Wednesday, July 27, 2016

एक ज्वलंत समस्या ,युवा पीढ़ी के भटकाव  को सहजता से  शब्दबद्ध करती एक भाव प्रधान कहानी "गुरु दक्षिणा "|समाज में व्याप्त ऐसी समस्याएं मुँह बायें खड़ी है ।सीधे सरल विद्धार्थी  कैसे नक्सली ,आतंकी लुटेरे बन जाते है ,जड़ में मज़बूरी के सिवा और क्या वजह रहती होगी ।
 राजेन्द्र श्रीवास्तव जी की यह कहानी आज व्हाट्सअप के साहित्यिक समूह "साहित्य की बात " पर प्रस्तुत की गई |इस समूह के मुख्य एडमिन है  ब्रज श्रीवास्तव ... पाठकों की त्वरित प्रतिक्रिया के साथ कहानी प्रस्तुत है |


परिचय 

राजेन्द्र श्रीवास्तव.

जन्म :4 जून 1954 
शिक्षा :एम. एस. सी(प्राणी विज्ञान) 
पिता :स्व. श्री जगन्नाथ प्रसाद. 
जीवन संगिनी :श्रीमती शारदा श्रीवास्तव. 
रूचि :साहित्य पढ़ना, लिखना. 
शासकीय सेवा :1980 में बस्तर के लोहंडीगुडा में उच्च श्रेणी शिक्षक पर पहली नियुक्ति फिर पदोन्नति पाकर अंता गढ़, सुन्दरेल.,धामनोद के बाद आयुधनगर इटारसी से प्राचार्य हाईस्कूल से जून 2016 में सेवानिवृत्त. 


गीतिकविता और बाल कविता में विशेष काम. एक संग्रह" मछली रानी " प्रकाशित. 
एक लघुकाव्य" लाक्षागृह"शीघ्र प्रकाश्य. 


निवास...साँई कृपा, आर. एम. पी. नगर. फेस.. 1,विदिशा. म.प्र.
मोबाइल नंबर.. 9753748806
......




🔯गुरु दक्षिणा🔯




  ⛔जिनको चाय-पानी ,पान बिङी  गुटका तम्बाकू लेना करना हो जल्दी करलें
यहाँ बस दस मिनट रुकेगी"।कंडक्टर ने बस रुकते ही यात्रियों से मुखातिब हो कर कहा,और चाय पीने चल दिया।बस से
कुछ लोग उतरे कुछ थके-माँदे बैठे रहे ।
दस मिनट बाद बस ने नेशनल हाइवे छोड़ नारायणपुर की ओर रुख कर लिया ।नाममात्र की पक्की सङक पर बस हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी ।इन मार्गों पर रात के नौ बजे भी आने-जाने से लोग कतराते हैं।
हेड लाइट के प्रकाश में ऊँचे साल-सागौन के बीच सर्पिल सङक पर अधिक दूर का कुछ दिखाई नहीं देता।
 अचानक ड्रायवर ने ब्रेक लगाये और बस हल्की घिसटती हुई रुक गई। सङक पर बङे-बङे पत्थर रख कर मार्ग अवरुद्ध किया गया था ।यात्रियों में सहज ही भय व्याप्त हो गया ,कोई तो इस बस में है,जो अब आगे की यात्रा नहीं कर सकेगा कदाचित जीवनयात्रा पर भी विराम लग जाय ।कुसुम ने सुधीर की ओर देखा तो सुधीर ने संकेत से ही उसे आश्वस्त किया।
एक शिक्षक से भला इन्हें क्या लेना-देना ?
सभी जान चुके थे जंगल से निकल कर अब बस को अपने कब्जे में कर चुके ये कौन लोग हैं ।ड्रायवर समझ चुका था कि आज हम बचें न बचें बस की होली तो जलना तय है ।  एक-एक कर यात्रियों को उतारना शुरु किया।किसी किसी की गेट पर तलाशी ली जा रही थी।ना-नुकर या
विरोध का प्रश्न ही नहीं ,दुश्परिणाम मात्र एक--'जीवन से हाथ धोना ।'बीच बीच में कुछ प्रश्न और डाँट -डपट ।सुधीर भी कुसुम का हाथ थामे अब गेट पर पहुँच चुका था अगला क्रम  उसका था ।
तलाशी ले रहे व्यक्ति ने सुधीर को गौर से देखा, क्षणैक ठिठका फिर यथावत्  तलाशी लेने लगा।सुधीर ने अनुभव किया कि  तलाशी  लेने वाले हाथ का स्पर्श कुछ ऐसा जैसे अपनत्व को छिपाने का प्रयास हो ।यह क्या ! तलाशी के अभिनय में चरणों का स्पर्श ! फिर कुसुम के साथ भी  कुछ ऐसा ही !!
"चqलो".... ।तलाशी ले रहे व्यक्ति ने अपने साथियो से कहा।
बस के भीतर शेष रहे यात्रियों में सुखद आश्चर्य तो बाहर खङे यात्री आशंका से भरे अगले आदेश की प्रतीक्षा में खङे थे। साथियों को उस व्यक्ति की बात पर कुछ आश्चर्य तो हुआ ।उन्हें यह व्यवहार  अप्रत्याशित लगा पर चुप रहे,और सब के सब एक दूसरे को कवर करते हुये  जंगल  में तिरोहित हो गये ।यात्रियों ने पत्थर हटाकर बस में अपनी जगह ली ।सुधीर ने अपने  ईश्वर व  बङे-बुजुर्गों का स्मरण कर मन ही मन प्रणाम किया ।
"आज तो अपना पुनर्जन्म समझो भाई"
एक ने कहा ।
हाँ ।किसी को एक खरोंच तक नहीं "
दूसरे ने कहा ।
"तलाशी भी  बीच में रोक कर चले गये,कुछ समझ में नहीं आ रहा"
"अरे भैया प्राण बच गये बस इतना समझ लो ।"
"आप सब इस घटना का जिक्र किसी से न करें, नहीं  तो वेवजह लेने के देने पङ जायेंगे ।आप भी  परेशान होंगे और हम भी  बस खङी करके थाना-कचहरी  में फँस जायेंगे।" कंडक्टर ने समझाईश भरा आग्रह किया ।
"हम जिंदा घर पहुंच रहे हैं ,बाकी सब बातें भूलना चाहते हैं ।" किसी एक का कहा यह वाक्य आम राय में परिवर्तित हो गया । शीघ्र अपने घर पहुँचने की व्यग्रता बातों में झलक रही थी ।
"सुनो!..आपने उसका चेहरा देखा ?" कुसुम ने धीमी आवाज में सुधीर से पूछा।
"कुछ पहचाना सा तो लगा" ।
उसने मेरे  पैर छुये,फिर तलाशी खतम,और चले भी  गये ...।ऐसा क्यों...?"
"चलो पूँछ कर आते हैं"।
"आपको ऐसे में भी  विनोद सूझ रहा है ।"
"कुसुम इन सब प्रश्नों के उत्तर मेरे पास भी नहीं हैं"  ।
बस, स्टाप पर सुधीर-कुसुम व कुछ अन्य यात्रियों को उतार कर आगे बढ़ गई ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद एक रात लगभग दस बजे सुधीर कोई किताब पढ़ रहे थे कि किसी ने हलके से दरवाज़ा खटखटाया।
कुसुम ने आशंकित नेत्र सुधीर पर टिका दिये ।यहाँ रात के दस ,अर्धरात्रि के बाद का समय जैसा निश्तब्ध व भयावह हो जाता है ।आठ बजे के बाद घर के बाहर प्रकाश पर अघोषित प्रतिबंध रहता है । सीमित साधन व सीमितआवश्यकताएँ ।
दरवाज़ा खुलते ही एक व्यक्ति सुधीर को लगभग ठेलते हुये भीतर आ गया , उसने
किवाड़ बंद कर लिये ।
"माँ पहिचाना मुझे ?"
दोनों के पैर छूकर एक कुर्सी पर बैठते हुये उसने कुसुम से पूँछा ।
यह वही  तलाशी लेने वाला युवक है,
दोनों के मन में निश्चितता थी,किन्तु निश्चिंतता न के बराबर ।
"तुम मंगलू हो न...?"कुसुम ने आशंकित स्वर में कहा।
"मैं जानता था ,सर भले ही भूल गये हों माँ  नहीं भूलेंगी ।"
"अब याद आया .. कई बर्ष बाद मिल रहे हो , वह भी ..........."  सुधीर ने बैठते हुये वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
कुसुम ने पानी का गिलास बङाते हुये पूँछ ही लिया -"इस रास्ते पर कैसे आ गये ।"
"आ गये या पहुँचा दिये गये  पता नहीं" मंगलू ने गहरी सांस भरते हुये कहा ।
"यहाँ किसलिए ?..किसी को पता चल गया तो नौकरी तो जायगी ही जेल भी  होगी "।सुधीर ने चिंतित हो कर कहा।
"मैं बस निकलता ही हूँ, आपको  कुछ नहीं  होने दूँगा ।"
मैं  आपसे जानना चाहता हूँ, क्या मेरा यह रास्ता सही नहीं है ?"
सुधीर चुप रहा।
"अपने विद्यार्थी के प्रश्न का उत्तर दीजिये"
कुसुम ने आग्रह के स्वर में कहा ।
"बेटे!वहाँ से स्थानांतरित हुये लगभग बारह साल हो गये हैं ।तुमने आगे पढ़ाई जारी रखी या नहीं ! , प्रताड़ना ,याअसीम उपेक्षा !!
अन्याय या शोषण और शोषक वअन्यायी के प्रति बदले की भावना अथवा विरासत में मिले अभाव... . .!!!  इस रास्ते पर आने की इनमें से कौन सी वजह है ,मुझे यह भी  नहीं पता ।हो सकता है किशोर -सुलभ उत्साह व जोश में यह कदम उठाया हो । बिना जाने क्या  कह दूँ ।"

 मंगलू क्या कहे!कुछ लोगों को ड्रेस-विशेष में एक अलग अंदाज़ में देखा तो उत्साही किशोर मन खिंचता चला गया ।
जिज्ञासा के साथ-साथ कदम भी बढ़ते गये ।और अब.....गहन जंगल में स्वयं को खङा हुआ पाता है।झंझावात से जूझता हुआ।                                     "सर ,...कदम तो बढ़ा चुका हूँ ।दुविधा तो यह है कि रास्ता सही है या गलत?"
"मैने  केवल पाठ्यक्रमआधारित किताबें पढ़ी है, व निर्मल बच्चों के बीच रहा हूँ
जैसे बारह साल पहिले तुम थे।बस इतना जानता हूँ कि इस रास्ते पर चलने वालों को समाज केवल भयभीत दृष्टि से देखता है ।वहाँ न प्रेम है न सहानुभूति न ही स्वैच्छिक समर्थन ।"
"तो क्या हमारा समाज असामाजिक है ?"
"तुम्हारा समूह है ,समाज का बहुत छोटा रूप - जो इस समाज से अलग दिशा में
 चल रहा है अपनी विचारधारा के साथ।"
अब तक कुसुम बिस्किट के साथ चाय ले कर आ गई थी। उसे वह मंगलू याद आ गया  जो इसी तरह अपनी  जिज्ञासाओं का पिटारा खोल कर काॅपी-किताब ले कर सुधीर के सामने बैठ जाता था।             परआज के प्रश्न जटिल , गंभीर व अलग                 तरह के हैं ,पाठ्यक्रम से अलग हट कर।जीवन-क्रम से जुडे हुये ।
"तो हमारा वाद जन-हितैषी नहीं है?"
"मैने पहिले ही कहा तुम्हारे वाद या सिद्धांत पढ़ने -समझने का अनुकूल अवसर ही नहीं  मिला ।और कितना हित किया है तुमने जन का ?.... इसका आकलन तुम्हें स्वयं करना चाहिये ।"
"तो क्या मुझे  लौट आना चाहिये ।"
"यह इस पर निर्भर है कि अब तक कितना  रास्ता तय कर चुके हो व लौटने अथवा  लक्ष्य पाने की संभावना कितनी शेष है।
या उस लक्ष्य को प्राप्त करने का कोई दूसरा सुनिश्चित जनप्रिय मार्ग है?"        
"समाज स्वीकार कर सकेगा?इतना आसान जीवन तो नहीं होगा।"
"बिल्कुल सही सोचा ,सहजता से समाज समाहित नहीं करने वाला!वहाँ की शत्रुता यहाँ का संदेह झेलना होगा । जीवन तो अभी भी आसान नहीं ।संघर्ष तो अभी  भी कर रहे हो। मृत्यु का भय वहाँ भी है,यहाँ भी रहेगा।अंधेरा कहाँ है ? वहाँ या यहाँ...,यह तुम स्वयं सोचो ।प्रकाश कहाँ पाओगे स्वयं पता लगाओ।
"हुम्म्........" मंगलू आँख बंद कर चुप रह गया।   कुसुम को चुप्पी खलने लगी तो उसने मंगलू से पूँछा--
"घर पर सब कैसे है?माई कैसी हैं?"
"माँ  ठीक है। कल थोड़ी देर के लिये गया था।उन्हें बस वाली घटना बताई तो उसने मुझे सर से मिल कर चर्चा करने का आग्रह किया "। " अरे हाँ ! माँ ने आपके लिये नींबू भेजे हैं अचार के लिये ।वे आप के हाथ का अचार का स्वाद अभी  तक नहीं भूली।"मंगलू बिल्कुल बच्चा बनकर बोल रहा था बारह साल छोटा ।सब तनावों से मुक्त  सब चिंताओं से दूर।अपने साथ लाये थैले को उसने कुसुम की ओर बढ़ा दिया।
"आज भी माई ने खाली हाथ नहीं आने दिया"कुसुम ने आत्मीयता से कहा ।
"मेरी गुरु दक्षिणा  लाया है "सुधीर ने भी  विनोद किया ।
वातावरण की गंभीरता उङनछू हो गई।
"नहीं सर !गुरुदक्षिणा तो आज भी  नहीं दे सकूँगा ।पर जल्दी ही इस ऋण से मुक्त
 हो जाऊँगा ।मेरी गुरुदक्षिणा से आपको भी प्रसन्नता ही होगी ।"
"अब आज्ञा दीजिये ।"
"बेटे! तुम्हारी दुविधा  दूर नहीं कर सका ।आज यह शिक्षक स्वयं पर शर्मिंदा है।
निर्णय तुम्हें स्वयं करना है वह भी  समय रहते। तुम्हारी जरूरत उन्हें भी है ,और समाज भी आशा भरी निगाह से तुम्हें निहार रहा है ।हम भी ।"
"सार्थक सर्वसम्मत जनहित वहाँ रह कर कर अधिक सुगमता से कर सकोगे या यहाँ आ कर।पूर्वाग्रह त्याग कर विचार करोगे ,तो यह तय करने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। मेरे या किसी अन्य के विवेक या विचार पर निर्भर मत बनो "।
"जी!..चलता हूँ ।... मेरी दुविधा  अब मेरे साथ नहीं है ।"
 दोनो के चरण स्पर्श कर वह पलक झपकते ही अंधेरे में विलीन हो गया ।
कुसुम अभी भी अधखुले दरवाजे के पास खङी थी।
"क्यों जी !वह वापिस आयेगा ?"
"शायद...।"

"लेकिन वह गया ही क्यों! उसने अपनी  माँ के बारे में क्यों नहीं सोचा!कहाँ गया होगा?"
"चलो देख कर आते हैं"
"आपका हर वक्त का मजाक शोभा नहीं देता।"कुसुम का स्वर रुआसा हो रहा था।     मंगलू के प्रति कुसुम की ममता से परिचित सुधीर ने दरवाज़ा बंद कर कुसुम को कुर्सी पर बैठाकर पानी का गिलास देते हुये कहा ।
"तुम्हारे सामने ही वह गुरु दक्षिणा के ऋण से जल्द मुक्त होने का वचन देकर गया है ।"
"चलो रात काफी हो गई है।"
"अरे हाँ ...तुम्हें कल नींबू का अचार भी तो बनाना है।"
.......
"वह कब आयेगा अचार लेने?" कुसुम ने सहज ही पूँछा ।
"ऐसा करो तुम अचार डालो ,तब तक मैं पूँछ कर आता हूँ ।"
सुधीर के स्वाभाविक विनोद पर स्मित हास्य अब कुसुम के चेहरे पर झलक रहा था।मन के अंधेरे में,आँखों में आशा के जुगनू चमक रहे थे।

कुछ दिनों बाद सुधीर ने समाचारपत्र से एक समाचार कुसुम को दिखाया।
कुसुम ने पढ़ा कि --मंगलू ने स्व विवेक से साथियों सहित मुख्यधारा में जुङने का निर्णय लिया है ।साथ ही समाज के सहयोग से अपने उन्ही उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सतत प्रयास करते रहने का संकल्प भी  व्यक्त किया है।
कुसुम की आशा भरी निगाहें द्वार की ओर चली गई ।


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प्रतिक्रियाये 
अजय श्रीवास्तव 
कोई तो इस बस में है, जो अब आगे की यात्रा नही कर सकेगा , कदाचित जीवन यात्रा पर भी विराम लग जाये ...।बहुत सहज तरीके से , प्रभावशाली अभिव्यक्ति...
हार्दिक शुभकामनायें 
कहानीकार श्री राजेंद्र श्रीवास्तव जी को ...💐

मधु सक्सेना 
राजेन्द्र जी कहानी की शुरुआत बहुत अच्छी है पर आगे जाकर कहानी में लेखक का असमन्जस दिखाई देता है ।वे खुद ही किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाते ।कहानी कमज़ोर होने लगती है ।समस्या को भी सही तरीके से नहीं उठा पाये लेखक ... । इस कहानी को फिर से लिखा जाना चाहिए ।संवाद अच्छे हैं ।शुभकामनाएं लेखन को ।आभार प्रवेश ।

घनश्याम दास सोनी 
ग्लैमराइज्ड किये जाने वाले  अपराध तथा अपराधियों का बचपन के अबोध मन पर चाहे अनचाहे प्रभाव पड़ता ही है , कुछ उससे प्रभावित होकर उस तरफ कदम बढ़ा देते हैं , जिसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव व ऐसे लोगों का नतीजा  सर्वविदित है । कहानी का नायक लगता है सही समय पर अपने शिक्षक से मार्गदर्शन पा गया और परिणाम सुखद रहा । कहानी बहुत शानदार लगी , चाचाजी श्री राजेंद्र श्रीवास्तव जी को बधाई
A. असफल 
राजेन्द्र जी की कहानी "गुरु दक्षिणा" काफी अच्छी है। बल्कि महत्वपूर्ण भी। क्योंकि नक्सलवाद हो, उग्रवाद या आतंकवाद मनुष्य समाज के अप्रिय किन्तु आवश्यक प्रसंग हैं। राज्य-समाज में जब व्यवस्थागत तरीके से प्रत्येक इकाई को उसका हक नहीं मिलता, कहीं कोई व्युतिक्रम होता है, तब विद्रोह अवश्यम्भावी हो जाता है। एक ऐसा गतिरोध जिसका हल आसान नहीं। कहानी में समस्या पर अच्छा विमर्श है। बड़ी स्वाभाविकता से पूरी कहानी बुनी गयी है। चलती भी अत्यंत सरल तरीके से है। पर समस्या का समाधान इतना सरल भी नहीं। जैसा कि कहानी में दिखा दिया गया। मेरे ख्याल से इसे यहीं ख़त्म क्या जाता, "सुधीर के स्वाभाविक विनोद पर स्मित हास्य अब कुसुम के चेहरे पर झलक रहा था। मन के अंधेरे में,आँखों में आशा के जुगनू चमक रहे थे।" तो कहानी भी रेडीमेड नहीं लगती और एक सुखद आशा भी जगाए रखती कि गुरु दक्षिणा के रूप में शायद कभी न कभी समस्या का निदान हो जाए।

लक्ष्मीकांत कालूस्कर 
कहानी एकदम से अच्छी है।एक विचार,एक समस्या को लेकर चली है और जो निदान बताया है वही एकमात्र सार्थक हल है।समाज और व्यवस्था के माध्यम से हो रहे अत्याचार के प्रति विरोध-विद्रोह भी जरूरी है और इस विद्रोह से जन्म लेने वाली समस्या की ओर भी समाधानकारक उपाय ढूंढना है।राजेन्द्र जी अभिनंदन।

 Mahjabin
राजेन्द्र जी की कहानी...... 'गुरुदक्षिणा' बहुत अच्छी कहानी है.. एक गंभीर समस्या प्रधान कहानी है... पढ़े-लिखे नौजवान कैसे नक्सलियों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं.... और उनकी जिंदगी ख़राब हो जाती है... जब्कि नौजवान लड़के देश का भविष्य हैं.... जब देश में, ग़रीबी भूखमरी, बेरोजगारी फैली हुई है तो, ऐसे में ग़लत संगठन के लोग, परेशानी से जूझ रहे, नौजवानों को अपने ज़ाल में फंसा लेते हैं... लेकिन एक अच्छा शिक्षक, हमेशा अपनी शिक्षा से अपने शिष्यों का उचित मार्गदर्शन करता है..... उन्हें दलदल में जाने से रोकता है... शिक्षक ही देश और राष्ट्रनिर्माण में नौजवानों को शिक्षा देकर, सहयोग करता है.... कहानी की मूल संवेदना भी यही है.. शिष्य और गुरू का रिश्ता बहुत गहरा होता है.... संवेदनशील होता है... कुर्आन की एक आयत में, उस्ताद का दर्ज़ा, माँ-बाप के बराबर बताया है..... और है भी यह रिश्ता बहुत अज़ीम... कहानी की भाषा भी बहुत भावपूर्ण है... अच्छी कहानी के लिए लेखक को बधाई....

Rajendr Shivastav Ji: महजबी जी बहुत धन्यवाद , आपका कहना सही है।इन भटके नौजवानों को कुसुम जैसे पात्र की भी चाह है ।जो यकीन दिला सकें कि हम तुम्हें अब भी पहले जैसा ही चाहते है
 Meena Sharma 
 राजेन्द्र जी की कहानी,अपने आस- पास के वातावरण को बारीकी से उकेरती हुई अपनी बात, बिना किसी व्यवधान के कहती चलती है.
एक भटके हुए युवक में  संस्कार
हैं कि वह चरण स्पर्श करता है ...
संवेदना है कि वह नींबू के अचार के बहाने गुरु के साथ वार्तालाप को सहज बनाये रखता है.
कैसे सहज ही कोई बदल सकता
है अपनी मानसिकता.  ? संस्कार वश वह मुख्य धारा में वापस आता है.
कहानी किसी एक मापक में नहीं
लिखी जाती.
हर लेखक की सोच भिन्न है....पाठक की सोच अलग है...! 
मार्गदर्शन है इसमें..   ..! 
समाज को दिशा देती कहानी..
अच्छी है...मेरे लिये.
प्रोत्साहन सदैव हमें और बेहत करने की प्रेरणा देता है....शुभकामनाएँ राजेन्द्र जी को !प्रवेश जी धन्यवाद एक नई कहानी देने के लिए....!
संचालन की खूबी कुछ अलग बनाती है आपको प्रवेश जी....!
बधाइयाँ !

 Aalknanda Sane Tai: अमूमन इस माध्यम पर कहानी जैसी लंबी रचनाओं को पढ़ना मेरे बूते का नहीं होता.अक्सर शुरुआत और अंत पढ़कर संतुष्ट हो लेती हूँ, लेकिन आज यह कहानी मुद्रित माध्यम की तरह एक सांस में पढ़ गई.एक ज्वलंत विषय पर सधे हुए तरीके से, बिना लाऊड हुए यह कहानी लिखी गई है, जिसके लिए कहानीकार बधाई के पात्र हैं.संवाद लंबे और उबाऊ होने से बच गए हैं, जिसकी इस कहानी में पूरी सम्भावना थी.शिक्षक को भी अकारण  गंभीर नहीं दिखाया जाना जीवंतता का प्रतीक है.धन्यवाद प्रवेश, एक बेहतरीन विषय पर बेहतरीन कहानी के लिए.

 Mukta Shreewastav: आज की कहानी गुरु दक्षिणा बहुत ही अच्छी कहानी है वास्तव मैं आज की युवा पीढ़ी भटक रही है और उसे सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

के के श्रीवास्तव 
आज की युवा पीढ़ी की भटकाव पर आधारित बेहद प्रासंगिक कहानी ।  दिल को छू गई ।  धन्यवाद प्रवेश जी।
 अमूनन मैं कहानी को ज्यादा पढ़ नहीं पाता जो मेरी कमजोरी है या जो भी ।राजेन्द्र जी की इस कहानी को बिना रुके पढ़ गया जिसमें संवेदना है संस्कार हैं जीवंतता है । कहानीकार का सहजभाव से कहने का प्रस्तुतिकरण अद्भुत है .गुरु और शिष्य के सम्बंधों को गहरा करती यह कहानी युवा पीढ़ी की ज्वलन्त समस्या को अच्छे ढंग से प्रगट करने में पूर्ण सफल है .लेखक को बधाई । धन्यवाद प्रवेश जी
..

ब्रज श्रीवास्तव 
कहानी, बहुत मार्मिक है. मैं तो चकित हूँ कि चाचाजी कितना अच्छा लिख लेते हैं. उनकी भाषा, वाक्यों का गठन, कथ्य निर्वाह और कहन विवेक कितने संतुलन में अपना उत्स यहां दे सके हैं. असफल जी ने अंत के बारे में जो कहा तो मैं कहना चाहूंगा लगभग इतना ही सहज अंत कहानी में था, लेकिन मैंने सुझाव देकर कहा कि थोड़ा बदल दीजिए. तो अब पशेमान हूँ कि चाचाजी ने पहले ठीक ही किया था. साकीबा में यह.. प्रस्तुत हो सकी मुझे अच्छा लगा. आज ताई, कालुस्कर जी, भावना जी, मधु जी, मीना और मेहज़बीं ने टिप्पणी दी तो मुझे अच्छा लग रहा है. प्रवेश की पहल तो हर दम बेहतर होती ही है... 🌂ब्रज श्रीवास्तव

सुदिन श्रीवास्तव 
 कोई व्यक्ति क्रोध,अपमान या बदले की भावना के आवेग वश अपराध कर बैठता है लेकिन अपराधी को समाज मुख्य धारा में आसानी से स्वीकार नहीं  कर पाता यह बात शिक्षक भी जानता है और मंगलू के मन में भी इसी बात को लेकर संशय है । अपराध की इसी पृष्ठभूमि से उपजी कहानी गुरूदक्षिणा
में कहानीकार राजेन्द्र श्रीवास्तव जी ने   भावावेशी परिस्थितियों में अपराधी बने मंगलू के प्रति ऐक शिक्षक के सुधारवादी और आशावादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रखा है । शिक्षक सदैव समाज की मुख्यधारा के प्रति आस्थावान रहता है । अपनी कहानी के द्वारा उन्होंने शिक्षक की सामाजिक सकारात्मक भूमिका का निर्वाह गरूदक्षिणा कहानी में बहुत भावपूर्ण प्रवाह के साथ किया । राजेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई । अच्छे गीतकार का कसा हुआ गद्य रूप प्रस्तुत करने के लिये उतनी ही बहुआयामी प्रतिभाओं वाली प्रवेश जी का विशेष आभार


हरगोविंद मैथिल ..
 गुरु दक्षिणा एक अच्छी और भाव प्रधान कहानी है ।जिसकी सरल भाषा और सहज संवाद कहानी को प्रवाह के साथ आगे बढ़ाते है ।कहानी पाठक को  अंत तक बाँध कर रखती है ।लेकिन कहानी के शीर्षक से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यह एक सुखान्त कहानी है ।कहानी के नायक पर अपने शिक्षक की शिक्षा और उनकी पत्नी कुसुम के स्नेह का गहरा प्रभाव पड़ा जिसके कारण वह मुख्य धारा में लौटने का साहस पूर्ण कार्य कर सका ।कहानी में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बात है अंत में शिक्षक द्वारा मंगलू को कोई उपदेशात्मक ज्ञान न देकर स्व विवेक से निर्णय लेने की छूट प्रदान करना ।आ. राजेन्द्र प्रसाद जी को बधाई और प्रवेश जी का आभार ।साथ ही आ . श्री वास्तव जी का इस नए रूप में हार्दिक स्वागत ।🙏🙏


Ravindra Swapnil: 
इस कहानी को पढ़ने के बाद ये तो लगा की कहनी अच्छी है।
क्या बताऊँ कहानी अच्छी होना ही पर्याप्त होता तो सब कहानियां अच्छी हो जाती। तारिफ  बहुत लोग कर चुके। मेरा ये कहना व्यर्थ के शब्द् होंगे कि कहानी बहुत शानदार है।
कहानी में शिक्षक की भूमिका बेहद लिजलिजी है। कहा जाता है कि भारतीय शिक्षक ने 1 हजार साल के इतिहास में जब से क्रांति की बात बंद की है तब से ये देश गुलाम हुआ। यहाँ शिक्षक की भूमिका पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं।

एक इसमें भाषा का बहुत लोच है।इसमें कृत्रिम सा माहौल बन जाता है।
Padma sharma
 राजेन्द्र श्रीवास्तव जी की कहानी गुरुदक्षिणा सहज सरल शैली में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुई है।
आज आतंकवाद जैसी अनेकानेक समस्याएँ चल रही हैं उनमे कुछ लोग बाहरी चमक दमक से प्रेरित होकर सम्मिलित हो जाते हैं और अपने भविष्य को बर्बाद कर लेते हैं। कहानी के अंत के लिए
असफल जी से सहमत हूँ।

बधाई लेखक को

Uday dholi 
आदरणीय राजेन्द्र श्रीवास्तव जी की कहानी अच्छी लगी भटके हुए युवक का मुख्यधारा में लौटना ही सकारात्मक हल है ,हमारी सनातन परंपरा में गुरु के लिए जो आदर का भाव है वह आज भी कायम है एक शिक्षक के नाते लेखक का यह निजी अनुभव रहा होगा।
कहानी में रोचकता शुरुआत से आखिर तक बनी हुई है कहीं भी झोल नहीं है।

Saturday, July 23, 2016

                                        नींव खुदाई बाप ने ,माँ ने फेंकी गार |
                          अब बेटों ने डाल दी आँगन में दीवार ||

रचना प्रवेश -  दोहे रामनारायण 'हलधर '


दोहों की बात से शुरू आज दोहों के संकलन 'शिखरों के हकदार '  पर ही बात करते है |समकालीन दोहाकार  श्री रामनारायण मीणा "हलधर "जी का प्रथम दोहा संकलन 'शिखरों के हकदार "बोधि प्रकाशन ,जयपुर से २०१२ में प्रकाशित हुआ | संकलन के दोहे पाठक के मन में गहरी पैठ बनाने में पूर्ण सक्षम है |सरल स्वभाव हलधर जी अपने भावुक मन की स्याही से दोहों को कलमबद्ध करते है तो लगता है जैसे गागर में सागर समा दिया |संकलन के सम्बन्ध में क्या कहते है लेखक ,पाठक ,समीक्षक ,मित्र और पत्रकार ...
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परिचय 


          नाम                     रामनारायण ‘हलधर’ 
            तुरन्त सम्पर्क              (0) 94133-51749, 0744-2327327
            जन्म                    1 अपै्रल 1970
           
            शिक्षा                    स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
            सम्प्रति                 आकाशवाणी कोटा में वरिष्ठ उदघोषक

            निवास व पता             डी-27, रोड़ नम्बर-1, कृष्णा नगर
                                             पुलिस लाइन, कोटा - 324001
                                
 पुरस्कार-सम्मान-   
1.    डॉ0 अमबेडकर फैलोशिप ( भारतीय दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली
2.    साहित्य श्री सम्मान 2009 (श्री भारतेन्दु समिति कोटा)
3.    डॉ0 रतनलाल शर्मा स्मृति पुरस्कार, कोटा
4.सृजन साहित्य सम्मान .२०१३
लेखन विधाऐं-          दोहा, गजल, गीत (हिन्दी-राज.) मुक्तक,चौपाई,
                        मुक्त छंद, हास्य व्यंग्य लेख एंव रेडियो
                        साक्षात्कार।

प्रकाशन-  चर्चित दोहा संग्रह.शिखरों के हक़दारए प्रकाशित
 समकालीन भारतीय साहित्य एदैनिक जागरण (पुर्ननवा - सप्तरंग), सण्डे नई दुनिया (दिल्ली), सरिता, पां´्चजन्य दैनिक नई दुनिया (इंदौर), दैनिक भास्कर (मधुरिमा, रसरंग), राजस्थान पत्रिका (परिवार), डेली न्यूज (पत्रिका प्रकाशन जयपुर), मधुमति (राज. सा. अका.उदयपुर), हिमप्रस्थ (हिमाचल साहित्य अका.), व्यंग्य यात्रा,  सुमन-सौरम,  पंजाब सौरभ आदि पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन।


प्रमुख रेडियो साक्षात्कार- डॉ0 ज्ञान चतुर्वेदी, श्री प्रेम जनमेजय,  विष्णु नागर, डॉ0 बालेन्दु शेखर तिवारी (सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार) डॉ0 लीलाधर जगूड़ी,    निदा फाजली, सईद कादरी, (सुप्रसिद्ध फिल्मी गीतकार) वेदव्रत वाजपेयी, बशीर बद्र, बशीर अहमद मयूख, डॉ. दया कृष्ण विजय।

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दोहे हिंदी और हिंदी परिवार की अन्य निकटवर्ती भाषाओँ में काव्याभिव्यक्ति के बहुत लोकप्रिय  और सशक्त माध्यम रहे है |राजस्थानी भाषा में तो छंद ने अपनी लोकप्रियता के कारण लम्बे समय तक "छंदराज " होने का सम्मान पाया है |विद्द्वानो का मत है कि अपने लघु आकार ,सहज प्रवाह ,और त्वरित गति से -किन्तु सधे हुए शब्दों में सार्थक बात कह देने के कारण दोहा उत्तर अपभ्रंश काल से ही लोक के मन में ऐसा पैठा कि आज भी कई कहावतों को "दोहा रूप 'में ही कहा जाता है |इस बात को हम यों भी  कह सकते है कि कुछ दोहों की अभिव्यक्ति इतनी सार्थक और सधी हुई रही की लोक उन दोहों को पूर्णत:या अंश रूप  में कहावतों  में इस्तेमाल करने लगा |

हमारे समय के दोहाकारों में रामनारायण 'हलधर 'की धार धार अभिव्यक्ति बहुधा चमत्कृत करती है -


                                        नींव खुदाई बाप ने ,माँ ने फेंकी गार |
                                        अब बेटों ने डाल दी आँगन में दीवार ||



                                       प्रतिबंधो ने तान दी सीने पर बन्दुक  |

                                       अरमानों ने खोल ली ,सुधियों की संदूक ||        



                                       मिलने की जब आपसे ,टूट गई हर आस |

                                       मुस्कानों ने ले लिया ,चहरे से संन्यास ||


जैसे दोहे उनके भावुक मन की बेकली को तो अभिव्यक्त करते ही है ,उनके सृजन ,चिंतन की विलक्षण पहचान के तौर पर सभी  के सामने आते है |
रहीम या कबीर के समय से अब तक दुनिया की सभी नदियों के तटो  को छूकर इतना पानी बह गया है कि पानी को सहेजना ,समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है |इतनी बड़ी आवश्यकता कि दुनिया डरने लगी है कि कहीं अगले विश्व युद्ध का सबब पानी ही नं बन जाए  |हम दुआ करते है की मानवता को ऐसे दुर्दिन कभी  न देखनें पड़े |याद करे कवी रहीम ने सदियों पहले एक दोहे में ही कहा था --

                                         रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सुन 
                                         पानी गए न ऊबरे -मोती ,मानस ,चुन ||

चिंता के इसी धरातल पर खड़े होकर संकलन के कवि ने कहा है -

                                          सोच समझ कर आजकल ,नल की टोंटी खोल 
                                          जल की इक- इक बूंद है ,अमृत सी अनमोल |


                                         कल सबको लड़ना पड़े ,अपनो से ही युद्ध |

                                         शायद फिर भी ना मिले ,पानी हमको शुद्ध ||


                                        चरण सगे माँ -बाप के ,  छूने में शरामाय |

                                        नेताजी की जूतियाँ ,हंस -हंस बहुत उठाय ||



जैसे दोहे एक संवेदनशील रचनाकार के ह्रदय में कही बैठे ,एक असरकारक व्यंगकार को उजागर करते है |व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि बिना संवेदना व्यंग जन्मता ही नहीं है 


"शिखरों के हक़दार " दोहा संकलन के लिए 

कवि ,व्यंगकार ,उपन्यासकार ,कथाकार columnist श्री अतुल कनक जी के भाव 
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परम मित्र श्री रामनयण जी 'हलधर ' साहिब की प्रस्तुत कृति मुझे बहुत ....बहुत अच्छी लगी ....इसे पढ़कर जो सुखद अनुभूति हुई उसे पूरी तरह शब्दबद्ध नहीं कर पाई..क्योंकि यह इतना आसन नहीं है | पुस्तक बहुत स्तरीय है | जितना कर पाई आप के समक्ष है ....प्लीज त्रुटियाँ जरुर बता दीजियेगा ताकि दुरुस्त कर सकूँ ... शुक्रिया ...

‘शिखरों के हक़दार ’ कृति : गागर में सागर
.‘शिखरों के हक़दार’ पढ़ने का  सुअवसर  मिला , एक अरसे बाद दोहा विधा की इतनी खूबसूरत कृति पढ़ी ,वाकई ये दोहे शिखरों के हक़दार  हैं | एक - एक दोहा ‘गागर में सागर’ | यह पुस्तक बरबस ही रहीम , बिहारी की याद दिला रही है |
 श्री रामनारायण जी ‘हलधर’ के कई –कई दोहे लोक की जुबान पर चढ़ चुके हैं , जो एक कृतिकार की लोकप्रियता और साधना को चिन्हित करते हैं |इसी के साथ - साथ विषयगत वैविध्य देखते ही बनता है | नूतनता और पारम्परिकता का अभूतपूर्व सम्मिश्रण यहाँ देखा जा सकता है | इस पुस्तक की सब से बड़ी विशेषता है , हलधर जी की मौलिक सोच, अंदाज़े – बयां , प्रतीकों की सुषमा , गीतात्मकता ... मिठास , लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति ...सरलता , माधुर्य , सौन्दर्य ....आदि आदि |
             हलधर जी ने जहाँ मौसम ,श्रृंगार , नारी मन , दाम्पत्य , प्रकृति - चित्रण , स्मृतियाँ ,रूप लावण्य को बहुत ही सूक्षमता के साथ  अभिव्यक्त किया है |वहीँ आम आदमी की पीड़ा , संत्रास , अभाव, अश्रु , ग्रामीण जीवन , टूटते  , रिश्तों की टीस और मानवीय संवेदानाओं को बखूबी  छूकर  एक नया मुहावरा प्रस्तुत किया है |वर्तमान परिवेश , मानवीय संबंधों की धड़कन इन दोहों में जीवंत हो उठी है | रामानारायण जी गहन चिंतन – मनन के सागर में डूबकर एक –एक मोती चुनकर लाये हैं |हर दोहा बेजोड़ है |इन के एक –एक दोहे पर बड़े –बड़े निबन्ध  लिखे जा सकते हैं और कृति पर शोधकार्य हो सकते हैं |
    अलंकर , बिम्ब ,गीति तत्व , शब्द सौन्दर्य ,शब्द शक्ति , व्यंजना , ध्वनि , अर्थात कला पक्ष को सुघड़ता और सौन्दर्य कृति में चार चाँद लगा रहे हैं |  बहुत ही कशमकश में हूँ कि किस दोहे को संदर्भित करूँ किसे नहीं |.....इतने अच्छे दोहे कोई कैसे लिख सकता है भला |....ये ही सोचकर अचम्भित हूँ  | इतना  मौलिक चिंतन – प्रस्तुतीकरण ,  बात कहने का नायाब सलीका  रामनारायण जी का ही हो सकता है जो काबिले – तारीफ है |. बतौर बानगी देखिये ... 
‘ तुम कहते हो प्रेम की , यादें बड़ी ख़राब 
क्यों रक्खे हैं आज तक , सूखे हुए गुलाब 
अहसानों  का सिलसिला इतना ना बढ़ जाये 
तेरी नीयत पर मुझे , शक होने लग जाये 
कहाँ छुपाऊँ आप को , कहाँ जताऊँ प्यार 
इतना छोटा शहर है , इतने रिश्तेदार 
मौसम की शैतानियाँ , छू न सके दहलीज 
 हर पौधे को बांधता , रहता हूँ ताबीज 
लिखूं स्वयं के नाम के , साथ आप का नाम 
लगता है पापा खड़े , मेरी उंगली थाम 
और दिशाएं प्रीत की , मनवा बैठा भूल 
तुम सूरज तो हम हुए , सूर्यमुखी के फूल 
 हर दोहा अपने आप में नाविक का तीर है | हलधर जी के लोक  भी बहुत प्रचलित हैं ,ख्याति  अर्जित कर रहे हैं  | बड़े –बड़े विद्वानों ने इन दोहों की भूरि - भूरि सराहना की हैं |श्रोता इन को सुनकर मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं |पाठक  निहाल हो जाते हैं |सच कहूँ तो इन के दोहों में चमत्कारिक असर है | हलधर जी को दोहों का शहजादा  कहा जा सकता है | यह अत्युक्ति नहीं अपितु यथार्थ  है | इन के उत्तरोत्तर उन्मेष के लिए अनंत शुभकामनाएं ..., साधुवाद | दोहों के गगन में ध्रुव की भाति दैदीप्यमान रहें .... इन्ही शुभाशंषाओं के साथ 


कृष्णा कुमारी (कवियत्री ) 
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सतसैया के दोहरे,ज्यों नाविक के तीर
देखन में छोटे लगें
घाव करें गंभीर।

कविराज बिहारी के विषय में कही गई यह उक्ति हलधर जी के लिए बिलकुल सटीक है।दो पंक्तियों का दोहा छंद जो मात्राओं के अनुशासन में बंधा है-हलधर जी के मन की भावनाओं को विस्तार देने में कहीं सीमा या बाधा नहीं बना है।सम्वेदनशील भावुक मन और भाषा की गहरी पकड़ हलधर जी के दोहों को परिपूर्ण भावाभिव्यक्ति देती है।उनके दोहे कथा की अविव्यक्ति नहीं करते किन्तु व्यथा की अभिव्यक्ति बखूबी करते हैं।
 उनकी सतत रचनाधर्मिता का उपहार दोहा संग्रह"शिखरों के हकदार" पढ़ा। सिर्फ पढ़ा कहना उचित नहीं होगा क्योंकि प्रत्येक दोहा पढ़ने के पश्चात विचारोत्तेजक और प्रयोजनपूर्ण लगा। - कुछ यादों के पिटारे खुल गए, कहीं व्यथा का समानीकरण हो गया और कहीं स्थितियों पर क्रोध आया।कुल मिलाकर पाठक को सोचने पर विवश कर देते हैं हलधर जी के दोहे।
कविता संसार में वर्गीकरण बेमानी है।सब कुछ संलग्न है, मिला हुआ है।हलधर जी का भावसंसार भी ऐसा ही है।भावनाओं की विविधता इस संग्रह में खूब उजागर हुई है।कहीं कवि का भावुक मन 
तुम आए बजने लगे मन में लाख सितार,
धड़कन हो गई दादरा,नैन हुए मल्हार।
        और
तुम आए गाने लगी,पायल की झनकार
रोम-रोम संतूर सा मन वीणा के तार।

जैसे दोहे रचता है।और कहीं


 नीवें खोदी बाप ने माँ ने फेंकी गार,

अब बेटों ने डाल दी,आँगन में दीवार।

दादाजी के वास्ते घर में सब सामान,

खाने को फटकार है ,पीने को अपमान।

जैसे दोहों में पीड़ा को सांझी करता है 

कहीं प्रतीकों के माध्यम से अपने गांव की सैर करा लाते हैं, जैसे

नवल बनी सी ग्रीष्म ऋतु, फूल फूल सिंगार,

गुलमोहर की ओढ़नी,अमलतास के हार

 नेताओं की वादाखिलाफी हो या सूदखोरों की निर्ममता,रिश्तों का उथलापन हो या माता-पिता का निस्वार्थ प्रेम,शृंगार की गुनगुनाहट हो या मौसम के मस्ताने अंदाज सभी मिजाज के दोहे इस संकलन  में पढ़ने को मिले हैं।जीवन के हर रंग,हर पहलू को हलधर जी ने क्या खूब उकेरा है।यही कहूँगी कि फूलों से दोहे और उपवन सा संकलन।बहुत खूब!!!!


स्मृति शर्मा ,कोटा 

(सुधि पाठक )
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कुछ प्रमुख पत्रिकाओं   में 
















Sunday, July 17, 2016

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 डॉ मालिनी गौतम ,समकालीन  साहित्य की  दुनियाँ में स्थापित नव लेखिका है |गीत ,ग़ज़ल ,कविता  दोहा ,मुक्त छंद आदि विधा में आपने अपनी विशेष पहचान बनाई है |हाल ही में आपका कविता संग्रह "एक नदी जामुनी सी "बोधि प्रकाशन से आया है |डॉ मालिनी अपने लेखन में आधुनिक संवेदना के सूत्र पिरोती  हुई दिखाई देती है |प्रेम के कोमलतम अहसासों को गीतों की लय देते हुयें यथार्थ  की जमीं के उबड़ खाबड़ रास्तों को भी अपने जहन  में रखती है |जहाँ नून ,लकड़ी ,तेल में साँसों की रवानी अटक जाती है |लेखन में संवेदनाओं का प्याला लबालब भरा हुआ है ,हर विषय पर इनकी गहन अनुभूति का परिचय भाषा ,शैली से सजा हुआ मिलता है |अपनी निजी अनुभूतियों को काव्य के विविध रूपों में बुनावट और बनावट के साथ पाठकों के समक्ष रखा है | आइये आज उनके कुछ गीतों  से रूबरू होकर उनकी  उनसे लयबद्ध हो जाए |

परिचय



नाम                           मालिनी गौतम
जन्म                          20 फरवरी 1972 को झाबुआ (मध्यप्रदेश) में
शिक्षा                          एम.ए., पी-एच. डी. (अंग्रेजी)
लेखन विधाएँ                    मुक्तछन्द कविता,ग़ज़ल,गीत,दोहा, अनुवाद इत्यादि

कृतियाँ                         1 बूँद-बूँद अहसास (कविता-संग्रह)
                              2 दर्द का कारवाँ ( ग़ज़ल-संग्रह)
3  एक नदी जामुनी-सी ( कविता-संग्रह)
4 गीत अष्टक तृतीय ( साझा गीत संकलन)
   5 काव्यशाला ( साझा कविता-संग्रह)
   6 कविता अनवरत ( साझा कविता-संग्रह )
                                                           
सम्मान                        1  आगमन साहित्य सम्मान -2014, दिल्ली
                              2  परम्परा ऋतुराज सम्मान-2015, दिल्ली
  3  आशा साहित्य सम्मान-2015, भोपाल (म. प्र.)
  4 अस्मिता साहित्य सम्मान-2016,बड़ौदा (गुजरात)
 5  भारतीय साहित्य सेवा सम्मान-2016, अखिल  भारतीय    साहित्य परिषद, इन्दौर
संप्रति                         एसोसिएट प्रोफेसर (अंग्रेजी), कला एवं वाणिज्य
                              महाविद्यालय, संतरामपुर (गुजरात)                               
संपर्क                          ई मेल - malini.gautam@yahoo.in
                            

                             
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प्रेम के आखर 
अब नहीं झरते कलम से प्रेम के आखर
हर सुबह खटपट पुरानी
घाव-सी रिसती जवानी
नून, लकडी, तेल में ही
साँस की अटकी रवानी
 छौंक में उड़ते-बिखरते भावना के पर

लय कहीं ठिठकी हुई है
राह फिर भटकी हुई है
सफर में दलदल उगे हैं
 चाल फिर अटकी हुई है
सर्द सन्नाटे हुए क्या ताल क्या तरुवर  

एक बालक-सी हठीली
धूसरित कुछ, कुछ सजीली
सीढ़ियों पर चढ़ रही है
 उम्र सीली हो कि गीली
हो रही है आस बेशक रेत-सी झर-झर

2

रतजगा काजल

समय के बिखरे हुए हर ओर निर्मम पल
टीसता है मन कि जैसे
 सुआ कोई चुभ गया है
ओढ़ पंखों का दुशाला
क्यों हुई गुमसुम बया है
इन सवालों के कहीं मिलते नहीं हैं हल

एक हांडी आँच पर
सम्बन्ध पल-पल जाँचती है
अधपके-से सूत्र सब  
बैचेन होकर ताकती है
गगन छूने को धुंआ है हो रहा बेकल

मोरपंखी ओढ़नी में
संदली कुछ याद महकें
पर, कशीदों में कढ़े
कोयल-पपीहे अब न चहकें
दृगों में ठहरा हुआ है रतजगा काजल



3 
जूझने का दम

इन हक़ीमो में नहीं है जूझने का दम
व्याधि फैलाने लगी
अपनी जड़ें गहराइयों में
फुनगियों के शीश गिरते
सर्द-गहरी खाइयों में
नब्ज़ गायब है समय की,हाँफता बेदम

रौशनी के कुछ संदेशे लिए
रवि द्वारे खड़ा है
कूचियाँ ले कालिमा की
तम मगर पीछे पड़ा है
दाग सारे वक़्त के मुँह पर अभी कायम

कान-आँखें,मूँद कर
 सेना निरर्थक लड़ रही है
है विवश राजा कि उसकी
चाल उल्टी पड़ रही है
खून से लथपथ समय की आँख  नम बस नम  

4

इच्छाओं के प्रेत


बहुत सँभाला मगर हाथ से निकली जीवन रेत ।

हाथ धरे माथे पर अलगू
चिंता बहुत करे
ताड़ हुई बेटी को देखे
या फिर करज भरे
ज़मींदार की तेज नज़र से बच न सकेंगे खेत ।
मौसम हुए मनचले जबसे
खुशियाँ हुईं कपूर
बौराए काँटों से छलनी
हुआ सुमन का नूर
बूढ़े बरगद पर छाये हैं इच्छाओं के प्रेत ।
बन्दवारों ने स्वागत में
दिए द्वार जब खोल
चोर-लुटेरे घुस आए
पहने पाहुन का चोल
मुँह में राम बगल में चाकू बगुला फिर भी श्वेत |


5
कुंज-गलिन में


चलो मुरारी फिर से घूमें
                  कुंज-गलिन में
प्रेम बाँसुरी
तुम बिन रीती
यमुना कूड़ा
कचरा पीती
डाल-डाल
लटके चमगादड़
राधा घाव
व्यथा के सीती
काँटे फूलों के मुख चूमें
                  कुंज-गलिन में
बाल-वृन्द सब
मुँह बिसराते
माखन-मिसरी
अब नहीं पाते
कंस लूटते
छींके घर-घर
व्यथा पहरुए
किसे सुनाते
काल-सर्प मस्ती में झूमें
                  कुंज-गलिन में


  
6

भोर के उत्सव

बन्द आँखों में मचलते भोर के उत्सव ।
अपने काँधों पर उठाए
रेशमी कुछ ख्वाब
ढूँढता वह डिग्रियों के
बल पे अदना जॉब
अर्थियाँ कागज़ की ढोना कब तलक सम्भव ।
गाँव बैठा शहर के
द्वारे पसारे हाथ
लौट आयेंगे कभी वो
जिनने छोड़ा साथ
आस कोमल-सी निगलता स्वार्थ का दानव
हल चलाते सोमला का
मन बड़ा चंचल
ढूँढता वह बादलों में
ख्वाहिशों का जल
बालियाँ गेंहूँ की करती नींद में कलरव ।
मालिनी गौतम




 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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