Tuesday, March 29, 2016




   ◀चलन


   ♦राजनारायण बोहरे



तुलसा की निश्चिंतता खरे साहब को हैरानी में डाल रही थी ।... और यह निश्चिंतता उन्हें ही क्या किसी को भी हैरान कर सकती थी । जब किसी की जवान बेटी एकाएक किसी के साथ बिना बताये घर से भाग जाए और बाप एकदम निश्चिंत बना रहे तो कौन सामान्य रह सकता था भला ! लेकिन तुलसा ऐसा ही प्रदर्शित कर रहा था, ...उन्हे लगता है कि प्रदर्शित नहीं कर रहा बल्कि सच में ऐसा ही फील कर रहा था वह ।
      खरे साहब बड़बड़ाये-ताज्जुब है ऐसा बेशर्म बाप नहीं देखा ।
      उन्हे लगा कि बाहर से  देखने में तो तुलसा ऐसा नहीं दिखता फिर क्यों ऐसा कर रहा है? वे सेाच में डूब गए...।
      तुलसा यानी उनके क्वार्टर समेत अनेक सरकारी आवासों के बागीचों और लॉन की देखभाल करने वाला भोला और ईमानदार आदिवासी सरकारी माली । वह रोज सुबह उनके बंगले के लॉन की देखभाल करता है । आज भी रोज की तरह अपना काम काज निपटाकर वह सलाम करने आया तो सदा की तरह तुरंत गया नहीं बल्कि उनके सामने जमीन पर ही बैठ गया ।
खरे साहब ने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा तो वह सकपका गया था,  बोला  ‘साहब , मैं परसों-तरसों तक काम करने नहीं आ सकंूगा ।’
‘ क्यों ऐसा क्या काम आ गया । तुम तो कभी छुट्टी नहीं माँगते ’ उन्हे न उत्सुकता थी न कोई सरोकार, फिर भी एक सहज चालाक मालिक की तरह उन्होने पूछ ही लिया ।
‘ साहब मेरी छोकरी भाग गई कल के भगोरिया मेले में ..! ’ निर्पेक्ष सा तुलसा बोला  था तो  वे चौंक उठे थे । तुलसा को देखा तो  वह सहज था और आगे बता रहा  था, ‘ उधर के गाँव का एक लड़का भी घर से भागा है। ऐसा पता लगा है कि दोनों साथ-साथ....।’
‘ तुम मेरे साथ थाने चलो....’ अपने सहायक की मदद को तैयार होता उनके भीतर का अफसर तन कर खड़ा हो गया था , ‘ हम लोग उस लड़के और उसके पूरे कुनबा के खिलाफ रपट दर्ज करा देते हैं ।’
‘ नई साब, ऐसा नहीं कर सकता मैं, ऐसा कर दिया तो  मर ही जाऊंगा । मेरी बिरादरी के लोग जाति बाहर कर देंगे मुझे, फिर जीना मुश्किल हो जाएगा मेरा अपने समाज में ।’ तेजा काँपता सा बोला था ।
‘ अरे, ये कैसा रिवाज है तुम्हारी बिरादरी का ?’ वे चकित थे ।
‘ हमारे इधर ऐसा ही चलता है साब ! ऐसे ही शादी ब्याह होते हैं हमारे यहाँ !’
‘ तो तुम क्या  करोगे अब ?’
‘ उस लड़के के बाप  के साथ लड़ाई झगड़ा करने जाना होगा ।’
‘ गजब करते हो यार, कानूनी मदद के लिए पुलिस के पास जाना नहीं चाहते और खुद फौजदारी करने पर उतारू हो ।’
‘ इधर ऐसा ही चलन है साहब। वो तो झूठमूठ की लड़ाई होती है हमारी ।’
‘ लड़ाई भी झूठमूठ की...?’ बुदबुदाते खरे साहब एक मिनट को खामोश हुए, फिर बोले थे, ‘ तुम जैसा ठीक समझो निपटा लो, न निपटे तो मुझे बताना ।’
तुलसा उठा और फिर झुककर सलाम करता हुआ बाहर चला गया था।
तुलसा तो चला गया पर खरे साहब एक बार फिर उस द्वंद्व में फंस गये थे जहाँ पिछले चार दिन से हर रात बसेरा करते हैं वे अपने पलंग पर लेट कर और हर  वह बाप करता है जिसकी बेटी जवान हो रही होती है । इस इलाके में जब से आये हैं तमाम नई चीजें चौंकाने लगी हैं उन्हे ।
... पिछले साल इस आदिवासी इलाके में  तबादले का सरकारी हुकमनामा मिला तो बड़े खुश हुए थे वे, मन की यह मुराद पूरी होने जा रही थी कि किसी पिछड़े क्षेत्र में रह कर वाकई विकास के काम करायें, न कि विकसित जिलों की तरह झूठे-सच्चे पत्रक भरें । आदेश मिलने के हफ्ते भर के भीतर अपना बोरिया बिस्तर बांध कर ग्वालियर से इधर चले आये थे वे ।
उनकी बेटी ग्यारहवें दर्जे में पढ़ रही थी और बेटा नवें दर्जे में था । मिशनरी द्वारा चलाये जा रहे एक पब्लिक स्कूल में दोनों का एडमीशन कराके वे निश्चिंत हुए और अपने काम-काज में लग गए थे ।
यहाँ आकर जाना था उन्होने कि इस इलाके में विकास अधिकारी का बेहतर उपयोग करती है सरकार । एक महीने में अपने पद की उपयोगिता महसूस कर पूरी रूचि से काम करने लगे।  रूचि से काम करने का एक कारण और था कि चम्बल के आम वाशिंदों के झगड़ालू स्वभाव संे इतने बरसों से अब आजिज आ चुके थे वे, भले ही खुद उसी इलाके के वासी थे । यहाँ के किसी भी आदमी का स्वभाव झगड़ालू न था, बल्कि अपना काम शांति से कराने में विश्वास करता था इधर का आदमी ।

चार दिन पहले की रात उन्हे ठीक से याद है । पत्नी सोनल ने डरते हुए बताया उन्हे, ‘नाराज मत होना, एक जरूरी बात करनी है ।’
‘ बोलो, बोलो !’ वे उत्सुक थे ।
‘ अपनी तान्या को कैसे संभालूं, यह समझ में नही आ रहा ।’
वे चोैंके, ‘ क्या हुआ तान्या को ?’
‘ हुआ कुछ नहीं है। में देख रही हूँ कि  वो अपने सहपाठी अलपेश के साथ कुछ ज्यादा ही वक्त बिता रही है आजकल ।’
‘ कौन है अलपेश ?’
‘ आपकी कलेक्टोरेट के ही किसी अफसर का बेटा है-बनर्जी साहब हैं कोई ।’
‘ होंगे ।’ उन्होने बिना सोचे कहा फिर सोनल से बोले ‘ जयादा वक्त बिताने से क्या मतलब है तुम्हारा!’
‘ स्कूल से लौटकर दिन में कई दफा फोन पर बात करती है तान्या उससे ।’
‘ तुमने सुनी कभी उनकी बातें ?...कैसी बातें करती है वो ! बित्ते भर की  तो छोकरी है अभी ।’
‘ बातें तो वो ही पढ़ाई-लिखाई और स्कूल की करते हैं, लेकिन आखिर बेटी की जात है, इसतरह किसी लड़के से दोस्ती रखना...’
‘ तुम भी पुराने जमाने की हो अब तक । अरे जब कुछ ऐसा-वैसा नहीं सुना तो काहे को परेशान हो ’ एक अनुभवी अफसर पिता पर हावी हो उठा था ।
‘ ऐसा वैसा सुननने का इंतजार काहे करें । मैं चाहती हूँ कि शुरू से ही क्यों ना इस मेल-मिलाप पर  बंदिश लगा दी जाय’
‘ तो क्या घर बैठा लोगी उसे !’
‘ नहीं, आप तो उन बनर्जी साहब से कहके उनके लड़के को थोड़ा डांट-फटकार दिलवा दो,  इससे शायद...’ इसरार करती सोनल का वाक्य अधूरे में दम तोड़ गया था ।
वे हँसे , ‘ तुम्हारी मति मारी गई है क्या ? समझााना है तो अपनी बेटी को समझाओ मैं डांटता हूँ उसे अभी । जरा बुलाओ तो ...!’
‘  पागल हुए हो क्या ? इस वक्त आधीरात को ...! और फिर सीधा आपका कहना ठीक नही होगा ।’ परेशान होती सोनल के चेहरे पर बेचारगी के भाव थे ।
‘ तो तुम जैसा ठीक समझो वैसा करना ’ कहते उन्होने आँख मींच लीं थी ,सोने के लिए ।
‘ मैं ही तो कुछ ठीक नही समझ पा रही । ऐसा करती हूँ कि निशा दीदी से पूछूंगी...’ अपने में गुम होती सोनल बुदबुदा उठी ।
वे चौंके, ‘ अरे उन तक बात मत पहुंचाना। वे जाने क्या सोचें और जाने कहाँ-कहाँ क्या कह दें ।’
‘ तुम अपनी सगी भाभी पर शंका कर रहे हों।...घर की समस्या पर घर में ही तो विचार-विमर्श करना होगा । दो बेटियां पाली हैं , उन्हे ज्यादा तजुर्बा है ऐसी बातों का ।’ तुनकती सोनल उठ कर बैठ गई थी।
सोनल को आगे कोई जवाब दिये बिना वे करवट बदल कर लेट गए और मन से एकाग्र हो नींद का इंतजार करने लगे थे ।
...लेकिन नींद ऐसे नहीं आना थी ।
उन्होने तब सोनल को तो समझा दिया, लेकिन अपने मन को किस तरह समझाते !  उन्हे अचानक अपने आसपास के परिवेश पर गुस्सा आ गया, वे झुंझला उठे समाज के बदलते परिवेश पर। च्च च्च च्च, मिटा डाला इन सोप ऑपेराओं ने हमारे समाज को ! जिस चैनल पर देखो वहाँ ऐसी ऐसी कहानियां मोजूद हैं कि सारी शर्म-लिहाज खत्म हो रही है। हर कहानी में हर औरत के अनगिन अवैध संबंध, देखने को मिलते है और वो भी बिना किसी गिल्टी कांशस के । जिस म्युजिक चैनल पर नजर डालो वहाँ बदन पर नाम मात्र की चिंदियां बांधे अश्लील मुद्रा में मटकते नर्तक और युवतियां। दरअसल प्रेम-प्यार का मतलब सिर्फ दैहिक सरोकार और कामसूत्र की आसन सिखाती फिल्में जिस उत्तर आधुनिक युग में ले आई हैं इस देश को, अभी उसके काबिल ही कहाँ था यहाँ का आम जन !
अगर सोनल की आशंका सच है तो अभी ही टोकना होगा तान्या को, अभी आरंभ है बात संभल जायेगी। अन्यथा बात बिगड़ने में समय ही क्या लगता है?  बहुत से अच्छे-अच्छे घरो ंकी छीछालेदर होते देखी है खरे साहब ने ऐसे मामलों मे उस दिन मन की बात मन में रह गई। रात पूरी यों ही बीत गई पर मन का क्लेश न मिटा।  तब से हर रात यही हो रहा है।




..आज तुलसा ने तो एक वैचारिक भंवर में ला पटका उन्हे,   उस दिन भी ऐसा ही लगा था ढंके तौर पर ।
       वे भगोरिया मेलों की सार्थकता-निरर्थकता में उलझ गए ।
लगभग दस दिन पुरानी बात है , उस दिन वे दफ्तर में उदास से बैठे थे कि बड़े बाबू झिझकते से भीतर घुसे, ‘ आ सकता हूँ सर !’
‘ हाँ , आओ न! ’ उनकी चिंतित निगाहें पचास साल में बूढ़े़ हो चुके बड़े बाबू के चेहरे पर गड़ी।
‘ अधर के आदिवासी अंचल में इन दिनों भगोरिया मेले चल रहे हैं साहब । आपने तो देखे नहीं होंगे, आज चलें देखने को ...मैंने एक सरपंच से बात कर ली है।’
‘ भगोरिया माने...’
‘ भगोरिया माने...माने... ये कहेे कि आदिवासियों का बसंतोत्सव ! फागुन के महीने में हर साल गाँव गाँव में मनाया जाता है भगोरिया । होडी का डांड़ा गढ़ा नहीं कि भगोरिया चालू हो जाते हें इस अंचल में । जिस गाँव में जिस दिन की हाट हो उसी दिन वहाँ का भगोरिया मेला तय रहता है अपने आप । ’
‘ चलो, देखते हैं ।...कब चलना है ?’
‘ आज ही चलें साहब ।’


         जीप गाँव के भीतर न जा सकी, गाँव के बाहर ही उतरना पड़ा उन्हे। भारी भीड़ थी गाँव में । गली-मुहल्ले, चौक-चौगान में उमड़े पड़ रहे थे आदिवासी स्त्री-पुरूष । छोटी-छोटी दुकान सजाए दुकानदार बैठे थे अनगिनत । बिंदी-चुटीला, अंगूठी-आईना, कंगन-झुमके और वंदनवार से लहराते रूमाल व चोली की दुकानें, पान-तम्बाकू की दुकानें, घर के राशनपानी से लेकर चना-चबेना तक की दुकानें। सजे-धजे आदिवासी लोग खरीदारी में जुटे थे हर दुकान पर । गोरी-चिट्ठी आदिवासी युवतियां नई-नकोर साड़ी को कछोटादार शैली में बांधे हुए यहाँ से वहाँ इतराती घूम रहीं थीं । किसी ने पान से अपना मुंह रचा रखा था तो कोई्र आईसक्रीम चूसे जा रही थीै। किशोर होते बच्चों के झुण्ड अलग थे और युवाओं के अलग । किसी का कोई नातेदार साल भर बाद भेंटा रहा था तो किसी की सहेली से दो साल बाद मिलना हो रहा था ।
चौपाल पर पुरूष-स्त्रियों  का बड़ा हुजूम इकट्ठा था । गाँव का संरपंच खरे साहब की बाट ही जोह रहा था संभवतः। वे दिखे तो वह लपककर आया और उनके स्वागत कर सत्कार में लग गया । वे ना ना कहते रहे और वह खोवे का बना कलाकंद और बेसन के बने रंग-बिरंगे मोटे सेव, गाड़े दूध की मलाईदार चाय लेकर हाजिर होता रहा । देर तक चलता रहा यह क्रम । खरे साहब झुंझला ही पड़े आखिरकार ।
अंततः चौपाल के मैदान मंे ढप-ढप की आवाज गुंजाता एक समूह प्रकट हुआ जिसके बीच में कुछ लोग एक बड़ा सा ढोल गले में लटकायें बजाये जा रहे थे। ढोल वादक के चारों ओर  कई आदिवासी युवक जुटे हुए थे। उनके माथे पर सफेद टोपी थी बदन में लाल रंग की कमीज और कमर के नीचे घुटनों तक बदन को ढंकने के लिए धोती या गर्म शॉल लपेटे वे लोग मस्ती से सराबोर थे। नृत्य के नाम पर वे सब अपनी गरदन को दांये-बायें हिलाते हुये, कमर थिरकाते हल्के हल्के उछाल सी भर रहे थे।
सरपंच ने बताया, ‘ इस वक्त इस झुण्ड के लोग अपने सबसे अच्छे माँदर को  परख रहे है। जिसका सुर उम्दा होगा वही माँदर इस झुण्ड में सबसे आगे चलेगा ।’
‘ माँदर यानि कि...!’ खरे साहब की आँखों में प्रश्न था ।
‘ माँदर जिसे आप पढ़े-लिखे लोग माँदल बोलते है, यानि कि वो ढोल जो बीच वाले लोग अपने गले में लटकाए हैं । हमारे समाज में हर सामाजिक उत्सव पर यही बाजा बजाया जाता है ।
कुछ देर बात एक-एक कर कई-झुण्ड मैदान में उतर चुके थे । अपना बेहतर माँदल आगे किए  एक झुण्ड गाना आरंभ कर रहा था -
कालिया खेत में डोंगली चुगदी
बिजले नारो डोंगली का रूपालो, डुरू
डुरू....................
डुरू....................
सरपंच ने अर्थ समझाया यह झुण्ड कह रहा है कि हमने अपने काले मिट्टी वाले खेत में प्याज बोई है। प्याज अब पक चुकी है और उसके पौधे का फूल काले खेत मंें ऐसी चमक मार रहा है जैसे आसमान मंे तारा। इस चमक का उजाला सब ओर फैल चुका है ।

दूसरे युवा समूह ने पहले समूह के गीत के खत्म होते ही नया गीत उठा लिया था-
अमु काका बाबा ना पोरया रे , अमी डला डम
अमु मामा फूफा ना पोरया ने  अमी डाला डम
अमी डला डम! अमी डला डम!
ओ डलियो खिलाडु डालियो
खिलाडु ओ डामियो खिलाडु ओ डम!
बिना पूछे सरपंच ने बताया आदिवासी किशोर किशोरियां कह रही हैं कि  हम काका-ताऊ और मामा-फूफा के बच्चे हैं हम मिल जुल कर खेलेंगे ।

तीसरे समूह ने एक जनवादी गीत सुनाया-
बाटिये बाटिये जासु
बाटिय रेिडयो बोले
होंये रेडियो काय काम को
वो बांन्दला घर लाले सोभा
खरे साहब ने अपने अनुमान से अर्थ लगाकर बड़े बाबू को सुनाया, ‘ आदिवासी युवक कहता है कि  मैं रास्ते-रास्ते जा रहा था कि   एक जगह रेडियो गाता हुआ मिला । पहले सोचा कि रेडियो ले लूं । फिर सोचा कि यह रेडियो भला मेरे जेैसे आदमी के किस काम का ?  रेडियो तो पक्के मकानों की शोभा की चीज है ं

रात उतरती जा रही थी । नाचते-गाते आदिवासियांे की मस्ती बढ़ती जा रही थी । दांये हाथ से अपने घूंघट को ऊंचा उठाये माँदल पर थिरकते पुरूषों को देखती स्त्रियों के हँसते-खिलखिलाते चेहरों  पर उनके दांत चमक मार रहे थे । पैट्रोमैक्सांे की रोशनी, मशालों की लप्प-झप्प होती सुनहरी चमक वातावरण को मादकता और रोमानियत से भर ही थी ।
खरे साहब को कौतूहल हुआ तो झिझकते हुए उन्होने सरपंच से पूछ ही लिया, ‘ सरपंचजी, मैंने कई आदिवासी समाज देखे हैं, उन सबका रंग सांवला होता है, लेकिन आपके समाज के लोग एकदम गोरे-चिट्ठे हैं। ऐसा क्यों है?’
‘ साहब यह ताड़ी का कमाल है । हमारे यहाँ हर सुबह ताड़ी का डिब्बा पेड़ से उतार कर पूरा परिवार पीता है, जिसकी वजह से हम लोग तंदुरूस्त भी रहते हैं और  गोरे भी ।’
‘ ताड़ी माने शराब ?’
‘ नहीं साहब, ताड़ी माने ताड़ वृक्ष का ताजा जूस !’ बड़े बाबू ने मुझे समझाया, ‘ किसी दिन आपको पिलवाऊंगा । हल्का खट्टा और खूब स्वादिष्ट होता है साहब, इन दिनों खूब उतरता है इधर ।’

अचानक खरे साहब की निगाह गई,  देखा कि एक समूह में   शामिल होकर तुलसा  भी नाच रहा है। वे मुसकराये और उसी वक्त सहसा तुलसा की नजरें भी  उनसे टकरा गईं तो उसने वहीं से नमस्कार किया उन्हे । खरे साहब से नमस्कार करके वह अपने झुण्ड से निकला फिर उसने एक क्षण रूक कर मैदान के एक कोने में खड़े महिलाओं के झुण्ड में से किसी को इशारा किया और सरपंच की चारपाई की तरफ बढ़ आया । उसके पीछे-पीछे एक स्वस्थ और सुंदर आदिवासी महिला आ रही थी। उस महिला ने कमर मंे छींटदार कपड़े का घ्ेारदार घांघरा पहन रखा था,  एक छोटी सी दुपट्टानुमा साड़ी का एक कोना नाभि के पास ख्ुारसा हुआ था और बाकी का हिस्सा पीठ पर से होता हुआ सिर पर आया था, जिससे उस महिला का  नाक से ऊपर तक का चेहरा घूंघट से ढंका था। लेकिन ताज्जुब कि उसके कमीजनुमा लम्बे ब्लाउस को साड़ी के पल्लू से नहीं ढंका हुआ था, इसकारण  भीतर चोली से मुक्त होने के कारण ढंके होने के बावजूद उसके स्वस्थ्य और भरे-पूरे गोल स्तन अपनी तीखी नोक के साथ उसके ब्लाउस को लगभग टांगे हुए थे ।  खरे साहब ने देखा कि उसके कुछ कदम पीछे एक कमसिन आदिवासी लड़की भी चली  आ रही थी ।
‘ ये मेरी बीवी है साहब, और ये मेरी छोरी ।’ तुलसा ने उन दोनों की तरफ इशारा कर के  उन दोनों का परिचय दिया ।  खरे साहब ने हाथ जोड़कर उसकी पत्नी को नमस्कार किया तो उसने भी हाथ जोड़ लिए ।
‘ चल छोरी  पांव छू साहब के ।’ तुलसा ने अपनी पुत्ऱ़ी को आदेश दिया ।
पांवों की तरफ झुकती युवती के हाथ पकड़कर खरे साहब ने उसे रोक दिया , ‘ बस बस! हो गया । हमारे समाज में लड़कियों से पैर नही छुआये जाते ।’
बाप की तरफ संशय भरी निगाह फेंकती वह युवती रूक गई थी और खरे साहब टकटकी लगाकर सौंदर्य व स्वास्थ के संयोग की मूर्ति साकार करती उस युवती को देखते रह गये थे । तीखी लम्बी नाक, सींप बराबर बड़ी आँखें, मटर की छोटी फली से कोमल होंठ, स्वस्थ्य और सुडौल गरदन के नीचे चमक छोड़ते गोरे कंधों से हो कर लम्बे फैले हाथ।  नये छींटदार कपड़े के कमीज नुमा ब्लाउस में कसमसाकर अपने युवा होने के परिचय देते उसके नन्हे उरोज युवती के उस सौंन्दर्य का गुणगान कर रहे थे जिसके आगे कोई भी फैशनेबुल शहराती लड़की भोंड़ी दिखती ।
तुलसा का इशारा पाकर उसकी पत्नी अपने समूह की ओर चली गई थी और तुलसा खुद अपने नाचते झुण्ड की ओर, जबकि उसकी बेटी उस दिशा में बढ़ी थी जिधर युवकों का एक झुण्ड अलग थलग खड़ा भगोरिया के नाच का आनंद उठा रहा था । उसे आता देख झुण्ड का एक युवक उसकी ओर बढ़ा और उन दोनों के हाथ  लगभग अंजलि सी बांधते हुऐ एक दूसरे से जुड़ गाए । फिर वे दोनांे हँसते हुए जाने किस बात पर अपने दांतो की चमक बिखेरने लगे थे और उस कोने की ओर बढ़ लिए थे जिधर एकांत मंे एक चारपाई खाली पड़ी थी । वे दोनों उस चारपाई पर बैठ कर समूहों का नृत्य देखने लगे थे । खरे साहब भौंचक्के से उन्हे ताकते रह गये  और बीच बीच मे कभी तुलसा और कभी अपने पास असंपृक्त भाव से बैठे सरपंच को देखने लगे थे ।
रात के जाने कितने बजे तक यह गायन और नाच चलना था । खरे साहब ने संकेत किया तो बड़े बाबू ने उठकर सरपंच से अनुमति माँगी और वे लोग लौट पड़े थे ।

उस दिन से दस दिन बीत चुके हैं, लेकिन कल तक तुलसा ने भगोरिया के बारे में कोई चर्चा नही की, अन्यथा खरे साहब उसकी बेटी और उस युवक की बात जरूर करते ।
आज तुलसा ने इस लहजे में अपनी छोकरी के भागने की बात सुनाई है  जैसे उसे ना तो बेटी के भागने का कोई बिस्मय है, ना इस बात से इज्जत चले जाने का कोई दुःख।
दफ्तर जाते वक्त वे निश्चिंत थे ।


सांझ को घर लौटे तो सोनल अटैची लगा रही थी । उन्हे आश्चर्य हुआ, ‘ क्या हुआ ? कहाँ जाने की तैयारी है?’
‘ घर जा रही हूँ। बाबूजी अस्पताल में एडमिट हैं, उन्हे हार्ट-अटैक हुआ है ।’
वे चिंतित हुए, ‘कोई खास बात !’
इधर-उधर देखा सोनल ने फिर धीमे से बताया ,‘ कल रात से मीनल घर नहीं लौटी है ।’
‘ऐं...........!’
‘ हाँं, कॉलेज के अपने एक दोस्त के साथ भाग गई है कहीं ।’
‘ आज के जमाने में ऐसा तो कभी भी किसी के साथ हो सकता है, इसमें ऐसी कौन सी बात है कि बाबूजी को  हार्ट अटैक हो जाय।’ तुलसा का दर्शन बोल उठा था खरे साहब के भीतर के जाने किस कोने से ।
‘ हाय मम्मी !’ सोनल हैरानी से उन्हे देख रही थी, ‘ इतनी बड़ी बात को आप ऐसे हलके से ले रहे हैं, और कहते हैं कि एसी बड़ी बात कया है । उधर मेरे मम्मी-पापा अपनी बेटी के गम में हलाकान हैं और आप...’
सचमुच रो उठी थी सोनल ।
सकपकाते वे खड़े रहे थे कुछ देर, फिर सोनल को संभाला किसी तरह ।
अंततः सोनल को लेकर खुद जाना पड़ा उन्हे ससुराल ।
वहाँ पहुंच कर पता लगा कि मीनल जाते वक्त एक खत छोड़ गई्र है जिसमें उसने मम्मी को लिखा है कि  वह बालिग है और पूरी तरह से  सोच समझ कर घर छोड़ रही है क्योंकि घर रहेगी तो पिताजी उसकी शादी कभी उस के साथ नहीं करेंगे, जिसके साथ वो अभी जाकर शादी करने वाली है।
सांप निकल चुका था, लाठी पीटना बाकी था अब तो । लेकिन खरे साहब मजबूर थे, उन्हे दो दिन रूकना पड़ा । अस्पताल में ससुर साहब बिलकुल चुप्पी साधे लेटे थे और सास का तो रो रो कर बुरा हाल था । घर में दो ही बेटियां तो थीं रिटायर प्रोफेसर प्रभुदयाल जी की जिनमें से छोटी ने थू-थू करा दी उनकी नजर में। खरे साहब दो दिन में कुछ बोले नहीं सिर्फ सासु माँ के प्रवचन यानी मीनल के प्रति कड़वे वचन सुनते रहे।
 दूसरे दिन सांझ को तब जब प्रोफेसर अस्पताल में थे घर पर पंचायत जुटी । सोनल-मीनल के मामा आये थे और बेहद खफा थे मीनल पर, उधर  माँ भी अपने सर्वार्धिक कुद्ध रूप में थी । बिरादरी के अध्यक्ष भी आये थे और घर के कानूनी सलाहकार भी । वकील ने मीनल की बी0 ए0 की अंकसूची देखकर बताया कि  वह सचमुच बालिग है और उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही संभव नही है। हाँ उसके खिलाफ चोरी का मामला बनाया जा  सकता है यह कह कर  िक  वह घर से जेवर और नगदी रूपया लेकर भागी है। माँ तो इसके लिए भी तैयार थीं, पर मामा तैयार नहीे थे, वे तो लाठी लेकर उस लौण्डे को सबक सिखाने का तत्पर थे, जिसके लिए वकील ने सीधी भाषा में मना कर दिया उन्हे। बिरादरी के अध्यक्ष ने भी कुछ करने से हाथ उठा दिये क्योंकि जिस लड़के के साथ मीनल भागी थी वह उन्ही की जाति का होने के बावजूद गुण्डा किस्म का था, अगर कुछ किया जाता तो अध्यक्ष को भी किसी मामले में फंस जाने का डर सता उठा था । परिणाम यह हुआ कि वह पंचायत बिना परिणाम के ही समाप्त हो गर्इ्र ।
सोनल और खरे साहब ने रात को घर लौटने का निर्णय लिया , घर पर बच्चे अकेले जो थे ।
चलते-चलते खरे साहब ने सास से पूछा, ‘ आपको उस लड़के के घर का पता मालूम हो तो मैं मिल कर आता हूँं ।... ना हो तो अपन लोग खुशी-खुशी उसी लड़के के साथ.....!’
‘ कतई नहीं’ लगभग चीखती हुई सोनल की माँ बोली थीं ‘ उस कुलच्छिनीको मरा मान लो आप सब । इस घर से सारे रिश्ते खतम उसके ।’
वे सहम गये थे ।
       टेªन में सोनल खोई-खोई सी रही ।

लग रहा था कि सब जगह लड़कियां भाग रहीं थीं इन दिनों, अगले दिन दफ्तर में पता चला कि कलेक्टर साहब की बहन किसी कुंवारे डिप्टी कलेक्टर के साथ भाग निकली है । औपचारिकता में सांत्वना हेतु खरे साहब कलेक्टर के बंगले पर पहुंचे तो वहाँ का माहौल बहुत गमगीन नहीं लगा उन्हे । भीतर से लौटते स्टेनो-टू-कलेक्टर से पूछा तो दबे स्वर में बोला वह, ‘साहब ने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया है। कल वे लोग लौट रहे हैं और लौटते ही बाकायदा ब्याह किया जा रहा है उनका। कल दावत है ऑफीसर क्लब में, आपका नाम भी आमंत्रितों में सम्मिलित है ।’
‘ऐं..........’ चोंके वे ‘ सुना है कलेक्टर साहब की विरादरी का नहीं है वो डिप्टी कलेक्टर !’
हँसा स्टेनो, ‘ इन अफसरों की काहे की बिरादरी खरे साहब!  हो सकता है कल वही लड़का आय.ए.एस. में सिलेक्ट हो जाय , नहीं तो बारह साल बाद आय. ए. एस. एबार्ड तो हो ही जायगी उसे । इससे बड़ी कौन सी बिरादरी होती है ?’
खरे साहब मुंह बाये उसे ताकते ही रह गये और सीधे घर लौट आये ।

अगले दिन ऑफिस के लिए बाहर निकले ही थे कि लॉन में काम करता तुलसा अचानक उनके सामने हाजिर था, ‘ साहब मामला निपट गया सब । लड़के के बाप ने डण्ड भरने का वायदा किया है । हम लोगों की आपसी तकरार खत्म हो गई । रूपया मिलते ही धूमधाम से ब्याह करूंगा उसी लड़के के साथ अपनी छोरी का ।’
‘ऐं.........!’ वे फिर से चकित थे ।
‘ हाँ साब,’ कहता प्रमुदित तुलसा खुरपी-तसला उठा कर दूब खोदने में जुट गया था ।

ऑफिस में अपनी टेबल पर बैठकर खरे साहब काम करने के पहले यह तय करने का प्रयास कर रहे थे कि किस सोसायटी को सही मानें वे, अपने ससुर की , तुलसा की या फिर कलेक्टर साहब की !
सहसा वे चेते ।
तुलसा और उसके समाज का जीवनदर्शन बेहद शानदार लगा उन्हे । जिस पर विचार करते हुए एकाएक उन्हे लगा कि तुलसा ने उनके चिन्तन को कितना विस्तृत आयाम दिया है, दृष्टि ही बदल डाली है ऐसी घटनाओं को देखने की । क्या फर्क है तुलसा और बड़े लोगों में, एक से हैं वे, लेकिन खुद की सोसायटी कहाँ है उन दोनों के सामने ? वे तर्क-वितर्क की भूलभुलैया में फंसते जा रहे थे।
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प्रतिक्रियाएँ

[28/03 11:14] राजेश झरपुरे जी: आदिवासियों  के बसंतोत्सव में  साप्ताहिक हाट के दिन भगोरिया  मेले तथा आदिवासी  संस्कृति का अच्छा  चित्र  प्रस्तुत किया गया है। बड़ी  होती बेटियों  से माता पिता की बड़ी  होती चिन्ता को बेटियों  के पिता भलीभाँति  महसूस  कर सकते है । खरे साहब का आधुनिक ब्याह रीतियों में  आदिवासी  सभ्यता  और संस्कृति की अच्छाइयों  को स्वीकार किया जाना कहानी  का सुखद अन्त लगा ।
आद0 बोहरे जी को बधाई ।

।। राजेश  झरपुरे  ।।
[28/03 12:59] Pravesh soni: धन्यवाद राजेश जी ।
आँचलिक संस्कृति की छवि और माता पिता के लिए बड़ी होती बेटी की चिंता ....कोई भी वर्ग हो एक समान ही रहती है यह चिंता ।
"चलन " कहानी का शीर्षक इस बात को सिद्ध करता है की हम किस तरह से सामाजिक पटल पर  अपने साथ घटित घटनाओं को मोल्ड करके स्थापित कर देते है  ताकि हमारी थोथी सामाजिकता बची रहे ।यह हर वर्ग में समान अर्थ के साथ निर्वाह होता है ।
एक अच्छी कहानी के लिए राज बोहरे जी को शुभकामनाएं ।

🙏
[28/03 13:22] Kavita Varma: राज बोहरे जी की अच्छी कहानी । सही है कई बार हम पढ़े लिखे सभ्य लोगों से ज्यादा विस्तृत और उदार नजरिया होता है आदिवासियों का । संदेशपरक कहानी । बधाई राज जी।
[28/03 13:45] Alka Trivedi: समाज के विभिन्न नियम कायदे मात्र मध्यम वर्ग के लिए ही होते हैं ।अच्छी कहानी इसी परिदृश्य में
[28/03 17:26] Aasha Pande Manch: बोहरे जी ने कहानी के माध्यम से समाज को एक संदेश दिया है.बडी़ होती बेटी की चिन्ता स्वाभाविक है,पर मान अपमान में उलझ कर उसके सपनो का गला घोटना अनुचित है.दलील दी जाती है कि भावावेश में  लड़कियों का चयन सही नहीं हो पाता.पर मां बाप द्वारा खोजी गई शादियां भी  तो असफल होती है.
[28/03 17:57] Rachana Groaver: owner killing पर बढ़िया कहानी
[28/03 18:14] Saksena Madhu: बोहरे जी कहानी में जिस भगोरिया मेले का ज़िक्र है वो निमाड़ यानी खरगोन जिले के आदिवासियों का है ।ऐसा ही छतीसगढ़ में मड़ई होता है जिसमे लड़का लड़की एक दूसरे को विवाह के लिए पसन्द करते है...वहां के लोग इसे जीवन की कला सिखाने की कार्यशाला भी कहते हैं ।
यूँ तो विवाह एक जुआ है ...सफलता भविष्य पर निर्भर है पर आदिवासी समाज चुनाव की स्वतन्त्रता लड़के  और लड़की को देते हैं ।उच्च वर्ग भी सहमति देते हैं पर मध्यम वर्ग अपनी सामाजिकता में सबसे ज्यादा बंधे होते है ।अधिकतर देखा गया है की रो पीट कर अंततः वे भी इन सम्बंधों को स्वीकार कर ही लेते हैं ।बोहरे जी ने यही आदिवासी ,उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग की तुलना हमारे सामने कहानी के माध्यम से रखी और हमेशा की तरह पाठक से भी सोचने और निर्णय लेने की मेहनत करवा ही ली ।थोड़ा सा इशारा समर्थन का जरूर किया आदिवासी रिवाज का ... पर निर्णय पाठक पर ही ।कहानी ,चिंतन मनन की एक दिशा देती है जो हमारे आसपास घट रहा । भाषा सहज और सरल ।यूँ लगता है आसपास की कोई बात कर रहे हैं ।अच्छी कहानी के लिए बोहरे जी को बधाई ।आभार राजेश जी और प्रवेश ।
[28/03 18:44] Padma Ji: अभी देखा बोहरे जी चलन कहानी मंच पर है। ये कहानी पत्रिका में (शायद समकालीन साहित्य में) प्रकाशित हुई थी तब भी  बहुत चर्चित रही थी। भगोरिया मेला जगत प्रसिद्ध है जो आदिवासियों का बसंत उत्सव होता है। कहानी में युवा होती लड़कियों के प्रति माँ पिता की चिंता वाजिब है। कहानी में तीन लड़कियों के भागने का जिक्र है 1 तुलसा की बेटी, 2 मीनल और 3 कलेक्टर साहब की बहन। बोहरे जी ने खूब होमवर्क किया है। आदिवासियों की वेशभूषा, उनके गीत और रीतिरिवाज सभी का चित्रात्मक वर्णन किया है। बहुत अच्छी कहानी के लिए बोहरे जी को बधाई। राजेश जी को धन्यवाद।
[28/03 19:17] Mukta Shreewastav: आदिवासी जीवन का अच्छा चित्रण किया है.भगोरिया मेला का जिक्र अच्छा लगा.दोनों वर्गों की बात अलग तरह से की गई है.
मुझे सचमुच में यह कहानी बहुत पसंद आई.समूह में होने का अच्छा लाभ मिल रहा है...धन्यवाद
[28/03 20:38] Rajnarayan Bohare: सिर्फ इतना कि पत्रिका थी समकालीन भारतीय साहित्य

बाकी
रचना तो सबकी होती है।अब मेरी कहाँ बची वो।उपलब्धि या यश मिलेगा तो कहानी खुद अपना स्थान औरख्याति पाएगी।
[28/03 21:03] ‪+91 98260 44741‬: बहुत ही बढ़िया कहानी। ताज़गी भरा विषय। अलग- अलग तबके के लोगों की एक ही स्थिति पर  भिन्न सोच को बहुत ही सहज और प्रभावशाली तरीके से दर्शाया है। अंत तक कहानी अपने साथ बांधे रखती है। आदिवासियों में प्रचलित एक अलग ही प्रथा से भी परिचय हुआ। बधाई लेखक को।🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼😊😊

आभार मंच।🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼😊😊
[28/03 21:29] Manish Vaidhy: चलन प्रकारांतर से बड़ी बात कहती हुई कहानी। बहुत अच्छी लगी।दरअसल आदिवासी समाज को हम लोग न जाने किस पूर्वाग्रह और थोथी ठसक से अपढ़ या कम पढ़ा लिखा मान कर सोचते हैं कि वे पिछड़े हैं पर कई बार मुझे लगता है कि उनके समाज की सभ्यता और उनके संस्कार कितने उदार और उदात्त हैं। हमें यानी आज के समाज को इनसे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।बात भगोरिया की हो, हलमा की हो या इनके पारम्परिक ज्ञान की। मुझे इनकी जोड़ की कोई ऐसी परम्परा हमारे तथाकथित सभ्य समाज में नजर नहीं आती। एक और बात है -- यह ऐसा उन्नत समाज है जहाँ दहेज की जगह वधु मूल्य चुकाना पड़ता है लड़के वालों को। खैर यह तो कहानी से इतर विषय है। मूल बात है आज की कहानी चलन। यह कहानी बहुत सधे हुए अंदाज़ में आगे बढ़ती है और लड़कियों के प्रेम प्रसंगों से आगे बढ़ती बड़ी शिद्दत से हमारे और आदिवासी समाज के सरोकारों और संस्कारों के चलन की तुलना करती हुई अंततः इस निष्कर्ष पर पंहुचती है। कहानी का दृश्य विधान इसकी ताकत है। कहीं - कहीं तो लगता है हम इसके साथ बह रहे हैं।बोहरे जी यहाँ दृश्य खड़े करने में सफल हुए हैं। उनके पास कहन की एक समृद्ध भाषा है और अंतर्दृष्टि भी। इस उम्दा कहानी के लिए उन्हें बधाई।मंच पर इसे प्रस्तुत कर पढ़वाने के लिए राजेश भाई का शुक्रिया

Friday, March 25, 2016


तक़सीम



प्रज्ञा 




ये शहर भी अजीब हैं न अनोखे? लाख गाली दे दिया करें रोज मैं और तू इन्हें पर इनके बिना तेरे-मेरे जैसों का कोई गुजारा है बोल? कितने साल बीत गए हम दोनों को यहां आए। अब तो ये ही दूसरा घर बन गया है हमारा। हम रहते यहीं हैं, कमाते-खाते यहीं, यारी-दोस्तियां भी अब तो यहीं हैं बस एक परिवार ही तो गांव में हैं। याद है न तुझे शुरू-शुरू में मन कैसा तड़पता था कि थोड़े पैसे जोड़ें और भाग लें अपने गांव। कुछ भी न सुहाता था मुझे तो यहां का। आज से कई साल पहले जब आया था तो कुंवारा था। होगा कोई सोलेह-सत्रह का। बस पूछ न ऐसा लगता था कि कोई रेला बह रहा हो शहर में। रेला भी कैसा कि बस सब एक-दूसरे को बिना पहचाने भागे जा रहे हों। हर समय अम्मी का चेहरा याद आया करता और खाने के नाम पे रूलाई छूट जाती। एक कमरे में चार-पांच हम लड़के। न कायदे का बिछौना, न खाना। पांच लोगों के कपड़ों-बर्तनों से ठुंसा एक जरा-सा कमरा। मजबूरी जो न कराए थोड़ा। गंदी- सी बस्ती, बजबजाती नालियां। अब तो फिर भी मोटर की सुविधा हो गयी है नहीं तो पहले दो-एक नल। बस... वहीं नहाना, पानी भरना। मार तमाम गंदगी और शोर-शराबा, आए दिन के लड़ाई -झगड़े।’’

‘‘ तो अब क्या सब खत्म हो गया है? गंदगी के साथ लड़ाई-झगड़े तो और बढ़े हैं बस्ती में। मर्द-लुगाई कुत्तों की तरह लड़ते हैं यहां। कौन से हीरा-मोती जड़े हैं जो सब चिपके हैं यहां से?’’

जमील को अनोखे की आवाज सुनाई ही नहीं पड़ रही थी बस होंठ हिलते दीख रहे थे। उसका मन अतीत के गलियारे में जो एक बार दाखिल हुआ तो समय आज से पीछे न जाने कितने वर्षों की यादों में खोने लगा।

‘‘मुझे नहीं जाना शहर अम्मा। यहीं फेरी लगा लूंगा मैं भी अब्बा की तरह। मना कर दे तू उनसे। पहले भी खालू के काम में क्या-क्या न सुनने को मिला था, भूल गई तू।’’

‘‘ न जमील, मेरे बस की नहीं है उनको समझाना। समझदार होके कैसी बातेें करता है तू। देखता नहीं यहां क्या कमाई है। जिनके पास मौके की जमीने थीं वो सब हाईबे निकलने से अच्छे दाम कमाकर शहर चले गए। उनके रहते काम-धंधा ठीक चलता भी था अब फेरी के काम में वो बात कहां रही? कोई दिन ठीक बीत भी गया तो कई दिन के फाके। फिर कोई जमीन है नहीं हमारे पास जो जोते-बोएं, कमाएं-खाएं। जानता नहीं है रे तू हारी-बीमारी, ब्याह-शादी जीवन के सब तौर-तरीके निभाने पड़ते हैं। इस कमाई में दो पैसे बचाना तो दूर खाना मिल जाए बड़ी बात।... नहीं आज नहीं तो कल तुझे जाना ही पड़ेगा। मैं कुछ न कहूंगी उनसे।’’

उत्तर-प्रदेश में खतौली के पास छोटे से गांव का रहने वाला था जमील। न पढ़ा-लिखा और न ही जमीन-जायदाद वाला। उसे तो मुफलिसी में बीता बचपन भी बड़ा शानदार लगता। दिल में उमंग और दिमाग में अब्बा की जेब की राई-रत्ती चिंता नहीं। सारा दिन घुमक्कड़ी,पोखर में डुबकियां और खेल-कूद। जरा बड़ा हुआ तो अब्बा के साथ फेरी पर जाना और वहां भी मस्ती। घरों से निकले पुराने कूड़े-कबाड़ से उनके दिन जगमगाए रहते। पुराने कपड़े, जूते, बर्तन,कागज, खाट की पैबंद लग-लग कर घिस चुकी निवाड़ें, लोहा-लक्कड़ उठाने, बोरों में भरने में अब्बा की मदद करता था जमील। उन्हें बिकवाने कस्बे में जाता और फिर वहां से आकर अपनी पुलिया पर। बड़ा होते ही ये पुलिया उसका स्वर्ग हो गयी थी जहां अशरफ, युसुफ, उमेश और रामफल के साथ उसकी महफिल जमती। दुनिया भर की गप्पें, हंसी-ठठ्ठे,मन के छिपे राज की साझेदारी, साथ जवान हो रही लड़कियों के किस्से-कल्पनाएं और सुनहरे जीवन के सपने। घंटों-घंटों ये पुलिया उनके सपनों से आबाद रहती। आपस में लड़ते भी थे पर जल्दी सुलह भी हो जाती।
: इस बार अम्मा-अब्बा पूरा मन बना चुके थे जमील को शहर भेजने का। बस रहमत चाचा का आना बाकी था इस बार जैसे ही आएं जमील उनके हवाले। अम्मा के मायके के रहमत चाचा कई बरसों  से दिल्ली में बसे हुए थे। उनके आने में अभी समय था। इधर कुछ समय से गांव में अजीब-सी हरकत दिखाई दे रही थी। अचानक गोधरा-गुजरात का शोर बढ़ रहा था। ठीक वैसे ही जैसे कई साल पहले मचा था। तब राम मंदिर बनना था और राममंदिर बनाने की जमीन के लिए बाबरी मस्जिद तोड़ी जानी थी। हिंदुओं ने एक रूपया-एर्क इंट की फरमाईश कर दी थी गांव भर में। कार-सेवा के लिए चंदे और लोग मांगे जाने लगे थे। गांव के कितने किशोर उस रेले में शामिल हुए उस दफा। इस बार शोर वैसा ही था और माहौल में सनसनी फैली थी।

‘‘ बदला तो हम लेके रहेंगे। छोड़ेगें नहीं। समझ क्या रखा है?’’- उमेश का स्वर बड़े दृढ़ निश्चय के साथ निकला।
अखबार और टी.वी. की खबरें गांव भर में फैल चुकी थीं। खबरों पर सवार जलजला गांव में दाखिल हो गया। गांव में हिंदू-मुसलमानों की संख्या बराबर थी पर देश में किसका पलड़ा भारी है हर कोई जानता था और इसी बीच हिंदू नौजवानों को अपना देश और अपना धर्म बचाने के रास्ते पर डाल दिया गया था। इनमें से कई भटके नौजवान अपने बचपन के दोस्तों से देश में रहने और देशभक्ति की कीमत अदा करने की बात करने लगे। उस दिन जमील, युसुफ से भी उमेश इसी हक से बात कर रहा था। पुलिया पर बैठना मिनट-मिनट भारी हो जमील और युसुफ के लिए। एक काला सन्नाटा तारी था वहां। उस सन्नाटे में वीर पुरूष की तरह प्रकाशवान था उमेश, रामफल परेशान था और जमील-युसुफ अकारण ही कठघरे में खड़े कर दिए गए थे। ये प्रकाश अंधेरे को भयभीत कर, और स्याह कर रहा था। उस दिन तो रामफल ने किसी तरह किस्सा निबटवाया पर उमेश की ठसक बरकरार थी। आज सुलह का रास्ता नदारद था।

घर लौटते समय  जमील ने महसूस किया कि आतंक का साया उसके पीछे चला आया है। घर पहुंचा तो खालू और खाला आए हुए थे। खाला ने उसे देखते ही गले लगाकर माथा चूमा, शमशेर खालू की दबंग आवाज में किस्से जारी थे  खालू जबरदस्त किस्सागो थे और गांव से जाने के बाद भी उनका रसूख आज भी यहां कायम था। गांव के बड़े-बूढे़ बड़ा मान देते थे उनको। शमशेर जहांगीराबाद चला गया था अपने परिवार के साथ। उसका बढ़ईगिरी का धंधा जम गया था वहां। पहले कारीगर था अब तो सालों बाद छोटे-मोटे ठेके मिलने शुरू हो गए थे। एक बार जमील को भी ले गया था अपने संग पर उससे तो आरी ही न सधी। रोज़ साथ काम पर ले जाता शमशेर उसे। जमील को बिठा भी देता। जमील उठाई-धराई के काम तो कर देता पर लकड़ी न चिरती उससे। मालिक जब उसे ठलुआ देखता तो उसका भी पारा चढ़ता। हिकारत की नज़र ही नहीं हिकारत के शब्द भी जब मुक्त हो गए तो जमील का दाना-पानी उठ गया वहां से। इस काम में मन नहीं लगा जमील का।

खाने के बाद खालू ने भी बाबरी मस्जिद के समय की बात उठा दी।
‘‘वोट की राजनीति में अब तक पीसे जा रहे हैं भईया। मुसलमान होने का कर्ज चुकाओ और चुप रहो-यही तो सिखाया जा रहा है न। हम कुछ न बोलें तो देशभगत और बोलें तो पाकिस्तानी। कौन है यहां पाकिस्तान का जरा बताओ? हमारे-तुम्हारे बाप-दादा तो इसी मिट्टी के रहे और बोलो हम-तुमने कभी देखा है पाकिस्तान? कभी जाने की सोची है वहां? ’’ खाट पर औंधे लेटे खालू अब्बा से बोले।

‘‘ और मस्जिद तो अल्ला का घर ठहरा फिर उसे क्यों तोड़ा था उन्होंने? सैंतालीस के तक्सीम किए आज भी अलग ही पड़े हैं हम।’’ अब्बा के सवाल में छिपे डर को पहली बार महसूस किया जमील ने। पर तक्सीम की बात जमील को कुछ ज्यादा समझ में नहीं आई। वह सोचने लगा ‘‘सन सैंतालीस.... कित्ते बरस हो गए होंगे चालीस-पचास या उससे ज्यादा पर तक्सीम.... बंटवारा...?
... और आज...आज क्यों तक्सीम की बात कर रहे हैं अब्बा? उमेश की आज की बात से पहले तो मुझे रामफल और उमेश अपने से अलग न लगते थे  मुझे क्यों नही दिखा ये बंटवारा?’’

‘‘हक की लड़ाई है भाई! वरना हमारे गांव की मजार पर हिंदू मन्नत नहीं मांगते। धूप-अगरबत्ती न जलाते? बाबरी के बाद भी। इतने सालों में हुआ यहां कोई झगड़ा तुम्हारे देखे? और वहां जहांगीराबाद का ही सुन लो न जबसे गया हूं सब ठीक ही चल रहा था कोई झगड़ा न था धर्म के नाम पर। बाबरी मस्जिद के समय की बात है कुछ बाहरी लोगों ने हिंदू-मुस्लिम के नाम पर भड़का दिया। अब जान लो कि ये सदियों का नाजुक मामला ठहरा और सदियों से भड़कते आए लोग फिर भड़क गए। दोनों भूल गए बरसों पुराने अपने रिश्तों को और मार-पीट पर उतारू हो गए। जवान लड़के जिनके न कोई काम न धंधा गुटबाजी में लग गए और भड़काने वाले न इधर कम थे न ही उधर। दोनों तरफ हथियारों की होड़ मचनी शुरू हो गयी। इन जवानों के मन में भड़की आग देखके परधान को लगा कि अनर्थ हो जाएगा। दंगा हो गया तो घरों के चिराग बुझकर मातम में बदल जाएंगें। अरे बड़े तरीके से संभाला भइया उसने तो। मार-काट का अंदेशा होने पर उसने कही कि ‘जब लड़के ही फैसला करना है तो लड़ो पर खबरदार कोई बाहर का आदमी न लड़ेगा। आज जाओ सारे गांव वाले, शाम को मैदान में अब लड़कर ही फैसला ले लो।’’

 शमशेर की बात को सब दम साधकर सुन रहे थे। जमील के मन में वैसी ही उथल-पुथल मच रही थी जैसे उस दिन गांव भर के लोगों में मची होगी। उस दिन शाम तक कितने घर झंझावातों से हिल गए होंगे? कितनी खलबली, कितनी तैयारियां और फिर जीता कौन? जमील का मन निचावला न था, उसकी आंखों से ‘फिर क्या’ का इशारा पाकर शमशेर ने सांस खींचकर दोबारा कहानी का सिरा आगे बढ़ाया-‘‘ तो भइया हुआ ये कि जहां शाम को मार-काट की बन आई थी हुआ एकदम उलटा ही। मांओं-बापों ने मुसीबत समझ कर धमका दिए अपने लाडले। बड़ों ने समझदारी दिखाई जनम-मरण के बरसों पुराने साथ ने सबको चेता दिया और फिर हाय-हत्या से उजड़ जाने वाले सबके काम-धंधों पर मंडलाता खतरा नहीं था क्या? और लो शाम को चिड़िया का बच्चा तक न फटका मैदान में। परधान की बात का ऐसा असर पड़ा कि सबके होश ठिकाने आ गए। आखिर कौन चाहता है बेबात की लड़ाई। रोज हिंदुओं को हमसे काम पड़ता है और हमारा उनके बिना गुजारा नहीं। इत्ती पुरानी दोस्तियां और लेन-देन ठहरा। जानते हो जब काम से दिल्ली जाता था बड़े ठेकों के लिए तो कितने पंडत दोस्त शहर आते और फरमाईश से मीट-मुर्गा पकवाते। झककर खाते थे सब। बस जहांगीराबाद में तो उस दिन सब कुशल की अल्ला और राम ने। अब फिर ये नई मुसीबत है गोधरा की।’’
आखिरी बात को अनसुना करते हुए जमील के मन को अपार संतोष मिला। ऐसा हौसला जागा कि अभी जाए उमेश के घर जाए बताए उसे पूरी कहानी। उसका मन को जहां राहत मिली थी  उसने महसूस किया कि अब्बा पहले से तो जरूर कुछ ठीक लग रहे हैं पर उनकी चिंता मिटी न थी अब तक।

अगले दिन पता चला कि उमेश कई और लड़कों के संग गायब है। रामफल ने बताया उस पर भी संग चलने का बड़ा दबाव था लेकिन रामफल पर घर की सैंकड़ों जिम्मेदारियां थीं तो उसने बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई । गांव में यों तो सब शांत दिखता था पर धरम की बातें खुलकर नहीं होती थीं अब। पहले की तरह। एक बिना लड़ी लड़ाई चल रही थी जो ज्यादा खतरनाक थी। एक भारी-जानलेवा सा माहौल। इन दिनों पुलिया भी जमील को न सुहाती। उमेश था नहीं और युसुफ और रामफल के काम अचानक ही अधिक बढ़ गए थे। यों तो जमील पहले भी पुलिया पर कई बार एकांत का सुख उठा चुका था पर अब वह एकांत डराता और हौआ- सा खड़ा करता । इस बीच उमेश लौट आया और दिन-दिन भर हिंदू धर्म की महागाथाओं के किस्से सुनाया करता । साफ पता चल रहा था कि किसी बड़े हिंदू जलसे में शामिल होकर लौटा है। अपने धरम की जयजयकार और बाकी सब को दुत्कार रहा है। जमील जैसों के लिए गहरी नफरत और हिंसा उसकी आंखों में ऐसे ही नहीं उग आई थी। आज कौन कह सकता था कि ये जिगरी दोस्त थे कभी? उससे आमना-सामना होने से जमील भी कतराने लगा अब तो। कहीं मन न लगता था। युसुफ से भी एक दिन अच्छी कहा-सुनी हो गयी उसकी।

‘‘ अरे चल न मेरे संग। जब ये लोग अपना धरम बचाने को कूद रहे हैं तो हमें भी एक होना होगा न। जब मार-काट, आगजनी के इल्जाम धरे ही जा रहे हैं हम पर तो पूरा करके ही दिखा देते हैं... चल न... जाकिर भाई बहुत सच्ची बातें बोलते हैं । आखिर को सगे हैं हमारे। चल बुलाया है उन्होंने। ’’

युसुफ के शब्दों से आग लग गई जमील को। जाकिर के मन में भरे जहर से वो वाकिफ था फिर जाकिर यों भी उसे पसंद न था। मुसलमान लड़कों को घेरकर अल्ला के नाम पर उनका लीडर बना रहता था जाकिर। जमील ने युसुफ को समझाने की को़शिश की पर बात-बात में मामला बिगड़ गया। जमील की मर्दानगी को चुनौती देता युसुफ अपनी राह चला गया। रोज ही एक उदास सुबह से शुरू हुआ जमील का दिन निराश रात में बीतने लगा। जहां से जाने की कल्पना उसमें अजीब सी सिरहन भर देती थी आज वो इस जगह से भाग जाने की सोचने लगा। और फिर सब कुछ भांपकर मां-बाप ने उसे रहमत के हवाले कर दिया। रहमत उसे दिल्ली ले आया।

‘‘देखो बेटा अब जो भी है यही सच है कि तुम अब तरीके से कमाने की सोचो। मां-बाप का सहारा बनो। रहने-ठहरने की थोड़ी बहुत रकम दी है तुम्हारे अब्बा ने पर खुद न कमाओगे तो खाओगे क्या और घर क्या भेजोगे? कमरे का इंतजाम कर देंगे। कई जन साथ रहेंगे। मिलजुल के रहते हैं यहां तो तुम भी रहो। फेरी के काम में मन लगता है न तुम्हारा तो एक जगह बात कर ली है। कल लिवा ले चलेंगे। अपना काम समझो और करो। कोई परेशानी होगी तो हम हैं ही यहां।’’

नई जगह को अभी समझ नहीं पाया था जमील पर जिम्मेदारी समझ आ गई थी। यों जीवन से बहुत बड़ी उम्मीदें तो नहीं थीं उसकी। हां रहे थे कुछ सपने जो पुलिया पर बैठे बड़े रंगीन और शानदार लगते थे। पर अब न तो पुलिया रही न पुलिया के सपने। पुलिया की हवाई कल्पनाओं के बरक्स आज कई ठोस हकीकतें जमील के आगे थीं जिनका सामना उसे अब अकेले ही करना था।

‘‘ रद्दी..ई.ई..पेपर’’ की आवाज से गलियों-गलियों घबराता सा घूमने वाला जमील थोड़े ही दिन में सब ठिकानों का आदि हो गया। घरों, मोहल्लों की उसे सही पहचान हो गयी थी। भाव-तौल का पक्का, देखने-सुनने में अच्छा और फालतू किसी से बोलना नहीं। गंदी बस्ती में रहने के बाद भी साफ-सुथरा बनके रहता। यों रोज नहाने की आदत तो उसकी बचपन से ही थी। यार-दोस्त छेड़ते-‘‘अरे पिछले जनम में बामन रहा होगा तू?’’ रद्दी बेचने के ठिए भी उसने जल्दी ही जान लिए। रोज के सामान को रोज ही ठिकाने लगाने का नियम बना लिया था उसने। कुछ बरसों में काम जमा लिया जमील ने। अब पैदल नहीं एक साइकिल थी साथ में और हाथ में एक घड़ी भी। शहर की हवा उसे भी छू रही थी। जमील को ये छुअन भली लगती पर हवा में बहना उसे पसंद न था। शहर की अपनी छूट भी थी कि किसी को उसके धरम से कुछ लेना न था, सबको अपने काम से मतलब। संगी-साथियों का भी धर्म मजदूरी था और जात दिहाड़ी मजदूर थी। अपने-अपने घरों से उखड़कर अब सबने अपने ये जो छोटे-छोटे घर बना लिए थे तो सब होली-ईद मिलकर मनाते थे। हां धरम के नाम पर एक-दूसरे का खुलकर मजाक उड़ाते और पूजा-पाठ का अगर समय निकलता तो वो भी कर लिया करते।

‘‘अबे पहली शादी कब कर रहा है तू?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘पहली करेगा तभी तो तीन और कर पाएगा न यार। तुम्हारे में तो खुल्ली छूट है।’’

‘‘ साले इस कमाई में एक को पाल लूं तू चार की बात करता है। हमने तो नहीं देखी अपने यहां किसी की चार शादी । तूने देखी है क्या? ’’ मजा लेने के लिए यों सब हंस लेते ।


अचानक एक दिन मोहल्ले की शांत- सी जिंदगी में हलचल मच गई। रात ही रात में किसी ने कोठियों के आगे खड़ी दो बड़ी गाड़ियों के टायर और एक का स्टीरियो निकाल लिया। डाॅ. यादव की गाड़ी तो एकदम नई थी तो गुप्ता जी की गाड़ी भी चंद साल पुरानी थी पर टायर अभी बदले गए थे। सुबह से ही पुलिस की गाड़ियां खड़ी थीं और पूछताछ चल रही थी। ड्यूटी पर तैनात एक गार्ड भी आज गायब था।

‘‘ एक दिन में नहीं हो सकता ये कारनामा साहब। बड़े दिनों की प्लैनिंग है।’’ घटनास्थल पर मौजूद लोग आपस में बतिया रहे थे।

‘‘ गलती आप सबकी है। मैं कितनी बार कहा पर आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया। कभी रात ही रात में नालियों पर ढके, ढक्कन गायब हो रहे हैं। कभी एक-एक करके बच्चों की मंहगी वाली साइकिलें। पर किसी ने परवाह की? बैठे रहो जब तक आग आपके घर को नहीं लगती। पर फिर ये शिकायत न करना कि कोई नहीं आया मदद को। हम क्या पागल हैं कि आज जब कोई हमारा साथ नहीं दे रहा तो हम कल उसके साथ खड़े होंगे ?’’ गुस्से में गुप्ता जी क्या बोले जा रहे थे उन्हें होश नहीं था ।

सारे लोगों को कठघरे में खड़ा कर दिया था गुप्ता जी ने और लोगों पर भी अब नैतिक जिम्मेदारी आ गई थी । लोग कुछ कर तो सकते नहीं थे पर अपनी बातों से गुप्ता जी और डाॅ. साहब को ढाढस तो बंधा ही सकते थे। और सबसे बड़ी बात लोग इस समय अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ खड़ा दिखाई देना चाहते थे। चोरी की इस वारदात ने सबको सचेत कर दिया था। सबको अगला नम्बर अपनी ही गाड़ी का आया लगने लगा।

‘‘काम तो उसीका है जिसने यहां घरों को बड़े ढंग से आॅब्ज़र्व किया है। और ये बात भी पक्की है कि गार्ड ने उसकी मदद की है।’’ लोगों ने दोनों की परेशानी को अपनी परेशानी मानकर बोलना शुरू किया।

‘‘आज गाड़ी पर हाथ साफ किया है, कल घरों पर करेंगे देख लेना। ’’  लोगों के तनाव और बेचैनी के साथ मुहल्ले में आमदरफ्त भी बढ़ गई थी। रोज के काम तो आखिर अपनी ही गति से चलने थे। पुलिस तफ्तीश अभी जारी थी। मोहल्ले में काम करने वाली महरियों से लेकर दूध, सब्जी वाले, घरों में चिनाई-पुताई करने वाले मजदूरों के संग ‘रद्दी पेपर’ की हांक लगाता जमील भी रोज की तरह समय पर आ गया। भीड़-भाड़ देखकर सब जानने के लिए वह भी भीड़ का हिस्सा बन गया। डाॅ. साहब के रसूख और पुलिस महकमे में खासी जान-पहचान से इनक्वायरी की गंभीरता के मद्देनजर पूछताछ के लिए कुछ लोगों को निकट के थाने में ले जाया जरूरी था। पूछताछ के लिए कुछ लोगों के साथ जब जमील का नाम लिया गया तो वो सकते में आ गया।

‘‘मैं क्यों? मैंने क्या किया है? मेरा क्या लेना-देना इस सबमें?’’ उसके मन ने कई सवाल किए। पर जाना तो था ही। घबराहट के बावजूद उसकी मुद्रा बेधड़क थी ,कोई अपराध नहीं किया था उसने।

‘‘सवाल ही तो पूछेंगे न पूछ लें। मैं कोई मुजरिम थोड़े ही हूं। हां दिहाड़ी तो खोटी होगी आज।’’ आगे की घटना का अनुमान लगाकर उसने अपने मन से ही सवाल-जवाब का क्रम तैयार किया। थाने में पूछताछ के दौरान जब जमील का नम्बर आया तो वह पूछे गए सवालों का सही-सही जवाब दे रहा था। इतने में डाॅक्टर साहब ने चौकी पर तैनात थानेदार से कहा-
‘‘यू नो दीज़ पीपुल... दे आर बाॅर्न क्रीमिनल।’’ अंग्रेजी  उसके पल्ले नहीं पड़ी पर हाव-भाव से समझ गया बात कुछ उसके विरोध की ही है। डाॅक्टर साहब के कथन पर थानेदार ने बड़ी तेजी से अपना सर हिलाया और सवाल जारी रखे-
‘‘ तो ये बता कहां बेचता है तू अपना माल? पुराना कबाड़ ही बेचता है या गाड़ी के टायर-टूयर भी? और ये बता स्टीरियो कहां बेचता है ?’’ जमील की बलिष्ठ शारीरिक संरचना को ताड़ते हुए थानेदार बोला।

हैरत में पड़े जमील को जैसे सुनाई देना बंद हो रहा था। अपनी पूरी शक्ति से वह अपने कान और ध्यान सवालों पर लगाने की कोशिश करने लगा। शरीर में जैसे खून का दौरा किसी दबाव से रूक गया हो और उसकी सारी चेतना जड़ता में तब्दील होने लगी। बिना सबूत,गवाह, कोर्ट-कचहरी के जमील को सीधे-सीधे दोषी करार दिया जा रहा था। इस अपमान के बावजूद अपनी जड़ होती जा रही इंद्रियों को जबरन सचेत करते हुए, सामने बैठे लोगों से कोई सवाल न करते हुए भी उसे जवाब देना जारी रखना था। उसकी नजर में यही उसके बेगुनाह होने का अकेला रास्ता था।

‘‘जी मैं तो सिर्फ रद्दी-लोहा,प्लास्टिक ही उठाता हूं घरों से....ऐसी चीजें कहां।’’ टूटे हुए मन से जमील ने कहा।
‘‘ और जो उठाएगा भी तो क्या तू इतना संत आदमी है कि हमें बता देगा? और कौन-कौन साथ हैं तेरे,  इस धंधे में?..बता?’’ थानेदार की आवाज गरजी ।

साथ बैठे बेलदार प्रकाश से रहा न गया-‘‘साब! ये बेकसूर आदमी है। मैं जानता हूं इसको। मेरे साथ रहता है।’’
 मुसीबत के वक्त प्रकाश के इन शब्दों ने सच में अंधेरे को चीर दिया। पर अगले ही क्षण थानेदार हरकत में आ गया। सीट से उठकर एक भरपूर थप्पड़ पड़ा प्रकाश के गाल पर।

‘‘ अबे तू क्या राजा हरिश्चंदर के खानदान का है?, जो तुझ पर विश्वास कर लूं। और साले तुझे कौन जानता है यहां? बिहार से आया है या यूपी का है? तू भी इसके संग शामिल है क्या चोरी में?’’ प्रकाश थानेदार का मुंह ताकता रह गया। गाल पे पड़े तमाचे से उभर आईं लाल परतों के किनारे खौफ की सफेद परत भी खिंच गई थी।

 जमील सब समझ रहा था ये थप्पड़ उसीके नाम का है जो प्रकाश को पड़ा है। लंबी,उबाऊ कार्यवाही से संतुष्ट होकर डाॅक्टर साहब चल दिए। आज हाॅस्पीटल में उनकी ओ.पी.डी. थी और गुप्ताजी को भी पुलिस के आसरे न बैठकर गाड़ी दुरूस्त करानी थी। थानेदार ने इतना सच तो बता दिया था उन्हें कि कुछ मिलने की उम्मीद न रखें पर समझौता इस बात पर हुआ कि इन लोगों को सस्ते में न छोड़ा जाए । इनको मिली सजा, सबक बने औरों के लिए। कुछ मजदूर भी भेज दिए गए पर जमील, प्रकाश और गार्ड को नहीं भेजा गया। अपमान के साथ-साथ आज की दिहाड़ी मारे जाने का भी जमील को दुख था। और अब कल से कौन बुलाएगा उसे अपने घर कबाड़ लेने? इस थुक्का-फजीहत से निकल भी गया तो थाने की कहानी कई दिन चलेगी और फिर डाॅक्टर साहब और गुप्ता जी अब क्या उसे जमे रहने देंगे वहां? कितने सवाल जमील पर अपना शिकंजा कसते ही जा रहे थे। और सबसे बड़ा सवाल तो यही था इस बेबात की कैद से कब छूटेंगे?

उन तीनों को एक कोने में मुजरिम की तरह बिठा दिया गया। बरसों पहले उमेश के चेहरे पर जिस नफरत को जमील ने पाया था वही आज और धारदार होकर थानेदार के चेहरे पर उग आई थी। एक नाम, सिर्फ एक नाम की वजह से जमील मुख्य अपराधी मान लिया गया था और उसके साथ बैठे दो लोग अपराध को अंजाम देने वाले उसके साथी के रूप में बिठाए गए थे। उसके मन में बरसों पहले की अब्बा की बात लहर की तरह उठी ... तक्सीम। जब शहर आया था तो उसने सोचा था यहां किसी को किसी के जात-धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। राजधानी का खुलापन उसने इसी रूप में महसूस किया और सराहा था। पर आज की घटना ने उसके सामने एक बड़ा सच ला खड़ा किया कि बातें जब तक ढकी-छिपी रहें सब बहुत सुंदर दिखाई देता है। परत उघाड़ दो तो हर जगह एक बजबजाता नाला ही है और कुछ नहीं।

 अपमान और आतंक की परतें तनिक शिथिल हुईं तो भूख की मारी आंतों ने मुंह उठाया। पर यहां कौन सुनेगा? सुबह से शाम होने को आई। सब तो पूछ डाला, अब क्या? इतने में रहमत चाचा के साथ ठेकेदार संतोष आता दिखाई दिया। संतोष का आना-जाना है इन थानों में। कहीं कोई अवैध निर्माण करवाता है तो मालिकों से थाना-पुलिस की झोलियां वही तो भरवाता है। जमील और प्रकाश समझ गए कि यहां से छूटे मजदूरों ने ही ये दूर की कौड़ी खोज निकाली है। उम्मीद और बेचैनी की कसमसाहट माथे पर खिंचती चली जा रही थी। आखिरकार वही हुआ। यहां भी संतोष ने पुलिस की झोली भरवाई। पूरे दिन की उनकी ‘मेहनत’ जाया नहीं हुई। अच्छी कमाई हुई।


‘‘चाचा अब न रूक सकूंगा मैं यहां।’’ शहर में सब कुछ खत्म हुआ मानकर एक गहरी हताशा में जमील ने कहा।
‘‘ कहीं भी चला जा बेटा तेरा सच तो संग चलेगा ही। फिर अब गांव में क्या धरा है तेरे लिए? और शहर, ये हो या कोई और क्या फर्क पड़ता है। थोड़े दिन में भूल जाएंगे सब। तू कोई और मोहल्ला पकड़ लियो।’’ रहमत चाचा ने समझाते हुए कहा।

‘‘लोग भूल भी जाएं चाचा पर मैं क्या भूल सकूंगा?’’ सवाल वाजिब था और रहमत से जवाब देते न बना।
  कुछ दिन उदास रहने के बाद जमील सचमुच गांव चला आया। घटना के चंद दिन हताशा में जरूर बीते पर उसे ये समझा गए शहर ही अब उसका अंतिम ठिकाना है। अच्छा-बुरा चाहे जैसा। घर की गरीबी, गांव में नौजवानों के लिए पसरी बेकारी, दिन ब दिन बढ़ती जिम्मेदारियों की सोच ने जमील की जिल्लत को कहीं बहुत दूर धकेल दिया। फैसला लेने के बाद भी उसका एकदम से संयत और सहज होना असंभव था। थाने से जान छुड़ाने के चक्कर में रूपये भी काफी खर्च हो गए थे। गांव वापिस लौटकर उसे फिर वैसी राहत मिली जैसी कभी यहां से शहर आकर मिली थी। समय की इस अजीबोगरीब शक्ल-सूरत को वह बनते-बिगड़ते बड़े नजदीक से देख रहा था।

घर में उसने शहर का सच किसी से नहीं कहा। सबने माना घर की याद के चलते जमील वापिस आया है पर उसकी उदासी किसी से छिपी न रह सकी। अब्बा रोज ही उसे यार-दोस्तों के घर जाने और गांव के बुर्जगों से मिलने की बात कहते। ऐसा नहीं है कि जमील को पुराने दोस्तों से मिलने में कोई एतराज था। वैसे भी जिस तरह समय की धरती पर तीखे पत्थरों के नुकीले कोने पानी की गोद में पड़े रहने से अपना नुकीलापन खो बैठते हैं ऐसा ही जमील के साथ हुआ था। उमेश और युसुफ की बात वह लगभग भुला चुका था। अब तीनों घर-परिवार वाले हो चले थे और उमेश आज भी हिंदू लड़कों के लीडर के रूप में ही जाना जाता था। मिलने पर सबके बीच कटुता के निशान नहीं थे पर रामफल को छोड़ सबमें एक झिझक बाकी थी जो पुलिया के दिनों को हरा नहीं होने दे रही थी। घूमते-घामते जमील पुलिया पर भी हो आया। पुलिया आज भी किशोर-जवान दोस्तों का अड्डा थी। वहां आज भी कोई चिंता, दुख, परेशानी और तकलीफ नहीं थी बस चेहरे बदल गए थे। जमील को लगा जैसे इन चेहरों ने वक्त की धारा को उसके लिए पीछे मोड़ दिया है। कुछ क्षण अतीत में जी कर जब जमील लौटा तो सब नदारद था। चेहरे की उदासी कुछ और बढ़ गई। इधर उसने पाया जाकिर का रूतबा भी बढ़ चला था गांव में। जाकिर भाई खासी इज्जत से नवाजे जाने लगे थे। अल्लाह और ईमान की राह का हवाला देकर अच्छा रूआब जमा लिया था उन्होंने। अब्बा ने कई दफा उनसे मिल आने की बात कही पर जमील का मन न माना । उसकी याद में अब भी जाकिर का सच जिंदा था। और आज के शांत माहौल में भी जाकिर और उमेश के उस समय के चेहरे याद आते ही उसका मन उचाट हो जाता था।

उसे लगता ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं जो इंसान को उसकी मेहनत, काबीलियत और ईमानदारी से नहीं सिर्फ उसके धर्म से जानना पसंद करते हैं और समय आने पर दूसरे की पतंग काटना जिनका पसंदीदा खेल है। और इस खेल के सख्त नियम हैं क्रूरता और मनमाफिक बर्बरता, जिसमें दूसरे के लिए कोई रिआयत नहीं। शहर की घटना को जब इस सबसे जोड़कर देखता तो पाता ये चेहरे वहां भी इसी रूप में है- ‘ये खेल है कबसे जारी’।


 जवान बेटे की उदासी जब किसी भी तरह, कई दिन तक दूर नहीं हो सकी तो अम्मा को एक ही उपाय सूझा-उसकी शादी। शमशेर खालू ने पहले ही लड़की देख रखी थी और वो मां को पसंद भी थी।
‘‘ वैसे अभी तो नहीं पर जैसा तुम कहो अम्मा..आज नहीं तो कल करनी ही है शादी। ’’ जीवन का एक और बड़ा काम निबट जाए कुछ यही अंदाज था जमील का। और लो बात पक्की हो गई।

‘‘ बेटा तू ले जाना सोनी को अपने साथ शहर। यहां दिल न लगेगा उसका तेरे बिना। और वो यहां रही तो तू भी भगा-भगा आएगा हर दूसरे दिन।’’ शहर के लिए निकलने से पहले मां ने जमील से कहा।

‘‘ नहीं अम्मा वहां,कहां?...तेरे पास ही रहेगी।’’
जमील का गंभीर और निश्चयात्मक स्वर सुनकर रेशम भी सकते में आ गई। लड़के की आवाज में शादी को लेकर खुशी की एक धड़कन तक नहीं मिली उसे। चुप रहना ही उसे ठीक लगा इस वक्त। जमील के दिमाग में पहले भी काई उलझन नहीं थी अपनी होने वाली बीबी को लेकर। शहर की दमघोंटू,गंदी बस्ती उसे यों भी इंसानों के रहने लायक नहीं लगती थी। फिर काम पर जाने पर पीछे सताने वाली फिक्र के बारे में उसने पहले ही गौर कर लिया था। बाद मे थाने की घटना ने तो उसके निर्णय पर पक्की मोहर लगा दी । गांव में रहेगी तो सुरक्षित रहेेगी वहां के मुकाबले। जमील ने ठान लिया।

शहर आकर जमील ने दोबारा काम जमाया। रहा जमुनापुरी  में ही प्रकाश, अनोखे और सुनील के साथ पर काम का मोहल्ला बदल लिया। साथ रहने वाले अनोखे ने बड़ी मदद की। इस बीच जमील की  शादी हो गई और कुछ समय बाद वो एक बेटे का बाप बन गया। अब जीवन के सारे सुख उसके हिस्से में थे। बात-बात पर हंसता और बेबात पर भी उसकी हंसी न थमती। अब उसे दोगुनी ताकत से कमाना था। एक अच्छा जीवन, भाई-बहनों की जिम्मेदारी, बेटे की सही पढ़ाई-लिखाई और बहुत से अरमान थे उसके। सोनी ने उसकी जिंदगी में उमंगे भर दी थीं। शहर वापिस आकर जमील ने अनोखे की मदद से एक बड़ी सोसायटी का काम उठा लिया। अनोखे भी उसी सोसायटी में माली का काम करता था। नए काम की शुरूआत के साथ पिछले सारे अनुभवों को जमील ने सिरे से दरकिनार कर दिया था। बस अब उसे अपना काम पूरे ईमान से करना था। इधर उसने पाया कि राजधानी में चुनाव के बाद हवा कुछ बदल चली है।

‘‘ जय धरती मां जय गऊ माता’ के शब्दों पर हलचल सी मच जाती सोसायटी में-‘‘अरे गौ-ग्रास वाला आ गया। भाग के जा और वो रात की रोटी दे आ।’’

ऊपर के माले से तुरंत भागकर न आ पाने वाली थुलथुल काया बीबीजी महरी को तुरंत दौड़ाती। आस-पास कई लोग बड़े नियम से अपना धर्म निभाने लगे थे। जमील सोच में पड़ जाता- हमारे गांव में तो पहली-पहली, ताजी रोटी निकालकर लोग खुद गाय को खिला आते थे। बिना किसी गाड़ी और भोंपू के शोर-शराबे के। पर आज आने वाली ये गाड़ियां तो तेज गानों के साथ गाय का गुण गाती फिर रही हैं।  जमील को समझने में बड़ी दिक्कत होती कि गौ-ग्रास लेने का ये कैसा तरीका है। और अगर ऐसा करना ही है तो शांत तरीके से मांगा जाए यह दान। उसने आस-पास भी गौर किया तो पाया ये गाड़ियां तो अब हर सोसायटी-मोहल्ले में आ रही थीं। शुभ अभियान के नारों, भाषणों और गीतों के साथ। मंदिरनुमा शक्ल की गाड़ियों में मंदिर की तरह ही घंटी लगी थी। नीचे चमकदार स्टील के दो ड्रम सजे थे। एक बात और जो वो सोचता कि जो लोग रोटी और खाने की अन्य चीजें न भी दे पाते थे उन सबके दिमाग में अगले दिन दान के लिए तैयार रहने की घंटी तो बज ही जाती होगी। ये गाड़ियां कौन से मकसद से आ रही हैं जमील समझ नहीं पाता। वैसे भी इन गाड़ियों की ड्यूटी दिल्ली भर में लग रही थी। पिछली सरकार ने नगर-निगम की कूड़ा बटोरने वाली गाड़ी ‘आपके द्वार पर’ खड़ी करवाई थी जिसकी आवाज गली-मोहल्ले में रोज गूंजती थी।

सरकार बदलने के बाद से उत्साहित गौ रक्षक समिति ने उसी तर्ज पर गौ-ग्रास की रिक्शानुमा गाड़िया उतार दीं। जमील हर दिन हिसाब लगाता कि पूरे दिल्ली भर में ऐसी गाड़ियां बनाने-चलाने का कितना खर्च आता होगा और ऐसी ढेर सारी गायें कहां बंधी होती होंगी जो इस खाने को खाती होंगी? उसे तो आज भी अपनी बस्ती और आस-पास के इलाकों में घूमती-फिरती गायें कूूड़े के ढेर में मुंह मारती दयनीय और कुपोषित ही दिखाई देतीं।
सोसायटी में अधिकांश परिवार हिंदू थे । जहां तक संभव होता जमील अपना नाम, धरम बताए बिना ही काम चलाता।

 ‘‘राम-राम जी’’ जैसा उसका सम्बोधन जहां लोगों को जहनी तौर पर संशय की सीमाओं से मुक्त करता  वहीं उसके खुद के लिए जैसे ये राम-नाम एक ढाल बन गया था। अपने बचाव में एक हथियार सरीखा। जो लोग उसे नाम से जानते वो उसके इस सम्बोधन से खुश होते।
‘‘आया न सही राह पर। यहां रहना है तो हम रहते हैं वैसे ही रहना होगा। हमारी तरह राधे-राधे बोल या फिर जय राम जी की। ’’

शेष लोगों के लिए तो वह केवल कबाड़ीवाला ही था। उन्हें इतनी फुर्सत ही कहां थी जो उसका नाम जानते और उसके बारे में। अधिकतर घरों में तो वैसे भी ये काम  घरेलू नौकरों के ही जिम्मे थे। फिर तौल के पुराने तराजू भी अब अनुपयोगी होकर किसी कबाड़ का हिस्सा हो चुके थे। स्प्र्रिंग बैलेंस जैसे छोटे से औजार की बदोैलत अब जल्दी से कबाड़ को बोरी में भरकर उसमें हुक फंसाकर बोरे को अपनी समूची ताकत से जमील उठा लेता। स्प्रिंग बैलेंस का कांटा किलो के निशान के आगे रूक जाता। जितने किलो के हिसाब से तय होता उतने पैसे जमील हिसाब लगाकर तुरंत चुकता कर देता।

 शुरू से ही घुलने-मिलने की आदत नहीं थी उसकी। शरीर से ताकतवर दिखता था पर इधर उसने अपनी खास भंगिमा से उसे भी कतरने की कोशिश की। दोनों हाथ पीछे की ओर बांधकर एक फर्माबरदार मुलाजिम की मुद्रा और ढीले-ढाले कंधों में गर्दन झुकाकर चलना। कमीज को पैंट के अंदर डालकर कभी चुस्त दिखने की कोशिश नहीं करता। शरीर की सारी मजबूती को इस भंगिमा ने जैसे उपेक्षणीय बना दिया था। काम बचा-बना रहे, जमील इसके लिए बड़े सचेत प्रयास करता। उसके ऐसा करने के पीछे वो चेहरे भी नुमायां थे जो उसे ऐसा करने पर बाध्य करते। एक कामवाले की औकात को अपनी बेबाक नजरों से हरदम तौलते।

काम से फारिग होते ही वह पार्काें में काम करने वाले अनोखे के संग बैठ जाता। अनोखे  यहां माली का काम करता था। कड़ी मेहनत और मजदूरी कम। वो तो ड्यूटी के बाद कुछ घरों में उसका अपना काम था गमलों के रख-रखाव का नहीं तो गुजारा मुश्किल था। बातून अनोखे समझदार था। जमील का गार्जियन बनकर रहता था सोसायटी में-‘‘क्यों फालतू काम करता रहता है बे तू इन लोगों के। जब देखो ऊपर सामान चढ़ाना है कबाड़ी वाले को भेज दो। अरे जरा ये कर दे और वो कर दे... किसी का टाईम खोटी हो इनकी बला से।’’ अनोखे की इस बात से जमील अपने आज में लौट आया।

‘‘कोई नहीं थोड़ी देर के कामों के लिए क्या घबराना। और कौन सी ये सरकारी नौकरी है हमारी? दो काम फालतू करेंगे तो कोई न निकालेगा और गलत भी न सोचेगा। क्यों? बात का सिरा पकड़कर जमील ने कहा।

‘‘इस फेर में न रहियो तू। जिस दिन निकालना होगा तेरा पिछला किया-कराया काम न आएगा देख लियो। तू किसलिए करता है, जानता हूं सब। पर अच्छाई का जमाना नहीं है। फिर हम जैसों की कोई यूनियन-वूनियन कहां जो बचा ले। हमसे सही तो ये माईयां हैं बर्तन-झाड़ू वालीं। पैसे बढ़वाने होते हैं तो सब जनी एक हो जाती हैं। पर हमारा....जानता है छत्तीस नम्बर वालों ने दशहरे के दिन कहा भई रावण बनवा दे बच्चों का। अब बता मैं क्या रावण का कारीगर हूं जो बनवा दूं? दो घड़ी हमारा सुस्ताना भी इन्हें बर्दाश्त नहीं। साफ मना कर दी मैंने। तू भी कर दिया कर।’’ कहने को कह दिया अनोखे ने पर जानता था जमील नहीं करेगा ये सब। अनोखे ने बात खत्म की ही थी कि जमील का फोन बजा।

‘‘ रौशन की तबीयत बड़ी खराब है। बस तुम आ जाओ किसी तरह। गर्दन एक तरफ लटक गई है और कुछ नहीं खा रहा कई दिन से।’’फोन पर सोनी ने बताया।
सोनी के सुबकते हुए शब्दों ने जमील का सारा चैन छीन लिया। रौशन की तबीयत और काम का हर्जा समेत तमाम चिंताएं उसके सर पर सवार हो गईं। बच्चे की तकलीफ सुनकर पहली फुर्सत में जमील गांव रवाना हो गया। अपनी पहचान के एक दूसरे कबाड़ी को काम पर लगा दिया उसने। सोसायटी ने जमील को काम पर रखने से पहले ही बता दिया था एक-दो दिन से ज्यादा की छुट्टी नहीं मिलेगी। गांव जाकर पाया तो वाकई बच्चे की तबीयत काफी खराब थी। पहले जब भी जमील लौटता था रौशन अपनी हंसी से उसका स्वागत किया करता था। छह-सात महीने के रौशन ने बोलना तो शुरू नहीं किया था पर उसके ‘बा बा’ जैसे शब्द जमील को अब्बा सुनाई दिया करते। हाथों में उछाल-उछालकर अपने बेटे से घंटों खेलता था जमील। पर आज उसके आने पर बच्चे में पहचान की एक भी हरकत नहीं दिखी उसे। उसके हंसते-खेलते बच्चे को क्या हो गया? दिल-दिमाग जैसे सुन्न पड़ रहे थे जमील के।

‘‘ अरे घबरा मत तू बच्चे दांत निकालते हैं तो ऐसी परेशानी आती ही है। पहली औलाद है न इससे ज्यादा परेशान हो रही है सोनी। वैसे मजार पे जाकर झाड़ा तो मैं लगवा आई हूं।’’ अम्मा चिंतित होते हुए भी उसका हौसला बढ़ा रही थी।

‘‘कल चलेंगे इसे बड़े अस्पताल लेकर।’’गांव के इलाज से कोई खास फायदा न देखकर उसने जल्दी से फैसला लिया।

अगले कई दिन अस्पताल में डाॅक्टर को दिखाने में बीते। लंबी लाइनों में लगना, टेस्ट के लिए भटकना, दवाइयों के लिए दौड़ना पड़ा उसे। रूपया खर्च हो रहा था पर बच्चा सही होने में नहीं आ रहा था। पता नहीं डाॅक्टर ढंग से देख भी रहा है या नहीं। आखिर डाॅक्टर ने बताया दिमाग से नीचे आने वाला कोई पानी शरीर में नहीं पहुॅच पा रहा है। कोई नली लगानी पड़ेगी चीरकर तब ठीक होगा बच्चा। घर में आॅपरेशन के नाम पर कोहराम मच गया। अम्मा-अब्बा मानने को तैयार ही नहीं थे कि ऐसी भी कोई बीमारी होती है-‘‘ठग रहा है डाॅक्टर। हमने तो अपने पूरी जिंदगी में ऐसी बीमारी न देखी किसी बच्चे की।’’ अम्मा बोली।
‘‘बेटा दिल्ली ले चल एक बार वहां ही दिखा लेते हैं।’’ अब्बा ने कहा।
दिल्ली के अस्पतालों के जनरल वार्डाें की असलियत जमील जानता था। लंबे इंतजार और मंहगे इलाज। कहने को तो सरकारी हैं पर टेस्ट के पैसे क्या कम हैं वहां? पर बेटे की हालत देखते हुए उसे  दिल्ली जाना ही ठीक लगा। अगले दिन जाने की तैयारी हो गई पर उसी रात रौशन चल बसा। सोनी के साथ जमील भी पगला गया। बच्चे के दुख ने तोड़ दिया उसे। वो सारे सपने, सारी उम्मीदें मिट्टी में लिपटी बेरौनक हो गईं जिस मिट्टी में रौशन खामोश लेटा था। बार-बार खुद से यही सवाल करता- ‘‘मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का, जिसकी ये सजा मुझे मिली।’’ पर जवाब नदारद रहता। सारी दिशाएं अजीब से सन्नाटा में डूबी जान पड़तीं और इस सन्नाटे के बीच कभी-कभी लगता रौशन घर के किसी कोने में पहले की तरह हंस-खेल रहा है। जैसे अभी सोनी गोद में ले आएगी उसे और रौशन ‘बा बा’ करता लपकने लगेगा उसकी तरफ। पर उस सन्नाटे को केवल सोनी की सिसकियां और तेजी से उठने वाली चीखें ही तोड़ा करतीं और उसके बाद फिर से एक लंबा सन्नाटा घर भर में छा जाता।

जमील की जिंदगी का गिरता-उठता ग्राफ यों तो पहले भी उसे तोड़ता आया था पर फिर एक नई उम्मीद से खड़े हो उठना उसकी फितरत में था। चोट लगती थी, घायल भी होता था पर मरहम-पट्टी के बाद दुरूस्त और फिर पहले जैसा। पुराने रोग और गम पालने की फुर्सत भी अब कहां थी उसे। जिंदगी को बदलते देखता और खुद भी बदलने की कोशिश करता। पर इस बार संभलना मुश्किल हो रहा था।

‘‘ बेटा तू हिम्मत हारेगा तो सोनी कैसे जिएगी? मरद का काम है हौसला देना,औरत को संभालना। औलाद का दुख तो दोनों को एक जैसा है बेटा पर उसने जनम दिया था रौशन को। उसके दुख की तो सोच। जाने क्या-क्या सोचती होगी।... और ऊपर वाला है न भरोसा कर... जैसे लिया है वैसे दोबारा देगा भी।’’ मां ने इशारों में बता दिया कि बहू उम्मीद से है। उसके शब्दों में जाने कौन-सी मरहम थी कि दर्द हरे होने के बावजूद कम दुख रहे थे। जमील दर्द की तमाम हदों को पार कर फिर खड़ा हो गया।  कुछ दिन सोनी के साथ गुजारे। जिंदगी पूरी तरह नहीं अधूरी ही सही, पुरानी शक्ल में लौटने लगी। इधर जमील की बचाई रकम खर्च हो गयी थी। अब उसे दो-दो मोर्चे संभालने थे-घर और घर के लिए पैसा। उसे शहर आना ही था।

‘‘ नहीं साहब ऐसा कैसे हो सकता है? इतने बरस खिदमत की है आप लोगों की। मुसीबत के मारे को और न मारो साहब।’’ जमील को खुद पर यकीन नहीं था वो लगभग गिड़गिड़ा रहा था अपने काम के लिए।

‘‘देख भाई, तू इतने साल से है न यहां, कभी मांगा तुझसे कुछ? बोल? अब इतना कमाता है कि गांव जाकर ठाठ से रहता है तू । मकान-वकान भी बनाया ही होगा।  साल के बीस हजार ही तो देने हैं बस और कौन सा तुझ अकेले से मांग रहे हैं सबकी एंट्री का चार्ज है और हम कौन-सा अपनी जेब में रखेंगे। सोसायटी के कामों में लगेगा सारा पैसा।’’सोसायटी नए प्रधान ने बड़ी ही सहजता से कहा।

‘‘गरीब आदमी हूं साहब। साल में लाख रूपया कमा सकूंगा तभी तो दे पांउगा बीस हजार.. पर इतनी कमाई कहां है मेरी...।’’

‘‘ वो तू जान और फिर ये भी तो देख कितना सुरक्षित है तू यहां... हमारे पास...देख नहीं रहा इतने साल से...हैं जमील?’’ जमील शब्द पर सारा वजन डालते हुए प्रधान ने उसके हिस्से के सच को बयां कर दिया। कमीशन और जमील नाम के आदमी की प्रोटेक्शन मनी दोनों ही मुद्दे नए प्रधान की लिस्ट में थे।




 यहां आने पर जमील ने सारा माहौल बदला पाया। सोसायटी में काम करने आने वालों के लिए एंट्री फीस का नया फरमान जारी होने वाला था। कई दिन सब पर तलवार लटकती रही। जमील का मन किया भाग जाए किसी ऐसी जगह जहां कोई दिक्कत न हो परेशानी न हो पर जानता था कि ऐसी जगह न कहीं थी, न होगी। सोसायटी के कुछ लोगों के दखल और सदाशयता से कई दिन बाद समस्या हल हुई। एक बीच का रास्ता निकाला गया कि सोसायटी को पैसा देने में असमर्थ लेबर को अब हफ्ते में कुछ घंटे यहां के काम-धाम करना होगा बिना किसी आना-कानी के।

‘‘ देख लिया सब। करो अब जमींदार की बेगारी। इधर से न सही तो उधर से कान तो उमेठ ही लिया न।...और जमील तुझे बचाने कौन साला आएगा बताए जरा? याद नहीं है कैसे निकला था तू पुराने मोहल्ले से। किसी एक ने भी किया था तेरी नेकी का बखान? बड़े आए पैसा मांगने वाले।’’ अनोखे चुप न रहा।

बेटे के दुख और एक नया आसमान टूटने के बाद बहुत बड़ी राहत महसूस करके जमील ने कहा-‘‘ उसमें क्या है अनोखे, जहां एक घंटे बाद आते थे तो एक घंटा पहले आ जाएंगे। तू न घबरा...सोच कहां से लाते इतना रूपया और फिर निकाले जाकर कहां काम ढूंढते?’’

 बंधी-बंधाई नौकरी न होते हुए भी माली, कबाड़ी, गाड़ी धोने वाले, बिजली मरम्मत वाले और मिस्त्रियों के लिए ये सोसायटी ही कमाई का आधार थी। जैसे-तैसे सबने नयी स्थिति को स्वीकार कर लिया। काम की मारा-मारी के इन भयंकर दिनों में अधिकांश को इसमें किसी जुल्म की कोई गंध नहीं आई। मेहनत के कुछ घंटे और बढ़ गए थे पर पगार उतनी ही रही सबकी। दिन बीतने पर अनोखे जैसे कामगारों की ये खलिश भी दूर हो गई। गौ-ग्रास के रिक्शे से नियत समय पर तेज आवाज में रोज का गीत आज भी चल रहा था-‘‘हे धरती मां हे गऊ माता..गूंज रहा है मंत्र महान....पूर्ण सफल हो शुभ अभियान... जीवमात्र का हो कल्याण।’’

अब जमील और भी जिम्मेदारी से काम करने लगा । रद्दी के अपने काम से फुर्सत मिलते ही रोजाना उसे किसी न किसी काम से दौड़ना ही पड़ता। कभी किसी आॅफिस चेक जमा कराने तो कभी किसी के निजी काम से। शाम के समय भी कई बार मुसीबत पेश आ ही जाती जब उसे अपने कबाड़ को ठिकाने लगाना होता। पर जमील चूं नहीं करता। एक जमील ही क्या सभी मुलाजिम इन्हीं हालातों से गुजर रहे थे। कामों का तूफान जब गुजरता तब दो घड़ी की फुर्सत में नन्हें रौशन का चेहरा उसकी आंखों में घूम जाता। सोनी से भी लगभग रोज ही बात होती थी उसकी। उसे मोबाइल खरीदकर दे आया था इसलिए सोनी भी अक्सर बात-चीत कर लेती। उसकी जचकी के दिन भी पूरे होने वाले थे। जमील को चिंता सताती रहती। यों अम्मा पूरी देखभाल कर रही थी पर जमील हर बार उन्हें सोनी का ध्यान रखने, डाॅक्टर को दिखाने और ढंग की खुराक जैसे निर्देश देता रहता। सोनी से वादा किया था तो समय से पहले गांव पहुंच गया जमील।

‘‘हां भई हम पे भरोसा कहां था तुझे कि ख्याल रखेंगे तेरी बीवी का? अब संभाल ले तू।’’
बेटे का मजाक उड़ाते हुए अम्मा ने कहा तो जमील, अब्बा के सामने जरा शर्माया पर जबान तक आए उसके शब्द बेसाख्ता निकल पड़े-‘‘अम्मा जीवन भर का साथ है मेरा-इसका, निभाना तो पड़ेगा न।’’
और जमील-सोनी की गोद में फिर एक बच्चा था। स्वस्थ और सुंदर।
‘‘देख सोनी बिल्कुल रौशन पर गयी है न बिटिया?’’
सोनी हैरान रह गई। अक्सर बच्चे की शक्ल देखकर मां-बाप यही देखते हैं कि एक-दूसरे में से किस पर गया है या फिर ननिहाल-ददिहाल में किस के चेहरे-मोहरे से मिलता है पर जमील...वो तो अलग सी ही बात कर रहा था। उसकी खुशी थम नहीं रही थी।
‘‘इसका नाम रौशनी रखेंगे सोनी...रौशन जैसी रौशनी। तू देखना खूब जतन करूंगा इसका मैं। थोड़ी बड़ी हो लेने दे, तुझे और इसे शहर ले जाऊंगा। वहीं पढ़ाउंगा, किसी अच्छे सकूल में। मदरसे नहीं भेजूंगा शमशेर खालू की तरह।’’

‘‘जाओ रहने दो पूरे खानदान में कोई लड़की बड़े शहर के अच्छे सकूल में गई भी है कभी?’’ इठलाते हुए सोनी ताना जरूर मारती पर भीतर से जानती थी कि जमील बात का पक्का है। फिर अपने छोटे से घर की कल्पना उसके मन में नई चंचलता भर रही थी।
बिटिया को छोड़ आए जमील का मन गांव में ही अटका रह गया। जब भी मौका पाता अनोखे को या कमरे में लौटने पर प्रकाश और सुनील को उसके छवि का बखान करके सुनाता।
‘‘अबे पगला गया है। हम भी बाप बने हैं कि तू  निराला बना है?’’
सब उसे छेड़ते पर उस छेड़ में जमील को और आनंद आता।
जमुनापुरी की उस बस्ती में जमील ने ठीक-ठाक कमरा देखना भी शुरू कर दिया था। यों बस्ती कच्ची थी और गंदी भी पर काम के नजदीक तो थी। साइकिल से आने-जाने में ज्यादा समय नहीं लगता था उसे। आगे की योजना सोचकर अपने काम को भी उसने बढ़ा लिया। पुराना घरेलू सामान भी अब वह खरीदने और बेचने लगा। धंधे के कुछ लोगों से सही जान-पहचान हो गई थी तो उसकी हिम्मत बढ़ गई। पुराना फर्नीचर,कम्प्यूटर, टी.वी.,टेपरीकाॅर्डर वगैरहा बिजली का सामान सब लेने लगा कबाड़ में। यों घरों को समयानुसार नया बनवाने वाले लोग पुरानी चैखटें, ग्रिल, घुन खाए या पानी में फूल गए दरवाजे, जाली की बेकार हो चुकी खिड़कियां आदि बिकवाने के लिए उसे ही बुलाते। लोग पुराने हर सामान से उकताकर नए सामान की ओर दौड़ रहे थे। अब भारी और टिकाऊ का नहीं हल्का और टीम-टाम के फर्नीचर का चलन था। पुराना टिकाऊ सामान जिसे करीबी रिश्तेदार भी लेना नहीं चाहते थे जमील उस समस्या का जल्द समाधान कर डालता। इससे उसकी साख भी बन रही थी और पैसा भी। अखबार, लोहा-लक्कड़ और प्लास्टिक अब भी वह खरीदता था पर अब समय के अनुसार अपने को बदलकर धंधे का विस्तार उसने कर लिया था और खुश था। जब भी घर जाता रौशनी के लिए अच्छे-अच्छे खिलौने और कपड़ों की खरीदारी करके ही जाता। अम्मा-अब्बा भी खुश थे।

इस बार गांव से आया तो उसका पक्का इरादा था अब कोई कमरा ठीक करके सोनी और रौशनी को यहां ले आएगा। बच्ची की नींव सही पड़ गई तो ही अच्छी रहेगी जीवन भर उसने सोचा। और फिर कमरा अनोखे और प्रकाश के बगल में ही लेगा। हारी-बीमारी के साथी तो ये ही थे उसके शहर में। सब सोचते हुए दोस्तों से जरूर सारी बातें साझा करता था जमील। अनोखे के साथ तो आना-जाना और काम की समान जगह होने के कारण चैबीस घंटे का साथ था ही उसका।

‘‘इस बार तू चलना अनोखे ईद पे मेरे संग गांव। कसम से यार घर में घुसते बस नाम बता दियो अपना फिर देखना कैसी खातिर होगी तेरी। सब जानते हैं तुझे।’’ जमील बोला।
‘‘ तो तूने सब बक दई है वहां।’’ ठेठ अंदाज में अनोखे ने कहा।
दोनों ने तेज ठहाका लगाया । अगले ही पल अनोखे बोला-‘‘ कहां फुर्सत होगी मुझे दीवाली पर। सौ काम होते हैं । साल भर का त्यौहार थका मारता है। घर पहुंचते ही सारे घर की पुताई में लग जाता हूं। बैठने नहीं देती तेरी भाभी जरा सी देर को। फिर काम पर नहीं लौटना है कैसे आंउगा तू ही बता?’’
‘‘ अरे बरेली से खतौली जरा सी दूर है। तू मेरे घर ईद मनाकर अपने यहां दीवाली मना लेना या लौटती बार घर आ जाना दोनों संग लौट लेंगे।’’

थोड़ी आना-कानी के बाद अनोखे मान गया। जमील ने सोचा संग ही रौशनी और बेटी को भी लेता आंउगा एक साथी होगा तो बड़ी सुविधा रहेगी।

 सुबह काम पर जाते समय दोनों ने देखा रास्ते में बड़ी चहलपहल थी। पास जाने पर मालूम हुआ यहां माता की चैकी बिठाई जा रही है। कई उत्साही नौजवान माथे पर सुनहरी गोट की लाल चुन्नी बांधे टेंट वाले से काम करवाते हुए भागदौड़ में लगे थे। उनकी आवाजें खूब खुली हुईं थीं। पटरी और सड़क पर भी चैकी का सामान बिखरा पड़ा देखा उन्होंने। मुख्य सड़क से करीब होने के कारण ट्रैफिक वहां से तिरछा होकर गुजरने लगा। सबको खासी दिक्कत हो रही थी। पर धरम का काम था तो सबको असुविधा भी मंजूर। फिर लड़कों के हट्टे-कट्टे शरीर और गरजती आवाज ने किसी को शिकायत करने की कोई छूट भी नहीं दी थी।

शाम तक दोनों अपने उसी पुराने रास्ते से लौटे तब तक माता का भवन पूरा सजकर तैयार था। चार मेजों को जोड़कर माता का भवन सजाया गया था। बड़ी-सी, भड़कीले रंग वाली प्रतिमा के सामने माता का शेर भी विराजमान था। स्टीरियो पर तेज आवाज में भेंटे और भजन चल रहे थे। फिल्मी गीतों की चालू धुनों पर कुछ लड़के-बच्चे नाच रहे थे। उनका नाच भी फिल्मी ही था, जैसे वो बोल पर नहीं धुन पर ही थिरक रहे हों। अनोखे और जमील ने मां के अस्थाई मंदिर के आगे शीश नवाया पर साईकिल का हैंडिल नहीं छोड़ा। दिन भर के थके होने के बाद अभी खाना भी बनाना था और फिर अगले दिन काम पर जाने के लिए सोना जरूरी था उनका। वैसे भी चैकी, जागरण तो अब आए दिन की बात हो गई है। ‘रोज-रोज अगर इनमें जाने लगें तो काम क्या खाक करेंगे’- अनोखे नास्तिक नहीं था पर इस मामले में एकदम साफ था। चैकी से कमरा पास होने के बावजूद जमील के तीनों संगियों में से कोई भी वहां नहीं गया।
अगले दिन काम पर जाते हुए दोनोें ने देखा चैकी आज भी कल की तरह ही सजी है। हां झांकियां शायद और सजा दी गईं हैं। आज भीड़ कल से अधिक थी और स्टीरियो भी सप्तम सुर में बज रहा था। साथ में एक टेबल और लगा दी गई थी। नए देवताओं के रूप में गणेश, शिवजी के साथ विराजमान थे। दाएं-बाएं और सामने की छोटी सी जगह में भक्तों के लिए दरियां भी बिछा दी गई थीं। उन पर रखी चादरों से अंदाजा हो रहा था कि रात को कई लड़के यहीं सोए होंगे।

अब तो दोनों जने आते-जाते रोज ही माता के भवन में कोई न कोई नवीन परिवर्तन देखते। चैकी के भवन पर लगे बिजली के लट्टू खींचकर आगे बनी मस्जिद के करीब तक ले आए गए थे। पहले साधारण सा दिखने वाला भवन अब भव्य हो चला। रात में कई भजन-मंडलियां भी जुट जातीं ऐसा सुनील ने सबको बताया । सुनील तो चैकी की आरती में एक दिन शामिल भी हुआ। बस तभी से पड़ा था सबके पीछे-‘ देख लो रात को एक दिन आरती। इतने करीब में होने का कुछ तो फायदा उठा लो।’

 अनोखे ने सोचा एक दिन सभी चल पड़ेगें साथ, वैसे भी चैकी का प्रोग्राम कुछ दिन आगे खिसक चुका था इसकी सूचना उसे भी मिल गई थी। शनिवार को शुरू हुई चैकी को कल हफ्ता पूरा होने वाला था। सुबह वहां से गुजरते हुए अनोखे और जमील ने देखा कि आज बात कुछ और ही है। आटे-आलू की बोरियंा, तेल के कनस्तर, मसाले भी चैकी के घेरे में पड़े हैं। और दो हलवाई बड़े-बड़े पतीलों-कड़ाहों को धोते पीछे की तरफ भट्टी सुलगा रहे हैं।
‘‘ले भाई आज तो भंडारा होगा। दोपहर में पूरी-आलू की सब्जी मिलेगी। हो सकता है हलवा भी।’’ अनोखे ने हंसते हुए कहा।
‘‘तू जा नहीं रहा था न चैकी में, तो लड़कों ने आज तुझे बुलाने का पक्का इंतजाम कर दिया।’’ जमील ने चुटकी ली। दोनों ने तय किया कि आज खाने के समय यहीं आ जाएंगे।

भंडारे के समय पहुंचे तो माहौल में अजीब-सी तनातनी के संकेत मिले। लाइन काफी लंबी थी और लाइन में लगे लोगों से ही पता चला-
‘‘ दिन मे बड़ी पुलिस आई थी मस्जिद के पास। एक दिन की चैकी तय होने के बाद अब हफ्ते से ऊपर इक्कीस दिन की चैकी बिठा दी गई है।’’ किसी ने बताया।

‘‘ इन ठलुओं को कोई काम-धंधा नहीं है क्या? इक्कीस दिन जमे रहेंगे यहां?...हमें तो काम से मिनट भर फुर्सत नही।ं भगवान को हम भी मानते हैं पर हमें फुर्सत नहीं मिलती पूजा-पाठ की। आज भंडारा खाने आए हैं, खाकर निकलेंगे काम पर।’’ अनोखे चुप न रह सका।

‘‘ हम भी तुम जैसे हैं भाई। पर असल बात ये है मस्जिद के ठीक बगल में माता का मंदिर बनाया है। और धीरे-धीरे मस्जिद की तरफ सरकते आ रहे हैं। अरे कहीं और बना लेते। ऐसे में न उनके भजन सुनाई पड़ेगे न इनकी अजान। घाल-मेल से दोनों को परेशानी होगी, दोनों भड़केंगे।’’ कोई बोला।

‘‘ हां, मस्जिद तो पक्की है और कितनी पुरानी भी मंदिर कहीं और बना लेते न।’’ जमील का ये कहना था कि आग लग गई। पास से गुजरते किसी सेवक भक्त के कानों में पड़ते ही धमाका हो गया।

‘‘हमारा खाकर हमें गाली देने वाला तू कौन है बे ?...हम क्यों सरकाए मंदिर? इतनी परेशानी है तो ले जाएं वो अपनी मस्जिद कहीं और। हमारा मंदिर यहीं बनेगा और जितने दिन चाहेंगे रहेगा। इनके बाप की नहीं हमारे बाप की जमीन है। गाड़ दिया है हमने तंबू ,दिखाए कोई उखाड़कर।’’

भक्त ने तैश में गुस्से, नफरत और अपने अधिकार का इज़हार किया। उसके कई संगी भी नजदीक आ गए। अनोखे ने चुप रहने का इशारा किया जमील को। भला हुआ जो ये लड़के नहीं जानते थे कि जमील का धरम क्या है। जमील का मन रूकने का कतई न था पर अनोखे ने उसे रोके रखा। उधर मस्जिद के पास भी भीड़ जमा हो गई। कई लोग चैकी के शोर-शराबे और बदइंतजामी से गुस्साए हुए थे। दोनों तरफ तनातनी थी और बीच में भंडारे की भीड़। दोनों तरफ के लोग। मस्जिद के पास घिरे लोग अपने धर्म पर सीधे प्रहार के कारण तो आहत थे ही उन्हें आज की जुम्मे की नमाज की फिक्र भी थी। यहां भी नमाज के लिए भीड़ जुटनी शुरू हो रही थी। भंडारे की भीड़ से उन्हें नमाज अदा करने की जगह निकालने में मुश्किल आने लगी। बरसों से कभी ऐसा न हुआ था कि जुम्मे की नमाज में जगह कम पड़ी हो। पर लग रहा था आज ऐसा होगा। जमील ने सोचा आज खाने के बाद वो भी नमाज अदा कर लेगा पर माहौल की नब्ज़ तेज होती जा रही थी।

मस्जिद की तरफ से आए गुस्साए लोगों ने भंडारा जल्दी निबटाने की बात कही तो हवा में जहर फैल गया। बात भद्दी गालियों से होती हुई सीधे तौर पर साम्प्रदायिक रंग ले बैठी। अपने-अपने धरम की पैरवी में जिसके मन में जो आ रहा था वह बके जा रहा था। ‘हमारी मस्जिद पुरानी है... हमारा मंदिर यहीं रहेगा’- जैसे जुमले हवा में तैरने लगे। उत्तेजना के माहौल को भांपकर जमील ने वहां से निकल चलने के लिए अनोखे का हाथ दबाया। पर अनोखे नहीं हिला। थोड़ी देर में आग ठंडी पड़ी पर उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता था। मस्जिद से आई भीड़ अभी वापिस लौटी ही थी कि माता के भवन के पास मांस का लोथड़ा फंेके जाने का शोर मच गया। पर अबकी बार ये शोर यों ही न थमा। चैकी के भ्रष्ट होने के साथ भक्तों का अहंकार आहत हुआ था। न किसी ने लोथड़े को देखा न तफ्तीश की और सैलाब मस्जिद की ओर बढ़ चला। इससे पहले कि लोग कुछ समझ पाते या सुरक्षित स्थान पर पहुंचते पत्थरबाजी शुरू हो गई। मामूली पत्थर नहीं भारी-भरकम ईंटंे। भंडारे की जगह लगी भीड़ में भगदड़ मच गई। कई बच्चे, आदमी और औरतें रौंदे चले जा रहे थे। लोग बेतहाशा भाग रहे थे...लोग बेमकसद मर रहे थे। धरम के नाम पर सब जायज था जैसे।
पत्थरबाजी जारी थी। भीड़ अंधी हो चली थी, मंदिर-मस्जिद भी दिख नहीं रहे थे बस भीड़ के दो चेहरे थे जो एक-दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। पहले मारकर कौन जीतता है इसीकी सारी लड़ाई थी। दल-बल समेत पुलिस भी आ गई तब तक। माता अब भी संहार देखकर प्रसन्न मुद्रा में थीं। स्पीकर कहीं टूटा पड़ा था। मस्जिद के आगे क्रोशिए की टोपियां छितरी थीं, वजू के लिए पानी के जग दबी-दुचकी हालत में जहां-तहां पड़े थे।  और कई शरीर कभी न उठ पाने की हालत र्में इंटों की गिरफ्त में़े थे। सड़क का सारा ट्रैफिक भयभीत दर्शकों की तरह सिमटा और सन्न था। सड़क के दूसरी तरफ भीड़ से बचकर भागे लोगों का जमावड़ा तमाशबीनों के साथ खड़ा था। सब अपनी जान बचने का शुक्र मना रहे थे और कई अपनों को ढूंढ पाने में असमर्थ होकर भय सेे चीख रहे थे। सड़क लहूलुहान थी। पत्तलें, पूरियां, सड़क पर धूल फांक रही थीं। सड़क पर पलट गए सब्जी के पतीलों से बही सब्जी खून की रंगत में तर थी। कितने ही लोग घायल, बेहोश पड़े थे। कफ्र्यू लगा दिया गया। पुलिस ने घटनास्थल की छान-बीन की। देर तक जारी इस तहकीकात का सच काफी दिन बाद सामने आया। कुछ बाहरी लोगों ने इस  काम को अंजाम दिया था। जमुनापुरी का यह पहला दंगा था। टीवी चैनलों पर साम्प्रदायिकता की समस्या पर कुछ चर्चा हुई। नेताओं ने शंाति बनाए रखने की अपील की। ग्यारह लोग मारे गए थे। मारे गए और घायल लोगों को मुआवजे की रकम सरकार से मिलना तय हो गया था। मरे हुए और घायलों की लिस्ट बनाई जा चुकी थी...  मुआवजा मृत व्यक्ति तीन लाख रूपये और घायल पचास हजार प्रति व्यक्ति।
सोसायटी में उस दिन कपूर साहब के घर सुबह से ही जमील की जरूरत आन पड़ी थी। एकदम अर्जेंट काम था। उसके आने के समय का हिसाब लगाकर मिस्टर कपूर ने गार्ड रूम में फोन लगाया-
‘‘  गार्ड , सुनो एक सौ दो नम्बर से बोल रहा हूं, जमील आए तो फौरन भेजना...सबसे पहले मेरे घर। समझे?’’
‘समझे’ शब्द की सख्ती समझकर गार्ड तुरंत बोला -‘‘सर जी, जमील और अनोखे का कुछ पता नहीं। कई दिनों से गायब हैं दोनों।’’
गौ-ग्रास लेने के लिए आने वाली गाड़ी टाइम से सोसायटी में घुस रही थी। तेज संगीत में गीत बज रहा था-‘‘ जय धरती मां... जय गऊ माता.... जय गऊ माता-जय गऊ माता।’’
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प्रज्ञा
ई-112, आस्था कुंज, सेक्टर-18 रोहिणी, दिल्ली-89
दूरभाष-9811585399
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Friday, March 18, 2016

आज मंच पर प्रस्तुत है अंतोन चेखव की कहानी ' नींद '।  कहानी  का अनुवाद तरुशिखा सुरजन ने किया है ।
कृपया  सभी पढ़े  और सम्बव हो तो अपनी महत्वपूर्ण  प्रतिक्रिया से मंच को अवगत कराये । सोमवार  से पुनः  हम अपने सदस्य  रचनाकारों की कहानियों पर  क्रमशः चर्चा करेंगे ।

।। राजेश  झरपुरे ।।

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कहानी


नींद 

( रूसी कहानी: अंतोन चेखव)


अनुवाद:तरुशिखा सुरजन
206, हाईलैंड अपार्टमेंट्स
वसुन्धरा एनक्लेव,
दिल्ली-96
मो.9868064895


रात, आया वार्का, एक तेरह वर्षीय बालिका, पालना झुला रही है जिसमें बच्चा लेटा हुआ है और बुदबुदाते हुए लोरी गा रही है-  सो जा बच्चा सो जा,
मैं लोरी गाती हूँ.....
कमरे के बाहर एक हरा बल्ब जल रहा है; कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक रस्सी बंधी है जिस पर पोतड़े और बड़ी काली पतलूनें टंगी हैं। बल्ब की रौशनी से कमरे की छत पर बड़ा सा हरा धब्बा दिख रहा है और पोतड़ों-पतलूनों की लम्बी परछाइयाँ तंदूर पर, पालने पर और वार्का पर पड़ रही हैं। जब बल्ब की रौशनी झिलमिलाती है तो धब्बा और परछाइयाँ मानो जिन्दा हो जाते हैं और हिलने लगते हैं, जैसे हवा से हिल रहे हों। उमस है। पत्तागोभी के शोरबे और जूतों की गंध महक रही है।
      बच्चा रो रहा है। बहुत देर से रोते-रोते वह थक गया है और उसका रोना कर्कश हो गया है पर फिर भी रोता जा रहा है। पता नहीं कब चुप होगा। और वार्का को नींद आ रही है। उसकी आँखें नींद से भरी हैं, सिर एक ओर झुका जा रहा है और गर्दन दुखने लगी है। वह न अपनी पलकें हिला पा रही है न ही होंठ। उसे लग रहा है कि उसका चेहरा सूख कर काठ का हो गया है और सिर इतना छोटा हो गया है मानो पिन का सिरा।
      - सो जा बच्चा सो जा- वार्का बुदबुदाती है.. तेरे लिए खीर बनाउंगी....
      तंदूर में झींगुर आवाज़ कर रहा है। बगल के कमरे में, दरवाजे के पार मालिक और उससे काम सीख रहा लड़का अफानासी खर्राटे भर रहे हैं। ...पालना शोकपूर्ण ढंग से आवाजें कर रहा है, वार्का लोरी बुदबुदा रही है -- सब मिलकर रात्रि संगीत बना रहे हैं, जो यदि बिस्तर पर लेट कर सुनो तो बहुत मधुर लगता है। अभी यह संगीत वार्का को झुंझला रहा है, परेशान कर रहा है क्योंकि उसे सुनकर नींद आ रही है और सोना मना है। भगवान न करे; यदि वार्का सो जाती है तो मालिकों की पिटाई खानी पड़ेगी।
      बल्ब की रौशनी झिलमिलाती है। हरा धब्बा और परछाइयाँ हिलने लगती हैं और वार्का की अधखुली, थकी आँखों में घुसने लगती हैं, उसके नींद से अधसोये दिमाग में धुंधले सपने उभरने लगते हैं। उसे काले बादल दिखाई देते हैं जो आसमान में एक दूसरे का पीछा कर रहे हैं और चीख रहे हैं मानो बच्चे हों। लो, हवा चल पड़ी, बादल गायब हो गए, अब वार्का को एक चौड़ा रास्ता नजऱ आ रहा है जो कीचड़ से सना है। रास्ते पर मालगाडिय़ों की आवाजाही है, लोग अपनी पीठ पर बोझा उठाये जा रहे हैं, कुछ परछाइयाँ आगे-पीछे हो रही हैं; रास्ते के दोनों ओर ठन्डे धुंधलके के पार जंगल दिख रहे हैं। अचानक बोझ उठाये लोग और परछाइयाँ कीचड़ में गिर जाते हैं। ऐसा क्यों हुआ? - वार्का सवाल करती है। उसे जवाब मिलता है - सोने के लिए, सोने के लिए, और वे गहरी नींद में चले जाते हैं, खूब अच्छी तरह सोते हैं। टेलीग्राम के तारों पर बैठे कौवे और नीलकंठ बच्चे की तरह चीख-चीख कर उन्हें उठाने की कोशिश करते हैं।
      .......सो जा बच्चा सो जा, मैं लोरी गाती हूँ.... वार्का बुदबुदाती है और स्वयं को एक अँधेरे, सीलन से भरे झोपड़े में देखती है।
      जमीन पर लेटा हुआ उसका पिता ऐफीम स्तेपानव करवटें बदल रहा है। वह उसे देख नहीं रही पर सुन रही है कि किस तरह वो दर्द से कराह रहा है और जमीन पर छटपटा रहा है। उसका हार्निया का दर्द बढ़ता जा रहा है।
दर्द इतना ज्यादा है कि वह एक भी शब्द बोल नहीं पा रहा, बस साँसें भर कर, दांतों को पीसकर ... बू-बू-बू-बू ......की आवाज़ें निकाल रहा है।
     उसकी माँ पिलागेया जागीरदार के पास दौड़ी-दौड़ी बताने गयी है कि ऐफीम मर रहा है। उसे गए हुए बहुत देर हो गयी है, उसे अब लौटना चाहिए। वार्का तंदूर पर लेटी हुई है, सो नहीं पा रही, बस पिता की दर्दनाक ...बू बू बू बू.. आवाज़ें सुन रही है। बाहर से आवाज़ आ रही है, झोपड़े के पास कोई तो आ रहा है।  जागीरदार ने  नौजवान डॉक्टर को भेजा है जो उनके यहाँ मेहमान बनकर शहर से आया है। डॉक्टर झोपड़े में घुसा, दिख तो नहीं रहा पर उसकी खँखारने और दरवाजे के चरमराने की आवाज़ सुनाई पड़ी।
...... आग जलाइए,..... वो कहता है.
...... बू-बू-बू-बू... जवाब में ऐफीम कहता है।
     पिलागेया तंदूर के पास आकर माचिस की तीली ढूंढती है। एक मिनट सन्नाटे में गुजर जाता है। डॉक्टर अपनी जेब टटोलकर माचिस निकालता है और जलाता है।
..... अभी, मालिक, अभी, .... कहती हुई पिलागेया झोपड़े के बाहर जाती है और मोमबत्ती का जलता टुकड़ा लेकर लौटती है।
    ऐफीम के गाल गुलाबी हैं, आँखें चमक रही हैं और नजरों में एक तीखापन है, जैसे डॉक्टर और झोपड़े के पार कुछ दिख रहा हो।
....तो, क्या हुआ है? तुमने क्या कर डाला है?- डॉक्टर बोलता है, उसके ऊपर थोड़ा झुकते हुए पूछता है, - तुमको ये तकलीफ बहुत दिनों से है?
....क्या बताऊँ? सरकार, मेरा समय आ गया है... मैं नहीं बचूंगा.....
.... बकवास बंद  करो .... इलाज करेंगे, ठीक हो जाओगे?
..... आप चाहे जो कहें सरकार, आपको धन्यवाद पर हम जानते हैं..... जब मौत आ जाये तो कोई कुछ नहीं कर सकता।
    डॉक्टर 15 मिनट तक ऐफीम को देख-परख कर उठ जाता है और कहता है -
 ....मैं कुछ नहीं कर पाउँगा... तुम्हें अस्पताल जाना चाहिए, वहां तुम्हारा ऑपरेशन करेंगे। तुरंत जाना होगा...अभी के अभी! थोड़ी देर और हो जाएगी तो अस्पताल में सब सो जायेंगे, पर चिंता मत करो, मैं तुम्हें चि_ी देता हूँ। सुन रहे हो?
....मालिक, ये कैसे जायेगा? हमारे पास तो घोड़ा भी नहीं है -  पिलागेया बोलती है।
...कोई बात नहीं, मैं जागीरदार साहब से बोल देता हूँ, वो घोड़ा भेज देंगे।
    डॉक्टर चला जाता है, मोमबत्ती बुझ जाती है और फिर बू बू बू...की आवाजें सुनाई देने लगती हैं। आधे घंटे बाद झोपड़े के पास कोई आकर रुकता है। जागीरदार ने एक ठेला भेजा है। ऐफीम उठता है और अस्पताल जाने की तैयारी करता है।
    सुबह हो जाती है - साफ़, स्वच्छ सुबह। पिलागेया घर पर नहीं है, ऐफीम का हाल जानने अस्पताल गयी है। कहीं बच्चा रो रहा है और वार्का को अपनी ही आवाज़ में लोरी सुनाई दे रही है-
     सो जा बच्चा सो जा, मैं लोरी गाती हूँ....
     पिलागेया लौट कर आ चुकी है, वो छाती पर सलीब का निशान बनाती है और कहती है-
-- रात को तो वो ठीक हो रहा था, पर सुबह भगवान के पास चला गया.... स्वर्ग में उसे शांति मिले....कह रहे थे, देर कर दी ....यदि थोड़ा जल्दी ले आते तो .....
     वार्का जंगल में जाकर रोती है, पर अचानक उसके सिर पर पीछे से कोई इतने जोर से मारता है कि उसका माथा पेड़ से टकरा जाता है। आँखें खोलकर ऊपर उठाती है, उसका मालिक सामने खड़ा है।
... क्या कर रही है, जाहिल लड़की ?...बच्चा रो रहा है और तू सो रही है?
    वो जोर से उसका कान उमेठता है, दर्द से वार्का अपने सिर को झटका देती है, पालना झुलाती है और लोरी बुदबुदाने लगती है। हरा धब्बा और पोतड़ों-पतलूनों की परछाइयाँ हिलती हैं, उसे आँख मारती हैं और फिर उसके दिमाग पर कब्ज़ा कर लेती हैं। उसे दुबारा कीचड़ से सना रास्ता नजऱ आता है। बोझ उठाये लोग और परछाइयाँ लेटे हुए हैं और गहरी नींद में हैं। उन्हें देखकर वार्का को सोने की बहुत इच्छा होती है। वो तो आराम से लेट जाती पर माँ पिलागेया पास में चल रही है और जल्दी मचा रही है। दोनों काम ढूंढने शहर जा रहे है।
....भगवान के नाम पर कुछ दे दो! .. माँ राह चलते लोगों से भीख मांग रही है... भगवान आपका भला करें, दयालु लोगों!
...बच्चे को यहाँ दो!...  उसे जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई देती है।
.... बच्चे को यहाँ दे! ...वही आवाज़ दोहराती है, पर अबकी बार गुस्से में और तीखी है। ...सो रही है, नालायक?
    वार्का उछल कर उठती है और देखती है कि बात क्या है।  उसे समझ में आ जाता है कि कोई रास्ता नहीं है, पिलागेया नहीं है, राह चलते लोग नहीं हंै, बल्कि कमरे के बीच में मालकिन खड़ी है, जो बच्चे को दूध पिलाने आई है। जब तक मोटी-चौड़ी मालकिन बच्चे को दूध पिलाती है तब तक वार्का खड़ी रह कर उसे देखती रहती है और इंतज़ार करती है कि कब ख़त्म करेगी। खिड़की पर नीली धुंध आ चुकी है, परछाइयाँ और धब्बा धीरे-धीरे हलके पड़ रहे हैं, जल्द ही सुबह होने वाली है।
... ले! ... मालकिन अपना ब्लाउज़ ठीक करते हुए बोलती है।
 ...रो रहा है, ज़रूर किसी की नजऱ लगी है।
    वार्का बच्चे को लेती है, पालने में डालती है और फिर झुलाने लगती है। हरा धब्बा और परछाइयाँ धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं, अब कोई उसके दिमाग में घुसेगा नहीं और बहकायेगा नहीं। पर नींद पहले जैसी ही आ रही है, खूब आ रही है। वार्का पालने के सिरे पर अपना सिर टिका देती है और पूरा जोर लगाकर पालने को झुलाती है ताकि नींद को भगा सके पर आँखें उनींदी ही हो रही हैं और सिर भारी हो रहा है।
...वार्का, तंदूर जला! .. दरवाजे के पार से मालिक की आवाज आती है।
    यानी कि उठने का समय हो गया और अब घर के कामकाज करने होंगे। वार्का पालना छोड़कर सराय की ओर लकडिय़ाँ लेने भागती है। वो खुश है, जब दौड़ो और चलो तो उतनी नींद नहीं आती, जितना कि बैठे-बैठे। वो लकड़ी लेकर आती है, तंदूर जलाती है और महसूस करती है कि उसका काठ हुआ जा रहा चेहरा ठीक हो रहा है और विचार स्पष्ट हो रहे हैं।
...वार्का, समावार लगा! (चाय के लिए रुसी पारम्परिक बर्तन) ...मालकिन चिल्लाती है।
    वार्का कुछ तीलियाँ लेकर उन्हें जलाकर समावार में लगाने जा रही होती है कि एक नया आर्डर सुनाई देता है-
.. वार्का, मालिक के जूते साफ़ कर!
    वो जमीन पर बैठकर जूते साफ़ करती है और सोचती है कि इन बड़े, गहरे जूतों में अपना सिर घुसाकर थोड़ी देर के लिए सो जाये... अचानक जूता बढऩे लगता है, फूलने लगता है, पूरा कमरा उससे भर जाता है। वार्का की पलके मुंदने लगती हैं। तभी वो अपने सिर को झटका देती है, आँखें मसलती है और ध्यान लगाती है ताकि चीजें बड़ी न होने लगे और उसकी आँखों के सामने हिलने न लगे।
....वार्का, सामने की सीढिय़ां धो दे, नहीं तो ग्राहकों के सामने शर्म आती है!
    वार्का सीढिय़ां धोती है, कमरे साफ़ करती है, फिर दूसरा तंदूर जलाती है, स्टोर में भागती है। बहुत काम है, एक मिनट भी खाली नहीं है।
    पर कोई भी काम इतना मुश्किल नहीं है जितना कि रसोई में मेज के सामने एक जगह खड़े होकर आलू छीलना। सिर एक ओर गिरने लगता है, आलू आँखों के सामने तैरने लगते हैं, चाकू हाथ से छूटने लगता है, और पीछे से मोटी, गुस्सैल मालकिन अपनी बाहें चढ़ाये चलती रहती है, ऊपर से इतना ऊँचा बोलती है कि कान बजने लगते हैं। इसी तरह एक जगह खड़े होकर खाना परोसना, कपड़े धोना और सिलाई करना भी मुश्किल होता है। ऐसे पल आते हैं कि लगता है कि कुछ नहीं देखो, बस जमीन पर लेटकर सो जाओ।
   दिन गुजर जाता है। खिड़की के बाहर अँधेरा देखकर वार्का अपनी कनपटियां दबाती है और मुस्कुराती है। उसे खुद पता नहीं कि क्यों खुश है। शाम का धुंधलका उसकी उनींदी आँखों को सहलाता है और जल्द ही गहरी नींद का वादा करता है। शाम को मालिक के मेहमान आ जाते हैं।
....वार्का, समावार लगा! ... मालकिन चिल्लाती है।
   समावार छोटा है, सब लोगों के चाय पीने तक उसे पांच बार लगाना पड़ता है। चाय के बाद मेहमानों की फरमाइशें सुनने और पूरा करने के लिए एक ही जगह एक घंटे तक खड़े रहना पड़ता है।
... वार्का, दौड़कर तीन बोतल बीयर खरीद कर ला!
   वो दौड़कर जाती है, और तेज दौडऩे की कोशिश करती है ताकि नींद भाग जाये।
....वार्का, दौड़कर वोद्का लेकर आ! वार्का, ओपनर कहाँ है? वार्का,  ये दाग साफ़ कर।
   आखिऱकार मेहमान चले गए; रौशनी बुझा दी गयी, मालिक-मालकिन सोने चले गए।
....वार्का, बच्चे को झुलाती रहना!... आखिरी आर्डर मिलता है।
   तंदूर में झींगुर आवाज़ करता है; हरा धब्बा और पोतड़ों-पतलूनों की परछाइयाँ फिर से वार्का की आँखों में घुसती हैं और उसके दिमाग को धुंधलके से भर देती हैं।
... सो जा बच्चा सो जा,... वार्का बुदबुदाती है --  मैं लोरी गाती हूँ.....।
    बच्चा चीखता है, चीख-चीख कर थक जाता है। वार्का को फिर से गन्दा रास्ता, बोझ उठाये लोग, पिलागेया, पिता ऐफीम नजऱ आते हैं। वो सब समझती है, सबको पहचानती है पर आधी नींद में उसे यह बिलकुल समझ में नहीं आता कि वो कौन सी शक्ति है जो उसके हाथ-पैर बांधकर नीचे गिरा रही है और जीने नहीं दे रही। वो अपने आसपास देखती है, उस शक्ति को ढूंढती है ताकि उससे छुटकारा पा सके, पर नहीं ढूंढ पाती। अंतत: थककर वह अपनी सारी ताकत और नजर लगाकर ऊपर हिलता हुआ हरा धब्बा देखती है, इतने में बच्चे का रोना सुनती है और अपने दुश्मन को ढूंढ लेती है, जो उसे जीने नहीं दे रहा।
   वो दुश्मन ...बच्चा है।
वो मुस्कुराती है। उसे आश्चर्य होता है, इतनी सी बात वो अब तक क्यों नहीं समझ पाई? हरा धब्बा, परछाइयाँ और झींगुर भी मानो मुस्कुराते है और आश्चर्य जताते है।
   भ्रम वार्का को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। वो अपने स्टूल से उठती है, खूब मुस्कुराती है, आँखें मिचकाए बिना कमरे में टहलती है। उसे यह ख्याल बहुत भाता है कि वो अब बच्चे से छुटकारा पा लेगी, जो उसके हाथ-पैर बांधकर नीचे गिरा रहा था.. बच्चे को मार डालेगी और फिर खूब सोयेगी, सिर्फ सोयेगी..।
   हँसते हुए, हरे धब्बे को आँख मारते हुए और उसे उंगली से इशारा करते हुए वार्का चुपके से पालने के पास जाती है और बच्चे के ऊपर झुक जाती है। उसका गला दबाकर वो जल्दी से जमीन पर लेट जाती है, ख़ुशी से मुस्कुराती है कि अब उसे सोने मिलेगा, और एक मिनट बाद इतनी गहरी नींद में सो जाती है, मानो मर चुकी हो...।

प्रतिक्रियाएँ
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[18/03 05:14] ‪+91 99588 37156‬: पुलिस टॉर्चर में सोने नही देना भी एक टॉर्चर पद्धति है जो बिना मार पीट के अपराधी से सारे राज़ उगलवा लेती है। इस कहानी को पढ़कर नींद के आभाव की भयावहता का अहसास होता है और साथ ही क्रूर स्वामियों का भी जिनके लिए नौकर एक रोबोट का पर्याय है  । कहानी देर तक  स्मृति में टँगी रहेगी।
[18/03 11:14] Kavita Varma: दुनिया की आखरी रात बहुत अच्छी कहानी है । नीेंद ना होने पर भ्रम का होना और दिमाग का भयावह सोच लेना डरा गया । सामंतवादी प्रवात्ति किस कदर इंसान को गुलाम समझने लगती है उसका सटीक और कंपा देने वाला वर्णन है । आभार राजेश जी अच्छी कहानी पढ़वाने के लिये।
[18/03 12:17] ‪+91 94249 90643‬: कहानी का अंत भय उत्पन्न करता है ,लेकिन एक सच यह भी कि नींद हर जीव की आधार भूत आवश्यकता है ,उसे वह गुलाम लड़की कब तक झुठलाती ....अंततोगत्वा वह मुक्ति की चाह में गुनाह कर बैठी ..इंसान को इंसान ना समझ जानवर का सा बरताव मिले तो उसका हठात विध्वंसक हो उठना स्वाभाविक न भी हो तो   उसे   दया का पात्र बनाता है .
[18/03 13:59] shivani sharma Ajmer: आज बहुत दिनों बाद मच पर आना हो पाया है। काम की अधिकता थी और सचमुच नींद के लिए बहुत तराई थी।
कहानी पढ़कर मन न जाने कैसा-कैसा हो आया....
इतने अमानवीय और ह्रदयहीन व्यवहार कोई कैसे कर सकता है!!
बहुत मार्मिक कहानी । एडमिन पैनल का आभार
😊 😊
[18/03 14:26] Manish Vaidhy: नींद कहानी आसपास के परिवेश के विवरण के साथ धीरे -धीरे पसरती हुई आगे जिस रोचक अंदाज़ में बढ़ती है। वह चेखव का कमाल है पर यहाँ मैं इसके सटीक अनुवाद की बात करना चाहता हूँ। तरुशिखा जी ने जिस बारीकी और शिद्दत से यह अनुवाद हमारे बीच रखा है, जबर्दस्त कहना होगा। हमें लगता है कि हम रुसी नहीं कोई हिंदी कहानी ही पढ़ रहे हैं। यही अनुवाद की सार्थकता ही है कि कहानी हमें अपने से जोड़ ले, उसकी संवेदना हमारी होने लगे और यहाँ ऐसा हुआ भी है। समावार  से ही इसके रुसी होने का अहसास मिलता है, नहीं तो हिंदी ही लगती है। अच्छे अनुवाद के लिए तरुशिखा जी का शुक्रिया।
[18/03 16:31] Saksena Madhu: बेहतरीन कहानी  ' नींद ' अन्तोन चेखव की कहानी .......नींद मनुष्य की आवशयक आवश्यकता है .....गुलामो पर होती अमानवीयता को रेखांकित करती है ये कहानी ...दृश्य भरता जाता  है आखों में ..पाठक को भी नींद के सारे लम्हे याद आने लगते हैं ... तेरह वर्षीय बालिका पर काम के बोझ और सो न पाने की वजह उससे ये अपराध करवा लेती है ।अन्याय ही अपराध को जन्म देता है .....नींद के मनोविज्ञान को खूब उकेरा लेखक ने .. सपनों के माघ्यम से बालिका का मनोविज्ञान समझ आता है ।एक बोझ लिए घूमती रहती है वो ....बढ़िया कहानी के लिए प्रवेश और राजेश जी को धन्यवाद ।
[18/03 17:59] Pravesh soni: मालिक का सामन्ती व्यवहार और भयातीत तेरह वर्षीय नौकर के रूप में अबोध बालिका ।जो अपनी नींद उड़ाने के लिए सभी जतन करती है ,लेकिन नींद तो स्वभाविक क्रिया होती है मानवीय शरीर  की ,कहाँ तक रोक पाएगी ।बहुत ही मार्मिक चित्रण किया अनुवाद में भी ।कहानी कही रूकती नही ,पाठक के अंतर्मन में समावित होकर विचलित करती है , विशेषकर कहानी का अंत ।
जो एक नींद के लिए अबोध लड़की से गुनाह करवा देता है ।
[18/03 18:56] Padma Ji: मनोभावों को अभिव्यक्त करती सार्थक और अच्छी कहानी। भाषा और शैली कहानी को उच्च शिखर पर पहुंचती है। बाधाई
[18/03 21:37] ‪+91 94116 56956‬: चेखव की एकदम क्लासिक टाइप की कहानी जिसको आप विजुअलाइज कर सकते है । एक दृश्य जो पाठक के मन में दर्ज होता जाता है एंगिल बाई एंगिल और उसकी दृष्टि का विहान कब संवर्धित हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता ।  आभार प्रवेश जी क्लासिक पढ़वाने के लिए ।
[18/03 22:03] Rajesh Jharpare: रोटी छीना, कपड़े छीने, आलय बनने न दिया। इससे भी सामंतवादिता क्रुरता तुष्ट नहीं हुई तो तेरह वर्षीय आयावार्का की नींद भी छीन ली।
वह जो नींद में भी अपना घर, पिता-ऐफीम स्तेपानव और माँ- पिलागेय को स्पष्ट रूप् से महसूस कर पाती है पर अपनी नींद के दुश्मन को नही जानती । इसका आभास उसे बहुत बाद में होता हैं। चेखक को यह निर्णय लेने में बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ा होगा। 13 वर्षीय आयावार्मा की नींद और एक नवजात शिशु का जीवन...। किसे बचाया जाये...? हालाँकि दोनों ही ज़रूरी और महत्वपूर्ण हैं।

इस दुविधा का निवारण चेखव  के शब्दों में  ढूंढे तो आपने लिखा था ‘‘ मेरा अनुभव है कि जीवन में दर्द और पीड़ा का अहसास ही सबसे अधिक महत्तवपूर्ण हैं। मनुष्य  के दर्द और वेदना भरे जीवन में कलात्मक सत्य या लय के स्वर ढूंढ पाना एक मुश्किल काम हैं। कथाकार की खूबी यही है कि वह पृष्ठभूमि, अमूर्त और अस्पष्ट राग-विरागों में से, रूप,रंग,ताल और लय का वातावरण उपस्थित कर सके। सफलता तो तभी हैं जब यह चित्रण पढ़ने वालों के दिल को सहज ही छू जाये।‘‘ इस कहानी के साथ भी यही होता हैं। यह हमें शुरू से अपने साथ जोड़े चलती हैं। अन्त  13 वर्षीय आयावार्मा  को भय और निर्दयता से आक्रांत पलों से मुक्त कराता हैं।
 मंच पर आई बेहतरीन कहानी और अनुवाद की श्रेणी में यह भी एक कहानी ।

आज की कहानी के सभी पाठक मित्रों का शुक्रिया।  जो मित्र अपनी व्यस्तता के कारण कहानी नहीं पढ़ पाये हैं वे इसे कचहानी के ब्लाॅग मंच पर अवश्य पढ़े।
शनिवार और रविवार दो दिनों के अवकाश के बाद पुनः भेट होगी।

शुभरात्रि मित्रो।

।। राजेश झरपुरे ।।

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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