Friday, November 16, 2018

पड़ताल 

"तुम्हारे जाने के बाद " कविता संग्रह ,लेखक मधु सक्सेना 




अनुभूतियों का संयोजन


मधु सक्सेना जी का काव्य-संग्रह "तुम्हारे जाने के बाद" बोधि प्रकाशन से जनवरी 2018 में आया है। एक ही भाव भूमि पर रचित 47 कविताएँ मानों माला के मनके हों।
संग्रह के शुरुआत में अहमद फ़राज़ साहब का एक शेर है पोस्टर में

"याद आया था बिछड़ना तेरा
फिर नहीं याद कि क्या याद आया"

यादें ही हैं जो इंसान को कभी तन्हा नहीं छोड़ती। यादों के भिन्न-भिन्न मरहलों से गुज़रती मधु जी की कविता जीवन से जुड़ी है। जीवन के कई रंग हैं जिनमें कुछ चटक तो कुछ धूसर भी हैं। इन्हीं धूसर रंगों के दिनों में चटक रंगों के दिनों की स्मृतियाँ एक नदी की भाँती बहती रहती हैं। यादों के पंछी कभी भी कहीं भी पर फड़फड़ा जाते हैं। प्रिय का अचानक बिछड़ना जीवन की गति रोक जाता है। अचानक हुए वज्रपात से सहज जीवन कहीं खो जाता है। मन यह मानने को तैयार नहीं कि प्रिय अब इस दुनिया में नहीं है

"दुविधा में हूँ
तुम हो या नहीं...?
सब एक बात नहीं कहते
बदलते रहते अपनी बात
सच बताओ...
तुम हो या नहीं?"

इन कविताओं में हृदय से उठी हुई टीस है। हार्दिक अनुभूतियों की मार्मिक व्यंजना है। अचानक आये परिवर्तन को जज़्ब कर पाना कई बार आसान नहीं होता। किसी एक के मिलने से जीवन में आया उत्साह दुनिया में जीवन जहाँ आसान बना देता है वहीं किसी एक का बिछड़ना कितना अकेला कर जाता है कि सब कुछ वीरान हो जाता है। एक-एक साँस स्मृतियाँ ओढ़े भारी हुई जाती है। वही यादें जो जीने का सहारा भी हैं, वही बार -बार आँखों से नमक बन बहती हैं। स्त्री जब किसी से प्रेम करती है तो वह अपने जीवन में अपने लिए कुछ बचाकर नहीं रखती, सब कुछ प्रिय को समर्पित कर देती है। वही ब्याहता स्त्री जब वैधव्य से गुज़रती है तो सामाजिक रस्मों-रिवाजों का पालन करते हुए कितना टूटती है, सब कुछ सहती है, उसकी पीड़ा का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। इस बिछोह में सध-जात प्रेम नहीं बल्कि एक उम्र साथ जीया हुआ प्रेम है। जीवन के उतार-चढ़ाव, हँसी-खुशी के साथ जीये हुए पल हैं। वही अब जीने का संबल हैं। यहाँ जज़्बातों का भँवर है जिससे गुज़रना मन को  गीला करना है। कविताएँ बार - बार भीगोती हैं, रुलाई कई बार गले तक आ रुँध जाती है। एक बगुला मन के मरुथल में उठता है और सब कुछ साथ लिए उड़ने लगता है। अनन्त बिछोह के बाद भी धैर्य की छड़ी थाम आगे बढ़ते रहना ही एकमात्र रास्ता है। इसी धैर्य का कभी -कभी चुक जाना प्रिय को उपालम्भ देता है।

"जब चले ही गए थे
तो चले ही जाना था ना
क्यों रह गए...
घर के कोने कोने में
पलंग पर, तकिए पर
किताबों में, कपड़ों में
और अपने रेकैट में
शॉट लगाते हुए..
क्यों रह गए...
कॉलर पलटी शर्ट में
चश्में के फ़्रेम में
धूसर जूतों में
और अंगूठे से फटे जुराबों में."

किसी के घर से जाने के बाद उससे जुड़ी तमाम चीज़ें उसका होना याद दिलाती हैं या शायद उसका न होना याद दिलाती हैं। जाने वाले की उपस्थिति अनवरत बनी रहती है, वह दृश्य न होकर अदृश्य रहती है, केवल महसूस की जा सकती है। मधु जी की हर कविता में वह उपस्थिति दर्ज है।

"वो रुमाल आज भी गीले क्यों हैं?
बहुत धूप दिखाई
पर सूखे ही नहीं आज तक
तुम्हारे जाने के बाद..."

खालीपन से उपजा दर्द जब शब्द बन बहता है कुछ यूँ होती है कविता

"ओह, कहाँ से आया
ये राख का अंधड़
सब कुछ राख राख
पर, तुम्हारी राख को तो
मैंने छुआ भी नहीं
मुझे दिखाया भी नहीं..."

जीवन और मृत्यु का दर्शन यहाँ महज़ दर्शन के रूप में नहीं आया। इसमें जीवन की अनुभूति भी है।

"ज़िंदगी भी ऐसी ही है
रिश्ते, प्रेम, स्नेह और परवाह
की सींकों से जुड़ी...

और मृत्यु...?
एक एक सिंक निकली
और सब अलग...
पर क्या अलग हो पाए?"

मृत्यु के बाद हो रहे आडम्बरों पर प्रश्नाकुल मन की व्यग्रता कितनी सही है
"जब ये संस्कार, रीति रिवाज़
और कर्म काण्ड दोहराये जा सकते हैं...
तो, जीवन क्यों नहीं?
एक बार जाने के बाद इंसान
दोबारा क्यों नहीं आता...
वहाँ दोहराव क्यों नहीं?"

जब मन ही कुछ मानने में अक्षम हो तब प्रवचन उपदेश सब निरर्थक हैं।
"कितने प्रश्न उग आते हैं मन में
क्या ये गीता धो पौंछ कर
मिटा सकेगी उन शब्दों को
जो चिपके पड़े हैं
मेरे तन, मन और आत्मा से..."

मधु जी की कविता समाज से सार्थक सवाल करती है। अपनी बिखरी शक्ति को बटोर फिर से जीवन की रवानी में शामिल होने की कोशिश व ख़ुद को हौसला देना इन कविताओं का सकारात्मक पक्ष है।

"यह सुनती हूँ बार-बार कि
अब इस उम्र में क्या करोगी?
समझ नहीं आता
साठ के बाद क्या करने को कुछ नहीं होता?"

शुरू से अंत तक यादों के बियाबान से गुज़रती बहती कविताएँ निःसन्देह हाथ पकड़ अपने साथ बहा ले जाती हैं। इनकी संवेदना देर तक अपने डुबोये रखती है। सहज सरल भाषा व अनावश्यक बिम्बों की उलझाहट से दूर कविताओं के लिए कवयित्री को सार्थक लेखन की बधाई।

-अनिता मंडा
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अनीता  मंडा




कविता का नीड़: तुम्हारे जाने के बाद
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रचना समय के  कविता विशेषांक में मदन कश्यप और मैनेजर पांडेय की बात चीत में बहुत अच्छी बात सामने आती है ।जब मैनेजर पांडेय कहते हैं कविता की संगीतात्मकता तीन स्तरों पर होती है भाषा, विचार और रचाव ,इसके बगैर कविता संभव नहीं

दरअसल जो कवि एक ही तरह के काव्य घटाटोप में रमे हुए हैं उन्हें पाठकों की मनोदशा और आवश्यकता का ख्याल तो रहता ही नहीं, साथ में उन्हें इस बात का भी बोध नहीं रहता कि उनके भीतर कौन सी कविता निरंतर अपने विचार और और रचाव के साथ बन रही है। ऐसा कुछ रचने के बजाय वे एक दबाव में ऐसी कविताएं लिखते रहते हैं जैसी   स्पर्धा में शामिल होने के लिए औपचारिक रूप से ज़रूरी सी लगती है।  हमारे हिंदी के संसार में ऐसे भी कवि हैं जो अपने अंदर चल रहे विचारों को कविता की शक्ल देने में कोई परहेज़ नहीं करते, उनके नाम भी  बहुतेरे लोग लेना पसंद नहीं करते, लेकिन उनके  पाठक कविता को पढ़कर द्रवित होते हैं। यही उनकी कामना भी होती है। यही उनके इनाम -इकराम होते हैं।

इनमें से एक कवियत्री हैं श्रीमती मधु सक्सेना। उनकी कविताओं में मुझे पर्याप्त मार्मिकता ,भावुकता विचार ,संगीतात्मकता और लयात्मकता और आत्म स्थिति दिखाई देती है।

मुस्कुराहटों के खाली डिब्बों में भरकर रख ली हैं स्मृतियां
ठूंस ठूंस कर भरने पर भी बिखरती रहीं स्मृतियां
और बिखराती रहे मुझे

तुम्हारे जाने के बाद

ऐसी ही कविताओं से भरा हुआ उनका एक संग्रह आया है जिसका नाम है तुम्हारे जाने के बाद। चर्चित प्रकाशक बोधि प्रकाशन ने इसे पेपर बैक में छापा है और आकर्षक कवर के साथ यह बहुत सुंदर लग रहा है। उपहार जैसी यह किताब एक ही बिछड़े शख्स की यादों का गुलदान है।
वैसे भी कविता का संचारी भाव वियोग होता है और उसे समान अनुभव कराने में कर्त्तव्य पालन सा सुख मिलता है। मधु सक्सेना के ये एकालाप ऐसे ही हैं।
ख़ास बात यह है कि इनमें नयापन भी है। भूमिका भी दिग्गज लेखकों
की नहीं है।उन सखियों की (प्रवेश सोनी और वर्षा रावल)हैं ,जिन्होंने कविता की दुनिया में लगातार अपने हिस्से का विनम्र योगदान दिया है।
किसी कवि का कविता संग्रह आ जाना , पक्षी का नीड़ बन जाने की तरह होता है। जिसमें कवि के विचार रैन बसेरा भी करते हैं और बाहर उड़ते भी हैं। आशा है कि यह संग्रह मन -मन को सहलाने के लिए क‌ई घरों तक पहुंचेगा।

ब्रज श्रीवास्तव
ब्रज श्रीवास्तव 




'तुम्हारे जाने के बाद' 
द्वारा   --    मधु सक्सेना

 मधु सक्सेना जी का काव्यसंग्रह 'तुम्हारे जाने के बाद'  पढ़ा जिसमे  शीर्षक को सार्थक करती रचनाएं  किसी सम्मान , पहचान की महात्वाकांक्षा के वगैर केवल अभिव्यक्त होना चाहती है | ये संग्रह अनूठी यादों का सफर है जिसमे भीगे मन से जीवन साथी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके ह्रदय की पीड़ा ने इस काव्य संग्रह को जन्म दिया जहां कोई  चमत्कारिक काव्य शिल्प , कल्पना की ऊंची उड़ाने व जटिल शब्दावली ना हो कर सहज , प्रवाहमयी और संवेदनाओं को गहराई तक स्पर्श करने की क्षमता  रखने वाली कवितायें है
सीने  के दर्द के बाद दूर होती जिंदगी से पढ़ते हुए अंतिम पृष्ठ  समय के बदलाव तक पहुँचते पहुँचते कितनी ही बार अक्षर  धुंधले से  हुए, फिर एक गिलास पानी पीकर हर पंक्ति में रचे इस दर्द को बर्दाश्त करने की कोशिश के साथ ही पुस्तक पूरी पढ़ सकी |

छोटे छोटे शब्दों के प्रयोग करके इतनी व्यावहारिकता  से वो अपना अहसास बयान कर गई की हतप्रभ हूँ
'वसीयतनामा, शपथ पत्र ,सब हैं ना ?
कैसे हुई मृत्यु ?
सवाल मुझसे किया गया 
जी...जी ..वो ..
आँख के साथ जुबान ने भी काम करना बंद  कर दिया था 
'हार्ट अटेक 'पीछे से आवाज आई 
और मैं उबर गई '
कितनी पीड़ा देता है दोबारा होंठों से  निका लना और तब 'उबर गई 'का इस्तेमाल उफ़ !

रूढ़िवादी रस्मो रिवाज के प्रति आक्रोश उनके कृतित्व के साथ व्यक्तित्व में भी मैंने हमेशा देखा है वे लिखतीं हैं
रोली ,अक्षत ,काले तिल कपडे बिस्तर छाता , चप्पल और जाने क्या क्या
 'मुझे भी करना है '
नहीं सब पुत्र करेंगे 
'नहीं यह तुम्हारा अधिकार नहीं '
'जिंदगी में तुम्हारा अधिकार था मौत पर नहीं '
ये सब कहा था मुझसे रस्मों ने ,समाज ने ' |

 वर्ष बीतने के बाद फिर एक प्रश्न -जब ये संस्कार ,कर्म काण्ड दोहराये जा सकते है तो जीवन क्यों नहीं ?
गंभीर घटना क्रम लिखते हुए अचानक अंत में  अचंभित हो  जाता है पाठक जैसे
'मैंने फूलों को आँखों से लगाया और उछाल दिए तस्वीर  पर ' 
'
ये क्या मेरे सूखे फूल'
 'तब याद आया सारी नमी तो आँखों ने ले ली '

गज़ब की गहनता वाह |
इसी तरह एक सींक में बंधे पत्तल दोना से जिंदगी को देखने का नज़रिया हतप्रभ करता है
मधु जी को बहुत करीब से देखा  और जाना है उस हिसाब से वे बेहद स्पष्टवादी और बिना लागलपेट के बेहिचक बल्कि मज़ाकिया अंदाज़ में अपनी बात कहने की आदी हैं और उनका यही स्वभाव उनकी रचनाओं में भी इतने दर्द के बावजूद यत्र तत्र दिख जाता है जैसे

 'बालों में चाँद और चांदनी दोनों शबाब पर है ऑपरेशन के बाद भी घुटनो के नखरे कम नहीं हुए' | 

अक्सर ऐसा ही माना गया की यादें ही जीने का आधार होती हैं मगर इस संग्रह के  हर शब्द , हर  पंक्ति में बस  यही लगा कि वे यादों से उबरना चाहती हैं

'ले ले कोई इन यादों का दान ,बिखरी तो पडी हैं '
और एक जगह लिखती हैं 
'चले ही गए तो चले जाना था
 'हाथ की लकीरों से , 
मेरी सोच से ,स्मृतियों से, मेरे दायरे से '

शायद  यादें अधिक पीड़ादायक हो गई और अब बर्दाश्त नहीं होतीं ,और सहसा कह उठती हैं
'कोई ऐसा तीर्थ हो जहां अर्पण कर दूँ यादें' यहां उनकी छटपटाहट साफ़ नज़र आती है |
 काव्यसंग्रह की समीक्षा के काबिल नहीं हूँ मैं ,बस  कवितायें पढ़ कर  अपनी प्रतिक्रिया सौंप रहीं हूँ | अपनी और से  चार पंक्तियाँ देना चाहूँगी

        'टीस वेदना पीड़ाएँ सब
         दिल में छुपी घटाएं बनकर  
         नयनों की राह मिली ना तो 
         बरसी वे कवितायें बनकर '

अंत में बस इतना ही कहूंगी कि अब आगे  जीवन के ढेरों कटु अनुभवों का अस्तित्व समेटे हुए, जटिल जीवन पहेली सुलझाती हुई,निष्कपट भाव से , नए  स्वाद और अंदाज़ लिए हुए, सतत चलती रहे मधुजी की  कलम |
 और हमारी दोस्ती उन्हें जीने का सम्बल देने का प्रयास करती रहेगी | ढेर सारी शुभकामनाएं सखी |


 नीता श्रीवास्तव , रायपुर

नीता श्रीवास्तव 


समीक्षा - निरुपमा शर्मा 

मधु जी हिंदी की जानी मानी कवयित्री हैं ।उनका दूसरा काव्य संग्रह 'तुम्हारे जाने के बाद' पिय से बिछुड़ने की पीड़ा और उनके साथ बिताए क्षणों का शिलालेख है ,उनके न रहने के बाद का इतिहास है जो अमिट है । इन कविताओं में प्रतीक और बिम्बों का समावेश सायास नही अनायास ही हुआ है जो भावावेश की अनुगामिनी है ।

प्रेम, बिछोह ,अंतर्द्वंद ,करुणा ,व्याकुलता जैसे भावों की भाषा अनुगामिनी होकर उनकी कविताओं में प्रयुक्त हुई हैं ।
कवितायें अतुकांत है ,मुक्तक भावों से ओतप्रोत है पर आश्चर्य है कि एक पदबन्ध से जुड़ी है --'तुम्हारे जाने के बाद ।

यह हर किसी के वश की बात नही है ।भावों का ऐसा विस्तारित वर्णन अंत मे कुछ शब्दों में सिमट कर कविता के कथ्य को पूर्ण करती है ----'तुम्हारे जाने के बाद' ।

संग्रह में 47 कवितायें है ।हर कविता प्रेम के प्रसंग ,पति के साथ बिताए क्षणों और तमाम सूक्ष्म स्थूल भावों को इन शब्दों के साथ जोड़ती है --- 'तुम्हारे जाने के बाद '।

संसार में ईश्वर ने स्त्री पुरुष को एक दूसरे का पूरक बनाया है ।जीवन के तमाम उत्तर- चढ़ाव , पारिवारिक ,सामाजिक दायित्वों का बोझ ,उहापोहजनक परिस्थितियां दौनो मिलकर झेलते है ,समाधान करते है .....पर नियति को कौन जीत सकता है ?विडंबना है विधि के विधान का, कि सबका साथ ,सबको सब समय बराबर नही मिलता। इसका भागी संसार मे कोई भी स्त्री या पुरुष हो सकता है ।मधु जी के साथ भी यही हुआ ।

'तुम्हारे जाने के बाद ' संग्रह में मधु जी ने पति के हार्ट अटैक के समय से उस प्रसंग के कशमकश से लेकर उनके उपचार ,स्वर्गारोहण ,मृत्योपरांत औपचारिकताएं ,समाज परिवार की मान्यताएं ,बड़ों के दिशानिर्देश ,धर्मानुगमन की शिक्षा,,उनकी प्रत्येक सूक्ष्म- स्थूल वस्तुओं के जुड़ी स्मृतियां ,अपने को सम्हालने का भगीरथ प्रयास ,हृदय की पीड़ा,आर्तनाद और आज तक एक- एक पल को नही भूल पाने की व्यथा कथा को अपने शब्दों में बांधकर कविताओं में उंडेल दिया है ।अद्भुत है कल्पनाशीलता ।

क्रोंच वध ने जिस तरह बाल्मीकि को रामायण लिखने की प्रेरणा दी उसी तरह मधु जी के प्रिय वियोग ने लिखने की प्रेरणा दी--- 'तुम्हारे जाने के बाद '। ये इतिहास कौन लिख पाता है भला ....।

मधु जी की यह कृति काव्य साहित्य में अनूठा प्रयोग है जो प्रेम के संयोग- वियोग के प्रसंग यज्ञ की पूर्णाहुति हुई है ----' तुम्हारे जाने के बाद '।


-- श्रीमती निरुपमा शर्मा 

रायपुर ( छत्तीसगढ़ )


मधु सक्सेना 



परिचय 
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श्रीमती मधु सक्सेना 
जन्म- खांचरोद जिला उज्जैन (म.प्र.)
कला , विधि और पत्रकारिता में स्नातक ।
हिंदी साहित्य में विशारद ।

प्रकाशन (1) मन माटी के अंकुर (2) तुम्हारे जाने के बाद - काव्य सन्ग्रह प्रकाशित 
आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण 
मंचो पर काव्य पाठ ,कई साझा सग्रह में कविताएँ ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन ।सरगुजा और बस्तर में साहित्य समितियों की स्थापना । हिंदी कार्यक्रमों में कई देशों की यात्रायें ।
सम्मान..(1).नव लेखन ..(2)..शब्द माधुरी (3).रंजन कलश शिव सम्मान (4) सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान ।
पता .. सचिन सक्सेना 
H -3 ,व्ही आई पी सिटी 
उरकुरा रोड ,सड्डू 
रायपुर (छत्तीसगढ़ )
पिन -492-007 
मेल - saxenamadhu24@gmail. Com

फोन .9516089571

Thursday, November 15, 2018

उपन्यासनामा: भाग नौ 

चित्तकोबरा
एक अनोखी प्रेम कथा



मृदुला गर्ग 



“प्रेम को परिभाषित करना असंभव है और प्रेम का उम्र से कोई संबंध नहीं है।”

यह एक लगभग सटीक व्याख्या हो सकती है चित्तकोबरा उपन्यास की। यही वह उपन्यास है जिसके कारण मृदुला जी को कोर्ट में भी खड़ा होना पड़ा था। नैतिकता के पंडितों ने इसे विवादित बना दिया। खैर इस विवाद से आज कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि नैतिकता की सीमाएं इस उपन्यास के विवादित बिंदुओं से मीलों आगे आ चुकी है।

 कोई भी उपन्यास नैतिकता और अनैतिकता के सवाल से नहीं समझा जा सकता है। मृदुला जी की मानवीय संवेदना के उस आयाम तक पहुंचना जहां खड़े होकर वे मानवीय संबंधों को महसूस कर रहीं थीं, एक विशिष्ट दृष्टि के लिए ही संभव है। समाज का जो मानसिक अनुकूलन नैतिकता और अनैतिकता की सीमाओं में किया गया है उसे तोड़े बिना चित्तकोबरा को समझना असंभव है।

 स्त्री पुरुष का संबंध तमाम तरह की सामाजिक और परिवेशगत लक्ष्मण रेखाओं से परे होता है परंतु सामान्यतया वह इस रेखा के दरम्यान ही अभिव्यक्ति पाता है। यह जो विसंगति है यह प्रेम की वस्तुगत संवेदना को भौंथरा करती है, कुछ लोग हैं जो अपनी अनुभूति को भौंथरा बनने देने से इंकार कर देते हैं, मनु जो इस उपन्यास की नायिका है, वह इसी तरह की स्त्री है और तमाम सीमाओं के बीच अपने वास्तविक
प्रेम को जीने का स्पेस वह निकाल लेती है और इस स्पेस को उम्र के उस पड़ाव तक ले जाना चाहती है जब देह को प्रेम के परे मान लिया जाता है।




 मृदुला गर्ग का मानना है कि ‘‘जीवन को उसके समग्र और उदात्त रूप में जानने-पहचानने के लिए प्रेम से अधिक उपयुक्त माध्यम नहीं मिल सकता। जो लोग प्रेम के कथ्य को मात्र स्त्री पुरुष संबंध तक सीमित कर लेते हैं, वे साहित्य के प्रति और जीवन के प्रति भी अन्याय करते हैं या शायद अन्याय वे सिर्फ अपने प्रति करते हैं, जीवन की उस उदात्त धारा से अपने को काट जो लेते हैं, जो मनुष्य को उसके आदर्श रूप में उद्घाटित कर सकती है। प्रेम स्त्री पुरुष के बीच ही होता है पर मात्र उनके आपसी संबंधों की खोज प्रेम का कथ्य नहीं है। कम से कम मेरे लिए नहीं है; इस उपन्यास - चित्तकोबरा - में तो बिल्कुल नहीं। प्रेम के चैतन्य मनः समागम के अनुभव से गुजरते हुए दोनों पात्रों का जो आत्मोत्सर्ग होता है, उनके भाव-बोध में जो सूक्ष्मता, व्यापकता और गहनता आती है, उनकी संवेदनशक्ति जिस प्रकार प्रगाढ़ होती है, अपने चारों तरफ के घटित से जिस प्रकार वे एक दूसरे के माध्यम से पहले से अधिक घनिष्ठ तारतम्य स्थापित करता है, वही प्रेम का कथ्य है।’’1

चित्तकोबरा की मूल कथा एकदम अमूर्त है। इसके कथ्य को हमें संकेतों, और संवादों से ही समझना होता है। इसकी कथा में कुल जमा तीन पात्र हैं - मनु, रिचर्ड और महेश। इसके अतिरिक्त जैनी रिचर्ड की पत्नी, उसके तीन बच्चे, मनु और महेश के दो बच्चे, नाटक मंडली के कुछ सदस्यों का संकेत, मनु के परिवार के कुछ सदस्यों का खाने पर आने का संकेत और इसी तरह के कुछ अन्य इंसानों के होने का संकेत मिलता है।
इसमें मदर टेरेसा हैं, गाँधी हैं, मार्क्स हैं, जीसस हैं। ये सब हैं, परन्तु इनका होना सिर्फ मनु और रिचर्ड के होने से ही है। भौतिक रूप से जीवन्त पात्र इन दो के अलावा सिर्फ महेश है। इस उपन्यास में मनु का नाम लगभग 28 पेज पढ़ने के बाद आता है और रिचर्ड का नाम 74 पेज पढ़ने पर। जबकि ये सारे पेज सिर्फ दोनों के बीच घटित संवाद और घटनाओं से ही रंगे हैं। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि रिचर्ड और मनु के बीच का संबंध ‘स्त्री’  ‘पुरुष’ के बीच का संबंध है जिसमें दोनों की सत्तायें एक दूसरे से इतनी अभिन्न हैं कि उन्हें ‘नाम’ की आवश्यकता नहीं है।

मनु की पहचान ‘मनु’ के ‘होने से’ है, मनु नाम से नहीं, उसके लिए रिचर्ड का ‘होना’ उसके होने को महसूसना जितना मायने रखता है उतना उसका नाम नहीं। नाम की सार्थकता तब महसूस होती है जब वे एक दूसरे के करीब नहीं होते, तो नाम से ही एक दूसरे के होने को महसूस करते हैं।

चित्तकोबरा एक अनूठी और बेमिसाल प्रेम कहानी है। शायद हिन्दी साहित्य में तो दूसरी न लिखी गई और न आगे संभव दिखाई देती है। प्रेम दो प्राणियों के बीच ही होता है और वे प्राणी दैहिक भी होते हैं। देह के बिना चेतना का विकास संभव नहीं। प्रेम एक सशरीरी चैतन्य प्राणी का चेतना युक्त दैहिक अनुभव है।

लेकिन यहाँ मानसिक अनुभव और संवेदनाजन्य अनुभव अधिक महत्वपूर्ण है, शरीर के संबंध उतने महत्वपूर्ण नहीं है। मनु का रिचर्ड के साथ ‘रहना’ बिना सामाजिक कुंठाओं के, बिना सामाजिक लांछनों के ज्यादा महत्वपूर्ण हैं न कि उसके साथ संभोग जन्य क्षण बिताना। वह बार-बार यह कहती है कि हम तीस वर्ष बाद मिलेंगे। साठ वर्ष की उम्र में ताकि कोई शंका न करे। हम निर्द्वन्द्व भाव से जैस चाहें वैसे रह सकें। यह समयातीत, शरीरातीत प्रेम की अनुभूति इस उपन्यास का कथ्य है।

‘मनु’ इस उपन्यास की नायिका है, मनु ही कथा वाचिका है। मनु के अनुभव और रिचर्ड के प्रति उसका अशरीर, अकुंठ प्रेम ही इस कथा को एक उच्चकोटी की प्रेम कथा बनाता है। प्रेम कैसे एक स्त्री को मुक्त करता है, उसे कैसे शरीर से ऊपर उठाता है, कैसे एक समयातीत अनुभव मे जीवन के सूत्रों का पकड़ने देता है। मनु के अन्दर कोई कुंठा, अवसाद, अपराधबोध, अनैतिकता का अनुभव नहीं है। वह रिचर्ड के प्रति अपने व्यक्तित्व को, चेतना को पूर्णतः समर्पित करती है उसके शरीर से आकर्षित होकर नहीं, उसके विश्वव्यापी मानवता को समर्पित व्यक्तित्व से आकर्षित होकर करती है। रिचर्ड का पूरा जीवन विश्व मानवता को समर्पित है। वह निहायत ही संवेदनशील व्यक्ति है, अपने संबंधों के प्रति ईमानदार।





मनु महेश के साथ सिर्फ शरीर बन जाती है, महेश के साथ सोने में, पार्टी में जाने में, खुद को सजाने में सिर्फ शरीर बन जाती है। विवाह एक शारीरिक कांटेक्ट है, प्रेम मानसिक, स्वयं के द्वारा निर्णीत, चुना गया चैतन्य विकल्प है। थोपा गया संबंध नहीं, कोई बाध्यता नहीं, कोई व्यवस्था नहीं, कोई नियम नहीं, स्वयं द्वारा अनुशासित, आत्मोत्सर्ग और सौन्दर्य के नए प्रतिमान रचता विकल्प है। उम्र, स्थान, शरीर और समय से परे का संबंध है मनु और रिचर्ड का प्रेम। मनु को इंतजार है उसके होने का, अस्तित्व का, मिलने का, समाचार का। इस पूरी प्रक्रिया में उसे रिचर्ड के साथ बिताए शारीरिक संभोग के क्षणों का इंतजार नहीं रहता।

मृत्यबोध, समय का बीतना, वर्षों का क्षणों में समाप्त होने की विकलता, साठ वर्ष का होकर एक साथ रहने की विकलता उसे तीस वर्ष कुछ पल की तरह महसूस कराते हैं।

‘‘बस तीस साल और फिर मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’
‘‘बस तीस साल?’’
‘‘बस।’’
तीस साल का क्या है। कुछ महीने ही तो होंगे।’’
‘‘हां। या कुछ हफ्ते।’’
‘‘हफ्तों में कुछ दिन।’’
‘‘या घंटे।’’
‘‘घंटों के मिनट।’’
‘‘या सैकिंड।’’
‘‘देखते -देखते कट जायेंगे।’’
‘‘हां, हर पल में कहूँगी.....रिचर्ड-रिचर्ड-रिचर्ड....एक पल में तीन बार और पल बीत जायेगा।’’ 2

यह संवाद प्रेम को सिर्फ संभोग तो बिल्कुल नहीं रहने देता। यद्यपि यह सच है कि बिना शरीर के प्रेम नहीं होता। प्रेम हवा में नहीं पनपता। उसका आश्रय और मूर्त रूप शारीरिक संबंध ही है। लेकिन महेश के साथ बिताए गए संभोग क्षण और रिचर्ड के साथ बिताये क्षणों के बीच जो मनु की अनुभूति है वह प्रेम और विवाह को बिल्कुल अलग-अलग कर देती है, यद्यपि दोनों में शारीरिक संबंध है। रिचर्ड का मनु के स्तनों को स्पर्श करना और महेश का उसके स्तनों के साथ खेलने के बीच मनु क्या सोचती है? कैसे स्वयं को अनुभव करती है? कैसे अपनी पहचान और व्यक्तित्व को पेश करती है? यह बहुत महत्वपूर्ण है। वह रिचर्ड के साथ अपने होने को महसूस करती है और महेश के साथ सिर्फ शरीर का होना। यह जो अनुभूति है यही इस उपन्यास का कथ्य है। प्रेम इंसान के साथ उसकी इंसानियत के कारण होना चाहिए न कि उसके फिगर के साथ।

‘‘और लोगों का ख्याल है कि साठ-पैंसठ साल की उम्र में इंसान इंसान नहीं रहता।’’
‘‘वे कुछ नहीं जानते। कुछ भी नहीं।’’
‘‘बूढा  सिर्फ शरीर होता है, मन नहीं।’’
‘‘और उसे पाने के लिए तीस साल का इंतजार कुछ भी नहीं है।’’
‘‘बस चंद महीने।’’
...............................
तीस साल तक हम नहीं मिले तो वे निरापद हो जायेंगे। सोचेंगे अब डर नहीं रहा।’’3

 ठीक यही अनुभूति स्थान की दूरी के संबंध में है -
‘‘कम-अज-कम दस हजार मील दूर।’’
‘‘सिर्फ दस हजार मील। क्या है....बस कुछ मीलों का जोड़।’’
‘‘हां बस...कुछ मील....’’
‘‘या फलांग.....’’
’’बस चंद कदम।’’






यह स्थान और समय की दूरी को महसूस न करने की चेतना प्रेम को बिल्कुल नया आयाम दे देती है। अभी तक हम पढ़ते आ रहे थे ‘‘हार पहार से लागत हैं’’ या एक क्षण की दूरी जन्मों की दूरी लगती थी प्रेमियों के लिए। वृन्दावन से मथुरा की दूरी भी नहीं पाटी जाती थी। प्रेम अपने सम्पूर्ण मानवीय संदर्भों में यहाँ विद्यमान है। काल और स्थान, समय और स्पेस के बीच की यह आवाजाही चित्तकोबरा को बिल्कुल अलग आयाम प्रदान करती है।

चित्तकोबरा अपने लक्ष्य में एकदम स्पष्ट है पति-पत्नी का संबंध सिर्फ दैहिक संबंध है पर वह जायज इसलिए है कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है…..पर उस देह के साथ जो चेतना है उसका क्या? उसे क्या चाहिए? इस प्रश्न का कोई जबाव इन परंपरागत संबंधों के पास नहीं है। चित्तकोबरा इस प्रश्न का समाधान है। जीवन जीने का एक अलग दृष्टिकोण है। जीवन की दैहिक और चेतनागत के बीच की खाई को पाटने का एक रास्ता है।
मनु और रिचर्ड के बीच मानवीय संवेदनाओं की वास्तविक समझ के कारण चेतनागत संबंध बनता है। चूंकि चेतना कोई वायवीय चीज नहीं है वह एक ठोस भौतिक यथार्थ है इसलिए दैहिक नजदीकी पाने की ललक और साथ बिताए गये क्षणों में सेक्स का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। देह के संवेदनशील स्थलों के स्पर्श के साथ जो अनुभूति गत अंतर महेश और रिचर्ड के बीच मनु अनुभव करती है उसके फर्क को नैतिकता की परिभाषाओं से नहीं समझा जा सकता। इस फर्क को न समझने के कारण है उपन्यास पर अनैतिकता के आरोप लगाये गये थे।
  मनु रिचर्ड के बीच जो रिलेशन है वह सामाजिक-पारिवारिक परिभाषाओं और सीमाओं से परे है। दरअसल यह उपन्यास जीवन और स्त्री-पुरुष के बने हुए सांचों को तहस-नहस करता है और संबंधों की अनपरखी संभावनाओं को प्रकट करता है। हमारी सोच की सीमाएं जो सामाजिक नैतिकता से बंध गई है और थोड़ी बहुत छूट के साथ उस डोर से बंधे रहने में ही सार्थकता पाती है, उससे बहुत आगे की और गुणात्मक रूप से भिन्न संबंधों को रेखांकित किया गया है।

मनु का जो एटीट्यूड है वह स्वच्छंदतावादी या अनैतिकता को मूल्य की तरह जीने का नहीं है। सच्चाई यह है कि उसकी अनुभूति और प्रेम को जीने की उत्कट भावोच्छलता में नैतिकता अनैतिकता की परिभाषा का कोई भी तत्त्व नहीं है। वह इन से परे है। उसमें विद्रोह नहीं है। न वह पारिवारिक नैतिकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए झंडा लेकर नारे लगाती है। वह महेश के साथ एक पत्नी की तरह रहती है चूंकि महेश एक पुरुष देह बनकर उसके पास आता है तो वह भी स्त्री देह मात्र बनकर उसे मिलती है। इसमें महेश को विलेन नहीं बनाया है। बस देह को स्पर्श करने के पीछे की फीलिंग को अलग दिखाया है यह फीलिंग जिसमें रिचर्ड की मानवतावादी जीवन दृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका है।

मनु के जीवन में महेश और रिचर्ड एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं वह दोनों को अलग तरह से जीती है। महेश अपनी परंपरागत पति की भूमिका में हैं उसके लिए मनु एक पत्नी है उसकी दैहिक और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने का औजार। एक व्यक्ति इस खांचे से बाहर भी जीने की ख्वाहिश रखती सकता है, उस ख्वाहिश को मनु का जीवन अभिव्यक्ति देता है।
     चित्तकोबरा एक अलग स्पेस मुहैया कराता है जीने का। खांचाबद्ध जीवन से परे एक अद्भुत बेमिसाल जीवन। इसे इसी तरह जीने के लिए एक स्वतंत्र सोच और साथी की जरूरत होती है ।



डॉ संजीव जैन 


 संदर्भ
1. चित्तकोबरा मृदुला गर्ग की भूमिका से उद्धरित
2. वही पृष्ठ 93
3. वही पृ. 97
                             

डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गुलाबगंज 
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल, म.प्र.
मो. 09826458553
सुदर्शन शर्मा की कविताएँ









”पीठ पर पहाड़”
 पीठ पर पहाड़ ढोते आदमीकी उपमा पढ़ कर
छुटपन से ही
मुझे हमेशा याद आयी
पिता की तनी हुई रीढ़

पिता की पीठ पर
ज्येष्ठ पुत्र होने के सम्मान में
अपने पिता से विरासत में मिला पहाड़ था

अपने पिता के जाने के  बाद
पिता ,पिता हो गये थे
जवानी की दहलीज़ के दोनों ओर खड़े छोटे बहन भाइयों के
पिता के काम पर से लौटने के समय
एक अघोषित व्यवस्था उतर आती थी
आंगन में

छोटा किताबों के संग
और बड़ा चारे की मशीन के हत्थे से जूझता मिलता
बहन पीतल की लिश्कती थाली दो बार पोंछती
अपने दुपट्टे से
और मां
घी से तर बूरा की कटोरी रखती
थाली में अंदर की ओर
जो कभी खाली नहीं हो पाती थी
और स्थानांतरित हो जाती
छोटे पढ़ाकू की थाली में

थाली पर बैठे
दिन भर की खबरों का जायजा लेते पिता
इतने पिता थे अपने अनुजों के
कि कभी आंख भर नहीं देखा
चूल्हे की लपट के आर पार
हल्के घूंघट में
जुगनू सी चमकती
एक जोड़ी आंखों को
कभी नहीं दुलारा
दादी की गोद में ऊंघती
पांच बरस  की गौरैया सी
बच्ची को
उस वक्त पिता की तनी रीढ़ पर रखा
भरकम पहाड़
साफ़ दिखता था मुझे

मगर देर रात चौपाल से लौट कर
तारों की ठंडक तले
जब घूक सोयी बच्ची की पेशानी चूमते पिता
तो रुई सा हल्का हो जाता था
पिता की पीठ का पहाड़

बहुत प्रकार के जादूगर आते थे
दादी की कहानियों में
पर पहाड़ को रुई में बदलने का जादू
आज भी सिर्फ पिता को आता है








प्रार्थनाओं से बचना

दुखों में बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना

प्रार्थना रत हथेलियों के बीच से बह जाता है
एक हिस्सा जुझारूपन
एक हिस्सा जिजीविषा

प्रार्थनाएं प्रमेय हैं
जो सिद्ध करती हैं
कि तुम्हारे स्व की परिधि से बाहर स्थित है
सत्ता का अंतिम केंद्र

प्रार्थनाएं तुम्हें कातर बनाती हैं
और तुम खो बैठते हो
जन्मसिद्ध युयुत्सा,
भूल बैठते हो
गर्भ की अंधकोठी की
मूक प्रतीक्षा,
विस्मृत कर जाते हो
गर्भ भेद नीति
चरण प्रति चरण

प्रार्थनाएं रोक लेती हैं
व्यूह द्वार पर तुम्हारा रथ
और तुम चाहने लगते हो
कोई और लड़े तुम्हारी ओर से

याद रखो
तुम्हारे दुख केवल तुम्हारे हैं
आदि से अंत तक

याद रखो
जिजीविषा के समानुपातिक होते हैं दुख,

हमेशा
याद रखो
प्रार्थनाएं तीसरा चर है
यह गड़बड़ा देंगी
दुख और जिजीविषा के समस्त समीकरण,

प्रार्थनाएं
खींच लेंगी पौरुष का समस्त ओज,
एक दिन
मान लोगे तुम स्वयं को
नपुंसक,
निर्बल तुम
भेंट कर दोगे
अपना मस्तक
एक दिन
दुख को

इसीलिए
दुखों में
बचे रहना चाहते हो
तो प्रार्थनाओं से बचना



“संकट काल”

 उन्होंने कहा,
'संकट काल है,
मजबूती से थामे रखना होगा,
अर्थों को,
अर्थ ही पहचान हैं तुम्हारी'

तुमने कहा,
'भूख'
उन्होंने कहा,
'क्षुध् धातु से बना है 'क्षुधा'
जिसका अर्थ है 'भूख'
तुम थाम कर रखो भूख को,
हम क्षुधा की निगरानी करेंगे'

उन्होंने तुम्हारे मुँह में नारे भरे
और कहा,
'संकट बलिदान मांगता है'

तुमने भूख को जकड़ लिया अंतड़ियों में,

जब तुम नारे उगल रहे थे,
वो धर रहे थे
भूख के सामने 'मंदिर-मस्जिद',
रोज़गार के सामने 'गाय-बैल-बकरा',
'राजद्रोह' को किया 'देशद्रोह' की सीध में
'सुरक्षा' को कहा 'डर'
'उदार' को 'भीरू'
और 'निरपेक्ष' को 'दोगला'

शब्द और अर्थ की नयी सारणी में
नसेनी के डंडों से जुते हो तुम,
तुम्हारे कपाल पर पग धर
चढ़े जा रहे हैं वे,
ऊपर और ऊपर

जो तुम्हें नहीं चीन्हता
शब्दों और अर्थों का यह असंतुलन,
तो निसंदेह शापित हो तुम
दब मरने के लिए,

छद्म शब्दों के अर्थों समेत
धम्म से आ गिरेंगे
वे
तुम्हारे ऊपर
एक दिन









भारी मांग

राजधानी से ख़बर आई है
गडरियों की भारी मांग है
सियासी हलकों में

हुक्मरान संजीदगी से पढ़ रहे हैं
भेड़ों का मनोविज्ञान

अफसर अंडर ट्रेनिंग सीख रहे हैं
एक लाठी से झुंड को हांकने का हुनर

भाषाविज्ञानी नज़रबंद हैं घरों में
और गढ़ रहे हैं
हुर्र हुर्र के नये पर्यायवाची

निज़ाम जानता है
भीड़ में तब्दील होता मुल्क
एक हुर्र से हांका जा सकता है
किसी भी वाद ,काद,फसाद की ओर




लोकतंत्र के कुछ दृश्य

 (दृश्य-1)

 निराला का भिक्षुक आता है,
मुंडी देख पता चलता है
आ रहा कि जा रहा,
(वरना -पेट पीठ दोनों मिल कर हैं एक)
हाथ में मिठाई का डिब्बा और धन्यवाद ज्ञापन है,
'लकुटिया'टेक तनिक हाँफता है,
फिर प्रशासन के चरणों में झुक जाता है,
"आप बचा लिए हूज़ूर.
पड़ोस के राज्य में
तीन सौ मर गए
फूड पाॅइज़निंग से"
खींसे निपोर कहता है
"अपने यहाँ तो न फूड
न पाॅइज़निंग"
प्रशासन पेट थपथपाता है,
चमचा समूह जयकार करता है,
कृतज्ञ लकुटिया मुड़ जाती है।




(दृश्य-2)

बहुत साल लग गए,
अब जाकर समझ आया,
राष्ट्र 'जन' नहीं
'तंत्र'में निवासित है,
'तंत्र' की भक्ति-
'राष्ट्र भक्ति'
'तंत्र' से विद्रोह-
'राष्ट्र द्रोह'।
आज़ाद मुल्क में आज़ादी की मांग-
दंडनीय,
माँग को जेल में ठूंस दिया जाता है,
(राष्ट्र) भक्त समूह जयकार करता है,
माँग की पीठ ज़ख्मी है।







(दृश्य-3)

आधे चेहरे पर धूप का चश्मा चढाए,
स्विम सूट में लिपटी/उघड़ी,
लोकप्रिय अभिनेत्री,
अपने बंगले के स्विमिंग पूल के किनारे
प्रेस कान्फ्रेंस कर रही है।
पानी की कमी से जूझ रहे लोगों का
साथ देने के लिए,
उसके तीनों कुत्तों ने आज शाॅवर नहीं लिया।
पंखागण जयकार करता है,
संवेदना पूल भर पानी में डूब मरती है।




(दृश्य-4)

ढाबे पर छोटू से पत्रकार पूछता है,
"आर टी ई सुना है?"
"नहीं" जवाब मिलता है।
"प्रौढ़ शिक्षा वाले साब ने मना किया हैसुनने को",
ढाबा मालिक सुरती दबाते कहता है,
"छोटू आर टी ई सुन लेगा
तो आने वाले समय में प्रौढ़ शिक्षा बहरी हो जाएगी,
आज का छोटू कल की प्रौढ़ शिक्षा का कान है।"
आंकड़े जयकार करते हैं,
धारा मटमैले पंखे से लटक
ख़ुदक़ुशी कर लेती है।
(पर्दा अभी गिरा नहीं है)



तंग घरों की औरतें

मेरे आसपास कुछ बेहद तंग घर हैं
जिनमें चलते चलाते
दीवारों से भिड़ जाती हैं औरतें
या शायद औरतों से भिड़ जाती हैं दीवारें

ज़ख़्मी औरतें छुपाती हैं
चेहरे, पीठ और बाजू पर उभरे
नील के निशान

कहती हैं
घर तो बहुत खुले हैं
उन्हें ही नहीं है
चलने का शऊर

मैं कहती हूँ
हौसले का एक धक्का लगाओ
खिसकेंगी दीवारें

औरतों के पांवों के नीचे नहीं है पर
टुकड़ा भर ज़मीन,
जिस पर पैर जमा
धकेल सकें
दीवारों को,
सांस लेने भर अंतर तक

मर्द हंसते हैं
जब मैं छोटी अंगुली के नख से खुरचती हूँ,
मर्दों के जूतों के तलों से चिपकी
घरों की ज़मीन

मैं कहती हूँ
सुनो!
इसमें एक हिस्सा औरतों का भी है।










स्त्री के भीतर की कुंडी

 एक स्त्री ने भीतर से कुंडी लगाई
और भूल गयी
खोलने की विधि
या कि कुंडी के पार ही जनमी थी
एक स्त्री

उस स्त्री ने केवल कोलाहल सुना
देखा नहीं
कुछ भी,

नाक की सीध चलती रही
जैसे कि घोड़ाचश्म पहने जनमी थी वो स्त्री
जैसे कोई पुरुष जनमा था
कवच,कुंडल पहने

दस्तकों ने बेचैन किया
तो सांकल से उलझ पड़ी वो स्त्री

इस उलझन पर बड़ी गोष्ठियां होती रहीं
पोप-पादरी
क़ाज़ी -इमाम
से लेकर
आचार्य-पुरोहित
ग्रह नक्षत्र
सब एकत्रित हुए

उन्होंने कहा
करने को तो कुछ भी कर सकती है
किंतु सांकल से नहीं उलझ सकती
 वो‌ स्त्री

उस स्त्री के भीतर की सांकल पर
संस्कृतियों के मान टिके हैं
और बंद कपाट के सहारे खड़ा है
गर्वीला इतिहास

उन्होंने कहा
ईश्वर को ना पुकारे वो स्त्री
वो नहीं आयेगा
क्योंकि एक स्त्री के भीतर की बंद कुंडी
'धर्म की हानि' नहीं है

इस समय
मैं भीतर हूँ उस स्त्री के
और जंग खायी कुंडी पर डाल रही हूँ
हौसले का तेल,

मैं सिखा रही हूँ
एक स्त्री को भीतर की कुंडियां खोलना

क्या आपको आता है
किसी स्त्री के भीतर जा कर
बंद कुंडियां खोलने का हुनर?


परिचय


सुदर्शन शर्मा

जन्म- 20 जून 1969
मूल रूप से पिंड मलौट, ज़िला मुक्तसर,पंजाब से।

शिक्षा -अंग्रेजी साहित्य और दर्शन शास्त्र में ग्रेजुएशन बठिंडा पंजाब से।
विवाहोपरांत राजस्थान में निवास और अंग्रेज़ी, हिंदी और शिक्षा में स्नातकोत्तर यहीं से।

कई सालों तक ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया (राजस्थान) में अंग्रेज़ी अध्यापन 
फिलहाल श्रीगंगानगर (राजस्थान) में निवास

पुस्तक - 'तीसरी कविता की अनुमति नहीं' पहला काव्य संग्रह बोधि प्रकाशन , जयपुर से।

हिंदी पंजाबी की की कुछ पत्रिकाओं और कुछ सांझा संकलनों में में कुछ रचनाएं प्रकाशित।



साहित्य की बात समूह से प्रस्तुत कविताओं पर कुछ प्रतिक्रियाएं (एडमिन श्री  ब्रज श्रीवास्तव )



सुधीर देशपांडे 
प्रार्थना के सारे पुराने आग्रह तोड़ती कविता। मनुष्य को कातर और अपेक्षी बनाती प्रार्थनाओं को खारिज करना एक कतृत्ववान व्यक्तित्व के लिए संभव है।


शरद कोकास 
स्त्री के भीतर की कुंडी यह सुदर्शन शर्मा की बेहतरीन कविता है ।
घर के भीतर की कुंडी हम असुरक्षा भाव के तहत इस्तेमाल करते हैं । यह असुरक्षा भाव बाहर की दुनिया के भय और आतंक के फलस्वरूप उत्पन्न होता है ।
स्त्री के बाहर की दुनिया मे एक ऐसा ही समाज है जहाँ पुरुषवादियों द्वारा रचित मान्यतायें हैं , वहाँ धर्म का आतंक है ।
यह समाज मिथकों के सहारे अपना आतंक कायम करता है । जो मिथक उसके पक्ष में हैं वह उन्हें हथियार के तौर पर इस्तेमाल करता है । वह स्त्री को धर्म और ईश्वर के नाम पर भयभीत करता है । स्त्री को सुरक्षा के नाम पर दिया गया यह एक भुलावा है ।
लेकिन यह कुंडी तब तक नही खुलेगी जब तक स्त्री धर्म और ईश्वर के भय से मुक्त नही होगी ।

अनिल कुमार शर्मा 
सुदर्शन जी की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया । पिता की पूरी दिनचर्या ने पिता को जीवंत कर दिया,जीवन में मेहनत ,मशक़्क़त ज़्यादा फलदायक है प्रार्थना से ,बहुत सही कहा है सुदर्शन जी ।
आस्था कभी कभी इतनी बढ़ जाती है कि मेहनत से मिले परिणाम व पुरूस्कार को प्रार्थना से जोड़ ही दिया जाता है ।राजनीतिक व्यंग्य बहुत सटीक हैं ,
भीतर की कुंडी -अद्भुत कविता है

सौरभ शांडिल्य 
धूमिल की एक बहुउद्धृत पँक्ति है - कविता , भाषा मे आदमी होने की तमीज़ है ।

मैं इसे सूत्रवाक्य मानता हूँ एवं कविताओं में एक मनुष्य ढूंढता हूँ । कविता के फॉर्म में लिखी पंक्तियों में एक मनुष्य का हलफनामा दर्ज / दर्ज होता न दिखे फिर मैं कविता नहीं मानता |
सुदर्शन शर्मा की कविता में उपस्थित मनुष्य एवं मनुष्यता हमारे मनुष्यता से इत्तफ़ाक रखता है एवं निजी तौर पर मेरे आदमियत से जुड़ता है ।

इनकी कविताओं से गुज़रते हुए अग्रज कवि एवं आलोचक मणि मोहन मेहता लिखते हैं -

" सुदर्शन शर्मा की कविताओं को पढ़ते हुए उनकी संवेदनाओं पर शक करने की गुंजाइश नहीं रहती । एक महीन सी सार्वभौमिकता इन कविताओं और कवि को अपने समकालीनों से अलग  पहचान दिलाती दिखाई देती है । "

संध्या कुलकर्णी 
पिता पर लिखी कविता जहां एक ओर पितृसत्ता के टूल्स की ओर इशारा कर रही है वहीं ,दूसरीओर पिता की कर्तव्यों को ढोते पिता की मजबूरी भी समझ रही हैं , जो बिटिया की ओर ध्यान नहीं देने की ओर भी इंगित कर रही है , पिता की पीठ का पहाड़ अपनी थकान भी बिटिया के स्नेह में ही उतारता है , यह जैसे पिता एक उच्चासन पर विराजमान हो जाते हैं ।बेहतरीन उद्गार पिता पर ।
 प्रार्थना कविता में कवि प्रार्थना को दुख का कारण बताती हैं जो जीजिविषा के विरुद्ध ले जाती है व्यक्ति को , ओर जीवन जीने के जुझारूपन से न लड़कर व्यक्ति प्रार्थना में तल्लीन रहता है सत्य भी है , आध्यात्मिकता अक्सर सन्यास की ओर प्रवृत्त करती है , सब वृथा है केवल प्रार्थना के सार को ही समझने वाले दर्शन एक नकारात्मकता की ओर ले जाता है , दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि , कवि एक रिबेल करती हैं उस दर्शन के प्रति जो यथास्थितिवाद की ओर ले जाता है ।
तुम थाम कर रखो भूख को , हम क्षुधा की निगरानी कर्रेंगे    उस परिप्रेक्ष्य की ओर इशारा करती कविता है जो भूख की भी राजनीति कर अपने मंतव्य हल कर रहा है । न सिर्फ बल्कि , भाषा के नए नए व्याकरण रचती सत्ता को इंगित करते हुए सभ्यता को संचेतन करती सशक्त कविता है ।
 नाज़ीवाद की ओर बढ़ते कदम की सियासी दांव पेंच कीओर संजीदगी से संकेत करती कविता है , सुदर्शन जी के  पास शब्दों को बरतने का खूबसूरत हुनर है , जो अपने मंतव्य में स्पष्ट भी है और सफल भी , कविता अपने अर्थ को थाम कर चलती
 है ।
स्त्री विमर्श का वैशिष्ट्य लिए तंग घरों की औरतें  उस विद्रूप की ओर संकेत करती कविता है जो , खुद पर होने वाले घरेलू अत्याचारों को किस हद तक मुस्कुराते हुए झेल जाती हैं , जैसे स्त्री होना ही उनका दोष हो , अपनी लाचारी को अंत मे कविता अपनी ज़मीन की मांग रखती है , अच्छा लगता है , कविता जहां अपनी ज़मीन थामती है ।
स्त्री के भीतर की कुंडी , में कवि उन बंदिशों की बात कर रही हैं जिसमे आदि काल से स्त्री क़ैद है ,  संस्कृति के नाम पर जिनका दमन हुआ है , उसे इतना बंद रखा गया है कि , उन्हें खुली जंज़ीरों की कुछ खबर नहीं , उलझने का अर्थ चरित्र की बैसाखियों पर टेक दिया गया है । कवि , व्यंजना के बिम्बों  को बहुत कारगर तरीके से उतारती हैं अपनी कविता में।

 
बबिता गुप्ता 
एक से एक बढकर बेहतरीन कविताएँ पढने को मिली।' पीठ पर पहाड' में 'और स्थांतरित हो.....थाली में' सही कहा है, सबसे ज्यादा अपेक्षित सदस्य का ध्यान रखा जाता है, ऐसा अधिकांशत स्वेच्छा से ही होता है।सही हैं केवल प्रार्थनाओं से जीवन नहीं संवरता बल्कि निठल्ला बना देता है।'खींच लेगी पौरूष का समस्त ओज' चेतावनी देती पंक्ति। 'लोकतंत्र के कुछ दृश्य में' लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कटाक्ष  करते दृश्य।'तंग घरों की औरतें' और स्त्री के भीतर की कुंडी' नारी विमर्श कविताएँ जिसमें स्त्रियों पर लगाई गई बंदिशों में कैद वो निकलने को बेवश है पर कोशिश जरूर करती हैं,  'और जंग खाई. ...हौसले का तेल', बहुत ही प्रभावी लगी।शेष कविताएँ बहुत ही अच्छी लगी।


भावना सिन्हा 
पिता का त्याग बच्चों के जीवन के लिए मूल्यवान होता है-
पहाड़ को रुई में बदलने का जादू
आज भी सिर्फ पिता को आता है
पिता पर सार्थक पंक्ति ।

तंग घरों की औरतें
 औरतों के जीवन की मार्मिक कहानी है। आज भी स्त्रियाँ घर में  कमोबेश  नीले निशान के साथ जीतीं हैं  , अधिकार के साथ नहीं।
लोकतंत्र के  कुछ दृश्य- व्यंग्य में प्रभावित करते हैं ।

भाषा और भाव में  स्पष्ट



सुदर्शन जी की सभी बेहतरीन कविताएं ।
 संभवतः  ऐसा कोई कवि नहीं होगा जिसने पिता पर कविता न लिखी हो । पर इस कविता ने विशेष रुप से प्रभावित किया। सुदर्शन की कविता में पीठ पर पहाड़ लिए पिता के पास जहां पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के जन्म सिद्ध टूलस् देखने को मिलते हैं,वही एक ममतामई स्त्री का चेहरा भी देखने को मिल जाता है जो पहाड़ को रुई में बदलने का जादू जानते हैं। प्रार्थनाओं से बचना... अपने स्व की सामर्थ और ताकत पर अविश्वास करने जैसा है प्रार्थी के लिए।  गर्भ की अंध कोटरी की मुख प्रतीक्षा ... कविता की यह पंक्ति जीवन के आरंभ के उन संघर्षों की ओर इशारा करती है जिसकी धरातल पर जीवन खड़ा होता है। बहुत गहरे और व्यापक अर्थ में मैं इस कविता को देखता हूं।  संकटकाल, भारी मांग, लोकतंत्र के कुछ दृश्य, जीवन और राजनीति के बीच परस्पर संबंध और संकट की कविताएं हैं, जिन पर लगातार पर्दा डाला जाता रहा है पर पर्दा अभी पड़ा नहीं है। तंग घरों की औरतें  और स्त्री के भीतर की कुंडी  कविता पर शरद भाई ,संध्या जी व अन्य मित्रों ने बहुत ही बढ़िया टिप्पणी की। व्यवस्था प्रकृति जनित नहीं होती । हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था उन्हें विवश बनाती हैं । सुदर्शन जी ने व्यवस्थाओं के खिलाफ़ कुंडी खटखटाई हैं । दोनों ही उल्लेखनीय  कविता... पर मुझे इनमें से कोई एक चुनना होगा तो मैं तंग घरों की औरतों द्वारा घर की दीवारों को चुनौती देती स्त्री की कविता को पहले क्रम पर रखूंगा।

बधाई सुदर्शन जी।
बेहतरीन कविताओं के चयन एवं मंच पर साझा करने के लिए ब्रज भाई का शुक्रिया।


अखिलेश श्रीवास्तव
कवि सुदर्शन जी की कविताएँ अपने नखों से खुरच कर हडप ली गई जमीन पर नये सीमांकन की कोशिश में है उनके हिस्से की जमीन उन्हें नामांकित हो न हो, रकबा मिले न मिले पर  वो निशान जरूरी छोड़ जायेंगी । अगली पीढ़ी हो सकता है इसी निशान का सहारा ले आगे बढ़े और कोई हल न निकलने पथ पहले लकीर खींचे फिर दीवार की मांग उठा दे । यह हस्तक्षेप करती कविताओं का साहस है जो अपने उपेक्षा को उपेक्षित करते हुए पुरूषियां अटट्हासो के बीच अपनी हिस्सेदारी बताती है उसे उम्मीद कम है पर बात का पहुँचना महत्वपूर्ण है इन कविताओं से कुछ भी एकाएख नहीं ढहेगा पर दरकन की गुंजाइश बनेगी । स्त्री विमर्श कोई किरदार का रूप धर कर कवि की कविताओं में नहीं आया है वह लक्षित स्त्री की बात नहीं करता बल्कि वह सही और जड़ के मुद्दों की पहचान रखता है वह टुकड़ों में विमर्श नहीं करता, वह सम्रग को निर्देशित है विषय की समझ कवि से ऐसा करवा पाती है । विमर्श के नाम पर मुझ सहित बहुत से लोगों के पास स्त्री देह या उसके उथले मन की कविताएँ है पर सुदर्शन जी मूल पर काम कर रही है जहाँ हाहाकार नहीं है शांत सी कोई पंक्ति मुक्ति का राह बता देती है ।

उन्होंने अपना संग्रह मां को समर्पित किया है पर पिता पर लिखी कविता भी  बेहद अच्छी है अच्छा हुआ कि उन्होंने जयपुर में यह कविता नहीं पढ़ी वरना मेरी लिखी पिता शीर्षक कविता का श्रोता मिलना मुश्किल हो जाता । वो कविता पढने में भी सिद्ध है उनके समक्ष मैं भी पढ़कर गौरवान्वित हुआ । बहुत बधाई व शुभकामनाएँ ।


नीलिमा करैया
सुदर्शन जी की सभी  कविताएं भावनात्मक धरातल पर संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उसका  प्रतिबिम्ब है। वास्तव में  कविता सिर्फ मनोरंजन नहीं वह अभिव्यक्ति है ऐसी जो  पाठक  के समझ को परीक्षित करती है और इन्हें  सिर्फ  और सिर्फ  वही समझ सकता  है जो रिश्तों         की कद्र  करता हो।उन्हें समझता हो।और उन्हें  बनाए रखने  के लिए  मान अपमान से परे प्रयत्नशील रहे।
पहली कविता "पीठ पर पहाड़ "पिता के दायित्व को समझाती ऐसी ही कविता है जहाँ  पिता अपनी बेटी का माथा घूमते हुए अपने सारे उत्तरदायित्व से मुक्त  हो जाता है। कविता पर बहुत लिखा जा सकता है  एक एक पंक्ति पर।किन्तु मूल भाव यही है।
प्रार्थनाओं से बचना कविता  सचेत  करती हे अंधश्रद्धा से बचने के लिये जो हमारे  विकास  की सबसे बड़ी बाधा है ।जो हमारी कर्मठता को पंगु कर हमें  नाकारा बना देती है । कविता हमें स्वयं पर भरोसा  करने के लिये विश्वस्त करती है।
संकटकाल कविता बहुत   ही गंभीर  और काबिलेगौर कविता है।इंसान  इतना  स्वार्थी हो गया है कि अपनी तरक्की  और विकास  का सौदा कमजोर और असहाय  लोगों की भूख और जीवन से करता है ।यहाँ नैतिकता अपने सारे वजूद को खोकर दम तोड़ती नज़र आती है।
भारी माँग कविता  सामयिक दृष्टि से  महत्वपूर्ण व्यंग्य है, शासकों की कूटनीतिक व्यवस्था  पर गहरा तंज।
पूरी कविता प्रतीकात्मक शैली  में है ।राजनेताओं को ऐसे चमचों /दलालों  की जरूरत  है जो निरीह जनता  को  भेड़ की तरह हाँकने में  सक्षम हो ।
लोकतंत्र के कुछ दृश्य
इस कविता  के लिये  कुछ भी कहने में  हम समर्थ ही नहीं  शब्द  से परे ,चित्र लिखित यहाँ  आपकी लेखिकीय क्षमता को हमारा सिर झुकाकर नमन🙏🏻तंग घरों  की  औरतें
यह कविता चतुर्थ श्रेणी के बदहाली की कविता है और बहुत  जीवन्त ।आपकी शैली  और शब्द  संयोजन  चकित करते हैं  सुदर्शन जी।
स्त्री के भीतर की कुंडी बहुत ही बेहतरीन कविता  है। यद्यपि परिवर्तन दृष्टव्य है पर कहाँ ? यह तलाशने होता है ।
बेहतरीन  सृजन के लिये सुदर्शन जी को तहेदिल से बधाइयाँ और शुभकामनाएं
और उतने ही दिल से ब्रज सर का और साकीबा  का आभार

सुदर्शन जी की कविताओं को पढ़वाने के लिए आदरणीय एडमिन जी का आभार ।



प्रवेश सोनी 
तीसरी कविता की अनुमति नही ,संग्रह का नाम ही कवि मन की थाह देता है ।वो मन जो स्त्री विमर्श के ढोल ताशे नही पीटता ,पर जानता है उसकी गहराई ,और उसी गहराई में पैठ बना रचता है कविता ।

पिता के लिए उमड़ते हो भाव ,या प्रार्थना में जुड़े हाथों को लताड़ने ओर जिजीविषा को समझाने के अपने अपने अर्थ हो , कहीं भी बिना हिचक के अपनी बात पूरे वजन से कहती है कवि ।

बिंब की बुनावट कविताओं को अलग ही धरातल पर खड़ा करती है ।

राजनीति और जन की आवाज़ भी अछूती नही रही कविताओं में ।बड़ी अच्छी पकड़ विषय की ।

 यह तो बानगी है ,संग्रह की अन्य  कविताएं भी आपको पूरी ख़ुराक देने की काबिलियत रखती है ।
जरूर पढ़ें इन्हें ।



मुस्तफ़ा खान

पीठ पर पहाड़ - जिसके ऊपर घर की जिम्मेदारियों का पहाड़ आ लदे उसकी रीढ़ तनिक झुकी होगी सीधी नहीं । पिता के बाद ज्येष्ठ पुत्र का दर्जा पिता सम होता है हमारी संस्कृति में । उससे बहुतेरे त्याग की आशा रहती है जिसे वह पूर्ण करता है । अपने लिए भी कम ही जीता है वह । चाहे रहना ,खाना ,पहनना हो या दीगर जरूरी काम । कविता अपनी माटी की गंध से सुवासित है । बढ़िया लिखा-बहुत प्रकार के जादूगर आते थे/ दादी की कहानियों में /पर पहाड़ को रुई में बदलने का जादू/ आज़ भी सिर्फ पिता को आता है ।
2 ,प्रार्थनाओं से बचना - एक अलग तरह की कविता जिसके निहितार्थ व्यापक हैं । ये कमजोर बनाती हैं हम उनके भरोसे संतुष्ट,सफल रहने प्रतीक्षारत रहने लगते हैं । जबकि कर्म महान है भले सफलता अपेक्षित न मिले । और तुम चाहने लगते हो /कोई और लड़े तुम्हारी ओर से । सही है अपनी जंग खुद लड़नी चाहिए । कविता कुछ उपदेशात्मक,निर्देश देती लगी । मात्र प्रार्थना के भरोसे नहीं रहने का संदेश है ।
3, संकट काल - तुम थाम कर रखो भूख को /हम क्षुधा की निगरानी करेंगे । संकट बलिदान मांगता है । राजनीतिक व्यंग है कविता में । राजनीति जो जन को मुख्य मुद्दों से भटकाती चलती है 4, भारी मांग - बढ़िया कविता बढ़िया सामयिक व्यंग । निज़ाम जानता है /भीड़ में तब्दील होता मुल्क /एक हुर्र से हांका जा सकता है । हुर्र ,शब्द का बढ़िया प्रयोग ।
5, लोकतंत्र के कुछ दृश्य - अलग विषयों पर बढ़िया दृश्य पेश किए गए हैं।
6, तंग घरों की औरतें - स्त्री विमर्श की कविता जो सहती है पर कहती नहीं । मैं कहती हूं/ हौसले का एक धक्का लगाओ/ खिसकेंगीं दीवारें । ठीक आगाह करतीं हैं सुदर्शन ।
       कुल जमा सीधी सरल बात करती कविताएं हैं । भाषा पठनीय है बिंब बढ़िया कहीं अधिक विस्तार भी है ।
आभार प्रस्तुति व संचालन ।

हरगोविंद मैथिल
आज पटल पर प्रस्तुत सुदर्शन शर्मा जी की सभी कविताएँ पाठक के हृदय तल से होकर गुजरने वाली बहुत संवेदनशील कविताएँ हैं ।
पहली कविता पिता का बिल्कुल सटीक चित्रण करती है ।
दूसरी कविता प्रार्थना व्यक्ति को कर्म ही पूजा है की प्रेरणा देती है ।तथा कबीर की साखी
 पाहन पूजें हरि मिलें , तो मैं पूजौ पहार ।
या ते तो चाकी भली पीस खाय संसार की तरह कर्म की प्रधानता को रेखांकित करती है ।
शेष कविताएँ भी पुरकशिश लगती है ।
सुदर्शन शर्मा जी को बधाई और ब्रज जी का आभार. . .


ज्योति गजभिये 
सुदर्शन जी की कविताएँ यथार्थ के धरातल पर स्थापित कुछ कड़वे सच हैं जिन्हें वे कुशलता से बयान करती हैं | कितनी आसानी से जिम्मेदारियों का पहाड़ एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जाता है और खुशी-खुशी इसे पहाड़ से रुई बनाकर निभाया भी जाता है |
प्रार्थना से ज्यादा जरूरी खुद पर भरोसा
संकटकाल सामयिक मुद्दों पर कड़ा प्रहार करती है
अपने भीतर की कुंडी खोल कर ही नयी दुनिया देख पाएगी औरत ।




Thursday, October 18, 2018

उपन्यास नामा ,भाग आठ 
शाल्मली 
नासिरा शर्मा 

नासिरा शर्मा 


“शाल्मली : ठूंठ में बदलती स्त्री के मानवीय रिश्तों की अद्भुत कहानी”


स्त्री जीवन के समग्र सरोकारों और बदलते जी्वन की पैरोकार नासिरा जी का यह उपन्यास एक मध्यवर्गीय स्त्री की जीवन गाथा को सहज तरीके से प्रस्तुत करता है। शाल्मली इसकी नायिका है और नगरीय जीवन के उतार-चढाव का पितृसत्तात्मक व्यवस्था की क्रूरता का उसके अन्याय और शोषण का जीता जागता सबूत है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने एक जीती जागती, जीवन की महक से भरपूर शाल्मली को एक ठूंठ में बदल दिया। यह इस व्यवस्था की क्रूरता का चेहरा है जिसे नासिरा जी ने शाल्मली के रूप में उकेरा है।

        ‘‘मैं केवल एक सूखा वृक्ष भर रह गई हूँ। न फल, न फूल, न शाख, न पत्ती, न छाया, न ठंडक, ऐसे सूखे वृक्ष की शरण में भला कौन आना पसन्द करेगा? धरती ने भी जैसे अपने स्रोत समेट लिए हैं, तभी तो मेरी जड़ें तरावट को तरसती, धरती छोड़ने लगी हैं। ऐसा सुखा, छायारहित, ठूंठ, वृक्ष तो बस जलाने के काम का रह जाता है, लपटों के बीच कोयला बनती काली काया।’’1
       
यह एक आम औरत का छाया चित्र है, जो हर औरत के चमकते चेहरे के पीछे छिपा हो सकता है, जो हर औरत की चेतना में घटित हो रहा हो सकता है, सिर्फ महसूसने की, समझने की और उभारने की आवश्यकता है। शाल्मली व्यवस्था से, अपने पति नरेश की पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार से लड़ते-लड़ते स्वयं को एक ठूंठ की तरह का महसूस करती है। वह इस व्यवस्था पर,  सोच पर, प्रश्न चिह्न लगाती है और सवाल खड़ा करती है कि उसने क्या अपराध किया था जो उसे ठूंठ में बदल दिया गया। उसने एक सहज सामान्य जीवन की ही तो माँग की थी। उसने नरेश से स्वयं को एक व्यक्ति की गरिमा, एक इंसान की पहचान, अपने वजूद की स्वीकृति ही तो चाही थी। साथ-साथ जीवन के रंगों में रंगने का भीगने का मन ही किया था उसका। उसने मांगी थी जीवन की महक और उसे मिला जहर से बुझे तीरों का तरकस

 एक कामकाजी स्त्री जो अपनी योग्यता और काबलियत के कारण पति से ऊँचे दर्जे की नौकरी कर रही हो, सब उसके काम से प्रसन्न हैं, उसके व्यवहार से खुश हैं, जो नौकरशाह होते हुए भी नौकरशाही अंदाज नहीं रखती, उससे उसका पति नाराज है, उसे प्रताड़ित करता है, दूसरी स्त्रियों के साथ ऐयाशी करता है और शाल्मली को सिर्फ एक भोग की वस्तु न बने रहने की सजा देता है। दरअसल शाल्मली का पूरा संघर्ष भोग की वस्तु से इंसानियत का दर्जा पाने का संघर्ष है। एक मानवीय इकाई बनकर जीने का संघर्ष है। वस्तु बनने से इंकार करने का संघर्ष है। जड़ वस्तु से एक विचारशील, विवेकशील, तर्कशील और स्वतंत्र मानवीय इकाई बनने का संघर्ष है। पत्नी के रूप में एक स्त्री सर्फ बिस्तर पर पड़ी गर्म गोश्त भर नहीं होती। उसमें मानवीय चेतना के सुख-दुख महसूस करने का, अपनी देह की चेतना को महसूस करने का जज्बा भी होता है और वह इस जज्बे को अपने साथी पति से भी महसूसने की अपेक्षा करती है।








        शाल्मली नरेश से अलग रहने का निर्णय नहीं करती, उससे तलाक नहीं लेती और अंत तक इस बात का इंतजार करती है कभी तो नरेश उसे एक व्यक्ति की गरिमा से युक्त स्वीकार करेगा। वह घर को मानुस गंध से सराबोर करना चाहती है, यही उसकी कोशिश है अंत तक, पर ऐसा हो नहीं पाता। ‘‘इस घर में मेरी मेहनत की महक अवश्य है, पर मानुस गन्ध नहीं।’’2

  जब घर और परिवार में, संबंधों में, साथ और साथी के बीच से मानुस गंध समाप्त हो जाती है तो एक स्त्री व्यक्ति से मशीन बन जाती है। ‘‘शाल्मली घड़ी की सुई की टिकटिक के साथ अपने को बांधे भोर से सन्ध्या तक मशीन बनी काम करती और थक कर घर लौटती।’3

पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में विवाह दो व्यक्तियों के बीच अवश्य होता है, परन्तु वे विवाह के बाद व्यक्ति न होकर पति और पत्नी बन जाते हैं। इंसानियत और मानवीयपन समाप्त होते जाते हैं। जो स्त्रियां अपने का इस रूप में स्वीकार कर लेती हैं, वे स्वयं को वस्तु और पति का स्वामी मान लेती हैं, यदि थोड़ा बहुत जिंदा होने का अहसास होता है तो दासी और स्वामी का संबंध भी हो सकता है, परन्तु जो स्त्री स्वयं को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किए रहती है उनके विवाह असफल हो जाते हैं। संबंधों में विखराव आ जाता है। साथ रह कर भी मीलों दूर रहने लगते हैं। सुख की जगह भोग और संतुष्टि की जगह वस्तुओं से भरने लगती है जिंदगी।

आधुनिकता ने स्त्रियों को घर से बाहर काम करने का अवसर पैदा किया यह आधुनिकत का स्वार्थ और अधिक मुनाफा कमाने की रणनीति थी,परंतु इसने स्त्रियों को स्वतंत्र श्रमसमय और स्पेस पैदा किया जिसने स्त्री के अंदर एक चेतना का जन्म हुआ। इस चेतना ने उसमें अपनी पहचान और गरिमा के प्रति जागरूक कर दिया। इस परिवर्तन के कारण उन पुरुष पतियों में एक ईर्ष्या भाव पैदा किये जो कामकाजी स्त्रियों के पति बने और यदि पत्नी ज्यादा कमाती हो बडे ओहदे पर हो और उसमें थोड़ी भीअस्मिता की भूख हो तो वे पुरूष अपनी पत्नियों के प्रति अधिक क्रूरता पूर्ण और अमानवीर दृष्टिकोण पैदा करते रहे हैं।

 इसीलिए कामकाजी स्त्री के संबंध अपने पतियों से टूटते विखरते नजर आते हैं, क्योंकि उनके काम से उनकी पहचान बनती है और यह बात पति/ पुरुष स्वीकार नहीं कर पाते। छिन्नमस्ता की प्रिया हो, शाल्मली हो, अंकिता हो, या अन्य......कोई..। शाल्मली को आरंभ से ही यह टूटन महसूस होने लगती है - ‘‘विवाह के कुछ दिनों बाद से ही उसे लगने लगा कि उनके बीच कुछ टूटा था, जिससे एक ही ध्वनि गूंजी थी कि नरेश पति है और वह पत्नी। स्वामी और दासी का यह संबंध एक काली छाया बन उसके और नरेश के बीच एक मजबूत दीवार का रूप धरने लगी थी। उसने आरंभ में बहुत हाथ-पैर मारे। मानवीय संबंधों की गहराई को परंपरागत चले आये पति-पत्नी के रिश्तों से अलग हट कर एक पारस्परिक समझ और बराबरी के स्तर पर उसे समझाने की कोशिश की थी, मगर बात उससे बिगड़ी थी, वह घबराकर पहली कही बात को विस्तार से समझाने की कोशिश करती, मगर फिर उससे बात बन न सकी, बल्कि बिगड़ती ही चली गईं उसके विवाहित जीवन में ग्रहण लगना था, सो लग गया। उसका संकल्प, संघर्ष, उसकी चुनौती जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण, सब कुछ एकाएक ढहते नजर आए। जीवन का यह रूप उसने कभी सोचा नहीं सोचा था, मगर प्रश्न उसके सोचने का नहीं, किसी दूसरे के सोचने का था और इसी विभ्रम ने दोनों के आधे-आधे चेहरे ढंक लिए थे जो शेष आधे चेहरे बचे थे, वे भी धुंधला कर स्याही की चपेट में आ रहे थे।’’4
     
नरेश शाल्मली के बारे में कहता है कि ‘‘तुम ठहरी एक आधुनिक विचार की महिला... विचारों में स्वतंत्र, व्यवहार में उन्मुक्त, तुम्हारे संस्कार....।’’5 यह विशेषताएँ एक आधुनिक विचारों की स्त्री की हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वे स्वच्छंद विचारों की हैं जैसा कि नरेश उसे कहता है। आधुनिक शिक्षा और लोक में लड़कियों को या सामान्य इंसान को जो बातें सिखाई जाती हैं, जब लड़की पत्नी बनती है तो वे ही बातें उस पर व्यंग्य की तरह इस्तेमाल की जाती हैं। जिन बातों से लड़की का व्यक्तित्व बनता है, उसकी पहचान बनने लगती है, जब वही बातें अपने ससुराल में प्रयोग करती है तो उस पर आधुनिकता का स्वच्छंदतावादी होने का आरोप लगाया जाता है। नरेश बार-बार उसे उसके व्यक्तित्व की पहचान वाली विशेषताओं के लिए प्रताड़ित करता है, व्यंग्य करता है।‘‘आधुनिकता की जो परिभाषा नरेश देता है,उसके विश्लेषण को सुनकर स्वयं शाल्मली को शब्द ‘आधुनिकता’ से घृणा होने लगती है।’’6

यदि पत्नी पति से अधिक कार्यकुशल है और  बड़े पद पर है तो पति का रवैया उसके प्रति कैसा होता है - ‘‘ऐसी पत्नी, जो अपने को पति से अधिक चतुर, सुदृढ़ और व्यवहार कुशल समझती हो, उसके पति के भाग्य में ढाबे का खाना ही लिखा है।’’7 पितृसत्ता स्त्री की शिक्षा और उसके विकास को सहन नहीं करती। क्योंकि शिक्षा से उसके व्यक्तित्व में एक विशेष तरह का बदलाव आ जाता है। वह सर उठाना सीख जाती है, हर बात को चुपचाप सहन नहीं करती, आँखों में आंखें डाल कर बात कर सकती है। गलत बात का विरोध करती है, सही बात को तर्कपूर्ण ढंग से पेश करती है। बाहर की दुनिया और परिवार की स्थिति के बीच के द्वंद्व को सुलझाने के लिए घर और पति को भी बदलने के लिए कह सकती है। सही कार्य के लिए, अपनी पहचान और वजूद के लिए स्वयं निर्णय ले सकती है, लिए गए निर्णय पर साहस पूर्वक कदम बढ़ा सकती है। घर से बाहर की दुनिया के साथ तालमेल बिठाने के लिए स्वयं विचार कर सकती है।

शाल्मली यह सब करती है तो नरेश जो एक परंपरागत पति है, इन सबको अपना अपमान मानता है, और बात-बात पर उस पर लांछन लगाता है। घर के परंपरागत सामंतीय परिवेश में उसका व्यक्तित्व बार-बार टूटकर बिखर जाता है। उसे अपना अस्तित्व ढूँढना मुश्किल लगने लगता है। ‘‘इस अभिशाप से दाम्पत्य जीवन को बचाने की कोशिश में उसका अपना व्यक्तित्व कहीं खो रहा है। महासंग्राम के असीमित फैलाव में अपने अस्तित्व को ढूँढना असम्भव हो जाता है। अपने को गिद्धों से बचाना, अपने टुकड़ों को समेटना, अपने जख्मों पर मरहम पट्टी करने का अवसर तक नहीं मिलता।’’8   

 परिवार का विघटन - शाल्मली के लाख चाहने पर भी उसका विवाह असफल हो गया। परिवार विखर गया और संबंध टूट गये। वे दोनों एक छत के नीचे रहकर भी नदी के दो किनारों की तरह रहते हैं। उनके अन्दर का बारीक सूत्र छिन्न-भिन्न हो चुका है। शाल्मली ने अपने व्यक्तित्व को किसी भी कीमत पर बचाए रखा और स्वयं को अन्दर से टूटने नहीं दिया। ‘‘उसके शरीर को लकवा मार गया हो। जब संबंधों का उत्साह मरने लगे, तो मन कुछ नहीं करना चाहता।’’9

नरेश बार-बार उसका अपमान करता है, तिरस्कार करता है, उसके अस्तित्व को चोट पहुँचाता है, उसके बजूद को नकारता है। शाल्मली इस सबको सहन करती है क्यों?  एक भारतीय परंपरा के संस्कार ही हैं जो उसे इस बात का अहसास दिलाते हैं कि शायद कभी नरेश उसकी बात को समझेगा, उसे समझने की कोशिश करेगा और यह संबंध शायद चल जाये। पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि नरेश न तो समझौता करने का तैयार है न समझने को।
पिता से उसके संबंध बहुत अच्छे हैं, पिता पितृसत्ता के प्रतीक उस रूप में नहीं है जिस रूप में पति है। महिला उपन्यास कारों की विशेषता है कि उनके स्त्री चरित्रों के पिता पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उस क्रूर सोच के प्रतीक नहीं होते जैसे कि पति या दूसरे पुरुष होते हैं। छिन्नमस्ता की प्रिया, आवां की नमिता, महरूख इत्यादि।
शाल्मली के पिता कहते हैं कि ‘‘किसी पत्नी के अतिरिक्त भी उसकी अपनी एक पहचान बन जाये। बस, दूसरे दिन शालमली को ब्याह दूंगा।’’10 दृढ़ संकल्प - ‘‘ऐसा जीवन मैं कभी नहीं गुजारूंगी, कभी नहीं।’’11 छिन्नमस्ता की प्रिया भी कहती है कि ‘‘मैं औरत कभी नहीं बनूँगी।’’

द्वंद्व ही व्यक्तित्व का विकास करता है, सृष्टि में नए-नए विकास इसी द्वंद्व से होते हैं, शाल्मली कहती है ‘‘यही तो जीवन है, टकराहट से ही इन्सान अपने को पहचानता है, संवारने की कोशिश करता है, वरना खद्दर धरती की तरह पड़ जाए? न फले, न फूले।’’12 
संबंधों में बिखराव का कारण पति नरेश का अपने आप तक सीमित रहना और आत्मिक स्तर पर मिलन और संबंध न बन पाना इसका मूल कारण है। शाल्मली भी यह सोचती है कि ‘‘शाल्मली स्पर्शों की सरसराहट के बीच सोचती रही कि इतने दिन शादी को गुजर गए, मगर आज भी वह नरेश के व्यक्तित्व में न झांक सकी। वह खुलता ही नहीं। जब भी उसने कोशिश की, हर बार बंद दरवाजे से माथा टकराया। खाना, प्यार, सोना-जागना इससे परे भी अपने जीवन साथी से एक पहचान बनती है, उसका आरंभ शाल्मली को कहीं नजर नहीं आता, तभी वह नरेश को केवल भौतिक रूप से समर्पण कर पाती। आत्मा और भावना उसी तरह अनछुई खामोश पड़ी सेाती रहती है।’’13

जब पति पत्नी के संबंधों में पत्नी स्वयं को एक लिबास महसूस करने लगे, एक भोग का उपकरण महसूस करने लगे तो उस संबंध को तो बिखरना ही है। शाल्मली और नरेश के संबंधों में यही घटित होता है, बारंबार -‘‘उसे लगता है, जैसे वह एक बेजान लिबास है, जिसे जरूरत पड़ने पर पहना जाता है और जरूरत खत्म होते ही उतारकर रख दिया जाता है। रोज रोज की इस लिबासपोशी से वह थकने लगी है। प्यास बुझने की जगह भड़कती है। देह से हटकर भी तो आवश्यकता होती है मनुष्य की वरना कान, आँख, जबान और दिल मनुष्यों को क्यों मिले हैं? अच्छा सुनने और बोलने-समझने और महसूस करने को, अपनी इस शक्ति को किस पत्थर के नीचे दबा दे, जो अपना सिर उठा न सके?’’14

शाल्मली का यह महसूस करना स्वयं को मात्र जिस्म मानने से और भोग की वस्तु में तब्दील होने से इंकार करने की दिशा में अपनी चेतना की पहचान स्थापित करने के लिए किया गया चिन्तन है।
हम देखते हैं कि शाल्मली के नरेश और प्रभाखेतान की छिन्नमस्ता के नरेन्द्र में औरत के जिस्म को लेकर एक सा बहशीपन है। उधर प्रिया और इधर शाल्मली भी एक सी प्रतिक्रिया दिखाती हैं - ‘‘मैं एक पल नहीं जी सकती! इतना बहशीपन, इतना दुर्व्यवहार आखिर किस लिए! गुस्से से पागल सी हो गई शाल्मली। आंखें निकाल कर जैसे उसे अंधे कुएं में किसी ने फेंक दिया हो। वह एक अजीब पीड़ा से छटपटा उठी थी। इस हद तक संबंधों और भावनाओं को कोई अपमानित कर सकता है! इस सीमा तक कोई निर्दय हो सकता है! कहाँ आकर फंस गई है वह...! यही मेरा भाग्य है! हाँ, माँ यही कहती हैं कि यही तेरा भाग्य है।’’15

      शाल्मली का यह सोचना कि ‘‘अपने पुरुष को उगता सूरज मैं नहीं दिखाऊँगी, तो फिर कौन दिखायेगा!’’16 लेकिन पुरुष के लिए औरत सिर्फ औरत है, घर, गृहस्थी और पति बच्चों को पालने वाली। वह दुनिया भी चला सकती है, घर के अलावा यह पुरुष न सोच सकता है और न सहन कर सकता है। तभी तो नरेश कहता है कि ‘‘तुम औरतें अपने को जाने क्या समझती हो? बाहर नहीं निकलोगी, काम नहीं करोगी, तो संसार के सारे काम ठप्प हो जायेगें....’’17  स्त्री किसी भी रूप में आजाद नहीं है, वह घर की चाहरदीवारी में रहे या अपने दफ्तर में। पुरुष अपने स्वार्थ के लिए थोड़ी बहुत छूट देता है जिसका अर्थ आजादी नहीं होता। नरेश शाल्मली को बारबार इस बात का एहसास कराता है कि घर का संचालक, रक्षक और मालिक वह है, अतः उसकी मर्जी और नामर्जी ही शाल्मली की मर्जी-नामर्जी होना चाहिए।

‘‘मैंने तुम्हें नौकरी करने की छूट दी, इसका अर्थ यह नहीं कि तुम अपने का पूर्ण स्वतंत्र समझने लगो।’’18 और फिर कहता है कि ‘‘अब तुम मेरी नकल मत करो! मैं मर्द हूँ, कहीं भी आ-जा सकता हूँ। तुम औरत हो और अपनी मर्यादा को पहचानो।’’19

शाल्मली इस स्थिति का विरोध करती है और कहती है -‘‘कल मेरा रेजिग्नेशन लेते जाना। मुझे तुम से स्वतंत्रता की भीख नहीं चाहिए। तुम्हारा दान किया हुआ कारावास मेरे लिए काफी है।’’20
और - ‘‘यह नाटक तब तक चलेगा, जब तक मैं अपना अधिकार नहीं पा लेती हूँ।’’21

‘‘मुझे अधिकार देने वाला भले ही तुम अपने को समझो, मगर याद रखो, कोई भी किसी को आसानी से उसका अधिकार नहीं देता है। अधिकार लेने वाला तो लड़कर उसे प्राप्त करता है।’’22

पितृसत्ता की समस्या यह है कि वह स्त्री को अपने से आगे बढ़ता नहीं देख सकती - ‘‘नरेश भी क्या करे? हर दिन एक अनजाना भय उसे दबोचने लगा था कि शाल्मली का बढ़ता कद उसके अपने व्यक्तित्व से ऊँचा उठता जा रहा है, उसपर छाता जा रहा है।’23 

पितृसत्तात्मक व्यवस्था में औरत कहीं भी स्वतंत्र नहीं है, किसी भी रूप में। हाँ कहीं गले में बंधी रस्सी थोड़ी ज्यादा ढीली है तो कहीं ज्यादा कसी हुई। इस बात को शाल्मली की सास अधिक सटीक ढंग से समझती हैं और कहती हैं - ‘‘हम तो, बहू, री! दासी थे। तुझे देखा, तो मन में सोचा कि चल कहीं तो औरत स्वतंत्र है। भयभीत भी हुई थी कि तू निभाएगी भी या नहीं? शहर की लड़की...बहुत बातें सुन रखीं थीं। इन वर्षों में तेरे साथ रह कर जान पाई, बहू, री! औरत जन्मजली कहीं स्वतंत्र नहीं। कहीं खूटें से तंग बंधी, तो कहीं उसके गले में बंधी रस्सी थोड़ी लम्बी या अधिक लम्बी। अपना बेटा है। नौ महीने  कोख में रखा दूध पिलाया। तुझे तो मैंने जन्म नहीं दिया, मगर दोनों को देख रही हूँ। उसके व्यवहार से तू कितनी सुखी है, मैं नहीं जानती, बहू री! पर भगवान का साक्षी मानकर कहती हूँ, तेरे लिए मेरा मन कुढ़ता है। मैं बहुत दुखी हूँ। क्या कहूँ उसे? मुझ अनपढ़ से वह सीख लेगा, मेरे उपदेश सुनेगा, मेरे लिए जिसके पास तनिक भी समय नहीं?’ माँ की आवाज भर्रा गई थी।’’24

 यह सास का बहू बेटे के लिए किया गया मूल्यांकन स्त्री विमर्शकारों को समझना चाहिए कि वे स्त्री चरित्रों के आपसी संबंध कैसे देखना चाहती हैं। परंपरागत सास बहू के या इस तरह के जो एक स्त्री होकर स्त्री की पीड़ा और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अत्याचारों को निरपेक्ष दृष्टि से देख समझ सकती हैं और बहु सास के संबंध को एक दोस्ती के बराबरी के संबंघ में पेश कर सकती हैं।
शाल्मली का अनुभव उसे पुरुष को व्याख्यायित करने को विवश करता है और वह उसकी सीमाओं की ओर संकेत करते हुए सरोज से कहती है - ‘‘कभी-कभी मुझे लगता है कि मर्द एक ताकतवर घोड़े के समान है, जो दौड़ना जानता है, मगर उसकी आँखों पर पड़ी पट्टी उसे केवल उतना ही छोटा सा रास्ता दिखाती है, जिस पर उसे दौड़ना होता है। मानवीय संबंधों की सूक्ष्मता, व्यापकता, विस्तार का इन्हें जरा भी ज्ञान नहीं और ये भावनाएँ और संवेदनायें बल के जोर पर नहीं आती।’’25

शाल्मली की स्वतंत्र सोच उसे अपनी स्थिति का मूल्यांकन करने पर विवश करती है -‘‘मैं दूसरी औरत बनने की प्रताड़ना से घबराकर पहली औरत बनी थी, मगर धर्म-पत्नी बनकर इतना तिरस्कार, इतना अपमान, इतनी घृणा, इतना अंकुश....! यह अनुभव, यह कड़वापन मैने कभी झेलना नहीं चाहा था। इसी प्रताड़ना के भय से मैं सब कुछ पीछे छोड़ आयी थी कि समाज में सर उठाकर जिऊँगी। सर झुकाना मैंने कभी नहीं स्वीकारा था। समाज के नियम को अपनाकर और उसकी मर्यादा का पालन करके मुझे क्या मिला है? न मान, न सम्मान्।’’२६

स्त्री का भाग्य पुरुष के कर्मों कुकर्मों के साथ बंधा है, यह पाठ स्त्री को उसकी माँ सदियों से सिखा रही है। शाल्मली भी जब अपनी माँ से सब कुछ कह देती है तो उसकी मां भी यही कहती है कि यही तेरा भाग्य है - ‘‘ यही तेरा भाग्य था, शालू। इसे ही संवार, बेटी, रीति-रिवाज से कटकर कौन जी पाता है, पगली! अपना और दूसरों का हिस्सा भी भोगना ही औरत का भाग्य है, तू उससे अलग कहाँ है?’’२७

इस पर शाल्मली को गुस्सा आता है और वह स्त्री के इस भाग्य को नियति मानकर अपना लेने वाली नहीं है। पितृसत्ता द्वारा तय किया गया यह भाग्य प्राकृतिक नहीं है, व्यवस्थाजन्य है जिसे स्वीकार करना न करना स्त्री के अपने ऊपर निर्भर करता है। तभी तो शाल्मली कहती है कि हर इंसान को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी चाहिए। दूसरों की सहायता मांगने की कमजोरी उसे नहीं दिखानी चाहिए।

‘‘हर इंसान अपनी लड़ाई लड़ता है। अपनी नाव पार लगाता है, फिर दूसरों से पतवार मांगने की उसे क्या जरूरत है, जबकि कोई भी दूसरों की नाव को न खेना जानते हैं, न उन्हें उनके लक्ष्य का ही पता होता है। यह सब सोचकर उसने अपने और नरेश के चारों ओर एक लक्ष्मण रेखा खींच ली थी। न किसी को अन्दर आना है, न किसी को बाहर जाना है।’’२८ पितृसत्तात्मक सोच कहाँ तक गिर सकती है इसका विश्लेषण करते हुए नासिरा जी लिखती हैं - ‘‘उसका (नरेश) का मुगालता बीमारी की हद तक बढ़ता जा रहा था कि वह शाल्मली को पूरी तरह अपने कब्जे में रखे हुए है। वह उसकी पत्नी है, उसकी आज्ञा के बिना वह सांस भी नहीं ले सकती है। वह अपने सारे मित्रों, परिचित लोगों को बता देगा कि शाल्मली की कमाई पर जिन्दा नहीं है। वह उसके पद से लाभ नहीं उठाता है, बल्कि शाल्मली उसकी दी स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाती गुलछर्रे उड़ा रही है।’’२९








नरेश की इस मानसिकता के कारण शाल्मली को लगता जैसे-‘‘जीवन की सारी मात्रायें गलत लग गईं हैं।’’३०

और दूसरी ओर पितृसत्तात्मक सोच से सराबोर नरेश के संवाद देखिए और शाल्मली की उस पर प्रतिक्रिया -
‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी, शाल्मली। नरेश ने निर्णय दिया।
‘‘क्यों भला?’’ शाल्मली चौंकी।
‘‘मैंने जो कह दिया, उसका पालन तुमको करना है, बस।’’ नरेश कठोर स्वर में बोला।
‘‘यह नौकरी है। बिना कारण दिए मैं घर थोड़े ही बैठ सकती हूँ।’’ शाल्मली ने बड़ी सहिष्णुता से कहा
‘‘कारण-वारण कुछ नहीं, कह देना मेरा पति पसंद नहीं करता इस तरह मेरा टूर पर जाना, समझीं! घर अलग उपेक्षित पड़ा रहता है। नरेश ने चिढ़कर कहा
‘‘सभी औरतें यदि इसप्रकार की अर्जी देने लगें, तो हो चुका काम। यह पति की नहीं, सरकारी की नौकरी है, उसके प्रति कर्तव्य की अवहेलना...।’’
‘‘तो तुम बड़ी सरलता से मेरी अवहेलना कर सकती हो। मैं इस घर की सबसे उपेक्षित वस्तु हूँ।’’568 

स्त्री का स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार पितृसत्ता बिल्कुल सहन नहीं कर पाती। तभी तो नरेश कहता है कि - ‘‘तुम अपने बारे में निर्णय लेने वाली कौन हो? मेरी इच्छा के बिना न अब तुम अपने घर जा सकती न इस शहर से बाहर।’’३१(ठीक यही बात छिन्नमस्ता का नरेन्द्र प्रिया से कहता है)

शाल्मली को सार्क सम्मेलन में भाग लेने के लिए विदेश जाना है और नरेश अपना पति होने का अहं पूरा कर रहा है। पत्नी का अपमान और तिरस्कार।
इसके बाद जब बिस्तर पर नरेश शाल्मली के प्रति अपना पतिपन दिखाना चाहता है तो शाल्मली इसका विरोध करती है। (प्रिया भी इसी तरह विरोध करती है) ‘‘नरेश के स्पर्श से घिन-सी आ रही थी।’’३२

इसके बाद नरेश फिर अपना अधिकार जताने की कोशिश करता है और कहता है -‘‘मुझे यहाँ भी अपना अधिकार लेना आता है। प्रेम से या बल से, जिस तरह मैं चाहूँगा। तुम्हारा रूठना, तुम्हारा अकड़ना व्यर्थ है।’’३३  तब शाल्मली ने कहा ‘‘छोड़ो!’’ शाल्मली कसमसाई और फिसलकर बिस्तर से उठने लगी।’’३४ इस पर नरेश अपनी घिनौनी मानसिकता को उजागर करता हुआ कहता है, जो कि पितृसत्ता की स्त्री के प्रति रचित मानसिकता है, - ‘‘तुम जानना चाहोगी पुरुष की दृष्टि में औरत क्या है? भोगने की वस्तु ... वही उसकी पहचान है। इसलिए तुम औरत की तरह रहो, इसी में तुम्हारा उद्धार है और इस घर का कल्याण और गृहस्थी का सुख।’’

पितृसत्तात्मक इस मानसिकता के प्रति शाल्मली की प्रतिक्रिया इस तरह है - ‘‘शाल्मली को नरेश का स्वर सस्ता, बेहद सस्ता लगा। महसूस हुआ, किसी ने उसके सारे बदन में आग लगा दी हो। क्रोध का गर्म लावा उसकी शिराओं में उफनने लगा। किसी जंगली बिल्ली की तरह वह पलटी और अपने नाखूनों और दांतों से नरेश को नोच डाला और इससे पहले कि नरेश संभलता, वह उसे धक्का देती हूई उछली और लपककर बाथरूम में घुसकर अपने को अंदर से बंद कर लिया।.......पहली बार शाल्मली ने अपना विवेक खोया था।’’३५ जब वह बाथरूम से बाहर निकलती है और नरेश उससे कहता है कि मैं तो मजाक कर रहा था, और उसे छूने की कोशिश करता है तो वह कहती है ‘‘मुझे हाथ मत लगाना, नरेश!’’३६ यह उसका इंकार करने का साहस उसे अलग व्यक्तित्व देता है, एक मानवीय इकाई के रूप में उसकी पहचान बनाता है।

वह अपने जीवन के बारे में सोचती है - ‘‘यह भी कोई जीवन है? बार-बार मरघट तक ले जाने और जीवित जल जाने से पहले जलती चिता से खींच कर उतारने का यह क्रम, बलपूर्वक जीवन दान देने की यह हठ...न पूरी तरह मरने दिया जाता है, न पूरी तरह जीने दिया जाता है। कभी-कभी जीवन और मृत्यु में कितना कम फर्क रह जाता है! आज उसे महसूस हो रहा है कि जैसे वह स्वयं एक श्मशान घाट है, जहाँ पर उसके विचारों और भावनाओं का हर पल दाह संस्कार होता रहता है।’’३७

यह पितृसत्तातमक व्यवस्था द्वार निर्मित श्मशान घाट है जिसे औरत हर पल महसूस करती है, यदि वह थोड़ी भी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और सोच रखने वाली है, अपना अस्तित्व अलग महसूस करने वाली है तो।
शाल्मली की भावनाओं और कार्यों की कोई कद्र या सम्मान नरेश के मन में नहीं है और यही चीज उसे बार-बार आहत करती है। ‘‘शाल्मली का विश्वास जैसे संबंधों के नाम से उठने लगा है। संबंध और भावना दो कितनी अलग वस्तुएँ हैं! जहाँ भावनायें अपने में स्वतंत्र, निश्छल और निसर्ग होती हैं, वहीं उन पर खड़े किए गए संबंध जब अपना आकार लेने लगते हैं, तो इनमें कितनी घुटन, छल और समझौते का अहसास जागता है!’’३८

       जीवन का विखराव - ‘‘शाल्मली के जीवन रूपी तानपुरे के सारे तार ढीले होकर अजीब बेसुरे हो गए थे। सुरीली तान का सपना टूट गया था। जीवन की लय का विस्तार बिखर गया था। गुनगनाने के लिए विश्वास की कोई धुन उसे याद न आती। जब कभी इस अंधी मूकता से घबराकर ‘इन ढीले तारों को कसने की कोशिश में अपने ‘मैं’ को खोजती तो नरेश सामने आन खड़ा हो जाता और ‘मै’ फौरन ‘हम’ में बदल जाता और ‘हम’ के संग जब वह तारों की तरफ हाथ बढ़ाती, तो अकेले अपने हाथ देखकर नरेश का स्थान खाली पाती और तब आधी अधूरी ‘मैं’ के साथ उसके खो गए आधे अंग को खोजती अकेली बैठी रह जाती शाल्मली।’’३९

नरेश दूसरी औरतों से संबंध रखने लगा और जब शाल्मली घर पर न होती तो वह उन्हें घर भी लाने लगा। इस बात को शाल्मली सहन नहीं कर पाती और इसमें स्त्री के सम्मान की मर्यादा को बिखरते देखती है। वह नरेश से इस विषय पर बात करती है। घर पर अधिकार की बात करती है और घर की मर्यादा को बनाए रखना दोनों की जिम्मेदारी है। नरेश नियम और कानूनों का सिर्फ औरतों के लिए बनाया गया मानता है और कहता है कि -‘‘नियम और धर्म केवल कागज पर लिखने के लिए होते हैं या फिर तुम औरतों के लिए बनाए जाते हैं। इनसे हटकर एक और कानून होता है , जो हम मर्दों के बीच प्रचलित होता है। उसका अपना संविधान, अपना नियम, अपना धर्म होता है।’’४०

और इस कानून को सम्पूर्ण मर्द समाज की आवाज बताता है - ‘‘यह पूरे मर्द समाज की आवाज है।’’४१
नरेश शालमली से बदला लेने के लिए दूसरी औरतों के पास जाता है। जब शाल्मली यह कहती है कि तुम्हें औरत का अपमान करके कौन सा सुख मिलता है? तो वह कहता है कि ‘‘वही जो तुम लोगों को हमारी बराबरी करने में मिलता है, सो हम तुम लोगों को आमने सामने करके बराबरी का स्थान दे देते हैं और बराबरी का व्यवहार करते हैं।’’४२ इस पर जब शाल्मली कहती है कि -

‘‘यदि यही मैं करूं, तो कैसा लगेगा तुम्हें?’’
मुझे? करके देखो गोली से उड़ा दूंगा।’’
यदि यही मैं करके दिखा दूँ तो?’’   
‘‘बन्दूक उठा लोगी, मगर गोली नहीं चला पाओगी, तुम लोगों के लिए शब्द ‘सुहाग’ स्वयं में तुम्हारा कारागार है, जिसे चाह कर भी तुम लोग स्वतंत्र नहीं हो सकती हो।’’४३

इसके बाद जब शाल्मली दोनों में एक को चुनने को कहती है और अपनी तरफ से उसे स्वतंत्र करती है। इस तरह शालमली ने आज पितृसत्ता को उसकी ही भाषा में उसे जबाव दिया और वही कहा जा एक पुरुष सदियों से स्त्री को कहता आ रहा है।

इस विच्छेद के बाद शाल्मली स्वयं को अकेली रहने के लिए तैयार करती है और कहती है - ‘‘मैं टूटूंगी नहीं। नरेश के बिना में रह लूँगीं कितनी औरतें अकेली रहती हैं! क्या वे जीना भूल जाती हैं? तब शायद वे अपने को अधिक खोजती हों? नरेश कुछ नहीं बोलता, ठीक है। मैंने भी फैसला कर लिया है कि शेष जीवन अकेले रहकर गुजारूंगी। पुरुष तक पहुँचना मेरा लक्ष्य नहीं था, मगर उसकी महत्ता से मुझे इनकार भी नहीं। वह औरत का पूरक होता है, उसके जीवन में रंग भरता है और फिर मेरी जैसी औरत, जिसकी संवदेना पूर्ण रूप से मुखरित हो, वह पुरुष का साथ क्यों छोड़ेगी, मगर जब पुरुष एक मित्र, एक मनुष्य एक जीवन साथी की तरह न मिले, तो उसमें इतना साहस है कि वह इस संबंध की महिमा से इनकार कर दे भले ही उसकी याद में सारा जीवन बिता दे। उसकी उपस्थिति कतई जरूरी नहीं है, मगर सम्मान के दांव पर नारीत्व की बाजी हरगिज नहीं लगा सकती हैं चाहे सारा जीवन निपट अकेले ही क्यों न काटना पड़े।’’४४

पितृसत्तात्मक व्यवस्था और उसमें पुरुष-स्त्री की स्थिति  और संबंधों के संबंध में यह एक संतुलित विश्लेषण है। दोनों की समान आवश्यकता है तो दोनों को बराबर का सम्मान और पहचान क्यों नहीं? क्यों एक को बहुत से विशेषाधिकार मिलें और दूसरे को जीवन के सामान्य अधिकार भी प्राप्त न हों? अपना वजूद और सम्मान को नारीत्व के सामान्य गौरव को दांव पर लगा कर पुरुष के साथ की आवश्यकता को स्त्रियों को नकारना होगा, तभी वे सही अर्थों में अपने गौरव और गरिमा की रक्षा कर सकेंगी। यह स्त्री विमर्श का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए।

शाल्मली के अन्दर निरंतर इस बात का द्वंद्व चलता है कि उसे अकेले रहने का फैसला करना चाहिए या नहीं? इसके क्या परिणाम होंगे? कैसे समाज उसके साथ व्यवहार करेगा? क्योंकि वह जानती है कि अभी समाज इस संदर्भ में हमेशा ही औरत पर ऊँगली उठाता है, गलती चाहे जिसकी हो। वह कैसे समाज का यह बताएगी की उसकी लाख कोशिशों के बावजूद नरेश ने इस तरह की स्थितियाँ पैदा कर दीं की उसे अलग रहने का निर्णय लेना पड़ा। उसके अंदर मुक्ति की आकांक्षा छटपटा रही है, परन्तु परिवेश और परंपरागत सामाजिक सोच और मूल्य उसे आने वाले खतरों के प्रति भी सचेत कर रहे हैं।

‘‘इस जल घर में बैठी वह नाव बनाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करते-करते रुक जाती और स्वयं से पूछती, घर के बाहर अपने कार्यक्षेत्र में सम्मान पाने वाली औरत का घर में कितना अनादर होता है, यह किसी से छिपा है क्या? तो भी इस उत्पीड़न से कैसे बचा जा सकता है? अहेर न बन सके इसके लिए कोई मुक्ति मार्ग...? मुक्ति........!मुक्ति......!! संबंध विच्छेद, तलाक और एक नितांत अकेला जीवन पूर्ण स्वावलम्बी बनकर....।’’४५

समाज की स्त्री के संबंध में जो सोच है वह स्त्री को कठोर कदम उठाने से रोकती है। समाज हमेशा ही पुरुष के पक्ष में खड़ा होता है और स्त्री पर लांछन लगाने में पीछे नहीं हटता, उसे स्वीकारने में समाज को हमेशा संकोच होता रहा है। यही कारण है कि लाखों स्त्रियाँ पुरुषों के अत्याचारों और अपमानों का निरंतर सहती रहती हैं। उनके खिलाफ घर में ही आवाज नहीं उठाती तो घर से बाहर तो लाने का प्रश्न अपवाद ही हो सकता है। शाल्मली भी इस परिवेशगत परिस्थिति के प्रति सचेत है और इस पर बहुत सोचती भी है - ‘‘अपने स्वाभिमान की रक्षा में उठाया उसका ठोस कदम समाज में, सराहा जाएगा या उसकी दृष्टि में वह अभिशप्त बना दी जायेगी? आरोपों, लांछनों, व्यंगों से बिंधा उसका व्यक्तित्व, उसकी अपनी यातना का प्रमाण पत्र होगा या पति द्वारा ठुकराई एक व्यभिचारिणी का?’’४७

इस स्थिति में वह क्या करेगी? इस पर भी विचार करती है? - ‘‘यदि समाज भी आदर नहीं दे पायेगा, तो वह संभाल पाएगी अपने इस खुले आधुनिक संतुलित विचारों पर आधारित अपने व्यक्तित्व को, जिसे लेकर उसे देश विदेश में घूमना है, घर में बैठकर अपने भाग्य पर रोना नहीं है। इस तरह के व्यक्तित्व की औरत को तलाकशुदा जानकर लोगों के व्यवहार में हल्कापन नहीं आयेगा? अपने पीछे फैलती अफवाहों और मूँह पर छीटाकशी को वह सहन कर पाएगी? किस किस को पकड़कर बताएगी कि नटनी की तरह पैर साधकर पत्ली रस्सी पर चलने वाली औरत के मन मस्तिष्क पर पड़े असंख्य घाव उसे इस निर्णय तक लाए हैं। उसके अंदर झांककर देखो, वह इतनी ऊँचाई पर चलती अपने अन्दर किस संतुलन को बांधे हुए है।’’४८

पितृसत्तात्मक समाज  (एक जमीन अपनी में भी यही संदर्भ है) शोषित पीड़ित स्त्री के दुख को सहानुभूति पूर्वक देख सकता है, परन्तु जब वही स्त्री उस दुख को स्वीकारने से इंकार कर दे तो वही समाज उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है।
‘‘यातना झेलती औरत सबके आकर्षण और सम्मान (सहानुभूति) का केन्द्र होती है, मगर वह उसको सहने से इंकार कर दे, तो सारी हमदर्दी घृणा और अपमान में बदल जाती है। कैसी बिडंबना है? सत्य की खोज और सत्य को खरीदकर अपने तालों में बन्द रखने वाले ये लोग! क्या कहें इन्हें? एक साथ कई धरातलों पर खड़े होकर रोज नई लड़ाइयों के द्वार तो नहीं खोल सकती हैं, परन्तु अपनी स्थिति समझौते और प्रताड़ना से बचाकर कैसे अपने लक्ष्य को पहुँचे, इसके लिए उसे अपने जीवन को अधिक व्यवस्थित और विचारों को अधिक गूढ़ बनाना होगा।’४९ 

पितृसत्ता एक जीती जागती और सचेत स्त्री को स्वीकार नहीं करता। उसे चाहिए चाबी वाली गुडिया। शाल्मली स्वयं को चाबी वाली गुड़िया बनने से इंकार करती है। ‘‘कभी शाल्मली टाल जाती, कभी चिढ़कर सोचती, बाहर मैं एक सुशिक्षित, चतुर-चुस्त जीवन संगिनी बनूं, मगर घर में केवल एक गूंगी पत्नी जो गूंगी तो हो साथ-ही-साथ समय पड़ने  पर अन्धी और बहरी भी बन सकती हो। नरेश को मुझ जैसी औरत फिर क्यों पसन्द आई थी? ले आता कोई सजी-सजायी रबर की गुड़िया को, जो पेट दबाते ही बोलती और चाबी देते ही चलती। हाथ और गर्दन अपनी इच्छा से ऊपर-नीचे दाएं-बाएं करके विभिन्न मुद्राओं में उसे घर के एक कोने में सजा देता। एक जीवित जागरूक, संवदेनशील औरत तो हवा के चलने से भी बज उठती है। वह चाहने पर भी गूंगी, अन्धी, बहरी नहीं बन सकती।’’५०

स्त्री की मुक्ति की अवधारणा समाज की मुक्त सोच और विचारधारा से जुड़ी है। जब तक समाज की विचारधारा में परिवर्तन नहीं होगा तब तक समाज स्त्री के संबंध में वही दकियानूसी सोच रखेगा तो मुक्त सोच की स्वतंत्र स्त्री कहाँ जायेगी रहने? उसे एक अलग परिवेश और माहौल की आवश्यकता है जिसमें शाल्मली, महरूख, स्मिता, नीरजा, असीमा, प्रिया, अंकिता, जैसी स्त्रियाँ रह सकें। आज की आधुनिक और स्वंतत्र व्यक्तित्व, स्वतंत्र सोच और निर्णय लेने वाली स्त्रियों की बिडंवना यही है कि उसे इसी समाज में रहना है जो परंपरागत विचारधारा वाला है। यह स्थिति स्त्री को स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने देती और उन्हें समझौता करने को विवश होना पड़ता है। शाल्मली भी तलाक का निर्णय नहीं ले पाती तो उसके पीछे समाज का परिवेश उत्तरदायी है, न कि उसकी कमजोरी। जैसा कि राजेन्द्र यादव ने आरोप लगाया है कि नासिरा जी के स्त्री चरित्र अन्ततः पुरुष का आश्रय पाने के लिए ही वापस भागते हैं।

शाल्मली नरेश के साथ अपने संबंध को मानवीय आधार पर बने रहने के लिए तैयार है और दोनों अपनी अपनी स्वतंत्र इकाई के साथ, अपने गौरव और गरिमा की रक्षा करते हुए बिना किसी औपचारिक संबंध के भी साथ रह सकते हैं? यदि ऐसा है तो मानवीय इतिहास में यह एक नया कदम होगा।

‘‘मैं उस घेरे से बाहर आ गई हूँ और अब मुझे लगता है कि मुझे समस्या का समाधान और संबंधों की कसौटी की चिन्ता नहीं है, बल्कि अपनी इकाई के साथ स्वयं मनुष्य बने रहने और नरेश के मनुष्य बने रहने में सहायता देना ही मेरा प्रथम कर्तव्य है और यह मेरी दृष्टि में मानव प्रगति में एक महत्वपूर्ण अध्याय होगा, जो आने वाले लोगों को, मनुष्य के जुड़े रहने की संभावना को अधिक सार्थक बनाएगा।’’५१

स्त्री की विचित्र स्थिति के संदर्भ में शाल्मली का चिंतन एकदम नया है। वह एक नये रास्ते की नई दिशा की तलाश करती है? यदि इस दिशा में चला जा सके तो स्त्री मुक्ति की अवधारणा को नए आयाम मिल सकते हैं - ‘‘औरत के पास दो ही अभिव्यक्तियाँ हैं या सर झुका लेना या समस्या को अधूरा छोड़, सर कटा लेना। मेरा विश्वास न घर छोड़ने पर है, न तोड़ने पर न आत्महत्या पर है, न अपने को किसी एक के लिए स्वाहा करने में है। मैं तो घर के साथ औरत के अधिकार की कल्पना करती हूँ और विश्वास भी। अधिकार पाना यानि ‘घर  निकाला’ नहीं और घर बना रहने का अर्थ ‘सम्मान’ को कुचल फेंकना नहीं। यह जो हमारे मन-मस्तिष्क में अति का भूत सवार हो गया है, वही जीवन के लिए विष समान है।’’५२

शाल्मली स्त्री विमर्श के इस पहलू को भी प्रश्नांकित करती है कि पितृसत्तातमक समाज से मुक्ति का रास्ता स्त्रियों का अविवाहित रहना है। वह सरोज से पूछती है कि -‘‘क्या  तुम अविवाहित रहकर पुरुषों के समाज, उनके नाम और आकार से पूर्ण रूप से मुक्त हो गई हो?’’५३

वास्तव में अविवाहित रहना समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि यह सच है कि उसके बाद भी स्त्री पुरुष के अन्य रूपों से घिरी होती है। जिसमें प्रेमी, पिता, भाई, दोस्त इत्यादि। किसी न किसी रूप में वह पुरुष के संरक्षकत्व में रहती है। समस्या पति या प्रेमी में से एक के चुनाव की नहीं है। समस्या है पुरुषों के साथ संबंध के आधार की, पुरुष के उस दृष्टिकोण की जिसके तहत वह स्त्री से संबंध बनाता है। इसी लिए शाल्मली एक प्रति समाज की कल्पना को प्रस्तुत करती है - ‘‘तुम्हारे सामने समस्या केवल पति से निपटने और उससे मुक्त होने की है, मगर मेरी नजर में सही नारी मुक्ति और स्वतंत्रता समाज की सोच और स्त्री की स्थिति बदलने में है। बाहर निकलो या घर में रहो, हर स्थान पर पुरुष तुम से टकरायेगा। चाहे वह सब्जीवाला हो या तुम्हारा बॉस अखबार वाला हो या तुम्हारा पति। संक्षेप में होगा वह पुरुष ही। पति से मुक्ति पाकर क्या इनसे भी मुक्ति पा लोगी? या सबको नकारती जाओगी?’’ ५४

शाल्मली स्वावलंबन का अर्थ भी नए सिरे से व्याख्यायित करती है - ‘‘मेरी दृष्टि में स्वावलंबी होने का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वह परिवार को तोड़ डाले और उन सारी भावनाओं से मुकर जाये, जो उसकी पहचान ही नहीं जरूरत भी हैं। यह सही है कि रोटी पहली और सेक्स दूसरी जरूरत है इन्सान की, जिससे मुकरना मुश्किल है। यह भी है कि सहज और सुन्दर प्रेम की अभिव्यक्ति मर्द के साथ ही औरत कर सकती है, मगर प्रश्न तो सामने उससे भी जटिल है कि आज की औरत भूख लगने पर किसी भी तरह की रोटी आंख बंद करके खा ले या केवल वासनापूर्ति के लिए वह किसी के सामने घुटने टेक दे, असम्भव है। जहाँ उसकी स्थिति बदली है, वहीं उसकी रुचि और अरुचि भी बढ़ी है। अब वह अपनी पसंद की नौकरी और जीवन साथी चाहती है। अपने पेशे और प्रेमी का स्वयं चयन करना चाहती है, क्योंकि आज उसकी मानसिक अवाश्यकता भी रोटी और सेक्स की तरह महत्वपूर्ण हो गई है, क्योकि पहली दो चीजें अब उन्हें प्राप्त हो गई हैं और वह किसी हद तक स्वतंत्र भी हो गई हैं।’५५

 इस तरह शाल्मली मानवीय संबंधों को बनाए रखने के लिए संघर्षरत है परन्तु स्त्री की पहचान और उसकी दैहिक गरिमा के साथ।


डॉ संजीव जैन 


    डॉ. संजीव कुमार जैन
    सहायक प्राध्यापक हिन्दी
    शासकीय महाविद्यालय, गुलाबगंज
    विदिशा म.प्र.




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1. शाल्मली, नासिरा शर्मा, पृ. 09
2. वही, पृ. 171
3. वही, पृ. 171
4. वही, पृ. 10
5. वही, पृ. 11 
6 वही, पृ. 11
7. वही, पृ. 12
8. वही, पृ. 14
9. वही, पृ. 14
10 वही, पृ. 20
11. वही, पृ. 23
12 वही, पृ. 25
13. वही, पृ. 26
14. वही, पृ.26
15. वही, पृ. 40
16. वही, पृ. 10
17. वही, पृ. 47
18.. वही, पृ. 74
19. वही, पृ. 74
20. वही, पृ. 74
21. वही, पृ. 74
22. वही, पृ. 74
23. वही, पृ. 75
24. वही, पृ. 94
25 वही, पृ. 102
26. वही, पृ.112
27 वही, पृ. 121
28. वही, पृ. 121
29. वही, पृ. 125
30. वही, पृ. 125
31. वही, पृ. 126-127
32. वही, पृ. 127
33. वही, पृ. 128 
34. वही, पृ. 128
35. वही, पृ. 128 
36. वही, पृ. 128-129
37 वही, पृ. 129 
38. वही,पृ. 130
39. वही, पृ. 134
40. वही,पृ. 142
41. वही, पृ. 144
42. वही, पृ. 145
43. वही, पृ. 145
44. वही, पृ. 145
45. वही, पृ. 146-147
46. वही, पृ. 149
47. वही, पृ. 149
48. वही, पृ. 150
49. वही, पृ. 150
50 वही, पृ. 152-153
51. वही, पृ. 164
52. वही, पृ. 164
53.वही, पृ. 165
54. वही,, पृ. 166
55. वही, पृ. 166

                 संजीव जैन



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