Friday, February 26, 2016


 वह आखिरी चुबंन

संजीव चन्दन



इसे मौत कह कर उनके मरने की इस अदा का अपमान नहीं किया जा सकता.वे प्रस्थान कर गई एक दूसरीभूमिका की ओर.... महाप्रयाण.......! समय इतना लोकतान्त्रिक जरूर हो गया है कि शंकराचार्योंऔर अपने कर्मकांडों के मकडजाल में फंसे कुछ पुरोहितनुमा जीवों और उनके प्रति आस्थावान आस्तिकों,ढोंगियों को छोड़कर एक स्त्री की मौत को महाप्रयाण कहने पर कोई आपत्ति करने नहीं आएगा.वैसे भी महाप्रयाण है यह,पुरुष- आरक्षित मोक्ष नहीं.क्या कोई अपनीमौत को भी इतना उत्सवपूर्ण बना सकता है ! यह तो एक दूसरी यात्रा की शुरुआत के पूर्व का ही उत्सव हो सकता था !! वे महाप्रयाण कर गई.............आजीवन यात्री ही तो रहीं वे,एक पड़ाव से दूसरेपड़ाव तक,कहीं एक-दो पल की झपकी ली तो कहीं सालो साल स्थिर रहीं,लेकिन अगले पड़ाव पर पहुँच कर पीछे छूट गए का अफ़सोस नहीं करती,हाँपीछे छूट गए एक-एक लम्हे की कसीदाकारी उनकी स्मृतियों पर अंकित हैं- यादों के बेल-बूटे !! रात इस डाइनिंग टेबल पर अपना आखिरी तशरीफ रखनेके पहले एक- एक लम्हे में दर्ज होने की अपनी ख्वाहिश पूरी करती रहीं वे.सुबह तडके से ही रसोई मेंदेखकर मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा,यह उनका काम नहीं था,मैं जब से उनके पास आई थी,यह काम प्रायः मालदह से साथ आई‘दुलारी’के जिम्मे था या कुछ अंतराल पर मेरे,जब दुलारी की तबियत ठीक नहीं होती या फिर जब मैं खुद ही अपना मनपसंद बनाना चाहती.‘तुम फटाफट तैयार हो लो,आज तफरी करते हैं,लोधीगार्डन में धूप सेकेंगे और वहीं लंच करेंगे,’उन्होंने मेरे आश्चर्य को भांपते हुए मुझसे कहा.हम दिन भर घूमते रहे,लोधी गार्डन में लंच,खान मार्केट में खरीददारी के नाम पर एक- दो किताबें और कुछ अन्तः वस्त्र.मंडी हाउस में कॉफी और रोहिताश्व के साथ नाटक,जिसने हमें अपने ऑफिस के बाद हमें ज्वाइन कर लिया था.“तुम दोनों घर चलो मैं एक-दो गप्पे मार कर आती हूँ,प्रेस क्लब भी जाउंगी,गलासूख रहा है,’श्री राम सेंटर में‘आषाढ़ का एक दिन‘देखने के बाद उन्होंने कहा.पता नहीं वे क्या चाह रही थी,हमें एकांत देना या फिर स्वयं के लिए एकांत.रोहित ने ऑटो रुकवायातो उसे उन्होंने अपने लिए रोकते हुए अपनी गाड़ी की चाभी हमें दे दी, ‘तुम दोनों इससे जाओ,’उनके आदेशात्मक स्वर से हम संचालित हो गए.उनके देर रात लौटने की आवाज तो हमने सुनी जरूर लेकिन अपने बेडरूम में अपने पहले अभिसार के आगोश से हममें से कोई नहीं उठा और शायद वे वहींडाइनिंग परबैठी-बैठी एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ीं,उन्होंने कुछ खाया नहीं था,खाना वैसे ही पडा था.हाँ,व्हिस्की की बोतल,ग्लास,प्लेट में कुछ काजू जरूर थे वहाँ.हम यदि अपने प्रेम में खलल डाल कर उनकी खटपट की आवाज से बाहर आये होते तो शायद हम उनके महाप्रयाण के साक्षी होते.हमें यहाँ न होने का अफ़सोस तो जरुर है लेकिन वैसा दुःख नहीं जो‘मोहनदास’को अपने पिता की मृत्यु के समय अपनी पत्नी के पास होने का था.यह हमारी पहली मिलन थी और वे स्वयं भी हमारे इस अभिसार मे बाधा से दुखी होतीं,उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती या फिर वे महाप्रयाण को प्रस्थित नहीं होतीं,ऐसा मुझे ही नहीं आपको भी लगेगा,जब आप‘हमारी दीदी’की कहानी जानेंगे.फिलहाल मुझे रोना आ रहा है और मुझे‘निगमबोध घाट’भी जाना है,लोगों को सूचित करना है,लौट कर दीदी और अपनी कहानी आपको बताउंगी.70की हो रही अपनी दीदी को दुल्हन की तरह सजाया था मैंने.उन्हें नहलाते वक्त उनके रोमकूपों से निकलने वाली उर्जा से मैं संचारित होती रही.उनके स्तन.... मुझे रोना आ रहा था....काश मैं फिर से बच्ची हो जाती... उनसे लिपट पाती... उनसे उनके अमृत सोख पाती... किसी देव मूर्ति की तरह मैंने नहलाया उन्हें.दीदी कहीं भी निकलने से पहले अपने स्तनों पर कप्स डालकर उसे आकर्षक बनातीं, 70साल की अपनी दीदीकी इस रुमानियत को,खुद से उनके मुहब्बत को,मैंने आज भी यथावत रखा,अंतिम यात्रा की उनकी तैयारी ठीक वैसी ही की मैंने जैसा वे स्वयं करती.वे अपनीबहन,बेटी,दोस्त के इस सौंदर्यबोध पर जरूर प्रसन्न हुई होंगी अन्यथाजब तक वे मेरे साथ रहीं सौंदर्य के प्रति मेरी बेरुखी पर मुझे कोसती ही रही थीं.पर आज क्या मैंने उनसे सीखकर वह सब किया या स्त्रियों के भीतर सौंदर्य कोई जन्मजात प्रवृति होती है,जोमेरे भीतर मैंने दबा रखा था!‘निगमबोध घाट’पर मैं ज्यादा देर रुकी नहीं,रुक भी नहीं सकती थी.मैं दीदी को जलते देख नहीं सकती थी.मुखाग्नि मुझे ही देनी थी इसलिए मैं घाट तक गई भी अन्यथा मैंने घर से ही उन्हेंअलविदा कहा होता.उनका बेटा स्टेट्स में अपनी कारोबारी व्यस्तता के बीच आने में असमर्थता जाहिर कर गया,‘मैं बहुत दुखी हूँ,तुम नहीं समझसकती कि मैं मम्मी को कितना मिस करूँगा,आय विलट्राय टू रीच सून.परन्तु आप सारे रिचुअल्स में कोई कमी नहीं आने देना.आय विल डिपोजिट द अमाउंट.’वह हर महीने उनके लिए एक निश्चित राशिभेजा करता था.दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः.!!मेरे दादा जी अक्सर कहा करते थे, ‘त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम दैवो न जानति कुतो मनुष्यः.’दीदी में मेरी रूचि उनके विरोधियों के द्वारा उनके लिए अक्सर दुहराए जाने वाले जुमले के कारण ही बनी थी,जो उनके बारे में बातें करते हुए‘त्रिया चरित्रं’पर खत्म होती.उनके कई प्रेम संबंधों की चर्चा तो मैं अपने घर पर अपने दादा जी के मित्र'पाठक दादा'से सुनरखी थी.दीदी की आशिकी के एक पात्रवे स्वयं भी थे.दीदी के दिल में उन्होंने एक नहीं पांच जोड़ बांसुरी तब बजाई थी जब दीदी श्रमिक आन्दोलनों की प्रखर नेता हुई करती थीं और वे उनके राज्य में एक बड़े श्रम अधिकारी.जब गीतकार दादा ने'स्त्रियों की यौनिकता और परम्परा'पर मेरे शोध के विषय में सुना तो उन्होंने दीदी के जीवन को एक केस स्टडी के रूप में पढ़ने के लिए प्रेरित किया और मैं उनकी सिफारिश पर ही अपने छात्रावास से दीदी के यहाँजाने लगी,कई-कई दिन तक उनकेसाथ रहने भी लगी.दादी की उम्र की मेरी दीदी सिर्फ दीदी हो सकती थीं या फिर छोटी बहन.सही मायनों में उनकी रुचियों और मेरी रूचि के हिसाब से वे मेरी छोटी बहन जैसी ही थीं.इससे पहले कि मैं दीदी की कहानी आपको सुनाऊं यह स्पष्ट कर दूं कि आपका कोई भी प्रयास उनकी पहचान करने का व्यर्थ जायेगा,आप उन्हें कहीं भी न तलाशें,कर्पूरी ठाकुर के मंत्रीमंडल,बिहार विधानसभा,लोकसभा,श्रमिक आन्दोलनों में,कहीं भी नहीं,जहाँ-जहाँ आपको उनके जीवन की कथा मेरी कहानी में मिलेगी,वहाँ वे नहीं मिलेंगी.आपकी उत्सुकता को थोडा शांत करने के लिए मैं अपना पता बता दूं,जहाँ से मैं आपको कहानी कह रही हूँ,जहाँ अभी- अभी दीदी को महाप्रयाण के लिए विदा कर लौटी हूँ और जहां से अगले चार दिनों में मैं अपने छात्रावास लौट जाउंगी.मैंअभी रायसीना हिल्स और अरावली हिल्स के बीच कहीं किसी घर में हूँ,वहीँ उसी डाइनिंग टेबल पर सर रख कर बैठी हूँ,जहाँ दीदी ने पिछली रात बिताई थी,रोहित हमारे लिए चाय बना रहा है,चाय के बाद वहअपने ऑफिस चला जायेगा,उसने आधे दिन की ही छुट्टी ले रखी थी.हाँ,एक बात और मेरे छात्रावास का पता आप जान कर भी क्या करेंगे,जब भी मिलना हो तो आ जाइये,गंगा ढाबे पर मैं इत्मीनान से मिल जाउंगी.मैं देख रहा हूँ कि आप मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे कि‘बच्चू अब बचेगी कहाँ‘गंगा ढाबे पर मिलती हो तो रहती होगी वहीँ,कहीं गंगा,गोदावरी,ताप्ती या बहुत से बहुत साबरमती छात्रावास में,कथावाचक का ठौर ठिकाना मिल गयातो कथा की पात्र को भी तलाश लेंगे.'मैं आपको अभी ही सचेत कर दूं कि मेरी कहानी को ठोस यथार्थ की कसौटी पर कसकर आपको कुछ भी हासिल नहीं होगा,आप क्या लैला का पता लगा पाए हैं,मजनू का ठौर जाना है क्या आपने,न सीरी के घर कापता होगा आपको न फरहाद का ठिकाना !लेकिन उनकी कहानी,कहानी तो इतिहास की इबारत सी मजबूत हमारी और आपकी पीढ़ियों से चली आ रही हकीकत है.ऐसी ही हकीकत है दीदी की कहानी,मेरे वजूद मेंदर्ज कहानी.....हाँ,इतना यथार्थ इस कथा में जरूर है जितनामेरे गंगा ढाबा पर होने,गंगा,गोदावरी,ताप्तीया साबरमती छात्रावास में कहीं रहने,रायसीना हिल्स और अरावली हिल्स के बीच कहीं किसी घर से मेरे कहानी कहने से या फिरदीदी के कर्पूरी ठाकुर के मंत्रीमंडल,बिहार विधानसभा,लोकसभा,श्रमिक आन्दोलन आदि किसी राजनीतिक-आराजनीतिक गतिविधि में शामिल होने से यथार्थ बनता है,या फिर......जितना यथार्थ लड़कियों के लिए समानता-स्वतंत्रता के साथ रहने और जीने के सबसे मुफीद सहशिक्षा केंद्र माने जाने वाले जे.एन.यू के पेरियार,कावेरी,झेलम,ब्रह्मपुत्र या ऐसे ही किसी छात्रावास में सहपाठी लड़की की ब्लू फिल्म बनने-बनानेकी घटना है .....उतना यथार्थ जितना जे.एन यू के खंड-खंड,शिला- शिला में,चेतन-अचेतन मेंरचे -बसे‘विद्रोही’के द्वारा आसमान मेंधान के रोपे गए पौधे.खूबसूरत यथार्थ, ‘मीन सी आँखों वाली’,गिलहरी की सी कोमलता वाली नन्ही लड़की का यथार्थ,जिसे उसके पिता ने पुकारा‘मीनाक्षी और माँ नेदुलार से जिसे‘रूही’बुलाया.उसी लड़की से,यानी दीदी से,यानी70साल की मेरी कथानायिका से,मेरे सवाल भी उतने ही बड़े यथार्थ के हिस्से हैं:‘दीदी आप इतनी कहानियों,इतनी फंतासियों,इतने गप्पों,इतने ठहाकों,इतनी फुसफुसाहटो में कैसे दर्ज होती चली गईं!’शीताक्षी-उन्हें मिनाक्षी से अलग करने वाला संबोधन! उनके व्यक्तित्व के अनूठेपन को गढ़नेके लिए मूर्तिकार का पहला छेनी–स्पर्श!! उनकेसपनो को अर्थ देने वाली पहली तरंगें!!! पहली बार अपने क्षेत्र और परिवेश से पहली ग्रेजुएट होती मीनाक्षी के कानों में आज भी उस वाक्य की गूंज अजीब सी फुसफुसाहटके साथ स्पर्श करती है, “तुम्हारी आँखों में बड़ी शीतलता है,तुम्हारा नाम इनकी बाह्यमीन-सुंदरता की जगह इनकी आतंरिक शीतलता को अभियक्त करना चाहिए था --मीनाक्षी से ज्यादा सटीक है शीताक्षी-क्वारकी पूर्णिमा सीठंढक वाली इन आँखों के लिए.’मीनक्षी- यानी शीताक्षी पहली बार आईने में अपनी आँखों में डूबती चली गई,पहली बार लड़की होने का अहसास पोर-पोर में थिरकने लगा.‘हाँ,इसके पहले तक तो मेरे पिता ने,माँ ने,भाइयों ने कभी यह अहसास होने ही नहीं दिया कि मैं लड़की होने या अपने महीने के खास दिनों के कारण लडको से अलहदा हूँ,या उनसे कमतर हूँ - उन दिनों लड़की को कालेज तक भेजना कोई अचानक से लिया गया निर्णय नहीं हो सकता था.मैं सुन्दर थी यह मुझे पता था,परन्तु उस संबोधन के पहले किसी ने मेरी सुंदरता को मेरे सामने आईने में उतार देने का काम नहीं किया था और मैं तब तक सौभाग्यशाली भी थी कि किसी ने,मेरे आस-पास से या मेरे घर के भीतर,कभी भी लड़की होने का बलात अहसास भी नहीं कराया था.’‘वह था कौन दीदी?'‘मेरे बड़े भाई का दोस्त! उस दिन के बाद मैं मीनाक्षी रह नहीं गई थी,मैं शीताक्षी हो गई थी.वह बहुत अच्छा वक्ता था- मेरे भाई के साथ उसकी बातें,जो अक्सर राजनीतिक होतीं,मैं मंत्रमुग्ध सी सुनती थी,उनके बीच घंटो बैठती--नेहरु की आलोचना करती हुई,समाजवाद केसपने देखते हुई,वर्ग संघर्ष में यकीन करती हुई और सर्वहारा की सत्ता कीयूटोपिया रचती मैं भी उनके साथ मजदूरों के संघर्ष में शामिल होने लगी.’‘यह तो विचित्र प्रतिक्रिया थी,आपको तो उस संबोधन के बाद सपनो के जिन रंगीन तरंगों में संचरित होना था उससे अलग आप यथार्थ के संघर्ष की और उन्मुख थी ...’‘हाँ.ऐसा था और ऐसा नहीं भी.मेरी आँखों की क्वार पूर्णिमा में शीतलता पाने वाला मेरा नायक दो समानांतर भूमिकाओंमें था,मुझे एक नई राह पर खींच रहा था और मेरे सपनो में,मेरे क्वारे अहसास पर दस्तक भी दे रहा था.फिर एक दिन,जब घर में,कमरे में,मैं और वह अकेले ही थे,वह भाई की प्रतीक्षा कर रहे थे और घर के लोग बाहर,मैंने कमरे की बत्ती बुझाई और उनके पांवों के पास बैठ कर मैंने उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर कहना शुरू किया कि.... मैं पूरी रौशनी में,आँखों में आँखे डाल कर जो बात नहीं कह सकती,वह इस नीम अँधेरे में कहना चाहती हूँ कि मैं आपसे ......कि तभी मेरे हाथ को झटका लगा और कमरेमें बत्ती जल गई!’‘क्या भाई आ गए थे?’‘नहीं,उनके भीतर का भाई प्रबलहो गया था.  और उन्होंने मेरे गालों को अपनी दोनों हथेलियों में समेटकर मेरी आँखों में आँखे डालकर कहा कि वे मेरे भाई के दोस्त हैं,कि मुझे ऐसे ख्याल भी अपने मन में नहीं लाने चाहिए,कि आँखों में क्वार की पूर्णिमा से उनका मतलब वह सब नहीं था,जो मैं समझ बैठी,कि स्त्री पुरुष के आदिम रिश्तों को समाज ने जिन रिश्तों के भीतर सुरक्षित किया है उसे बनाये रखना हमारा कर्तव्य है और न जाने क्या,क्या.... हाँ यह भी कि वे नैतिक समाजवाद चाहते हैं,वैसा समाज नहीं,जहाँ स्त्री और पुरुष दो देह मात्र हों......’इसके बाद दीदी ने बताया कि उन्हें उस वक्त‘एक भयभीत,भीरु जिम्मेवारी से भागने वाला पुरुष सामने दिखा. लेकिन कामना,जिसका सोता तब फूटा था,उसे बहने से कौन रोकनेवाला था!’राजनीतिक गतिविधियों में उन दिनों शामिल महिलाएं शहर के खास लोगों में शामिल होतीं,गोष्ठियों में,बहसों में,आन्दोलनों में,महिला चेहरे कम ही थे,कुल तीन,जिनमें एक दीदी स्वयं थीं.मजदूरों के आन्दोलनों में शामिल मजदूर महिलाएं भी कुछ खास संख्या में नहीं होती.दीदी सबसे अलग थीं -सबसे अलहदा.कामनाओंके सोते ने उन्हें गढना शुरू किया था.अपनी पढ़ाई की व्यस्तता,बहसों,गोष्ठियों में भागीदारी,घर में गाँधीवादी पिता,मार्क्सवादी भाई के दोस्तों का ख्याल,इन सबकेबीच अपने लिए समय निकालती थीं वे.मुख्यमंत्रीकी ट्रेड युनिअन के नेताओं के साथ बैठक में भाग लेने का अवसर उन्हें महिला प्रतिनिधि के तौर पर मिला.मुख्यमंत्री ने नेताओं से कहा, ‘वहाँ संसद मेंतारकेश्वरी जी बैठती हैं तो संसद का सौंदर्य बढ़ जाता है वैसे सौंदर्य से हमारा विधान भवन ही क्यों महरूम हो,आप कहें तो इन्हें (दीदी को) विधान परिषद में बुला लिया जाए,’कहकर मुख्यमंत्री ने ठहाका लगया और उपस्थित नेताओंके ठहाके कोरस बन कर मुख्यमंत्री कक्ष में गूंज गए.दीदी घटनाओं का कोलाज बनाती चली गई थीं,उन्हें जब कोई संवेदित करता तो घटनाओं के कोलाज सामने होते.26मई1964को हुई थी मुलाकात मुख्यमंत्री से,जिसके बाद प्रतिनिधिमंडल को नेतृत्व दे रहे कॉमरेड के साथ दीदी रिक्शे पर निकली,वे मुलाकात की सफलता से उत्साहित थे,रिक्शे वाले को गाँधी मैदान चलनेको कहा.रास्ते में उन्होंने पूछा,‘तारकेश्वरी जी को देखा है कभी तुमने,सही फरमा रहे थे जनाब मुख्यमंत्री,नेहरु जैसे सौंदर्य और बुद्धिमता के पुजारी भी कायल हैं उनके.. दीदी तारकेश्वरी सिन्हा के शायराना फलसफे मेंजोशीले भाषणों के विषय में तब तक सुन चुकी थी और नेहरु के सौंदर्य प्रेम,मुग़ल गार्डन में लेडी माउंट बेटन के साथ उनकी मुलाकातें मिथकीय गल्पों के साथ प्रेमी युगलों में रोमांच पैदा करती रही थीं.‘तुम हमारे बीच वामपंथी तारकेश्वरी सिन्हा हो,’कामरेड ने दीदी की आँखों में अर्थपूर्ण दृष्टि डाली.वैसी किसी भी दृष्टि या कम्प्लीमेंट के प्रति अबतक (भाई की घटना के बाद से) वे सावधान रहने लगी थीं,लेकिन कामरेड की लरजती आवाज के साथ उनकी दृष्टि से‘शीताक्षी’ने उनके भीतर फिर करवट ली.गांधी मैदान में बातें करते हुए,अशोकराजपथ पर विचरते हुए वे नेहरु के बाद कौन,सी.पी.आई-सी.पी.आई (एम) के विवादों और नई वामपंथी पार्टी के जन्म,दांगे-नम्बूदरीपाद के विचारभेद,रुसी और चीनी मार्क्सवाद सहित कईपहलुओं पर बातें करते रहे,इन राजनीतिक वियाबानों से गुजरते हुए वे राजकपूर-नरगिस केअफसानों के तार भी छेड़ रहे थे.बातें तैर रही थीं,राजनीति,फिल्म,प्रेम,समाज,उसकी बंदिशें,और कालिदास.हाँ कामरेड इन दिनों कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम को खत्म कर कुमारसंभवम पढ़ रहे थे.कामरेड के विचार‘भाई के दोस्त’से अलग थे,वे स्त्री-पुरुष के आदिम रिश्तों के हिमायती थे,सामजिक सम्बन्ध उन्हें कृत्रिम संजाल नजर आते थे.बातों का छोर पटना सिटी के उनके किराये के मकान में खत्म हुआ.दीदी जब उस मकान से बाहर निकलीं तो उनके साथ मीनाक्षी साथ निकली,उससे शीताक्षी भी घुलीमिली थी,मीनाक्षी और शीताक्षी के अंतरद्वंद्व आपस में गुथंगुथ थे.कामरेड उन्हें छोड़ने उनके घर तक गए,रिक्शे पर दोनों साथ रहे लेकिन इस बार कोई कोई भी प्रसंग छेड़ नहीं रहा था.दीदी अपने कमरे के आईने के सामने काफी देर तक खड़ी रहीं,एक नए अहसास से सराबोर, ‘स्त्री-पुरुष के आदिम आपसी गंध'से मदहोश ! माँ एक बार कमरे में आकर लौट गईं,उन्होंने अपनी रूहीको नींद से जगाना नहीं चाहा रूही नींद में थी,रूही रो रही थी,रूही केआसुओं के तासीर निश्चित नहीं थे,दुःख,अनजाना भय या सुख के आंसू.‘नेहरु नहीं रहे’,दोपहर तक आल इंडिया रेडियो ने खबर दी,जिस पर शाम को घर के लॉन में गमगीन चर्चा में शामिल हुए गांधीवादी पिता,मार्क्सवादी भाई,कमरेड और दीदी.नेहरु के प्रशंसक और विरोधियों,सबके लिए यह आघात था और एक सवाल भी, ’हू आफ्टर नेहरु?’दूसरे दिन पार्टी दफ्तर में शोक सभा हुई और दीदी लौटते वक्त अपने घर आने के पहले कामरेड के मकान पर रुकी,दीदी का यह पड़ाव10जनवरी1966तक बना रहा.लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक निधन के6घंटे पहले तक.धोखा !साजिश !!विश्वासघात!!!पूरे देश की फिजां में यही माहौल था,लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु को साजिश मान रहे थे लोग -वे लोग भी,जो एक दिन पहले तक ताशकंद समझौते के कारण शास्त्री जी के खिलाफ थे.11जनवरी की सुबह दीदी के अपने लोक में भी विश्वासघात और धोखा का घना कोहरा छाया था,जो राष्ट्रीय फिजां में व्याप्त विश्वासघात,धोखे और साजिश के माहौल से लिपट रहा था.दीदी अपनी बेचौनी की हालत या विचारों के द्वंद्व की स्थिति में पासके गंगा-घाट पर घंटों बैठी रहतीं.उस दिन भी वेनिकलीं तो पिता समझ गए थे कि शायद उदासी की स्थिति में वे गंगा की ओर जा रही हैं.वे मना करना चाह रहे थे,उस दिन भी ठंढक में कोई कमी नहीं थी,कोहरा यद्यपि पिछले दिनों की तुलना में कम था.भाई ने सदा की भांतिISE  ‘बुर्जुआ व्यवहार’की संज्ञा दी.हालाँकि दीदी अभी भी शास्त्री जी की मृत्यु परकोई राय नहीं बनाना चाह रही थीं,चाह भी नहीं सकती थीं.क्योंकि उनका समय तो कल ताशकंद की त्रासदी के छः घंटे पहले तक ही फ्रीज हो गया था,जब कामरेड ने उन्हें स्पष्ट मना कर दिया था.‘यह नहीं हो सकता’‘क्यों नहीं,क्या हमारे बीच प्रेम नहीं है?’‘हमारे बीच प्रेम कोई शर्त नहीं थी,हम विशुद्धदेह थे.‘मैं मानती हूं कि हमोर बीच सब कुछ देह से शुरूहुआ था,पूरे होश-हवाश में,वैचारिक तौर पर‘देह’की सत्ता को निर्विवाद और आवश्यक मानते हुए,लेकिन एक औरत के लिए देह से शुरू होकर देह तक टिके रहना संभव नहीं होता,मैं आपके साथ‘घर’और‘संसार दोनों के ख्वाब बुनने लगी थी.’‘वह ख्वाब एक तरफा था,जिसे बुनने के लिए तुम स्वतंत्र थी,परंतु मेरे‘घर’में कोई और भी है.’कामरेड की आवाज सख्त थी.'कोई और मतलब...!’‘मेरी पत्नी’‘क्या वह पहले नहीं थी,तब जब आपके‘घर’और‘संसार’में मैं-ही मैं थी.आप एक साथ दो लोगों से धोखा कर रहे थे.......'‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता हूं,तब भी नहीं चाहता था.मेरीशादी लगभग बाल विवाह थी- दो बच्चे भी हैं.हां,तुम मुझ पर धोखे का आरोप भी तय नहीं कर सकती हो. हमारे तुम्हारे बीच पहली बार ही जो कुछ हुआ वह जरूरत हम दोनों की जरूरत जैसा था,अप्रत्याशित तो कतई नहीं.हमदोनों ही विधान भवन से‘सिटी’मेरे घर पर अनायास ही नहीं चले आए थे.’कामरेड तर्क कर रहे थे.'तो क्या वह सब पूर्व नियोजित था?....दीदी लगभगचीखने को आयी.‘मैं कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता उस दिन के बारे में,नियोजित था भी और नहीं भी.लेकिन अब,अब परिवार मेरी जिम्मेवारी है.’गंगा का दूसरा छोर घने कोहरे में छिपा था.कोहरे में कुछ ढूंढ़ती दीदी की आंखें उसी छोर पर लगी थीं या वे सूने में एकटक देखती कुछ सोच रही थीं......'नियोजन!'किसका व्यवहार नियोजित था.क्या वे कुछ सोच कर विधान भवन से टांगें पर बैठी थी पहले दिन!!! खूब याद करने के बाद भी वे तय नहीं कर पा रही थीं कि वे कामरेड के साथ मुख्यमंत्री के कक्ष से निकलकर क्यों चल पड़ी एक साथ.क्या मुख्यमंत्री की प्रशंसा से वे भाव विभोर थीं- आपा खो बैठी थीं.क्या उनका और कॉमरेड का घर पटना सिटी में था इसलिए वे एकसाथ निकलीं?क्याकॉमरेड के व्यक्तित्व ने और उनकी वक्तृता ने उन्हें सम्मोहित कर रखा था?क्या शीताक्षी के भावोद्रेक थे वेकदम?क्या ठेठ दैहिक जरूरतकी दिशा में प्रेरित थे उनके पांव?क्या नियोजित था- समय,भाव और नैरंतर्य में उपस्थितपरिस्थितियों का उद्दीपन याउनसे उम्र अनुभव और वैचारिकी में परिपक्व कॉमरेड का आलंबन......!!गंगा का पानी स्वच्छ था,शांत भी.ठंड के कारण एक दो श्रद्धालु ही स्नान कर रहे थे,दीदी के घाट से कई किलोमीटर दूर‘स्टीमरों’में भी कोई हलचल नहीं था.गंगा शांत बहरही थी,दीदी की आंखें भी अंतःसलीला थीं -शांत बहाव.‘कैसा नियोजन !स्त्रियां कब कर पायीं हैं,अपनी जिन्दगी का निर्णय या निर्धारण!सब कुछ परिवार तय करता है या पुरूष‘घर’संसार हर जगह:15अगस्त1947को नन्हीं मीनाक्षी के हाथों में तिरंगा थमा कर उसकी मां कहां कैद हो गयी थी,कहां सीमित हो गयी थी.गांधी जी के द्वारा आह्वान पर घर से बाहर कदम रखने वाली मां-स्त्रियां की कुशल संगठनकर्ता,अपने प्रिय आभूषणों को दान में दे देने वाली‘भामाशाह’,औरपिता के लिए15अगस्त1947के अलग-अलग मायने में-मां उस दिन के बाद से घर में ऐसे सीमित हो गयीं,जैसे पहले कभी निकली ही नहीं थी,नहींदेखा था उन्होंने असहयोग आंदोलन,नहींभाग लिया थानमक आंदोलन में या फिर1942में जेल भी नहीं गयीं थीं;पिता सक्रिय राजनीति में बने रहे.‘क्या होता है पूर्व नियोजन स्त्रियों की जिन्दगी में! कामरेड की चुप्पी,घर-परिवार के बारे में सायास निर्मित रहस्य यदि पूर्व नियोजित नहीं था तो क्या मेरा समर्पण या‘हम दोनों के सुख’पूर्व नियोजित थे.’घंटे भर गंगा की तरंगों में डूब-उतरकर दीदी घरके लिए लौट पडीं.मां की यादों के रास्ते तारीखों-तवारीख में उतरी दीदी को लगा कि10जनवरी1966इतिहास के एक युग के अंत की तारीख है- नेहरू युग का अंत,लाल गुलाबों का वास्तविक प्रस्थान.नेहरू नहीं रहे,लाल बहादुर शास्त्री का असमायिक निधन हो गया,लेडीमाउंट बेटन बहुत पहले ही इंगलैंड लौट चुकी थीं.कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को गद्दी सौंप दी.कांग्रेसी नेताओं की एक ताकतवार जमात इसे‘गूंगी गुडिया’की ताजपोशी मानता था.जिन दिनों इंदिरा गांधी‘गूंगी गुडिया’से‘दुर्गा का अवतार’बनती गयीं,उन्हीं दिनों दीदी पटना से दिल्लीविश्वविद्यालय की अन्तेवासी हो गईं;वहां रहकर छात्र और ट्रेड युनियन की में सक्रिय रहने केपार्टी के निर्देश के साथ.उन्हीं दिनों दीदी की शादी कर दी गयी- पति भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी थे.पति के आग्रह पर वे रूसभी रह आयीं-दीदी के सपनों का साम्यवादी देश,जहां बेटे के जन्म के बाद वापस लौट आयीं फिर से पटना,वे पति के पश्चिमी देशोंकी पोस्टिंग में साथ नहीं जा सकीं,वे विदेश सेवा के अधिकारी के रसाई और शयनकक्ष तक सीमित नहीं रह सकती थीं.जिस दिन,पाकिस्तान से अलग बंगला देश की घोषणा हुई,उस दिन वेपटना सिटी के अपने मकान के लॉन में अपने बेटे की ऊंगली थामे घूम रहीं थीं और उनकी निगाहें सड़क पर टिकी थीं- जहां इंदिरा गांधी के शौर्य और विजयके उल्लास से पूरा वातावरण सराबोर था.पति की चिट्ठियां धीरे-धीरे आनी कम हो गयीं,अब आने वाली हर चिट्ठी में बेटे कीपढ़ाई और उसके भविष्य की योजनाएं साथ आतीं- दीदी तय थी कि  उनका बेटा उनके पास अमानत है,जिसे पहले तो बोर्डिंग स्कूल जाना है,और फिर पिता के पास विदेश.वे अब पार्टी की गतिविधियों में ज्यादा शरीक होने लगीं.उनका सबसे प्रिय मोर्चा था कोयला खदानों के मजदूरों का मोर्चा.सीधे-सादे आदिवासियों की संपत्ति पर कब्जा था शेष बिहार के दबंगों का,जिनकी शासन और सत्ता में पहुंच थी.दीदी इस मोर्चे पर सक्रिय हुईं.‘सरकारें और उसके कारींदे- ठेकेदार,पुलिस और कारखानेदार,बंदूक की ही भाषा समझतेहैं.पूरे ग्रीन बेल्ट की नींद,भूख पर कब्जा करनेऔर उनकी सुकून पसंद जिंदगी पर तथाकथित सभ्यता का मुलम्मा डालने को उतारू सरकारों को उसके आदिवासियों की करूण आंखें और मूक वेदना समझ में नहीं आती.दीदी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के द्वारा‘नक्सलवाद’को देश का सबसे बड़ा शत्रु घोषित करने पर उबल पड़ती थी.कोयला खदानों के मजदूरों के साथ काम करते हुए ही मुलाकात हुई उनकी मेरे दादा जी की मित्र से वे धनबाद में श्रम अधिकारी थे,आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ! उनकी धाक अधिकारियों के बीच कम साहित्यिक मंचों पर ज्यादा थी.मधुर कंठ और सुर साधनाके साथ वे अपने गीतोंकी‘माधुरी’सेमहफिल लूट ले जाते थे.मंचों पर उन दिनों गीत,अगीत,नवगीत,कविता-अकविता,छंद-मुक्तछंद की धूम थी.सरोकारी मुलाकातों और मंचों,महफ़िलोंबीच दीदी कीनयी दोस्ती पनपी-पास्क दादा के साथ:‘एक सुंदर स्त्री,उससे भी अधिक आकर्षक स्त्री यदि आपके सामने की कुर्सी पर बैठकर अपने तेज और अकाट्य तर्कों से आपको कायल कर रही हो तो कौन मूर्ख हथियार डाल देना पसंद नहीं करेगा.’वे अपने स्टाइल में बेवाक थे या फ्लर्ट रहे थे.‘तो मैं मान कर चलूं कि आप हमारी तरफ से सरकार के सामने हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे.’दीदी लक्ष्य से भटकना नहीं चाहरही थीं.‘अपनी बंकिम भृकुटियों से कोई तार-तार कर रहा हो और अपने शब्दों से निरूत्तर तो कानूनी हरफों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है संवेदना.कानूनी हरफो को कई शुष्क हृदयों ने लिपिबद्ध किया है लेकिन पर- दुःख- कातर स्त्री कीउपस्थिति मात्र से उन हरफों कीशुष्कता गायब हो सकती थी’,वे प्रशंसा कर रहे थे,डोरे डाल रहे थे या फिर अपनी सहजता में थे.....दीदी ने बताया कि उनकी यह दोस्ती सबसे अधिक चली.वे घर में‘रूक्मणि’कॉलेज की दिनों में विरही बनीं‘राधा’और कोयला मजदूरों के बीच सक्रिय‘द्रौपदी’के साथ एक साथ सहजहो सकते थे और वे तीनों भीउनके साथ सहज हो सकती थीं.दीदी उनसे सबकुछ शेयर करतीं,व्यक्तिगत- राजनीतिक सबकुछ.उनकी सलाह मानतीं,उन्हें सलाह देतीं.1947में पार्टी से विलगाव,जयप्रकाश जी के आंदोलनों से रिश्ता और सक्रिय भूमिका, 1975में इंदिरा गांधी के द्वारा इमरजेंसी लागू होने पर पार्टी की खुली आलोचना और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा आदि दीदी केसारे निर्णयों में दादा जी केमित्र की सलाह और बहसकी भूमिका रही थी.उनके साथ प्लूटोनिक सुख पाती थी दीदी;इसीलिए वे अपने को रूक्मिणी,राधा और द्रौपदी की त्रयी में द्रौपदी जैसा अनुभव करती थी.उस दिन कोयला मजदूरों के मामलों को लेकर जब वेसूबे की बड़ी नेता से मिली,तो उसके द्वारा बलात् संबंध बनाने की घटना से आहत वेसीधे उनके कंधों पर गिरकर फूट-फूट कर रोयीं:‘क्या औरत देह मात्र होती है,मात्र मांस का लोथड़ा,उसने मुझे मात्र देह में तब्दील कर दिया था’ -वे काफी देर तक रोती रहीं.जी हल्का हुआ तो उन्होंने सुबकते हुए कहा, ‘मैं अपने भीतर ताकत भी महसूस कर रही हूं.इसी देह के आगे सूबे का सबसे बड़ा नेता नंग-धडंग लेटा था.सेक्स की भूख मिटनेके बाद उसके चेहरे पर बच्चों सा संतोष था- मैं भीतर से जल तोरही थी,लेकिन उस क्षण को मेरे भीतर उत्साह दौड़ गया था.’मैं आपकी उत्सुकता शांत करने वाली नहीं हूं कियह नेता था कौन : मुख्यमंत्री-राज्यपाल खानन मंत्री या फिर इन सब मंत्रियों को बनाने-बिगाड़ने वाला शक्तिशाली‘किंग मेकर’ .हां उस‘बलात संबंध’के बाद दीदी की फाइल रूकी नहीं,इतनी सूचना मैं दे सकती हूं.दीदी और गीतकार दादा का प्रेम‘प्लूटोनिक’मात्र नहीं था;दो शरीरों ने इस प्रेम को और अधिक गहन बनाया था.पहली बार दोनों करीब आए थे उनके ऑफिस के कमरे में.ऑफिस स्टॉफस की गैर मौजूदगी में.खूब तेज बारिश,हवा,घिर आयी रात तथापाठक जी केप्रति दीदी के मन के आकर्षण ने उद्दीपन का काम किया था- प्रयत्न या प्रयोजन कहीं नहीं था.वासना रहित आलिंगन...!!उन दोनों ने अंतिम बार जब एक दूसरे को समर्पित किया,उसके बाद‘प्लूटोनिकप्रेम (!) ही बचा-शरीर-संबंध जाता रहा.इसकेपहले वासना रहित प्रेम के बाद हर शरीर संबंध में वासना की अधिकता बढ़ती गयी,शारीरिक प्रेम  गहराता रहा;तब तक,जब यह सब अंतिम बार हुआ.उन्होंने उस दिन दीदी को आलिंगन मेंलिए उनके कानों में फुसफुसाहट डाली,रूक्मिणी से तुम बेहतर हो,राधा तुम से बेहतर.........'दीदी ने उसके बाद उन्हें आश्चर्य से देखा.ऑफिस की तेज बारिश को याद किया,हवा के तेज झोकों को याद किया और प्रत्युत्तर में कहा‘इतिश्री’.इसके बाद दोनों कभी आलिंगनबद्ध नहींहुए.गीतकार दादा ने भी‘इतिश्री’की गरिमा बनाए रखी.बोधि वृक्ष पर टंगा टुवार्डस इक्वलिटी रिपोर्ट‘मथुरा कहां होगी’‘कौन मथुरा,मथुरा आगरा के पास है.‘मैं मथुरा की बात कर रहा हूं,जिसके रेप के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद पूरे देश मेंस्त्रीवादी आंदोलनों की दस्तक पड़ी थी.’‘तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो’आज मेरी दीदी नहींरही,मैं उन्हें मिस कर रही हूं.‘इसलिए कि मैं वहीं से आ रहा हूं,जहां मथुरा अपने ऊपर राक्षसी बलात्कार के पहले,बाद में और  उसेकेन्द्रित स्त्रीवादी आंदोलनों के दौरान तथाउसके बाद तक पत्थर तोड़ती रही है-मथुरा यानी आदिवासी लड़की’ .उसकी पीड़ाओं की नींव पर ही बने‘कस्टोडियल रेपकानून और शिफ्ट हुआ आनेस ऑफ प्रूफ’.'तो तुम महाराष्ट्र से आ रहे हो’?'‘हां,उसके शहर चंद्रपुर से कोई सौ-एक सौ बीस किलोमीटर दूर आयोजित स्त्रीवादी जमघट से आ रहा हूं- देशभर से जमा सैकड़ोंस्त्रीवादीअकादमिशियन,कार्यकर्ताओं,विद्यार्थियों जमावडाथा वहां.’‘मथुरा भी आयी थी क्या वहां.’‘उसकी सुध लेने वाला कौन है?वहां तो टी.ए.,डी.ए. की मारामारी थी.स्त्रियों को गाली देने वाले,लेखिकाओं को‘छिनाल’संबोधित करने वाले एक पुलिस अधिकारी से संबंध बनाने का आलम यह था कि उसे स्त्री-पुरुष समानता के प्रतीक के तौर पर एक‘पीपल-वृक्ष’यानी'बोधि वृक्ष'समर्पित किया गया.’‘क्या कह रहे हो तुम,क्या किसी ने विरोध नहीं किया.’‘कौन करता विरोध,वह पुलिस अधिकारी सिर्फ पुलिस अधिकारी नहीं रहा वहां शिक्षा के नाम परएक बड़े कोषको कस्टोडियन है,उसकी कलम से ही वहां उपस्थित‘स्त्रीवादियों कोटी.ए.डी.ए मिलना था और भविष्य में अन्य उपकार सुनिश्चित थे ..’‘बोधि वृक्ष तो  दलित अस्मिता का प्रतीक है.’‘हां,इसीलिए कुछ दलित स्त्रीवादियों,ने दलित महिला संगठन के कुछ कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया तो वहां बैठी संभ्रांत भृकुटियाँतन गयीं,नारा लगाती  कार्यकर्ताओं की जमात को विलेन मानती आंखों उन्हें दुत्काररही थीं,पुलिस ने उन्हें निकाल-बाहर किया.’‘फिर स्त्रीवादी सम्मेलनों का आडंबर क्यों?’‘वहां स्त्रीवादी आंदोलनों,अकादमिक गतिविधियों के संभ्रांत प्रतिनिधियों का पुलिस-अधिकारी के साथ कोरस सुनकर आया हूं.मथुरा की कौन याद करे.यह तो टी.ए. डी.ए की कस्टडी में कई-कई मथुराओं को पुनर्जीवित करनेकी घटना थी.’मेरा मन पहले से ही उदास था.मैं अपना मन बदलने के लिए ही गंगा ढाबा आ गयी थी,रोहिताश्व को भी यहीं बुला लिया था,गरम बहसों का केंद्र गंगा ढाबा. निरंजन ने ढाबे पर ही ज्वाइन कर कियाथा मुझे .‘तुम स्त्रीवादी आंदोलनों और विचारों पर पूर्वग्रही वातावरण निर्मित कर रहे हो  न.‘तो क्या करूं ! स्त्रियों को,विदूषी स्त्रियों को,सरेआम गाली देने वाले मर्दवादी अहंकार को तुष्ट करती स्त्रीवादियों को देखनेकी त्रासदी के बाद मैं क्या कर सकता हूं,यह पूर्वग्रह नहीं,तटस्थ आक्रोश है.’‘तुम्हारा आक्रोश स्त्रियों की टी.ए.डीए पर क्यों है?इसलिए की अब वे पुरुषों की बराबरी पर अकादमिक गतिविधियों में शामिल हैं.’‘जी नहीं,पुरुषों के साथ निर्लज्ज बराबरी पर मेरा आक्रोश है,स्त्रीवादी आंदोलन पितृसत्ताके संस्कारों के खिलाफ था,उसके अनुरूप हो जाने के लिए नहीं था.’मैंने बातचीत को वहीं खत्म कर वापस लौटना उचितसमझा.आपको भी लग रहा होगा कि कहानी के बीच यह अवांतर प्रसंग क्यों?लेकिन मैं ढाबे पर चलीआयी,तो उसकी प्रकृति के अनुरूप कुछ बातें आपको शेयर करनीजरूरी समझा मैंने.वैसे ऑटो सेरोहिताश्व के साथ दीदी के घर की ओर लौटते हुए मैं पूरी कहानी बता ही दूंगी आपको.हम घंटो चुप्प,हाथों में हाथ लेकर एक दूसरे को देखते हुए समय में डूबे रह सकते हैं.इस बीच रोहित को धोखा देकर मैं अपनी दीदी की कहानी पर लौट आती हूं:हां तो पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देकर दीदी जयप्रकाश जी के नेतृत्व में आंदोलनों में और अधिक सक्रिय हो गयी.1975में भारत के महिला प्रधानमंत्री ने इमरजेंसी थोपी,संयुक्त राष्ट्र संघ ने उस वर्ष को‘महिला वर्ष’के रूप में घोषित किया, 8मार्च को‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’बनाने की औपचारिक नींव पड़ी और'टुवार्डस इक्वलिटी रिपोर्ट'के साथ भारतीय महिला आंदोलन ने अपना चार्टर पेश किया.दीदी छात्र-आंदोलन के दौरान नया जोश,नयी ताजगी से रू-ब-रू हो रही थीं.राजनीतिक लक्ष्य के साथ सामाजिक परिवर्तनों की भी हलचल थी.‘स्त्री-पुरुष संबंधों,अंतरजातीय,अंतर धार्मिक रिश्तों के नए-नए प्रयोग प्रोत्साहित हो रहे थे.दीदी को संबंधों के इन प्रयोगों को देखकर  सुकून महसूस होता- उनके बाद की पीढ़ी भी सक्रिय हो चुकी थी.समय के उसी टुकड़े पर एक जोड़ी नयी आंखों में दीदी को अपने लिए सरहाना के भाव दिखे.वे आंखेंउनकी आंखों में उतरने के लिए आतुर थीं.तेज-तर्रार कार्यकर्ता था वह,प्रखर वक्ता.दीदी के बाद की पीढीका नवयुवक.जे.पी. पर चली लाठियों के बीच-बचाव में कुछ नाम सुर्खियों में आ गए कुछ गुमनामरहे- वह भी उन गुमनाम नामों में से था.इमरजेंसी के बाद‘मीसा'के तहतदीदी  जिस जेल में रखी गयी थीं उसी के पुरुष कार्ड में उसे भी रखा गया था.इमरजेंसी के बाद केंद्र और राज्य,दोनों जगह की सरकारेंबदल गयी थीं.दीदी भी चुनकर बिहार विधानसभा पहुंची.बिहार विधानसभा की‘तार केश्वरी सिन्हा.’लेकिन नेहरू के साथ ही राजनीति का नेहरू युग समाप्त हो चुका था,नेहरू मॉडल का सौंदर्य बोध भी.उन्हीं दिनों मुख्यमंत्री पर किसी महिला नेताने बलात्कार के आरोप लगाए.दीदी ने भी अपने प्रति कई-कई निगाहों में आक्रामकता देखी थी.कई अप्रिय घटनाओं और संवादों से रू-ब-रू हुई थीं.युवा नेता से उनकी दोस्ती किस्से और अफवाहों की शक्ल में सत्ता की गलियों में घूमती.नेताओं केफिकरे हवा में तैरतें, 'जो बात जबान हड्डियों में है,उससे कम इन शुद्ध घीवाली बूढ़ी हड्डियों में नहीं है.'दीदी इन सारे संवादों का प्रत्युतर शालीन मुस्कान से देती.और जरूरत पड़ी तो कठोर दर्प से भी.एक मंत्री की लम्पटता की खबर आलाकमान तक पहुंची -मामला दबा दिया गया.उन दिनों किसी भी अप्रिय घटना के बाद संदेह की पहली सूई‘स्त्री’पर ही जाती थी और यदि स्त्री सार्वजनिक जीवन में हो,सुंदर हो,रिश्तों के प्रति सहज हो,कई-कई अफवाहों,किस्सों की नायिका हो तब तो लंपट पुरुषों कोक्लीन चिट मिलना हीथा,उसेप्रलोभन के बाद सामान्यउच्छृंखलताके खाते में डाल दिया जाना आम बात थी.उन दिनों दीदी को लगने लगा था कि क्यों नहीं  विदेशों में बसे पति से तलाक लेकर‘युवा मित्र से संबंधों को रिश्ते में बदल दिया जाए! लेकिन ऐसे विचार कुछ पल ही टिकते,किसी नई सीमा में बंधने की उनकी इच्छा नहीं थी- फिर बेटे का ख्याल भी उन्हें ऐसा करने से रोकता.नयी सरकार भी जाती रही,पुरानी नए अवतार में बहाल हुई- गरीबी हटाओ के बीस सूत्री कार्यक्रम के साथ.दीदी दुबारा चुनी हुई विधायक के तौर पर किसी राजनीतिक मसले पर मुलाकात के लिए रायसीना हिल्स पर कहीं किसी अतिथि कक्ष में तशरीफ ले गयीं.अतिथि कक्ष से उन्हें निजी कक्ष में चले आने का आमंत्रण मिला.उन्होंने अपने को खुशकिस्मत माना कि कई मुलाकातियों के बीच न मिलकर‘विशिष्ट’ने उन्हें‘अतिविशिष्ट’का दर्जा दिया.निजी कक्ष की कुर्सी पर बैठे बुजुर्ग ने उनका स्वागत किया.सुबह का समय और काफी...पल भर के लिए वह बुजुर्ग या उनकी छाया हिली.पलभर में ही निजी कक्ष का दरवाजा बंद हो गया.सब कुछ पल भर में घटा,दीदी कुर्सी से पलंग पर,बुजुर्ग की हॉफती-कॉपती छाया बगल में बुदबुदारहा था, ‘क्या यहसब पहले से तय नहीं था?’ ‘तुम्हें बताया नहीं गया था?’ 'मैने सुन रखा था कि तुम उन्मुक्त ख्यालों की आजाद स्त्री हो.'दीदी उस कॉपती बुदबुदाती छाया को वहीं छोड़कर बाहर आयीं- उन पलों को वे भुला देना चाहती थीं,सर्वोच्च के सम्माने में,अपने से भी छिपा लेना चाहती थीं.‘बिहार निवास’जैसे किसी निवास में युवा नेता उनका इंतजार कर रहा था.उन पलों को गहरे रहस्य लोक में डालकर दीदी सहज थीं.दोनों घूमने निकले.घंटो घूमते रहे-शॉपिंग करते रहे.लाल किला में लॉन पर बैठे-बैठे दीदी अचानक से सुबुकने लगीं.उसे कारण समझने में नहीं आया,शायद बेटे की याद,शायद पति की कोई तीखी बात शायद ..... उसके उनके चेहरे को हथलियों में भर लिया.दीदी उसके कंधे पर सिर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी.जी हल्का हुआ,लाख पूछने पर भी रहस्य लोक का दरवाजा नहीं खुला.दीदी एक नए निश्चय पर पहुंच रहीं थीं,राजनीति से अलविदा करने के निश्चय पर कि एक और घटना घटी,वहीं उसी निवास में निजी क्षणों में.दीदी ने नए साथी,युवा मित्र कोभी राजनीति के साथ हीछोड़ने का निश्चय लिया.घटना केकेंद्र में एक वाक्य था,फुसफुसाहट में निकला वाक्य,जो दीदी के कानों,मन और पूरी चेतना पर गूंज गया.वह‘चरम क्षणों’के दौरान फुसफुसाया था....‘तुम्हारे स्तन थोड़े और बड़े होने चाहिए थे’कई वर्ष लगा दिए थे उसने उन्हें ऐसा कहने में.दीदी केकानों में वाक्य गूंजा,उनकी आंखें उसके चेहरे पर जम गयीं- दीदी के विचारों में कौंध गई‘देह’.‘स्त्री देह’.तब से दीदी ने अपना निजी संसार बना लिया और पीछे छूट गयीं अफवाहें...उनके साथ जुड़ी कहानियां.....सभाओं-गोष्ठियों-पार्टियों और‘रस रंजन’कार्यक्रमों में बुनी जाने वाली फंतासियां.वे अपनी शर्तों और विचारों के साथ समय के कई-कई टुकड़ों में उपस्थित रहने लगीं.31अक्टूबर1984के कुछ दिनों पहले से ही सक्रिय राजनीति छोड़ चुकी दीदी दिल्ली के इसी मकान में शिफ्ट हो गयी थीं,जहां डायनिंग टेबल पर उन्होंने अंतिम सांसें ली- महा प्रस्थान को प्रस्थित हुईं.दिल्ली के इसी घर में रहते हुए पेड़ के गिरने के बाद कांपती धरती उन्होंने देखी:हत्याएं,खून,पड़ोसियों में खौफ,अविश्वास यह सब क्रिया की प्रतिक्रिया वाले खौफ,अविश्वास कत्लेआम से लगभग दो दशक पूर्व की तस्वीर है.तब से दिल्ली और दिल्ली के बाहर राजनीतिक-अराजनीतिक आंदोलनों ने,साहित्यिक-सांस्कृतिक-गोष्ठियों-आयोजनों ने उनकी सक्रिय उपस्थिति देखीऔर असहमतियों के बाद उनका वहाँ सेरूखसकत होना महसूस किया है.दीदी केनए‘निजी संसार’में सौंदर्यबोध,सुरूचिता और विचारों के प्रति साफगोई थी.स्त्री होने का बोध कराती अनेक घटनाओं-दुर्घटनाओं को झेल चुकी दीदी तब भी पुरुषों के बीच ज्यादा सहज और उनकी अच्छी दोस्त थीं.स्त्री-आंदोलनों में पुरुषों की आक्रामकता,यौन-कुंठाओं पर तीखे प्रहार की भूमिकाओं में,पुरुष साथियों के साथ वैचारिक बहसों मेंऔर निजी संबंधों में भीवे एक समान सहज थीं.उन दिनों जब,स्त्री आंदोलनों में शिथिलता आनेलगी थी,अकादमिक संभ्रांतता हावी होने लगी थी,दीदी  स्त्री आंदोलनकारियों के जाति और वर्ग दंभ देखकर आश्चर्यचकित थीं,भयभीत थीं.दलित स्त्रियों के सवाल पर आंदोलनकारियों के बीच असहजता उत्पन्न होती,आपसी फुसफुसाहटें तेज हो जातीं,जोगांवों की ड्योढ़ियों में बैठी‘संभ्रांत स्त्रियों’से कतई भिन्न नहीं होती.आज मथुरा को खोजता महाराष्ट्र से वापस लौटे निरंजन नेजिन स्त्रीवादी समूहों को बोधि-वृक्ष के प्रतीक को एक ऐसे हाथ में सौंपते देखा था,जो सवर्ण मर्दवादी गर्व से चूर स्त्रियों को गाली दे रहा था,उनस्त्रीवादी समूहों की शिनाख्तदीदी ने तब कर ली थी.अपने महाप्रस्थान के पूर्व के कुछ वर्षों में उन्होंने एकांत स्वप्न संसार बना दिया था.उनके स्वप्न का प्रति संसार उनके अनुभवों,उनकी यात्राओं,उनकी सक्रियता से बनाप्रति संसार था.वहीं से प्रेरित होकर वे आजीवन सक्रिय थीं,बिना थके,बिना रूके...उनके स्वप्न संसार में अपनी कामनाओं,अपनी इच्छाओं को जीती सुंदर स्त्री का साम्राज्य था,जिसका पुरुष सहचर उसकी दैहिक उपस्थिति के प्रति अभिभूत और मानसिक लोक का हमसफर था.वे मुझे रोहित के प्रति प्रेरित करतीं :‘रोहित तुमसे प्रेम करताहै.तुम्हारे मानसिक,बौद्धिक अस्तित्व से प्रेम करता है,वरना तुमजैसी सौंदर्यबोध रहित स्त्री की ओर कोई क्यों देखें?’मैं उनके इस कटु चुहलबजी या सत्य पर कोई प्रत्युत्तर नहीं देती.‘तुम दोनों ने अब तक नहीं जाना है कि अभिसार क्या होता है.मैं तुम्हारी जगह होती तो रोहित के प्रति सर्वस्व समर्पित होती-‘सर्वस्व समर्पण ही तो अभिसार है- वरना दैहिक खेल,या देह-विनिमय..'‘पता नहीं तुम नई लड़कियों को क्या चाहिए! मैं आज भी अपने भाई के दोस्त,कॉमरेड,पति,पाठक जी,और‘युवा-साथी’-सबमें से थोड़ा-थोड़ हासिल कर अपने जीवन को एक पूर्ण पुरुष साथी के साथ समर्पित पाती हूं,तभी मुझे अपने ऊपर किसी बलात्कार,अफवाह या फिकरों का कोई अफसोस नहीं,बदलेकाभाव नहीं है.’तो कल  रोहित के साथ मुझे अपने घर भेजनेके पहले जब वे मेरे साथ मंडी हाउस में काफी पी रहीथीं,तभी हमारी टेबल के सामने बैठा एक युवक उन्हें लगातार देख रहा था, 30-35साल का फोटोग्राफर- मानो उनकी आंखों में उतरकर उनकी फोटोग्राफी करना चाह रहा था.हमने जब दूसरे कम कॉफी का ऑर्डर दिया तो वह हमारी टेबल पर‘एक रूप’और कहता हुआ आ धमका.‘मुझे माफ करेंगी मैं काफी देर से एक बात कहना चाह रहा था आपको.’दीदी ने मुसकुराकर उसका स्वागत किया.‘आप बहुत खूबसूरत है.’क्या मैं आपकी तस्वीर ले सकता हूं.दीदी फिर मुसकुराई.....‘आपकी आंखें लाजबाव है...वहां अपूर्व शीतलता है......सही,मैंने वहां पूरी तरह झांककर देखा.’दीदी उसकी आंखोंमेंउतर गईं,मैं अपने आपको उनके बीच से अनुपस्थित पा रही थी.‘क्या मैं आपकी बंद आंखों को चूम सकता हूं.’यह तो धृष्टता की हद थी.दीदी मुसकुरायी,उनकी आंखों में चमक और आत्मविश्वास तैर रहा था,तो क्या तुम तस्वीरेंभीलोगे और मेरी आंखों की शीतलता भी सोखना चाहोगे.’युवा फोटोग्राफर के चेहरे पर एक लालिमा दौड़ी,दीदी के चेहरे पर लज्जामिश्रित तृप्ति......और उस रात को महाप्रस्थान के पूर्व  उस युवा फोटोग्राफर के साथ मंडी हाउस में काफी देर तक घूमती रहीं वे,इंडिया गेट पर काफी देर बैठी रहीं,गप्पे करती रहीं,प्रेस क्लब जाने का ख्याल ही नहीं आया उन्हें.और हां,वहां अपने घर पर आने के लिए ऑटो लेने केपूर्व उन्होंने अपनी आंखें बंद की थी,जिस पर फोटोग्राफर का मीठा चुम्बन लेकर वे,यानी मीनाक्षी,यानी शीताक्षी,ऑटो पर बैठी,फिर डायनिंग टेबल पर और फिर............_


प्रतिक्रियाएँ
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[25/02 19:29] ‪+91 99313 45882‬: संजीव चन्दन जी की कहानी ' वो आखिरी चुम्बन ' बहुत धैर्यपूर्वक पढ़ा ! कहानी पढ़ते हुए लगा वरिष्ट लेखिका रमणिका गुप्ता जी की आत्मकथा " आपहुदरी " पढ़ रहा हूँ ! सारे घटनाक्रम मिलते-जुलते ! वही 1962 , वही मुख्यमंत्री के.बी सहाय , वही कमरे का दरवाजा बंद कर लेनेवाला नेता तत्कालीन कांग्रेस राज्याध्यक्ष राजा मिश्र , वही नायिका के सामने नंग-धरंग हो जाने वाला देश का भावी राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी , बिहार-भवन में नायिका से यौन-सुख पानेवाला युवा नेता , वही धनवाद का कोलियरी , खदान-मजदूरों और ट्रेड-यूनियनों की राजनीति , वही नायिका की राजनीति में सक्रियता , वही उनका विधायक बनना , वही धनबाद का नायिका पर फ़िदा होनेवाला कवि-अधिकारी और उससे नायिका की नजदीकी , वगैरह-वगैरह !
कुल मिलाकर एक सच्ची कहानी को बेहद खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है संजीव जी ने ! एक खूबसूरत महिला राजनितिक कार्यकर्ता की कहानी है यह जो बताती है कि राजनीति में एक महिला को क्या-क्या झेलना पड़ता है ! और अगर वह महिला खुद पढ़ी-लिखी मनोविज्ञान की ज्ञाता हो और साथ ही अपना निर्णय खुद लेनेवाली हो , पति से खिची-खिंची रहती हो , दैहिक संबंधों के प्रति अपने हिसाब से थोड़ी उदार हो तो कहानी और भी रोचक हो जाती है !
एक अच्छी कहानी के लिए संजीव जी को बहुत बहुत बधाई और एडमिन को भी बधाई कहानी पढ़वाने के लिए !

🙏
आपने इस कहानी को अच्छी कहानी की श्रेणी में रखा ।कहानी के अंत में आखिरी चुम्बन को आप नायिका के अंतर्मन के भाव  को किस तरह लेते है ।

🙏
[25/02 21:20] Jaishree Rai: इस कहानी पर कोई प्रतिक्रिया देने की मुझमें योग्यता नहीँ। 🙏🏻😊🌹

[25/02 22:27] राजेश झरपुरे जी: सही कहा  जयश्रीजी । आपसे पूर्णतः सहमत हूं  । वास्तव में यह इतनी अद्भुत कहानी  हैं  कि मुझ जैसा  सामान्य  पाठक इस कहानी  की किसी भी तरह से कोई विवेचना नहीं  कर सकता । फिर भी जो समझ सका उसे साझा कर रहा हूँ,,,,
[25/02 22:27] राजेश झरपुरे जी: सब कुछ देह से शुरू हुआ था, पूरे होश-हवाश में, वैचारिक तौर पर ‘देह’ की सत्ता को निर्विवाद और आवश्यक मानते हुए, लेकिन एक औरत के लिए देह से शुरू होकर देह तक टिके रहना संभव नहीं होता,,,,
 यह कहानी  एक समय और  प्रान्त विशेष की एक  महिला  विशेष की सच्ची  कहानी  है । कथा में एक नाम का भी उल्लेख  है - तारकेश्वरी सिन्हा ।कोयला खान में  श्रमिकों का आन्दोलन हो या सत्ता के मंच के जन आंदोलन में सक्रिय रहने वाली महिलाओं की राजनैतिक यात्रा, देह से ही शुरू होती है और देह पर ही खत्म हो जाती है । इससे भला राजनीति  की सामान्य समझ रखने वाला भी इंकार नहीं कर पायेगा । हाँ! यदि वह बलात्कार का सामान करती है तो बलात्कार  करती भी है । ट्रेड यूनियन लीडर व्दारा किया गया बलात्कार और बलात भोगे जिस्म का  अपनी कम उम्र के युवा लीडर के साथ प्रेम प्रसंग उसके व्दारा युवा के साथ किया गया बलात्कार ही हो सकता है । राजनैतिक जीवन में पितृसतात्मक  मानसिकता स्त्री की उपस्थिति  को कहां स्वीकारती है।

भाई शेखर सामंत से सहमति के साथ यह अपने समय और समाज से रूबरू कराती एक सच्ची कहानी । जितना खूबसूरत  कहानी  का प्रारम्भ  है उतना ही अच्छा  अन्त भी ।

आरंभ

इसे मौत कह कर उनके मरने की इस अदा का अपमान नहीं किया जा सकता.वे प्रस्थान कर गई एक दूसरीभूमिका की ओर.... महाप्रयाण.......!
यह महाप्रयाण है,पुरुष- आरक्षित मोक्ष नहीं.
क्या कोई अपनीमौत को भी इतना उत्सवपूर्ण बना सकता है ! यह तो एक दूसरी यात्रा की शुरुआत के पूर्व का ही उत्सव हो सकता था !! वे महाप्रयाण कर गई.............

और अंत

अपने घर पर आने के लिए ऑटो लेने के पूर्व उन्होंने अपनी आंखें बंद की थी,जिस पर फोटोग्राफर का मीठा चुम्बन लेकर वे,यानी मीनाक्षी,यानी शीताक्षी,ऑटो पर बैठी,फिर डायनिंग टेबल पर और फिर.........

इस कहानी  पर मोक्ष,  विप्रयाण और महाप्रयाण जैसे मुद्दों पर भी चर्चा  हो सकती है,,,?

अद्भुत ।
 एक बेहतरीन  कहानी  मंच पर प्रस्तुत करने के लिए प्रवेशजी का शुक्रिया ।

[26/02 02:39] Sanjiv Chandan: आज दिन भर पत्रिका के काम में व्यस्त रहा और कल भी रहूंगा. ग्रूप के ऐडमिन को बहुत- बहुत धन्यवाद मेरी कहानी यहां लेने के लिए. प्रतिक्रियायें पढ़ रहा हूं, मैं अब कहानी कला की कक्षायें लेने से रहा भला.
कुछ ही घटिया- या बढ़िया कहानियां लिखी है मैंने. दो कहानियां ताजा घटनाओं और जीवित चरित्र पर लिखने की कोशिश भी. उनमें से एक कहानी है यह, जो न तो जीवनी है, न आत्मकथा, न संस्मरण. कहानी समय के जिस कैनवास पर लिखी गई है , वह भरपूर मौजूद है- चूकि सामाजिक- राजनीतिक सक्रियता की प्रोटोगनिस्ट है इसलिए तत्समय  समय की राजनीति कहानी की धूरि में है. यथार्थ उतना ही है, जितना रमणिका जी की आत्मकथा से उल्लिखित है, लेकिन सबकुछ न उनकी आत्मकथा में दर्ज है और न उनके जीवन में घटित. इसकी नायिका वही हैं, इसकी नायिका उनसे निकल कर अलग आकार भी लेती है.
शेष उन महान कथाकारों से माफी चाहूंगा, जिनके सामर्थ्य के बाहर चली गई है यह कहानी. वैसे मैं खुद भी इसके कहानी होने के प्रति सशंकित हू़ 😄
पता नहीं यह कहानी अश्लील कहां हो गई. मुझे फिर तो हिन्दी साहित्य की कई कहानियों को ' कोक शास्त्र' की तरह छिपाना पड़ जायेगा. अपनी कुछ कहानियों को भी, जिन्हें पाठकों ने सराहा है और आलोचकों ने भी .

[26/02 06:22] Sandhya: विशुद्ध राजनीति बरास्ता मीनाक्षी उर्फ़ शीताक्षी ...स्त्री राजनीति के केंद्र में लिखी गयी कहानी सिर्फ देह तक सीमित लगी मीनाक्षी का दुःख या सुख केवल आंसूओं के माध्यम से दिखा उसकी मानसिक रूप से समृद्धि समक्ष है फिर भी उसका ऊहापोह या द्वंद्व नज़र ना आया जो इस कहानी को  और समृद्ध बनाता राजनीती में स्त्री की स्तिथि को दिखाती कहानी 💥

[26/02 07:28] shivani sharma Ajmer: नमस्कार 🙏🏼 अश्लीलता शब्द पर आपत्ति हुई है ,मैं क्षमा चाहते हुए शब्द वापस लेती हूं। वयस्क कहानी कह सकती हूं?
पिछली कुछ कहानियां जो कि audio form में भी थीं ,मेरा बेटा जोकि अभी कक्षा 8वीं में है,मेरे साथ सुनता पढ़ता रहा है। तब से हर कहानी उसे पढ़कर सुनाती आ रही हूं। उस दृष्टि से मुझे कहानी वयस्क लगी बस। 😊 😊
[26/02 08:57] Saksena Madhu: सुप्रभात ... शेखर जी कहानी खतरनाक नहीं स्तब्ध करने वाली है ।राजनीति के खेल का एक हिस्सा ।बात करना तो ज़रूरी है ।
[26/02 09:21] ‪+91 99313 45882‬: मुझे तो यह कहानी बेहद सहज, सरल और कहानीपन से भरपूर लगती है ! न तो यह अश्लील है , न स्तब्ध करनेवाली और न ही खतरनाक ! लेकिन जिन मित्रों को लगती है उन्हें अपना तर्क रखना चाहिए !
तर्क-वितर्क से ही साहित्य का विकास होता है !
[26/02 11:46] Sandhya: कहानी अच्छी लगी  नायिका की छोटी बहन कह  रही है लेकिन उसके मन की थाह का पता नहीं चल रहा ।
[26/02 12:07] Sandhya: साथ ही नायिका का चरित्र इस हिसाब से दृढ़ है कि ,कहीं कोई अपराध बोध नहीं है । इसे दृढ़ता कहने से कुवृति को बढ़ावा नहीं है परिदृश्य राजनीति का है ।
[26/02 12:07] Sandhya: कहानी पूरी तरह पितृसत्तात्मक विचार को पोषित करती लगी ।
[26/02 12:11] Pravesh: जी संध्या ,कहानी के आधारित बिंदु ही यही है ।राजनीती जेसे विस्तृत पटल पर  भी एक स्त्री मात्र स्त्री देह ही  समझी जाती है ।
धन्यवाद
[26/02 12:52] ‪+91 99313 45882‬: यौन-विमर्श क्या सिर्फ पितृसत्ता का विमर्श है , मातृसत्ता का नहीं ?
और यौन-चाहना क्या सिर्फ पुरुष-वर्ग की चाहना है , स्त्री-वर्ग की नहीं ?

यह एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर दिया जाना चाहिए !
आदरणीय संध्या जी🙏🙏
[26/02 12:57] Saksena Madhu: शेखर जी  आपने सही कहा .. पर राजनीति और साजिश की बिछात पर परस्पर सहमति नहीं ... तो उत्पीड़न ही है ।
[26/02 13:08] ‪+91 99313 45882‬: उत्पीड़न तो वहाँ होगा जहाँ नायिका के साथ जोर-जबरदस्ती होगी !
लेकिन जहाँ नायिका की भी सहमति होगी , चाहे जिस रूप में , उसे उत्पीड़न कैसे कहा जा सकता है ?
इस कथा की नायिका के साथ यही बात है🙏🙏🙏

[26/02 14:40] ‪+91 94257 11784‬: श्री संजीव चंदन जी की कहानी,  वह आखिरी चुम्बन मीनाक्षी/शीताक्षी के अनेक प्रेम बासना प्रसंगों का खूबसूरत चित्रांकन है ।पंरी कहानी में अश्लीलता  की हल्की हल्की गंध व्याप्त है ।यदि उसे अश्लीलता न भी मानें तो भी उसे, शिवानी शर्मा जी के शब्दों में वयस्क कहानी तो कहा ही जा सकता है। उसमें जब कोई किशोर मीनाक्षी के यौन प्रसंगों से गुजरता हुआ उसके युवा प्रेमी के शब्दों को पढेगा--तुम्हारे स्तन थोडे और बडे होने चाहिए थे,  तब पता नहीं वह  कैसा अनुभव करे !
 मीनाक्षी मुक्त मन महिला हैं।वह इन सारे प्रसंगों के प्रति संतोष ही व्यक्त करती प्रतीत होती है ।जैसे वह कहती है , आज अपने भाई के दोस्त,कामरेड,, पति , पाठक जी, युवा साथी-साथी-सबमे' थोडा थोडा हासिलकर अपने जीवन को एक पूर्ण पुरुष साथी के साथ समर्पित पाती हूँ । उसका यह कथन एक प्रकार से मुक्त रौन संबंधों का समर्थन ही है ।
  कहानी में मीनाक्षी की सहेली उनके प्रति प्रशंसा भाव से भरी हुई है ।वह उसकी मृत्यु के लिये महाप्रायाण शब्द का प्रयोग करती है और आशा करती है कि शंकराचार्य,कर्मकांडों के मकडजाल में फंसे पुरोहितनुमा....आस्तिक ढोंगी को छोडकर सभी ऐसा ही मानेंगे ।इतना ही नहीं मीनाक्षी के अंतिम संस्कार के समय नीगमबोध पर वह चहती है ...देवमूर्ति की तरह नहलाया उन्हें ।
 इस प्रकार यह कहानी स्त्री विमर्श और नेरी देह की स्वायत्तता को  लेचर लिखी जाजानेवाली एक महत्वपूर्ण कहानी है ।उसमें कथाकार श्री संजीव चंदन के खुले सोच और उनकी अद्भुत सृजन प्रतिभा के दर्शन होते हैं ।एतदर्थ उनका अभिनंदन ।भाई राजेश झरपुरेजी, मधुजी एवं प्रवेश जी को बहुत बहुत धन्यवाद ।

[26/02 18:19] Niranjan Shotriy sir: कहानी के रूप में यह एक अच्छा कोलाज है। एक महत्वपूर्ण सम्मिश्र जो हमारे समय, समाज, राजनीति की जटिलताओं, मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अंतर्द्वद्व को प्रभावी रूप से अभिव्यक्त करता है। लेखक की प्रतिभा असंदिग्ध है। उसने एक "प्रबुद्ध लेकिन तब भी केवल स्त्री" की अवधारणा को अद्भुत शैली में उठाया है। निश्चय ही जब मसला स्त्री देह का हो तो "तुम्हारे स्तन कुछ और बड़े..." जैसे वाक्य इस कहानी को एक कलात्मक क्लाइमेक्स तक ले जाते हैं। कई राजनीतिक घटनाओं का वर्णन तत्कालीन विसंगतियों को उजागर करने के लिए किया गया है। इसे पढ़ने के लिए कायांतरण के साथ समयान्तरण के बोध को भी जागृत करना होगा। दरअसल इस तरह की कहानियाँ हमारी रूढ़ और अभ्यस्त पाठकीय अभिरुचि के लिए भी चुनौती होती हैं। बहुत शानदार कहानी। बधाई संजीव जी। बधाई प्रवेश जी।

[26/02 18:41] ‪+91 94310 49640‬: श्री संजीव चंदन जी की कहानी आज पढ़ी मैंने। पहली बार में कुछ समझ नहीं आया। अपनी समझदानी पे तरस आया। दूसरी बार थोडा concentrate कर के पढ़ा। कुछ हिस्सा ही घुस पाया दिमाग में।हार कर तीसरी बार पढने की कोशिश की। पर इस बार भी वही हश्र। ये ऎसी कहानी है जिस में जैसे जैसे आगे पढ़ता गया पीछे का कुछ भी साथ नहीं चल पाया। जिस कहानी में तथ्य खुद ब खुद लिपटते हुए आगे आठ नहीं चलते वो धीरे धीरे उबाऊ होती जाती है। कुछ ऐसा ही इस कहानी के साथ है। आगे पढ़ते जाने की उत्सुकता कहीं भी उत्पन्न होती नहीं दिखी। जितना पढ़ा और समझा उस से इस निष्कर्ष पे पहुंचा कि अगर कहानियों को किसी सेंसरशिप से गुजरना पड़ता तो नि:संदेह इसे "A" सर्टिफिकेट से नवाजा जाता।न जाने किन तथ्यों पर इसे कहानी, अच्छी कहानी या बेहतरीन कहानी कहा जा रहा है। जिस कहानी में आगे पढ़ते जाने का कौतुहल न हो और अंत में जिस से कोई सन्देश न निकले तो वो और कुछ हो सकती है कहानी नहीं हो सकती। एडमिन त्रोय से विनम्र निवेदन है कि सोम से शुक्र के बीच कोई एक दिन निश्चित कर लें जिस दिन इस तरह की वयस्क कहानी या classic porn story की प्रस्तुति होने की पूर्व सूचना सब को हो और किसी का बेवजह वक्त न बर्बाद हो।

[26/02 18:49] Saksena Madhu: राज  रंजन .. राजनीति का काला पक्ष उजागर करती कहानी है हे ये .... यहां पर सब वयस्क हैं ।कुछ बातें पात्र के चरित्र को उकेरने के लिए उसके मुंह से कहलवाई  जाती है । मुझे भी लगा की कहानी कहीं कही टूटती है ।अचानक विषय परिवर्तन पाठक की एकाग्रता में विध्न डालता है फिर भी कहानी अपनी छाप छोड़ती है और यूं लगता है कहानी सच्ची है । आप  कहानी पर अपनी राय बेहिचक दें । आभार भाई
[26/02 19:35] Sandhya: केवल उम्र में पुरुष का छोटा होना और फिर दोनों की सहमति होने से सम्बन्ध बनाने पर इसे बलात्कार की श्रेणी में किस तरह रख सकते हैं राजेश जी ?नायिका कोइ बलप्रयोग नहीं कर रही है 💥

[26/02 19:52] Niranjan Shotriy sir: राज रंजन जी, जैसा कि मैंने अभी कहा यह हमारी अभ्यस्त पाठकीय रूचि को चुनौती देती कहानी है, तो हमें बार-बार,कई बार, भिन्न कोणों से, भिन्न दृष्टियों से किसी रचना के पास जाना होता है। यदि कोई व्यक्ति/पाठक वहाँ तक नहीं पहुँच पा रहा है तो यह पाठक की समस्या है, लेखक की नहीं। हर बार सम्प्रेषणीयता के नाम पर आपको गुलाब जामुन नहीं परोसे जायेंगे कि आप मुंह खोलें और निगल लें। एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व पाठक पर भी होता है। यहाँ हम जिसे "पाठक" कह कर संबोधित कर रहे हैं वह दरअसल "सहृदय पाठक" जिसके गुण-धर्मों की विवेचना यहाँ ज़रूरी नहीं क्योंकि सभी सहृदय और प्रबुद्ध हैं।

[26/02 20:01] Sandhya: शेखर जी पितृ सत्ता केवल इस दृष्टि से कहा कि ,वहां भी स्त्री द्वित्तीयक स्थान ही पा रही है ,यौन चाहना तो दोनों वर्ग की चाहना है  बेशक 💥

[26/02 20:35] Sanjiv Chandan: सच में व्यस्त हूं, मैगजीन प्रेस जा रही है और ऊपर से संसद में महिषासुर की बहस ,  दरअसल मैं जिस पत्रिका से जुड़ा हूं, उसी पत्रिका ने महिषासुर विमर्श को सेंटर में लाया था, इसलिए कुछ लोगों और प्रेस को रिसोर्स उपलब्ध करवाने में हम भी सक्रिय हैं . २०१४ में पत्रिका पर मुकदमा भी हुआ था, जिसमें मेरे एक लेख का भी हवाला है, इसलिए भी...
खैर , यहां टिप्पणियां देखकर मैं बस इतना ही जोड़ना चाहूंगा कि घटित और ज्ञात यथार्थ पर मैंने विधा के तौर पर कहानी ही चुनी थी, रिपोर्ताज, संस्मरण या लेख नहीं. सुधी पाठक फतवा देने की जगह कहानी के कुछ तत्व बता जाते , जो छूटे यहां . मेरा दावा महानतम कहानी का भी नहीं है, लेकिन यह जोखिम लिया है मैंने, एक और कहानी में भी लिया है, ज्ञात घटनायें, भंवरी देवी, मथुरा,  हरियाणा की भंवरी , खैरलांजी , जिसकी हर घटना रिपोर्ट के रूप में सामने है , सबको पता है, फिर  भी कहानी ... इस कहानी के प्रेम और कई घटनायें रमणिका जी के हादसे में व्यक्त हैं. हमारे समय की लिजेंड स्त्री का व्यक्त यथार्थ, लेकिन इन वर्षों में इस तरह सक्रिय स्त्री के और भी यथार्थ है, जिसे कहानी समझती- समझाती है, शेष , बलात्कार , न बलात्कार , सहमति , उत्पीड़न पर मैं कुछ नहीं कहूंगा , क्योंकि जो कहना था , कहानी में है ..... अच्छा लगा कि निरंजन श्रोत्रिय जी और अन्य लोगों को कहानी अच्छी लगी. पहली बार यहीं मुझे कहानी में अपाठकीयता की आलोचना झेलनी पड़ी है, अन्यथा समालोचन में और युद्धरत आम आदमी में प्रकाशन के बाद पाठकों को इसका कैनवास और घटते यथार्थ के प्रति उत्सुकता ही इसकी विशेष ता लगी थी.
यह भी कम हास्यास्पद नहीं है रि कहानीकार को पाठकों के न्यायालय में कहानी का वकील बनकर उपस्थित होना पड़ रहा है . इसलिए माननीय न्यायाधीशों से मैं अपनी कहानी वापस लेने की गुजारिश करता हूं . 😜

[26/02 20:49] Rajnarayan Bohare: संजीव जी सही कहा प्रवेश ने।
यार आप तो अपनी कहानी के खुद ही बाकायदा बिलकुल वकील बन गए।
सब सुनो।मज़ा लो।रैफरी बन के देखिये।
एक नया प्रयोग किया आपने। सचाई के ढांचे पर कल्पना की पर्त चढ़ाई है।दरअसल उपन्यास या लम्बी कहानी का कथ्य है ये तो संक्षिप्त करने में यह सब होगा ही।

[26/02 22:28] Rajesh Jharpare: विलम्ब से चर्चा में शामिल होने के लिए  खेद है मित्रो ।  संजीव चंदन की कहानी लम्बी होने के कारण कल विमर्श में सभी भाग नहीं ले सके थे । आज सभी ने अपनी बेबाक राय दी ।
 भाई राज रंजन जी मंच पर पाठकों की सहमति के साथ उनकी असहमति भी उतना ही महत्वपूर्ण रखती है जितना सहमति । मंच पर आपकी प्रतिक्रियायों का तो सदैव इंतजार रहता है ।


राजनैतिक परिपेक्ष में एक स्त्री के अन्तर्व्दन्व्द को जिस तरह कहानी में दिखाया गया है वास्तव  उसे महसूस करने के लिए कायांतरण के साथ समयान्तरण की समझ को विकसित किया जाना जरूरी है ।

रचना  ग्रोवरजी  वास्तव यह अद्भुत कथा है यह  मैंने अपनी पाठकीय समझ के अनुसार अपनी राय बनाई हैं। आप अपने पाठ और मंच पर विमर्श के अनुसार अपनी राय बना सकती है ।

भाई शेखर सामंतजी विमर्श के दौरान आपने एक अच्छा मुद्दा उठाया.....

" उत्पीड़न तो वहाँ होगा जहाँ नायिका के साथ जोर-जबरदस्ती होगी !
लेकिन जहाँ नायिका की भी सहमति होगी , चाहे जिस रूप में , उसे उत्पीड़न कैसे कहा जा सकता है ?" इस रूप में आगे मंच पर सदस्यों की सहमति से विमर्श रखा जा सकता है ।

उम्र में पुरूष  छोटा होने और स्त्री -पुरुष के बीच सहमति होने पर इसे बलात्कार की श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है । संध्याजी ने एक सामान्य सा पर पेचीदा सवाल उठाया है। जिसका उत्तर वह मेरी टिप्पणी के प्रतिउत्तर में चाहती है । संध्या जी आपसे सहमत तो हुआ जा सकता है पर इस तरह के सम्बन्धों में भयादोहन, प्रतिष्ठा, राजनीति में सम्बन्ध को सीढ़ी बनाकर प्रयोग करना बल और कुकर्म की श्रेणी में आ सकते है। इसी तरह की समझ के साथ सारी अवदशाओ को मिलाकर हठात्कार की श्रेणी में रख दिया था । आप इसे कोई दूसरा अच्छा नाम दे सकती है ।

संजीव जी आपको अपनी कहानी पाठक मंच  से वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता । अब यह कहानी आपकी कहां रही । यह ढेरों पाठक की पसंद-ना पसंद बन चुकी है ।

आज विमर्श में अपनी सक्रिय उपस्थित दर्ज कराने के लिए प्रवेशजी, निरंजनजी.राज नारायण बोहरेजी,विनयजी राज रंजनजी संध्याजी और अन्य सभी मित्रो का शुक्रिया।

इस बीच मंच पर आकाशवाणी से भी समाचार आये । पद्माजी को बधाई ।

कहानी पर पर्याप्त से अधिक चर्चा हुई ।
सभी का शुक्रिया ।



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