Monday, April 4, 2016





⬜  राजेश झरपुरे




सपने में मकान
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      सम्पतराव और उनका पाँच सदस्यी परिवार जीने की बेहतरीन कला से वाक़िफ़ था। हर स्थिति में मुस्कुराते रहना और विषम से विषमतम परिस्थिति में अविचल बने रहना उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। गरमी की चिलचिलाती दोपहरी में जब कोई पड़ोसी बिना पंखे और खिड़की वाले, उनके किराये के मकान का दरवाज़ा खटखटाता तो घर का सदस्य ”अतिथि देवो भयः“ की मुद्रा में उसका स्वागत करता। चिड़चिड़ाना, मुँह बनाना, मुँह फुलाना जैसी स्थिति कभी देखने को नहीं मिली। मोहल्ले में कहीं शादी-ब्याह हो, सम्पतराव का परिवार दरी बिछाने से लेकर चौका-बासन तक हाथ बंटाते मिल जाता।
दुःख और गमी के समय में वे पीड़ित परिवार के इतने करीब और गहरे तक जुड़े होते कि कहना मुश्किल हो जाता कि वे घर वाले है या बाहर वाले। पूरे मोहल्ले में एक वही परिवार था जो सब घरों से जुड़ा हुआ था और सब उनसे। वरन् मोहल्ले में कितनेक घर ऐसे थे, जिनमें वर्षों से बोलचाल बन्द थी।

        पेशे से सम्पतराव स्कूल में षिक्षक थे। जोड़तोड़ का जीवन था। तीन बेटियाँ में से दो विवाह योग्य हो चुकी थी। एक बेटा और बेटी अगले दो सालों में स्नातकोत्तर हो जाने वाले थे। उस वक्त सबसे छोटे बेटे को एक अच्छी सी नौकरी की ज़रूरत होगी। छोटी एक साल बाद विवाह की सही सौपान पर होगी। उस वक्त बड़ी दो बहनें विवाह हेतु छोटी के सामने असुविधाजनक स्थिति में आ सकती हैं फिर भी  दुश्चिन्ताएँ उन्हें या उनके परिवार को घेर नहीं पाती थी।

      उनकी पत्नी उन्हें मास्साब कहकर पुकारती। वह घर में ट्यूशन पढ़ाते थे। ट्यूशन पढ़ाते समय वह अन्य बच्चों के साथ अपने बच्चों को भी बिठा  लिया करते। बच्चे उन्हें मास्साब कहकर पुकारते। उनके बच्चे भी अन्य की तरह  मास्साब पुकारने लगे। पिता या पिताजी का सम्बोधन उनके घर में कभी सुनायी नहीं पड़ा ।  उन्होंने कभी अन्यथा नहीं सोचा। सदैव मुस्कुराते रहते। मास्साब शब्द के भीतर पिताजी होने की सार्थकता को वह पूरी गम्भीरता से महसूस कर लेते ।


         पिछले पैंतालीस वर्षेां से किराये के मकान में रह रहे माससब का एक सपना था ... ख़ुद का मकान हो । बरसों से किराये के मकान में रहते, दूसरों के सुख-दुःख बांटते हुए, उनके सुख कहीं दूर तक बिखर कर रह गये थे। ख़याल सबसे पहले उनकी पत्नी को आया था... तब उन्होंने महसूस किया... अपना एक मकान होने का सुख और न होने की पीड़ा। इस बेहद व्यक्तिगत सुख और पीड़ा के बीच शहर के बीचेां-बीच ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा उनके हाथ लग गया। मास्साब के पास तो रजिस्ट्री कराने के लिए भी पैसे नहीं थे पर बेहद उत्साहित मास्साब बयाना दे बैठे। पत्नी ने कुछ जमा राशि, कुछ गहने तथा ससुराल वालों ने बचा भारी भार उठाया तो ज़मीन मास्साब की सम्पत्ति हो गयी।

         ज़मीन आ जाने पर मास्साब और उनके परिवार ने उसमें खेती करना आरम्भ कर दिया। 20 बाई 40 वर्गफ़िट के प्लाट पर खेती। खेती सपनों की, खेती भविष्य की, खेती योजना की, खेती अपना एक मकान होने की। उनका बचपन, जवानी और आता हुआ बुढ़ापा किराये के मकान में व्यतीत हुआ। वह किराये के मकान में जन्में, पले बढ़े और पढ़े। पढ़-लिखकर रोते-धोते आदिवासी अंचल में नौकरी मिली, जहाँ कोई जाना नहीं चाहता था, वह गये, किराये के मकान में रहे और डरते-सहमते, पढ़ाते रहे। उनका डरना और सहमना गाँववालों को भा गया। वह मास्साब से मास्साबजी हो गये। वह बताते है... आदिवासी अंचल में बहुत जल्दी किसी शहरी व्यक्ति को स्वीकार नहीं किया जाता। समय साक्षी था... उनकी सादगी,सरलता और गरीबी का हर स्तर पर  शहरियों ने खुलकर शोषण किया। सूबेदार हो, पटवारी, मास्साब या वनोपज का व्यापारी या सरमायेदार... सब उनके लिए अविश्वसनीय हो चुके थे। नौकरी के आरम्भिक दिनों में  गाँववालों के असहयोग के चलते उन्हें बेहद परेशानी का सामना करना पडा। पर अपने व्यवहार, पेशे के प्रति ईमानदारी और सादगी के कारण, वह मास्साब से मास्साबजी हो गये... यह भाना इन्हीं अर्थों में था। किराये के मकान से ही उनकी  शादी हुई। किराये के मकान में ही उनकी सुहागरात हुई। उन्हीं की तरह उनके बच्चे भी किराये के मकान में जन्में और बड़े हुए। इसीलिए स्वाभाविक था ...सबका खेती करना। खेती मकान की, फ़सल निर्माण की और अभिलाषा अपनी ज़मीन पर चार दीवार और छत के नीच़े होने के स्वाभिमान की।

        बेटी ब्याहना  और मकान बनाना दोनों ही कार्य बराबर थे। दोनों में ही लगभग एक ही तरह से पैसा उँड़ेले जाते हैं। मास्साब के पास विकल्प नहीं था। उन्हें  सपनों को भी सींचना था और बेटी भी ब्याहना था। खुली ज़मीन और बड़ी उम्र की कुँवारी बेटी पर दस-दस नज़र होती हैं। ऊपर से किराये का मकान इन खतरों को और बढ़ा देता । इसके बावजूद परिवार का हर सदस्य मकान के लिए हर तरह की परेशानी और त्याग करने के लिये तैयार बैठा था। दस-पाँच रूपयों से जुड़कर पच्चीस वर्षों में पोस्ट आफ़िस में पच्चयासी हज़ार हुए थे। बीमा और बैंक से पच्चीस-तीस हजार मिल सकने की गुंजाइश थी और भविष्य निधि से 50 हजार तक उठा लेने की योनजा के साथ मास्साब अपने सपने का नक्शा बनवा लाये। 15-20 दिन की भाग दौड़ और जान-पहचान के कराण, कम औपचारिकता, कम चढ़ावे में नगरपालिका से नक्शा भी पास करवा लिया। नक्शा पास होते ही परिवार के सभी सदस्यों के सपने में एक ही आकार का मकान आता। मकान के सारे दरवाज़े और खिड़कियाँ एक ही दिशा में खुलते-बन्द होते। मास्साब अकसर अपने को मकान के सामने के कमरे में बैठे या लेटे हुए पाते। पत्नी बहुत कम समय के लिए रसोई से बाहर दिखती। रोड़ की तरफ़ खुलने वाली तीन खिड़कियाँ तीनों बेटी ने आपस में बाँट ली थी और बेटा अकसर घर की छत पर खड़ा दिखाई देता। सपनों की विविधता लगभग समाप्त हो चुकी थी। एक से सपने ने पूरे परिवार के सदस्यों की नींद में एक तम्बू लगा रखा था।

          सब खुश । सब उत्साहित थे। भूमिपूजन की शुभ घड़ी नज़दीक आती जा रही थी पर आयी नहीं। बुआ आ गयी पहले । मुहर्त के पहले बुआ के आने से सभी खुश हुए। बुआ आयी पर अकेली नहीं थी, उनके साथ एक रिश्ता आया , जो सबको असमंजस्य में डाल रहा था।

          ”भैया! वे लोग दान-दहेज कुछ नहीं माँगते। लड़का बड़ी उम्र का है। पहले अपनी दो बहनों की शादी निपटाने की व्यस्तता में शादी नहीं किया। सरकारी नौकर है। आराम है। फिर अपनी बेटी भी तो बड़ी उम्र की हैं। अच्छी जोड़ी रहेगी। उन्हें तो बस! अच्छे संस्कारों वाली लड़की चाहिए।“  बुआ ने अपनी बात कहकर एक दीर्ध साँस ली और मास्साब के चेहरे पर नज़र गढ़ा दी। मास्साब ने पत्नी की ओर देखा। पत्नी ने असमंजस्य से बड़ी बेटी की तरफ़। बेटी का चेहरा सोने की तरह दमक उठा। उसके चेहरे का रंग लगातार बदलते हुये और प्रखर होता जा रहा था।

         रंग न  निवेदन करते है न ही कुछ माँगते हैं। बस! आभास कराते हैं। पर उनकी बेटी के चेहरे के रंग प्रखर होते हुए भी विवश थे। वह चुपचाप उठकर बुआ के पास से अन्दर रसोई में चल दी। एक निस्तब्धता छा गई कमरे में, जहाँ सारा परिवार जुटा हुआ था। छोटी दो बहनों के चेहरे के रंग भी बन-बिगड़ रहे थे। उन्हें लगा यह अवसर माँ-पिता के पास बैठने का नहीं, बड़ी बहन के साथ होने का हैं। वह भी उठकर अन्दर रसोई में चल दी। मास्साब और उनकी पत्नी अवाक से बुआ की तरफ़ देख रहे थे।

         ”भैया! मामला चट मँगनी पट ब्याह का है। मैं तो चाहती हूँ तुम एक बार देख आओ। तुम्हें भी आश्वस्ति हो जायेगी।“
         ” हूँ।“  एक दीर्ध उसाँस के बाद उन्होंने कहा।
           पत्नी चुप थी।
         ”भाभी! अब बेटी जन्मी हो तो ब्याहना भी पड़ेगा न। फ़िर रिश्ते से रिश्ते जुड़ते हैं। इसके बाद दो लड़कियाँ और ब्याहना हैं। उनके बारे में भी तो सोचना हैं।“ बुआ ने कटाक्ष किया। पत्नी चुप रही। वर्षों पुराना विनम्रता का साथ उसने नहीं छोड़ा था।

          मास्साब को लगा... अपने बच्चों के मुख से पिताजी के स्थान पर मास्साब शब्द का सम्बोधन पाकर वह अपने पिता होने का मूल धर्म भूल रहें है। मकान के सामने वह अपनी बेटियों के प्रति दायित्व को कैसे विस्मृत कर गये। उन्हें आघात लगा।

         ”बहनजी! आप सही कह रही हैं। घर-परिवार आपका देखा हुआ हैं। आप उन्हें हमारी ओर से आमंत्रण दे दो।“ मास्साब असमंजस्य और दुविधा की स्थिति से बाहर आये। अपना निर्णय सुनाकर उन्हें लगा... वह ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये। पत्नी को लगा मास्साब ने उनके मन की बात कह दी। घर परिवार की खुशियों से बनता हैं। खुशियों को दफ़न कर दीवार पर छत डालने से मकान नहीं कैदखाने बनते हैं। वह फिर के सपने में शरीक हो गयी। सपनों में अभी भी मकान था पर पति का नहीं बेटी का।

         पैसा था ही। रिश्ता घर चलकर आया था। सम्बन्ध जुड़ गये। बीस-पच्चीस दिन की तैयारी में बड़ी बेटी किराये के मकान से विदा हो गयी। मास्साब के घर पहली खुशी का अवसर था। रिश्तेदार और मोहल्ले वालों ने बढ़-चढ़कर सहयोग किया। मास्साब ने खुले हाथ से खर्च किया। किराये के मकान का कोना-कोना खुशियों से झूम उठा और अपना एक मकान होने का सपना उनकी नींद से कोसों दूर खड़ा मुस्कुराता रहा।



बेटी विदा हो गई। रिश्तेदार जा चुके थे। घर में लम्बी यात्रा से थककर चूर बैठे यात्रियों की तरह सुस्ती और शान्ति पसरी हुई थी। एक तरफ़ खालीपन था तो दूसरी तरफ उत्सव उल्लास के रंग दीवार और आँगन में बिखरे पड़े थे।

मास्साब की पत्नी उनसे कह रही थी...
”देखो जी! अगले साल दोनों बेटी के हाथ पीले करना है। आप अच्छा सा कोई ग्राहक देखकर प्लाट निकाल दो। पैसा हाथ में होगा तो बल मिलेगा।“

मास्साब ने गर्व से पत्नी की तरफ़ देखा और आश्वस्त करने की मुद्रा में मुस्कुरा उठे। उसी समय किसी ने दरवाज़े  पर दस्तक दी। यह दस्तक उनके लिए जानी-पहचानी थी। मास्साब ने मुस्कुराते हुए दरवाज़े की कुंड़ी खोली। सामने मकान मालिक खड़ा था और किराये का एक महीना और पूरा हो चुका था।
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(कहानी लेखन तारीख-जून2006)
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(समाकालीन भारतीय साहित्य से साभार)
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प्रस्तुत  चित्र :- प्रवेश सोनी

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