Sunday, July 9, 2017


रिंगटोन,छोटी बड़ी कहानियों का गुलदस्ता ...श्री ब्रजेश कानूनगो जी का बोधि प्रकाशन से प्रकाशित कहानी संग्रह  |
संग्रह की कहानियाँ मन पर छाप छोड़ देती है ,क्योकि इन्हें पढ़ते हुए पाठक के मन की अकुलाहट सहज देखी  जा सकती है |सामाजिक मूल्यों  को अपने कथ्य में समाहित करके सामाजिक विसंगतियों का प्रतिरोध करते हुए अपने मन की बात को पाठक के दिलो दिमाग तक पहुंचाने में सफल रहे कथाकार के संग्रह  की कुछ कहानियां  साहित्य की बात समूह पर हुई चर्चा और समीक्षा सहित प्रस्तुत है रचना प्रवेश पर |

ब्रजेश कानूनगो

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परिचय

ब्रजेश कानूनगो


निवास : इंदौर (मध्यप्रदेश)

जन्मतिथि : 25 सितम्बर 1957 देवास म प्र
शिक्षा : हिंदी और रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर (मास्टर डिग्री)
प्रकाशन: 
व्यंग्य संग्रह - पुनः पधारें,व्यंग्य संग्रह-सूत्रों के हवाले से।

कविता पुस्तिका- धूल और धुंएँ के पर्दे में(वसुधा)कविता संग्रह- इस गणराज्य में।
कविता पुस्तिका- चिड़िया का सितार।
कविता संग्रह- प्रकाशनाधीन- कोहरे में सुबह

छोटी बड़ी कहानियां- 'रिंगटोन' (बोधि)
बाल कथाएं-  ' फूल शुभकामनाओं के।'
बाल गीत- चांद की सेहत'

संप्रति: सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।

संपर्क:
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोडइंदौर-452018
मो 9893944294
ईमेल bskanungo@gmail.com


रिश्तों की ऊष्मा, भावनाओं की कोमलता और मानवता के मूल्यों से स्पंदित ‘रिंगटोन’
रजनी रमण शर्मा


गुजरे समाजों की तुलना में आज का हमारा समाज, बल्कि पूरी दुनिया में जो ग्लोबल समाज विद्यमान है, वह बहुत नया है,यों कहें कि हर दिन वह और भी नया होता जा रहा है. मेरा मानना है कि इस समाज के विराट हिस्से में न थमने वाला कोलाहल है, अकुलाहट है, हलचल है, पर इन हलचलों में कहीं एक ठहराव भी नजर आता है. इस शीतल ठहराव में कवि,कथाकार,व्यंग्यकार, ब्रजेश कानूनगो की छोटी-बड़ी कहानियों की किताब ‘रिंगटोन’, अपने चारों ओर बिखरे परिद्रश्य को पूरी क्षमता के साथ स्थापित करती है. 
रिंगटोंन’ संग्रह में कुल पच्चीस कहानियां हैं. संकलन की अपेक्षाकृत बड़ी कहानियां भी दो-ढाई मुद्रित पृष्ठों से अधिक लम्बी नहीं हैं. यह यह संतोषजनक और आज के पाठक की प्रवत्ति के अनुकूल है. 
वर्त्तमान समय की पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के बीच के अंतर्विरोधों के बीच से उत्पन्न व्यक्तित्व विघटन की समस्या ‘रिंगटोन’, ‘जन्मदिन’, तथा ‘मोस्किटो बाइट’ जैसी कहानियों में पूरी शिद्दत के साथ सामने आती हैं. अलग हटकर ‘जन्मदिन’ को एन्जॉय करने धनपति सेठ अनाथालय में टी-शर्ट और महंगी टाफियाँ का वितरण करते हैं. बेटे का जन्मदिन जो है. दूसरी ओर शिवकुमार जो अनाथालय का प्रतिभाशाली विद्यार्थी है, अपने दसवें जन्म दिन के लिए हवेली में मनने वाले जन्म दिन का सपना भर देखने को अभिशप्त है. ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसे शक्ति दें ताकि मेहनत करके जीवन में आगे बढ़ सके.
शीर्षक कहानी ‘रिंगटोन’ में लेंडलाइन टेलीफोन से स्मार्ट फोन तक के समय और संवेग को कथा माध्यम से उजागर करने का काम बखूबी किया गया है. आधुनिकीकरण और विकास के साथ नई समस्याएँ भी आती हैं तो साहित्य में भी उनका आना लाजिमी है. इसी तरह ‘माँस्किटो बाइट’ में बेटा सोफ्टवेयर इंजीनियर है, बहू मल्टीनेशनल में वित्तीय सलाहकार, पोता साहित्यकार मधुकर जी के पास. बहू विमेन हॉस्टल में और पुत्र अमरीका में. एक दिन दादा को बेटे का फोन आता है कि वे अपने पोते रूपम को होस्टल में डाल दें क्योंकि घर पर रहकर उसे हिन्दी की आदत पड़ जायेगी तो बाद में उसके कैरियर में बाधक होगी. यहाँ सवाल हिन्दी का नहीं है. अपनी भाषा से दूर हो जाना अपनी संस्कृति से दूर हो जाना है. संस्कृति विहीन समाज का निर्माण करना ही बाजार का उद्देश्य है. भाषा नहीं तो समाज नहीं. सचेत होना होगा. 

भाषा के बाद सवाल आता है ‘सभ्यता’ का. यह वह दौर है जब पहले से चली आ रही परम्पराओं, मान्यताओं, व्यवस्थाओं और व्यवहार आदि को नकारने और परिवर्तित भी किया जा रहा है. ‘सभ्यता’ कहानी में मम्मी-पापा के अनपेक्षित आदेश से ताऊ जी के चरण छूने वाली छोटी बच्ची पारुल अपनी पीठ थपथपाने पर बेधडक कहती है-‘लड़कियों की पीठ पर हाथ नहीं रखना चाहिए, बेड मैनर्स ताऊजी!’ सोच के इस समय में वास्तविकताएं तो चालाकियों के आवरण में कहीं दुबक ही जाती हैं. संग्रह की कहानियां ‘विश्वास’,’रोशनी के पंख’,’पिछली खिड़की’, इसकी गवाही देती हैं. बाल श्रमिक नंदू की ‘तस्वीर’ मंत्री को चाय का गिलास थमाते हुए अखबार में छप जाती है, किन्तु दूसरे ही दिन बाल श्रम क़ानून के भय के कारण मालिक उसे दूकान से निकाल देता है.
संग्रह की कई कहानियों में अपनी जड़ों, शहर,बस्ती और अपने परिवेश से दूर होने और अलगाव के दुखों और अतीत की स्मृतियों की अभिव्यक्ति बहुत मार्मिक और उद्वेलित कर देने वाले तरीके से हुई है. ‘संगीत सभा’,’घूँसा’,’भिन्डी का भाव’ आदि ये ऐसी ही कुछ ख़ूबसूरत कहानियां हैं. ये कहानियां माध्यम वर्ग की आडम्बर युक्त सामाजिक संरचना के विरुद्ध सवाल भी उठाने का प्रयास करती हैं. कहानियों में तकलीफों और असामंजस्य की ईमानदार अभिव्यक्ति हुई है.
ज्वार भाटा’,’उजाले की ओर’, प्रेराणास्पद हैं लेकिन ‘समाधि’ और ‘केकड़ा’ कहानियां पाठकों को झकझोर देती हैं.
संग्रह की कहानी ‘रंग-बेरंग’ को रेखांकित किया जाना बहुत जरूरी है. केसरिया और हरे रंग के कपडे का थान खरीदकर उनकी झंडियाँ बनाने वाला बूढ़ा दरजी अपने पोते के लिए दो मीटर सफ़ेद कपड़ा कफ़न के लिए खरीदता है,जो दंगों की चपेट में आ गया है. यह कहानी हमें बैचैन कर देती है.जब तक सामने रहती है राहत की सांस नहीं लेने देती. मन और शरीर रोष और तनाव से भर उठते हैं.
कथाकार ब्रजेश कानूनगो के पात्र वास्तविक जीवन के द्वंद्व,,असंतोष,असहमति,और नकार से उबलते, खीजते,छटपटाते हुए हैं. नए कथ्य, नए जीवनानुभाव, निजी अनुभूतियों, परिवेश और भौगोलिक गंधों की ईमानदार प्रस्तुतियां हैं ‘रिंगटोन’ की छोटी-बड़ी कहानियां. इनमें क्रोध कम है लेकिन शिल्प और कहने का बेहद कारगर तरीका है, जो सीधे कथ्य को दिलो-दिमाग तक पहुँचाने में सफल हो जाता है. ‘रिंगटोन’ संग्रह की कहानियों में सामाजिक विसंगतियों के विरोध में एक प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) भी है. ब्रजेश भावुकता का सहारा नहीं लेते,विवेक और तर्क उनकी कहानियों में मौजूद दिखाई देते है. एक सजग कथाकार के रूप में हमारे सामने एक ऐसे संग्रह के जरिये आते हैं ,जिनमें रिश्तों की ऊष्मा,भावनाओं की कोमलता और मानवता के मूल्यों से हमारा साक्षात्कार होता है.

 (पुस्तक- रिंगटोन (छोटी-बड़ी कहानियां) ,लेखक- ब्रजेश कानूनगो, प्रकाशक- बोधि प्रकाशन , बाइस गोदाम,जयपुर-302006. मूल्य-रु 100 मात्र) 
रजनी रमण शर्मा 


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ज्वार भाटा

ब्रजेश कानूनगो


तहसील कार्यालय जाते हुए गिरधारी की निगाह अचानक किशनलाल के झोपड़े पर पड़ी।कितनी बड़ी गलती की थी किशनलाल ने। बड़े दफ्तर से आए बैंकवाले साहब ने बहुत समझाया था कि इस बार वह चूके नहीं और वर्षों पुराने अपने कर्ज से छुटकारा पा लेईमानदारी पर लगे निरर्थक धब्बे को ढ़ोते रहने में कोई समझदारी नही है।वैसे भी सरकार कर्ज का अधिकाँश हिस्सा माफ कर रही थी,कुछ राशि बैंकवाले समझौता योजना में छोड़ रहे थेले देकर चौथाई भाग की व्यवस्था अपने पास से करनी थी लेकिन किशनलाल वह भी नहीं कर पाया।


भले आदमी थे बडे अफसर । धौंस-धपट की बजाए दुनियादारी की बाते कीं,कर्ज नहीं चुकाने का ऊँच-नीच समझाया लेकिन उनकी बातों का किशनलाल पर उल्टे घड़े पर पानी जैसा असर हुआ। किशनलाल को तो हर बार जैसे सख्त वसूली अधिकारियों तथा बद-जुबान एजेंटों की फटकार सुनने की आदत सी हो गई थी। धीरे-धीरे कर्ज की राशि ब़ड़ती गई और उसकी चुकाने की क्षमता से बाहर हो गई। अन्ततः वही हुआ जो गए साल मुरारी के साथ हुआ था। फसल के कीड़े मारने वाली दवाई पीकर किशनलाल ऐसा बेहोश हुआ कि बड़े अस्पताल के बड़े डाकटर साहब भी उसे होश में नहीं ला सके 


किशनलाल का किस्सा गिरधारी के मन से हटता ही नहीं था । वह सोंचे जा रहा था।एक बेटा है किशनलाल कान जाने कौनसा दंड मिला है उसेदिन भर घानी के बैल की तरह चबूतरे पर चक्कर काटता रहता है। एक बेटी है जो सयानी हो गई है लेकिन दिनभर पार्वती काकी के साथ घर और खेत पर काम में जुटी रहती है। किशन के जाने के बाद कैसे हो पाएगा उसका ब्याह । चबूतरे पर चक्कर काटते डूंडे बैल को कब तक खिला सकेगी बूढी काकी।


गिरधारी खुद अपने कर्ज को लेकर परेशान रहता है। हर फसल पर किश्त जमा करवाता है लेकिन बात बनती नहीं। मूलधन ज्यों का त्यों मुँह चिढ़ाता रहता है। ऊपर से इस बार फिर पाला पड़ गया है।बरबाद हो गई है फसल। कहीं ऐसा न हो कि मुरारी के बाद किशनलाल और उसके बाद वह़ । ऩ  ऐसा नहीं सोंचना चाहिए।


विचारों मे डूबे गिरधारी को पता ही नहीं चला कि कब तहसील कार्यालय में पहुँच कर वह शुक्ला बाबू के सामने लगी फसल नुकसान पर मिल रहे मुआवजा प्राप्त करने वाले किसानों की लंबी लाइन में खड़ा हो गया था। अपनी बारी आने पर उसने रजिस्टर में दस्तखत किए और चैक लेकर बैंक की ओर चल दिया।


नौ हजार सात सौ रुपयों का चैक मिला था। चलो इतनी मदद तो मिली। इसबार किश्त भी जमा नहीं करनी है। पाला पड़ने के कारण बैंक ने थो़ड़ी राहत देकर किश्त की तारीख आगे बढ़ा दी है। हाल फिलहाल तो ऐसी नौबत नही आई है कि रेल पटरियों पर लेटना पड़े। पर किशनलाल के परिवार का क्या होगा़ ? उनका तो मुआवजा भी खटाई में पड़ा हुआ है और होगा भी कितना़ यही हजार बारह सौ़ , पार्वती काकी क्या करेंगीं ? गिरधारी के अंदर उमड़ते विचार सागर में एका-एक ज्वार सा उफना और एक फैसला निकल कर बाहर आया़ , मुआवजे का अपना चैक वह पार्वती काकी को दे देगा। अब सागर में भाटे की स्थति थी।


गिरधारी ने बैंक से पैसे लिए और पार्वती काकी के घर की और रवाना हो गया।
सागर अब शांत था। मनुष्यता की नाव में सवार गिरधारी के चेहरे पर आनन्द की अद्‌भुत आभा स्पष्ट दिखाई दे रही थी।


ब्रजेश कानूनगो


🅾रंग बेरंग
ब्रजेश कानूनगो

छब्बीस जनवरी से लेकर पन्द्रह अगस्त जैसे त्यौहारों पर वह आशा करता रहता था कि शायद इस बार उसकी दुकान से तिरंगे के कपडों के थान बिक जाएँ, लेकिन ऐसा होता नही था। लोग बने-बनाए झंडे खादी भंडार से खरीद लिया करते थे।

 लेकिन इस बार कुछ विचित्र घटा। एक बूढा व्यक्ति, जिसके बारे में लोग सिर्फ इतना जानते थे कि वह सिलाई वगैरह करके अपना गुजारा करता रहा है , उसकी दुकान पर आया और केसरिया रंग का पूरा थान खरीद ले गया। दुकानदार को बडी खुशी हुई कि उसका बेकार पडा कुछ माल तो बिका।

 कुछ दिनों बाद वही बूढा व्यक्ति पुन: उसकी दुकान पर आया और उसने हरे रंग के कपडे की मांग की और पूरा हरे रंग का थान खरीद लिया। दुकानदार बडा प्रसन्न हुआ। अगले हफ्ते उसने देखा शहर के हर गली-मोहल्ले में हरे और केसरिया रंग के झंडे-झंडियाँ लहरा रहे थे।

 किंतु एक दिन अचानक सारे शहर में लाल ही लाल रंग बिखर गया। दंगे भडक गए थे। कर्फ्यू लगा। सेना आई। राजनीतिक शतरंज खेला गया। और फिर अंतत: शांति के दौरान कर्फ्यू में कुछ समय के लिए छूट भी दी गई।

 दुकानदार ने छूट के दौरान अपनी दुकान भी खोली। वही बूढा पुन: उसकी दुकान पर उपस्थित हुआ। इस बार उसने दुकानदार से दो मीटर सफेद कपडे की माँग की। दुकानदार को आश्चर्य हुआ,पूरा थान खरीदने वाले बूढे से जिज्ञासावश उसने पूछ लिया-‘क्यों बाबा अबकी बार सिर्फ इतना ही? क्या पूरा थान नही खरीदोगे?’

 बूढा फफक कर रो पडा, बोला-‘यह कपडा तो मैं अपने पोते के लिए खरीद रहा हूँ बेटा, जो कल के दंगों की चपेट में आ गया...।’

 कुछ ही घंटों में दुकानदार का सफेद कपडे का थान भी बिक गया,दो-दो मीटर के टुकडों में कट कर।

ब्रजेश कानूनगो


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कहानी

मस्ती टाइम

ब्रजेश कानूनगो 


लिली में काफी फूल आ गए थे. पानी देने के बाद नीबू के पौधे को सींचने लगा तो मेरे सामने वही सूखा गमला आ गया. यह वही गमला था जिसमें केवल मिट्टी भरी थी. मैं उसमें पानी नहीं डालता था .सोचता था  कोई अच्छे फूल का बीज या कलम लगा दूंगा. यही गमला हमारे ‘मस्ती-टाइम’ का कारण बन गया था. अमोल मेरे साथ छत पर आता तो मेरे हाथ से बाल्टी-मग  झपट लेता. खुद ही नल के नीचे रखकर पानी भरता. यहीं से हमारी थोड़ी झड़प शुरू हो जाती थी. वह बाल्टी को पानी से लबालब तब तक भरता रहता जब तक कि वह बाहर निकलने नहीं लगे. मैं रोकता, नल बंद कर देता, वह हंसता और फिर से नल खोल देता. मुझे चिढाता. उसे पानी से खेलने में बहुत मजा आता. फिर मग से गमलों में पानी देता, तब भी इतना पानी देता जब तक कि वह गमले से ओवर फ्लो न होने लगे. मैं उसे समझाता कि गमले में इतना पानी मत डालो मगर वह नहीं रुकता. यहाँ तक कि जो गमले खाली पड़े थे उनमें भी पानी भर देता. मुझे चिढ भी होती और उस पर प्यार भी उमड़ आता. रोज यही होता. खाली गमलों को वह पूरा पानी से भर देता और शरारत से मेरी और देखता, हंसता..खिलखिलाता. सब गमलों में पानी डालने के बाद थोड़ा पानी बाल्टी में बचा लेता और मेरी ओर उछालते हुए कहता-‘दादा! मस्ती-टाइम’..!! मैं उसे डपटता तो और नजदीक आकर पानी उडाता..’ पूरी छत और मुझे भिगोने के बाद उसका मस्ती टाइम आखिर ख़त्म होता.

जब तक वह रहा घर में टीवी नहीं देखा गया था और अखबार बिना तह खुले रैक पर जमा होते गए थे. सुबह-सुबह अमोल बहुत उत्साह से मेरे हाथ से चाबी छीनकर गेट का ताला खोल  देता और चेन घुमाते हुए सीधे बाहर सड़क पर दौड़ पड़ता था..वह आगे-आगे मैं उसके पीछे-पीछे. सुबह की सैर को निकले कॉलोनी वासी  हमारी इस भाग-दौड़ को बहुत कुतूहल से देखने लगते थे.

पोता आया है शायद शर्माजी का..’ जैसे शब्द मुझे बहुत अद्भुत अनुभूति से भर देते थे.

केनेडा जाने के बाद इस बार बेटे का परिवार लगभग तीन साल बाद ही घर आ पाया था. इसके लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता. परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बनती रही कि वे लोग चाहकर भी न आ पाये. नौकरी की भी अपनी मजबूरियां होती हैं. ये भी सच है कि इस बीच हमारा वहां जाना भी संभव नहीं हो सका. हालाँकि ‘स्काइप’ या ‘जी-टॉक’ के जरिये रोज ही लेपटॉप पर मिलना हो जाता था. लेकिन  अमोल स्क्रीन पर बहुत कम आता.. कुछ झिझक रहती थी .. बहुत कहने पर बस ‘हाय-बाय’ करके अदृश्य हो जाता था.



यह तो उसके यहाँ आने पर ही स्पष्ट हुआ कि हमारे सामने हिन्दी बोलने में होने वाली दिक्कत के कारण वह सामने नहीं आता था. हिन्दी आसानी से समझ लेता था लेकिन टोरंटो के स्कूल में अपने दोस्तों के साथ अंगरेजी में दिन भर बातचीत की आदत के कारण हिन्दी में बोलना उसके लिए कठिन हो गया था.  यह दिक्कत शायद वैसी ही रही होगी जैसे अंगरेजी में सारी पढाई करने के बावजूद गैर हिन्दी भाषी व्यक्ति से सामना होने पर मुझे होती है.  कनाडा जाने से पहले जब वह यहाँ था तब उसकी भाषा  सुनकर हमें बड़ा सुखद आश्चर्य होता था. ‘डोरेमान’ और अन्य कार्टून चरित्रों के हिन्दी में डब संवादों की वजह से हिन्दुस्तानी के इतने बढ़िया शब्द बोलता था कि हम हत-प्रभ रह जाते थे.

अभी दस दिनों में उसने हमसे हिन्दी में बात करने में खूब मेहनत की थी. बात करने में उसकी कोशिश साफ़ दिखाई देती थी. धूल खा रही शतरंज और कैरम के दिन फिर गए थे. मोहरों के अंगरेजी नामकरण से हमारा पहला परिचय हुआ. वरना हमारे लिए तो वजीर, राजा, हाथी, घोड़ा, ऊँट, प्यादे ही हुआ करते थे.

कॉलोनी के हमउम्र बच्चों के बीच भी वह बहुत पसंद किया जाने लगा. आम तौर पर हिन्दी में बात करते बच्चों को भी स्कूल के अलावा अंगरेजी में बतियाने में खूब मजा आ रहा था. शुरू शुरू में जब अमोल कुछ नहीं बोल पा रहा था तो अटपटा लगा लेकिन जब पता चला कि वह केनेडा से आया है तो खुलकर अंगरेजी में बातचीत करने लगे. इधर अमोल की झिझक भी टूटने लगी, वह भी हिन्दी ही बोलने की कोशिश करने लगा. हिन्दी दिवस के दिन जब मैं एक कार्यक्रम के मुख्य आतिथ्य के बाद घर लौटा तो गेंदे की अपनी माला मैंने सहज अमोल के गले में डाल दी.



उनके वापिस लौटते ही हमारा ‘मस्ती-टाइम’ ख़त्म हो गया. रोज की तरह छत पर गमलों में लगे पौधों में पानी दे रहा था. सब कुछ पहले जैसा हो गया. वही नियमित दिनचर्या हो गयी जो उनके आने के पहले हुआ करती थी. सुबह उठते ही मेन गेट पर लगी चेन और ताला खोलना, दूध के पैकेटों की थैली और अखबारों को भीतर लाकर घूमने निकल जाना. फिर पत्नी और खुद के लिए चाय बनाकर टीवी पर रात को देखे समाचारों को अखबारों में पुनः पढ़ना. छत पर रखे गमलों में पानी डालना, पौधों की देखभाल करना. हुआ तो शाम को किसी साहित्यिक-सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेना और देर रात तक टीवी पर समाचार-बहसें आदि देखते हुए सो जाना.

न जाने क्या सोंचकर मैंने भी अमोल की तरह मिट्टी भरे गमले में पानी डालने को सहज ही मग आगे बढ़ा दिया. अचंभित था सूखे गमले में गेंदे के कुछ पौधों का अंकुरण हो आया था. 






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मधु सक्सेना  :ब्रजेश जी की पहली कहानी किसानों कु आत्महत्या को केंद्र में रखकर लिखी गयी है ...। कर्ज़ के बोझ में दबे किसान द्वारा दूसरे की मदद करना और दूसरे का दर्द समझना अच्छे उद्देश्य को लेकर चलती है कहानी । ये लघुकथा नही लग रही ।छोटी कहानी कह सकते है ।अच्छी है ।
रंग बेरंग ....बहुत ही मार्मिक कहानी है ।जो कहानी है उसके पीछे एक और कहानी है । रंगों के माध्यम से बहुत बड़ी बात कह दी ब्रजेश जी ने  नमन उनकी कलम को ।
मस्ती टाइम ....दादा और पोते के मध्य आत्मीयता को प्रतीक के माध्यम से बहुत बढ़िया उकेरा ...
एक मीठा सा अहसास दे जाती है ये । बधाई ...

अर्चना नायडू:आदरणीय श्री बृजेश जी,की मर्मस्पर्शी लघकथाओको पढ़कर उनकी कलम के कमाल से हम नए पाठक भी अभिभूत हो गए।कथानक और विषय भी मन को छू गए।ज्वार भाटा और मस्ती टाइम जैसे विषय सकारात्मक सोच की उपज है वही रंगबेरंग में आपने गहरी कल्पनाशीलता को आयाम दिया है ।सरल मगर गहरे विषय पर सहज भाव से लिखना आपके अनुभवों का निचोड़ है।अच्छी लगी ,तीनों कहानियां।
प्रवेशजी आपका विशेष आभार ।आप हीरे मोती ढूंढने में पीएचडी कर लिए हो। कविताएँ पढ़िए कविता कोश के इस लिंक पर*
मणि मोहन मेहता :य और प्रभावी हैं । रंग बेरंग बहुत अच्छी लगी । बधाई ब्रजेश जी ।

मीना शर्मा : ,छोटी किन्तु बड़ी कहानियाँ, स्वाभाविकता से बतियाती हुईं ।
रिंगटोन...
मस्ती टाइम
और
रंग-बिरंगी .....हृदय पर  पर दस्तक देती हुई , संवेदना से भरी हुई कहानियों के लिए, ब्रजेश जी को बधाई / प्रवेश का आभार ,कि चयन बहुत बढ़िया रहा ।
वर्षा रावल :त ही सशक्त विषयों को लेकर थी सबसे बढ़िया कहानी ज्वार भाठा थी , जिसमे आत्मा की आवाज़ से नेकी की ओर कदम बढ़े , किसान आत्महत्या जैसे समसामयिक विषय को उठाया गया , बाकी दोनों कहानियां भी अच्छी लगीं ....बधाइयाँ🌹🌹🌹🌹

आरती तिवारी :बृजेश सर की ये छोटी छोटी कहानियाँ अपने विषय चयन को लेकर अलग से ध्यान खींचती हैं *रजनी रमण शर्मा* जी ने बहुत ही उम्दा विवेचना की है ये कहानियाँ पढ़कर संग्रह पढ़ने की उत्सुकता जाग गई है,.जिस माध्यम से भी हो संग्रह की पूरी कहानियाँ पढ़ना चाहती हूँ।
हमारे आधुनिक प्रगतिशील समाज की विचारधारा और विसंगतियों को बहुत सटीक अंदाज में इन कहानियों में कहा गया है और वे पूरी तरह संप्रेषित हुई हैं मुझसे पाठकों तक सर को बधाई👏🏼👏🏼🌺🌺🍀🍀  प्यारी प्रवेश का आभार इन्हें साकीबा पर पढ़वाने के लिए🌹
*आरती तिवारी*

सुनीता जैन : कथाकार ब्रजेश जी को रिंग टोन की बहुत बधाई!
पहली बात यह कहूँगी कि ये लघुकथाएँ नहीं हैं! लघुकथा एक ऐसी विधा है जो, एक ही घटनाक्रम को तीक्ष्णता के साथ समाप्त करती है! उसमें काल नहीं बदलता ! साथ ही गद्य की ऐसी विधा जो सूक्ष्म होते हुए भी गागर में सागर के समान है! सामाजिक विसंगतियों को उठाना भी और समाधान भी सूक्ष्मता के साथ कर पाना ही लघुकथा की विशेषता है!
आज की पोस्ट की बात करें तो कथाएँ उत्कृष्ट भी हैं सशक्त भी!
सार्थक विषयों को लेकर रची कथाओं में शिल्प का आकर्षण देखते ही बनता है!
शीर्षक उत्सुकता बढ़ा ही रहे हैं पढ़ने की! पढ़ना शुरू करते ही बीच में छोड़ पाना पाठक के बस की बात नहीं!
अच्छी ही नहीं बेहतरीन कथाओं को पढ़वाने का प्रवेश जी शुक्रिया!
कथाकार को हार्दिक शुभकामनाएं!💐💐💐

सुधीर देशपान्डे: ब्रजेशजी की कहानियाँ संवेदनाओं से भरी मानवता की कहानियाँ हैं। चाहे वह ज्वारभाटा हो या रंग बेरंग या मस्ती। किसान को मिलने वाला सरकारी मुआवजा कैसा होता है और उस राशि के लिए कितने पापड बेलने पडते हैं वही धार्मिक उन्माद में राष्ट्रीय भावनाओं मे रचे बसे रंग और कपडे किस रूप में टुकडा टुकडा होकर आते हैं बडी शिद्दत से मनोमस्तिष्क पर छा जाते हैं। मस्ती आत्मविश्वास और खेल खेल का परिणाम है कि आप जिसे रिक्त मान रहे होते वहाँ भी आशा तो है।
अच्छी संदेश परक यथार्थ पर आधारित कहानियाँ। धन्यवाद प्रवेश। अच्छे चयन के लिए। ब्रजेशजी समर्थ रचनाकार हैं। कविता कहानी व्यंग्य अनुवाद और हर कुछ। वैसे ही है जैसे किसी कुशल स्वर्णकार के हाथ सोना लग जाए तो सुंदर आभूषण तैयार हो जाए। उन्हें बधाई देनी चाहिए क्या। यह तो गुण है। हमारे अहोभाग्य कि वे हमारे साथ हैं।

ए.असफ़ल: बृजेश जी की पहली छोटी कहानी एक आदर्श कथा है। ऐसी कहानियां लगभग बचकानी माने जाने लगी हैं और अब चलन से बाहर हो गई हैं या बाल कथाएं हैं। क्योंकि यथार्थ बहुत कड़वा होता है।
बृजेश जी की तीसरी कहानी कहानी न होकर एक संस्मरण है। जो लोग बाबा और नाती को ही संसार का परम सत्य मानते हैं उनके लिए यह गुदगुदाने वाली कथा हो सकती है। पर इसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।
बृजेश जी की दूसरे नंबर की कहानी एक अच्छी लघु कथा है जो सांप्रदायिक भारत की सच्ची तस्वीर पेश करती है। इस लघु कथा "रंग में बेरंग" में मजे की बात यह है कि जनता ही पहले केसरिया झंडे लहराती है और हरे झंडों को लहराती है। और यही उन्माद लाल रंग के सांप्रदायिक युद्ध में बदल जाता है। जिसे फिर सफेद रंग के कफ़न से ढकना पड़ता है। यह कहानी बताती है कि  हमारी संकीर्णता और नस्लीय स्वभाव में ही सांप्रदायिकता घुली-मिली है जिसे राजनीति और धर्म तो सिर्फ हवा देते हैं।
हरर्गोविंद मैथिली आज पटल पर प्रस्तुत आ. ब्रजेश कानून गो जी की लघुकथा *ज्वार भाटा*  किसानों की हालात का सुन्दर चित्रण है ।साथ ही एक महत्वपूर्ण संदेश भी देती प्रतीत होती है कि जो किसान हमेशा आर्थिक सहायता या मुआवजा आदि के लिए सरकारी की ओर टकटकी लगाये रहते है यदि वे  (ऐसे किसान जिन्हें आर्थिक सहायता सरकार की और से  आर्थिक रूप से अपने आपको सक्षम पाते हैं )अन्य आर्थिक रूप से कमजोर या जरूरतमंद किसान साथियों को आर्थिक सहायता करें तो किसी हद तक उनको आत्महत्या जैसे कदम उठाने से रोकने में सफलता पाई जा सकती है ।
शेष दोंनो लघुकथाएँ भी सार्थक संदेश देती है ।

मुकेश कुमार सिन्हा :जिंदगी कैसे भी जी लें, मानवता और संवेदनशीलता का भाव मन को अंदर तक भिगो देता हैं। तीनों लघु कथाएं बेहद सार्थक कैनवास पर रची गयी है, और पाठक पर शानदार असर छोड़ती है। शुभकामनाएं

राजेन्द्र श्रीवास्तव आदरणीय ब्रजेश जी की तीन छोटी किंतु बहुत प्रभावी कहानी है।
गहरी संवेदना तैर रही है। सामयिक सरोकार को अलग दृष्टि से देखने पर सामान्य लहजा में बहुत बड़ा संदेश कह  दिया गया है।
मस्ती टाइम विशुद्ध पारिवारिक कलेवर में गमले के माध्यम से भावी  पीढ़ी के प्रति पुरानी पीढ़ी आशावान बनाती है । सांस्कृतिक व भाषायी समन्वयन की आवश्यकता इंगित करती है।
ब्रजेश जी व प्रवेश जी धन्यवाद।
इन छोटी कहानियां का आस्वाद मिला।🙏🏻

ब्रजेश कानूनगो :शुक्रिया,हरगोविंद जी। दरअसल अपने बैंक सेवाकाल के अंतिम दिनों में जब मैं ग्रामीण शाखा में प्रबंधक था, तब पाला पड़ा था, फसल नष्ट हो गई थी। किसानों का दुख देखा था, मुवावजे के चेक भी छोटे किसानों को बजट की कमी या अन्य क्षणों से मात्र 225 से लेकर हजार दो हजार से ज्यादा नहीं मिल रहे थे।वे भी एकाउंट पेयी। किसानों के खाते बैंक में नहीं थे। मुवावजा मिलना भी कष्ट दे रहा था। तब उस वक्त मैने कविता 'सोयाबीन की फसल' तथा छोटी सी कहानी 'ज्वार भाटा' लिखी थी। बात 1999 के आसपास की है। वही इस रचना में आया है। विधा के सौन्दर्यशास्त्र की बजाय कथ्य मुझे बहुत जरूरी लगा था।आभार।

मुक्ता श्रीवास्तव  आदरणीय ब्रजेश जी की लघुकथाओं को पढ़कर बिल्कुल समाज की वास्तविक स्थिति का आकलन किया जा सकता है।प्रथम लघु कथा में किसानों की वास्तविक स्थिति का बखूबी चित्रण किया है।दूसरी लघु कथा रंग में बेरंग साम्प्रदायिक हिंसा की सच्ची तस्वीर दिखाती है।तीसरी कथा भी सार्थक संदेश देती है बेहतरीन कथाओं को पढ़ वाने के लिए धन्यवाद प्रवेश जी।
अनीता मंड़ा” ज्वार-भाटा कहानी बताती है कि अच्छाई अब भी कहीं कहीं बची हुई है जिसके सहारे मानवता जीवित है।
रंग बेरंग आज के समय का राजनीतिक सच दिखा रही है।
'मस्ती टाइम' पहले भी पढ़ चुकी हूँ, अच्छी लगी थी। दरअसल अच्छा साहित्य हमेशा अच्छा ही लगता है। तीनों कथाएँ संवेदना के स्तर पर अच्छी हैं। यह बात भी जाहिर है कि दुनिया में जो हो रहा है सब कुछ नकारात्मक ही नहीं है कि सबको उसी चश्में से देखा जाय। अच्छा बाल साहित्य बहुत जरूरी है वर्तमान समय में। अच्छी पोस्ट के आभार प्रवेश दीदी। शुभकामनाएँ आदरणीय ब्रजेश सर ! 💐🙏

अबीर आनंद :विधा की  तकनीकियों को नजरंदाज कर दिया जाए तो ज्वार भाटा और रंग बेरंग अच्छी लगीं। दोनों ही विषयों में प्रासंगिकता है। मुझे उम्मीद है ब्रजेश जी के पास ज्वार भाटा जैसे विषयों से संबंधित और भी जीवंत कहानियाँ होंगी जो कृषक लोन माफी के कुछ नए बिंदु सामने लाएं। फिलहाल, ज्वार भाटा पसंद आई। रंग बेरंग बहुत सशक्त है। नजरिया थोङा नयापन लिए हुए है। आश्चर्यचकित रूप से रंगों का भाव सामने आया। फिर लगा शायद तिरंगे के तीन रंगों का सही अर्थ यही तो नहीं। कितना बङा झूठ बोला गया? दरअसल तब भी तिरंगे के रंगों का अर्थ संप्रदाय ही रहा होगा मन में। और हम समझते आए कि हरे रंग का अर्थ है, हरियाली। अच्छा व्यंग्य है। मस्ती टाइम नाम से ही कहती है मुझे सीरियसली मत लो। बाकी दोनों कहानियाँ प्रासंगिक भले हों पर दिल को छुआ इसी कहानी ने। पीढ़ियों के बीच की कैमिस्ट्री अच्छी लगी। रिंगटोन की कुछ कहानियाँ पढ़ीं हैं। रिंगटोन एक मीठी सी मुस्कान बिखेरती, बूढ़ों की बच्चोंनुमा हरकतों से गुदगुदाती परिपक्व कहानी है। कहानी छोटी है और कुछ ही पन्नों में पाठक के मन में क्लाइमेक्स रचने में सफल होती है।
दीप्ति कुशवाह : ब्रजेश जी के पास बहुत कुछ है हम लोगों को सिखाने को कहानी, व्यंग्य, सामयिक लेख और कविता भी...। उनकी ऊर्जा और सक्रियता भी अनुकरणीय है।
प्रासंगिक विषयों पर उनकी ये कहानियाँ प्रभावपूर्ण हैं ।
हाँ ब्रजेश जी, आप उपन्यास की ओर कब बढ़ेंगे?
ब्रज श्रीवास्तव :क्या लिखूं.
तीनों कहानियाँ मुतास्सिर करती हैं और एक पारिस्थितिक विडंबना को सामने लाती हैं. चूंकि कहानी एक मिश्र विधा होने की गुंजाइश रखती है तो यहां भी उचित अनुपात में कविता और संस्मरण  ने खुद को  विलेय किया है. लेकिन इन रचनाओं की असर छोड़ने की अदा वैसी ही है जैसे कि कहानी की होती है.
दूसरी कहानी में ज्यादा कुशल निर्वहन है और हर पाठक ज्यादा द्रवित हो जाता है.
रिंगटोन* के लिये बधाई के संग संग यह कहना चाहूंगा कि ब्रजेश जी आप वाकई गंभीर, प्रतिबद्ध और निरंतर के  साहित्यकार हैं. आप हर विधा में मेहनत और समकालीन बोध के साथ लिखते हैं. आज यहां आपकी रचनाओं की ही ताकत थी कि साहित्य की बात इस ऊंचे दरजे के बहस मुबाहिसे के साथ हो सकी.
अनंत शुभकामनायें.

उदय बसंत ढोली :ब्रजेश जी की छोटी किंतु प्रभावी कथाएँ संवेदना से परिपूर्ण हैं ब्रजेश जी की रचनाएँ अख़बार में अक़्सर पढ़ता हूँ उनका विशिष्ट अंदाज़ इन कथाओं भी परिलक्षित होता है उत्कृष्ट चयन हेतु प्रवेश जी को साधुवाद 🙏🏻🌷🙏🏻

मनीष वैदय: ब्रजेश भाई मेरे आत्मीय रचनाकार हैं तथा कई विधाओं में एक साथ सक्रिय हैं।उनकी ये कहानियाँ पढ़ी हुई हैं और परिपक्व समझ तथा समाज के प्रति गहरे जिम्मेदार भाव से लिखी गई है।बीते दिनों उनका संग्रह रिंगटोन हिंदी पाठकों में सराहा गया।
ज्वार भाटा और रंग बैरंग दोनों ही अपने सामयिक और ज्वलंत मुद्दों की ओर बड़ी शिद्दत से हमारा ध्यान खिंचती है।अंडर टोन में चलती ये कहानियां अपने अंत तक पंहुचते हुए हमें अपनी पकड़ में ले लेती हैं।किसानों के भीतर बहते आत्मीयता की सूखी नदी को वे ढूंढ पाते हैं। किसान मुद्दों पर यह अलहदा दृष्टि है।रंग बैरंग अंत में बेहद मार्मिक हो जाती है।
ब्रजेश भाई इन दिनों बेहतर रच रहे हैं।उनका यह सफर आश्वस्ति देता है। उनके लिए बधाई और शुभकामनाएं
साकीबा का आभार
विमल चंद्राकर :साकीबा पर आज ब्रजेश जी की लघुकथायें पढ़ीं।लगभग सभी की प्रतिक्रियाओं पर ध्यानाकर्षण रहा।यहां एक से बढ़कर अव्वल दर्जे के समीक्षकों के बहुत स्तरीय विमर्शन के बीच बहुत लिखने की गुजांईश नहीं रह जाती .......
फिर भी लेखकीय परम्परा का निर्वहन करते हुये लघुकथाओं पर एक सरसरी नज़र भर प्रस्तुत्य है.....

ब्रजेश जी को पहली बार पढ़ना हुआ है।कहानीकार द्वारा लिखी पहली लधुकथा "ज्वार भाटा" निम्नवर्गीय/मध्यमवर्गीय समाज में रह रहे लोगों के रोजमर्रा के जीवन यापन, आर्थिक वैषम्य व कर्जदारी पर लिखी गयी है।
किशनलाल के आर्थिक स्थिति की चरमराहट, कर्ज की सही समय पर अदायगी, और बढ़ते आर्थिक बोध के तले किशनलाल कब जीवन तराजू के पलड़े में हल्के हो चले कि स्वयं को ही हताश होकर मार लिया (जैसा कि आज बहुधा कर्ज के बाद किसानी आत्महत्या होती रहती है)पारिवारिक किशनलाल के पारिवार की समस्याओं से जु़ड़ी घटनाओं को बहुत जींवत वर्णिक होता पाता हूं।वेदना की चरम प्रतीति होती है।
खेती किसानी की वो सभी झकझोर देने वाली यथा- फसली नुकसान, आर्थिक विपन्नता,विपत्तियों से गिरधारी भी अछूते नहीं।कहानी का प्लाट, कहन व घटनात्मक संयोजन काबिले गौर हैं।
देश में पड़ा सूखा, अकाल, बारिश के न होने से फसलों का नुकसान पर देश के सरकारों जो थोड़ा सा राहत का अमृत छिड़कती है।(जैसा कि पहली ही दफा कहूं वर्तमान सरकार में ही प्रत्येक को एक करोड देकर, ऐसा कम ही देखती हूँ)
गिरधारी के भीतर मजबूत किसान के साथ एक सहृदय मदद पसंद व जिंदादिल होने जैसे चारित्रिक वैशिष्टय का संकेतन कहानी में टर्निग मोमेंटो सफलतम दृष्टव्य है।
सुख दुख, हर्ष- विषाद, खुशहाली विपत्ति के बीच उफनाते,गहराते भाव  ज्वार भाटा सम ही तो लगते हैं।गिरधारी के अन्दर व्याप्त, अन्तर्द्वंद्व् के बीच "आत्मसंतोषी कहानी का अनन्तिम फलन बनकर बाहर निकलता है।यह एक चारित्रिक प्रस्फुटन है जहां कहानकार ने कहानी में सफलतम प्रयोग किया।
स्तरीय कहानी हेतु बधाई👏🏻👏🏻👏🏻

नीलिमा :संवेदनशीलता बहुत  तकलीफ देती है  कभी कभी ।कैसे  काल्पनिक पात्रों से अपन जुड़  जाते हैं न !!! क्यों कि पीड़ा से परिचित हैं इसलिए परिणाम का अहसास  तकलीफ देता है  और रचना को पढ़ते समय अपन उस पात्र को जी। रहे  होते हैं
संतोष श्रीवास्तव : ब्रजेश कानूनगो जी की छोटी-छोटी कहानियां बेहद संवेदनशील है ।आज के इस आपाधापी भरे समय में पाठको को छोटी कहानियां ही पढ़ने को प्रेरित करती हैं । बड़ी कहानी के लिए बहुत वक्त निकालना पड़ता है ।लेकिन इन कहानियों को लघु कथा नहीं कहेंगे। यह छोटी कहानियां है जो जहन में त्वरित असर करती हैं। बृजेश जी आपको बहुत बहुत बधाई
अविनाश तिवारी : आदरणीय बृजेश कानूनगो के कहानी संग्रह रिंगटोन की साकीबा पटल पर प्रस्तुत कहानियां ज्वार भाटा,रंग बेरंग,मस्ती टाईम बहुत ही सहज पर गंभीर कहन वाली कहानियां हैं प्रत्येक कहानी सामयिक विषयों पर घटनाओं पर केन्द्र मे रखते हुए प्रहार करती नजर आती है।

आभा बोधित्सवा :ब्रजेश जी की तीनों कहानियाँ अपना सटीक प्रभाव छोड़ गई-ज्वार भाटा,रंग बेरंग और मस्ती टाईम,मार्म को छूकर गुजरते हुए,किसान की उलझनें, जो उनकी किस्मत और सरकारों ने दी,और आपसी सहयोग सद्भाव को दशर्ति कर रही है,तो वहीं -रंग बेरंग में आपसी प्रेम और द्वेष के रंग को रेखांकित करती हुई,अंतिम कहानी मस्ती टाईम ने ब्रजेश जी से परिचय करवा दिया -गमले में गेंदें का फूल उगना और अमोल की याद अद्भुत सामंजस्य और मूल प्रेम भाव को दर्शाता है। साकीबा और ब्रजेश को बधाइयां ।प्रवेश का आभार

अपर्णा अनेकवर्ना *ज्वार भाटा
ये विषय ही सराहनीय और महत्वपूर्ण है। एकरेखिय सी लगती कहानी अंत में अचानक एक मोड़ लेती है जो सब कुछ बदल देता है। ऐसे बैंकों में कितनी ही ऐसी कहानियां चुपचाप घटती हैं जो किसी को कभी पता भी नहीं चलती हैं। और ज़रूरी नहीं कि हर बार उनका अंत सल्फ़ास की गोली या फांसी पर ही हो।
कभी पार्वती काकी पर भी लिखिएगा सर, सादर आग्रह है। 🙏🏽😊
🔸 *रंग बेरंग*
कितनी भयावह कहानी है! Seemingly harmless लगने वाली बातें भी कितनी गूढ़ हो उठती हैं। ये किसी भी समाज के सामान्य माहौल में क्रमशः आते परिवर्तन की धमक है।
बेहद सामयिक कथा है। आज का सच! रंगों की राजनीति में समाज का बंटना, धर्म की सतही समझ का प्रतीक है। अंत मार्मिक है।
इसके नाट्यरूपांतर का मंचन संभव लगता है मुझे।
🔸 *मस्ती टाइम*
आमतौर पर प्रवासी पुत्र/पौत्र की कहानियाँ दु:खद और त्रासदी ही होती हैं।
इस विषय पर इस कथा का सहज, व्यवहारिक और सकारात्मक पक्ष प्रभावित करता है।
कहीं कहीं लगा कि कुछ एडिटिंग हो जाए तो कसाव बेहतरीन हो जाए।
ब्रजेश सर को शुभकामनाएं! 🙏🏽


सिनीवाली शर्मा :ब्रजेश जी के सकारात्मक दृष्टिकोण को सलाम। कहीं न कहीं अच्छाई आज भी जीवित है। साहित्य का एक उद्देश्य जीवन के सकारात्मक पक्ष पर फोकस करना भी है जिसमें ये कहानियाँ सफल हैं।
आभार
पदमा शर्मा : ब्रजेश कानूनगो जी की कहानियाँ समाज के सरोकारों को वर्णित करती हैं।
रंग बेरंग कहानी गहन और गूडार्थ लिए है। रंग भी बेरंग पैदा कर सकता है। लोग बिना सोचे समझे और गहराई तक पहुंचे असामाजिकता और उपद्रव पर उतर आते हैं। तभी तो केसरिया रंग और हरा रंग सभी जगह व्याप्त गया। उसकी परिणति श्वेत रंग में हुई जो कफ़न के काम आया।
बहुत सांकेतिक और शानदार कहानी के लिए ब्रजेश जी को बधाई

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