Tuesday, July 3, 2018

उपन्यासनामा 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पचपन खंभे लाल दीवारें 
उषा प्रियंवदा 


उषा प्रियंवदा 


आधुनिकताबोध की सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उषा प्रियंवदा के उपन्यासों को देखा जा सकता है। उषा जी ने नगरीयकरण, जो की आधुनिकता का पहला लक्षण है, को अपनी रचनात्मकता का क्षेत्र चुना। उनके उपन्यासों की विषय वस्तु भारत के महानगरों से लेकर अमेरिका के नगरों तक फैली हुई है। उनके उपन्यास हैं - ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’, ‘रुकोगी नहीं राधिका’, ‘शेषयात्रा’, ‘अंतर्वंशी’, ‘भया कबीर उदास’ और ‘नदी’।

आपने मध्यवर्गीय जीवन की विषमताओं, विडंबनाओं, विद्रूपताओं को अपने उपन्यासों की अन्तर्वस्तु के रूप में चुना है। उनके सभी उपन्यास नायिका प्रधान हैं। ‘स्त्री’ आधुनिकताबोध और परंपरागत पितृसत्तात्मकता के बीच विद्रूपताओं और विडंबनाओं को जीती रहती है। आपने उपन्यासों में स्त्री-पुरुष के संबंधों के बीच आयी टूटन को, विखराव को बारीकी से देखा और अभिव्यक्त किया है। आपके नारी पात्र आधुनिक जीवन की छटपटाहट, ऊब, संत्रास, अजनबीपन, अकेलापन, बिडंबनाबोध इत्यादि स्थितियों का गहराई से अनुभव करते हैं। उषा जी जीवन को संपूर्णता में देखती और लिखती रहीं हैं। पुरुष के प्रति कोई दुराग्रह उनके लेखन में नहीं है।


पचपन खंभे लाल दीवारें  

कहा जाता है उषा जी के इस उपन्यास का शीर्षक उनके कालेज के वास्तुकला पर आधारित है। दिल्ली के जिस कालेज में वे जाब करतीं थीं उसके कारीडोर में पचपन खंभे हैं और उसकी दीवारें लाल हुआ करतीं थीं उस वक्त। उपन्यास का शीर्षक अपने परिवेश और उसके प्रति लेखिका के बोध को प्रतिध्वनित कर रहा है। आइये इसकी रचनात्मक संवेदना और भावबोध पर कुछ बात करें।

सबसे पहले उपन्यास पर कुछ बात-चीत और बाद में इसकी नायिका सुषमा के संदर्भ में पचपन खंभों के बीच घुटती जिंदगी की कहानी पर बात करेंगे।

उषा प्रियंवदा का यह उपन्यास मध्यवर्गीय परिवार के बीच कामकाजी स्त्री के जीवन की बिडंबना और विसंगतियों को रेखांकित करता है। स्त्री की मुक्ति का आख्यान रचने का भ्रम देने वाली आधुनिक पूँजीवादी व्यवस्था ने परंपरागत पारिवारिक ढाँचे को तोड़े बिना स्त्री को घर से बाहर जाने की आजादी का अवसर देकर उसके शोषण, उत्पीड़न और उसके साथ होने वाले अन्याय के नए आयामों को ही रचा है। आधुनिक हिन्दी में महिला लेखन का स्वर स्त्री पराधीनता की इन्हीं तकनीकों को बदलने के संघर्ष के रूप में पाया जा सकता है। उषा प्रियंवदा का उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ स्त्री के इसी संघर्ष और अन्तर्द्वंद्व की कथा है।

 यह उपन्यास विवाह और यौनिकता के आपसी संबंध को तार-तार करके रख देता है। इसमें सुषमा के माध्यम से जीवन को विवाह और आधुनिकता के मूल्य के बीच उपजेे द्वंद्व को उभारा गया है। स्त्री के जीवन की परंपरागत मर्यादाओं और भूमिकाओं को बदलते आर्थिक संबंधों के बीच चित्रित करने का प्रयास भी इसमें है। बिडंबना और द्वंद्व के बीच का अन्तर्द्वंद्व भी इसमें अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई देता है। इसमें आधुनिकता के कारण परिवार के विखरने और टूटने की कगार पर पहुँचने के कारणों को भी रेखांकित किया गया है।

‘‘उषा प्रियंवदा का उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ एक ऐसी सुशिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्री की मर्म कथा है जो पारिवारिक और आर्थिक कारणों से विवाह नहीं कर पाती और अंततः अविवाहित रहने का ही निर्णय लेती है। लेकिन सारी सीमाओं (को तोड़ने) के बावजूद व्यक्तिगत स्तर पर (चोरी-छिपे) ‘प्रेम’ भी करती है और देह-संबंध भी बनाती है। कहना मुश्किल है कि जान-बूझ और सोच-समझकर ऐसा करती है या किन्हीं दुर्बल क्षणों में। मगर विश्वास से कहा जा सकता है कि देह संबंधों को लेकर न तो उसे कोई अपराध-बोध है और न वैध-अवैध का अंतर्द्वंद्व। वह न मातृत्व में सार्थकता तलाशती है और न ‘संपूर्ण स्त्री’ होने का स्वप्न-दुस्वप्न पालती है। हाँ उसके व्यवहार के अंतर्विरोध और विसंगतियों का कारण समय, समाज और भौतिक स्थितियाँ ही हैं।’’1





इस उपन्यास का कथानक सुषमा के व्यक्तिगत जीवन और उसके द्वारा परिवार के दायित्वों को सम्हालने के बीच के द्वंद्व की रेखाओं से रचा गया है। एक और सुषमा दिल्ली के कॉलेज में प्रोफेसर है और जल्द ही वह गर्ल्स हॉस्टल की बार्डन भी बन जाती है। इसके बाद उसका सम्पर्क उसकी मौसी के रिश्तेदार नील से होता है। नील उम्र में उससे छोटा है, पर वह सुषमा की सुगठित देह और प्रौढ़ मानसिकता से आकर्षित होता है। उसका सुषमा से मिलना-जुलना बढ़ता जाता है। हॉस्टल में उसका यह संबंध चर्चा का विषय बन जाता है। उनका मेल-जोल प्रेम में बदल जाता है और अन्ततः उनका प्रेम भौतिक संबंधों में बदल जाता है। सुषमा स्वयं को नील के आगे समर्पित कर देती है। इस दैहिक समर्पण के प्रति उसके अन्दर कोई अपराधबोध नहीं है।

‘‘नील के साथ देह संबंधों को लेकर सुषमा के चेतन-अवचेतन में किसी प्रकार का कोई अपराध बोध नहीं है। नील से संबंध सुषमा का व्यक्तिगत निर्णय है और यह निर्णय वास्तव में उसका मूक विद्रोह भी है और यौन-नैतिकता के आदेशों-उपदेशों की अवज्ञा भी। यह उसके मानसिक विकास का मुक्त रूप भी हो सकता है और बदलते समय में टूटती यौन वर्जनाओं का परिणाम भी। गर्भ निरोधक गोलियों या उपकरणों ने भी यौन-वर्जनाएँ तोड़ने में निश्चय ही एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।’’2

‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ कामकाजी, अविवाहित स्त्री के सामाजिक परिवेश और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के बीच जटिल अंतर्संबंधों की मनोवैज्ञानिक स्तर पर सूक्ष्म जाँच पड़ताल और सामाजिक स्तर पर बेहतर विकल्प की खोज में संघर्षरत पहली महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। विवाह संस्था की अनिवार्यता पर प्रश्न चिह्न लगाती नायिका का दृष्टिकोण न नितांत व्यक्तिवादी है और न ही पूर्ण रूप से परंपरावादी। इसलिए उसे हर बार व्यक्ति और समाज के बीच की संधि रेखा पर खड़े होकर सोचना और समझना पड़ता है। सबकी (समेत अपने) स्थितियों, क्षमताओं, अपेक्षाओं और सीमाओं को संवेदना और समग्रता में देखती-समझती नायिका को ‘पलायनवादी’ या ‘आत्मपीड़न’ की शिकार कहना उचित नहीं।

 सुषमा का कहना कि ‘‘पैंतालीस साल की आयु में मैं एक कुत्ता या बिल्ली पाल लूँगी-उसे सीने से लगाकर रखूँगी’’ या ‘‘और कुछ समय बाद यदि तुम मेरे लिए कोई धनी व्यवसायी जुटा सको, तो मैं शादी भी कर लूँगी’’, दरअसल क्षणिक आवेश, तनाव, हताशा, निराशा और असुरक्षा से हैरान-परेशान व्यक्ति की खीज, झुँझलाहट या छटपटाहट ही है।’’3

एक ओर सुषमा नील के साथ जिन्दगी की सार्थकता को पाने का प्रयास करती है तो दूसरी और उसे अपने पारिवारिक दायित्वों का बोध भी है। उसके पिता की पेंशन से घर का खर्च नहीं चलता। सुषमा के वेतन से ही घर का खर्च चलता है। छोटी बहनों को पढ़ाना है, भाई को पढ़ाना है उनकी शादी के लिए दहेज एकत्र करना है। उसकी माँ सुषमा से यही अपेक्षा करती है कि वह विवाह न करे और उसके पति की जिम्मेदारियों को निभाती रहे। यदि उसका विवाह हो जायेगा तो घर कैसे चलेगा? इस दबाव को सुषमा भी महसूस करती है और वह नील को भी यह बताती है। यद्यपि नील यह कहता है कि तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारा बेजा फायदा उठा रहे हैं। तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं हैं। पर सुषमा जानती है कि उसके भाई-बहन उसकी ही जिम्मेदारी हैं। यही द्वंद्व उसे नील से विवाह नहीं करने देता और अन्ततः वह अपने हॉस्टल के पचपन खंभों और लाल दीवारों में कैद होकर रह जाती है।

‘‘उपन्यास की नायिका सुषमा (उम्र 33 साल) शादी के सवाल पर अपनी एक सहेली से कहती है ....आप भी क्या यही मानती हैं कि विवाह होना चाहिए? मेरे पास तो सभी कुछ है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हूँ, जो चाहूँ, कर सकने में समर्थ हूँ। लेकिन विवाह न होने (हो पाने) की स्थितियों पर सोचते-सोचते उसके अंदर न जाने कितना ‘कडुवापन’ भर जाता है। सुषमा का फैसला अपना कहाँ है? परिवार की आर्थिक परिस्थितियों के कारण उसका विवाह नहीं हो पाया या अन्य कारणों से मगर वह अकसर खिन्न हो उठती और उसे अपने माता-पिता ही दोषी प्रतीत होते। दरअसल सुषमा न आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो पाती और न ही ‘जो चाहे कर सकने’ में समर्थ। परिवार के दायित्व और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के अंतर्विरोधों में छटपटाती कडुवाहट और कुंठाएँ ही तो कहती हैं, ‘मैं कुआंरी रह गई तो कौन सा आसमान फट पड़ा। आर्थिक रूप से स्वतंत्र सुषमा जो चाहे कर सकने में समर्थ होती या हो सकती, तो इतनी अकेली अपने दुख, अपमान और लज्जा की गहराइयों में भटकती आर्तचीत्कार करती हुई दिखाई न पड़ती।’’

‘‘परिवार के लिए कमाऊ बेटी होने की वजह से उसके माता-पिता ने कभी ‘यह चाहा ही नहीं कि सुषमा की शादी हो, उनके अंतर्मन में यह बात अवश्य होगी की सुषमा से उन्हें सहारा मिलेगा। ‘दरअसल उसकी शादी करने से उनकी सारी आर्थिक व्यवस्था गड़बड़ हो जाती। भारतीय समाज में आज हजारों-हजार ऐसी सुषमाएँ हैं जो आजीवन कुँआरी रहने को विवश हैं। विवाह योग्य उम्र में आर्थिक समस्याओं और दहेज की माँग के कारण योग्य वर नहीं मिलता और अधिकांश एक उम्र के बाद स्वयं कुंठाओं, मानसिक असंतुलन और हीन भावना की शिकार हो जाती है। विवाह संस्था से बाहर हर संबंध को अनैतिक और प्रेम को रंगरेलियाँ कहकर कीचड़ उछालने वालों की कोई कमी नहीं। हर विकल्प ऐसी बंद गली है, जिससे निकलने की कोई राह नहीं। कहने को सही है कि किसी के ‘व्यक्तिगत जीवन में किसी को दखल देने का क्या हक है? लेकिन सामाजिक व्यवहार में इस सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ाते हुए हम सब प्रायः रोज ही देखते हैं। कोई सुषमा ‘एक पुरुष मित्र बनाकर तो देखे’ कि परिवार, रिश्तेदार, सहेलियाँ, सहकर्मी, छात्राएँ और अन्य लोग क्या क्या आरोप नहीं लगाते! इसके बाद आत्मग्लानि, अपराध-बोध, मानसिक विक्षिप्तता और जटिल मनोग्रंथियाँ अकसर आत्मपीड़न से लेकर आत्महत्या तक ही ले जाती हैं, या फिर पलायन और स्थितियों से समझौता और संपूर्ण समपर्ण करवा देती है।’’5

सुषमा के बीच से गुजरते हुए पचपन खंभे लाल दीवारें  
को समझने के दौरान हम पाते हैं कि मनुवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री होने की सार्थकता विवाह और ‘पुत्र की माँ’ बनने में ही है। ‘विवाह’ स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करने की कारगर तकनीक थी जो हजारों वर्षों से सफल रही है। मातृत्व (वैध) को महिमामंडित और स्त्री की चरम सार्थकता में तब्दील करना भी पितृसत्ता द्वारा स्त्री को घर की चाहरदीवारी में कैद रखने के औचित्य साधन की सफल तकनीक रही है। आज का पूरा स्त्री विमर्श मूलतः इन्हीं दो बिन्दुओं से संघर्ष, मुक्ति और नए विकल्प तलाशने की प्रक्रिया के रूप में ही प्रस्तुत होता है। इसके साथ जो मूल एजेंड़ा था वह परिवार और संपत्ति वैध उत्तराधिकारी को हस्तांतरित किये जाने की निरंतरता को बनाए रखना।

‘‘उषा प्रियंवदा के अगले चर्चित उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’’ की नायिका भी मूलतः राधिका की चेतना को ही अधिक परिपक्व और व्यावहारिक धरातल पर प्रकट करती है। साथ ही, यह पात्र राधिका से अधिक प्रतिनिधि भारतीय मध्यवर्गीय स्त्री चरित्र है।’’6

आधुनिक हिन्दी में महिला लेखन का स्वर स्त्री पराधीनता की इन्हीं तकनीकों को बदलने के संघर्ष के रूप में पाया जा सकता है। उषा प्रियंवदा का उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ स्त्री के इसी संघर्ष और अन्तर्द्वंद्व की कथा है।

‘‘उपन्यास की नायिका सुषमा (उम्र 33 साल) शादी के सवाल पर अपनी एक सहेली से कहती है ‘‘....आप भी क्या यही मानती हैं कि विवाह होना चाहिए? मेरे पास तो सभी कुछ है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हूँ, जो चाहूँ, कर सकने में समर्थ हूँ।’’7

 सुषमा एक परंपरागत जकड़न में जकड़ी स्त्री है। उसमें मुक्ति की छटपटाहट है, पर वह विवश महसूस करती है। उसके पास आर्थिक ताकत है, वह कमाती है, घर का खर्च चलाती है, छोटे भाई बहनों को पढाने दिखाने के सारे दायित्व पूरा करती है, परन्तु उसमें इतना साहस नहीं है कि वह अपनी जकड़न को तोड़ सके। इस विवशता को दिखाकर उषा जी ने भारतीय स्त्री की मुक्ति के रास्तों की अड़चनों को, पितृसत्तात्मक सामाजिक परिवेश में अकेली स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर भी पितृसत्ता की जकड़न से मुक्त नहीं हो पाती। दरअसल सुषमा की बिडंबना उस स्त्री की बिडंबना बन जाती है जो पढ़-लिख गई है, आधुनिक जीवन मूल्यों को जीना चाहती है, आर्थिक रूप से पर निर्भर नहीं है, परन्तु सामाजिक और पारिवारिक परिवेश उसके इस बदलाव को पचाने और स्वीकार करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है।





हमारे सामाजिक और पारिवारिक संरचनागत ढाँचे में इस तरह की पितृसत्तात्मक व्यवस्था के द्वारा दी गई भूमिकाओं से बहार जाती हुई स्त्री को स्वीकार किए जाने की क्षमता तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है। सुषमा के जीवन की विवशता सामाजिक और पारिवारिक ढाँचे की विशेषता के कारण हैं। सुषमा की जीवन विसंगतियाँ और बिडंबनायें हमें यह बताती हैं कि हमारी व्यवस्था और परिवेश अभी आधुनिकता की अधकचरी अवस्था से गुजर रहा है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था आधुनिकता को अपने अनुकूल बनाने के कार्यों में जुटी है। वह स्त्री को उतनी ही आजादी देना जानती है जितने में उसके स्वार्थ सधते रहें। स्त्री की वास्तविक मुक्ति इस व्यवस्था में संभव नहीं। उसे जो भी जितनी भी आजादी मिलेगी वह पितृसत्ता की सीमाओं के दायरे में ही रहेगी और यही कारण है कि घर से बाहर निकलने का अर्थ घर की चाहर दीवारी से मुक्ति नहीं, बल्कि गले पड़ी रस्सी की लंबाई का बड़ जाना मात्र है। सुषमा इस बड़ी हुई लंबाई के कारण ही निरंतर स्वयं को बंधा हुआ महसूस करती है। यह मुक्ति का भ्रम मात्र है जिसे आधुनिकता के बहाने परोसा गया है।

‘‘सुषमा का बीच-बीच में यह कहना कि ’नील, अब तुम मझसे न मिला करो’’8
 सचमुच उस सामाजिक परिवेश का दबाव है, जिसमें उसे बार-बार यह समझाया-बताया गया है कि ‘‘कभी ऐसा कुछ न करना, जिससे किसी को कुछ कहने का अवसर मिले’’ या तुम्हारी बदनामी की वजह से परिवार की नाक कट जाए।’’ सहकर्मियों और छात्राओं द्वारा छींटाकशी से ही सुषमा को ‘चक्कर’ आने लगते हैं।’’9 

यहाँ सुषमा को इन स्थितियों का सामना करना चाहिए था साहस और हिम्मत से, जो कि वह नहीं कर पाती। यह स्त्री की कमजोरी है, जिसका सामना करना स्त्री को आना चाहिए। स्त्री को इन स्थितियों का सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं होती? क्योंकि वह जानती है कि इस मामले में वह अकेली ही खड़ी है, उसके साथ रहने वाली स्त्रियाँ भी उसका साथ नहीं देंगी। यह जो सामाजिक परिवेश की पितृसत्तात्मक अनुकूल मानसिकता है, वह स्त्री की इस अर्जित आजादी को भी पराधीनता में बदल देती है।

‘‘भावना और कर्तव्य के बीच झूलती सुषमा अंततः ‘अच्छी लड़की’ बनने या बने रहने की ही कोशिश करती रहती है। त्याग, तपस्या, बलिदान के धार्मिक-सामाजिक पाठ पढ़ते-सुनते खुद सुषमा को लगने लगता है कि नील के साथ प्रेम संबंध एक पागलपन था, एक मैडनेस। हालाँकि वह अकसर यह भी सोचती रहती है, ‘नील के बगैर मैं कुछ भी नहीं हूँ, केवल एक छाया, एक खोए हुए स्वर की प्रतिध्वनि; और अब ऐसी ही रहूँगी, मन की वीरानियों में भटकती हुई, क्योंकि वह मानसिक रूप से जैसे नील की दासी हो गई थी। नील की किसी बात के लिए निषेध करना उसके वश में न रहा।’’10

सुषमा एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की है, उसमें वे तमाम मूल्य और नैतिकतायें हैं जिन्हें समाज और परिवार उससे अपेक्षा करता है। नील के साथ उसका संबंध इसी नैतिक मर्यादा भावना के कारण ही टूट जाता है। कोई भी पौधा अपने परिवेश से अनुकूलित होकर ही अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है। स्त्री की मुक्ति नामक यह पौधा भी तब ही पल्लवित और पुष्पित हो सकता है जब परिवेश उसके अनुकल परिवर्तित हो जाऐ। अन्यथा यह पौधा यूं ही दम तोड़ता रहेगा, जैसे सुषमा का जीवन।

सुषमा नील से प्रथम समर्पण के बाद यह कहती है कि वह ‘‘तैंतीस साल बाद भी अछूती और बेदाग तुम्हारी बाँहों में कैसे आई?’’11 
यह कहना स्वयं को कौमार्य के मिथक को स्वीकारने के कारण है।
‘‘नील के साथ प्रेम या देह संबंध उसकी अपनी देह (दुर्बलताओं या स्वतंत्रताओं) की मानवीय अभिव्यक्ति है, जिसके लिए उसे कोई अपराध बोध नहीं। हालाँकि नील देह पर विजय के बाद सुषमा के प्रति एकदम तटस्थ हो जाता है।’’

सुषमा मध्यवर्गीय स्त्री चरित्र है, वह परिवार और परिवेश के दबावों को झेलती है। चूँकि मध्यवर्गीय चेतना की विशेषता है कि वह खुलकर परंपरागत मूल्यों के प्रति विद्रोह नहीं कर पाती और न खुलकर आधुनिक मूल्यों को स्वीकार पाती है। सुषमा एक ऐसी ही मध्यवर्गीय लड़की है। जो पढ़-लिखकर नौकरी करने लगती है और यही उसके व्यक्तिगत जीवन की विडंबना बन जाती है। चूँकि हमारा समाज और पितृसत्तात्मक व्यवस्था इस तरह की पढ़ीलिखी और स्वतंत्र विचारों की लड़की को उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ पचा नहीं पाती और उसे अपने अन्य हितों के लिए इस्तेमाल करने लगता है। जैसा कि सुषमा की माँ कहती है -

‘‘अम्मा ने बड़े मजे से उत्तर दिया, ‘‘तुम जानो कृष्णा, सुषमा की शादी तो अब हमारे बस की बात रही नहीं। इतना पढ़-लिख गई, अच्छी नौकरी है और अब तो, क्या कहने हैं, होस्टल में वार्डन भी बननेवाली हैं। बंगला और चपरासी अलग से मिलेगा, बताओ, इसके जोड़ का लड़का मिलना तो मुश्किल ही है। तुम्हारे जीजा तो कहते हैं कि लड़की स्यानी है, जिससे मन मिले, उसी से कर ले। हम खुशी-खुशी शादी में शामिल हो जायेंगें’’12 

सुषमा की माँ यह मानकर चल रही है कि अब उसकी शादी नहीं होगी। जब हो सकती थी तब उसे मनमर्जी से लड़का चुनने की आजादी नहीं थी। आजादी तो अब भी नहीं है, सिर्फ बहाना है अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ने का। अम्मा द्वारा दी गई आजादी का सच यह है -‘‘तुम एक पुरुष मित्र बनाकर तो देखो, तुम्हारी अम्माँ सबसे पहले तुम्हारी खबर लेंगी। हमारा समाज किसी को जीने नहीं देता।’’13

 बावजूद इसके सुषमा पुरुष मित्र बनाती है। नील से उसके संबंध बनते हैं, वे दोनों साथ-साथ उठने बैठने और घूमने लगे हैं। मन ही मन एक दूसरे से प्रेम करते हैं, परन्तु सुषमा को बार-बार लगता है कि नील का इस तरह उससे मिलना, रात-बिरात उसे छोड़ने आना, बाहर घूमने जाना, सामाजिक मर्यादाओं के खिलाफ लगता है। उसमें सामाजिक नैतिकता का द्वंद्व है - ‘‘वह बेफ्रिक तरूणी तो नहीं है। उसकी हर क्रिया को सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाता है। बेकार में ऐसी बातों को क्यों जन्म दिया जाए।’’14

 उसे सामाजिक सीमाओं का ख्याल है, यही उसकी बिडंबना है कि वह प्रेम जैसे उन्मुक्त अनुभव को जीना चाहती है, पर मर्यादाओं के बंधन उसे ऐसा करने से रोकते हैं - ‘‘पर वह कितनी अदृश मर्यादाओं में बँधी है, यह वह नील को कैसे समझाये?’’15

 नील का साथ उसे अच्छा लगता है। नील उसे पसंद करता है यह एहसास उसे अन्दर से भर देता है। नील से मिलने के बाद उसे लगा कि उसने जीवन के बहुत कीमती वर्ष यूँ ही गंवा दिए। ‘‘जीवन की भाग दौड़ और आजीविका के प्रश्नों में चुपचाप विलीन हो गए वे वर्ष और अब तो उसके चारों ओर दीवारें खींच गईं थीं, दायित्व की, कुंठाओं की, अपने पद की गरिमा और परिवार की।’’16




 सुषमा आधुनिक जीवन को परंपरागत परिवेश में जीने की विवशताओं से तंग आ जाती है और उसे एक साथी की आवश्यकता महसूस होती है। उसे पति और प्रेमी के विशेषणों की आवश्यकता नहीं थी, पर जब वह परिवार के दायित्वों को निभाते हुए थकान महसूस करने लगती है तो उसे साथी की जरूरत लगने लगती है। ‘‘सुषमा को प्रेमी नहीं चाहिए था। उसे पति की आकांक्षा भी न थी, पर कभी-कभी उसका मन न जाने क्यों डूबने लगता। अपने परिवार का सारा बोझ अपने ऊपर लिए, सुषमा काँपने लगती। तब वह चाह उठती कि दो बाँहें उसे भी सहारा देने को हों, इस नीरवता में कुछ अस्फुट शब्द उसे भी सम्बोधन करें।’’17

यह चाहना बंधनों और सीमाओं से परे समानता के स्तर पर जीने वाले साथी की है। पति और प्रेमी अन्ततः पुरुष ही होते हैं और प्रेमी भी जब पति का पद पाता है तो वह निखालिस पुरुष बन जाता है और नहीं पाता तो भी उस पर हक मर्दीय अहं के साथ जताता है। वह उसे उसके द्वंद्व और सामाजिक बिडंबना के साथ स्वीकार नहीं करता। जैसा की नील के साथ होता है। नील के लिए सुषमा अन्ततः एक सुगठित देह ही है, जिससे खेलने का पूर्ण अधिकार वह पाना चाहता है और सुषमा की सामाजिक जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं करना चाहता।
सुषमा जिस परंपरागत परिवेश के बीच रहती है उसमें उसे निरंतर इस बात का एहसास कराया जाता है कि ‘‘सामाजिक मापदंड़ों का जो उल्लंघन करता है, उसे दंडित होना ही पड़ता है, सुषमा! मुझे स्वाति से बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं है।’’18

  मिसेज पुरी का यह कथन हमारे पितृसत्तात्मक समाज की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, जो सुषमा और स्वाति जैसी स्त्रियों को न जीने देता है और न मरने देता है। ‘‘जिसके चारों और द्वार बन्द हों वह क्या करे? उसी कारागार में रहता रहे, सीखंचों से आती धूप और मद्धिम प्रकाश के बल पर साँसे लेता रहे।’’19 

सुषमा नील को अपने जीवन संघर्ष के संबंध में बताते हुए कहती है, जो एक आम मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन की सच्चाई भी है - ‘‘नील, पिछले ग्यारह सालों से मैं जिन्दगी से निरन्तर लड़ रही हूँ। सुषमा ने एक आह भरी, फिर सामने शून्य की ओर ताकते हुए कहा, ‘‘तुम्हें विस्तार में नहीं बताऊँगी, पर मैं यह तुम्हें जताना चाहती थी कि यह नौकरी मेरे लिए बहुत कीमती है। निर्धन मैं भले ही रही होऊँ, पर स्वाभिमानी भी बहुत रही। जीवन में कभी-कभी ऐसे अवसर भी आए, जबकि मैं अपने शरीर के मोल से धन और आराम पा सकती थी। पर वह मैंने स्वीकार नहीं किया। एम. ए. करने के बाद मैंने एक प्राइवेट कॉलेज में नौकरी की। वहाँ के सेक्रेटरी नगर के पुराने रईसों में थे। उन्होंने किस वस्तु का प्रलोभन नहीं दिया मुझे, पर मैंने वह नौकरी छोड़ दी।’’

‘‘जब मैंने माँ को बताया कि मैंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया है तो उन्होंने पूछा, ‘और इन बच्चों का क्या होगा? पिताजी साल भर से बीमार थे और बिना वेतन के छुट्टि पर थे। मुझे उस नौकरी की सख्त आवश्यकता थी। पर वह मोल चुकाना मुझे सह्य न था।’’20

 सुषमा का यह बयान दरअसल आत्मद्वंद्व की स्थिति है, नैतिकता और दायित्वबोध की सीमाओं का पता चलता है। देह समर्पित करना बिना अपनी मर्जी के यह उसे स्वीकार्य नहीं था। देह पर उसका अपना अधिकार है, जिसे वह अपनी मर्जी से समर्पित करेगी और उसने नील को अपनी देह समर्पित की। यह उसका निर्णय था, विवशता नहीं। यह सुषमा का नैतिकता का बंधन नहीं, बल्कि देह पर अपने अधिकार का बोध है।

सुषमा अपने परिवार के लिए अपना जीवन होम कर देती है, और अपने बारे में सोचते हुए भी कोई ऐसा निर्णय नहीं लेती जो उसके छोटे-भाई बहनों के जीवन को नरक बना देता। इसे भी हम उसका अपना निर्णय ही मानेंगे। पारिवारिक दायित्वबोध को विवशता के स्तर पर जीते हुए भी यह उसका अपना निर्णय था। यही उसके व्यक्त्वि को नया रूप देता है। वह अपने स्वत्व को कायम रखते हुए भी अपना जीवन होम करती है। ‘‘इसीलिए मैं तुमसे कह रही थी कि मेरी जिन्दगी खत्म हो चुकी है। मैं केवल साधन हूँ। मेरी भावना का कोई स्थान नहीं। विवाह करके परिवार को निराधार छोड़ देना मेरे लिए संभव नहीं। मैंने अपने को ऐसी जिन्दगी के लिए ढाल लिया है। तुम चले जाओगे तो मैं फिर अपने को उन्हीं प्राचीरों में बन्दी कर लूँगी।’’21  

इस स्थिति में व्यक्ति के अन्दर एक बेगानापन पैदा होता है। यह जो अपने को अपने किए से अलग होने का बोध है, यह व्यक्ति में अमानवीय स्थितियों को पैदा करता है। वह अपने बारे में नहीं सोचता, अपने को खपा देता है विवशता में। अजनबीपन, बेगानापन, अकेले होने का बोध, सुषमा अपने अन्दर अनुभव करती है। नील विदेश चला जाता है, सुषमा उससे मिलने हवाई अड्डा जाना चाहती है, टेक्सी भी बुला लेती है, पर वह जा नहीं पाती। वह प्रेम और दायित्व बोध के द्वंद्व में फंसी रहती है और अकेलेपन को स्वीकार कर लेती है।

इस तरह सुषमा का चरित्र आधुनिकताबोध के पितृसत्तात्मक संस्करण की मिली जुली अभिव्यक्ति है। उसमें मध्यवर्गीय स्त्री के परंपरागत मूल्यों के अवशेष भी हैं और आधुनिकताबोध की छटपटाहट भी। यह छटपटाहट और बैचेनी ही उषा जी की उपलब्धि है। यह उपलब्धि भी इसलिए मूल्यवान है, क्योंकि अब तक स्त्री में अपने होने की, स्वयं के मुक्त होने की छटपटाहट भी नहीं थी, उसने दी गई व्यवस्था को ही अपनी नियति मान रखा था। सुषमा जैसी नायिकायें समाज में स्त्री की मुक्ति और विवशता के बीच की छटपटाहट को अभिव्यक्ति कर रहीं हैं। यह भी परिवर्तन का संकेत है। ‘पचपन खंभे और लाल दीवारें’ सुषमा के जीवन की कैद की सीमायें बन जाती है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के आधुनिकबोध की प्रतीक। वह तमाम जीवन उनके दायरे से बाहर नहीं आ पाती।

00
संजीव जैन
भोपाल 

संदर्भ सूची
1. औरत अस्तित्व और अस्मिता, अरविन्द जैन पृ. 45-46
2. वही, पृ. 49
3.वही, पृ. 46
4. वही, पृ. 48
5 वही, पृ. 47-48
6. कुछ जीवन्त कुछ ज्वलंत, कात्यायनी, पृ. 165
7.पचपन खंभे लाल दीवारें, उषा प्रियंवदा, पेपरबेक, पृ. 82
8. पचपन खंभे लाल दीवारें, उषा प्रियंवदा, पेपरबेक, पृ. 72
9. औरत अस्तित्व और अस्मिता, अरविन्द जैन पृ. 49 
10 वही,पृ. 49
11पचपन खंभे लाल दीवारें, उषा प्रियंवदा, पेपरबेक, पृ. 72-73
12 वही, पृ. 13
13 वही, पृ. 14
14. वही, पृ. 30
15 वही, पृ. 30
16वही, पृ. 34
17 वही, पृ. 34
18. वही, पृ. 37
19.वही, पृ. 51
20.वही, पृ. 73
21.वही,पृ. 74



संजीव जैन 



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