Wednesday, August 29, 2018



विहाग वैभव की कविताएँ




विहाग वैभव 


















हत्या-पुरस्कार के लिए प्रेस-विज्ञप्ति
________________________________

वे कि जिनकी आँखों में घृणा 
समुद्र सी फैली है अनंत नीली-काली

जिनके हृदय के गर्भ-गृह
विधर्मियों की चीख 
किसी राग की तरह सध रही है सदी के भोर ही से 

सिर्फ और सिर्फ वही होंगें योग्य इस पुरस्कार के

जुलूस हो या शान्ति-मार्च
श्रद्धांजलि हो या प्रार्थना-सभा
जो कहीं भी , कभी भी 
अपनी आत्मा को कुचलते हुए पहुँच जाए 
उतार दे गर्दन में खंजर 
दाग दे छाती पर गोली 
इससे तनिक भी नहीं पड़े फर्क 
गर्दन आठ साल की बच्ची की थी 
छाती अठहत्तर साल के साधू की थी 

देश के ख्यात हत्यारे आएँ 
अपना-अपना कौशल दिखाएँ
अलग-अलग प्रारूपों में भिन्न-भिन्न पुरस्कार पाएँ 

मसलन
बच्चों की हत्या करें चिकित्साधिकारी बनें 
स्त्रियों की हत्या करें , सुरक्षाधिकारी बनें 

विधर्मियों की लाशें कब्रों से निकालें फिर हत्या करें 
मुख्यमंत्री बनें 
देश की छाती में धर्म का धुँआ भरकर देश की हत्या करें 
प्रधानमंत्री बनें 

इच्छुक अभ्यर्थी हत्या-पुरस्कार के लिए 
निःशुल्क आवेदन करें और आश्वस्त रहें 

पुरस्कार-निर्णय की प्रक्रिया में 
बरती जाएगी पूरी लोकतांत्रिकता । 





मृत्यु की भूमिका के कुछ शब्द
__________________________

परिवार के सीने पर पहाड़ रखकर 
गर मर जाऊँ साथी 
तो जलाना मत 
दफ़नाना मत 
बहाना मत 
फेंक देना किसी बीहड़ में निचाट नंगा मुझे 

कौन जाने किस जंगल का हाथ काटा जाये 
मुझे राख और धुँआ बनाने के क्रम में 
कि जो डाल मेरी चिता के साथ जल रही हो 
वह किसी कठफोड़वा का घर उजाड़ कर लायी गयी हो 
या फिर उस डाल पर हर रोज 
सुस्ताने आता हो कोई शकरखोरा जोड़ा 
और एक दिन उदास वापस लौट जाए
हमेशा-हमेशा के लिए 

यह कितना पीड़ादायक होगा 

चूँकि मैंने इस धरती पर तनिक भी जमीन नहीं जन्मा
तो लाठे भर जगह लेने का कोई अधिकार नहीं बनता मेरा 
सड़ी हुई लाश बनकर बह भी गया तो
किसी हिरण या हाथी के पेट मे समा जाऊँगा
प्यास में मृत्यु बनकर 

और यह वह अपराध होगा 
जिसके लिए 
किसी मरे हुए इंसान को भी फाँसी की सजा दी जानी चाहिए

तुम मेरी मिट्टी को उठाना 
और फेंक देना किसी दूर मैदान में 
कुछ गिद्धों और कौवों का निवाला हो जाने देना 
इसतरह मुझे सुकून से मरने में मदद मिलेगी
अच्छा लगेगा किसी का स्वाद होकर 

बस इसी स्वाद के लिए साथी 
गर मैं मर जाऊँ
तो जलाना मत 
दफ़नाना मत 
बहाना मत 
फेंक देना किसी बीहड़ में निचाट नंगा मुझे । 


अमृतलाल वेगड़ 





देश के बारे में शुभ-शुभ सोचते हुए
________________________________

अभी हमें देखना है कि 
पहाड़ों के शीर्ष से 
खून के बड़े-बड़े फव्वारे छूटेंगें
बड़े व्यापारी और राजा 
तर होकर नहायेंगें उसमें 
पहाड़ों के कुण्ड में जमा खून 
हमारा , आपका , इसका और उसका होगा 

अभी हम देखेंगें कि 
दूसरे बस्ती की 
गर्भवती महिलाओं के पेट से 
तलवारों के नाखूनों से खींचकर बाहर 
पँचमासी बच्चे का सिर काट दिया जाएगा 
और इस तरह से धर्म की साख बचा ली जाएगी 

अभी हम देखेंगें कि
बहुत काली अंधेरी रात के बाद
एक खूँखार भोर का पूरब 
विधर्मियों के रक्त से गाढ़ा लाल होगा 
धीरे-धीरे और चमकदार होती हुई तलवारें 
खनकते स्वरों में गाएंगीं प्रार्थना - 
सर्वे भवन्तु सुखिनः
वसुधैव कुटुम्बकम 

अभी सौहार्द और अधिकारों की बातें करने वाली जीभ को 
एक काँटे में फँसाकर लटकाया जाएगा 
जब तक कि पूरी जीभ 
आहार नली से फड़फड़ाते हुए बाहर नहीं आ जाती 
( इस पर सत्तापक्ष के लोग ताली बनायेंगें ) 

अभी राज्य का प्रचण्ड हत्यारा 
ससम्मान न्यायाधीश नियुक्त होगा 
अभी राज्य के कुख्यात चोरों के हाथों 
सौंप दिया जाएगा 
देश का वित्त मंत्रालय 

अभी देश की जनता 
देवताओं से रक्षा के लिए 
असुरों के पाँव पर गिरकर गिड़गिड़ायेगी 

विधर्मियों का गोश्त प्रसाद में बँटेगा 
भेड़िये अपने नाखून गिरवी रखकर नियामकों के पास 
चले जाएँगें अनन्त गुफा की ओर सिर झुकाए
असंख्य हत्याकांडों का पुण्य घोषित होना बचा हुआ है अभी 

अभी इस देश ने 
अपने भाग्य और इतिहास के 
सबसे बुरे दिन नहीं देखे हैं । 






सपने 
__________________________

विशाल तोप की पीठ पर चित्त लेटकर
दंगों के के बीच तलवार ओढ़कर सोते हुए
मणिकर्णिका पर जलाते हुए अपने जवान भाई की लाश 
उठते , बैठते , जागते , दौड़ते हुए 
हममें से हर किसी को सपने देखने ही चाहिए 
सपने , राख होती इस दुनियाँ की आखिरी उम्मीद हैं 

सपने देखने चाहिए लड़कियों को -

सभ्यता के बचपने उम्र 
आत्मा के पूरबी उजास में गुम लड़कियों ने 
जरा कम देखे सपने 
नतीजन , धकेल दी गईं चूल्हे चौके के तहखाने 
गले में बाँध दिया गया परिवार का पगहा
भोग ली गईं थाली में पड़ी अतिरिक्त चटनी की तरह
गिन ली गईं दशमलव के बाद की संख्याओं जैसीं
मगर अब 
जब लड़कियाँ भर भर आँख 
देख रही हैं बहुरंगी सपने 
तो ऐसे कि
दौड़कर लड़खड़ाते कदम चढ़ रही हैं मेट्रो 
लौट रही हैं ऑफिस से 
धकियाते , अपनी जगह बनाते भीड़ में 
ऐसे कि लड़कियों का एक जत्था
विश्वविद्यालयों के गेट पर हवा में लहराते दुपट्टा 
अपना वाजिब हिस्सा माँग रहा है 
ऐसे कि
पिता को फोन पर कह दी हैं वो बात 
जिसे वे पत्र में लिखकर कई दफा
जला चुकी हैं कई उम्र 
जिसमें प्रेमी को पति बनाने का जिक्र आया था अभिधा में 

सपने हमें नयी दुनियाँ रचने का हौसला देते हैं 
हममें से हर किसी को सपने देखने ही चाहिए 

सपने देखने चाहिए आदिवासियों को -
देखने चाहिए कि 
उनके जंगल की जाँघ चिचोरने आया बुल्डोजरी भूत का शरीर
जहर बुझी तीर की वार से नीला पड़ गया है 
देखने चाहिए कि 
उनकी बेटीयाँ बाजार गयी हैं लकड़ियाँ बेचने 
और बाजार ने उन्हें बेच नहीं दिया है
और यह भी कि 
मीडिया , गाय को भूल 
कैमरा लेकर पहुँच गया है उनके रसोईघरों में 
और घेर लिया है सरकार को भूख के मुद्दे पर 

सपने हमें हमारा हक दें या न दें 
हक के लिए लड़ने का माद्दा जरूर देते हैं 

सपने देखने चाहिए उन प्रेमियों को -
जो आज अपनी प्रेमिकाओं से आखिरी बार मिल रहे हैं 
आज के बाद ये प्रेमी 
रो-रोकर अपना गला सुजा लेंगें 
जिससे साँस लेना भी दुष्कर हो जायेगा
आज के बाद ये प्रेमी 
बिलख- बिलखकर पागल हो जायेंगें
और आस-पास के जिलों में 
युध्द के गीत गाते फिरेंगें 
इन प्रेमियों को भी सपने देखने चाहिए 
सपने भी ऐसे कि 
ये प्रेमी लड़के डूबने उतरते ही तालाब में 
कोई हंस हो गए हों 
और बहुत पुरानी तालाब की गाढ़ी काई को चीरते हुए 
बढ़ रहे हों दूसरे घाट की तरफ 
कि वहाँ इनका इन्तजार किसी और को भी है
इन प्रेमियों को सपने देखने चाहिए ऐसे कि -
इनके समर्पण की कथाएँ 
जा पहुँची हैं दूर देश
और यूनान का कोई देवता 
इनसे हाथ मिलाने के लिए बेताब है

सपने हमें पागल होने से बचा लेते हैं 

एक सामूहिक सपना देखना चाहिए इस देश को - 

यह देश जो भाले की तरह चन्दन को माथे पर सजाए
विधर्मियों की लाशों पर 
भारतमाता का झण्डा गाड़ते हुए 
आगे बढ़ने के भ्रम में 
किसी जंगली दलदल में फँसा जा रहा है 

या जब धर्म चरस की तरह चढ़ रहा है मस्तिष्क पर 
और छींक में आ रहा है विकलांग राष्ट्रवाद 
तो ऐसे में 
सपने देखना इस देश की जवान पीढ़ी की जिम्मेदारी हो जाती है 

एक सपना बनता है कि 
तुम भी जियो 
हम भी जियें 
एक ही मटके से पियें 
मगर भ्रष्ट करने के आरोप में 
किसी का गला न काट लिया जाये

एक सपना बनता है कि 
तुम अपने मस्जिद से निकलो 
मैं निकलता हूँ अपने मन्दिर से 
दोनों चलते हैं किसी नदी के एकांत 
और बैठकर गाते हों कोई लोकगीत
जिसमें हमारी पत्नियां गले भेंट गाती हों गारी 

सपने देश को रचने में हिस्सेदारी देते हैं भरपूर 

और अब 
यह समय जो धूर्त है 
इसमें 
राजा गिरे हुए मस्जिद की गाद पर बैठकर 
सत्ता में बने रहने का सपना देख रहा है 
उल्लू देख रहे हैं सपने 
सालों साल लम्बी अँधेरी रात का 
दुनियाँ को खरगोश भरा जंगल हो जाने का सपना 
भेड़िए देख रहे हैं 
और गिद्धों के सपने में देश 
एक मरी हुयी गाय की तरह आता है 

तो ऐसे में हमें इस कविता को 
किसी प्रार्थना या युद्धगीत की तरह गाया जाना चाहिए - 

कि विशाल तोप की पीठ पर चित्त लेटकर
दंगों के के बीच तलवार ओढ़कर सोते हुए
मणिकर्णिका पर जलाते हुए अपने जवान भाई की लाश 
उठते , बैठते , जागते , दौड़ते हुए 
हममें से हर किसी को सपने देखने ही चाहिए 
सपने , राख होती इस दुनियाँ की आखिरी उम्मीद हैं । 






ओझौती जारी है 
________________________

तपते तवे पर डिग्रियाँ रखकर 
जवान लड़के जोर से चिल्लाये - रोजगार 

बिखरे चेहरे वाली अधनंगी लड़की 
हवा में खून सना सलवार लहराई 
और रोकर चीखी - न्याय 

मोहर लगे बोरे को लालच से देख 
हँसिया जड़े हाथों को जोड़ 
किसान गिड़गिड़ाया - अन्न 

उस सफेद कुर्ते वाले मोटे आदमी ने 
योजना भर राख दे मारी इनके मुँह पर 
मुस्कुराकर कहा - भभूत  । 






तलवारों का शोकगीत 
__________________________

कलिंग की तलवारें 
स्पार्टन तलवारों के गले लगकर 
खूब रोयीं इक रोज फफक फफक 

रोयीं तलवारें कि उन्होंने मृत्यु भेंट दिया 
कितने ही शानदार जवान लड़को के 
रेशेदार चिकने गर्दनों पर नंगी दौड़कर
और उनकी प्रेमिकाएँ 
बाजुओं पर बाँधें 
वादों का काला कपड़ा 
पूजती रह गयीं अपना अपना प्रेम 
चूमती रह गयीं बेतहाशा 
कटे गर्दन के होंठ 

तलवारों ने याद किये अपने अपने पाप 
भीतर तक भर गयीं 
मृत्यु- बोध से जन्मी जीवन पीड़ा से 

तलवारों ने याद किया 
कैसे उस वीर योद्धा के सीने से खून 
धुले हुए सिन्दूर की तरह से बह निकला था छलक छलक 
और योद्धा की आँखों में दौड़ गयी थी
कोई सात आठ साल की खुश 
बाँह फैलाये , दौड़ती पास आती हुई लड़की 

कलिंग और स्पार्टन तलवारों ने 
विनाश की यन्त्रणा लिए 
याद किया सिसकते हुए 
यदि घृणा , बदले और लोभ से भरे हाथ 
उन्हें हथेली पर जबरन न उठाते तो 
वे कभी भी अनिष्ट के लिए 
उत्तरदायी न रही होतीं 

दोनों तलवारों ने सांत्वना के स्वर में 
एक दूसरे को ढाँढस बँधाया -
तलवारें लोहे की होती हैं 
तलवारें बोल नहीं सकतीं 
तलवारें खुद लड़ नहीं सकतीं ।


अमृतलाल वेगड़




छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी
__________________________

छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी
कहीं दुर्घटनाओं का यह सुअवसर निकल न जाये 

भीतर से जरा और दम साधो
आंखों में तनिक और नमी लाओ
चेहरे पर पोत लो रोना और भी अधिक 
कि भुक्तभोगी जान जाय कि तुम उसके दुख में उससे अधिक दुखी हो

उसकी माँ को अँकवार में भींच लो बच्चे की तरह 
और अपनी शर्तिया वेदना से उसे तृप्त कर दो 
जबतक की वह तुम्हारी धूर्त संवेदना को पहचान न ले 

उसके दुख में सर्वाधिक करुणा उगलो
और उसका सबसे बड़ा हितकारी बनने की प्रतियोगिता में प्रथम आओ 

दुर्घटना की एक-एक जानकारी बहुत करीने से लो ऐसे
कि जैसे तुम देवता हो और उसमें कुछ जरूरी बदलाव कर सकते हो ।

इन सबके बीच एक जरूरी काम यह भी करना कि 
वह जो भीड़ से अलग खड़ा अपनी ही खामोशी में विलखता जा रहा है 
उसे परिदृश्य से बाहर ही धकेले रखना 
कहीं वह फूट पड़ा तो 
तुम्हारे आँसुओं का नकलीपन पहचान में आ जायेगा । 

उसके फूटने के पहले 
छद्म संवेदनाओं को भुना लो साथी 
कहीं दुर्घटनाओं का यह सुअवसर निकल न जाये । 





चाय पर शत्रु - सैनिक
_______________________

उस शाम हमारे बीच किसी युद्ध का रिश्ता नही था 
मैनें उसे पुकार दिया - 
आओ भीतर चले आओ बेधड़क 
अपनी बंदूक और असलहे वहीं बाहर रख दो 
आस-पड़ोस के बच्चे खेलेंगें उससे 
यह बंदूकों के भविष्य के लिए अच्छा होगा 

वह एक बहादुर सैनिक की तरह 
मेरे सामने की कुर्सी पर आ बैठा 
और मेरे आग्रह पर होंठों को चाय का स्वाद भेंट किया 

मैंनें कहा - 
कहो कहाँ से शुरुआत करें ?

उसने एक गहरी साँस ली , जैसे वह बेहद थका हुआ हो 
और बोला - उसके बारे में कुछ बताओ 

मैंनें उसके चेहरे पर एक भय लटका हुआ पाया 
पर नजरअंदाज किया और बोला - 

उसका नाम समसारा है 
उसकी बातें मजबूत इरादों से भरी होती हैं 
उसकी आँखों में महान करुणा का अथाह जल छलकता रहता है 
जब भी मैं उसे देखता हूँ 
मुझे अपने पेशे से घृणा होने लगती है

वह जिंदगी के हर लम्हें में इतनी मुलायम होती है कि 
जब भी धूप भरे छत पर वह निकल जाती है नंगे पाँव 
तो सूरज को गुदगुदी होने लगती है 
धूप खिलखिलाने लगता है 
वह दुनियाँ की सबसे खूबसूरत पत्नियों में से एक है 

मैंनें उससे पलट पूछा 
और तुम्हारी अपनी के बारे में कुछ बताओ ..
वह अचकचा सा गया और उदास भी हुआ 
उसने कुछ शब्दों को जोड़ने की कोशिस की - 

मैं उसका नाम नहीं लेना चाहता 
वह बेहद बेहूदा औरत है और बदचलन भी 
जीवन का दूसरा युद्ध जीतकर जब मैं घर लौटा था 
तब मैंनें पाया कि मैं उसे हार गया हूँ 
वह किसी अनजाने मर्द की बाहों में थी 
यह दृश्य देखकर मेरे जंग के घाव में अचानक दर्द उठने लगा 
मैं हारा हुआ और हताश महसूस करने लगा 
मेरी आत्मा किसी अदृश्य आग में झुलसने लगी
युद्ध अचानक मुझे अच्छा लगने लगा था 

मैंनें उसके कंधे पर हाथ रखा और और बोला -
नहीं मेरे दुश्मन ऐसे तो ठीक नहीं है 
ऐसे तो वह बदचलन नहीं हो जाती 
जैसे तुम्हारे  सैनिक होने के लिए युद्ध जरूरी है 
वैसे ही उसके स्त्री होने के लिए वह अनजाना लड़का 

वह मेरे तर्क के आगे समर्पण कर दिया 
और किसी भारी दुख में सिर झुका दिया 

मैंनें विषय बदल दिया ताकि उसके सीने में 
जो एक जहरीली गोली अभी घुसी है 
उसका कोई काट मिले - 

मैं तो विकल्पहीनता की राह चलते यहाँ पहुँचा 
पर तुम सैनिक कैसे बने ? 
क्या तुम बचपन से देशभक्त थे ? 

वह इस मुलाकात में पहली बार हँसा 
मेरे इस देशभक्त वाले प्रश्न पर 
और स्मृतियों को टटोलते हुए बोला - 

मैं एक रोज भूख से बेहाल अपने शहर में भटक रहा था 
तभी उधर से कुछ सिपाही गुजरे 
उन्होंने मुझे कुछ अच्छे खाने और पहनने का लालच दिया 
और अपने साथ उठा ले गए 

उन्होंने मुझे हत्या करने का प्रशिक्षण दिया 
हत्यारा बनाया 
हमला करने का प्रशिक्षण दिया 
आततायी बनाया 
उन्होनें बताया कि कैसे मैं तुम्हारे जैसे दुश्मनों का सिर 
उनके धड़ से उतार लूँ 
पर मेरा मन दया और करुणा से न भरने पाए 

उन्होंने मेरे चेहरे पर खून पोत दिया 
कहा कि यही तुम्हारी आत्मा का रंग है
मेरे कानों में हृदयविदारक चीख भर दी 
कहा कि यही तुम्हारे कर्तव्यों की आवाज है 
मेरी पुतलियों पर टाँग दिया लाशों से पटा युद्ध-भूमि 
और कहा कि यही तुम्हारी आँखों का आदर्श दृश्य है 
उन्होंने मुझे क्रूर होने में ही मेरे अस्तित्व की जानकारी दी 

यह सब कहते हुए वह लगभग रो रहा था 
आवाज में संयम लाते हुए उसने मुझसे पूछा - 
और तुम किसके लिए लड़ते हो ?

मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था 
पर खुद को स्थिर और मजबूत करते हुए कहा - 

हम दोनों अपने राजा की हवश के लिए लड़ते हैं 
हम लड़ते हैं क्यों कि हमें लड़ना ही सिखाया गया है
हम लड़ते हैं कि लड़ना हमारा रोजगार है 

वह हल्की हँसी मुस्कुराते मेरी बात को पूरा किया -
दुनियाँ का हर सैनिक इसी लिए लड़ता है मेरे भाई 

वह चाय के लिए शुक्रिया कहते हुए उठा 
और दरवाजे का रुख किया 
उसे अपने बंदूक का खयाल न रहा
या शायद वह जानबूझकर वहाँ छोड़ गया 
बच्चों के खिलौने के लिए 
बंदूक के भविष्य के लिए 

वह आखिरी बार मुड़कर देखा तब मैंनें कहा -
मैं तुम्हें कल युद्ध में मार दूँगा 
वह मुस्कुराया और जवाब दिया - 
यही तो हमें सिखाया गया है । 




सीरिया के मुसलमान बच्चे 
_____________________

अल्लाह के बागान में जिन्हें 
उधम कर दौड़ जाना था अगले आँगन 
वे बम से फ़टे सड़क पर गला फाड़ रोते हुए 
अपनी माँ के चिथे स्तन चूम रहे हैं 

जिन्हें इतनी बड़ी विशाल दुनिया को गेंद की तरह उछाल खिलखिला देना था चहकते हुए 
वे अपने घरों में भाई के जिस्म का टुकड़ा बटोर रहे हैं 

जिन्हें एक डोरी के सहारे पृथ्वी को खींचकर उठा लेना  था हथेली पर
वे अपने संगियों की लाशों को झकझोर रहे हैं , अनन्त नींद से उठाने के लिए । 

सीरिया के मुसलमान बच्चे 
जिन्हें अपने मुसलमान होने की भी खबर न थी 
न ही कोई मतलब था सीरिया या अमेरिका के होने से 

सीरिया के मुसलमान बच्चे अमेरिका की थाली में परोसे गए हैं 

उनका गला फटा जा रहा है रोकर कि उनके अब्बू की सिर्फ जाँघ मीली चिपककर बिलखने के लिए 

सीरिया के बच्चे पाँव में अपनी लाश बाँध 
बदहवाश भटक रहे हैं अपने मोहल्ले के रास्तों पर 

अमेरिका हँस रहा है 

अमेरिका बहुत बड़ा देश है 
अमेरिका राजा देश है 
जैसे जंगल का सबसे खूँखार , क्रूर और बदमिजाज जानवर हो जाता है राजा 

सीरिया के बच्चे आज भटक रहे हैं 
सीरिया के आज से बचे बच्चे
एक रोज जवान हो जायेंगें 
उनसे महात्मा के व्यवहार की उम्मीद मत करना 

ये बचे हुए बच्चे एक रोज बड़े हो जायेगें

वे ईश्वर का कलेजा चबा जायेंगें पलक झपकते ही 
वे तुम्हारे आलीशान गगनचुंबी इमारतों को एक फूँक से उड़ा देंगें 
तुम्हारी परछाइयों तक की राख तक नहीं देंगें तुम्हारी पीढ़ियों को
वे तुम्हारे किले में घुसते ही खून और पानी का भेद मिटा देंगें 

ये लोरियों की उम्र में मर्शिया गाते हुए बच्चे
हर साँस में जहर पीते हुए बच्चे 
हर चीख में मौत रोते हुए बच्चे 

तुम देखना 
एक दिन जवान हो जायेंगे
ये सीरिया के मुसलमान बच्चे ।






लड़ने के लिए चाहिए 
______________________

लड़ने के लिए चाहिए 
थोड़ी सी सनक , थोड़ा सा पागलपन
और एक आवाज को बुलंद करते हुए
मुफ्त में मर जाने का हुनर 

बहुत समझदार और सुलझे हुए लोग 
नहीं लड़ सकते कोई लड़ाई 
नहीं कर सकते कोई क्रांति 

जब घर मे लगी हो भीषण आग 
आग की जद में हों बहनें और बेटियाँ 
तो आग के सीने पर पाँव रखकर 
बढ़कर आगे उन्हें बचा लेने के लिए 
नहीं चाहिए कोई दर्शन या कोई महान विचार 

चाहिए तो बस 
थोड़ी सी सनक , थोड़ा सा पागलपन 
और एक खिलखिलाहट को बचाते हुए 
बेवजह झुलस जाने का हुनर 

जब मनुष्यता डूब रही हो 
बहुत काली आत्माओं के पाटों के बीच बहने वाली नदी , तो 
नहीं चाहिए कोई तैराकी का कौशल-ज्ञान

साँसों को छाती के बीच रोक
नदी में लगाकर छलाँग 
डूबते हुए को बचा लेने के लिए
चाहिए तो बस 

थोड़ी सी सनक , थोड़ा सा पागलपन
और एक आवाज की पुकार पर 
बेवजह डूब जाने का हुनर ।

बहुत समझदार और सुलझे हुए लोग 
नहीं सोख सकते कोई नदी 
नहीं हर सकते कोई आग  
नहीं लड़ सकते कोई लड़ाई ।
000


परिचय- 

विहाग वैभव 

शोध-छात्र : हिंदी विभाग ,  बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी , 

नया ज्ञानोदय , वागर्थ , आजकल , अदहन पत्रिकाओं सहित अनेक ब्लॉगों और और वेबसाइटों पर कविताएँ प्रकशित । 

मोबाइल- 8858356891

Sunday, August 19, 2018

उपन्यासनामा:भाग पांच 
कागज़ की नाव 
नासिरा  शर्मा 



नासिरा शर्मा 


रिश्तों की आंतरिक बुनावट और काग़ज़ की नाव

नासिरा जी का नया उपन्यास ‘कागज की नाव’ मानवीय जीवन की आंतरिक बुनावट के सूत्रों को बखूबी पकड़ता है, न केवल पकड़ता है बल्कि उन्हें भरपूर जीने की कोशिश भी करता है। वर्तमान मानवीय जीवन जिस तरह से खांचाबद्ध होता जा रहा है, बावजूद इसके ‘काग़ज़ की नाव’ जीवन को रिश्तों और संबंधों की आंतरिक लय में प्रस्तुत करता है। नासिरा जी अपने लेखन के आरंभ से ही भारतीय जीवन को उसकी संपूर्णता में, संबंधों की जटिल बुनावट में, रिश्तों की कड़वाहट के साथ उनकी अनिवार्यता में और यह दिखाते हुए कि रिश्तों की इस संरचना के बिना जीवन संभव नहीं है, प्रस्तुत करती रहीं हैं। वे महरूख जैसा चरित्र ‘ठीकरे की मंगनी’ में रच चुकी हैं, शाल्मली अंत तक रिश्ते को जीने और बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील रहती है। ‘जीरो रोड’ जिस तरह से मानवीय रिश्तों को ‘तेल के कुयें की तरह ड्रिल किये जाने’ के बीच बुनता है वह बेमिसाल है। जीरो रोड में जिस तरह अरब देशों में रोजगार की तलाश में भारतीय युवा जाते हैं, और वहाँ जो नारकीय जीवन जीते हैं, ‘डॉ. जिवागो’ देखते हैं और मानवीय रिश्तों की अहमियत को पहचानते हैं उसी तरह इस उपन्यास में भी अरब देशों में पैसा कमाने गये युवा अपने परिवार को यहाँ तमाम जिम्मेदारियाँ उठाने छोड़ जाते हैं, और जीवन को विघटित होते जाने से बचाने के प्रयास में उनके बूढे़ माँ-बाप संघर्ष करते हैं वह देखने लायक है।

काग़ज़ की नाव की कहानी अमजद और महजबीं के परिवार और रिश्तों-नातों के बीच बुनी गई है। सामान्य भारतीय परिवार की यह कहानी ‘परिवार’ का केन्द्र ‘स्त्री’ के सामाजिक जीवन से अनुकूलित ‘चरित्र’ और ‘सोच’ के बीच परिवारों के बनने और बनते हुए बिगड़ने या टूटने की कगार तक पहुँचने की स्थितियों को बहुत ही सामान्य सी दिखने वाली, परन्तु महत्वपूर्ण गतिविधियों के माध्यम से उकेरती है। ‘महजबीं’ अमजद की पत्नी हैं, उसके दो बेटियाँ हैं, महलका और माजदा। अमजद का एक परिवार था जिसमें उसके माता पिता और बड़े भाई भी साथ थे पर महजबीं की मानसिक बुनावट में विघटन रचा बसा था, जिसके चलते उनका परिवार टूट गया और बड़े भाई और माता पिता विदेश में बस जाते हैं। इसी सोच के कारण महजबीं अपनी बेटियों के घर भी इसी तरह तोड़ने के लिये प्रयासरत रहती है, मगर उसकी बेटियाँ ऐसा नहीं होनें देतीं।

महजबीं एक परंपरागत अंधविश्वासी और ढेरों गलतफहमियों को शिकार है, उसने मान रखा है कि उसके निजी जीवन में अपने पति और बच्चों के अलावा किसी का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। यही वह करती भी है। अमजद अपने घर में आये दिन के झगड़ों के कारण घर का बंटवारा स्वीकार कर लेते हैं और अपनी पत्नी और बेटियों के साथ अलग रहने लगते हैं। पर महजबीं को अपने पति की मानसिक पीड़ा और तकलीफ का अहसास नहीं होता। वह तो अपनी मर्जी और संपत्ति की मालिक बनकर रहने का ख्वाब पाले हुई थीे जो वह पूरा करती है। परंतु बाद में उसे अहसास हो जाता है कि वह गलत थी। यह अहसास कोई सामान्य सी हृृदय परिवर्तन की घटना नहीं है। नासिरा जी ने जीवन को इस तरह रचा बुना है कि अमजद की खामोशी और छोटी बेटी माजदा के सकारात्मक प्रयास महजबीं को अपनी विघटनकारी सोच के प्रति पश्चाताप और प्रयाश्चित की आग में जलने को विवश कर देती हैं।

महजबीं अंधविश्वास की गिरफ्त में है। जादू-टोने, मूठ मारने और गंडा-तावीज के द्वारा पुरुष को अपने बस में रखना, सास ससूर को बीमार करना, परेशान करना, बेटी की ससुराल में भी यह सब करने के लिये वह ओझा-आमिलों के चक्कर लगाया करती है। जैसा कि नासिरा जी ने लिखा है कि शहर की अधिकांश औरतें इनके चक्करों में फंसी हुईं हैं। - ‘‘महजबीं इस शहर की अकेली औरत थोड़ी थी जो जादू टोने से अपने हालात सुधारने की कोशिश में जुटी थी। पूरा शहर न सही मगर आधे शहर की औरतें खुदा और ईश्वर से ज्यादा आमिलों और ओझाओं के रिश्में और जादू टोने पर यकींन रखने लगीं थीं क्योंकि उन्हें मियां के दिल पर हुक्मरानी और ससुराल वालों के दिल जीतने की जगह मियां की कमाई पर कब्जा करने की तमन्ना थी ताकि वह खुलकर अपनी मर्जी से जी सकें। इस सोच में अनपढ़ से ज्यादा पढ़ी लिखी महिलायें शामिल थीं। जो अब किसी प्रकार का अत्याचार, अंकुश और जकड़न सहन करने की क़ायल नहीं रह गईं थीं।’’1  








मानवीय रिश्तों की द्वंद्वात्मकता को और अन्तर्विरोधों को बखूबी उभारा है नासिरा जी ने। महजबीं और अमजद के बीच छोटी बेटी माजदा के विवाह को लेकर जो बहस होती है उसमें इन दोनों के रूप दिख जाते हैं। महजबीं अपनी बेटी के ससुराल में गंडा तावीज के माध्यम से उसका वर्चस्व स्थापित करने के लिये उसे उकसाती है, परन्तु माजदा जब इससे इंकार कर देती है तो अमजद को भी अपने पति और पति होने का अहसास जागता है और वे माजदा को अपने विचारों का प्रतिनिधि कहते हुए उसे बेटे के बराबर होने का दर्जा देते हैं। वे अपनी पत्नी को अहसास दिलाते हैं कि तुम अपनी बेटी का घर बरबाद करने पर तुली हो। इस बहस में जो बात साफ उभरती है, वह यह कि महजबीं अपनी बेटी को सुखी देखना चाहती है, इसके लिये वह ससुराल के लोगों पर जादू टोने से उसका अधिकार करवाने का रास्ता अख्तियार करना चाहती है। उधर अमजद भी बेटी को सुखी देखना चाहते हैं, परन्तु इसके लिये वे रिश्तों की साफ और खुली समझ को पेश करते हैं, और इसके लिये वे बेटी के विचारों से सहमत हैं। यही द्वंद्वात्मकता है कि दोनों ही बेटी को खुश देखने के लिये प्रयत्नशील है, परन्तु अन्तर्विरोध यह है कि दोनों ही अलग रास्ते अपनाते हैं। पूरी कहानी में इसी तरह रिश्तों के बीच के अन्तर्विरोध और द्वंद्वात्मकता उभरती है। अमजद मियां रिश्तों को मानवीय संवेदना और स्थितियों में देखने और जीने के विचारों के प्रतिनिधि है और उनकी तरह ही उनकी छोटी बेटी माजदा उनके विचारों को अपनाती है। दूसरी ओर रिश्तों पर अधिकार और वर्चस्व की सोच से बंधी हुई महजबीं है जो अपने और अपनी बेटी के अधिकारां और परिवार पर पूर्ण अधिकार के लिये अंधविश्वास और टोने टोटकों की शरण में जाती है।
स्त्रियों के मन की अस्थिरता और अधिकारहीनता की स्थिति का फायदा समाज में अंधविश्वास फैलाने वाले उठाते हैं और उनके परिवार तोड़ने के लिये किये गये प्रयासों से आर्थिक लाभ भी कमाते हैं और उनके प्रभुत्व में वृद्धि भी होती है। हमारे समाज की यह सबसे खतरनाक बुराई है जिसके कारण मानवीय रिश्ते और मानवीय गरिमा को निरंतर विखंडित होना पड़ता है। अंधविश्वास और जादू टोने मानवीय जीवन और रिश्तों का तार तार किये हैं। इनकी गिरफ्त में स्त्रियाँ अधिक आसानी से आ जाती हैं। स्त्रियाँ अपने जीवन से और अपनी छोटी सी दुनिया से बहुत गहरे तक प्यार करती हैं, वे किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहतीं हैं। यही कारण है उसकी सुरक्षा और सुख के लिये वे गलत रास्तों पर चलने लगती हैं। महजबीं भी अपने बच्चों और पति से बहुत प्यार करती है और स्वयं अपने से भी। इस छोटी सी दुनिया को सुखी बनाये रखने के लिये उसे लगता है कि उसके ससुराल के अन्य सदस्य और उसकी बेटियों के परिवार के अन्य सदस्य उनके सुख और स्वतंत्रता में सबसे बड़े बाधक हैं। महजबीं इन बाधाओं का हटाने के लिये जिन रास्तों पर चलती है, नासिरा जी ने उन्हें इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है। इस तरह की वैयक्तिक सुखों की तलाश में रिश्तों को तहस नहस करने के प्रयत्न मानवीय जीवन में बुरी तरह व्याप्त हैं।

महजबीं की चेतना का जो आंतरिक विघटन होता हुआ दिखाया गया है उसके मूल में उसका जीवन के प्रति बेइंतेहा प्यार है। यह प्यार ही है जो वे अपने पति की आत्महत्या की धमकी के बाद पिघल जाती हैं और अपनी बेटी माजदा को उसके अपने तरीके से जीने की आजादी दे देती हैं। वे पश्चाताप में भर कर कहतीं हैं - ‘‘तेरी माँ, तेरी दुश्मन नहीं है, ममता में  अंधी होकर मैं गलत तौर तरीक़ा अपना बैठी थी। खुदा की बारगाह में गिरकर उनसे अपने गुनाहों की माफी मांगूंगी मगर पहले, हाँ पहले मैं तेरा शुक्र अदा कर दूं जो तूने दोजख की आग में जलने से बचा लिया। सही कहते थे अब्बा मरहूम कि बचपन में जिस तरह जवान माँ-बाप बच्चों को चलना, बोलना सिखाते हैं, सही और गलत की समझ देते हैं, ठीक उसी तरह जवान होकर बच्चे बूढे़ माँ-बाप की देखभाल कर उनको सेहतमंद सोच देते हैं।’’ इतना कहकर महजबीं ने माजदा का माथा चूमा।’’2 

महजबीं की ससुराल के प्रति जो सोच बनी उसका भी ठोस कारण है। यद्यपिज  वह अपने घर से ससुराल के लिये बिदा ले रही थी तो उसकी माँ ने उसे जो सलाह दी थी, वह इंसानी रिश्तों को निभाने और बनाये रखने की थी। उसकी माँ ने कहा था कि - ‘‘उन्हें याद आया ज बवह विदा हो रही थी भय और सवालों में उलझी हुई थी, उन्हें माँ की सीख सुनाई पड़ी थी, महजबीं, ससुराल में सबकी खिदमत करना, सास ससुर को माँ बाप समझना और कड़वे घूंट को शरबत की तरह पीना..........’’3
इस सीख पर महजबीं ने माँ को शिकायती नजरों से देखा था और मन नही मन कसम खाई थी - ‘‘हरगिज नहीं.....कभी नहीं।’’4
.ऐसा क्यों हुआ? महजबीं अपने माँ की सीख के उलट क्यों चली? इसकी वजह थी उसकी बुआ की ससुराल में दुर्दशा और जहर खा कर आत्महत्या करना। इस घटना ने उसके अंदर ससुराल के प्रति जहर भर दिया और उसकी चेतना में यह बात बैठ गई थी कि ससुराल और ससुराल वाले बहुओं के दुश्मन होते हैं तो उसे भी दुश्मनों की तरह उनके साथ व्यवहार करना है। इस घटना से नासिरा जी ने एक मानवीय अवचेतन के मनोविज्ञान को उकेरा है कि किस तरह एक नकारात्मक घटना बच्चों के मन के अंदर से रिश्तों की कागज की नाव को धुंआ की घुटन से भर देती है। इस एक घटना ने महजबीं के पूरे जीवन को तहस नहस कर दिया - ‘‘उन्हें माँ और बाप से शिकायत थी कि उनके न चाहने पर भी उनकी शादी कर दी और अब उसे दकियानूसी सोच दे रहे हैं। फूफी का बदला लेना है। इन ससुराल नाम के इंस्टीटयूशंस से बगावत करनी है। जहर खाकर फूफी की तरह मरना नहीं.....मरना नहीं। तब उनके आंसू अचानक रूक गये थे। उनके अंदर के भय की जगह एक तरह का विश्वास उभरा था।’’5 







उसने न केवल अपने परिवार को विखरने पर मजबूर कर दिया बल्कि अपनी बड़ी बेटी महलका को भी यही सब सिखाया। इसके बाद अपने छोटी बेटी माजदा को भी वह यही सिखाने जा रही थी, पर माजदा ने इसे अपनाने से इंकार किया और उसके इंकार में उसके पिता अमजद भी शामिल हुऐ तब कहीं महजबीं की चेतना में रिश्तों की अहमियत जागी। महलका महजबीं की बड़ी बेटी का पति विदेश में कमाने गया हुआ है, घर में उसके ससुर, एक नौकर गोलू, दो बेटे और बेटी हैं। पर महलका ने भी अपने ससुर के साथ गैर इंसानों जैसा व्यवहार अपना रखा है। उनकी पत्नी और जवान बेटी अल्लाह को प्यारी हो चुकीं है, बेटा बाहर है तो ज़हूर मियां एक दम अकेले और महलका की महरबानियों पर जिंदा हैं। उनके जीने का मकसद ही जैसे खत्म हो चुका है। इस स्थिति में जब महलका के माँ-बाप उसके घर आते हैं और सबसे पहले ज़हूर मियां से मिलने जाते हैं तो उनकी दुर्दशा देख अमजद मियां तरस खा जाते हैं। उनके अंदर ज़हूर मियां की दशा देख जो एक इंसानी लगाव उभरा था वह नासिरा जी की रिश्तों की कहानी को बयां करता है।

अमजद उनके कमरे के घुटन भरे माहौल से उनको बाहर निकालने के लिये कहते हैं कि कुछ देर बाहर दालान में बैठा जाये तो नासिरा जी ने ज़हूर मियां की जो प्रतिक्रिया दी है वह कैदी होने के बोध को हमारे सामने व्यक्त करती है, अमजद मियां कहते हैं कि -
‘‘अगर आप पसंद करे तो कुछ देर के लिये बाहर दालान में चलकर बैठते हैं।’’ अमजद ने ज़हूर मियां से आग्रह भरे लहजे में कहा।
‘‘अम्मा मना करेली।’’ गोलू झट से बोल उठा।
ज़हूर मियां का सिर इतना झुका कि सीने से आ लगा।’’6 

इस वाक्य में एक बूढे़ पिता, एक ससुर, एक दादा की वास्तविक स्थिति को उकेरा गया है। उनकी मानसिक स्थिति यह थी कि जैसे वे स्वयं ही अपने प्रति अपराधी हैं। जबकि वे शिकार थे, उनका बेटा लाखों रुपया कमा कर भेजता था, पर उनकी दशा विचित्र थी। अपनी लड़की के ससुराल में महजबीं की मानसिक स्थिति का जो परिवर्तन दिखाया है, वह रिश्तों के प्रति सकारात्मक सोच का प्रगट करता है। महजबीं ने महलका के ससुर का कमरा साफ किया उसे इंसानों के रहने लायक बनाया और अमल की पुड़िया और पानी को पेड़ों की जड़ों में डाल कर अपनी बेटी से कहा कि - ‘‘अब अमल की चीजों की नहीं आमाल ठीक करने का वक्त है।’’ यह परिवर्तन हम पूरी कहानी में देखते हैं।
महलका अकेली है, उसका पति विदेश में है, यहाँ वह राशिद नामक युवक से नये रिश्ते में जुड़ गई है और वह उसके पैसे के पीछे उससे संबंध बनाये रखता है। ज़हूर मियां इसके संबंधों का जानते हैं, पर मन मसोस कर रह जाते हैं, उसके इन संबंधों की खबर उसकी माँ को भी है जो बाद में उसको समझाती है कि तीन बच्चों की माँ से कोई युवक प्रेम नहीं करेगा, सिर्फ इस्तेमाल करने के लिये तुम से संबंध बनायेगा - ‘‘तेरी अक्ल घास चरने गई है? एक कुंवारा जवान एक ब्याहता, वह भी जीन बच्चों की माँ से मुहब्बत नहीं करता, फायदा उठाता है। अपना मतलब और आराम तलाश करता है। इतनी भी समझ तुममें नहीं रही महलका?’’7
इस तरह महजबीं उसे सही रास्ते पर लाती है। कागज की नाव के केन्द्र में महजबीं है। चारों तरफ के रिश्तों और कहानियाँ के सूत्र महजबीं से आकर जुड़ते रहते हैं। इस तरह रिश्तों का एक पूरा महाकाव्य रच दिया है नासिरा जी ने।
महजबीं का पश्चाताप दूसरी बार, पहली बार माजदा को लेकर अमजद और उसके बीच हुई बातचीत में खुला था, महलका के सामने इस तरह खुलता है, - ‘‘मैंने तुम्हें कई बातों में गलत मशविरे दिए, वह मेरी ममता की खुदगर्ज़ी थी। अब मेरी आंखें खुल चुकी हैं। जैसे मैंने अपनी गलती मान ली है, अब तुम भी मान लो और तौबा करो। तौबा का दरवाजा हमेशा खुला रहता है। उस नेक बंदे को जो तुम्हारे शौहर का बाप है उसकी खिदमत कर अपना कफ़फ़ारा अदा करो वरना मैं तुम्हें दूध बख़्शने वाली नहीं हूँ, यह मेरा आखि़री फै़सला है।’’8

महजबीं के परिवार की कहानी के साथ कुछ अन्य रिश्तों और मानवीय संदर्भों की कहानी भी इस उपन्यास में चलती हैं। महलका की ननद की उसके सुसराल में मौत हो जाती है। शगुफ़्ता पर उसकी सास के द्वारा अपने ही बेटे के लिये अमल करवाया जाता है। शगुफ़्ता की ननद और सास मिलकर उसकी मौत या आत्महत्या की वजह बनतीं हैं। उन्हें जेल भी होती है पर चूंकि शगुफ़्ता का भाई यानि महलका का शौहर विदेश में है तो कोई केस लड़ने वाला नहीं होता है, वे छूट जाते हैं। उसके बाद उनका बेटा भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इधर उसके छोटे भाई की बीबी शीरीं पर प्रतिबंध लगा दिये जाते हैं कि वह मायके नहीं जायेगी और घर में कोई उससे मिलने नहीं आयेगा। शीरीं घुटन भरी जिंदगी जीने को विवश है। अंत में वह अपने शौहर के पास मुंबई चली जाती है। उसकी ससुराल में जो मानसिक स्थिति थी उसे लेखिका ने इन शब्दों में उकेरा है - ‘‘यह कैसी जिंदगी है? उसे अपनी माँ पर भी गुस्सा आ रहा था कि ऐसे घर में उसे जलती आग में झौंक दिया, वह भी गीली लकड़ियों के साथ जो न पूरी तरह सुलगती है और न ही उसे पूरी तरह जलाकर राख करती हैं। इस अधजली कैफ़ियत से उसे दूर भागना है.....दूर चाहे जैसे भी हो।’’9
इस तरह एक लड़की अपने ही घर में जिस तरह घुटन और जलन महसूस करती है, उसे बड़ी ही खूबी से चित्रित किया है नासिरा जी ने रिश्तों की अजीब सी स्थितियाँ पैदा होती हैं। हम देखते हैं कि हर घर में, प्रत्येक परिवार में आग लगी है। कहीं बहू जल रही है, सास ससुर, ननद उसे जला रहा है, तिल तिल कर मरने पर मजबूर कर रहे हैं, तो कहीं बहुयें सास ससुर को उसी तरह मरने को विवश कर रहीं हैं। सुख चैन की जिंदगी तो जैसे दुनिया में है ही नहीं। इस सबके पीछे रिश्तों में प्यार की जगह पैसा, अघिकार, वर्चस्व जैसे मूल्यों को बैठ जाना है। धन-पैसों पर वर्चस्व बनाये रखने के लिये इंसान अपने दूसरों का जीवन तबाह करता है और साथ स्वयं का अमन-चैन भी छिन जाता है।
नासिरा जी ने बहुत खूबी से पुरुष चरित्रों को कुछ अधिक मानवीय और इंसानी रिश्तों को गहराई से समझने और अनुभव करने वाला दिखाया है। इसके नायक अमजद, ज़हूर मियां और क्रांति झा जैसे पुरुषों के जीवन में देख सकते हैं। अमजद मियां का चरित्र अनौखा है। वे अपनी बीबी महजबीं की तमाम ज्यादतियाँ सहन करते हैं। यहाँ तक उनकी परिवार टूट जाता है, बड़े भाई और उनका परिवार तथा माँ-बाप सब विदेश जा कर बसने को मजबूर हो जाते हैं, यह सब महजबीं के व्यवहार के कारण होता है। परन्तु अमजद मियां अंत तक महजबीं का साथ नहीं छोड़ते और अन्ततः हम देखते हैं, उनके सहनशील व्यक्तित्व की जीत होती है। महजबीं के जीवन और जीवन के प्रति उसकी गलत-नकारात्मक सोच में परिवर्तन होता है।
 वह न केवल स्वयं की जिंदगी को सवांरती है बल्कि अपनी बेटी महलका और माजदा के जीवन को भी सही दिशा और राह दिखाती है। महलका को राशिद जैसे इंसान के साथ संबंधों की सच्चाई का अनुभव कराती है। उसके ससुर के साथ उसके शौहर को भी प्यार करना सिखाती है। जीवन को रिश्तों के प्रति भरोसे मंद बनाने में और अंत में अपने मियां को उनके परिवार से मिलने जाने के लिये की स्वीकृति भी देतीं हैं। महजबीं स्वयं अपने शौहर के बारे में सोचती हैं -
‘‘यह शख्स अपनी बनावट से मजबूर है। अपना हो या ग़ैर हर एक के साथ नेकी भरा बर्ताव करता है। बदले और गुस्से के पागलपन से कोसों दूर और एक मैं हुँ, जरा सी बात नागवार गुजरी नहीं कि फ़लीते की तरह सुलग उठती हूँ। सामने वाले को नेस्तनाबूद करने पर तुल जाती हूँ। कितना भी जब्त से काम लूं मगर आतिश फिशां को फटने से रोक नहीं पाती हूँ।’’10

फिर वे आत्मालोचन करती हैं, यह आत्मालोचन इंसानी रिश्तों की खुशबू से पैदा होता है। वे सोचती हैं - ‘‘यह असद और जलन का जज़्बा कब मेरे अंदर सूखेगा और मैं बिना किसी तकलीफ के जी सकूंगी। अपनी बेटी खुश है ससुराल में तो बुरा लग रहा है। सास सुसर उसे इज्जत दे रहे हैं, तो कोफ्त हो रही है। अरे डायन भी सात घर छोड़ देती है और मैं डायन से भी सौ कदम आगे अपनी बेटी का घर जलाकर राख कर देने की सोच रही हूँ। सिर्फ इतनी सी बात पर वह मेरा फोन नहीं उठाती। मुझ से खुलकर बात नहीं करती है। या खुदा, मुझे तूने औरत क्यों बनाया। अगर यूं मेरी बनावट में ज़हर मिलाना था तो बना देता बिच्छु या सांप।’’11

मानवीय रिश्तों की विवधिता और उनके बनने बिगड़ने के कारणों के प्रति पूरा उपन्यास सचेत करता है। जीवन बहुत बारीक धागों से बुना हुआ होता है। जरा सी लापरवाही में वे उलझ जाते हैं, और कई जिंदगियाँ तबाह हो जाती हैं। जीवन के इन बनते बिगड़ते संबंधों के पीछे धन एक बहुत महत्वपूर्ण कारण है। पैसा है तो भी रिश्ते टूटते हैं, और नहीं है तो भी टूटते हैं, या बन ही नहीं पाते। नासिरा कई स्थलों पर इस बात को विवेचित करती हैं कि पैसा कमाना अलग बात है, गरीबी तो अभिशाप है ही पैसा होना भी जीवन को मनहूस बना देता है। हमारे समाज में अतिरिक्त समृद्धि और अतिरिक्त गरीबी दोनों ने जीवन को विखंडित किया है। पूरा बाजार विदेशी वस्तुओ और विदेशी पैसे के कारण अलग ही राह पर चल रहा है। इससे रिश्ते भी बदल रहे हैं और मानवीय संबंध भी। पूरा देश इस स्थिति से तबाह हो रहा है। लेखिका चिंता जाहिर करती हैं -

‘‘इस शहर को बाज़ार ने बिगाड़ा है और बाज़ार आया कहाँ से? बात सिर्फ पैसे की है। हमारा यह इलाका पैसे का लालची हो चुका है। बाहर का आया पैसा जो हमारे मर्दों के खून-पसीने की कमाई है, उनकी कुर्बानी और तन्हाई का निचोड़ है। वह अपनी जगह से चल हमारे बैंकों में जब पहुँचता है तो कभी दु    गुना तो कभी चौगुना हो जाता है। उस मेहनतकश इंसान के कुनबे वाले उससे सिर्फ पेट नहीं भरते हैं बल्कि अय्याशी में लग गये हैं। गुलछर्रे उड़ाते हैं। इस पैसे ने हमारे रिश्तों में दरारें डाल दी हैं। माँ हो या बाप, भाई हो या बहन, सास हो या ससुर, नंद हो या फूफी, सब सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को अपना बनाकर रखना चाहते हैं, कोई लुतरेपन से तो कोई भुस में चिंगी डालकर तो कोई शैतानी अमल करवाकर। और मारा जाता है वह इंसान जो रात दिन मेहनत करता है अपने ख़ानदान के लिये ताकि सारे लोग घर के पढ़ सकें, साफ सुथरे घर में रह सकें। माँ का इलाज हो सके, बाप की आंख खुल सके, बहन की डोली उठ सके और रहन पड़ी जमीन छूट सके.........’ अमजद के दिमाग के सारे दरवाजे खुल चुके थे। वह चुपचाप जाकर कुर्सी पर बैठ गये।’’12

 नासिरा जी ने इस विदेश से आये पैसे के प्रति जो रुख प्रस्तुत किया है वह आज की भारतीय राजनीति और अर्थनीति की समीक्षा भी मानी जा सकती है। हमारा पूरा ध्यान पैसे के आने पर है, परन्तु यह पैसा जब आता है तो उसके साथ उसकी बुराइयाँ और विघटन भी आता है। कमाने वाले इंसान के प्रति वे लिखती हैं - ‘‘वही आदमी एक तरफ घरवालों से गन्ने की तरह चूसा जाता है तो दूसरी तरफ अपने मालिकों से .....पूँजीपतियों को मुनाफा चाहिये और.....।’’13 
जीरो रोड में भी उन्होंने इसी तरह की बात कही थी कि ‘विदेश में अरब देशों में इंसान रेत के कुयें की तरह ड्रिल किये जाते हैं और तेल निकलना बंद हो जाये तो रेत से भर दिये जाते हैं।’’ यह एक महत्वपूर्ण अध्ययन है नासिरा जी का। पैसे के प्रति हमारी हवस और महत्व ने इंसान को रेत की तरह रूखा बना दिया है। इंसानी संवेदनशीलता, रिश्तों की गर्माहट और संबंधों की उष्मा को समाप्त कर दिया है।

इंसानी रिश्तों का दूसरा पहलू इस उपन्यास में हमें माजदा के ससुराल में देखने को मिलता है। माजदा इंसानी रिश्तों को जीना जानती है और उन्हें समझना भी। उसमें अपने पिता की छाप है। रिश्तों को निभाना और सम्हालना उसे आता है। उसकी सास और सुसराल एक मानवीय संबंधों की सकारात्मक बुनावट को दिखाते हैं। नासिरा जी ने यह बताया है कि जीवन में अभाव और गरीबी हमें ज्यादा इंसानियत देती है। माजदा की सास उसे अपने परिवार के संबंध में बताते हुए कहती है कि वह जब विवाह करके यहाँ आयी थी तो घर परिवार की हालत बदतर थे, पर वे सब एक गरीबी और अभाव के धागे से बंधे थे। उनमें प्यार और दुश्मनी के लिये समय ही नहीं था। वे अपनी परिस्थितियों में अपने अस्तित्व की लड़ाई को जीतने में इतने मश्गूल थे कि इन बेकार की बातों के लिये किसी के पास समय नहीं था।







‘‘प्यार और दुश्मनी के लिये इस घर में तब किसी को फुरसत न थी। हम साथ-साथ मेहनत करते और थककर सो जाते थे। भूखे पेट को भरने के लिये हमें एक दूसरे पर भरोसा करना पड़ता था। एक दूसरे का सहारा बनना पड़ता था। ऐसे मौकों पर लोगों के दिलांे में एक दूसरे के लिये दर्द उभरता था। इसे लगाव कहो या भरोसा, हमारे बीच बहुत गहरा था।’’ इतना कह सास चाय का घूंट भरने लगीे।’’14

माजदा और सास के संबंधों के माध्यम से नासिरा जी ने रिश्तों की नई संभावनाओं को तलाशा है और परिवार के बीच की नई इबारत को लिखा है। यदि जीवन में अभावों को साथ साथ जिया गया हो और भरोसे के साथ रिश्तों को देखा गया हो तो जीवन स्वर्ग बन जाता है। माजदा की सास उससे कहती है - ‘‘चाहती हूँ तुम इस घर को बड़े चाव से संवारो। जो चारों तरफ हो रहा उसकी नकल न करना। ये सब बड़ी ओछी हरकतें हैं। यहाँ का सब कुछ तुम्हारा है, मैं भी और बेटा भी। छीना-झपटी का कोई मतलब नहीं है। जीतोगी तो अकेली हो जाओगी। हारोगी तो हम सबकी बनकर रहोगी और वही तुम्हारी असली जीत होगी।’’15 

माजदा की सास और उनकी जीवन के प्रति सोच इस समाज के लिये बहुत आवश्यक है, अनिवार्य है। वे माजदा को जीवन के विविध तरह के लोगों और उनके घर तोड़ने वाली साजिशों के प्रति आगाह करती हैं। वे कहती हैं उनके ससुर ने उन्हें तालीम देना आरंभ किया उस वक्त जब परिवार की स्थिति सुधरने लगी थी। वे कहती हैं कि परिवार कैसे बनता है? यह जानना माजदा को जरूरी है ताकि परिवार की नींव के प्रति गहरी निष्ठा पैदा हो और दूसरों के बहकावे में ना आये वह।

माजदा की सास कहतीं हैं - ‘‘यह सब बताना तुम्हें जरुरी था ताकि तुम जान सको के इस घर की बुनियाद तुम्हारे बुजुर्गों ने अपने खून पसीने से डाली है, जिसमें मुहब्बत और रिश्तों की कसावट का हमेशा ध्यान रखा गया। इसलिये उस घर की नींव को खोदना मुनासिब नहीं है। इस घर को हमें एक मिसाली घर बनाना है ताकि चारों तरफ फैली जिहालत, तंगनज़री, जलन, हसद के अलावा भी हमारे आस-पास वालों को कुछ दिख सके कि अरे इस रास्ते पर चलकर भी आदमी कामयाब हो सकता है। याद रखो अकेला पैसा तहजीब नहीं लाता है, कलह लाता है। खुदग़र्ज़ी और दुश्मनी लाता है। आज हमारा शहर, हमारे लोग उसकी चपेट में आ गये हैं। पैसे के लालच ने उन्हें अंधा बना दिया है। अपने खून के रिश्तों के खि़लाफ़ खड़ा होना सीख गए हैं। तुम ऐसा हरगजि न करना। मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। फिर भी तुमको ये बुनियादी बातें बताना और समझाना जरूरी समझती हूँ।’’16
परिवार और रिश्तों की आंतरिक बुनावट को उसकी वास्तविक और मजबूत नींव को इस एक पैराग्राफ में नासिरा जी ने व्याख्यायित कर दिया है। पूरे ‘कागज की नाव’ की जान है यह पैराग्राफ। बहुत गहरी मानवीय सोच और शिक्षा माजदा को मिलती है और माजदा के माध्यम से पूरा समाज इस शिक्षा का ग्रहण कर सकता है।
रिश्तों की खुशबू किस तरह फैलती है? और रिश्तों में पैदा की गई कड़वाहट और दुर्गंध भी कैसे फैलती है? इसके बहुत मार्मिक चित्रण उपन्यास में देखने को मिलते हैं। यही नासिरा जी की रिश्तों की बुनियादी समझ की विशेषता भी है। वे जानती हैं कि नफरत और दुर्गंध से भरे इस माहौल में एक फूल भी यदि सुगंध दे सकता है तो उसकी खुशबू पूरे जहाँ में फैलनी चाहिये। वे ऐसा करती भी हैं।
माजदा सास के साथ अपनी संवेदनशील मुलाकात के बाद अपनी माँ को फोन करती है और जो वह अपनी माँ महजबीं से कहती है, वह भी सोचने विचारने पर मजबूर करता है। वह कहती है कि - ‘‘यहाँ का माहौल बिलकुल अलग है मम्मी। सब मेरा बेहद खयाल रखते हैं। आज मैं देर तक सोती रही तो अम्मी ने नाश्ता नहीं किया। मेरे इंतजार में तब तक भूखीं रहीं जब तक मैं नींद से जागी नहीं। हमने साथ नाश्ता किया। उन्होंने मुझे अपने बारे में बताते हुये कुछ नसीहतें कीं जो मैं हमेशा याद रखूंगी। आपको कैसे और क्या बताऊँ, वे कितनी सुलझी और समझदार ख़ातून हैं।’’17

 एक बहु का अपनी सास के प्रति यह कथन रिश्तों के ऊपर भरोसा और संवेदनशीलता का सबक है। ‘कागज की नाव’ रिश्तों की बारीक बुनावट और इंसान के स्वभाव की रेखाओं के रचे जाने की कहानी है। इसमें एक परिवार के केंद्र के आसपास कई परिवार हैं, जो उससे जुड़ें हैं अपनी सामाजिक संरचना में, और कहानी उनके साथ साथ भी चलती है। कमोबेश परिवार के विघटन और जुड़ने के कई अवसर नासिरा जी प्रस्तुत करती हैं। यह व्यापक मानवीय जीवन के अलग अलग चित्र नहीं हैं। एक संपूर्ण मानवता की विवधता के दृश्य हैं, जो अपनी आंतरिक बुनावट में एक ही तरह की रेखाओं और परिस्थितियों से बनते बिगड़ते हैं। जीवन की विविधता को खंड खंड करके वैयक्तिकता में देखना विखंडनकारी है। तमाम संबंधों और व्यापक इंसानियत को एक अखंड चित्र के रूप में देखना और उनके प्रभावों तथा परिणामों को तमाम बारीकियों के साथ इस उपन्यास में प्रस्तुत करने में नासिरा जी सफल हुईं हैं।




डॉ संजीव जैन 


    डॉ. संजीव कुमार जैन
    सहायक प्राध्यापक हिन्दी
    शासकीय महाविद्यालय, गुलाबगंज
    विदिशा म.प्र.
    



                                      
संदर्भ सूची -
1.कागज की नाव, पृ. 20-21
2.वही पृ. 29
3.वही पृ. 32
4. वही पृ. 32
5. वही पृ. 32
6. वही, पृ, 36
7. वही पृ.49
8. वही पृ. 49
9. वही पृ. 59
10. वही पृ. 110
11. वही पृ. 110
12. वही पृ.66
13. वही पृ. 66
14. वही पृ. 102
15. वही पृ. 103
16. वही पृ. 103
17. वही पृ. 104

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

पिछले पन्ने