Wednesday, May 25, 2016



"शब्बे रात  का हलवा "लेखक सईद अय्यूब ....यह कहानी धर्म के आडम्बर की पोल  खोलते हुए युवा होते मन के  परस्पर दैहिक आकर्षण  की बेहतरीन कहानी है |वाट्स अप ग्रुप "साहित्य की बात "जिसके एडमिन श्री ब्रज श्रीवास्तव  जी है , उस पर   प्रस्तुत की गई |वहा पर इस कहानी के प्रत्येक पहलु पर विषद चर्चा हुई |

साहित्य की बात से साभार यह कहानी चर्चा के साथ इस ब्लॉग पर  प्रस्तुत है |











 शबेबरात का हलवा


सईद अय्यूब

हाफ़िज़ मुहम्मद अहमद खान उर्फ़ अहमद मियाँ जिस जगह क्रिकेट खेल रहे थे, वह उसी मदरसे का हाता था, जिसमें उन्होंने छह महीने पहले एडमिशन लिया था. मदरसा गाँव और शहर दोनों के ठीक बीच में था. एक तरफ़ निकल जाइए तो गाँव, दूसरी तरफ़ निकल जाइए तो शहर. उत्तर की तरफ़, सड़क से लगे हुए एक बड़े से गेट से मदरसे की शुरुआत होती थी. गेट से अंदर घुसते ही एक बड़ा सा खाली मैदान था जो हस्बे ज़रूरत कई तरह के कामों में इस्तेमाल होता था. अहमद मियाँ के लिए उसका मनपसंद इस्तेमाल था– शाम को क्रिकेट खेलना. मैदान के दूसरे किनारे पर, एक आलिशान बड़ी सी मस्जिद, मदीना के ‘मस्जिद-ए-नबुई’ के तर्ज़ पर बनी हुई. मस्जिद के दोनों किनारों पर शानदार ऊँची-ऊँची मीनारें. चूँकि अल्लाह ऊपर रहता है, इसलिए जितनी ऊँची मीनार, उतनी ही अल्लाह की कुर्बत. मस्जिद और उस मैदान को चारों तरफ़ से घेर कर बनाये गए क्लासेस के लिए कुछ बड़े-बड़े हॉल, उस्ताद और बच्चों के रहने और सोने के लिए कुछ कमरे और कुछ कमरे दफ़्तरी कामों के लिए. एक किनारे पर सीमेंट के चबूतरों से घिरे हुए दो हैंडपम्प जहाँ वज़ू बनाने के लिए कुछ बधने हमेशा रखे रहते थे. कुछ दूरी पर छोटी-बड़ी ज़रूरतों के लिये बने हुए चार टायलेट, जिन्हें मदरसे के लोग ‘बैतुलखला’ कहते थे. मदरसे के मेन गेट से लगी हुई, अज्जू खान की टूटी-फूटी हवेली.

दरअसल, मदरसे की सारी ज़मीन अज्जू खान की ही थी जिसे मदरसे वालों ने अज्जू खान के बेटे बिस्मिल्लाह खान से, मजहब के नाम पर, बहुत सस्ते में ले लिया था, एक तरह से मुफ़्त में. कहते हैं कि अज्जू खान बहुत रोब-दाब वाले आदमी थे और जब तक ज़िंदा रहे, पूरी दबंगई के साथ ज़िंदा रहे. दरवाजे पर, उस ज़माने में दो-दो ट्रक खड़े रहते रहे और एक हाथी झूलता रहता था. ख़ूब पैसा कमाया और ख़ूब उड़ाया. शराब और रंडीबाजी, उनके दो प्रिय मश्गले रहे. और जब बाप ऐसा, तो बेटे...वे तो दो हाथ और आगे. न अज्जू खान को बेटों को कुछ बनाने कि फ़िक्र, न बेटों को कुछ बनने की फ़िक्र. दौलत का नशा, जिसके सर चढ़ कर न बोले, वह इस दुनिया का आदमी नहीं. सो, अज्जू खान के मरने के बाद, सारी जायदाद-ज़मीन उनके दोनों बेटों- बिस्मिल्लाह खान और उस्मानुल्लाह खान के बीच बंटी. दोनों ट्रक बंटे, हाथी बेचकर उसका पैसा बंटा, सबसे बड़ी बात कि दिल भी बँट गया और उससे भी बड़ी बात कि माँ नहीं बंटी, क्योंकि दोनों बेटो ने उसे क़बूल करने से इंकार कर दिया. होती होगी माँ के पैरों के नीचे जन्नत, अभी तो बीवियों और रंडियों की जाँघो के बीच जन्नत बस रही थी. बेचारी माँ, जब तक जीती रही, दोनों बेटों को असीसती रही, अपनी बहुओं को गरियाती रही और गाँव वालों के रहमोकरम पर पलती रही. तो, कमाई ढेले की और शौक नवाबों के. आखिर कितने दिन चलता? पहले ट्रक बिके, फिर ज़मीन से लेकर बर्तन-भांडे तक. कुछ लोग तो कहते हैं कि बाद में बहुएँ तक बिकीं. खुदा जाने इसमें कितनी सच्चाई है? खैर...मदरसे की ज़मीन इसी बिस्मिल्लाह खान के हिस्से की थी. जवानी ढल जाने पर और पैसों की तंगी हो जाने पर, बिस्मिल्लाह खान, कुछ-कुछ अल्लाह वाले हो गए. नमाज़-रोज़ा तो कभी सीखा न था और करना भी थोड़ा मुशिकल था, इसलिए दाढ़ी बढ़ा ली और एक दो दाढ़ी वालों से सलाम-दुआ करने लगे और लोगों ने यह मान लिया कि बिस्मिल्लाह खान को अल्लाह ने नसीहत फरमा दी है और अब वे सुधर गए हैं. लेकिन गाँव का कल्लू, जिसके बारे में चर्चा थी कि बिस्मिल्लाह की जोरू का असल पति वही था, का कहना था कि बिस्मिल्लाह अपनी माँ का यार है, कुत्ते की पूँछ है, बारह साल नहीं, उसे क़यामत तक सीधा नहीं कर सकते. लोगों को कल्लू की बात में भी कुछ दम दिखाई देता था, क्योंकि दाढ़ी बढ़ा कर और सलाम-दुआ के बहाने बिस्मिल्लाह कुछ अल्लाह वालों से अल्लाह के नाम पर पैसे माँगने लगे थे और अल्लाह वालों को बिस्मिलाह की यही बात सबसे बुरी लगी. खैर, कुछ अल्लाह वालों के दिमाग में एक दीनी मदरसा खोलने की बात समायी और सड़क से लगी हुई बिस्मिल्लाह खान की यह ज़मीन उसके लिए सबसे मौजूँ जान पड़ी. फिर क्या था, बिस्मिल्लाह की थोड़ी मदद करके और कुछ दीन-दुनिया का डर दिखा कर लोगों ने यह ज़मीन एक तरह से बिल्कुल मुफ़्त लिखवा ली और मदरसा ज़ोर-शोर से शुरू हो गया और गाँव की इज्ज़त में चार चाँद लगाने लगा.

लेकिन बात तो हो रही थी हाफ़िज़ मुहम्मद अहमद खान उर्फ़ अहमद मियाँ की. पूरे गाँव में हाफी जी के नाम से मशहूर अहमद मियाँ इस मदरसे में दाखिला लेने वाले पहले छात्र थे. कुछ दूर के एक गाँव के अमीर प्रधान माजिद खान के सबसे बड़े सुपुत्र और बाप से भी बड़े बिगड़ैल. बाप का इरादा उन्हें किसी अंग्रेजी स्कूल में डालने का था लेकिन माँ कुछ धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. उन्हें यकीन था कि बेटा अगर हाफ़िज़-ए-कुरान हो गया तो कयामत के दिन अल्लाह के सामने पूरे परिवार को माफ़ करवा देगा. पति ने अपनी प्रधानी के बल पर तो दुनिया बन ही दी थी, अब बेटा आखिरत भी बना दे तो चैन से मर सकें. इसलिए बेटे को दीनी तालीम हासिल करने और हाफ़िज़-ए-कुरान और अपना आखिरत बनाने के लिए उन्होंने गाँव के ही मदरसे में दाखिल करवा दिया. लेकिन जब पिछले चार साल में भी अहमद मियाँ कुरान याद नहीं कर पाए तो माँ को कुछ फिक्र हुई कि शायद गाँव के मदरसे में ठीक से पढ़ाई नहीं हो रही है. अत: उन्होंने अपने होनहार पुत्र को गाँव के मदरसे से निकाल कर शहर के किनारे इस नए और बड़े मदरसे में दाखिल करवा दिया. अहमद मियाँ जब इस मदरसे में आये तो कुरान तो याद नहीं कर पाए थे लेकिन रंग-ढंग सब हाफिजों वाल ही था. लगभग उन्नीस वर्ष की आयु, नई-नई आई दाढ़ी, गोरे-चिट्टे, लंबे-छरहरे, कुर्ते-पाजामे से लैस अहमद मियाँ को गाँव वालों ने हाफी जी कहना शुरू कर दिया और कुछ दिनों के बाद तो अहमद मियाँ ने बाकायदा गाँव की मस्जिद में इमामत शुरू कर दी. पढ़ना-लिखना तो खैर चलता ही रहता है, लेकिन अहमद मियाँ को जिस चीज़ से हद से बढ़कर लगाव था वह चीज़ थी क्रिकेट. पढ़ाई और इमामत से फुर्सत मिलते ही वे मदरसे के खाली मैदान में अपनी टीम को लेकर पहुँच जाते थे और बताने वाले बताते हैं कि वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे.

तो पिछले महीने की बात. जुमे का दिन था. जुमे की नमाज़ के बाद अहमद मियाँ और उनकी पूरी टीम मैदान में जमा हो गयी. छुट्टी का दिन, न कोई पढ़ाई का झंझट न कोई और काम. सो, पूरे जोश-खरोश से क्रिकेट शुरू हो गया. अहमद मियाँ बैटिंग कर रहे थे. अचानक उन्होंने गेंद को इतनी तेजी से हिट किया कि गेंद पलक झपकते ही मदरसे की बाउंड्री से बाहर और बिस्मिल्लाह खान के मकान जो कि मदरसे से सटा हुआ था, के पीछे वाले हिस्स्से में जा गिरी. असल में उस पुरानी हवेली के इस पिछवाड़े वाले हिस्से में बिस्मिल्लाह खान के बड़े बेटे सब्बू मियाँ, उनसे अलग होकर अपनी बीवी और दो बेटियों के साथ रहते थे. वे स्वभाव में बिस्मिल्लाह खान से थोड़ा अलग थे और खुद से कुछ पढ़-लिख कर, एक छोटी सी सरकारी नौकरी में लगकर किसी दूसरे शहर में रहते थे और घर पर उनकी बीवी और दो जवान होती बेटियाँ रहती थी. बड़ी लगभग सत्रह साल की और छोटी लगभग पन्द्रह साल की...तो गेंद अंदर गिरते ही दूसरे लड़को ने शोर मचाना शुरू कर दिया क्योंकि शर्त यह थी कि जो भी गेंद को मदरसे के बाहर मारेगा, वही उसे वापस लाएगा. अहमद मियाँ झल्लाते हुए, बैट पटक कर मदरसे से बाहर निकले और बिस्मिल्लाह खान के घर के उस हिस्से की तरफ बढ़े जिस हिस्से में बिस्मिल्लाह खान के बेटे का परिवार रहता था और जिसके पीछे वाले हिस्से में गेंद गिरी थी. लेकिन यह क्या, दरवाजे पर तो ताला लगा हुआ था. अब क्या करें? खेल और छुट्टी का सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया. लेकिन अहमद मियाँ भी अहमद मियाँ ही थे. अपने गाँव में ना जाने इस तरह के कितने मैदान उन्होंने मारे थे. वे मदरसे में वापस आये और उस दीवार के पीछे पहुँचे जो उस घर को मदरसे से अलग करती थी. उन्होंने बाहर की तरफ उखड़ी हुई ईंटों का जायजा लिया और फिर कुछ ही देर में वे दीवार की मुंडेर पर थे. मुंडेर से उन्होंने नीचे झाँक कर देखा. ज़मीन पर फैली हुई लौकी की बेलों के बीच उन्हें अपनी गेंद कहीं दिखाई नहीं दे रही थी. वे कुछ देर सोचते रहे और फिर दीवार के ही सहारे दूसरी और उतरने लगे. सावधानी से उतरने के बाद, जैसे ही वे मुड़े, तो देखा कि सब्बू मियाँ की बड़ी बेटी फरीदा, सामने खड़ी उन्हें टुकुर-टुकुर देख रही थी. वह अभी-अभी अंदर से नहा कर निकली थी. गोरी, सुडौल नव-यौवना, बालों से पानी टपक-टपक कर उसके गालों को भिगो रहा था. एक हाथ में अंगिया पकड़े जो वह सुखाने के लिए बाहर डालने आई थी, अहमद मियाँ को अपने घर के पिछले हिस्से में दीवार के सहारे उतरते देख कर हैरानी से पलकें झपका रही थी. उसे देखकर अहमद मियाँ के तो होश उड़ गए. वह घबराते हुए बोले-

“वो...वो...इधर बाल...”

घबराहट में फरीदा अहमद मियाँ की बात ठीक से नहीं सुन पायी. वह गाँव के हाफी जी को इस हालत में अपने घर के पिछवाड़े देखकर चकित थी. उसने सोचा कि लगता है हाफी जी लौकी चुराने के लिए अंदर घुसे हैं. यह सोचते ही और अहमद मियाँ को इस तरह से हकलाते देखकर वह हँस पड़ी और बोली-

“हाफी जी, लौकी ही लेनी थी तो अम्मी को बोल देते. इस तरह से चोरी करने क्यों आये?”

अहमद मियाँ तब तक संभल चुके थे. उन्होंने फरीदा को तनिक गुस्से से देखा और बोले-

“मैं तुम्हें लौकी चोर दिख रहा हूँ. हमारी गेंद इधर आकर गिर गयी है. उसी को लेने आया था, लेकिन तुम कब आई? बाहर तो अभी ताला बंद था.”

“अच्छा, वो...मैं नहा रही थी और अम्मी और वहीदा को थोड़ी देर के लिए बाहर जाना था इसीलिए उन्होंने बाहर से ताला लगा दिया था ताकि कोई आ न जाये. लेकिन उन्हें क्या पता कि ताला लगा होने के बाद भी कोई अंदर घुस सकता है.” यह कहते हुए फरीदा ने एक तिरछी नज़र से हाफी जी को देखा और फिर बोली-

“जल्दी से अपनी गेंद ढूँढिए और बाहर जाइए. अम्मी और वहीदा आती ही होंगी.”

अहमद मियाँ ने घबरा कर इधर-उधर गेंद ढूँढनी शुरू कर दी और अपने हाथ की अंगिया को वहाँ लगी हुई रस्सी पर फैला कर फरीदा भी उनकी इस मुहिम में शामिल हो गयी. अहमद मियाँ ने उसे अंगिया फैलाते हुए एक नज़र देखा और फिर अंगिया पर एक नज़र डाली और ऐसा करते हुए उनकी नज़र फरीदा की नज़र से टकरा गयी. उन्हें एक शर्म सी आई और फिर वे सर झुका कर गेंद ढूँढने में लग गए. फरीदा भी कुछ झिझक सी गयी और चुपचाप सिर झुका कर गेंद खोजने में अहमद मियाँ का साथ देने लगी. लौकी की लतरें पूरी ज़मीन पर फैली हुई थीं और कहीं-कहीं उन लतरों के बीच थोड़ी सफेदी लिए हुए हरी-हरी, छोटी-छोटी, गोल-गोल लौकियाँ दिखायी दे रहीं थीं. बिना दुपट्टे के, झुक कर लौकी की लतरों के बीच गेंद खोजती हुई फरीदा की तरफ अहमद मियाँ ने एक बार चोर नज़रों से देखा और उसकी कुर्ती के नीचे से झाँकती सफेद अंगिया के नीचे भी उन्हें दो छोटी-छोटी लौकियाँ दिखाई पड़ी और उन्हें लगा कि आज पूरी दुनिया ही छोटी-छोटी लौकियों में बदल गयी है.


उस रात सारी दुआएँ पढ़ने के बावजूद अहमद मियाँ को नींद नहीं आई. कभी उन्हें सफेद अंगिये दिखाई देते थे, तो कभी सफ़ेद और हरी छोटी-छोटी लौकियाँ. कभी टुकुर-टुकुर ताकती फरीदा उनके सामने आ खड़ी होती और तुरंत नहा कर निकलने की वजह से उसके गालों पर ताज़ा पानी चू रहा होता, तो कभी उन्हें तिरछी नज़र से देखती हुई फरीदा दिखाई देती. उनके पूरे शरीर में एक अजीब तरह की ऐंठन थी और ऐसा पहली बार हुआ कि उस सुबह वे मस्जिद में सुबह की नमाज़ पढ़ाने नहीं जा पाए. तबियत कुछ भारी-भारी सी लग रही थी, इसलिए मदरसे के संचालक के पास एक अर्जी भेज कर छुट्टी ले ली और दिन चढ़े तक सोते रहे. सोकर उठने के बाद, ज़रुरियात से फ़ारिग होकर वे टहलने की गरज से मदरसे से बाहर निकल आये और बाहर निकलते ही सामने उन्हें फरीदा दिखाई पड़ गयी. कल वाली ही ड्रेस में लेकिन इस बार दुपट्टा सर पर था और एक हाथ में छड़ी थी जिससे वह कुछ बकरियों को हाँक कर चराने के लिए ले जा रही थी. अहमद मियाँ जहाँ थे, वहीँ जम से गए. उनकी नज़रों में एक बार फिर से फरीदा की अंगिया और गोल-गोल लौकियाँ घूमने लगीं. उन्होंने एक बार चोर नज़रों से फरीदा की ओर देखा. ठीक उसी वक़्त बकरियों को हाँक कर सड़क के किनारे करती हुई फरीदा की नज़र भी अहमद मियाँ पर पड़ी और वह शरमा कर पहले से ही ठीक से ओढ़े गये दुपट्टे को फिर से ठीक करने लगी और ऐसा करते हुए उसकी छड़ी दुपट्टे से उलझ गयी. अहमद मियाँ ने एक बार चारों ओर देखा और किसी को वहाँ न पाकर, आगे बढ़कर फरीदा के दुपट्टे से उलझी हुई छड़ी को अलग कर दिया और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गए. फरीदा थोड़ी देर वहीँ शरमाई हुई, मुस्कुराती खड़ी रही और फिर अपनी बकरियों को घेर कर, उन्हें चराने ले जाने के बजाये, वापस लाकर घर में बाँध दिया.

अब तो लगभग यह उसूल ही बन गया था. इधर फरीदा अपनी बकरियाँ लेकर निकलती, उधर अहमद मियाँ किसी न किसी बहाने से मदरसे से बाहर. अहमद मियाँ को अब तक पता चल चुका था कि फरीदा बकरियों को चराने के लिए रोड के किनारे उगे मूँज और उसके आस-पास के घास वाले मैदान में ले जाती है. उन्हें यह भी पता था कि फरीदा बकरियों को लेकर कितने बजे निकलती है और कब वापस आती है. तो अहमद मियाँ कभी फरीदा और उसकी बकरियों से पहले तो कभी बाद में मदरसे से निकलते और सड़क पर टहलते हुए उसे एक-दो बार देखकर वापस आ जाते. फरीदा जब भी उन्हें देखती, शरमा कर कभी अपने दुपट्टे से खेलने लगती और कभी हाथ में पकड़ी छड़ी को ज़मीन पर टिका कर उसे निहारने लगती. इस तरह से एक दूसरे को देखते हुए कई दिन हो चुके थे. अहमद मियाँ को फरीदा से बात करने का कोई मौक़ा ही नहीं मिल पा रहा था क्योंकि सड़क पर हमेशा ही कोई न कोई मौजूद होता और चूँकि वे हाफी जी थे और गाँव की मस्जिद में इमामत भी करते थे, इलाके के लगभग सभी लोग उनको पहचानते भी थे. और अक्सर फरीदा की छोटी बहन वहीदा भी उसके साथ होती. अहमद मियाँ बहुत देर तक सड़क पर टहल भी नहीं सकते थे क्योंकि अक्सर कोई न कोई मिल ही जाता और सलाम-दुआ के बाद उनसे सड़क पर टहलने के बारे में पूछ लेता और अहमद मियाँ झुंझला कर रह जाते. फिर उन्होंने एक नई तरकीब खोज निकाली और सड़क के किनारे पर स्थित पान की दुकान वाले छोकरे से दोस्ती कर ली. पान की उस दुकान से मूँज वाला घास का मैदान साफ़ दिखाई देता था. अहमद मियाँ पान वाले से कुछ बात-चीत करने के बहाने दस-बीस मिनट तक वहाँ बैठे रहते और फरीदा को अपनी बकरियों के पीछे इधर से उधर भागते देखते रहते. फरीदा भी उन्हें देखती और फिर ज़्यादा बदहवास होकर अपनी बकरियों के पीछे भागने लगती.

लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह...जल्द ही नसीब ने अहमद मियाँ का साथ दिया. उस दिन सुबह से ही बादलों ने अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ आसमान में डेरा डाल रखा था लेकिन अभी ज़मीन पर हमला करने की योजना ही बना रहे थे, हमला किया नहीं था. फरीदा अपने तय समय से बकरियाँ लेकर निकली. वहीदा को पिछली रात से बुखार था, इसलिए वह साथ में नहीं थी. अहमद मियाँ भी, मदरसे में कुरान की तिलावत छोड़ कर जल्दी से बाहर निकले और फरीदा से थोड़ी दूरी बना कर चलने लगे. फरीदा जब अपनी बकरियों के साथ मूँज वाले मैदान में चली गयी, अहमद मियाँ पान वाली दुकान के पास पहुँचे. लेकिन आज दुकान बंद थी और पान वाला छोकरा न जाने कहाँ गायब था. इसलिए अहमद मियाँ वहाँ न रुक कर टहलते हुए आगे बढ़ गए. लेकिन वापसी में जैसे ही वे पान की गुमटी के सामने पहुँचे, ठीक उसी वक़्त बादलों ने पूरे ज़ोर-शोर से धरती पर यलगार कर दिया. बारिश इतनी तेज़ी से और अचानक आई कि कुछ सोचने-समझने का वक़्त ही नहीं मिला. अहमद मियाँ हड़बड़ा कर पान की गुमटी के आगे निकले छज्जे तले भागे. वहाँ पहुँच कर अभी उन्होंने साँस लिया ही था कि फिर साँस जहाँ की तहाँ रुकने लगी. सामने से फरीदा और उसकी बकरियाँ छज्जे के नीचे घुसी चली आ रहीं थीं. बारिश काफी तेज थी और सड़क पर जो इक्के-दुक्के लोग थे, वे भी अब कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. सामने सिर्फ़ बकरियाँ थीं, बारिश थी और फरीदा थी जो बारिश में कुछ-कुछ भीग गयी थी और उसके कपड़े कई जगह से उसके जिस्म से चिपक गए थे. फरीदा ने भी अहमद मियाँ को देखा और देखकर कुछ देर के लिए ठिठक गयी. फिर जैसा कि अक्सर ऐसे अवसरों पर वह करती थी, अपने दुपट्टे के एक सिरे को अपनी उँगलियों से लपेटना शुरू कर दिया. दुपट्टा भी बारिश में भीग चुका था और उससे रह रह कर पानी नीचे टपक रहा रहा था. फरीदा ने एक बार उलझी हुई निगाह से अहमद मियाँ की तरफ़ देखा और फिर अपना दुपट्टा उतारकर उसे निचोड़ना शुरू कर दिया. दुपट्टे को निचोड़ने के क्रम में जैसे ही फरीदा थोड़ी सी झुकी, उसकी अंगिया की सफेद पट्टियाँ और उनके बीच कसे हुए उरोजों की हल्की सी झलक ने अहमद मियाँ को फिर से लौकियों की दुनिया में पहुँचा दिया. अब उन्हें एक बार फिर से चारों ओर गोल-गोल छोटी-छोटी लौकियाँ ही दिखाई दे रही थीं. यहाँ तक कि बारिश की बूंदे भी उन्हीं गोल-गोल, छोटी-छोटी लौकियों में बदल गयीं और ऐसा लगता था जैसे आसमान से मुसलाधार लौकियाँ बरस रही हों.

यह तो पता नहीं कि उस दिन अहमद मियाँ ने फरीदा से कैसे बातचीत शुरू की, इसके लिए उनको कितनी हिम्मत जुटानी पड़ी, फरीदा ने उसका क्या जवाब दिया, जवाब देते हुए उसने दुपट्टा ओढ़ लिया था या नहीं, अगर ओढ़ लिया था तो उसके सिरे को अपनी उँगलियों में लपेट रही थी या नहीं, कितनी देर बातचीत हुई, कितनी देर बारिश हुई, जब अहमद मियाँ और फरीदा बात-चीत कर रहे थे तो फरीदा की बकरियाँ क्या कर रही थीं, उनकी बात-चीत के दौरान कोई राहगीर उधर से गुज़रा या नहीं, कोई गाड़ी उधर से गयी या नहीं, बादल कितनी बार और कितने तेज़ी से गरजे, बिजली कितनी बार चमकी, बिजली के चमकने से दोनों को या उनमें से किसी एक को कुछ डर लगा या नहीं, ये सब तो पता नहीं. पता है तो सिर्फ़ इतना कि उसके बाद अहमद मियाँ और फरीदा ने अपने मिलने के कई मौके बनाये, दो बार फरीदा के घर में जब कोई नहीं था, एक बार मूँज वाली घास के मैदान में लंबी-लंबी उगी हुई मूँजों के दरमियाँ गरचे इस बार जितना मज़ा आया, उससे ज़्यादा कष्ट हुआ क्योंकि मूँजें बहुत तीखी थीं और दोनों के शरीर पर जो चीरें आयीं, वह कई दिनों तक उन्हें सिसकाती रहीं. एक-दो बार, मदरसे के पीछे जो जंगल जैसा इलाका था, दोनों चोरी-छिपे रात में वहाँ मिले और इस तरह चोरी-चोरी मिलते-मिलाते शबेबारात का दिन आ पहुँचा.

शबेबारात...यानी मुसलमानों के पवित्र महीने रमजान से ठीक पन्द्रह दिन पहले आने वाली वह पवित्र रात, जिसमें मुसलमान रात भर जागकर इबादत करते हैं. इस रात अल्लाह सातवें आसमान से उतर कर पहले आसमान पर आ जाता है और देखता है कि उसके बंदे किस तरह इबादत में मश्गूल हैं. इस रात जो भी अल्लाह का बंदा अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगता है, अल्लाह उसको माफ़ कर देता है. मुसलमान इस रात को बहुत अकीदत के साथ मनाते हैं. बहुत सारे घरों में तरह तरह के हलवे बनते हैं – सूजी के हलवे, चने के हलवे, गाजर के हलवे, तिल के हलवे, बादाम के हलवे, पिश्ते और दूसरे सूखे मेवों के हलवे आदि-आदि. नज़र व नियाज़ होता है, सौगात के रूप में लोग एक दूसरे के घर हलवे भेजते हैं, खुद भी खाते हैं दूसरों को भी खिलाते हैं, आतिशबाजी करते हैं, अपने घरों, मस्जिदों और कब्रिस्तानों को अपनी औकात भर सजाते-संवारते हैं, पूरी रात जागकर इबादत करते हैं और अपने और अपने पूर्वजों के गुनाहों की माफ़ी माँगते हैं. लेकिन कुछ मुसलमान और उनके धर्मगुरु इस रवायत को नहीं मानते. उनके अनुसार यह रात सिर्फ़ इबादत की रात है, खा-पीकर रतजगा करने की नहीं. उनका आरोप है कि बहुत से मुसलमान पेट भर कर हलवे वगैरह खा लेते हैं और फिर लंबी तान कर सो जाते है. इत्तेफ़ाक की बात थी कि अहमद मियाँ जिस मदरसे में पढ़ते थे, वह मदरसा इसी ख़याल का था और खुद अहमद मियाँ भी हलवे वगैरह बनाने और नज़र व नियाज़ कराने के सख्त खिलाफ थे. मदरसे के संचालक व सबसे बड़े मौलाना ने आज की रात, लोगों को शबेबारात की अहमियत और इस रात को क्या करना चाहिये और क्या नहीं, यह बताने के लिए एक जलसे का आयोजन कर रखा था. इस जलसे में औरतों के बैठने के लिए एक पर्दा लगाकर अलग से इंतजाम किया गया था.

फरीदा की माँ ने फरीदा और वहीदा की मदद से कुछ हलवे तैयार किये और अड़ोस-पड़ोस में उसे बंटवाने के बाद जलसे में जाने के लिए अपनी बेटियों सहित जल्दी-जल्दी तैयार हो गयीं. मौलाना की तकरीर और इस जलसे जैसे पवित्र कार्य में शामिल होकर पुण्य कमाने के अलावा, आस-पास और पूरे मोहल्ले से आने वाली औरतों के साथ गपियाने का महा आकर्षण उनको जल्दी से जल्दी जलसे में पहुँचने के लिए बेकरार कर रहा था. लेकिन अचानक उनको याद आया कि मुहल्ले में ही रहने वाली फरीदा की खाला के घर तो उन्होंने हलवा भिजवाया ही नहीं. उन्होंने तुरंत एक कटोरे में हलवे रखे और उसे फरीदा को देती हुई बोलीं –

“इसे जैनुन खाला को देकर जल्दी से जलसे में आ जाओ. अगर जैनुन तैयार हो तो उसे भी साथ में लेती आना.”

फरीदा का कहीं जाने का मन न था. दिन भर घर की साफ़-सफ़ाई, लिपाई-पुताई करने और फिर हलवे बनाने और उसे घर-घर पहुँचाने में वह हलकान हो चुकी थी. वह तो जलसे में भी जाने की इच्छुक नहीं थी लेकिन वहाँ अहमद मियाँ की एक झलक मिल जाने की उम्मीद थी, इसलिए जाना जरूरी था. लेकिन माँ की बात से इंकार भी नहीं कर सकती थी. थोड़ा झुंझला कर बोली,

“ठीक है वहाँ रख दीजिए और आप लोग जलसे में जाइए. मैं थोड़ी देर में उन्हें दे आऊँगी.”

फरीदा की माँ ने हलवे वाला कटोरा वहीं चूल्हे के पास रख दिया और वहीदा के साथ जलसे में शामिल होने चली गयी. अहमद मियाँ जो मदरसे के गेट पर खड़े होकर हर आने-जाने वाले को देख रहे थे और फरीदा का इंतज़ार कर रहे थे, फरीदा की माँ को वहीदा के साथ आते देखकर निराश हो गए. उन्हें लगा शायद फरीदा जलसे में नहीं आएगी. थोड़ी देर तक वे खड़े सोचते रहे और फिर एक फैसला करके मुस्कुरा उठे.

   फरीदा कुछ देर तक चुपचाप चूल्हे के पास रखे हलवे से भरे कटोरे को देखती रही जिसे उसको जैनुन खाला के घर पहुँचाना था. कुछ देर बाद उसने शीशे में अपने को देखा, मेकअप को एक बार निहारा, दुपट्टे को ठीक किया और हलवे वाले कटोरे को लेकर बाहर निकलने को हुई कि सामने अहमद मियाँ को देखकर गड़बड़ा गयी. न जाने कब, बहुत ही चुपके से अहमद मियाँ फरीदा के घर में घुस चुके थे और उसे एक हाथ में हलवे से भरा कटोरा थामे कहीं जाने को तैयार देख रहे थे. हलके से मेकअप में वह उन्हें आज बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रही थी. थोड़ी देर को दोनों चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे फिर अहमद मियाँ ने आगे बढ़कर फरीदा के दोनों हाथों को पकड़ लिया और सरगोशी के अंदाज़ में पूछा-

“कहाँ बिजली गिराने जा रही हो?”

“खाला के घर, हलवा देने”

“जलसे में नहीं जाना?”

“अब आप आ गए तो वहाँ जाकर क्या होगा?” फरीदा के होंठों पर मुस्कुराहट थी.

“क्यों, मौलाना की तकरीर नहीं सुननी? तुम्हारी अम्मा और बहन तो वहाँ गयीं हैं?”

“मौलाना की तकरीर मुझे तो समझ में आती नहीं. न जाने कौन सी भाषा बोलते हैं. और अम्मा को तो वहाँ गप्प लड़ाना है, तकरीर थोड़े सुननी है.”

फरीदा भूल गयी थी कि अहमद मियाँ उसके घर के अंदर खड़े हैं, कि उन्होंने उसके दोनों हाथों को पकड़ रखा है, कि उसके एक हाथ में अभी भी हलवे का वह कटोरा है जिसे उसको जैनुन खाला के वहाँ पहुँचाना है, कि उसे खाला के घर हलवा पहुँचा कर जलसे में अपनी माँ के पास जाना है. उसे तो बस अहमद मियाँ नज़र आ रहे थे और उनके कुर्ते से निकल कर आने वाली इत्र की महक उसे किसी और दुनिया में पहुँचा रही थी. बाहर जलसा शुरू हो चुका था और मौलाना की तकरीर लाउडस्पीकर पर गूँज रही थी और अहमद मियाँ और फरीदा के कानों तक पहुँच रही थी –

“आज की नौजवान नस्ल कहाँ जा रही है, हमें इसकी कोई फिक्र नहीं है. लड़के-लड़कियाँ सरे आम एक दूसरे के साथ बदफेलियाँ कर रहे हैं और कोई उनको रोकने वाला नहीं है. हम नौजवान नस्ल को कुफ्र के कुँए में गिरता हुआ देख रहे हैं और बजाए उनको बचाने के, अपनी-अपनी आँखें बंद कर ले रहे हैं.”
 
अहमद मियाँ ने एक हाथ से फरीदा की आँखों को बंद कर दिया और दूसरे हाथ से हलवे के कटोरे को लेकर नीचे रख दिया. सूजी और चने के ताज़ा बने हुए हलवे और उन पर मेवों की कतरनें. फरीदा ने एक शर्माती हुई मुस्कुराहट के साथ अहमद मियाँ की ओर देखने की कोशिश की और धीरे से बोली-

“क्या कर रहे हैं?”

अहमद मियाँ भी मुस्कराए और धीरे से बोले-

“वही जो करना चाहिए”

“लेकिन आज शबेबरात है और सुन नहीं रहे हैं, मौलाना क्या कह रहे हैं?”

“मौलाना की मौलाना जाने. मैं तो अपनी जानता हूँ.”

“क्या अपनी जानते हैं?”

“शायद हम अब जल्दी न मिल पाएँ”

“क्यों?”

“रमज़ान शुरू होते ही छुट्टियाँ हो जाएँगी और मुझे घर जाना पड़ेगा, पूरे डेढ़ महीने.”

“अच्छा तो मैं अपनी बकरियाँ लेकर आपके गाँव के पास आ जाऊँगी.” फरीदा इतने भोलेपन से बोली कि अहमद मियाँ हँस पड़े.

“तुम अपनी बकरियाँ लेकर जब चाहे आना, लेकिन आज शबेबरात है और मुझे शबेबरात मनाना है. हलवा नहीं खिलाओगी?”

“अरे, अभी तक मैंने आपको हलवा भी नहीं खिलाया.” यह कहते हुए फरीदा हलवे के कटोरे की ओर झुकी कि अहमद मियाँ ने उसे बाँहों से पकड़ कर उठा दिया. फरीदा ने सवालिया नज़रों से उनकी और देखा और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, अहमद मियाँ ने नीचे से पकड़ कर उसके कुर्ते को उलट दिया. कुर्ते के साथ-साथ झटके से अंगियाँ भी ऊपर को उठ गयी. एक पल के लिए लगा, जैसे सूजी और चने के मिश्रण से बने शबेबारत के हलवे से भरे दो कटोरे, फरीदा के जिस्म से बाहर निकल आये हो. अहमद मियाँ ने इबादत की नज़रों से उनकी ओर देखा. लाउडस्पीकर पर मौलाना की तकरीर गूँज रही थी-

“यह शबेबारत की मुकद्दस रात है. आज की रात, इबादत के लिए है, न कि हलवा खाने और मज़े लेने के लिए. असल में आज की रात हलवा खाना और खिलाना दोनों हराम है.”

अहमद मियाँ ने मौलाना की तकरीर सुनी, फरीदा की ओर देखकर शरारत से मुस्कुराए और फरीदा की नजरों में रजामंदी देखकर उन्हें लगा कि अल्लाह ने उनकी दुआएँ क़ुबूल कर ली हैं.

बाहर से मौलाना की तकरीर की आवाज़ अभी भी आ रही थी और अहमद मियाँ और फरीदा हलवा खाने और खिलाने में व्यस्त थे. अल्लाह पहले आसमान पर आ चुका था और शायद उन्हें देखकर मुस्कुरा रहा था.

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प्रतिक्रियायें

[25/05 08:55] Braj Ji: एक बेहतरीन कहानी पोस्ट करने के लिए धन्यवाद. ऐसे विषयों पर कहानी लिखना आसान काम नहीं है. दोस्तों आपके लिए ये पेश की गई है. समय निकाल कर पढ़ कर टिप्पणी करने की कोशिश करिए.

[25/05 13:12] Sudin Ji: बेहतरीन कहानी शुरू से आख़िर तक कसी हुयी और मस्तिष्क में दृश्य उकेरती हुयी जीवन के उस सच को सामने लाती हुयी जिसे सब जीना चाहते हैं सबसे छुपाकर । आपसी प्रेम और लगाव ही सब धर्मों का सार है इस प्रामाणिक सत्य की शानदार प्रस्तुति ।

[25/05 13:16] Aalknanda Sane Tai: क्षमा करें, मुझे इसमें प्रेम नहीं मात्र आकर्षण दिखाई दे रहा है.वैसे कहानी अच्छी है. ब्रज जी से सहमत . ऐसे विषय उठाना और उसका निर्वाह करना आसान नहीं होता.

[25/05 13:37] Aanand Krishn Ji: वाह । बहुत खूब । अय्यूब भाई को बधाई और प्रवेश जी को धन्यवाद।

[25/05 13:40] Aanand Krishn Ji: प्रेम की शुरुआत देह से होती है । कहानी के अंत में अल्लाह की मुस्कान इसकी तस्दीक करती है । अभी कुछ दिनों पहले मेरी एक मित्र से इसी बात पर बहस हो रही थी ।

[25/05 13:47] Suren: आनंद जी ,कल सईद भाई ने जो शमशेर जी की कविता लगायी थी , सलोना ज़िस्म , उसके बिम्ब विधान की  सुंदरता के परे भी आप देखे तो आपकी बात की पुष्टि हो रही है । आज सईद भाई की ही कहानी है तो वो उनकी रूचि के झलकाव को भी तो बताएगी ही न । कहानी शाम तक पढ़ कर कुछ कहने की कोशिश करूँगा ।

[25/05 13:48] ‪+91 98261 39286‬: सादर प्रणाम करता हूँ आपको । मेरा तात्पर्य यह है हमें कहना तो हमेशा जरूरी होता है , किंतु ध्यान में रख कर , अन्यथा यह लुगदी साहित्य सा प्रतीत होने लगता है ।
[25/05 13:48] Aanand Krishn Ji: पीयूष जी, जिन शब्दों की ओर आपका संकेत है वे चुभने वाले ज़रूर हैं पर उनकी इसी शक्ति के कारण वे परिस्थिति का समर्थ संवहन करने में कामयाब रहे हैं ।
[25/05 13:54] Aanand Krishn Ji: वे शब्द जहाँ इस्तेमाल हुए, वो स्थिति और हाफी जी व फरीदा के सम्बन्ध सरसरी दृष्टि से एक जैसे लगते हैं पर दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है । इसीलिए पहली स्थिति में वो शब्द रखे गए और हाफी जी-फरीद प्रकरण में प्रेम की पवित्र उष्णता है । यहां अय्यूब भाई शानदार तरीके से कामयाब रहे ।
[25/05 13:56] Aanand Krishn Ji: इस कहानी ने मेरी इस धारणा को बल दिया है की दैहिक प्रेम, दैविक प्रेम की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है ।
[25/05 14:01] Aanand Krishn Ji: देखिये मधु जी, मीरा के बारे में मेरा मानना है की उनको कहीं अतृप्ति तो रही होगी । वे कृष्ण की मूर्ति को हमेशा अपने साथ रखती थीं । ये भी तो एक तरह का दैहिक प्रेम हुआ न !
[25/05 14:03] Aanand Krishn Ji: तो आपकी रचना में एक जैसी दिखने वाली दो परिस्थितियों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा बी बहुत कमज़ोर होती ।
[25/05 14:03] Sudin Ji: ऐक दैहिक आकर्षण तो है जो शुरू में बांधता है फिर शनैः शनैः आपसी समझ आपसी विश्वास, आपसी फ़िक्र,  ऐहसासात जैसी बातें प्रेम को हैहिकता से ऊपर ले जाती हैं
[25/05 14:07] Sudin Ji: मेरी समझ मे मीरा भक्त हैं । प्रेम के लिये दो लोगों का ऐक कालखंड़ मे होना और ऐक दूसरे के संपर्क में होना ज़ुरूरी है

[25/05 14:15] Aanand Krishn Ji: प्रेमी पति न ? दैहिक प्रेम आया न । हमें मीरा के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज़्यादा नहीं मालूम, लेकिन एक अतृप्ति तो रही ही होगी उनमें की मेरा पति कृष्ण के जैसा हो । उनके जीवन में ऐसा कोई ज़रूर आया होगा जिसका साम्य उन्होंने कृष्ण में तलाशा ।
[25/05 14:20] Sudin Ji: आज भी तमाम लोग छवियों की ओर आकर्षित होते हैं  किसी का चेहरा,किसी की आवाज़, किसी की ज़ुल्फ़ें और ऐसी तमाम चीजें ।तो संभव है मीरा ने कृष्ण की काल्पनिक छवि को ही आधार बनाया हो

[25/05 14:39] Aanand Krishn Ji: कोई न कोई पुरुष ज़रूर रहा होगा जिसने किशोरी मीरा को आकर्षित किया होगा । उससे न मिल पाने के कारण मीरा ने उसकी छवि कृष्ण में तलाशी । मेरा अंदाज़ा ये भी है की वो पुरुष मीरा के मायके का कोई सेवक आदि रहा होगा । मीरा से सम्बन्ध खुलने पर उसे मरवा दिया गया हो । ये मेरा अंदाज़ा है, गलत भी हो सकता है ।
[25/05 15:10] ‪+91 87179 10229‬: बहुत सी प्रेम कथायें, जिनमें देह भी है और आत्मा भी ! प्रेम तो है न ? तो क्या है जो हमेशा अपनी ओर खींचता है ? मीरा या श्याम ?   केवल प्रेम !सुन्दर है, ! अय्यूब भाई बधाई !
[25/05 15:12] Aalknanda Sane Tai: आनंद कृष्ण जी दैहिक प्रेम अलग चीज है और दैहिक आकर्षण अलग । इस कहानी में आकर्षण है जो कभी लौकी के रूप में तो कभी हलुए के रूप में सामने आता है । प्रेम में लुका छिपी हो सकती है, चोरी से  कुछ नहीं होता ।

[25/05 15:35] Aanand Krishn Ji: देह सबसे सुलभ उपकरण है जिसके माध्यम से समाधान तक की यात्रा की जा सकती है । इसे शुरू में ही समझ लिया गया था इसीलिए साहित्य में देह के माध्यम से दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाने के सफल प्रयास होते रहे हैं ।
[25/05 15:36] Suren: सब कुछ इस देह से ही संचालित होता है , शरद जी की इतनी सारी कक्षाओं के बाद तो ये साथियों को स्पष्ट हो जाना चाहिए ।  क्योंकि जो मस्तिष्क सोचता है , महसूस करता है ,कल्पना करता है , इल्यूजन क्रिएट करता है ,अदिआदि वो भी उसी देह का हिस्सा है ।
इसको ऐसे भी कह सकते है की ज़रा सा हार्मोनिकल असंतुलन हो जाये ,मतलब दिमागी गड़बड़ हो जाये तो सारा ...प्रेम ,अध्यात्म ,भावना   आदि  गधे के सर से सींग की तरह गायब हो जाता है । मन और देह में द्वैत  खामाख्याली के लिए बढ़िया है , इन रियल सेन्स नही ।

[25/05 15:41] ‪+91 88020 80227‬: 'शबेबरात का हलवा' कहानी बहुत अच्छी कहानी है... सजीव चित्रण किया गया है.. और दीन का चोला पहनकर, लोग क्या - क्या करते हैं, यह भी कहानी में ब्यां किया है.. औरत के अंदर मर्दों को लौकियां ही नजर आती हैं, यह ट्रेनिंग टीनेजर ऐज में ही लड़के लेने लगते हैं... मुहब्बत की बुनियाद बस यह औरत की खूबसूरती, और उसका जिस्म ही तो है, विश्वास, जिम्मेदारी, संवेदना, कुछ भी नहीं.. शराब और शबाब ही दुनिया है, मर्दों की सारी जिंदगी इसी में गुजारती है, और बुढ़ापे में दीन का जामा ओढ़ लेते हैं, सब ऐब छुप गए.. हलवा तो एक गीज़ा है, उसे शबेबरात के दिन खाओ, या न खाओ, या आगे पिछे खाओ.. कोई फर्क नहीं पड़ता है.. महत्वपूर्ण बात है, तकरीर की.. क्या तकरीर करने वाले अपनी तकरीरों पर, अम्ल करते हैं... खुद सुधरते नहीं, दूसरों पर थोपते हैं.. जब मस्जिद के अनुयायी पर तकरीर का असर नहीं तो, आम लड़के क्या करेंगे.. फरीदा में बस लौकियां ही नजर आई, उसके अंदर एक मासूम भोली भाली लड़की नहीं नजर आई...

[25/05 15:45] ‪+91 88020 80227‬: आधुनिक काल में लिखी गई कहानी है.. किंतु कहानी के केन्द्र में मध्यकालीन जकड़ता है.. नारी को केवल उपभोग की दृष्टि से देखा गया है...

[25/05 15:49] ‪+91 88020 80227‬: औरत चाहे जितनी भी तरक्की कर ले कामयाब हो जाए लेकिन मर्दों की नजर उनकी जांघों और लौकियों तक ही सीमित रहती है और औरत में जिस दिन यह खूबसूरती खत्म हो जाती है, मर्द भी उनसे किनारा कर लेते हैं.. फिर दूसरे किसी खेत में लौकियों को तलाश करते हैं, जैसे कोठो पर जाते हैं, दूसरी शादी तक कर लेते हैं..
[25/05 15:52] ‪+91 88020 80227‬: आज क्या है औरत की इकनॉमिक्ल पावर? आजादी? कुछ नहीं बदला... आईपीएल मेच में नंगी औरतें नाचती हुई, रीति काल एक नए तरीके से औरत को बाजार में लाया है.. अभी हाल ही में दिल्ली में, यमुना किनारे एक कार्यक्रम के दौरान.. 1700 सजी धजी कन्याओं ने नृत्य किया, यह भी रीतिकाल की रिन्यू है...
[25/05 16:27] ‪+91 88020 80227‬: मैंने कुछ भी ग़लत नहीं कहा है.. खूबसूरत और जवां औरत के पिछे, दस - दस लड़के घूमते हैं.. अपने खानदान तक को छोड़ दें, करियर तक को दांव पर लगा दें, लेकिन जब यही खूबसूरत औरत, बूढ़ी होती है तो, अपनी औलाद तक नहीं पूछती.. कहानी में भी फरिदा की दादी का क्या हाल हुआ, दर्शाया गया है...
[25/05 17:42] ‪+91 96179 13287‬: सईद अयूब जी कहानी शानदार । दुनिया का सच ऐसा ही है । जिस उम्र की कहानी है, वहाँ तो नजरें जिस्म पर ही टिकती हैं प्राय: । मेहजबीन जी ने शानदार टिप्पणी की, किन्तु कहानी का मुख्य हिस्सा पुरुष ही नहीं स्त्री के भी देह के संसार में डूब जाने की कहानी कहता है । लेकिन यह समस्या भी है । जिन्दगी का भटकाव यहीं से परवान चढ़ता है और नस्लें वापस नहीं लौटतीं । यहाँ प्यार नहीं होता । देह का ही आकर्षण और उन्माद होता है । प्रेम कहीं होता भी हो तो शायद ही ।
बहुत धन्यवाद प्रवेश जी एक कसी हुई, सहज सोच वाली कहानी प्रस्तुत करने के लिए । बधाई आदरणीय सईद अयूब जी बेहतरीन कहानी के लिए ।
[25/05 20:33] Sudin Ji: महजबीं जी आप जिस समझ की आशा कर रही हैं वह परिपक्वता एक समय बाद ऐक दूसरे के प्रति आपसी समझ और विश्वास पनपने से आती हैं
और ये समझ , विश्वास और समर्पण से मनुष्य देह से ऊपर उठ जाता है।
हमारे यहाँ विवाह के लिये सुंदर सुघड़ की जो कामना होती है वह भी तो ऐक प्रकार से दैहिक ही है। जो प्रथम दृष्टि प्रभाव होता है वह तो चेहरे मोहरें का ही होता है न । आंखों को सुंदरता और बर्ताव को गुण प्रभावित करते है
[25/05 20:43] ‪+91 88020 80227‬: प्रेम का आधार.. संवेदना, विश्वास, जिम्मेदारी, हो तो प्रेम स्थाई रहता है... शब्द, और आकर्षण, तिजारत और संभोग, के स्तर पर बना संबंध स्थाई नहीं रहता.. मतलब पूरा होने के बाद, सब ढोते हैं रिश्ते को... रहते तो एक छत के नीचे हैं, पर एक नहीं बन पाते.. और विचारों का मिलना भी जरूरी है..
[25/05 21:01] Sudin Ji: प्रेम बराबर की समझ,ऐक दूसरे पर पूर्ण विश्वास और पूर्ण समर्पण से आता है किसी ऐक ओर से इसमें ज़रा सी भी कमी इसे तहस नहस कर देती है। किसी रिश्ते मे जितनी ज़्यादा क़रीबी आती जाती है वह उतनी ही ज़्यादा देखरेख की उम्मीद करता है
[25/05 21:08] ‪+91 88020 80227‬: प्यार, मुहब्बत बहुत अच्छी, और जरूरी  चीज है.. अहसास है.. लेकिन शादी से पहले ही, और एक-दूसरे को जानें बिना ही, समर्पण.. समझदारी की बात नहीं, बेवकूफी है, बहकना है.. फरीदा जैसी लाखों कमसिन लड़कियां, किसी को जानें बिना ही, आकर्षण के आधार पर, प्यार में अंधी होकर, समर्पण कर देती हैं.. और बर्बाद हो जाती हैं, समर्पण का एक सही वक्त, और दायरा होना जरूरी है...
[25/05 21:13] ‪+91 88020 80227‬: कहाँनी में उस लड़की और लड़के की उम्र देखिए.. आजकल 11/12 क्लास की लड़कियां , और लड़के इस उम्र में आकर्षण के कारण.. सब कुछ त्याग देते हैं... एक-दूसरे को जानें बिना, और शादी के पहले, समर्पण का तो ख्याल ही नहीं आना चाहिए.. इसमें मात पिता की तर्बियत का भी बहुत बड़ा योगदान होता है.. इस उम्र के बच्चों पर, विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है..
[25/05 21:14] Sudin Ji: जिसे आप फ़रीदा का समर्पण कह रही हैं वह वास्तव में समर्पण है ही नहीं वह भी एक प्रकार का पुरूष देह के प्रति आकर्षण है ।समर्पण सम्पूर्ण ता में निहित है उसमें तन मन जैसे शब्द नहीं होते
[25/05 21:21] ‪+91 88020 80227‬: आकर्षण तो उन दोनों को करीब लाने का माध्यम है ही, मैं कब मना कर रही हूँ.. लेकिन पुरुष पात्र में आकर्षण के साथ - साथ दैहिक आकर्षण भी है.. कहानी का अंत देखिये.. कहानी की शुरुआत देखिए.. जहाँ फरीदा के दादाओ का चरित्र चित्रण किया गया है..
[25/05 21:26] Sudin Ji: क्या हमारे परिवार या समाज ने हमे कभी प्रेम करने की इजाज़त दी । या हमने कभी ली क्या
[25/05 21:26] ‪+91 88020 80227‬: लेकिन बात सेक्स तक पँहुच जाना.. इतनी कम उम्र में, इस बात को ध्यान में रखकर.. बच्चों को शिक्षा देना, और सही परवरिश जरूरी है..
[25/05 21:27] ‪+91 98261 39286‬: समाज ही क्या नैतिकता व तमाम मूल्य ही बदल गये हैं आजकल । पिता पुत्री के संबंध और भी न जाने क्या क्या ?
[25/05 21:28] ‪+91 88020 80227‬: समाज की अपनी जकड़ताए हैं, वो तो अभी भी बहुत से मामले में मध्यकालीन ही है.. लेकिन हमें पूरी तरह से, पश्चिमीकरण में भी नहीं जाना चाहिए..
[25/05 21:29] ‪+91 98261 39286‬: आज और आने वाले समय में बच्चों को समझाना असंभव सा होगा कि नैतिकता भी कोई चीज होती है । अतः खतरा सर्वत्र है 🙏🙏🙏
[25/05 21:31] ‪+91 98267 82660‬: उम्र का तो में जिक्र नहीं कर रहा। बच्चे और युवा जानते है उम्र  का प्रभाव। खतरा कुछ नहीं है। सजगता तो सबको देना होगी
[25/05 21:33] ‪+91 98261 39286‬: मैं फिर से शुरू करता हूँ ,  आप सभी का ध्यान चाहूँगा,  कि क्या इस खूबसूरत कहानी में अंगिया , लौकी व जांघों के बीच जैसे शब्द उपयोग में नही लाये गये होते तो क्या कहानी का आनंद समाप्त हो जाता ?  आप सभी से करबद्ध निवेदन , जरूर बताईयेगा  🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[25/05 21:36] ‪+91 88020 80227‬: हर चीज की एक सीमा होती है.. नॉर्मल होना, संतुलन भी जरूरी है.. मेरी खुद दो स्टूडेंट्स ऐसे हैं, जिन्होंने 17 साल की उम्र में, आकर्षण के कारण, करियर खराब कर दिया, घर छोड़कर चली गई.. आज न मात पिता साथ हैं.. न उनके वो जीवन साथी, अकेले ही गोद में बच्चे लिए धक्के खा रही हैं.. पढ़ाई भी अधूरी.. यही काम कोई लड़का करे, घरवालों को कोई फर्क नहीं पड़ता, सौ ऐब लगे लड़कों की भी घर वापसी है, पर लड़की के एक बार कदम बहक जाए, सब किनारा कर लेते हैं..
[25/05 21:37] ‪+91 98267 82660‬: हमारा राधा कृष्ण का प्रेम पश्चिम से आगे है आज भी। पछिम को कुछ जनता ही नहीं हमारे आगे। आप पढ़िए तो वेदिक काल या कथित इतिहास की कुछ जानकारियां।
[25/05 21:38] Sudin Ji: पूरे समय नैतिकता की दुहाइयां देते देते हम एन वक्त पर फिसल जाते हैं शायद इसलिये कि ये नैतिकता वास्तविक नहीं है इसके लिये हम मानसिक रूप से तैयार नही हैं और सबकी तरह ही हमने भी इसे ओढ़ रखा था सो ज़रा से झोंके मे उड़ गया

[25/05 21:41] ‪+91 98267 82660‬: प्रेम होता है या नहीं होता। दगा या वेवफाई नहीं होती वहाँ।
[25/05 21:41] ‪+91 88020 80227‬: आजकल के प्रोफेशनल बच्चे, वैदिक काल, आदिकाल, भक्तिकाल नहीं पढ़ते.. mtv देखते हैं, मडर, जिस्म फिल्म देखते हैं.. फिल्मों के आइटम सांग पर,डांस करते हैं डिजे की भाषा समझते हैं..
[25/05 21:42] ‪+91 98267 82660‬: कहानी अच्छी थी या बुरी इससे काम नहीं चलाये। बताये क़ि क्या अच्छा था या बुरा।
[25/05 21:44] ‪+91 98267 82660‬: देखने दीजिये। ये भी उनका संसार है। और कोई भी चीज जो बच्चे देख या कर रहे है आज महजबीन उनको बच्चों ने तो नहीं बनाया था। बड़े ही बेनाये पहले।
[25/05 21:47] ‪+91 98267 82660‬: भारत का पूरा समाज चुकी मानसिकता का है। न खुद कुछ करता है न उनको जीने देता है। आईटम सांग देखते बच्चों को सजगता दीजियेगा।

[25/05 21:49] ‪+91 98267 82660‬: मेरे पिता ने 13 साल की उम्र में शहर छोड़ दिया था अकेला। शाम को बोले सब चीजे देखना। खूब फिल्म देखना और आखिर में सोचना की इससे क्या हासिल हुआ। और उस बात को  लिख के रखना। ये सजगता देना जरुरी है। नाकि निर्देश की फ़िल्म मत देखना।
[25/05 21:50] ‪+91 98267 82660‬: आज का साफ कपडे पहनने वाला समाज ये चीज बच्चों को नहीं दे रहा। वो अपराध बोध दे रहा है।
[25/05 21:58] ‪+91 88020 80227‬: कोई भी रचना में, सारी समीक्षा.. एकपक्षीय नहीं होनी चाहिए.. वो कोई भी विधा हो, कविता, कहानी कुछ भी.. समीक्षा करते समय.. सकारात्मक, नकारात्मक दोनों पहलुओं को देखना चाहिए... इस कहानी में भी कुछ पहलु सही हैं, स्वभाविक हाव भाव का वर्णन किया गया है.. धार्मिक आडम्बर भी दिखाए हैं.. वेश्यावृत्ति का भी वर्णन किया है.. टीनएजर ऐज में होने वाले आकर्षण का भी वर्णन किया गया है.. और मात - पिता की दुर्गति का भी वर्णन किया गया है.. कहानी बहुत ज्यादा खुला दैहिक आकर्षण का वर्णन भी कर रही है...
[25/05 22:02] ‪+91 88020 80227‬: रविन्द्र जी मेरी टिप्पणी, ध्यान से पढ़िये.. मैंने कई बार दोहराया कि, बच्चों के बनने बिगड़ने में, माता-पिता की परवरिश, तर्बियत का बहुत बड़ा योगदान होता है..
[25/05 22:07] ‪+91 88020 80227‬: आपका सवाल भी सही है अगर कहाँनी में से इन शब्दों को हटा दिया जाता तो, शायद कहानी की मौलिकता ही समाप्त हो जाती.. यथार्थ वर्णन ही नहीं रहता.. पुरुष प्रेम का आधार, और मानसिकता कैसे सामने आएगी..

[25/05 22:09] ‪+91 88020 80227‬: यह शब्द तो, हर स्त्री पुरुष की जाती जिंदगी का हिस्सा हैं.. बस इनकी उपयोगिता, और व्याख्या कौन कैसे करता है, यही तो व्यक्ति निर्माण का आधार हैं...
[25/05 22:12] ‪+91 88020 80227‬: बस इससे ज्यादा चर्चा मैं नहीं करूंगी.. नहीं तो रात को, संपने में.. तरबूज, आम, आइसक्रीम की जगह फरीदा, और उसका प्रेमी ही आएंगे.. 😀
[25/05 22:33] Aanand Krishn Ji: पर दैहिक प्रेम, दैवीय प्रेम की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है और दैहिक आकर्षण, दैहिक प्रेम की पहली और अनिवार्य सीढ़ी है । दैहिक आकर्षण से बचा नहीं जा सकता, बचना भी नहीं चाहिए । हां, उस आकर्षण के रचनात्मक आयामों को ज़रूर स्वीकार कर लेना चाहिए ।
[25/05 22:49] A Asafal: इस पटल पर इतनी उम्दा कहानी पढ़ने को मिलेगी, मुझे इल्म न था। मैं इसे मुख्यत: विचार मंच ही समझ रहा था। पर प्रवेश जी ने "सबेबरात का हलवा" जैसी कलात्मक कहानी का चयन कर प्रमाणित कर दिया कि हरेक विधा के लिए यह एक समृद्ध मंच है।
सईद साब ने कहानी का विषय बड़ी सावधानी से चुना है। दरअसल, लौकिक प्रेम दैहिक आकर्षण से ही उत्पन्न होता है। रामचरित मानस पढने के बाद यह जाना कि लौकिक प्रेम वासना का ही दूसरा नाम है। तो ईश्वरीय प्रेम भक्ति का। प्रेम में होश नहीं, न भक्ति में न वासना में इसलिए मीरा मूरत रखती हैं। वह साकार सगुणोंपासना थी। वासना नहीं। दैहिक आकर्षण से उत्पन्न नहीं, इष्ट की सुन्दरता वहां दैवीय है, लौकिक नहीं। उसके सानिंध्य, दर्शन और स्पर्श से कामोत्तेजना नहीं उत्पन्न नहीं होती, ऐंद्रिक सुख प्राप्त नहीं होता, निर्वेद की प्राप्ति होती है। पात्र आनंद को उपलब्ध हो जाता है। स्खलित नहीं होता, अपने भीतर स्थिर और स्थित हो जाता है।
ज्ञान मार्ग होश का मार्ग है। तकरीर उसका एक हिस्सा। पर कामनाएं वहां टिकती नहीं।
कहानी कलात्मक है और सब कुछ कहती है। स्त्री विमर्श और नैसर्गिक आचरण भी जो फरीदा के दैहिक इस्तेमाल से उठाता है जो अहमद मियाँ की कारस्तानी से उठता है। सर्वश्री पीयूष, आनंद कृष्ण, सुरेन और महजबीं जी की टिप्पणियाँ पढ़कर भी अभिभूत हुआ। मेरी सभी को बधाई। एडमिन ब्रज जी का आभार।
[25/05 22:54] Mukta Shreewastav: 👌🏻 कहानी में लेखक का उद्देश्य समझ में नहीं आता।परन्तु कहानी अंत तक पाठक को जोड़े रखती है.हम जैसे नये पाठक तो ऐसी भाषा और गठन पर ताज्जुब ही करते रह जाते हैं.
प्रवेश जी आप का चयन अच्छा होता है.अभी से अगले बुधवार का इंतज़ार रहेगा.


 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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