास और साहस मगर असंयतात्मना नहीं है राधिका। उसके चरित्र और सोच में एक अलग किस्म का गौरव है, विश्वास है, संयम है जिसके बल पर वह यह कहने का साहस कर सकी।
‘‘बस बहुत हो चुका। आपने अपनी इच्छाओं के सामने कभी मेरी खुशी का ख्याल नहीं किया। बस, अब आप लोग मुझे अकेला छोड़ दैं।’’9 कितना भरोसा है राधिका के इन शब्दों में। हिकारत नहीं है। पर दृढ़ता में कोई कमी नहीं है।
राधिका एक विशिष्ट चरित्र है
‘रुकोगी नहीं राधिका’ एक अलग मिजाज का उपन्यास है। इसमें आधुनिकताबोध बहुत स्पष्ट है। राधिका का जीवन और विचार सामाजिक बिंडबनाओं के बीच से अपनी राह तलाशने का कार्य करते हैं। राधिका पर पितृसत्तात्मक मूल्यों का कोई दबाव नहीं है। सुषमा की तरह पिता के दायित्वों को निभाने के लिए पिता बनकर रहने की विवशता उसके सामने नहीं है। वह इस बात को कहती है कि आपने अपनी राह चुन ली तो मैं क्यों नहीं चुन सकती। राधिका का चरित्र हिन्दी उपन्यास और भारतीय समाज के लिए ठीक उसी तरह चुनौतीपूर्ण और नया था जिस तरह कृष्णा सोबती की ‘मित्रो’। इन चरित्रों को झेलने का साहस और समझने की कला से अभी हमारा समाज परिचित नहीं था। इसलिये या तो इन पर आक्षेप लगाये गए या उनकी उपेक्षा की गई। ‘मित्रो’ की बोल्डनेस के कारण उस पर आक्षेप लगे, परन्तु राधिका ने जिस धीर गंभीर तरीके से पितृसत्ता की जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य किया उसे न समझने के कारण उसकी उपेक्षा अधिक हुई।
‘रुकोगी नहीं राधिका’ की राधिका अमेरिका में तीन वर्ष रहकर वापस आती है। इस अर्थ में वह ‘शेष यात्रा’ और ‘अन्तर्वंशी’ की नायिका से अलग है। अनुका और वाना अमेरिका जाने के बाद वापस नहीं आतीं, वे विवाहित होकर वहाँ जाती हैं, जबकि राधिका घर से अपनी मर्जी से अपने पुरुष मित्र के साथ विदेश जाती है और अपनी मर्जी से वापस आती है। चूँकि वह विवाह के कारण वहाँ नहीं गई, वह अपनी मर्जी से अपने दोस्त के साथ गई थी, इसलिए वापस आ जाती है। शेष यात्रा की अनुका और अंतर्वंशी की वाना विवाह के बाद वहाँ गई, अतः वे वापस नहीं आतीं और जीवन की विसंगतियों का सामना करती हैं। राधिका अमेरिकी जीवन की चकाचौंध में नहीं फँसती जैसी की वाना फँस जाती है और न वह अनुका की तरह पति के द्वारा छोड़ दी गई स्त्री है, बल्कि वह स्वयं अपने दोस्त को छोड़कर वापस आती है।
तीन वर्ष बाद जब वह भारत के हवाई अड्डे से बाहर आई तो कोई भी उसे लेने नहीं आया। उसके पापा, भाई भाभी और उनके बच्चे। यह भारत में वापसी का पहला अनुभव है, जो उसे अपने विदेश जाने के निर्णय के फलस्वरूप हुआ है। अपने देश में अपने लोगों के बीच वापस आने के संबंध में शायद उसने सोचा भी नहीं था कि उसे दिल्ली में उतरने के बाद ‘कहाँ जाना है?’ इस बारे में सोचना पड़ेगा। राधिका के अंदर उपजा अकेलेपन का बोध आधुनिकताबोध का पहला चरण है।
‘‘साठ के दशक में ही उषा प्रियंवदा ने ‘रुकोगी नहीं राधिका’ उपन्यास के जरिए नारी-मुक्ति-प्रश्न को एक नए कोण से देखने की कोशिश की। हिन्दी जगत में राधिका का चरित्र जब सामने आया तो आम पाठक के लिए कुछ असामान्य और अपरिचित-सा था। उससे तादात्म्य स्थापित करने के लिए अधिक प्रौढ़ और खुले दिमाग की जरूरत थी। उच्च अभिजात परिवार की सुशिक्षित संभ्रांत युवती के इर्द-गिर्द केन्द्रित होते हुए भी इस उपन्यास ने भारतीय समाज के मूल्यगत संक्रमण की प्रक्रिया को प्रतिबिम्बित किया। पुराने समाज के परंपरागत मूल्यों, आस्थाओं को नये समाज के मूल्यों के टकरावों के बीच ‘राधिका’ अपने लिए उपयुक्त पुरुष की तलाश करती हुई, स्थापित सामाजिक मान्यताओं के एकदम आमने सामने आई होती है।
पहली बार शायद नारी की अस्मिता-संहार करने वाली भारतीय विचार पद्धति पर मुखर होकर इस उपन्यास ने प्रश्नचिह्न खड़ा किया।’’10
राधिका डेने से अलग होने के बाद यह निश्चित किया था कि वह ‘स्वयं के होने को’ प्रवाह में बहने नहीं देगी। अपने स्वत्व को समाप्त नहीं होने देगी, रेत बन कर बहने नहीं देगी चाहे पुरुष का साथ मिले या न मिले।
सच यही है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में इस तरह की विचार और मूल्यवाली स्त्री अपने को आंट ही नहीं सकती। उसके स्वत्व और स्वतंत्र व्यक्तित्व को पचाने के लिए एक नई व्यवस्था और नए मूल्यों की दरकार है जिसमें पितृसत्तात्मक व्यवस्था का जरा भी अंश न हो। राधिका पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उस दरार पर ऊँगली रखती है, जिसमें पुरुष को तो अपनी राह चुनने की आजादी है, मगर स्त्री को नहीं और ऐसा करनेवाली स्त्री को यह व्यवस्था अपने से बाहर रखती है, उसे अनफिट महसूस कराती है, बेगाना और अजनबी महसूस कराती है, ताकि घूम फिरकर वह उसकी शरण में आ जाए।
उषा जी के स्त्री चरित्रों में राधिका एक अकेला ऐसा चरित्र है जो पितृसत्ता से जमकर मुठभेड़ करता है। उसकी लड़ाई पितृसत्ता की विचारपद्धति से है। वह पुरुष से नफरत नहीं करती। पुरुष उसका दुश्मन भी नहीं है। वह पुरुष के रूप में पिता, भाई, दोस्त, प्रेमी सब को स्वीकार करती है। पर इन सबको अपने जीवन का कोई भी निर्णय करने का अधिकार नहीं देती। वह अपने संबंध में तमाम फैसले स्वयं लेती है। राधिका का यह सूक्ष्म विद्रोह है पितृसत्ता की तर्करचना के खिलाफ। वह अपने व्यक्तित्व, पहचान और अस्मिता को लेकर एकदम जागरूक और सतर्क है। अपने स्वत्व की शर्त पर वह कहीं भी किसी भी स्तर पर समझौता नहीं करती। उसने झुकना और झुकाना दोनों को ही अपने जीवन से बाहर कर रखा है। समझौते का कोई रास्ता वह नहीं अपनाती। न देश में न विदेश में। उसके पास समाज क्या कहेगा? लोग क्या कहेंगे? परंपरा और सिद्धांत अनुमति देंगे या नहीं? इस तरह कोई तर्क शृंखला उसे विचलित नहीं करती, जैसा की सुषमा को विचलित किए हुए है। इस ‘राधिका’ का चरित्र कृष्णा सोबती के ‘मित्रो’ से ज्यादा विद्रोही और बोल्ड माना जा सकता है।
राधिका के पास अपनी सोच है, विचार हैं, अपनी भाषा और सिद्धांत हैं। वह बोलना जानती है, उसके पास हर तर्क का जबाव है और उस जबाव को प्रूफ भी करना जानती है। समाज और परिवार के तर्क और सीमायें उसे अपने तईं समर्पित नहीं करा पाते हैं। उसके अन्दर विवशता का कोई धागा नहीं है। वह आधुनिकताबोध को अपने जीवन में पूरी तरह उतार चुकी है। स्वच्छंदता और उन्मुक्तता को जीते हुए भी वह कहीं से भी नैतिक/अनैतिक और श्लील/अश्लील की परिभाषाओं से अपने को दूर रखती है। इस अर्थ में यह राधिका किसी के रोके रुकनेवाली नहीं है।
क्या राधिका जैसी आधुनिकबोध सम्पन्न अपने लिए परिवार और परिवेश से निर्मम होकर अपनी राह चुनने का साहस जुटा पायेंगी और क्या वे पुनः पितृसत्ता के आधुनिक संस्करण के जाल में नहीं फंसेंगी? सुषमा अपनी राह नहीं चुन सकी यह कहने की अपेक्षा यह कहना ज्यादा सही होगा कि उसने राह तो चुन ली थी, पर उस राह पर चलने का साहस वह नहीं जुटा पाई और विदेश यात्रा करने का मौका उसके पास से फिसल गया।
०००
डॉ संजीव जैन
डॉ संजीव जैन |
संदर्भ सूची
1. रुकोगी नहीं राधिका, उषा पियंवदा पृ. 119
2. वही, पृ. 119
3. वही, पृ. 122
4. वही, पृ. 64
5. वही, पृ. 126
6. वही पृ. 82
7. वही, पृ. 69
8. वही, पृ. 67
9. वही पृ. 52
10. कुछ जीवन्त कुछ ज्वलंत, कात्यायनी, पृ. 164
000
डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गुलाबगंज
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल, म.प्र.
मो. 09826458553
पचपन खम्भे लाल दीवारे की समीक्षा पढने के लिए यहाँ क्लिक करे