Tuesday, May 3, 2016


कहानी ; बुआ  माँ 

प्रवेश सोनी 




प्रस्तुत कहानी" सहित्य् की बात " से ली गई है ।




निशा जरा जल्दी करो भाई ,मनोज ने मोज़े पहनते हुए किचन की और देखते हुए  कहा |मनोज की आवाज़ सुन कर अनमनी  निशा ने  हाथो को गति दी और ,टिफिन पेक करने लगी | मनोज किचन में आया और निशा के दोनों कंधो पर हाथ रख कर बोला “मेरे चाँद पर उदासी के बादल अच्छे नहीं लगते ,तुम चहकती गुनगुनाती हुई खाना बनाती हो तो सच बताऊ अगुलिया भी खाने का मन कर जाता है| “सुबह से वो कोशिश में लगा हुआ था की किसी तरह से निशा  नार्मल हो जाए | 

“अरे बाबा मुझे अभी तीन ट्रेफिक लाईटो को लाल से हरा होने की प्रक्रिया से गुजरना है |गाडियों की लम्बी लाइन मैराथन  करती हुई मिलती है ,जिसमे मुझे भी अपनी बाइक को हिस्सा बनाने की मस्सकत करनी पढ़ती है “|यह कहते हुए मनोज  ने निशा  का चेहरा अपनी और किया ,और उसकी नीली  गहरी आँखों में प्यार से देखा |आज आँखों की नीली झील में उदासी का  कंकर बार –बार गिर  कर गोल वृत बना रहा था |निशा उन वृत में आवृत हुई चुपचाप काम में जुटी हुई थी |उसने मनोज की और एक निस्पृह सी निगाह डाली और मुह फेर लिया |मनोज निशा को और परेशान नहीं करना चाहता था |उसने प्यार से निशा का ललाट चूमा और कहा “सब ठीक हो जाएगा ,हम  कल ही बुआ माँ  के पास चलेंगे |यह सुन कर निशा  के होंट तनिक से मुस्कराहट के आकार में फेल गए जिन्हें देख कर मनोज को कुछ राहत महसूस हुई ,और वो निशा से विदा लेकर आफिस रवाना हो गया | 

मनोज जानता है की निशा अपनी बुआ माँ को कितना प्यार करती  है |जब सुबह माँ का फोन आया तब से रोये जा रही है |इतना लगाव हो क्यों न ,बुआ माँ है ही ऐसी |शादी के वक्त जब कन्या दान के लिए माँ पिता जी  के साथ बुआ माँ ने भी निशा के हाथ के नीचे अपना हाथ रखा तो पंडित जी ने टोक दिया |कन्या दान की रस्म सिर्फ लड़की के माता पिता या उसके बड़े भाई भाभी ही निभा सकते है |यह सुन कर निशा ने बुआ माँ का हाथ कस के पकड़ लिया ,जिसे वो पंडित जी के कहने पर पीछे खीच रही थी |तब निशा के पिताजी  ने ही कहा की पंडित जी यह निशा की बुआ माँ है |इनकी ही बेटी की शादी है यह |तब पंडित जी ने मंत्रोचार करके कन्यादान की विधि पूरी की ,और निशा का हाथ  हमेशा के लिए मनोज के हाथ में दे दिया | 

दो साल हुए  शादी को ,इस अवधि में निशा ने बुआ माँ को अपनी बातो से मनोज के दिल और दिमाग में अच्छे से उतार दिया था |निशा और बुआ माँ के आपसी रिश्ते की डोर इतनी संवेदन शील थी की जिस रात जयपुर में बुआ माँ की तबियत ख़राब हुई उई रात  दिल्ली में निशा  ३ बजे गहरी नींद से जागकर अचानक सिसकने लगी |उसके सिसकने की आवाज़ सुन कर मनोज की नींद खुली तो उसने घबरा कर पूछा की क्या हुआ ? तुम्हारी तबियत तो ठीक है न ?बहुत पूछने पर निशा ने बताया की सपने में बुआ माँ उसका हाथ छोड़ कर दूर जा रही है |उसके पुकारने पर पीछे देख भी नहीं रही |मनोज ने अपना सर पकड लिया |किसी तरह समझाया की यह सपना है और सपने सच नही होते |तुम ऐसा करना कुछ दिन बुआ माँ के पास हो आना ताकि तुम्हारा मन ठीक हो  जाए |आधी रात को मनोज और कर भी क्या सकता था |वो कभी कभी निशा और बुआ माँ की बात को लेकर उकता जाता पर निशा का मन दुखी  न हो जाए यह सोच  कर उसकी बात को धीरज से सुन लेता | जेसे तेसे उसने निशा को सुलाया ,उसे भी जल्दी उठ कर  आफिस भागना होता है इस लिए नींद समय नुसार पूरी हो जाए तो ठीक रहेगा |सुबह वो उठे भी नहीं थे की निशा का  मोबाईल बज गया |उसने आँखे मलते हुए देखा तो माँ का फोन था |इतनी सुबह माँ कभी फोन करती ही नहीं ,क्या हुआ की आज  माँ को ....|हेल्लो हां माँ क्या हुआ ,नींद से  अपनी आँखों को आज़ाद करते हुए निशा ने माँ से पूछा | 

वो बेटा बुआ माँ को तेज चक्कर आये और गिर गई | हॉस्पिटल  में है वो ,|और अर्ध बेहोशी में तुझे पुकार रही है | यह सुनना था  की निशा सिसक पढ़ी और मनोज से कहने लगी ,देखो मेरा सपना सच हो गया मनोज  बुआ माँ हॉस्पिटल में एडमिट है ,पता नहीं क्या हो गया उन्हें | मनोज के पास क्या बचा अब कहने को |वो निशा को समझाता भी तो क्या |भगवान् ने उनके बीच सम्प्रेष्ण के तार बहुत तीव्र गति के रखे थे |” मै छुट्टी की बात करता  हू आज और हम  जल्दी से जल्दी बुआ माँ के पास चलते है |” यह कह कर मनोज  टावेल लेकर बाथरूम की और चल दिया | 

बुआ माँ बाल विधवा थी , अपना कहने के नाम पर एक छोटी बहिन थी जिसे उन्होंने पढ़ा लिखा कर शादी कर दी थी |शादी के बाद वो अपनी दुनिया में इस कदर मस्त हो गई की उन्हें बुआ माँ के अकेलेपन का कभी ख्याल ही नहीं आया |आता भी कैसे सुख की आँख को दुःख कब नज़र आया |बालिका स्कुल में एक पियोन की नौकरी करके अपना जीवन गुजारने वाली बुआ माँ अब उसे दे भी क्या सकती थी |कभी कभी वो अपने जीवन की वैभवता बताने कार से गावं आती भी तो जितने घंटे नहीं रूकती उससे ज्यादा  बाते तो बुआ माँ को सुना जाती | बुआ माँ उनके ठहरने की यथा संभव सुविधा करती पर उनके पास कमिया निकालने के  अलावा कुछ नहीं होता |  
बुआ माँ से  निशा के  पिता  का  दूर के  रिश्ते की बहन  का नाता  था  | लेकिन जब दिलो में अपना पन  और नजदीकियों का परिमाप सघन हो तो रिश्ते दूर के हो यह मायने नहीं रखता  | बुआ माँ उम्र में निशा के पिता जी से बहुत बड़ी थी ,माँ और पिताजी उन्हें  माँ समान आदर देते थे |निशा के जन्म के समय माँ  की देखभाल उन्होंने सगी बेटी की तरह की , और निशा तो उनके नीरस  जीवन में खुशियों और हर्षौल्लास  का बहार लेकर आई  |माँ से ज्यादा वो बुआ माँ के पास रहती उनसे खाना खाती ,खेलती और फिर कई बार कहानी सुनती सुनती उनके घर पर ही सो जाती |बुआ माँ का घर निशा के घर की बगल में ही था |बीच में एक दीवार भर का फासला जिसे निशा ने कभी फासला नहीं समझा | 3साल बाद निशा के छोटा भाई आया ,तब तक  निशा बुआ माँ की जान बन गई थी |वो स्कूल भी बुआ माँ  गोद में  जाती और सारे दिन स्कूल में ऐसे घूमती  रहती जेसे उसे कोई रोकने टोकने वाला नहीं हो |कोई  अध्यापिका भूल से उसे क्लास में बठने को कह भी देती तो वो दोड कर बुआ माँ के पीछे छुप जाती |टीचर कुछ नहीं कहती सिर्फ मुस्करा कर झूठी डाट का डर बताती ,जिसका असर तो कदापि नहीं होता |बुआ माँ भी कहती अभी बच्ची है पढ़ लेगी |स्कूल में भी बुआ माँ को सब सम्मान देते थे |उनकी पोस्ट उनके सम्मान में कभी आढे नहीं आई  | 

बुआ माँ के सीधे सरल जीवन में एक  मोड़ था ....रफीक  चाचा ,जो उनके घर के बाहर कपडे की दूकान लगाते थे |शुरुवाती 3०रुपये किराये में यह दुकान ली थी ,बुआ माँ के माता पिता ने सौदा किया हो शायद रफीक चाचा के पिता से |वो सौदा आज भी बरक़रार था |रफीक चाचा और बुआ माँ हम उम्र होने से बचपन में साथ साथ रहे |बुआ माँ पर 10 वर्ष की उम्र में ही शादी के तुरंत बाद वैधव्य का फाजिल गिर गया था |जिसे वो ठीक से समझ भी नहीं पाई |रूढिगत  माता पिता  को  भगवान् ने दुबारा सोचने का अवसर भी नहीं दिया और एक दुर्घटना में दोनी को अपने पास बुला लिया |तब बुआ माँ ने उम्र के १८ वे वर्ष पर कदम रखा था |कैसे संभली वो और कैसे सरकारी नौकरी तक पहुची इसमें रफीक चाचा का  ही सहयोग रहा |इस साथ -सहयोग में रूमानियत की धुप के कतरे गिर रहे थे ,लेकिन समाज जाति और धर्म की दिवार ने सारी धुप रोक ली |चाचा की शादी हुई पर वो  निसंतान  ही रहे |चाची  भी जैसे अनचाही सवारी की तरह उनके जीवन सफ़र में शामिल हुई और कुछ वर्षो बाद ही जन्नतनशीं  हो गई | 

समय की रफ़्तार रूकती नहीं ,बुआ माँ और रफीक चाचा भी समय के साथ चलते रहे |दोनों के जीवन में थोड़ी मिश्री निशा के आगमन से ही घुली थी | बाज़ार बंद हो जाने पर भी चाचा को घर जाने का कोई प्रयोजन नहीं दिखता |वो अपनी दुकान बंद करके बाहर बैठे  रहते और बुआ माँ घर की देहरी पर |दोनों कभी कभी देर तक बात करते रहते  या कभी मूक होकर  उम्र की घडिया गिनते रहते | दोनों के पास समय को काटने के लिए  बे सबब बातो की छुरी ही थी | इसमें न रफीक चाचा  बुआ माँ के घर की  देहरी लांघते और न बुआ माँ  मर्यादा की सीमा रेखा पार करती |इस देहरी और दूकान पर ही रफीक चाचा  बुआ माँ के लिए दिवाली के दियो की  बाती बना देते और बुआ माँ चाचा के लिए ईद पर सिवइए बना कर सुखा देती |जब उनके बीच नीरव क्षण गुजरते तब रफीक चाचा  बैठे बठे बीडी सुलगा ते रहते |बीडी की आग उनके अन्दर भी कही सुलगती रहती ,जिसका ताप कभी कभी उनके चहरे पर आ जाता |फिर उठ कर थके कदमो से घर की और चल पढ़ते |बुआ माँ भी उठ कर चूल्हा सुलगाती या कभी चना चबेना खा कर सो  जाती |निशा जब उनके पास होती तब उसके लिए वो उससे पूछ  -पूछ कर नई नई  खाने की चीजे बनाती  |जब निशा मन भर खा लेती तो बचे हुए के दो हिस्से करके बुआ माँ एक अपने लिए और दूसरा रफीक चाचा को दे आती |देखने वाले सब अपनी सोच से अर्थ निकालते ,लेकिन कोई कुछ कहता नहीं |निशा के पिता भी कभी कभी माँ से  रफीक चाचा का नाम लेकर बात शुरू करते फिर बीच में ही चुप होकर बात ख़त्म कर देते  | 
समय अबाध गति से बहता रहा निशा की कालेज की  पढाई  की वजह से जयपुर आना पढ़ा और गाव की गलियों के साथ बुआ माँ भी गावं में ही रह गई |महीने में एक दो बार शहर आ जाती थी निशा का प्यार उन्हें खीच लाता | शादी के एक साल बाद ही तो बुआ माँ का रिटायर मेंट हुआ था | तब छोटा सा आयोजन किया था पिताजी ने शहर में और बुआ माँ को कहा की अब वो यही रहे सबके साथ |यह उम्र अकेले रहने की नहीं है | 

बुआ माँ भी क्या कहती मौन स्वीकृति दे दी थी | उम्र की सांझ ने स्वीकार लिया था की अब निलय होने तक कोई साथ जरुरी है |गिरता हुआ स्वास्थ्य भी कह देता है की अब उसे देख भाल चाहिए |लेकिन शहर बुआ माँ को रास नहीं आया | कुछ दिनों से वो खाने पीने में अरुचि  दिखा रही थी |और कई बार सर दर्द की बात कह कर घंटो सोई रहती |कई बार माँ से कह चुकी की  उनकी आत्मा उनके साथ नहीं है | पिछली बार जब उनका चेक उप करवाया था तब तो ऐसा कुछ सामने नहीं आया की बुआ माँ को बड़ी बीमारी हो सकती है ,फिर यह एक दम से क्या हो गया | 
निशा और मनोज दुसरे दिन पहली गाडी से जयपुर आ गए थे |निशा को देख कर बुआ माँ के चहरे पर मुस्कराहट आई ,और मुस्कराने से उनके पीले पड़े चेहरे पर थोड़ी सी गुलाबी आभा |निशा उनका हाथ पकड़ कर उनके सिरहाने ऐसे बेठी जेसे कभी छोड़ेगी नही |पिताजी ने रफीक चाचा को भी खबर कर दी थी की  जीजी हॉस्पिटल मै एडमिट है |खबर सुनते ही चाचा गाव से तुरंत आ गए थे |हॉस्पिटल आकर  बुआ माँ  की  नज़रो से नज़र मिली ,उस मूक संवाद ने वर्षो की पीड़ा एक दुसरे से  कह दी |उसके बाद से  कमरे के बाहर कुर्सी पर ऐसे बैठे  जेसे उनहे  कुर्सी से जोड़ दिया हो |निशा  के पास एक बार आये और उसके सर पर हाथ फेर कर इतना कहा “तेरी बुआ माँ को न जाने देना “|और बाहर आकर बैठ गए | 
जाचे हुई ,रिपोर्ट आई ...सब सन्न रह गए |बुआ माँ को ब्रेन टयूमर  हो गया था  और फुट जाने की वजह से उसका जहर शरीर में फेल गया है  |कोई सर्जरी नहीं हो सकती |किसी के मुह से कोई आवाज़ नहीं आई |निशा बुआ माँ का हाथ पकडे बैठी थी और धीरे धीरे उस पर कसाव बढ़ता जा रहा था | 
पिताजी ने डॉ से पूछा कब तक ? 
डॉ ने कुछ नहीं कहा ,... 
रात भर निशा हाथ में हाथ लिए बैठी रही और चाचा बाहर कुर्सी पर जड़ हो कर |पिता जी के बहुत कहने पर भी उन्होंने वहा से हिलना पसंद नहीं किया | कब निशा की  पानी भरी आँखों  में नींद समां गईऔर सर हाथ पर आ गया  ,कुछ पता नहीं चला   जब  उसने नींद में अपने सर पर सिहरन महसूस की तो अचकचाकर जाग गई |उसने देखा बुआ माँ का हाथ उसके सर पर था और वो एक दम शांत पड़ी थी | 
अंतिम क्रिया क्रम पिताजी ने ही किये |मुखाग्नि देते वक़्त वो भी बिलख पड़े |रफीक चाचा  रीत गए थे ,कोई भाव नहीं था उनके चेहरे पर |एक दम खामोश ..तीसरे  दिन  पिताजी जब अस्थिया चुन कर लाये तो  चाचा उनके निकट हाथ फेलाकर खड़े हो गए |और एक वाक्य कहा “मुन्ना (पिताजी के घर का नाम ) मुझे हरिद्वार जाने का हक दे दे |सुन कर पिता जी स्तब्ध रह गए |उनके हाथ में अस्तियो का कलश कापने लग गया | 
निशा से रहा न गया ,वो अपनी जगह से उठी और उसने पिताजी के हाथ  का कलश रफीक चाचा के  हाथ में पकड़ा दिया |रफीक चाचा वही पिताजी के पैरो  में बैठ गए और कलश को  सीने से लगा कर  फूट फूट कर रो पड़े |निशा ने मनोज  के काँधे पर सर टिका कर कहा बुआ माँ अब अकेली नहीं रही |....... 

        प्रतिक्रियाये 
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[12/3, 09:35] Lakshmikant Kaluskar Ji: प्रवेश बहुत अच्छी कहानी. ऐसी कहानियां पढ़ कर आंखों की कोरे भीग जाती है. ऐसा ही हुआ. खून के रिश्तों से बढ कर मन और आत्मा का   जुड़ाव होता है. व्यक्ति दुनिया में भले ही एकाकी दिखे पर उसका मन कभी खालीपन या एकांत स्वीकार नहीं कर पाताएक पौधा रोपा ही जाता है वहां, अंदर ही अंदर पल्लवित भी होता रहता है, पुष्पित होता है और सुवासित होता है. इसकी सीमाएं नहीं होती. 
कहानी के लिये बधाई.
[12/3, 09:40] Pravesh: बहुत बहुत आभार आपका कालुस्कर जी
कहानियॉ की श्रृंखला में मेरी यह तीसरी कहानी है ।पहला ड्राफ्ट है ,सुधार की काफी गुंजाइस है इसमें ।
मेरा सभी से  विनम्र निवेदन है की इस कहानी के कच्चे पन को सुधारने में मेरी मदद करे ।
🙏🙏🙏🙏
[12/3, 11:16] Saksena Madhu: प्रेम का अपना अलग धर्म होता है वो किसी अन्य  धर्म का मोहताज़ नहीं । प्रेम तो अपनी पूरी ताकत से स्थापित होता है । इस कहानी ने कई भूले बिसरे चेहरे याद दिला दिए ।मन भावुक हो गया । प्रेम में जितने ज़िंदा हुए उतने ही मारे गए ।बहुत अच्छी कहानी ।बधाई प्रवेश ।आभार ब्रज जी ।
[12/3, 11:39] Aalknanda Sane Tai: वाह ! एक चुलबुली सखी की संजीदा रचना. हमारे यहाँ स्त्री-पुरुष संबंधों को देखने की दृष्टी में अब काफी बदलाव आया है, पर यह कहानी जिस पीढ़ी की है, उस दौर में ऐसा ही होता था.टाइप की गलतियां हैं और इस वजह से विलय,निलय हो गया है, जिससे उसका अर्थ बदल गया है.वर्णन बहुत ज्यादा है,उस अनुपात में घटनाक्रम छोटा है. पहला ड्राफ्ट इस समूह में साझा करना अच्छी बात है, लेकिन यहाँ समालोचनात्मक वातावरण की कमी है. ज्यादातर वाहवाही करते हैं.......
[12/3, 11:44] +919981058773: कहानीकार अपने उद्देश्य में सफल हैं जिस बात को पाठकों तक लहुँचाने का प्रयास लेखिका ने किया वो बात पूरी शिद्दत से पाठकों तक पहुँची प्रेम और लगाव को केंद्र में रखकर जो ताना बाना बुना गया वह अद्भुत है शिल्पगत थोड़ी कमी ज़रूर समझ में आई लेकिन भावना प्रधान होने से वह कमी भी नही लगती कई स्थानों पर आँसू भी आने को बेताब हुए ।
[12/3, 14:05] ‪+91 95463 33084‬: प्रवेश जी लम्बे दिनों के बाद इतनी अच्छी कहानी पढ़ी ।शुक्रिया ।बुआ माँ और रफीक चाचा के बीच का अनकहा प्यार अद्भुत है ।आपकी किस्सागोई को सलाम👌👌👌🙏🙏🙏👍
[12/3, 14:24] Sudhir Deshpande Ji: प्रवेश, चित्रकार, कवि, कहानीकार, अन्नपूर्णा, प्रवेश नाटककार, और न जाने क्या। पर संवेदना का पूरा सागर है। बुआ और रफीकचाचा की रिक्तता और भावनात्मक जुडाव की मार्मिक कथा है। बुआ की पीडाओं को गहनता और घनीभूत हुई वही रफीक की तरल होकर बह निकली। बधाई बहुत अच्छे चित्रण के लिए
[12/3, 14:25] Arti Tivari: प्रवेश सच्चा प्यार तो यही है। जो दिलोदिमाग पर छाया रहता है। जिससे प्यार हो जाये उसे दुःख और परेशानी में देख कर बैचेन हो उठता है,और कर गुज़रना चाहता है वो सब कुछ जिससे प्रेमपात्र को ख़ुशी मिले। सुकून मिले बिना किसी प्रतिदान की चाहना के प्यार न उम्र देखता है,न वक़्त और न ही मज़हब से कोई वास्ता होता है प्यार का प्यार तो बस प्यार है। एक जूनून भी एक ख़ामोशी भी और एक बलिदान भी प्यार में पाना कहाँ होता है।
प्यार में तो सिर्फ और सिर्फ देना होता है। चाहे वो ख़ुशी हो चाहे जान हो।🙏🙏🍀🍀
[12/3, 14:27] Arti Tivari: ये सब तुमने सहजता से बयान कर दिया यहाँ बधाई प्रवेश👍🏼👍🏼😊
[12/3, 14:28] Rajnarayan Bohare: बहुत उम्दा। मीठी ।किस्सा गोई से भरी।प्रेम से लबरेज़ । शुरूआत में प्रेम।अंत में भी। चाचा कहानी के बीच में आये पर केंद्र बन गए।वाह प्रवेश जी अच्छी कहानी।और क्या चाहिए ऐसी कहानी मेँ
[12/3, 14:40] Mani Mohan Ji: अच्छी कहानी प्रवेश जी ।पठनीय।
[12/3, 14:50] ‪+91 87932 85368‬: प्रवेश जी, आप अच्छी कहानीकार बनेंगी। जारी रखिए। बधाई।
[12/3, 14:56] Padma Ji: प्रवेश की अच्छी कहानी। रांगेय राघव की गदल कहानी में ऐसा ही अव्यक्त प्रेम था। बधाई
[12/3, 15:30] ‪+91 89592 88001‬: प्रवेश जी प्रेम की टीस लिए एक भावपूर्ण कहानी शुभम्
[12/3, 15:35] ‪+91 99269 07401‬: प्रवेश जी बहूत ही मीठी कहानी प्रेम से पगी.आप अच्छी कहानीकार है
[12/3, 15:47] ‪+91 98270 96767‬: प्रवेश की ये कहानी पहले भी पढ़ी है मॅन प्रेम को शब्द देती खूबसूरत कहानी ।
[12/3, 16:25] Chandrashekhar Ji: प्रवेश जी कहानी वस्तुतः बालविधवा के उस मन को सामने लाती है,जिसे नियति और उससे ज्यादा समाज ने अपने दायरे में सीमित कर दिया। अवस्था के अपने प्राकृतिक आकर्षण और स्वभाव होते हैं जो कितने भी सीमित भले कर दिए जाएँ लेकिन उन्हें पैदा होने से रोका नहीं जा सकता। कहानी का कथ्य बहुत अच्छा है।बधाई प्रवेश जी।🍁
ब्रज जी आभार।
[12/3, 16:48] Devilal Patidar Ji Artist: लाजबाब कहानी
सच क्या नीभाया हे सब ने सब कुछ .
बधाइ प्रवेश जी .
[12/3, 18:14] Pravesh: सभी को धन्यवाद ,आभार ,शुक्रिया
🙏🌹🙏
ताई आपका स्नेह मुझे हमेशा  उत्साहित करता है । आपने सही कहा यहाँ समालोचनात्मक वातावरण की कमी है । लेकिन यहाँ के समालोचक श्रेष्ठ नही श्रेष्ठतम है ।अब उनकी इच्छा पर निर्भर करता है की वो प्राइमरी क्लास की कापी चेक करे या न करे ।
वेसे मैं जानती हूँ की यहाँ  सब मुझे बहुत स्नेह करते है ,शायद वो यह सोचते हो की मुझे उनके कठोर शब्द से चोट पहुच सकती है ,लेकिन ऐसा कतई नही है ।मेरा लेखन   उन सबकी सूक्ष्म समीक्षात्मक दृष्टि में निखरना चाहता है ।
अतः निवेदन है यदि आज की क्लास में पोस्टमार्टम टेबल पर  मेरी कहानी रहे तो में कुछ अच्छा करपाऊँगी ।
🙏🙏🙏🙏🙏
कालुस्कर जी ,मधु ,ताई ,उदय जी ,आरती ,भावना जी ,सुधीर जी,बोहरे जी ,मणि जी ,दीप्ती जी पदमा जी ,डॉ वनिता जी ,रेखा दुबे जी ,नयना जी ,कविता जी ,चंद्र जी ,देवी सर
और ब्रज जी आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद
🙏🙏🙏
[12/3, 18:36] ‪+91 95756 75193‬: Praveshji, aapki sashakt lekhan ko salaam🙏
[12/3, 18:58] ‪+91 94793 75622‬: प्रवेश की मर्मस्पर्शी ईमानदार कहानी, बधाई स्वीकारें... 🌿🌿🌿
[12/3, 21:20] Surendra Raghuwanshi: रिश्तों की गर्मी की अपेक्षाओं को सुरक्षित रखने का आव्हान करती प्रवेश सोनी की अच्छी कहानी।
वधाई प्रवेश।
[12/3, 21:45] Sandhya: बहुत ही बढ़िया कहानी एक बार पढी है फिर से पढ़ना आनंद दे गया 
सच है,प्रवेश बहुगुणी है रे 
बहुत बधाई  💥
[12/3, 22:18] ‪+91 98262 43337‬: पहली ही पंक्ति से चित्त को बांधती कहानी के लिये प्रवेश जी आपको बहुत बहुत बधाई औरआगे के लिये शुभ कामनायें | कहानी में उल्लेखित हर पीढ़ी जाति धर्मऔर अन्य मान्यताओं से ऊपर उठकर प्रेम को ही सर्वोपरि स्वीकार करती है , पूरी कहानी में प्यार के प्रति कोई सामाजिक विसंगति नज़र नहीं आयी , यह कहानी उसी कल्पना लोक में ले जाती है |प्रवेश जी आपकी कहानी हमारे जीवन ,हमारे सामाजिक नैतिक मूल्यों में व्यवहारिक रूप ले सके  इसी दोआ के साथ आपको पुनः बहुत बहपत बधाई

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