Saturday, September 24, 2016

कविता क्या है, इस सवाल के उतने ही उत्तर हैं, जितने मनो मष्तिष्क हैं, इसकी परिभाषा सब के लिए अलग ही हैं। यह केवल आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति ही नहीं, हर संवेद की बयानी है,

यह सुरेन जी की कविताएँ पेश करते हुए इसलिये लिखा जा रहा है कि सुरेन जी अपने अनुभव जनित विचारों की कोमलता को कविता में ढालने में सिद्ध हैं। एक बारीक से एहसास को ठीक ठीक शाब्दिक जामा पहना पाना मुश्किल तो होता है, पर सुरेन  जी इन अभिव्यक्तियों के ज़रिए पाठकों तक पहुंच पाते हैं।

आइये पढ़ते हैं यहाँ उनकी कुछ छोटी कविताएँ जिन्हें हमने टिप्पणी सहित लिया है, वाटस एप समूह साहित्य की बात से। जिसके संस्थापक एडमिन हैं ब्रज श्रीवास्तव

सुरेन्द्र सिंह ,(सुरेन ) निवासी मथुरा
 जन्म 16 फरवरी 1973 
 1994 में बी०एस०सी० और 1996 में दर्शन शास्त्र में एम०ए० 
 1998 के उ०प्र० लोकसेवा आयोग के बैच से सलेक्ट होकर वर्तमान में बरेली के निकट श्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत



नमस्कार दोस्तो. 
आज गुरुवार को हम समूह के सदस्य की कविताएँ प्रस्तुत करते हैं, इस क्रम में आज प्रस्तुत हैं ऐसे कवि की कविताएँ जो अवचेतन के धुंधले चित्रों की साज सज्जा कर कविता की चौखट में जमाने की  कोशिश में अक्सर सफल होता है, जिसकी कल्पना का वितान आकर्षक है, 
वहाँ, स्वप्न, प्रेम, मौसम, संबंध, संशय, अधीरता, और न जाने क्या क्या, कवि की दुनिया का अक्स दिखाते हैं, जिनके बारे में, अब आप लोग ही टिप्पणी कर परस्पर अर्थ अन्वय करेंगे. 





1⃣➖

सपना चलता है,

रात भर

मैंने कहा...

चला आऊंगा तुम्हारे अवचेतन में,

जो यूँ रात में उनींदे बात करोगे,

मुझसे, मैं जानता हूँ,

तुम्हारे चेतन मैं कोई जगह नहीं शायद मेरे लिए

तुम्हारी तस्वीर एक छोटा-सा बिंदु है, मन में कही छिपा,

जहाँ से मैंने कई त्रिज्याए नापी है

अपने होने में एक सार्थकता की तलाश में।




2⃣➖

प्रिय, जैसा कि तुम जानते हो

मौसमजिसे फागुन कहते है

तुमने साल भर जो चोटियाँ

बाँधी है, वे एक साथ खुल-खुल जाती है

यूँ रह -रह कर खुलते केशों से

किसी भी पत्ते का पर्ण हरित

लह लहा के मेरी ओर

ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश करता है

ऐसे में तुम्हे प्यार ना करने की जिद

और तुम्हे जहन से हटाने की सारी कोशिशे

तुमसे कहना नहीं चाहता

और न ही जताना।



3⃣➖

तुम्हे यूँ बार बार लिखना

फिर बार बार मिटाना।

कभी, यूँही रात में

आकाश ताकना तुम

एक इबारत जो —

केवल तुम पढ़ सकते हो

को कभी देख पाओ

तो बस मुस्कुराना भर

क्योंकि कुछ भी - कह देना

दरअसल दरक जाना है

उस हवा का जो

तुम तक पहुंचती है

मेरे चश्मे पर चढ़े

नम धुंधलके को लेकर।


4⃣➖

सब छूट जाता है...धीरे धीरे...

जो जिज्ञासाएं हम बढ़ाते आ रहे थे अभी तक

और जो हमारी जिजीविषा को गति देती थी

एक दिन पता चलता है कि

हम एक खाली बक्सा ढो रहे है

वो कब रीत गया पता ही न चला

लेकिन फिर भी...

जिजीविषा जाने कहाँ से अपना सूत्र पकडती है

चीज़े यूँही बेलौस-सी दूरियां तय करती रहती है।



5⃣➖

सलाहकारी पिता को...

बदलते देखना।

और केवल आँखों से सब कुछ कहते...

ये अनुभव जाने क्यों

हर उस लड़के को छू जाता है

जो अभी कुछ दिन पहले तक,

निर्भरता की सीढ़ी उन पर टिका कर,

आखिरी सोपान पर पहुंचा है।

जहाँ पड़ती तेज रौशनी से...

बचने को उनकी छाया

बस तीन -चार सोपान नीचे दिखती है।




6⃣➖

मैं..., जो संगतराश ना हो सका

तुम्हे गढ़ने की चाहत

फिर भी मरती नहीं...



7⃣➖

किन्ही पलों में तुम्हारा होना और उन्ही जैसे पलों में तुम्हारा न होना

यूँ तो जन्म से मृत्यु का सफर पूरा हो ही जायेगा

पर बीच -बीच के पड़ावो पर तेरा होना और फिर न होना

यही सौगात लिए फिरते है और सम्हाले हुए कागजो पर

फिर फिर लिखते है तेरा होना और न होना

पीले पड़ चुके कागजो की एक एक सलवटों पर

उँगलियों की हरकत ठहर ठहर जाती है

कि टपकी हुई बूंदों से धुन्धलाये हुए हर्फ़

तेरे होने और न होने पर कसमसाते हुए तैरते है



8⃣➖

तुम्हे माफ करने की कोशिश कभी मन से नहीं कर पाता

जी भर के जीना चाहता हूँ तुम्हे, खुद से सुलह ना करके



9⃣➖

कि यादों के इस बियावान में

तुम एक हरी घास की चादर-सी बिछी

मेरे पाँव रखते ही

सिमट जाने के उपक्रम में

सब नमी उलीच जाती हो।


10⃣➖

छले जाने के पड़ाव...

हर पड़ाव पर...

यूँ, ठिठकना...

और उत्सुक मन में...

गाढ़ी होती अधीरता से...

टपकती बूंदों के निशाँ पर

पॉव रख चलना...

और पीछे मुड मुड...निहारना...

क्या अदभुत संयोजन है...

ठहरे पानी में...लहर पैदा करने का।



11⃣➖

एक शहर...

जो मेरे कंधे पर बैठा रहता है

एक तितली की तरह नहीं

ना ही किसी चमकते तमगे की तरह

झिलमिलाता है

स्पोन्डलीटिस के शुरूआती दर्द सा

जो हरकत करने पर

कबूतर बन जाता है।

फुर्र...होने के लिए

और जरा-सा आराम पाकर

टीसने लगता है।



12⃣➖

तुम्हारे बिल्कुल करीब आके

बीच की गुजरती हवा में भी

साँसों को ठेलती गर्मी

सिर्फ हथेलियों को पसीजती है

लेकिन मन पसीज कर भी

नम और मुलायम होकर भी

मुझे सांत्वना नहीं देता।



___________________________________________________________


प्रतिक्रियायें

Ravindra Swapnil: बहुत सुंदर कवितायेँ है, भाव और अर्थ के स्तर पर, भाषा में भी काव्य है, कंधे पर शहर का बेठना, आदि।
सपने का चलना लेकिन निबंधित नहीं हो रही कवितायेँ। अभिवियक्ति को साधना, उसे परिवेश देना और अंत की और ले जाना बड़ी प्रोसेस का हिस्सा है।

 इस स्तर पर ये अ ज्ञात कवि को सुझाव दिया जा सकता है।

 Mani Mohan Ji: उम्दा कविताएं हैं, खासकर पिता को लेकर जो रची गई है।तनिक आमूर्तन से बचा जाए तो सोने पर सुहागा।

 Anita Karnetkar: सापॅनडिलाइसिस के दर्द की तरह, सर्वथा नई उपमा है, ऐसे प्रयोग न केवल अभिव्यक्ति को विशेष बनाते है बल्कि भाषा की अभिव्यक्ति को भी संपन्न करते हैं।

Avinash Tivari: बहुत खूबसूरत क्षणिकाऐ आसपास के परिवेश से आत्मीय रिश्तों को चित्रित करतीं॥


 Dipti Kushwaha: उम्दा कविताएँ!

भाव, मन को छूते हैं और बिम्ब भी आकर्षक।

फिर भी,

कहीं कुछ है, छूटता सा...इन कविताओं में।

मुझे यह (...) अर्थात् बिन्दुओं के अत्यधिक प्रयोग का औचित्य समझ नहीं आता!

कवि से माफ़ी!

‪+91 80850 96010‬: पिता और शहर कविता को छोड़कर बाक़ी सभी कविताएँ लगभग एक ही भाव की हैं। बिना शक ये भावनाप्रधान कविताएँ हैं। इनमे कुछ है जो मन को छू रहा है। पर एक बात जो मुझे खटकी वह ये कि जिस नर्म, नफासत की भाषा का प्रयोग कविताओं में किया है उसी में पढ़ते हुए अचानक (साँसों में ठेलती गर्मी) जैसा प्रयोग कुछ कंकर जैसा लगा। वैसे कवि कुछ सोच के ही लिखे होंगे। अंतिम राय कि कविताएँ सुन्दर और सराहनीय हैं। बधाई कवि को।

+91 96876 94020‬: प्रथम कविता टीप मारने की सामर्थ्य रखती हैं सपना में आना औऱ जाग्रत में आऊगां का भरोसा दिलाना पूरे काल चक्र में जुड़े होने का अप्रतिम आशा देती है जो लीन हो जाने का संकेत हैं।कवि प्रेम कर सकने में सक्षम हुआ है पर फिर भी प्रेम की पराकाष्ठा पाने की चेष्टा उसने नहीं कि है अवचेतन में आने का वादा इस प्रेम की रूई वाली भाषा को यथार्थ का छल देता है यही पर यह कविता प्रेम के समकालीन संकलन से जुडती है औऱ अति नहीं लगती।

कविता बेहतरीन है पर भुला दी जायेगी कयोकी इस लघु में भी कम से कम तीन पंक्तियाँ औऱ वांछित थी जिससे इस कविता का रूझान साफ हो पाता औऱ यह विमर्श संदर्भ में उदाहरण बन पाती।

एक अच्छी कविता पढवाने के लिए धन्यवाद।

बाकी कविता पर बाद मे।

 Dushynt Tiwari: कविताओ के विषय बहुत अलग नहीं हैं मगर मुझे इनमे metaphors और denotations का उपयोग बहुत अच्छा लगा जिसके कारण आम से विषय भी रोचक लग रहे हैं।निर्भरता की सीढ़ी, पीले पड़े कागज़, लिखने वाले की भाषा पर बहुत अच्छी पकड़ है॥ बढ़िया कविताएँ॥

Sazid Premi Ji: बहुत खूबसूरत कविताएँ। 💐💐💐

+91 96876 94020‬: दसवीं कविता अद्भुत प्रेम रेशो से बुनी है औऱ इतनी मजबूत है कि प्रेम पर हाहाकार मचाते किसी भी कविता को सोटा लगा सकती है।
 पिता पर लिखी कविता सुंदर है एक दोहा याद आ गया।
पिता पुत्र के रिश्ते में जंगल का संवेग।
वृद्ध चक्षु धरती धसे, शावक चक्षु आवेग॥

 ‪+91 98272 49964‬: माँ पर तो बहुत लिखा गया है। पिता जैसे अछूते व्यक्तित्व पर काव्य में अपनी भावना लिखना... वास्तव में जय हो

 Arunesh Shukla: विरह की कविताएँ।पर प्रेम में मिलन-सा रोमांस लिए.अच्छी हैं।सघन हैं।प्रेम कविता य कहानी लिखना लेखक का लिटमस टेस्ट है।बधाई.

Abha Bodhisatva: अपने जीवन के अलग -अलग अनुभवों को सरल भाषा में कवि ने सहजता से व्यक्त किया जहाँ उसे बहुत भारी भरकम बिम्ब विधान ढूँढने और बैचेन होने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई. यही खूबी है कवि की ककविताओं में। सुंदर -सहज।

 Arunesh Shukla: भाषा पर थोड़ा और काम की ज़रूरत इस क्रम में अगर कविता लंबी भी हो जाये थोड़ा तो चलता है।दूसरी बात प्रेम एक highly पॉलिटिकल चीज़ भी।उसको समसामयिक चीजों से जोड़ना भी ज़रूरी होता।दस में एकाध तो हों ऐसी.बाकी पिता पर ageya जी याद आते।बहुत दूर जाना होता पिता से पिता जैसा बनने के लिए.मैं क्या कहु।अच्छी कविता है।बस कविताओं में कई का वाक्य विन्यास खटकता।

 Arti Tivari: छोटी सुंदर कवितायेँ, ।जैसे कवि ने अपने अंदर का सत्व उड़ेल दिया हो इनके ज़रिये, ...वेदनात्मक चेतना काव्य का केन्द्रबिन्दु है, ।जो उद्वेलित करता है। क्रमांक 6 8 9 10 11 मुझे ऐसी ही लगीं।
सबसे अच्छी तीसरी कविता लगी।
अभिव्यक्ति को साधना जैसे ऊपर स्वप्निल जी ने कहा, ।कुछ पंक्तियाँ को और जोड़कर मुझे अच्छी लगीं कवितायेँ, ।👍🏼🍀🌹

अनाम कवि को बधाई साकीबा का आभार 🙏1⃣➖


 Sandhya Kulkarni: पहली कविता में कवि प्रेमिका के अवचेतन में जाना चाहता है चेतन अवचेतन का द्वंद्व उसे बेचैन करता है,और अपने होने की  सार्थकता तलाश रहा है कवि मनोविज्ञान का माहिर ज्ञाता भी है ।
बहुत सुन्दर कविता 🌻 

दूसरी कविता में कवि अपने अबोलेपन में भी प्रेमिका को फागुन के विभिन्न रंगों से जोड़ कर खुली लटों से स्वयं को आबद्ध कर लेना चाहता है और एक इंटेंस भाव प्रकट करता है ।
बहुत उत्कट रचना 🌻

तीसरी कविता में अपनी प्रेमिका की स्मृति से आप्लावित कवि इतना भाव विभोर हो गया है कि उसका नाम लिखता है मिटाता है और इसकी पीछे यहाँ भी उसका मनोवैज्ञानिक द्वंद्व द्रष्टव्य हो रहा है वो वह चाहता भी है कि प्रेमिका जिसे वो इबारत कह रहा है स्वयं को पढ़े और वो इसी बहाने स्वयं को भी पढ़वाना चाहता है।
थोड़ी सी अस्पष्ट लेकिन अपने गंतव्य में सहल कविता 🌻

चौथी कविता में कवि अपने दर्शन को लिख रहा है दार्शनिक अंदाज़ में साक्षी भाव् से स्वयं का दृष्टा बना है ,कवि अपने जीवन की मीमांसा करता हुआ अपनी जिज्ञासाएँ जो दर्शन से जुडी है जो एक जीजिविषा से जोड़ती हैं उसे उस पर बात कर रहा है वो शुरू से जानता है "सब कुछ छूट जाता है "इसकी संतृप्ता और निर्लिपता को पा जाता हैऔर पुन: अपनी जीजिविषा को पकड़ लेता है सकारात्मकता इनका ख़ास भाव है कवि दर्शन का भी ख़ास ज्ञाता है ।
कविता पाठ को संलग्नता से जोड़ती है 
सुन्दर कुछ जल्दबाज़ कविता🌻

पांचवी कविता पितृ पक्ष में एक कृतज्ञ भाव से भर देती है ,माँ के लिए तो सभी भावुक दिखते हैं पिता के लिए कवि का भावुक होना ह्रदय को छू जाता है ।
हृदयस्पर्शी कविता🌻

छटवीं कविता में कवि की इच्छा पूरी हो ये सदा अपने "डॉ हिंगिस" के स्वरुप को बनाये रखें 
खूबसूरत कविता🌻

कवि अपनी सातवीं कविता में अपने भावों को चरम पर अनुभूत कर रहा 
है ,वो जहाँ एक और वृथा जीवन और जीजिविषा से जुड़ा है वहीं दूसरी ओर 
स्मृतियों का अभेद्य कवच लिए भी घूम रहा है और इतना भावुक हो उठा है कि,अपनी कविताओं की सौगात में ढूंढ कर टपकी हुईं अश्रु बूंदों में होने और न होने को निहारता है 
कवि का अतिभावुक होना आशा जगाता है ।
सुन्दर भावुक रचना 🌻

आठवी कविता में कवि अपनी नामाफी टाँक देना चाहता है,और स्वयं को भी बरी नहीं होने देना चाहता ,इस तरह जीने की उत्कट इच्छा से भर जाता है जिजीविषा यहाँ जीवंत होकर दिखाई देती है ।
जीवंत कविता🌻

नोउवीं कविता में कवि फिर से प्रेमिका की स्मृति में प्रविष्ट हो जाते हैं उसे हरी घाँस सा याद करते है ये इसमे भी इतनी नाज़ुक चाल से प्रविष्ट होते हैं कि, उसके सिमटने और स्वयं के उलीचने को बड़े ही कलात्मक तरीके से व्यक्त करते हैं यहाँ कवि "अशोक वाजपेयी"प्रभाव से स्वयं को बचा नहीं पाते ।
मनभावन कविता 🌻

दसवीं कविता में कवि अपने चलने रुकने और अपने उद्वेग को स्पष्ट करना चाहता है,बूंदों  और लहरों के माध्यम से वह यहां अपने शिल्प में अपनी चिर परिचित सांकेतिक शैली का उपयोग करता है और स्वयं के उद्वेलन से चकित भी ।
अद्भुत कविता 🌻

कवि ग्यारहवीं कविता में अपनी सम्बद्धता जो इनके शहर के प्रति है उसे बता रहा है लेकिन स्वयं को बिना जोड़े इसे भी व्यक्त नहीं कर पाता ,इसे ये स्पांडेलाइटिस के ठहरे दर्द सा पाते हैं, हरकत होते ही एक्टिव हो उठता
 है उसे ये तितली या तमगे से भी परिभाषित नहीं करना चाहते,साथ ही इसे एक कभी आराम न पाने वाले दर्द से घिरा पाते हैं ।

बेहतरीन कविता 🌻


बारवीं और अंतिम कविता में कवि सम्भवत: ग्रीष्म ऋतु में प्रेमिका से अपने मिलन की असंतृप्तता और असंतुष्ट होने की पीड़ा बयान कर रहा है, कुछ और विस्तार मांगती है ।

लाजवाब कविता 🌻

कवि एक अनंत संभावनाओं के स्वामी हैं मनोविज्ञान और दर्शन पर इनकी विशद पकड़ इनकी कविताओं में परिलक्षित है ,कहीं कहीं अपने प्रिय कवियों के प्रभाव से भरे हुए प्रतीत होते हैं ,जिनमे अशोक वाजपेयी और गीत चतुर्वेदी का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है इन पर लेकिन बावजूद इसके ये स्वयं को अलग रखने में सफल रहे हैं ।
प्रेम कविताओं के सिद्धहस्त कवि हैं 
इन्हें अन्य विषय भी छूना चाहिए इनकी अन्य कविताओं का इंतज़ार रहेगा ,कवि की कविताओं में प्रेम की बेचैनी और दर्शन और मनोवैज्ञानिक विषय की विशेषज्ञता सुस्पष्ट है जिन में ये निष्णात हैं इन विषयों पर लिखी गयी कविताये अपेक्षित हैं ।
इनके काव्य की उज्जवल भविष्य की शुभकामनाओं के साथ 🌻🌻
 Meena Sharma: सार्थकता की तलाश में त्रिज्याएं नापते कवि कीका प्रेम दूसरी कविता में
में अंतर से छलकता जान पड़ता 
है !कहना और अनकहा रहना .दोनों चित्र साकार हैं ! तुम्हें बार-
बार लिखना , फिर-फिर मिटान

                 .
एक शहर / जो मेरे कंधे पर  बैठा रहता है ...में स्पोंडिलाइटिस
के दर्द के लिये कबूतर का प्रयेग
नयापन लिये हुये है, सुनदर भाव भरी कविताएँ, सुन्दर अभिव्यक्ति हैं !
छोटी कविताएँ.अपनी सीमा में बहुत कछ कह गईं,किन्तु कुछ खोया-खोया सा रहा,क्या ..यह कवि ही
कह सकेंगे. ! 
सुन्दर काव्यात्मक लय है !
बधाई कुछ परिचित से कवि को !
नाम आने पर शायद लगे कि मैने भी  अँदाज में यही नाम रखा था !
शुभकामनाएँ ..
आभार ब्रज जी अनाम कवि से मिलवाने के लिये  !                ा...
मन की इबारत को ,नई दृष्टि देने का प्रयत्न है !
HarGovind Maithil देखने में छोटी - छोटी  किन्तु बहुत सुंदर भाव और संवेदनाओ से परिपूर्ण कवितायें ।
अ नाम कवि को बधाई और एडमिन जी का आभार ।

अपर्णा: इन कविताओं को पढ़कर स्पष्ट है कि इनका स्वर आत्मिय है। इतना कि संभवतः ये स्वंय के लिए लिखी गई हैं। ये स्वंय को कुरेदती, प्रश्न करती, उत्तर देती और सहलाती हैं। 'मैं' हर कविता का केंद्र है। 

लगभग सभी प्रेम कविताएँ हैं। पर यहाँ प्रेम को बड़ी परिपक्वता से बरता गया है। जैसे कि स्वंय को ही एक दूरी से देख रहा हो कोई। प्रेम वर्तमान हो या भूत, कवि एकदम से snap नहीं कर पाता है जुड़ाव। स्मृति और 'काश' का भाव बार बार उभरता है जिसे वो पड़ाव कह रहा है। 

पिता और शहर की कविताएँ ही संभवतः प्रेम से इतर हैं इस काव्य गुच्छ में। और दोनों को एक यूनीक ट्रीटमेंट से नवाज़ा है। यहाँ अति संवेदनशीलता से लबरेज़ अभिव्यक्ति न होकर एक बार फिर वही परिपक्वता दिखती है। दोंनो ही कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। 

मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक भाव के कारण विषय पर लिखते हुए भी एक डिटैच्मेंट एक दूरी दिखती है। 

बिंब प्रकृति से हों या आस पास के बहुत सटीक और नए हैं अपने संदर्भों में। 

भाषा कहीं कहीं बिखरती दिखती है। कहीं कहीं बस। बोलचाल की भाषा है। सहज और सरल। कोई साहित्यिक कलाबाजी नहीं दिखती। 

प्रथम कुछ पाठ में कविताएँ किंचित अमूर्त और दुरूह लगीं। स्वर गंभीर है तो ये प्रभाव और सघन हुआ है। फिर अपनी समझ भर खोल लीं मैंने। नहीं पता कितनी सफल रही। 

और ये भी लगा कि कभी कभी ये नियंत्रित अमूर्तता भी एक काव्य सौंदर्य बन कर उभरती है। 

ये मेरा नितांत निजी मत और पाठकीय प्रतिक्रिया मात्र है। 



 Aanand Krishn: भाव की दृष्टि से समृद्ध कवितायें, शिल्प पर अधिक ध्यान देने की ज़रुरत है । 

"सार्थकता की तलाश में त्रिज्याएं नापते कवि…......"
मीना जी की अद्भुत टिप्पणी, जिसमें समग्र रचनाकर्म की सार्थकता जीवंत हो उठी है ।
Aalknanda Sane: अच्छी कविताएं हैं, पर यकायक वाह नहीं निकला , लेकिन इन्हें खारिज भी नहीं किया जा सकता । कवि/यत्री विज्ञान के छात्र/त्रा रहे हैं, इतना समझ में आता है । बाकी बहुत सारा लिखा जा चुका है और मेहनत तो हमेशा करना ही पड़ती है, यदि इन कविताओं पर दोबारा की जाय तो बेहतरीन कविताएं निकलकर आ सकती हैं । कुछ तो है जो ठीक ठीक बाहर नहीं आ पाया है । शुभकामनाएं ।
Hanumant Ji: ये कवितायें सम्वेदनाएँ और स्मॄति के बुलबुलों की तरह है....क्षुद्र कहे अविशेष क्षणों की भी यहाँ विशेष प्रतिष्ठा है गोया वे लघुता का गौरव गान हों 
लहरों के साथ बुलबुलों का भी अपना सौंदर्य है....एक कविता मे कवि स्वयम बूँद और लहर के बिंब मे बात करता है ...मै इन कविताओं को जब तक चीन्ह पाता हूँ वे समाप्त हो जाती है...
वे मानो अपनी मर्जी से अधूरा रहना चाहती हो...उन्हे पूर्ण होने से ही वैराग्य हो मानो....हालाँकि अपनी अपूर्णता मे भी वे अनुभूति की पूर्णता को जन्म दे जाती है जैसे दूसरी कविता मे फागुन को चोटीयों की तरह खुलते देखना या हर्फ़ के धुंधलके और  टपकती बूँदों को साथ रखकर याद करना...कई स्थलों पर ऐसी चमकदार बिम्ब रश्मि बिखरी है...यहाँ वे उस तरह से ही है  जैसे छोटा बच्चा चमकदार कंचे बहूमूल्य समझकर जेब मे भर लेता है

11 वी कविता बहुत कुछ पूर्ण है और मेरे करीब भी इस कविता मे मै स्वयम को और अपने को पाता हूँ....
मै चाहता हूँ कि आगे वो और उस तरह से लिखे जो मुझे दुख मे मुसीबत मे याद आये 
कविता की संगत के बाद अब दुर्दिन और दुख मे मुझे कविता ही याद आती है.....
 Dr Dipti Johri: भावपूर्ण कविताओं पर कविताओं से भी खूबसूरत भावपूर्ण टिप्पड़ियाँ.. 

खूबसूरती एक प्राथमिक भाव है ,फिर चाहें तार्किकता पीछे छुटे, कवितायेँ मन को नम तो कर ही जाती हैं ,    

फिर भी मेरे तार्किक मन को जो सबसे ज्यादा भायी वो है " मैं जो संगतराश न हो सका ...."   कम शब्दो में गहरी बात कह जाने की सलाहियत जो कमोबेश हर छोटी कविता में परिलक्षित हो रही है , कहना होगा ये उसमे सबसे उम्दा है।
        हर मनुष्य की एक अनचीन्ही और अमर्त्य चाहत अपने साथी को अपने अनुसार ढालने की रहती ही है। कभी कभी जिंदगी तमाम हो जाती है ,और संगतराश होने का भ्रम लिए ही जीवन का सफर तमाम हो जाता है ।

 वैसे भी सभी कवितायेँ अपने कहन में मनोवैज्ञानिक है भ्रमों,संभ्रमो,चेतन ,अवचेतन , चोटियां(गुत्थियाँ) आदि आदि में ।जिनके पाठक अपनी अपनी दृष्टि से पाठ कर सकते है जैसे साल भर की चोटियों का खुलना किसी एक मौसम के इंतज़ार में या कहें एक विशिष्ट समय में गुथियों का खुलना और जीवन की जीवंतता का क्लोरोफिल जब अनायास ही अपनी गिरफ्त में लेता है तो कवि मन अपने साथ साथ पाठक को भी मदनोत्सव में डुबो देता है।
     पिता के साए/सरंक्षण/सुरक्षा/सरपरस्ती आदि से अभी अभी निकला ,एक नौजवान उस दहलीज पर कैसा महसूस करता होगा जहाँ से उसे दो दृश्य एक साथ दीखते है  ..एक जिसमे वो गा रहा होता है 'तू (पिता)मेरा सरमाया है '  और दूसरे दृश्य में वह खुद इस सरमायेदारी के आसन पे बैठने का उपक्रम करता दीखता है ...तो उस दहलीज या थ्रेशहोल्ड को काव्य में जिस तरह उतारा गया है वह उस मनःस्थिति को बखूबी बयां करता है।
Dr Mohan Nagar: सुबह से चार पांच बार पढ़ने की कोशिश की पर एक आपरेशन और मरीजों के बीच व्यस्तता ज्यादा ही रही और ये कविताएँ ठहर कर पढ़े जाने का आग्रह कर रही हैं  । कविताओं में प्रतीक और बिंबो का प्रयोग लगभग हर कविता में है और एक टिप्पणी से सहमत भी कि ये अशोक बाजपेयी जी के लेखन की झलक देती हैं .. पर मेरा सोचना है कि उनसे बेहतर .. क्योंकि अशोक बाजपेयी जी का ज्यादातर लिखा मेरे तो सिर के ऊपर ही गया है आज तक माफ करें .. ये कविताएँ उस केडर की भी हैं तो उनसे बेहतर क्योंकि विषयवस्तु अबूझ नहीं  । शेष .. और इत्मीनान से पाठन के बाद
 Dr Mohan Nagar: शहर ने तो चमत्क्रत ही कर दिया। सुरेन जी यहाँ शब्द संशोधित करें बस .. सही शब्द है। - स्पॅान्डिलाइटिस .. हिन्दी उच्चारण में भी  ।
: वैसे बस यही कविता है जिससे संतुष्ट नहीं .. स्पॅान्डिलाइटिस का दर्द .. आराम करने पर ठीक रहता है / दबा रहता है .. और हरकत पर उभरता है .. यदि इसे प्रतीक लिया है आपने तो इस पर इस लिहाज से सोचें जरुर  👏
Suren: मोहन जी ,यह स्पोन्डलायटिस के शुरूआती लक्षण मेरे स्वयं के है 8 ,10 वर्ष पूर्व के । जब तक चलता फिरता रहता था ,किसी मुवेबिल काम में लगा रहता था तो कुछ पता नही चलता था पर जब आराम की मुद्रा में आता था तो हल्का हल्का टीसता था । तो उसी को यहाँ उपयोगित किया है ।
पाठ कर चुका .. अभी भी पढ़ ही रहा था
 काम करते समय दर्द का पता न चलना .. ध्यान हटना है
 उसे समग्रता में नहीं लिया जा सकता
मैंने तो सर अपना भोगा हुआ ही लिखा इसमें ,ये ठीक बात है कि संज्ञान का स्तर काम के समय डाइवर्ट ही जाता होगा ।
 Dr Mohan Nagar: दरअसल इसमें दोनों बातें .. हरकत पर फुर्र होना और आराम पर टीसना .. एक ही बात कह रहे हैं और कविता का प्रतीक भी बिगड़ रहा है .. यहाँ मुझे यह लग रहा है कि आप लिखना चाहते थे कि शहर एक आदमी को धमकाता सा है कि चुपचाप जियो .. हरकत की तो तकलीफ में जाओगे
प्रतीक भी अद्भुत लिया आपने बिला शक .. इसलिए जता बैठा कि वैज्ञानिकता के लिहाज से सोचें या प्रतीक के लिहाज से .. ये दोनों चीजें थोड़े से संशोधन से लाई जा सकती है
 कुछ ऐसा कि .. चुपचाप बिना हिले पड़ा रहूँ तो  दबा रहता है पर जरा सी हरकत पर ही उभर आता है 👏  मेरा सोचना है ये .. जरुरी नहीं सही ही हो .. न हो तो क्रपया खारिज करें 👏
 Suren: नही मोहन सर , मैं एक साधारण सी बात को काव्य में कहना चाहता था कि हम अपने ,अपने शहर के ,अपने अपने नॉस्टेल्जिया के कई सारे बिंदु जहन में लिए फिरते है । जिनसे हमारी आत्मीयता और एक अजीब सा बाँडेज होता है ,जिसे हमारी प्रवृत्तियों की पुनरावृत्तिया और उसकी बायप्रोडक्ट के रूप में काम करती कंडीशनिंग के गहराने से उपजे भाव जब हम दुनियादारी में सलग्न रहते है तो तलछट में बैठे रहते है और जरा फुर्सत पाते है तो कंधे पर सवार हो टीसने लगते है । 

हाँ , ये  संभव है कि जो कहना चाह रहा हूँ वो उभर कर  काव्य में न आ पाया हो ।
 Dr Mohan Nagar: आपने जो कहा मैंने उसे पूरी तरह समझा सुरेन जी यकीन मानिए .. मैं बस इतना ही चाहता हूँ कि हम घर के सदस्यों की तरह हैं .. यहाँ कोई भी बात / सुझाव बेहतरी के लिए हमें एक दूसरे को इसलिए देना चाहिए कि हम बेहतर से सर्वश्रेष्ठ की ओर जाऐं .. ये न हो कि बाहर की दुनिया में जब हमारा लिखा जाए और कोई सच्चा आलोचक / समीक्षक हमारी रचना की कमतरियों पर बात करे तो हम निशब्द रह जाऐं .. बस इसलिए 👏
 Madhu Saksena: हाँ सन्ध्या ....आज सबकी प्रतिक्रिया का आनन्द ले रही थी ।बहुत ही बढ़िया सबकी ।तुमने भी बड़े मनोयोग से सब कविताओ को स्पष्ट किया ।
कुछ कविताएँ यूँ धस जाती है दिल दिमाग में की मौन कर देती है ।उनमे विचरण करके उसके सारतत्व की खोज चलती रहती है ।और हर खोज के बाद लगता है अभी भी छूटा छूटा  सा है तो फिर वही प्रक्रिया ।सोच में उनमे डूब जाते है ।पढ़ते ही सनझ गई थी मेरे प्रिय कवि की कविताएँ है ये मुझे डुबा कर ही मानेगी ।फिर समझ नहीं आता क्या लिखूं ?
आप सबकी प्रतिक्रियाएं पढ़ कर सीख रही थी की ऐसा भी लिखा जा सकता है ।
बधाई सुरेन ।
आभार एडमिन जी ।
Dr Mohan Nagar: ये बहुत बहुत अद्भुत कविता है .. इसलिए तो वार्ता में है .. हमें प्रतीकों में लिखने की छूट है .. लिखना चाहिए .. पर अवैज्ञानिकता से बचते हुए  । और बहुत गहराई से पाठ कर लगा कि ये बेहतरीन है पर इसका सर्वश्रेष्ठ होना शेष है अभी
 Rajendr Shivastav Ji: मेरी ओर से भी  बधाई स्वीकारें सुरेन जी।
पहली बार आपकी कविताएँ पढ़ने का अवसर पाया है।
मेरी समझ और सोच की पहुँच से तीन पायदान ऊपर।
किंतु कुछ कविता से कुछ प्रतिक्रियाओं से भाव समझने में सफल सा हुआ।
निसंदेह बिम्ब अनोखे अनछुए और कविता को पूर्णता दे रहे हैं। 
'समझदार को इशारा काफी '
जैसा कुछ कहती, भावपूर्ण कविताएँ ।
ब्रज आज के लिये धन्यवाद ।
Manjusha Man: बहुत सुंदर छोटी छोटी कविताएं। कवी ने इन कविताओं में भावों का पूरा सागर उड़ेल दिया लगता है।
जीवन का हर रंग देखने मिला इन कविताओं में, हर एहसास है इन में।भाषा सरल सहज है। 

कवि को शुभकामनाएं एवं बधाई
Dinesh Mishra Ji: बहुत अच्छी भावपूर्ण कविताएं
सिर्फ़ वही कहा गया
जो ज़रूरी था।
 Naresh Agrawal Sakiba: माफ कीजिएगा मुझे यह सारी कविताएं प्रयोगवाद   से  प्रेरित लगी और अभी  प्रयोग की सफलता की ओर बढ़ती हुई। हलांकि यह दूरी अभी लंबी है। 

 मैं सदैव प्रयोगवाद का पक्षधर रहा हूं और यही प्रयास लोगों के सामने कुछ नया ला सकता है ।

 महाकवि को बधाई नये प्रयोग करने के  लिए, साथ ही शुभकामनाएं भी।

भाई मैं कोई  समीक्षक तो नहीं  हूँ लेकिन जो समझ आया वही लिखा और है वह भी बार बार पढ़ने के बाद।
 Jyotsana Pradeep: आद. सुरेन जी ..आपकी रचनाये पढ़ी, बहुत  अच्छी लगी ,सहज और सरल भाषा में गंभीर भावों को समेंटे है । पिता पर लिखी कविता बहुत बढ़िया लगी साथ ही 10 वी कविता 
छले जाने का के पड़ाव..........

अनोखी!!!

शुभकामनाओं के साथ🙏

 Chandrashekhar Ji: सुने-पढ़े विषयों पर मौलिक शैली की होने से विशिष्ट कवितायेँ हैं सुरेन जी की। उनकी विश्लेषण क्षमता से समूह परिचित है ही, कुछ संकेत कविताओं में हैं जो कवि को इंगित कर रहे थे, कवि का नाम पता चलने के मुझे ऐसा लगा। सुरेन जी बधाई🌷





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