Tuesday, May 31, 2016



उपन्यास अंश 


जयश्री राय  के उपन्यास "दर्द्जा "के कुछ अंश ही दिल को दहलाने की काबिलियत रखते है | सम्पूर्ण उपन्यास एक दस्तावेज है  विशेष जातीय समुदाय में स्त्री पर हो रहे क्रूर  कृत्य का जिसे एक रस्म के नाम से नवाज़ा  गया है |जहां आज स्त्री के कदम अन्तरिक्ष में दस्तक दे चुके है ,वहाँ  स्त्री अभी भी अपने क़दमों  को अमानवीयता की जंजीर से छुड़ाने की जद्दोजहद में लगी हुई है |





दर्दजा
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- जयश्री रॉय 



जयश्री रॉय की कृति ‘दर्दजा’ के पृष्ठों पर एक ऐसे संघर्ष की ख़ून और तकलीफ़ में डूबी हुई गाथा दर्ज है जो अफ़्रीका के 28 देशों के साथ-साथ मध्य-पूर्व के कुछ देशों और मध्य व दक्षिण अमेरिका के कुछ जातीय समुदायों की करोड़ों स्त्रियों द्वारा फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफ़जीएम या औरतों की सुन्नत) की कुप्रथा के ख़िलाफ़ किया जा रहा है। स्त्री की सुन्नत का मतलब है उसके यौनांग के बाहरी हिस्से (भगनासा समेत उसके बाहरी ओष्ठ) को काट कर सिल देना, ताकि उसकी नैसर्गिक कामेच्छा को पूरी तरह से नियंत्रित करके उसे महज़ बच्चा पैदा करने वाली मशीन में बदला जा सके। धर्म, परम्परा और सेक्शुअलिटी के जटिल धरातल पर चल रही इस लड़ाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनेस्को जैसी विश्व-संस्थाओं की सक्रिय हिस्सेदारी तो है ही, सत्तर के दशक में प्रकाशित होस्किन रिपोर्ट के बाद से नारीवादी आंदोलन और उसके रैडिकल विमर्श ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है।
                                                                       अपनी समाज-वैज्ञानिक विषय-वस्तु के बावजूद प्रथम पुरुष में रची गयी जयश्री रॉय की कलात्मक आख्यानधर्मिता ने स्त्री की इस जद्दोजहद को प्रकृति के ऊपर किये जा रहे अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का रूप दे दिया है। सुन्नत की भीषण यातना से गुज़र चुकी माहरा अपनी बेटी मासा को उसी तरह की त्रासदी से बचाने के लिये पितृसत्ता द्वारा थोपी गयी सभी सीमाओं का उल्लंघन करती है। अफ़्रीका के जंगलों और रेगिस्तानों की बेरहम ज़मीन पर सदियों से दौड़ते हुए माहरा और मासा के अवज्ञाकारी क़दम अपने पीछे मुक्ति के निशान छोड़ते चले जाते हैं। माहरा की बग़ावती चीख़ एक बेलिबास रूह के क़लाम की तरह है। हमारे कानों में गूँजते हुए वह एक ऐसे समय तक पहुँचने का उपक्रम करती है जिसमें कैक्टस अपने खिलने के लिए माक़ूल मौसम का मोहताज़ नहीं रहता।


अभय कुमार दुबे
          निदेशक, भारतीय भाषा कार्यक्रम, विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली
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दूसरे दिन रात के अंतिम पहर मैं एक बार फिर अनगढ़ पत्थरों के उस स्याह टीले के पास अपनी मां के साथ खड़ी थी और वह कुरुप और डरावनी बंजारन अपनी कालीन के टुकड़ों की पैबंद लगी झोली से तरह-तरह के औज़ार और भोंथरे-नुकीले हथियार निकाल-निकालकर ज़मीन पर तरतीव से रख रही थी. आज हमारे साथ पड़ोस की सामोआ आपा भी थीं. आपा और मां ने मेरे दोनो हाथ दो तरफ से पकड़ रखे थे और मेरे घुटनों में धीरे-धीरे कंपन हो रहा था. पेट के नीचले हिस्से में कुछ घुलाता हुआ. मैं बड़ी मुश्क़िल से सीधी खड़ी रह पा रही थी.

तेज़ी से फैलती रोशनी में मैंने चाकुओं और दूसरे हथियारों पर जमे हुये काले खून के धब्बों को देखा था जिन्हें वह बंजारन औरत जिसे मां जाबरा कहकर सम्बोधित कर रही थीं, अपनी थूक से गीला कर लहंगे से पोंछ रही थी. उसके दोनों हाथ की बड़ी और बीचवाली उंगलियों के नाखून बहुत लंबे थे, मुर्गे के चंगुल की तरह आगे से झुके हुये. उन्हें देखकर मेरे पूरे शरीर में बार-बार झुरझुरी-सी दौड़ जा रही थी.

एक समय के बाद जाबरा ने अपना चेहरा उठा कर मां की ओर अजीब ढंग से देखा था, जैसे कुछ आंखों ही आंखों में कह रही हो और इससे पहले की मैं कुछ समझती या करती, मां और आपा ने मुझे जबरन खींच कर ज़मीन पर लिटा दिया था. मां ने बैठ कर मेरे सर को अपने सीने से लगा लिया था तथा आपा ने मेरे पैरों को दोनों तरफ फैला कर उनपर मां के पैर चढ़ा दिये थे. मां ने भी झट पूरी ताक़त से मेरे पांव अपनी हड़ियल जांघों से चांप दिये थे. इस बीच आपा ने पीठ की तरफ से मेरी दोनों बांहों को मोड़ कर सख़्ती से पीछे की तरफ से पकड़ लिया था. अब मां ने फिर कल जैसी ठंडी आवाज़ में कहा था- "माहरा! ज़रा बर्दास्त करना, सब जल्दी हो जायेगा!"

मैं बिना कुछ कहे अपनी विस्फारित आंखों से जाबरा को देखती रही थी जो मेरे फैली हुयी टांगों के बीच बैठी ठंडी आंखों से मेरा मुआयना कर रही थी. फिर मैंने देखा था उसके हाथ में ब्लेड का वह टुकड़ा जो दूसरे ही पल मेरी नर्म त्वचा में जाने कहां तक उतर गई थी. मेरी आंखों के आगे अचानक बिजली के नीले-पीले फूल-सा कुछ कौंधा था और मैं हलक फाड़ कर चिल्लाती चली गई थी! दर्द का ऐसा भीषण अनुभव मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं ईद-बकरीद के मौकों पर जानवरों को हलाल होते हुये देखती आई थी. अब्बू या कोई और जानवरों के मुंह काबा की तरफ करके उनके गले में ढाई दफा चाकू रेत कर छोड़ देते. उसके बाद वे जानवर देर तक तड़प-तड़प कर अपनी जान देते. उनकी उबली हुई आंखें, खुला हुआ मुंह, गले से भल-भल बहता खून, उनकी छटपटाह्ट के साथ चारों तरफ उड़ते खून के छींटे.... यह सब आमतौर पर हमारे लिये मनोरंजन के दृश्य हुआ करते थे, मगर आज एक तरह से मुझे भी ज़िन्दा ही जिबह किया जा रहा था. जाबरा के उठते-गिरते हाथ के साथ मेरे शरीर में तेज़ पीड़ा की लहरें उठ रही थीं, बिस्फोट-से हो रहे थे. कभी जाबरा के हाथ में चाकू होता, कभी पत्थर के टुकड़े तो कभी ब्लेड... भय, पीड़ा से अवश होते हुये मैंने देखा था, उसने अपने दोनों गंदे हाथों के लम्बे नाखूनों को मेरे भीतर खुबा दिये थे. दर्द के अथाह समुद्र में डूबते हुये मैंने महसूस किया था, वह अपने नाखूनों से मुझे नोंच-खसोट रही है, चीर-फाड़ रही है, कुतर रही है! उस समय आग़ की सलाइयां-सी मेरे जांघों के बीच चल रही थी. लग रहा था, ढेर सारी जंगली, विषैली चिंटियां मेरे अंदर घुस गई हैं और मुझे खोद-खोद कर खा रही हैं! या फिर कोई बिच्छु लगातर डंक मार रहा है. तेज़ जलन हो रही है. मेरे दोनों पैर बुरी तरह थरथरा रहे हैं, पूरा शरीर पसीने से भीग गया है. चिल्ला-चिल्ला कर गला फट गया है. मां का चेहरा मुझ पर झुका हुआ है और उन्होंने मुझे बुरी तरह जकड़ रखा है. उनकी आंखों में इस समय अजीब-सी चमक और मुग्धता हैं! जैसे कोई धार्मिक अनुष्ठान देखते हुये लोगों की आंखों में अक़्सर होती है. मेरे मुड़े हुये हाथ शायद टूट गये हैं और कमर से नीचे का शरीर शून्य पड़ गया है. मुझ से और चिल्लाया नहीं जाता... मेरे गले से घुटी-घुटी आवाज़ें निकल रही हैं. एक समय के बाद खून के बहाव को रोकने के लिये जाबरा मेरे जख़्म पर जानवरों की लीद और मिट्टी डालने लगती है. ऊपर आकाश फटकर धीरे-धीरे सफ़ेद पड़ रहा है... पास ही कहीं सियार हुंक रहा है, ताड़ के नंगे माथे पर एक गिद्ध बैठा है. उसकी नंगी, रोमहीन गर्दन, खून में डूबी पलकहीन आंखें, विशाल डैनों की झपट... सब धीरे-धीरे आपस में गडमड हो जाता है और फिर वह काली, बड़ी चादर आकाश के जिस्म से खिसक कर जाने कब मेरे ईर्द-गिर्द फैल जाती है और मैं उसके तरल, सुखद अंधकार में डूब जाती हूं... आह! मृत्यु... यह इस जघन्य पीड़ा, इस नरक से कहीं बेहतर है. उस क्षण मैं सचमुच मर जाना चाहती थी. यह एक बेहतर विकल्प था. उस ठंडी, काली, निविड़ शून्यता को मैंने किस आवेग से स्वयं में निर्बाध उतरने दिया था...


ना जाने कितनी देर बाद मेरी आंखें खुली थीं. मैं मरी नहीं थी, जिन्दा थी... ओह! यह प्रतीति कितनी भयावह थी मेरे लिये! जीवन यानी पीड़ा और... पीड़ा! मेरे कमर से नीचे का हिस्सा नरक बन गया है. एक धधकता हुआ कुंड! ऐसे जल रहा है कि जैसे किसी ने ताज़े ज़ख़्म पर नमक छिड़क दिया है. अंदर कुछ धप-धप कर रहा है. सारी शिरायें सुलग रही हैं. एक चीरता हुआ दर्द बिच्छु के डंक की तरह रह-रह्कर लहर उठता है...
मेरा चेहरा सूखे हुये आंसुओं से चिटचिटा रहा है, होंठों पर पपड़ियां जम गयी हैं. किसी तरह सर उठा कर मैं अपने आसपास देखने की क़ोशिश करती हूं. मां हाथ में एक सूखी लकड़ी लेकर आस पास झपटते हुये गिद्धों को भगाने की क़ोशिश कर रही हैं. गिद्ध हड़बड़ा कर थोड़ा उड़ते हैं, फिर वापस लौट आते हैं. चारों तरफ अजीब-सी बदबू है. दूर सूखे नाले के पास दो लकड़बग्घे अपनी लम्बी जीभ निकालकर हांफ रहे हैं... गिद्धों की कर्कश चीख, डैनों की झपट, साथ लकड़बग्घों की डरावनी आवाज़- जैसे कई चुड़ैलें नकिया कर एक साथ हंस रही हों!
मैंने सिहर कर उस तरफ से अपनी आंखें फेर ली थी और दायीं तरफ देखा था. सामने पत्थरों और झाडियों में मेरे शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े- चमड़ी, बोटी- बिखरे पड़े थे! धूप में सूख कर काला पड़ते हुये... चारों तरफ खून के छींटे, धब्बे... जैसे अक़्सर किसी वध स्थल में होता है! मांस के कतलों पर नीली मक्खियां भिनभिना रही थीं. एक कौआ मेरे देखते ही देखते चमड़ी का एक टुकड़ा उठा कर टीले के ऊपर जा बैठा. देखकर मेरे अंदर घुलाने लगता है. मुंह में उल्टी से पहले जैसा पानी भर आता है. अपनी ऊबकाई रोकते हुये मैं देखती हूं, मेरे पैरों के पास जाबरा अपने सामने कैकसिया पेड़ के बड़े-बड़े कांटों की ढेर लगाये बैठी थी. उसके हाथ में सफ़ेद धागे का बंडल था. उसके इशारे पर मां और मौसी एक बार फिर मेरे आस पास घिर आई थीं.

इस बार मैंने कोई प्रतिरोध नहीं किया था. मुझ में कोई ताक़त भी नहीं बची थी इसके लिये. पूरा बदन अवश हो चुका था. सीने के दायीं तरफ असहनीय दर्द था, कलाइयां झनझना रही थीं. जांघ टूट-सी गयी थीं. मुझे पकड़ते हुये मौसी ने मां से फुसफुसा कर कहा था - "इसकी दायीं तरफ की दो पसलियां टूट गयी हैं... कलाई में भी मोच है!" सुनकर मां ने उसे चुप रहने का इशारा किया था. जाबरा मेरे कटे हुये जिस्म को कांटे और मोटे धागे से सी रही थी. ताज़े कटे हुये मांस में कांटे से छेदकर उसमे धागा डालती और उसे कसकर सी देती... मेरा गला पूरी तरह से बैठ चुका था. थोड़ी देर गोंगिया कर मैं फिर से अचेत हो गई थी. अचेत होते हुये मैंने प्रार्थना की थी कि इस बार मैं सचमुच मर जाऊं.



इसके बाद एक महीना मैंने उस वीरान जगह में एक घास-फुस की झोपड़ी में अपने दिन बिताये थे. यह छोटी-सी झोपड़ी मां ने मेरे लिये अपने हाथों से बनायी थी. सूखे पत्ते, घास, प्लास्टीक के टुकड़े और जाने क्या-क्या से. बचपन से मां को अकाल यानी घर बनाते हुये देखा है. जानवरों को लेकर हम घास और चारा की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते. साथ में ऊंट की पीठ पर दूसरे सामानों के साथ हमारा घर भी चलता जिसे बड़ी आसानी से तोड़ा और जोडा जा सकता है. बांस और लकड़ियों का एक छोटा-सा खांचा जिसपर घास-फुस, सूखे पत्ते और टीन या कपड़े के पैबंद लगाये जाते हैं. धूप और बारिश, हवा से ज़रा-सी आड़... बस यही होता है हमारे लिये घर का अर्थ!

इस छोटी झोपड़ी के फर्श में पड़ी-पड़ी मैं सियारों की हूक, उल्लू और अन्य रतजगे पंक्षियों की आवाज़, जंगली हाथियों की चिंघार सुनती रहती. मुझे कमर से लेकर टखने तक कस कर बांध दिया गया था ताकि जख़्म ठीक से भर सके. हिलना-डुलना तक संभव नहीं था. मां दलिया या कोई दूसरा नरम और गला हुआ खाना मेरे मुंह में डाल देतीं. टट्टी-पेशाब भी उसी अवस्था में. पहली बार जब अपने ताज़े घाव के साथ मैंने पेशाब किया था, लगा था किसी ने जख़्म में तेज़ाब डाल दिया है! तभी मुझे पहली बार पता चला था, मेरा गुप्तांग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है. बस एक माचिश की तीली की नोंक बराबर छेद- पेशाब और माहवारी के रक्त श्राव के लिये. बड़ी दीदी ज़मीन पर एक छोटा गड्ढा बना देती जिसमें एक करवट लेटकर मुझे पेशाब करना पड़ता. एक-एक बूंद- 15-20 मिनट तक! अंत तक मैं इतनी निढाल हो जाती कि मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगता. इन दिनों मैं लगभग हर वक़्त रोती ही रहती थी.

अचानक से मेरी दुनिया कितनी बदल गई थी. बस दर्द, डर, उदासी और अकेलापन... क्या औरत होना इसी को कहते हैं? दर्द से पैदा होना और दर्द में मर जाना...! जिसदिन मेरे जनानंग को पूरी तरह से काटकर मुझे औरत बनाया गया था, उसी दिन दोपहर से मुझे बुखार चढ़ आया था. तेज़ बुखार में पड़ी-पड़ी मैं बड़बड़ाती रहती. मेरी आंखें बकौल दीदी के गुड़हल की तरह लाल हो गई थीं. मेरे घाव पक गये थे. जख़्म से मवाद बहता रहता, खून से कपड़े लिथरे रहते, चारों तरफ दुर्गंध के भभाके उड़ते रहते. भिनभिनाती हुई मक्खियों, मच्छरों के बीच असहाय पड़ी मैं या तो कराहते रहती या अचेत हो जाती. सन्निपात की अवस्था में मुझे कुछ भी साफ़-साफ़ समझ में नहीं आता. सबके चेहरे अजीब-से अजनबी-अजनबी लगते, आवाज़ें जैसे कहीं बहुत दूर से मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह आतीं. किसी की चीख, किसी की पुकार, किसी की हंसी... सब मेरे भीतर गड्मड होते रहते. बेहोशी जैसी नींद में डरावने सपने आते, रात को छोटी-सी झोंपड़ी स्याह परछाइयों से भर जाती... मैं अपने सुलगते-धधकते शरीर की क़ैद में पड़ी रात दिन मृत्यु कामना करती रहती. अगर इस नरक को जीवन कहते हैं तो इससे मौत भली.

एक दिन जब मैं तेज़ बुखार में अचेत-सी पड़ी थी, अपनी बड़ी बहन की चीख सुनकर बड़ी मुश्क़िल से आंख खोल पाई थी और फिर गहरे आतंक में देखा था, मेरे शरीर के नीचले हिस्से में चिंटियां ही चींटियां बड़े-बड़े थक्कों में लगी हुई हैं- लाल, विषैली, गिजबिजाती हुईं... मेरे शरीर से खून बह रहा था, मगर मैं कुछ महसूस नहीं कर पा रही थी. मुझे अब दर्द नहीं होता था. सब कुछ जैसे शून्य हो गया था.

"ऐसे ऑपरेशन के बाद बहुत-सी लड़कियां इनफेक्शन, टेटनस, खून में ज़हर आदि फैल जाने से मर जाती है. पता नहीं ये कैसे जी गई! मैंने तो उम्मीद छोड़ दी थी..." एक महीने बाद जब मैं स्वस्थ होकर अपने घर लौट रही थी, आपा को मां से यह फुसफुसा कर कहते हुये सुना था. "हमारी ज़मीन की औरतों को ज़िंदगी शायद इसलिये मिलती है कि ये मौत से ज़्यादा मुश्क़िल होती है... हब्बा की जाइयों को अपने गुनाहों की सज़ा इसी दुनिया में भुगत कर जाना है. उनके लिये कोई अलग से दोज़ख नहीं है. जो है यही ज़िंदगी है...!" एक बार एक जादूगरनी ने कहा था. वह हमारे गांव कोई खेल दिखाने आई थी. हंसते-हंसते खेल दिखा रही थी मगर जाने क्यों फिर ये कह कर अन्त तक रोने लगी थी. मुझे याद है, उस समय उसके रोने पर भी हम बच्चों ने तालियां बजाई थी.

घर लौटकर भी मेरा जीवन सहज नहीं हो पाया था. धीरे-धीरे  समझ पाई थी, मैं सिरे से बदल दी गई हूं, शायद हमेशा के लिये ही. शरीर से भी और मन से भी. अपने विगत जीवन की निश्चिंतता, छोटी-छोटी खुशियां, निर्दोष सपने... सब मेरी देह के कोमल हिस्सों के साथ ही मुझसे अलग हो गये हैं. सब कहते हैं, अब मैं मुकम्मल औरत हो गई हूं, मेरा दर्ज़ा समाज और अपने लोगों में ऊपर उठ गया है. मगर मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं अधूरी हो गई हूं, अपंग हो गई हूं, कहीं से कम हो गई हूं! बहुत गहरे कहीं एक क्षोभ है, एक टीसता हुआ अपमानबोध. रह-रहकर ठगे जाने का अहसास होता है. लगता है, एक साजिश, एक छ्ल हुआ है मेरे साथ. विशेष कर मां के प्रति मन में शिकायत है. अब तक उनकी गोद, उनका आंचल ही दुनिया का सबसे निरापद, सबसे सुंदर आश्रय प्रतीत होता आया था. मगर इस घटना के बाद भीतर कुछ बहुत सुदृड़, बहुत पवित्र एकदम से टूट गया था. लगता था, मां ने इस अमानवीय कृत्य में दूसरों का साथ देकर अपमी ममता को, मुझे, मेरी अगाथ आस्था को नष्ट कर दिया है, छीन्न-भिन्न कर दिया है. अब शायद कभी मैं मां की गोद में निश्चिंत होकर पहले की तरह सो ना सकूंगी!

मां मेरी ख़ामोश आंखों में सवाल पढ़ती हैं. कभी उनसे नज़रें चुराती हैं तो कभी कुछ जवाब देने की भी क़ोशिश करती हैं - "एक नेक औरत का फर्ज़ बनता है कि वह दीन के बताये हुये रास्ते पर चले, अपनी औरत होने की जिम्मेदारी को समझे... ऊपर वाले ने हमें औरत बनाया है, इसलिये हमारे जिस्म में जो मर्दाना हिस्सा है, उससे हमें पूरी तरह से निज़ात पा लेना चाहिये, जैसे मर्द अपने जिस्म से ख़तना के ज़रिये औरत वाला नाज़ुक हिस्सा अलग करवा लेता है और मुकम्मल मर्द बन जाता है."
"मर्दोंवाला हिस्सा...! कौन-सा?" मुझे मां की बातें समझ नहीं आतीं. मुझे किसी तरह समझते ना देख आपा मां की मदद के लिये बातों का सिरा सम्हालतीं - "औरतों के जिस्म को नहीं समझती! अरे, गुप्तांग के जो बाहरी हिस्से हैं वे सब मर्दाना हिस्से हैं. जो अंदरुनी कोमल हिस्सा है वही जनाना हिस्सा है! वही ऊपरवाले ने औरत को मां बनने के लिये दिया है. हमें हमारे जिस्म का इस्तेमाल सिर्फ़ मां बनने के लिये करना चाहिये, ना कि यौन का विकृत आनन्द उठाने के लिये..."
"और नहीं तो क्या..." बीच में एक और प्राचीन महिला कूद पड़तीं - "छोरी! जाने किस गुनाह की वजह से क़ुदरत ने हमारे टांगों के बीच यह गंदी-सी चीज़ डाल दी है! जितनी भद्दी दिखती है उतनी खतरनाक भी है. औरत का शरीर ही उसका पाप. जाने कब आबरु में धब्बा लग जाय. ये दो अंगुल की चीज़ सारे ईमान पर भारी... जबतक देह से जुड़ी है, किसी को चैन नहीं. तो पाप को जड़ से ही ख़त्म कर दिया जाय! ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी!
उनकी बातें जाने क्यों मुझे बहुत अपमान जनक लगतीं. औरत के शरीर को इस तरह जलील किया जाना, उसे शक और हिकारत से देखा जाना. जिसे क़ुदरत ने इस खूबी से रचा है, उसे नष्ट कर देने वाले हम कौन होते हैं? मेरा सर सुनते हुये भारी हो उठता. मगर मेरे ख़्यालों से अंजान औरतें आपस में बतियाती रहतीं - "फिर छोटी उमर में इससे छुटकारा पा लेना अच्छा... वर्ना जानती भी है क्या होता है? ये गंदा, बदबूदार मांस का लोथड़ा बढ़ते-बढ़ते घुटनों तक लटक आता है! फिर ज़रा सोचो क्या हालत होती होगी औरत की! मेरी दादी कहती थी कि एक लड़की ने इससे मना किया तो उसका यही हाल हुआ. आगे चलकर दो टांगों के बीच इतना बड़ा डेढ़ मन का झुलता अवयव लेकर ना चलते बने, ना बैठते बने. ऊपर से जग हंसाई अलग से."


सुन कर मेरा जी घिनाने लगता. पता नहीं ये कहानियां सच भी थीं या नहीं! मुझे मुंह बनाते देख मां के चेहरे पर गुस्सा तैर आता - "लड़की! हम अपने पवित्र पिता समाल की संताने हैं! तुम्हें याद है ना समाल कौन थे? खुद मुहम्मद साहब के अपने गांव और कुरैश जाति के व्यक्ति! ऐसे महान इंसान की संतानें हैं हम! हमें अपने खून की पवित्रता और जाति की पहचान बनाये रखनी है और हमारा जातीय परिचय हमारे रीति-रिवाज़ों और मज़हबी कायदे-कानूनों में है. इनका हम किसी भी तरह बेइज्ज़ती नहीं कर सकते. हमारी इज्ज़त, कायदे-कानून, मज़हब हमारी जान से भी ज़्यादा कीमती हैं. इसपर हम किसी भी तरह आंच आने नहीं दे सकते. जिस्म के इस गंदे हिस्से से निज़ात पाकर हम औरतें पाक और खूबसूरत हो जाती हैं, एक नेक बीवी और मां बनने के काबिल हो जाती हैं. ये तकलीफें नहीं, नियामतें हैं जो हम औरतों को अता की गई है!" कहते हुये भावावेश में आकर मां झर-झर रोने लगतीं. दूसरी औरतें भी अपनी गीली आंखें पोंछने लगतीं. ऐसे मौकों पर सबके चेहरों पर अजीब-सी दीप्ति और गरिमा के भाव होते. सब देख-सुन कर मैं अजीब दुविधा में पड़ जाती. एक तरफ मेरी अकल्पनीय तकलीफें थीं, मन का आक्रोश था और दूसरी तरफ घर की बड़ी-बूढ़ियों की ये आस्था और भक्ति की बातें. तय नहीं कर पाती थी क्या सही है और क्या ग़लत. इन सबके बीच मेरी पीड़ा मेरा सबसे बड़ा सच थी जो रात दिन मेरे जिस्म में सुलग-सुलग कर मुझे याद दिलाती थी कि मेरा आप कही बहुत पीछे छूट गया है, मैं आधी-अधूरी हो गई हूं...

मैंने देखा था, मेरे शरीर के निचले हिस्से को बाहर से बिल्कुल सपाट कर दिया गया था. अब बहां एक बड़े घाव के चिन्ह के सिवा कुछ नहीं था जिस पर धागे के आड़े-तिरछे दाग़ थे. जैसे बोरे के मुंह को मोटे धागे से सी दिया जाता है. हमारी संस्कृति के सौन्दर्य बोध में स्त्री के शरीर के इस हिस्से के लिये कोई स्थान नहीं. यह बस सूखा, सपाट और साफ़ होना चाहिये. बाकि चीज़ें गंदी और त्याज्य. मेरे लिये अपने शरीर की तरफ देखना ही अब मुश्क़िल हो गया था. साथ में दूसरी परेशानियां. माहवारी के दौरान मैं दर्द से नील पड़ जाती. मुझ से उठा-बैठा तक नहीं जाता. महीने के ये पांच दिन मृत्यु-यंत्रणा में बीतते. हर बार जी चाहता ऐसी तकलीफ झेलने से अच्छा मर जाऊं. फिर रोज़ की असुविधायें तो थीं ही. हर बार पेशाब करने के लिये मुझे देर तक बैठी रहना पड़ता. एक-एक बूंद टपकती और मेरे भीतर आग़-सी लग जाती!...................

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चित्र गूगल से साभार 

 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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