Sunday, February 18, 2018

पड़ताल: कहानी , बीते शहर से फिर गुजरना 

  तरुण भट्नागर




संध्या कुलकर्णी

तरुण की जितनी भी कहानियां पढ़ीं उन सभी में वो एक जादुई यथार्थ सा रच देते हैं ,उन्हें पढ़ते हुए मार्खेज और निर्मल वर्मा की लेखनी का जादू याद आता रहता है ।कहानी गुज़रते हुए पूरे समय की अंतर्ध्वनि के प्रति एक व्यंजनात्मक शब्द और दृश्य और साथ ही श्रव्य प्रतिध्वनि के रूप में चलती है ।पूरी कहानी एक चलचित्र के रूपक बतौर नाटक के मस्तिष्क में फेंटेसीपरक शैली में नायक की स्मृति के साथ चलती हैं ।प्रत्यक्षत: यह कहानी शहर से गुज़रते हुए शहर की बारीक स्मृतियों के साथ व्यक्तिबोध को उकेरती चलती है।पीछे छूट गया सा कुछ स्मृतियों में चाहे हेज हो या एक बेंच या ट्रेन की बर्थ हो ....या खिड़की से बाहर दिखता प्लेटफार्म या वहां की कोई गली या कोई सड़क जीवंत हो उठती है ।कहानी हिंदी कहानी के पारंपरिक नायक नायिका की छवि से मुक्त है किसी तरह का पूर्वाग्रह दिखाई नहीं देता ...

यूँ भी भारतीय दर्शन आत्मतत्व को प्रतिपादित करता है ,कहानी में आत्मतत्व प्रबल है ।प्रेम यहाँ रूड अर्थ में उपस्थित नहीं है।यहाँ प्रेम स्वयं की खोज और प्राप्ति की ऊहापोह में उलझा सा प्रतीत होता है ।कहीं कहीं पढ़ते हुए धैर्य छूटता सा है .....लेकिन फिर फिर थाम ही लेती है कहानी ।


अबीर आनन्द

कई दिनों से सोच रहा था कि तरुण जी की कहानियाँ पढूँगा, इधर-उधर से रेफेरेंस मिलता रहता है पर आजकल जनवरी-फरवरी वाला आलस हावी है। हर महीने के आलस का अलग कारण होता है।

बिम्ब और प्रतीक कहानी के पात्र बन जाते हैं और इस कण्ट्रोल के साथ बनते हैं कि मन पूछता है कम से कम लड़की का नाम तो कहीं लिखा होगा। पूरी कहानी सिर्फ प्रतीकों की कहानी है और पात्र दूर खड़े जैसे सुचालित होते हैं सपने की मौत से, ट्रेन की परछाइयों से, अलार्मिंग डॉग से, रिलेटिविटी से। जिन्हें हम आदमी कहते हैं उनके नाम तक की अहमियत नहीं रह जाती। प्रतीक इस कदर हावी हो जाते हैं कि कहानी को पढ़ना एक आटोमेटिक प्रक्रिया के तहत होता है।

मुझे नहीं मालूम कि तरुण जी ने ऐसा जान बूझ कर किया है या कहते-कहते हो गया, पर वे कहानी को पात्रों के चंगुल से उखाड़कर ले जाते हैं और उन बेजान चीजों के हवाले कर देते हैं जो प्रेम के गुजर जाने से खंडहर नहीं हो जातीं। मेरी समझ से प्रेम का ताना-बाना एक मुखौटा है जिसकी आढ़ में प्रेम की अवधारण को ही तितर-बितर कर दिया। ऐसा लगा कि प्रेम कुछ भी नहीं है। वे सब चीजें जो एक ‘डेट’ को ‘प्रेम’ में बदल देती हैं – छतनार की पत्तियों से छनती हुई धूप, घर की बालकनी, कॉलेज की कैंटीन, काफ्का और न जाने क्या-क्या....ऐसा महसूस होने लगा कि प्रेम एक बहुत ज्यादा ‘ओवर-रेटेड’ कांसेप्ट है। दरअसल दुनिया में मायने खोजने के लिए इस घने पागलपन की कोई ज़रुरत है ही नहीं। वे लोग मूर्ख हैं जो कहते हैं कि ‘प्रेम के बिना जीवन नहीं जिया जा सकता’। मैं भी थोड़ा पारंपरिक से खयालात का हूँ पर अब लग रहा है कि स्वच्छंदता में जितनी क्रिएटिविटी है उतनी बंदिशों में नहीं है।

न कहानी का विषय नया है, और न ही इसे बहुत अलग ट्रीटमेंट के साथ लिखा गया है; इसके बावजूद यह जरूर सीखने को मिला कि किसी विषय को कितना खुलकर देखा जा सकता है। और यह कि कहानी को अलग धरातल पर कैसे ले जाया जा सकता है। पूरा विश्वास है कि तरुण जी ने सिर्फ एक प्रेम कहानी ही लिखनी चाही होगी – एक आम सी कहानी जिसमें उनके अपने अनुभव अपनी शैली के साथ हों। पर यह एक प्रेम कहानी से कहीं आगे की कहानी बन गई है। दरअसल यह प्रेम कहानी है ही नहीं। उफ़! बहुत कुछ समझा देती है कहानी।

मुझे उम्मीद है, पाठक इसे प्रेम कहानी के परे पढ़ने का प्रयास करेंगे। सचमुच जादुई अनुभव रहा तरुण जी को पढ़ने का।



सुरेन सिंह 

बीते शहर से फिर गुजरना तरुण जी की दूसरी कहानी है जो आज पढ़ी इससे काफी पहले  चाँद चाहता था कि धरती रुक जाए पढ़ी थी और उनके कहानीकार को एक पाठक की तईं एक वाह से भर गया था । बस्तर के आदिवासी जीवन को लेकर लिखी गयी इस कथा के अराजनैतिक कलेवर के होने को लेकर हंस में एक बहस छिड़ी थी जो कमोवेश फिर स्मृति में तैर गयी  । 

बीते शहर से फिर गुजरना की  जहाँ तक बात है तो पहली प्रतिक्रिया जो उभरती है पाठकीय मन मे  . . वो है कहानी का निर्मलीय ट्रीटमेंट होते हुए भी उसका तरुणत्व  लेखक बचा ले जाता है ,जो अच्छा लगता है और कथा अपने लास्ट इम्प्रैशन में पाठक मन  में स्मृति , विस्थापन , कसक , विह्वलता ...आदि के कोलाज  को इस तरह प्रतिस्थापित करता है कि उसकी सम्वेदनाएँ    क्षीण होने में एक पूरा भरापूरा अंतराल लगे । 

कथा एक साथ वर्तमान , स्मृति और विस्थापन को लेकर  चलती है और एक वर्तुल बनाकर कई दृश्य और उनकी कसक छोड़ जाती है । मोनोलॉग शैली में कहानीकार कई बार अतिकथन का शिकार होता है और कथा का पूर्वार्ध उतना कसा बंधा नही रहने पाता । परन्तु पाठक कथा में पिरोई गयी काव्यात्मकता से बहाव पाता है और उसके कंटेंट में जगह जगह आई  एनालोगिस से पाठ्यता में उत्प्रेरण । 

एक बात जो खटकती है वो है अंग्रेज़ी के जो वाक्य पात्र इस्तेमाल कर रहे है वे कई जगह ग्रामेटिकली गलत है और पात्रों की प्रास्थिति के अनुकूल नही लगते । जबकि तरुण जी कथा में भाषा के प्रांजल होने को लेकर काफी सचेत दिखाई पड़ते है । 

जैसा कि ऊपर अबीर जी ने लिखा कि कथा का विषय नया नही है न ट्रीटमेंट  पर किसी विषय को कितना खुलकर देखा जा सकता है .... इसमे एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि कथाकार कैसे एक अंतरंगता भी स्थापित करता है  और उन्ही के शब्दों में एक प्रेमकथा होने मात्र के टैग से बंधी होकर भी मात्र प्रेमकथा नही रहने पाती .... 


अंततः एक सुंदर कथा पढ़वाने के लिए प्रवेश जी का शुक्रिया और तरुण जी से आग्रह की और कथाओं से हम लोगो को रूबरू करवाएंगे ।



अपर्णा अनेकवरणा

मुझे कल से ही 'स्ट्रीम अॉफ़ कॉन्शेसनेंस' तकनीक की याद दिलाती रही ये कहानी। एक ही व्यक्ति के thought process और internal monologue से ही पूरी कहानी कही गई है। यहाँ किसी भी अन्य पात्र की बात या कोई भी संवाद न के बराबर है। ऐसा करते हुए कथा की लोच को बनाए रखना और अपनी बात को एक लॉजिकल अंत तक ले जाना, लेखक ने दोनों को सफलतापूर्वक निभाया है। ये तरुण जी की पहली कहानी पढ़ रही हूँ और बहुत मुतासिर हुई हूँ।


दूसरी बात है कहानी की लंबाई जो मुझे कतई बोझिल करती नहीं लगी, बल्कि एक बीते कल की अब तक जीवित संवेदना को एक roller coaster की तरह दूर पास से दुबारा जीते दिखाने के लिए एक प्रर्याप्त समय देती लगी जिसमें ये complex emotion धीरे धीरे खुलता है।


कहानी की शुरुआत कुछ बिखरी लगी जो पुनर्पाठ में बेहतर लगी। पर कहानी आगे बढ़ते ही जो लय पकड़ती है वो संतुलन बनाए हुए अंत तक बनी रही। एक urban और आधुनिक mindset की अभिव्यक्ति relatable लगी।




सौरभ शांडिल्य

"उसकी थोडी पर एक तिल है। मैंने उस तिल को छुआ है। मैंने सोचा है, आज मैं उस तिल को अपने होठों में दबा लुंगा"

इन पंक्तियों से तय किया कि कुछ है जो सच है, जिसका स्तित्व है। मुझे एक सच की दरकार है जिसपर केंद्रित हो कर लिखा जा सके। देह विहीन प्रेम जिलजिला प्रेम है, ऐसे प्रेम का न जाने क्या भविष्य है? इन्हीं पंक्तियों से कहानी पढ़ते हुए बतौर पाठक मेरी ग्रिप बनी।

प्रेम में हम पूरी पृथ्वी पर अकेले रहते हैं। सब को आइसोलेटेड करते हुए हमीं दो रहते हैं फिर हम मॉल में हों या कि कॉलेज में। लोकेल का चित्रण नहीं जानता कितना सच्चा है पर तरुण जी ने ऐसा लिखा जैसे मैं (भी) उस स्थान से परिचित हूँ।

'समय : एलार्मिंग डॉग या शिकारी' उपशीर्षक बहुत मज़बूत है पर न जाने क्यों उसके नीचे लिखा गया हिस्सा कमज़ोर लगा। असंख्य 'क्योंकि' और बहुत से 'बेमन' मिलकर गति क्रिएट करते हैं। बहुत सी गतियाँ मिलकर समय का एक टुकड़ा। डिपेंड करता है कि वह टुकड़ा कैसा है वही समय के कुत्ते या शिकारी होने को तय करते हैं।

प्रेम में प्रेमी प्रेमिका अपने होने के इतर भी सुविधा के अनुसार काल्पनिक रिश्ते बनाते बिगड़ते रहते हैं यह कितना सामान्य है यह सोचने की बात है। फिर एक तथ्य यह भी है कि प्रेम छुपता नहीं आप इसे चाहे जिस रिश्ते का नाम दे दें। एक न एक दिन कोई बूढ़ी की पारखी नज़रें सच की टोह ले ही लेंगी।


हर प्रेम के सुखद क्षणों से कभी बाहर नहीं निकल पाते। उन स्मृतियों को रोज़ ब रोज़ जीते हैं, भले यह जीना - जीना प्रत्यक्षतः दिखे न दिखे।

यदि कहानी के शीर्षक से बना और अंतिम से ठीक पहले के उपशीर्षक वाले हिस्से को आख़िरी में भी रखें तो कहानी थोड़े सम्पादन की मांग करती है और उसके बाद एक क्रम बन जाएगा।


कहानी की भाषा ने कहानी पर पकड़ बनाए रखने में बहुत मदद की है। कहीं कहीं ज़्यादा लगा मुझे, लंबे समय पर लेकिन एक शानदार कहानी पढ़ी।





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