Sunday, July 29, 2018

राजेन्द्र श्रीवास्तव जी के गीत 



राजेन्द्र श्रीवास्तव 



 पसरे सन्नाटे


संवेदन से शून्य, हृदय पर
पसरे सन्नाटे।

जटिल बिषमताओं की खाई
 कौन यहाँ पाटे।
संवेदन से शून्य, हृदय पर
पसरे सन्नाटे।

सारा दिन ढोकर पराग कण
मधुमक्खी रोयी।
बूँद-बूँद घट भरी संपदा
क्षण भर में खोयी।

मीठी शहद, भरे छत्ते को
सबल रीछ चाटे।

छप्पन भोग कहीं पर लगते
कहीं सिर्फ फाँके।
लाठी जिसके हाथ रही है
भैंस वही हाँके।

दीनू ने बोये थे गेहूँ
समरथ ने काटे।

साठ बरस की कमला काकी
पूछ- पूछ  हारी।
कौन खा गया, उसके हक की
सुविधा सरकारी।

हीरोहोंडा मुखिया जी की
भरती फर्राटे।
   



 तुम नहीं निकले घरों से
➖➖➖➖➖➖➖➖
आबरू अपनी बचाने वह
 सड़क पर लड़ रही थी।
बहशियों के सामने बिलकुल
अकेली पड़ रही थी।
अंत तक लड़ती रही वह
देह-लोलुप  निश्चरों से।

चीखती ही रह गयी वह
तुम नहीं निकले घरों से

गाँव के ही श्वान अब तो
घेर लेते  कहीं    गैया।
जूझती है रोज अक्सर
बाज कौवों से चिरैया ।

नुच गये हैं पंख फिर भी
लड़ रही  टूटे परों से।

बिष भरे बिषदंत लेकर
दौड़ते हैं  नाग काले।
सपेरों ने बीन कर दी
नागराजों  के  हवाले।

गुप्त समझौता हुआ फिर
नेवलों  का  बिषधरों से।
   



 हम मानव है...
➖➖➖➖➖➖

हम मानव हैं, नहीं काठ की
 कोई कठपुतली।

 हम अपने मन के राजा हैं ,
 भू पर राज नहीं।
 कहीं नहीं जागीर हमारी,
 सिर पर ताज नहीं।
 आसमान है मुकुट हमारा,
 सिंहासन धरती।
 आठों पहर हवा तत्पर हो,
 स्वयं चँवर ढरती।
 महल मुबारक तुम्हे, हमे तो
 वट की छाँव भली।

 नहीं मिला भोजन दो दिन से,
 कोई बात नहीं।
 खोद निकालेंगे कुदाल से,
 सूखा भात कहीं।
 आज काम से लौटाया कल,
  वही बुलाएँगे ।
 श्रम के सरसिज, स्वेद-सरित में
 खिल ही जाएँगे ।
 खिल जायेंगी मुस्कानों की
 नन्ही कहीं कली।


 हाथ भला क्यों फैलाए हम,
 दुनिया के आगे।
 विपदाओं से हार मान कर,
 कभी नहीं भागे।
 हमे भरोसा अपने श्रम पर,
 साबित कर देंगे।
 अपने हाथों की रेखाएँ,
 स्वयं बदल लेंगे।
 विधि का लिखा बदल देने की
 इच्छा फिर मचली।

 सौंपें डोर भला क्यों तुमको
 अपने जीवन की।
 लेना चाहेंगे कुछ साँसे
 अब अपने मन की।
 'पराधीन-साँसों' की अब तक
 बहुत उमर जी ली।
 अब तुमको करनी ही होगी
 यह डोरी ढीली।
 जब-जब ठान लिया मन ने फिर,
 जग की नहीं चली।
               

   
चलो मौन के पट अब खोलें
➖➖➖➖➖➖➖➖➖
कुछ तुम बोलो, कुछ हम बोलें
चलो 'मौन के पट'-अब खोलें ।

रिश्तों को दें फिर गर्माहट,
खत्म करें थोथी कङवाहट।
कुछ भावों, कुछ व्यवहारों में-
बातों में मिठास कुछ घोलें। चलो मौन.....

शुरु करें जाना-पहिचाना,
बातों का सिलसिला पुराना।
किसका  कितना दोष रहा है-
न तुम मापो न हम तौलें। चलो मौन......

 यूँ छिप जाना और लजाना
निश्छल मन का यह मुस्काना
 साँसों की माला में हम-तुम
यह क्षण  यह मुस्कान पिरो लें। चलो मौन...

साझा कर लें सुख-दुख सारे,
एक - दूजे के   बनें  सहारे।
शेष रहे,  जीवन में  मिलकर-
कुछ पल हँस लें, कुछ पल रो लें। चलो मौन.....
           


                   
 तुम क्या जानो
➖➖➖➖➖➖
तुम क्या जानो....!
                         
कभी बाँस की फाँस धंसी न-
कभी पाँव न फटी बिबाईं।
तुम क्या जानो जानो पीर परायी।

तुम क्या जानो! क्या होता है-
राहों में अपनों को खोना।
पल-पल, फिर उनकी यादों में -
गरम आँसुओं से मुँह धोना।
आँखों ही आँखों में सारी-
रात गयी पर नींद न आई।  तुम क्या जानों.

तुम क्या जानो! सीढ़ी चढ़ना,
सिर पर रख कर भरी तगाड़ी।
हाड़ तोड़ महनत दिन भर की -
औनी-पौनी मिली दिहाड़ी।
पानी पीकर ही, धरती पर -
सो जाना, फिर बिछा चटाई।  तुम क्या जानो

तुम क्या जानो! आठ बरस के
बच्चे से बस्ता छिन जाना।
जूठे कप प्लेट, होटल में
धोकर पैसे चार कमाना
रोटी दोनों वक्त  मिल गयी-
मगर पेट भर कभी न खायी।  तुम क्या...

तुमने शायद ही देखा हो-
खेतों में बीजों का बोना।
और बाढ़, सूखा, ओलों से -
उन फसलों का चौपट होना। 
बोझ कर्ज का और बढ़ गया -
फिर बिटिया की रुकी सगाई। तुम क्या जानो..

तुम क्या जानो! कई घरों का-
झाड़ू-पौंछा,  बर्तन धोना।
और भूख से कहीं दुधमुँही-
बच्ची का सिसकी भर रोना।
ढली दोपहर लेकिन अब तक-
उसकी माँ वापस न आई। तुम क्या जानो...

तुम क्या जानो क्या होता है -
चुनरी दागदार हो जाना।
जाने-अनजाने हाथों से -
या फिर तार-तार हो जाना।
कौन मिटाए इन दागों को
कैसे कौन करे तुरपाई । तुम क्या जानो...
                         

➖ राजेंद्र श्रीवास्तव


परिचय:
राजेंद्र श्रीवास्तवजन्मतिथि -04.06.1954
जन्म स्थान  - विदिशा (म.प्र.)का एक छोटा सा गाँव काँकर 
एम.एस सी(प्राणिशास्त्र)
बी.एड.
1980 से बस्तर के लोहण्डीगुडा उ.मा.वि. से शिक्षक के पद से शासकीय सेवा का श्री गणेश ।
साहित्यिक रुझान व प्रेरणा अग्रज 'पुष्प जी 'से ।

आकाशवाणी जगदलपुर से (1982-1991)यदा-कदा चिंतन,बाल कविताएँ,नाटिका (युववाणी) कहानी व छात्रीय कार्यक्रम आदि के अवसर मिलते रहे । विज्ञान नाटिका का लेखन व निर्देशन ।


बाल कविता की एक पुस्तक 'मछली रानी'  प्रकाशित।                                   
आकाशवाणी इंदौर से भी (1992-1995)बाल कविताओं का प्रसारण ,30-6-16को प्राचार्य पद पर रहते हुये सेवा निवृत्त हुआ हूँ ।


                             
साहित्य की  बात वाट्सअप  समूह में चर्चा हेतु प्रस्तुत गीत /नवगीत ,प्रस्तुति सुरेन सिंह  ...रचना प्रवेश पर 
विशेष प्रतिक्रियाओं के साथ 




संवेदनाओं से ओतप्रोत ख़ूबसूरत गीत-नवगीत

गीता पंडित:
एक समय ऐसा भी आया कि गीत को आत्मालाप  कहकर नकार दिया गया। दुरूह साहित्यिक भाषा से ग्रसित कहा गया वही आज नवगीत के रूप मे जन  के लिये जन की भाषा में जन की बात करता है।

गीत को भुला देना आसान नहीं।  जन्म से मृत्यु तक हम गीत गाते और सुनते आ रहे हैं। फिर छायावादी कहकर गीत से पल्लू झाड़ने की बात क्या बेमानी नहीं लगती ?

सच कहूँ तो आज गीत-नवगीत लिखना बेहद दुष्कर कार्य है क्योंकि नवगीत के नाम पर सर्वत्र चुप्पी है । नयी कविता इतनी प्रचुर मात्रा में लिखी जा रही है कि गीत-नवगीत को हाशिये पर डाल दिया गया है। फिर भी धारा के विपरीत नवगीत खूब लिखा जा रहा है।
जो समकालीन समस्याओं से जुड़ा है।
आम बोलचाल की भाषा में अधिक से अघिक लोगों तक पहुँचता है
और नयी कहन व नये बिम्बों के साथ समकालीन साहित्य के समक्ष ऊँची ग्रीवा करके खड़ा होता है।
संक्षिप्तता इतनी कि केवल दो या तीन बंद मैं अपनी बात कहने की क्षमता रखता है।

आज अनेकानेक बेहतरीन व मंजे हुए वरिष्ठ और कनिष्ठ नवगीतकार हैं जो अपनी पूरी निष्ठा के साथ  नवगीत लिख रहे हैं।

हाथ कंगन को आरसी क्या।
आप स्वयं पढ़ें और देखें कि नवगीत आज की समस्याओं से जूझते हैं या नहीं ?
ये समय को गाती हुई रुदालियाँ हैं या नहीं ?
ये पूरी तरह से समकालीन हैं या नहीं ?

राजेंद्र श्रीवास्तव जी एक समर्थ नवगीतकार हैं | उनके पाँच गीत- नवगीत आज हमारे सामने हैं |

'संवेदन से शून्य, हृदय पर
पसरे सन्नाटे।'

प्रथम नवगीत ही उस संवेदना की बात करता है जो आज के समय से आँख-मिचौली खेलती हुई प्रतीत होती है | सर्वत्र भीड़-तंत्र का राज है लेकिन चारों तरफ व्याप्त सन्नाटा आदमी को लील रहा है | इसमें कई बिम्ब बहुत ख़ूबसूरत हैं और कहन मन को लुभाती है |

'आबरू अपनी बचाने वह
सड़क पर लड़ रही थी।
बहशियों के सामने बिलकुल
अकेली पड़ रही थी।
अंत तक लड़ती रही वह
देह-लोलुप  निश्चरों से।

चीखती ही रह गयी वह
तुम नहीं निकले घरों से'

दूसरा गीत सदियों से पीड़ित स्त्री की दशा का वर्णन करते हुए समय के चेहरे पर करारा तमाचा जड़ता है और हमारे सामने प्रश्न बनकर खड़ा हो जाता है कि आज आदमी को क्या हो गया है ? वह सब कुछ देखता है, सुनता है लेकिन सही के पक्ष में हस्ताक्षर नहीं करता | क्या समय माफ़ कर सकेगा |
'समय लिखेगा इनका भी इतिहास'  |'

संक्षेप में नीचे के तीनों गीत भी बहुत मुखर हैं जो अपने समय से न केवल संवाद करते हैं बल्कि आदमी को इंसान बनने की तरफ अग्रसर करते हैं | एक चुप्पी जो घर से बाहर तक फैल गयी है | एक मौन जो अपनों के होते हुए भी श्वासों की पीड़ा बनता जा रहा है, एक तनहाई जो धीरे-धीरे आदमी को लील रही है | किसान, कामगार, स्त्री, बच्चे सब उसकी पीड़ा और चिंता के विषय हैं |  गीतकार इस सबसे व्याकुल होता है और यही जन की पीड़ा उसके नवगीत की सेंटर थीम है , नींव है जिस पर रचे-बसे उनके गीत-नवगीत पूरी तरह सम्प्रेषित होते हैं और संवेदनाएं जाग्रत करने में पूरी तरह सफल भी |

राजेन्द्र श्रीवास्तव जी को बहुत-बहुत बधाई |

और अंत में कविता बनाने से नहीं बनती हाँ, बड़ी अवश्य दिखाई दे जाती है जो पुरस्कार तक कवि को खींचकर ले जाती है मगर पाठक के हृदय तक पहुँचने के लिये कविता को कवि के हृदय से अवतरित होना होता है।

नवगीत इसी तरह अवतरित हो  रहा है
जब यह कहा जा रहा है कि कविता अब शेष नहीं तब नवगीत और नवगीतकार का महत्व और दायित्व विशेष रूप से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

आभार सा की बा और फिर से बधाई राजेन्द्र जी को |

इसे मेरी पाठकीय टिप्पणी समझी जाए |

➖ गीता पंडित




Saurabh Shandily: 
मीठी शहद भरे छत्ते को सबल रीछ चाटे
दीनू ने बोले थे गेहूं समरथ ने काटे

इन पंक्तियों की पृष्ठभूमि तैयार करने में आदरणीय राजेंद्र चाचा जी ने जो श्रम किया वह प्रणम्य है । आपके गीतों में जनवादी स्वर देखना आह्लादकारी है अन्यथा छंद में लिजलिजा प्रेम , भजन एवं आकाओं के लिए सिवाय प्रस्तुति गान के , प्रतिरोध के स्वर कम दिखते हैं ।

इस दिशा में न्यून गीतकार हैं जिन्होंने उल्लेखनीय काम किया है । छंदों में बंधी रचनाएं अक्सर एक खास दायरे में आ जाते हैं ।

आपका एक गीत हम मानव हैं से कुछ पंक्तियां -
नहीं मिला भोजन दो दिन से कोई बात नहीं
खुद निकाल लेंगे कुरान से सूखा भात कहीं

उपरोक्त पंक्तियाँ अलग से दिखने वाली पंक्तियां हैं । अगला गीत चलो मौन के पाट अब खोलें, संवाद की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए किया गया एक सार्थक पहल है वहीं तुम क्या जानो शिर्षक से लिखा गया गीत शानदार है ।

तुम क्या जानो से
आठ बरस के बच्चे से बस्ता छिन जाना
झूठे कप प्लेट होटल में धोकर पैसे चार कमान

आक्रोश पैदा करने वाली पंक्तियां हैं । तमाम गीत अपनी बात कहने में सफल है एवं आप को हृदय से बधाई

 

 Vijay Panjwani: 
आज राजेन्द्र श्रीवास्तव जी के गीत सचमुच पटल को समृद्ध कर रहे हैं। सीधी
सरल सी भाषा में लिखे गए । हाशिए के लोगों के दर्द को बखूबी उजागर करते हैं।
जिन्हें पढ़ कर असहज सा लग रहा है  !
1 " पसरे  सन्नाटे "
दीनू ने बोए थे गेहूं
समरथ ने काटे
2 " तुम नहीं निकले घर से "
गुप्त समझौता  हुआ फिर
नेवलों का विषधरों से
5 " तुम क्या जानो "
कभी बांस की फांस धंसी न _
कभी पांव न फटी बिवाईं
तुम क्या जानो पीर पराई
भरी दोपहरी लेकिन अब तक
उसकी माँ वापस घर न आई
फिर बिटिया की रुकी सगाई  !
राजेंद्र जी को हार्दिक बधाई
ब्रज जी और सुरेन जी को धन्यवाद्

Sandhya Kulkarni: 
ये सत्य है कि , नई कविता में विचारों की इतनी सघनता है कि , रस कहीं छिंटक गया सा लगता है ऐसे में राजेन्द्र जी के गीत पढ़ना एक ताज़ा बयार की तरह महसूस करना है ।   संवेदन से शून्य /हृदय पर पसरे सन्नाटे  गीत नए बिम्बों से पूरित है ।    गुप्त समझोता हुआ फिर /  नेवलों का विषधरों से  गीत में जिस तरह अपनी बात रखी गयी है समाज की चिंता झलकती है   । तीसरा गीत श्रमजीवी वर्ग की गाथा कह रहा है और स्वाभिमान से रहने की बात कह रहा है । गीत जनवादी दृष्टिकोण लिए है , इस नवाचार को सलाम । कवि श्रृंगार से भी अछूते नहीं हैं , देखिये कितनी ख़ूबसूरती से कह रहे हैं  :-- सांसों की माला में हम तुम / यह क्षण यह मुस्कान पिरो लें  राजेन्द्र जी के गीत जहाँ  एक ऒर छंद की मर्यादा का निर्वाह करते चलते हैं , समय की पुकार को भी अपने नवाचार में पिरोते चलते हैं ।


 Braj Shreewastav: 
इन गीतों की विशेषताएं हैं इनमें वैचारिक परिपक्वता और समकालीन सरोकार।
जैसा कि कहा जाता है कि लय हर मन की पहली पसंद है, यहां लय अपने सौम्य में है,शोर में या मद में नहीं।लय एक बैशाखी होना चाहिए, मंजिल नहीं, यह बात इन गीतों में है। ऐसे गीत ही कविता प्रधान होते हैं, जैसे ये हैं।
सादर।

Anil Kumar Sharma: 
श्री राजेन्द्र जी के गीत समाज की विविध उलझनों की डगर से निकलते हुऐ ,व्यंग्य के सधे हुऐ तीर छोड़ते हुऐ एक लय ताल में सफ़र करते हुऐ अपनी प्रभावी यात्रा पर निकल पड़े हैं ।
पाठक को कुछ रुक कर ,सोचने पर मजबूर करते गीतों के लिये श्री राजेन्द्र जी को बधाई


Jyoti khare :
 एक समय था जब गीतों और गजलों को समकालीन कवियों या यूं कहें प्रगतिशील कवियों ने बहुत पीछे धकेलना शुरू किया था, गीत वाकई अपनी पहचान खोने लगे थे और गजल मुशायरों में समाहित होने लगी थी ऐसे समय में शम्भूनाथ नाथ जी ने नवगीत दशक के संपादन किया और देश के चर्चित गीतकारों को नया प्लेटफार्म दिया. माहेश्वर तिवारी, उमाकांत मालवीय, अनूप अशेष, भगवान स्वरूप सरस,दिनेश मिश्र,राम सेंगर, भदौरिया जी जैसे गीतकारों को नयी दिशा दी, बाद में अविनाश चौहान, पूर्णिमा वर्मन ने गीतों के लिए बहुत सार्थक कार्य किये. रहा सवाल गजल का तो जो लोग गजल को नकारते थे वही लोग दुष्यन्त की गजलों के गुणगान करने लगे.
गीता पंडित जी आज के गीतों के परिद्रश्य में अच्छी और सार्थक भूमिका लिखी है.
भाई राजेन्द्र श्रीवास्तव के गीत मन को छूते हैं , नवगीतों में जो गांव का बोध होता है, उससे अलग हटकर समकालीन प्रतीकों और बिम्बों को लेकर अपने गीत रचे हैं यह इन गीतों की विशेषता है , इन गीतों की एक और खास बात है कि शब्दों को सलीके से गीतों में पिरोया है कहीं भी इस नहीं लगा कि जबरन कठिन शब्दों को धरा गया हो, सुगमता, सहजता इन गीतों की जान है.
मध्यमवर्गीय मानसिकता के ताने बाने में बुने आज के गीत मन को मथते हैं और सराहने को मजबूर करते हैं.


Akhilesh Shreewastav:
 बहुत कम लोग है जो छंद मे लिख रहे है पढ़ें जा रहे है तर छप रहे है । लय कविता का अनिवार्य तत्व है अकविता में उसे बनाये रखने का शऊर मुश्किल से आता है छंद उस लय को नियम के तहत स्थापित करता है अकविता में लय साधना हो तो छंद में शुरुआत आवश्यक है मुक्तिबोध तक ने छंद लिखा । यह स्मृति का मंत्र है छापे खाने की मशीन न होती तो अकविता शायद ही पनप पाती ।विश्व की सबसे शानदार अकवितायें भी जन के स्मृति में नही रहती । अकादमीक व हिंदी में स्नातको को छोड़ दे तो आज भी कविता का मतलब छंद ही है । राजेंद्र जी को बहुत बधाई ।

Madhu Saksena: 
राजेन्द्र जी हर फन में माहिर है ।आज उनके नवगीत पटल पर है ।गीतों में लय रस के साथ आज की विसंगतियों पर भी बात की गई है ।सहज सरल और सुंदर शब्द गीत   जन जन तक पहुंच जाने के क़ाबिल हैं ।
सारा दिन ढोकर प्रयाग कण
मधुमक्खी रोयी
इस पूरे अन्तरे में व्यापकता है ।अलग अलग पाठ है और सब पाठक इसे अपने तरीके से अर्थ के साथ महसूस करेगें ।
लेखन की यही सफलता राजेन्द्र जी ने हासिल की है ।
चीखती रह गयी वह
तुम नही निकले घरों से

धिक्कार ,लताड़ ,चिंता ,आशंका  समझाइश सभी भाव शामिल है ।

Nilima Karaiya:
पहले सन्नाटे  कविता में  विषमता की पीड़ा है। संवेदनाओं  की शून्यता से मानवता  का अवमूल्यन द्रष्टव्य है। एक एक पंक्ति विवशता की स्याही  से रचित है।

तुम नहीं  निकले घरों  से-
यह कविता  अंदर तक झकझोर गई ।इंसानियत ने इस कदर दम तोड़ा है कि वही शर्मसार  हो रही है।
बेहद मार्मिक
हम मानव हैं
संभवत  यह मेहनतकश मजदूर की व्यथा  को दर्शाती उसके हौसले  और उत्साह  की कविता है।और बेहतरीन सोच की सकारात्मक  रचना है।
चलो मौन के पट हम खोलें-
यह टूटते बिखरते रिश्तों  को बचाने  की कवायद है।अपने  अहम् को त्याग  हम थोड़ा  विनम्र  बनें। छोटी  मोटी  गल्तियों को  नजरअंदाज करें। वाणी के संयम को मधुरता की लगाम संयमित  रखें। तो हमारे रिश्ते हमारे  हाथ में  हमारे  साथ रहेंगे।
तुम क्या  जानो
यह कविता  बहुत तकलीफदेह लगी।धीरे-धीरे  जो वर्ग भेद की या कहें  संपन्नता और विपन्नता की गहराती खाई के कारण दिहाड़ी मजदूर या समतुल्य लोग  कैसे  जीवन यापन  करते हैं  यह सिर्फ  वही  जान सकते  हैं।
सभी  नवगीत  समकालीन  परिस्थितियों का जीवित चित्र  प्रस्तुत  करते हैं। 










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