Monday, February 15, 2016




◻  मर्ज
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 📝 आशा पाण्येय
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.......तो मैं बात उस खंडहर की कर रहा था, जो मेरे गाँव के किनारे पर स्थित है और जिससे लग कर बरगद के चार विशाल पेड़ अपनी जटाओं को जमीन से लटकाये खडें हैं। यह खंडहर कई साल पुराना है और अब यह छोटे से टीले का आकार ले चुका है । पर, गाँव वाले इसे तूफानी का खंडहर ही कहते हैं। बरगद के ये चार विशाल पेड़ घने वन का आभास दिलाते हैं। मेरे गाँव को दो ओर से घेरती नदी बरगद के पेड़ों के बगल से होकर बहती है जो इस मैदानी गाँव को भी पहाड़ी गाँव जैसा सुरम्य बनाती है। मेरे गाँव की इसी सुन्दरता से मुग्ध होकर दो किलोमीटर दूर स्थित कोट (किला) के शहजादे जब दिल्ली से कोट में पधारते थे तो शाम की सैर में कभी-कभी दो चार लट्ठधारी सेवकों के साथ खंडहर पर खेलने आ जाते थे। मेरे गाँव के बच्चे, जिनमें मैं भी शामिल होता था, निहाल हो जाते थे और उनके पीछे-पीछे भागते हुए उनकी इच्छा से उनके खेल में शामिल हो जाते थे । शहजादे हमारी पीठ पर लपक कर चढ़ लेते और बरगद की डाल को छूने का प्रयास करते। हम उन्हें अपनी पीठ पर अच्छे से सम्भाले रहने में पूरी ताकत लगा देते। वे बरगद की लटकती जटाओं को पकड़ लेते और  पेंग बढ़ाने के लिए लात से हमारी छाती पर धक्का देकर झूलने लगते। दौड़कर खंडहर पर चढ़ जाते, उछलते-कूदते और अन्त में उसकी गन्दी मिट्टी से निजात पाने के लिए पास की नदी में छलाँग लगा देते। जब धुल पुँछ कर नदी से बाहर निकलते तो लट्ठधारी सेवकों के साथ कोट में चले जाते। जब कोट के शहजादे नदी में नहा रहे होते तो हम गाँव के बच्चों को नदी में उतरने की मनाही थी। लट्ठधारी सेवक घूर कर हमें भगा देते थे। हमारे गाँव के बडे-बुजुर्ग भी बच्चों को  बरज देते थे। शहजादे राजा-महाराजा थे। राजा-महाराजा और प्रजा एक ही नदी में, एक ही घाट पर, एक साथ कैसे नहा सकते हैं। उनके जाने के बाद इतनी देर से ललचाये हम बच्चे भी नदी में छलाँग लगा देते। जी-भरकर पानी में डूबते, उतराते, तैरते। खूब मजा आता। लेकिन दिक्कत तब हो जाती जब नहाने के बाद मैं लगातार छींकने लगता। माँ कहती-इतनी देर तक खंडहर की धूल में खेला, फिर नदी में नहाया इसलिए सर्दी हो गई। पर दो बाते थीं जो मुझे कभी समझ में न आईं। एक तो यह कि-खंडहर में खेलना तथा नदी में नहाना तो हम बच्चों का नित्य का खेल था पर सर्दी कोट के शहजादे के साथ खेलने से ही क्यों होती थी ? दूसरी बात यह कि गाँव के अन्य बच्चे भी तो शहजादे के साथ खंडहर की धूल में खेलते थे, नदी में नहाते थे, उन्हें क्यों नहीं होती थी सर्दी ? माँ कहतीं- तेरा शरीर नाजुक है। इस वर्षों पुराने खंडहर की जमीं हुई धूल-मिट्टी तुझे नुकसान करती है। धूल में खेल कर जब तू घंटो नहा लेता है तो छींकना शुरू कर देता है। मेरी माँ वैद्य की बेटी थी इसलिए मेरी सर्दी का यह कारण ही उसे सही लगता था। मेरे मन में एक सवाल और भी उठता था कि, कोट के शहजादे को भी तो सर्दी हो जाती होगी। वे तो और भी नाजुक रहे होंगे। दिल्ली में रहते थे। आजादी के तुरन्त बाद उनके पिता बाबूसाहब को दिल्ली से बुलावा आया था। जब वे दिल्ली से कोट में आते तो उनकी गाड़ी के आगे-पीछे कई-कई गाड़ियाँ होती। अगल-बगल के गाँवों के तमाम लोग उमड़ पडते थे बाबू साहब के दर्शन के लिए। तो ऐसे में मेरा यह सोचना कि शहजादे मुझसे अधिक नाजुक होंगे और नदी में नहाकर बीमार पड जाते होंगे। कतई गलत नहीं था। दिन बीतते गये पर दिमाग में प्रश्न कुलबुलाता ही रहा। मेरे पास इस प्रश्न के हल का कोई जरिया भी न था। खंडहर की धूल साल भर मेरे नथुनों में समाती रहती पर छींक शुरू होती शहजादे के आने के बाद ही। लो, मैं तब से खंडहर का ही जिक्र किये जा रहा हूँ। अरे भाई, जब तक मैं आपको ये न बता दूँ कि आखिर इसका रहस्य क्या है,  आप समझेंगे कैसे ?... नही जी, डरें नहीं, किसी भूत-प्रेत का निवास नही है यहाँ। बारह बजे रात में यहाँ भूतों की सभा नहीं लगती है और न ही घुँघुरुओं की रुन-झुन सुनाई पड़ती है। मुझे रात में सुनाई जाने वाली आजी की कहानियों ने टुकडों-टुकडों में इस खंडहर के रहस्य को तोड़ा था। आजी इस गाँव में तथा आस-पास के कई गाँवों में ऐसे कई खंडहर होने की बात करती थीं जो खुली आँखों से तो नहीं दिखते लेकिन मौजूद हैं आज भी। खैर... तो आजी बताती थीं कि, यह खंडहर हमारे गाँव के मातादीन उर्फ तूफानी का घर था।  दादा, बाबा के जमाने की दो खण्ड की बखरी थी उसकी। निरबसिया था मातादीन। उसके मरने के बाद घर की देख-भाल करने वाला कोई न बचा। कुछ दिन तक तो घर आँधी-तूफान से अकेले लड़ता रहा फिर भहरा के खंडहर बन गया। यह उन दिनों की बात थी जब राजे-रजवाड़ों का राज था। गाँवों में जमींदारों की तूती बोलती थी। मेरे गाँव से सिर्फ दो कि.मी. की दूरी पर स्थित इस कोट में जमींदार बाबू रायबहादुर साहब का राज था। बड़ा रुतबा था रायबहादुर साहब का। हाथी पर बैठ कर जब वे अपने इलाके में निकलते तो इलाके के लोग अपना सिर नीचे झुका कर उनके वहाँ से आगे चले जाने तक खड़े रहते थे । गाँव  की बहू-बेटियाँ अपना-अपना काम बीच में रोक कर घर के भीतर चली जातीं थीं। बाबू रायबहादुर की नजर जिधर घूम जाती थी वहाँ कहीं दया बरस पड़ती थी तो कहीं क्रोध उबल पड़ता था। मातादीन गाँव का गरीब किसान था। गरीब यूँ कि दादा-बाबा के जमाने से ही जमीन बँटते-बँटते उसके हिस्से में सिर्फ चार बिस्वा जमीन ही आई थी। बरसात के महीने में वह उसी जमीन में धान बो लेता था, ठण्डी में गेहूँ। कभी फसल अच्छी हो जाती थी, कभी खराब। जमींदार का लगान चुकाने के बाद उसके पास इतना अनाज नहीं बच पाता था कि वह साल भर अपना और अपनी पत्नी का पेट भर सके। चार बिस्वा जमीन होती ही कितनी है ! वैसे गाँव वालों का मत था कि मातादीन के घर में दरिद्दर समा गया है। बिना बाल बच्चों का, सिर्फ दो जन का परिवार, फिर भी आये दिन फाँका ही पड़ा रहता है। एक दिन मातादीन ‘कोट’ के बगल से निकल रहा था। ‘कोट’ के मुख्य दरवाजे पर दो हट्टे-कट्टे दरबान तेल पिलाई लाठी लिए खड़े थे। मातादीन कोट के नजदीक पहुँचने के कुछ पहले से ही अपना सिर नीचे झुकाकर चला आ रहा था। मुख्य दरवाजे तक आते-आते एक बार उसका सिर ऊपर उठ गया। लगान उगाही का समय था। मजदूर लगान में मिले अनाज को बोरों में भर कर अहाता की दीवाल से सटा कर रख रहे थे। बोरों को, एक के ऊपर एक लादते हुए अहाता की दीवाल की ऊँचाई के बराबर तक रखा गया था। मातादीन ने क्षण भर के लिए सिर ऊपर उठाया था, पर भूख की तीव्रता सीधे अनाज  के बोरों से जा टकराई। क्षण-भर में ही उसने बोरों के रख-रखाव की स्थिति का अन्दाज लगा लिया। अब उसके दिमाग में हलचल मची। तमाम तरह की योजनाएँ बनने बिगड़ने लगीं। अपने रास्ते पर चलते हुए वह कोट के पिछवाड़े तक आ पहुँचा। एक बार फिर उसने अपनी नजरें अहाते के दीवार की ओर गडा दी। क्षण भर ठिठक कर कोट की ओर देखा और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। आधी रात बीत जाने के बाद एक धम्म-सी आवाज ने कोट के पहरेदारों को सचेत कर दिया। जिस ओर से आवाज आई थी पहरेदार उस ओर दौड़ पडे।  जब तक पहरेदार पिछवाड़े पहुँचते, मातादीन पीठ पर गेहूँ का बोरा लादकर भागने लगा था। पहरेदार मातादीन के पीछे दौड़े जरूर पर उसे पकड़ न पाये। अँधेरी रात का फायदा उठाकर मातादीन आम के घने बगीचे में घुस गया।  वहाँ से वह किस ओर भागा, पहरेदार समझ न पाये । कुछ देर खोज-बीन करके वापस लौट आये। सुबह होने पर डरते-डरते पहरेदारों ने बाबू साहब से रात की सम्पूर्ण घटना का बयान किया। चोर का साहस सुनकर, बाबू साहब अचम्भित हुए तथा अपने पहरेदारों की नाकामी पर क्रोध भी आया उन्हें। उन्होंने पहरेदारों को डपटा - ‘‘तुम दोनों के हाथ में सिर्फ लाठी थी और चोर के पीठ पर पचास किलो वजन का बोरा, फिर भी वह भाग निकला !  तुम लोग उसे पकड़ न पाये ! बस मुसडण्डों की तरह खा-खाकर फैल रहे हो... आज से तुम दोनों पहरेदारी नहीं करोगे... जाकर खेत में काम करो और हाँ, रसोइयें को कह दो कि इन दोनों को एक वक्त का भोजन बन्द कर दे... ससुरे भैंसे जैसे मोटाये जा रहे हैं ’’ बाबू साहब को क्रोध में देख कर कोट में सन्नाटा छा गया था। दोनों पहरेदार सिर झुकाये खड़े थे।  यह पहला अवसर था जब पहरेदारों को इतनी बडी गलती की सजा में सिर्फ एक वक्त का भोजन बन्द किया गया था, कोड़े नहीं बरसाये गये थे उन पर। बाबूसाहब का मन बिचलित था। वे उस व्यक्ति को देखना चाहते थे जो पीठ पर बोरा लाद कर भी इतनी तेज भागा कि उनके पहरेदारों की पकड़ में न आया। बाबू साहब ने हुक्म दिया कि आस-पास सभी गाँवों में डुग्गी पिटवा दी जाये कि कोट से गेहूँ का बोरा लेकर भागने वाले व्यक्ति के साहस से बाबूसाहब खुश हैं.... उसे वे अपने हाथों से इनाम देना चाहते हैं... आज दोपहर तक उस व्यक्ति को कोट में हाजिर होने  का हुक्म दिया जाता है।... यह फरमान सुन कर भी यदि वह व्यक्ति कोट में हाजिर न हुआ तो बाबूसाहब के जासूस उसे खोज निकालेंगे और उसकी चमडी उधेड ली जायेगी। डुग्गी की आवाज ने मातादीन की घरवाली को डरा दिया। काँपती आवाज में वह मातादीन पर बिफर पड़ी -- “लो और करो राजे-रजवाड़ों के यहाँ चोरी ... जल में रहे मगर से बैर। अब खाओ पेट भरकर। मति मारी गई थी तुम्हारी... तुम तो मरोगे ही मुझे भी मरवाओगे....।‘ ‘चुप कर, ध्यान से सुन तो। सुन, वो लोग क्या बोल रहे हैं... इनाम मिलेगा इनाम। पीठ पर पचास किलो अनाज का बोरा लादकर कोट के पहरेदारों से अधिक तेज भागने वाले पर बाबू साहब खुश हुए हैं। तब से बडबडाये ही जा रही है।‘ मातादीन तुनक कर घर से बाहर निकल गया। डुग्गी की आवाज पूरे गाँव में गूँज रही थी। गाँव के लोग गहरे आश्चर्य में थे। कोट से अनाज चुराने का साहस !  किसने किया होगा ! मातादीन तन कर डुग्गीवालों के पास चला गया। गाँव वाले चौंक गये। आँखें मल-मल कर सब मातादीन को देख रहे थे। जैसे, विश्वास करना चाह रहे हों कि हाँ, यही हकीकत है.. वो नींद में नहीं हैं। मातादीन गर्व से झूमते हुए डुग्गीवालों से कह रहा था-‘‘बन्द करो ये डुगडुगी... मैं ही हूँ तूफान मेल, कोट से बोरा लेकर भागने वाला... चलो, चलकर मेरे घर में बोरा देख कर विश्वास कर लो, फिर ले चलो मुझे बाबूसाहब के दरबार में.... बडे दिन बाद किस्मत बदली है।’’ मातादीन की मुरझाई आँखें चपल हो गई थीं। बस उस दिन से मातादीन गाँव में तूफान मेल के नाम से जाना जाने लगा। धीरे-धीरे तूफान मेल से कब तूफानी में बदल गया, पता ही न चला। अब गाँव वाले उसे तूफानी ही कहने लगे थे। नही जी, कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। मैं भी तो देखो, कितना पागल हूँ ! उसके नाम पर अटक गया... अरे गाँववाले उसे किसी भी नाम से बुलाये जी, क्या फर्क पडता है ? तो चलिए मैं आगे की कहानी सुनाता हूँ। डुग्गी पीटने वालों को गेहूँ का बोरा दिखा कर मातादीन ने अलगनी से अँगोछा उठाया और कन्धे पर डाल कर कोट जाने के लिए तैयार हो गया। उसकी घरवाली डर के मारे काँप रही थी। हाथ जोड़ कर डुग्गी पीटनेवालों से ही विनती कर डाली, ‘‘दया करें हुजूर, भूख ने ये गलती करवाई है।’’ मातादीन अपनी घरवाली की बेवकूफी पर हँस पडा, ‘’औरत की जात... अकल तो एड़ी में रहती है। खुशी के मौके को भी रो-धोकर खराब कर रही है।.... बाबू साहब इनाम देने के लिए बुलाए हैं.... फाँसी चढ़ाने के लिए नहीं।’’ ‘’राजे-रजवाड़े की बात ! कब गुस्सा भड़क जाए, भगवान भी न समझ पायें... मैं तुमको वहाँ अकेले न जाने दूँगी...साथ चलूँगी तुम्हारे।’’ मातादीन की घरवाली अड़ गई थी। मातादीन इनाम मिलने की खुशी में डूबा था। घरवाली को कोट में साथ ले चलने की बात मान गया। किसी विजेता की भाँति सबसे आगे मातादीन उसके पीछे डरी-सहमी उसकी घरवाली, तथा सबसे पीछे डुग्गीवाले कोट की ओर बढ़े जा रहे थे। मातादीन की घरवाली का एक मन उखड़ता, डरता, काँपता तो दूसरा मन उसे थपथपा भी देता, क्या पता, मातादीन सच कह रहा हो... दिन फिरने वाले हों,  खुशी का क्षण आने वाला हो। कोट पहुँच कर मातादीन को बाबू रायबहादुर के सामने पेश किया गया। मातादीन की घरवाली भी उसके पीछे-पीछे बाबू साहब के सामने आ गई। बाबू साहब कुछ पूछते उसके पहले ही डुग्गीवालों ने बता दिया-इसकी घरवाली है हुजूर , मानी नही, जबरन इसके साथ यहाँ तक आ गई। ‘‘हूँ’’ बाबू साहब ने ऊपर से नीचे तक एक नजर उस पर डाली फिर मातादीन की ओर मुखातिब हुए- ‘’तो तुम हो हमारे कोट से अनाज चुराकर भागने वाले।’’ इनाम मिलने की खुशी में सराबोर तूफानी बाबू साहब की हुंकारती हुई रौबदार आवाज को सुन कर काँप गया। गर्दन नीची हो गई उसकी। ‘‘देखने में तो मरकट जैसे पिलपिले दिख रहे हो लेकिन, ताकत इतनी है तुममें ! वाह भाई वाह... कमाल है तुम्हारा। इनाम तो तुम्हें जरूर मिलेगा लेकिन, चोरी की सजा पहले मिलेगी... और सजा भी ऐसी मिलेगी कि फिर कोई दुबारा ऐसा दु:साहस न कर सके।’’ ‘‘.....अरे भाई ! सजा जरूरी है। कोट में चोरी की हिम्मत !’’ अपने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए बड़ी धीर-गम्भीर आवाज में, किसी रहस्य का उद्घाटन करने जैसी मुद्रा में बाबू साहब बोले जा रहे थे। परिणाम की गम्भीरता का अन्दाज लगा कर मातादीन काँपे जा रहा था। अब तक सिकुड़ कर एक ओर खड़ी उसकी घरवाली आगे बढ़ कर बाबूसाहब के पैरों पर गिर पड़ी। ‘‘दुहाई हो सरकार की, दया करें माई-बाप, रहम करें... पेट की आग ने ढिठाई करवाई  हुजूर ! इसे बख्श दें... आगे से ऐसा नहीं होगा सरकार, ये कोट की तरफ आँख उठा कर देखेगा भी नहीं। एक बार सरकार, बस एक बार माफ कर दें। घबराहट में उसे ध्यान ही न रहा कि कब उसके चेहरे का घूँघट हटा और कब उसका आँचल सिर से भी फिसल गया। वह तो बस धार-धार रोये जा रही थी और माफ करने की विनती किये जा रही थी। बाबू साहब ने अनावृत हुए उसके चेहरे को नजर भर कर देखा, इतनी सुन्दर! इस मरकट की झोली में ! कुछ क्षण उसे देख लेने के बाद उन्होंने एक लम्बी साँस ली फिर मातादीन की ओर देख कर अपनी आवाज को भरसक मधुर बनाते हुए बोले ‘’चलो, तुम्हारी सजा माफ की.. और इनाम तुम्हारा यह है कि हर महीने एक दिन तुम कोट में आ जाया करो... अपनी पीठ पर गेहूँ का जितने किलो वजन  का बोरा लाद सको, लाद कर चले जाया करो।’’ यह सुन कर मातादीन खुशी और कृतज्ञता से बाबू साहब के कदमों पर लोट गया। बाबू साहब की बात अभी पूरी नहीं हुई थी उन्होंने आगे कहना शुरू किया- ‘‘हाँ भई , मेरी एक शर्त है, जब मैं तुम्हारे घर खबर भिजवाऊँ तब अपनी घरवाली को अनाज की साफ-सफाई के लिए कोट में भेज दिया करो। इसकी मजदूरी तुम्हें अलग से मिल जायेगी।... देख तो रहे हो यहाँ मजूरिनों की कितनी कमी है। अब अनाज को चालना, पछोरना महिलाएँ ही कर पाती हैं न। अब तुम अपना इनाम लेकर घर जाओ और इसे यहीं छोड जाओ। अनाज का जो ढेर लगा है ये उसे साफ कर देगी तो हमारे सेवक इसे तुम्हारे घर पहुँचा आयेंगे।’’ मातादीन जड़ हो गया। खुशी टूट कर धराशायी हो गई। सूखते गले और तालू से चिपकती जबान से शब्दों को ठेल कर इतना ही कह पाया कि ‘‘हुजूर, घर में भी बहुत काम रहता है.. इसका आना... पर मातादीन के लाख प्रयत्न के बाद भी उसके शब्द बाबूसाहब तक न पहुँच सके। उसका बोलना पूरा होता उससे पहले ही बाबूसाहब वहाँ से उठ कर चले गये। मातादीन अनाज चालने-पछोरने का मतलब समझता था। समझती उसकी घरवाली भी थी। किन्तु विरोध का साहस किसी में नहीं था। ये बाबू साहब  का हुक्म था। हुक्म का विरोध नहीं होता। क्या करे मातादीन ! किससे कहे। दोनों धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गये। चुपचाप बैठे रहे। निःशब्द ,  भीतर सुलगते हुए, ऊपर से मौन। मौन का धुँआ उठता रहा जिससे दालान भर गया। धुँए से दोनों की साँस घुटने लगी पर कुछ अनहोनी नहीं हुई जैसे दोनों ने ही समझ लिया हो कि यही हमारी नियति है। धुएँ में जीना, जीवित दिखना। मातादीन के चेहरे पर शर्मिन्दिगी थी तो उसकी घरवाली के चेहरे पर अफसोस | क्यों आई थी कोट  में। ‘‘कब तक यहाँ बैठा रहेगा तू, बाबू साहब का हुक्म हुआ है कि अनाज लेकर तू गाँव जा, इसे यहीं छोड़ जा। इसको काम समझा दिया जायेगा।’’ किसी सेवक की कर्कश आवाज ने दोनों को चौंका दिया। मातादीन ने साहस किया, ‘‘मुझे अनाज नहीं चाहिए। कल रात में ही तो बोरा भर अनाज ले गया था।’’ धत्त ससुर, ले गया था कि चुराया था.... चल उठ यहाँ से, उठा बोरा और निकल जा। मातादीन की घरवाली पति के हाथ को पकड़ कर उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगी फिर न जाने क्या सोच कर धीरे से अपना हाथ खीच ली तथा सेवकों के साथ मातादीन को जाता हुआ देखती रही। मातादीन जा नहीं रहा था। जमींदार के सेवक उसे धक्के देकर निकाल रहे थे। अब बाकी जिन्दगी उसे ऐसे ही धक्के खाने थे। पहले गरीबी थी। गरीबी के साथ मधुर गीत थे। इन्द्रधनुषी रंग थे। जिसमें दोनों डूबते उतराते और गरीबी को सोख जाते। पेट पिचकता पर होठों से हँसी झरती। पर अब गीत विस्मृत हो गये, इन्द्रधनुषी रंग पुछ गया । अब, जब-तब कोट से उसकी घरवाली के लिए बुलावा आने लगा। तूफानी ने विरोध किया भी किन्तु जमींदार बाबू साहब ने उसके आस-पास आतंक का ऐसा साम्राज्य फैलाया कि तूफानी उसमें घिरकर फँस गया। बोल ही न फूटे उसके। बाबूसाहब के हुक्म से तूफानी गेहूँ के बोरों को अपने घर लाता रहा पर उन्हें खोलता कभी न। फाँके पर फाँके पड़ते रहे, पर कोट का एक दाना भी दोनों न छूते। ऐसा करके उन्हें अपने स्वाभिमान को बचा ले जाने अथवा जमींदार से लड़ जाने का सन्तोष होता। जमींदार को क्या फर्क पड़ता है, न खुले बोरा। बोरा खोलना, न खोलना तूफानी की इच्छा है। जमींदार अपनी इच्छा का सोचता है। उसकी इच्छा पूरी हो रही है। यूँ तो अब विष निगलना सीख लिया था तूफानी ने पर क्या करे उस शरीर का जहाँ भीतर ही भीतर घुमड़-घुमड़ कर विष अपना प्रभाव दिखाने लगा था। यह विष उसकी घरवाली पर भी चढ़ रहा था। दिनों-दिन सूख रही थी वह। सुन्दरता जाती रही उसकी। कुछ सालों बाद कोट से उसका बुलावा बन्द हो गया पर दोनों के चेहरे पर खुशी न लौटी। दोनों के पेट और दिल में आग धधकती जिसमें वे झुलसते जा रहे थे। इस दाह को सहना उनके वश का नहीं रह गया था अब। कहते हैं गेहूँ के बोरों से अटा था उनका घर पर प्राण निकले उनके भूख से। कुछ दिनों के अन्तराल में बारी-बारी से बिदा हो गये दोनों। फिर कुछ दिनों बाद घर भी गिर भहरा गया। तो ये था उस खंडहर का इतिहास। आजी ने टुकड़ो-टुकड़ो में यही बताया था। अब आप भी सोच रहे होंगे कि इसमें ऐसा क्या था कि मुझे उबकाई-सी आती है इसको जोड़ते वक्त ! आजी ने और भी कई बातें बताई थी बाबू साहब की बहादुरी (!) की। हाँ जी, किसना, ननकू, सद्दीक... कई नाम थे, जो बाबू साहब के अलग-अलग खेल के अलग-अलग विदूषक थे। पर न जाने क्यों मेरा छींकना शुरू हुआ इसी खण्डहर की धूल से ! सुबह दरवाजा खुलते ही ताजी हवा के झोंको के साथ खंडहर की धूल मिट्टी भी समा जाती है मेरे नथुनों में। बस छींकना शुरु हो जाता है मेरा। ‘‘कोई इलाज नहीं है भाई, लाइलाज है यह बीमारी।’’ ‘‘........................................................................’’ ‘‘अरे नहीं, इलाज करवाया था। डाक्टर , वैद्य, हकीम सब के पास गया था पर धूल को पहचानते ही सब हाथ खींच लेते हैं।... अब तो इसमें दिल्ली की धूल भी समा गई है न।’’ लाल किला पर जब पहली बार तिरंगा लहराया था तो आजी समेत गाँव-जवार के तमाम लोगों को लगा था कि अब अपना राज आ गया है। फुर्सत मिली ठकुरसोहाती से। पर कहाँ ? बाबू साहब पहुँच गये दिल्ली और वहाँ से लद-लद कर आने लगी धूल जो मेरे गाँव के इस खण्डहर से चिपकती ही चली गई। पहली मर्तबा जब बाबूसाहब दिल्ली से कोट में आये थे, याद था आजी को, उनकी गाड़ी के आगे-पीछे गाड़ियों का रेला निकला था। तीन से चार दिन तक टोकरी भर-भर कर मिठाईयाँ बँटती रहीं थी गाँवों में। सब खुश थे। अपना राज।अपने राजा। जिस दिन राजा राजधानी को लौटे उससे एक दिन पहले की रात कोट के बायें स्थित गाँव की दो लड़कियां गायब हो गईं थीं। दबी जबान में आजी और गाँव की बहुत-सी महिलाओं  का मानना था कि गाड़ी में बैठाकर उन्हें दिल्ली ले जाया गया था, पर दूसरे यह बात मानने को तैयार नहीं थे। आखिर क्या  कमी है दिल्ली में लड़कियों की। एक से बढ़कर एक, परी जैसी लड़कियां लोंटती होंगी बाबू साहब के कदमों में। इन मैली कुचैली लड़कियों का क्या करेंगे वे। बाबूसाहब की ओर से बोलने वाले हजारों, लड़कियों को खोजने वाले सिर्फ उनके माँ-बाप, उनका परिवार। कहते हैं यह बात भी दब गई इसी खण्डहर के नीचे। जब देश में पहला चुनाव आया था तब तक मैं खासा समझदार हो गया था। शहजादा साहब जो बचपन में इसी टीले पर उछल-कूद कर अपना पैर मजबूत किये थे, अब चुनाव लड़ रहे थे। पूरी जवार धन्य-धन्य हो उठी थी। बाबू साहब के वारिस ! अपने राजा ! मैं गाँव-गाँव घूमता हुआ लोगों से कहता-  ‘सोचो भाई, कब तक चिपकती रहेगी खंडहर में मिट्टी।  पहले ये कोट में बैठकर अत्याचार करते थे अब दिल्ली में बैठकर कर रहे हैं । कहाँ मिली हमें स्वतन्त्रता ? बस रूप बदल गया है इनके शासन का। इनकी क्रूरता से खंडहर बढेगें गाँव में।‘ मेरी बात सुनकर सब हँस देते जैसे मैं पागलपन के दौरे में बोल रहा था। मैं, इस घर से उस घर, इस गाँव से उस गाँव चक्कर लगाता रहा। शहजादा साहब की गाड़ियाँ लोगों को बूथ तक पहुँचाती रही। लठैतों का ऐसा जमावड़ा कि विरोधी वोट ही न डाल पाये। एकाध जो पहुँच भी गये बूथ तक तो वे भी बदरंग ही लौटे। उनका वोट पहले ही डाला जा चुका था। भारी बहुमत से जीत गये शहजादा साहब। जीत का जश्न जब मना तो कुछेक के हाथ-पैर भी तोड़े गये जिसमें मैं भी शामिल था। ढोल-नगाडे, लाई बताशे, मिठाइयाँ, चीख पुकार सब एक में एक गड्ड-मड्ड। जीतकर मन्त्री बन गये शहजादा साहब । कोट तक पहुँचने के लिए सड़क बनी, जो चकरोट को छोड़ते हुए खेतों के बीच से होकर निकली। गरीबों के खेत गये तो क्या हुआ, मुख्य सड़क से कोट की दूरी तो एक किलोमीटर कम हो गई। सड़क पर डामर फैलाकर चमकाया गया । कोट चमका। सड़क चमकी। चमक का कुछ कतरा आस-पास के गाँव में भी छितराया। अधिक मुनाफे के नाम पर हरे आम के सघन बगीचे को काट कर उस जगह युकलिप्टिस लगाया गया। शहजादा साहब गरीबों के बारे में सोचते थे। दस-दस पैसे के पौधे मुफ्त में बँटवा दिये। खेतों में गेहूँ धान की जगह सफेदा लग गया। अब जब सफेदा बडा हो जायेगा तो बिजली के खंभो के लिए सरकार खरीद लेगी । शहजादा साहब ही बिकवा देंगे अच्छे दामों में। पैसा ही पैसा बरसेगा गाँव में। कुछ दिन गेहूँ धान नहीं बो पाये तो क्या ? आम गया तो क्या ? छाँव गई तो क्या ? सफेदा तो है। सफेदे पर  चढ़कर बिजली आयेगी गाँव में। कच्चे आम को खा-खा कर, पक्के आम को चूस-चूस कर जो अपना पेट भरते थे वे भी खुश थे। बटन दबाते ही लप्प से उजियारा फैल जायेगा। शहजादा साहब कहते हैं तो जरूर ऐसा होगा। धीरे-धीरे सफेदा की जड़ें जमीन में फैलने लगीं, गाँव-जवार के कुएँ सूखनें लगे। पानी के लिए गाँव की लडकियाँ गगरा, बाल्टी, मटका लेकर इधर-उधर भटकने लगीं। नदी भी बस, एक पतली धार के रूप में बची है । जमीन की उर्वराशक्ति बिला गई।चुनाव आता रहा, मैं छींकता रहा। लो, अब फिर से चुनाव आ गया । दिल्ली के एक युवा राजकुमार के आवाहन पर देश भर के तमाम राजा महाराजाओं के पुत्र पुत्रियों को टिकट दिया गया। हमारे क्षेत्र से शहजादा साहब के पुत्र को टिकट मिल गया। एक बार फिर मेरी दौड़ शुरू हुई गाँव जवार में। मैं कहता रहा कि किसी कर्मठ इंसान को चुन कर भेजो दिल्ली तब बदलेगा हमारा भाग। कोट को छोडो अब, नहीं तो वो बने रहेंगे हमारे राजा और हम उनकी प्रजा। बस प्रजा ही बने रहना हमारा भाग्य बन गया है। बदलो इसे। मैं नौजवानों को खंडहर से लेकर कोट तक की कहानी बताता रहा, पर उसी खंडहर को लतियाते, धकियाते लोग पहुँच गये  बूथ पर और जीत गये राजकुमार। प्रजा खुश। देश की जनता शासन की बागडोर युवा नेतृत्व को सौंपना चाहती है। अब होगा परिवर्तन ! अब आयेगा रामराज्य ! मैं छींक ही रहा हॅूं। गाँव वालों की तमाम अच्छी बातों पर मैं छींकता ही रहता हूँ। अशुभ का संकेत। बूढ़ा हो चला हूँ, सठिया गया हूँ। गाँव वाले मुझसे कतराते हैं, पर मैं क्या करूँ ? वे कहते हैं कि मैं अपना दरवाजा खंडहर की ओर से बन्द कर के पिछवाड़े की ओर से खोल लूँ । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। पर मैं खंडहर से चिपका ही हूँ । गाँव वालों की बातों पर कान ही नहीं धरता। खंडहर की धूल मिट्टी फांकता जा रहा हूँ, छींकता जा रहा हूँ। ....मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। छींक खरास, खाँसी तक तो ठीक था पर अब तो चौबीसों घंटे नाक के साथ-साथ आँख भी बह रही है । लोग कहते हैं कि रोग अब दिल तक पहुँच गया है।
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डॉ. आशा पाण्डेय ५, योगीराज शिल्प कैंप , अमरावती ४४४६०२ मो.9422917252


प्रतिक्रियाएँ
⭕⭕⭕⭕⭕⭕
[15/02 08:03] ‪+91 86290 84484‬: आज की सुबह इतनी सहज सटीक और विचारोत्तेजक कहानी से गुलजार करने के लिए मंच का आभार। यह मात्र ऐक कहानी नहीं कई कहानियां भीतर समेटे हुए है। कड़वी सच्चाई से रूबरू होती यह   कहानी पाठक को भीतर तक उद्वेलित करती है। लेखक और मंच का बहुत-बहुत आभार शुक्रिया।
[15/02 08:16] ‪+91 86290 84484‬: मधु जी लेखक ने बड़ी ही खूबसूरती से सत्ता हस्तांतरण की ओट से गुलामी के स्थायित्व की विवेचना की है।  यह सच है स्वतंत्रता मिली मगर उतनी नहीं। समर्थ का सिक्का तो पूर्ववत चल ही रहा है।
[15/02 08:28] Varhsa Raval: बहुत बढ़िया कहानी मर्ज़ । आशा जी को बधाई , गरीब अगर गुनहगार भी हो जाए तो उसके शोषण की गुंजाईश और बढ़ जाती है, यही हुआ भी कहानी में । कहानी का प्रवाह ,भाषा सब बढ़िया👍👍
[15/02 08:31] ‪+91 86290 84484‬: हां वरषा जी सही कहा आपने। गरीब का विरोध भी देखिये भूखे मर गए मगर ऐक दाना तक नहीं खाया।
[15/02 08:35] Niranjan Shotriy sir: विजय जी,वर्षा जी और मधु जी से सहमत। अच्छी कहानी। शोषण और उसके प्रतिरोध का उम्दा स्वर।
[15/02 10:02] Alka Trivedi: कभी कभी ऐसा होता है कि हम किसी कहानी को पढ कर बस बैठे रह जाते हैं डूब जाते हैं ।तो आज ऐसा ही कुछ है।बहुत अच्छी कहानी।विश्लेषण तो सभी करेंगे ही  हम तो आनंद ले रहे हैं
[15/02 12:48] ‪+91 86290 84484‬: भाषा की रवानगी देखिये

मौन का धुँआ उठता रहा जिससे दालान भर गया। धुँए से दोनों की साँस घुटने लगी पर कुछ अनहोनी नहीं हुई जैसे दोनों ने ही समझ लिया हो कि यही हमारी नियति है


 इन्द्रधनुषी रंग पुछ गया । अब, जब-तब कोट से उसकी घरवाली के लिए बुलावा आने लगा

दिनों-दिन सूख रही थी वह। सुन्दरता जाती रही उसकी कुछ दिनों बाद कोट से बुलावा आना बंद हो गया।

कहाँ मिली हमें स्वतन्त्रता ? बस रूप बदल गया है।

....मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। छींक खरास, खाँसी तक तो ठीक था पर अब तो चौबीसों घंटे नाक के साथ-साथ आँख भी बह रही है । लोग कहते हैं कि रोग अब दिल तक पहुँच गया है।

इतनी सरल भाषा में कितनी गहरी संवेदना।

लाजवाब
[15/02 13:31] ‪+91 94257 11784‬: आदरणीया आशा पाण्डेय जी की कहानी , मर्ज में हमारे अपने समय के दुस्सह हालातों की व्यथा कथा व्यक्त हुई है ।आजादी के 60 (68)वर्ष  बाद भी शासन तंत्र पुराने राजे रजवाडो, उनके वारिसों या उन्हीं जैसी मानसिकता वाले विलासी एवं सुविधाभोगी लोगों के हाथों में है।शासकों की सुविधा के लिए गरीब किसान के खेत के बीच से सडक   का निकाला जाना, आमके पेडों को काटकर यूकेलिप्टस के पेडों  का लगाया जाना , लडकियों का गायब किया जाना,  लठैतो' की सहायता से चुनाव जीतना आदि आदि अनेकानेक  विसंगत और अन्यायपूर्ण स्थितियां  इस कहानी  में समाविष्ट हुई हैं ।
 वस्तुतः ऐसी उत्पीडक और शोषक स्थितियों के बदलाव के लिए मर्ज जैसी ककहानियों का लिखा जाना बहुत आवश्यक है ।परन्तु उनके सृजन  में यह सावधानी भी अत्यंत आवश्यक है कि  उनके कहानीत्व पर कोईआलेखी रुक्षता हावी न हो जाए ।
   वहरहाल यह कहानी सामान्य जन की  तकलीफों की ओर हमारा ध्यानआकर्षित करती है और इस तरह बुनियादी  लेखकीय धर्म सहज साधित  हो रहा है ।इस हेतु इस सोद्देश्य लेखन के लिए  आशा जी को बधाई ।मंच को साधुवाद ।
[15/02 16:03] Pravesh: आदरणीय जगदीश तोमर जी आपकी बात से सहमत हूँ ऐसी कहानियों में कहानीत्व बना रहना आवश्यक है ।आलेखीय रूक्षता हावी न हो ।बहुत बहुत आभार आपका सर ।
🙏

कहानी मर्ज मेंअन्यापूर्ण और  शोषक परिस्तिथियाँ आज भी  देखी  ,सुनी जा रही है ।कहानियां हमारे आस पास के परिदृश्य का  बिम्ब ही होती है । आज यह लिखा जा रहा है ,मतलब मर्ज अभी कायम है ।वर्तमान  में  शासन जैसे पुराने  रजवाड़ों के वारिसों के ही हाथ में है ।
कैसी स्वतंत्रता ? सवाल मुँह बाये खड़ा है ।शोषित वर्ग अपना स्वाभिमान बचाने के खातिर भूख से मरना स्वीकार कर रहा है ।मर्ज सड़ रहा है ,मवाद रिस रहा है ।बदबूदार वातावरण ,जिसमे एक वर्ग मुँह पर रुमाल लगाकर कहता है घृणित है यह ।पर करता कुछ नही ।
आज भी अस्मत विलासिता के कोट में जाने को मजबूर की जाती है ,और बेगुनाह इज़्ज़त शर्मसार होकर रह जाती है ।कुछ नही बदल सकता ।
बहुत ही सार्थक सोच से लिखी गई कहानी है मर्ज।
आशा जी बधाई आपको ।
🙏🌹🙏
[15/02 16:40] Rajesh Jharpare: आशा पाण्येयजी की कहानी मर्ज ने जिन तथाकथित राजनेताओं के चरित्र से रूबरू कराया  दरअसल वह हमारे समाज की ही राजनीति का एक सड़ा-गला हिस्सा है । भोलाभाला तुफानी नहीं जानता था कि चोरी में उच्च गुणवत्ता. कौशल और साहस से अचंभित तो हुआ जा सकता है पर पुरस्कृत नहीं किया जा सकता । पुरस्कार के लोभ में फंसे एक अकिंचन ग्रामीण के बरक्स लेखिका ने हमारे आसपास मौजूद राजनीति का जो चित्र उकेरा है वह बहुत जाना पहचाना और सच्चा लगता है ...इसमें कुछ और जोड़ा जाना आजी की तरह उबकाई  आने जैसा होगा ।
लेखिका को एक बेहतरीन कहानी के लिए बधाई ।
[15/02 17:14] प्रज्ञा रोहिणी: आज़ादी से पहले और उसके बाद के बड़े परिदृश्य को किस्सगोई में लपेटकर सामने लाने वाली कहानी। इसमें तूफानी नाम भी अपनी व्यंजना में खोखला साबित हो गया। राजा के चाबुक ने पुरस्कार की आड़ में हर साहस को कुचल दिया। शेष रहा तो मातादीन का नैतिक बल।
बधाई आशा जी।
[15/02 17:29] Alka Trivedi: शोषक और शोषित का चिर पुरातन संबंध  ।  फिर भी एक विद्रोह का स्वर  ।एक भोला भाला आम आदमी जो  नहीं जानता कुटिलता  मरना स्वीकार है पर जितना विद्रोह स्वयं के स्तर पर कर सकता है  कर रहा है ।  सरल  ,पर संवेदनाओं से भरपूर कथा।
[15/02 17:35] Alka Trivedi: वो रोटी चुरा कर चोर हो गया
लोग मुल्क खा गये कानून लिखते लिखते
[15/02 18:50] ‪+91 94257 11784‬: आदरणीया आशा जी,  मैंने आपकी कहानी , मर्ज हमारे अपने समय की बहुत आवश्यक कहानी कहा  है । वह आलेखी रुक्षता से ग्रसित भी नहीं है ।कहानी बडे स्वाभाविक  प्रवाह के साथ आगे बढी ।किन्तु जब उसके दूसरे भाग में प्रथम पुरुष ने आजादी के बाद भी देश और समाज को विसंगतियों से  भरभराता हुआ   देखा और उस समय उसने जो वक्तव्य दिया वह मेरी विनम्र  राय में  पर्याप्त विवरणात्मक-विवेचनात्मक    है।वह किसी चिंतक के आलेख का आभास देता प्रतीत हुआ  । बहुत संभव है यह मेरा निजी  अनुभव हो और सुधीजनो' को स्वीकार्य  भी  न  हो ।वैसे भी मेरी  संबंधित टिप्पणी जनरल प्रकार की है। उसके पीछे  मीन मेख  निकालने की कतई कोई इच्छा नहीं है ।
 मैंने आपकी एक कहानी संभवतः पांचवा स्तंभ में पढी थी  और उससे प्रभावित होकर आपसे बात भी की थीं। एक कथा लेखिका के रूप में मेरे लिए आदरणीय हैं ।
[15/02 19:17] Aasha Pande Manch: अरे नहीं ,आप पूरे हक से जो आपको कमी लगे बतायें.मीन मेख निकालने जैसी बात का तो प्रश्न ही नहीं उठता.पाठकीय आलोचना तो होनी ही चाहिये .इससे लेखक का हित हेता है.मैं बस आपसे यही जानना चाहती थी कि इस कहानी में आलेखीय रूखापन किस जगह पर आया है.आपकी इस टिप्पणी से मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया है.आपका बहुत बहुत आभार.आप मेरे प्रशन को अन्यथा ना लें .
[15/02 19:33] ‪+91 99313 45882‬: आशा जी की कहानी " मर्ज " दरअसल भारतीय लोकतंत्र का लाइलाज मर्ज है ! यह लाइलाज मर्ज आजादी के बाद से ही शुरू हुआ था और आज तक जारी है--थोड़ी सी तब्दीली के साथ और  वह लाइलाज मर्ज है---भारतीय लोकतंत्र पर ख़त्म होते राजतंत्र एवं जमींदारी प्रथा का कब्ज़ा और कालान्तर में पूंजीतंत्र या पूंजीवादियों का कब्ज़ा !
जब देश आजाद हुआ और धीरे-धीरे जमींदारी प्रथा को ख़त्म किया गया , जमीनों पर सीलिंग एक्ट लगाया गया , राजाओं के महल को ' हेरिटेज ' घोषित करके उसका मालिकाना हक़ उनसे छीना गया , उनकी बेचैनी बढ़ती गयी ! लेकिन उन्होंने बेहद चतुराई के साथ राजनीति का दामन थाम लिया जिससे उनका रुतवा पहले की तरह बरक़रार रहे !
आशा जी ने अपनी कहानी में जिस जमींदारी शोषण का दर्शन कराया है उससे हम कुछ कुछ रूबरू होते रहे है प्रेमचंद की कहानियों में ! कहानी अपने कथ्य और बुनावट के लिहाज़ से बहुत ही उत्तम है ! हाँ ! कहानी पढ़ते वक़्त लग रहा था कि कभी न कभी मातादीन शोषण के साम्राज्य का विरोध करेगा और विरोध करते हुए मारा जायेगा ! अगर सचमुच ऐसा होता तो यह कहानी एक अविस्मरणीय कहानी होती ! लेकिन कथा लिखते वक़्त कथाकार की मनःस्थिति क्या
है इसपर बहुत कुछ निर्भर करता है !
मुझे यह कहानी बहुत अच्छी लगी और इसके लिए मैं कथाकार आशा जी को बहुत बधाई देना चाहता हूँ ! साथ ही एडमिन राजेश जी को भी बधाई इतनी अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए🙏🙏🙏
[15/02 22:40] shivani sharma Ajmer: देरी के लिए क्षमा ।
आज की कहानी पढ़ कर प्रेमचन्द जी की याद आई।
विरोध का अपना तरीका जो उस गरीब दम्पत्ति ने अपनाया वो गहरे तक बेध गया...
शोषण करने वाले  और शोषण को नियति मानकर जीने वाले दोनों का ही चित्रण किया गया! मंच से जुड़ कर ज्ञानवृद्धि हो रही है। आभार...🙏🏼😊😊

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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