Saturday, April 29, 2017

कविता की अनेक व्याख्यायें हैं, पर कई बार ऐसा होता है कविता पढ़कर हम कहने लगते हैं कि यह होना चाहिए कविता में, और कई बार हम सिर्फ वहां पहुंच जाते हैं जहां कविता ले जाती है, तब हमें ऐसा जरूरी नहीं लगता कि हम शब्दों से कविता को भी समझें या समझायें, वहां केवल संवेदना ही सफर करती है जो ह्रदय से ह्रदय तक का होता है, 
आज साहित्य की बात समूह में ऐसा ही हुआ, विस्थापन और विस्थापित का एक  दृश्य कविता के बहाने नजरों के सामने आता गया और पाठक बार बार डूबते रहे एक दुख भरी स्मृति में. जब प्रदीप मिश्र की हरसूद पर केंद्रित कविताएँ प्रस्तुत कीं गईं |
प्रस्तुत है साकीबा की समूची चर्चा. 
ब्रज श्रीवास्तव.
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प्रदीप मिश्र

जीवन वृत्त

जन्म - १ मार्च १९७०, गोरखपुर, उ. प्र. । विद्युत अभियन्त्रण में उपाधि, हिन्दी तथा ज्योतिर्विज्ञान में स्नात्कोत्तर। साहित्यिक पत्रिका भोर सृजन संवाद का अरूण आदित्य के साथ संपादन। कविता संग्रह “फिर कभी” (1995) तथा “उम्मीद” (2015), वैज्ञानिक उपन्यास “अन्तरिक्ष नगर” (2001) तथा बाल उपन्यास “मुट्ठी में किस्मत” (2009) प्रकाशित। साहित्यिक पत्रिकाओं, सामाचारपत्रों, आकाशवाणी, ज्ञानवाणी और दूरदर्शन से रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण । म.प्र साहित्य अकादमी का जहूर बक्स पुरस्कार, श्यामव्यास सम्मान, मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार 2016 तथा कुछ अन्य सम्मान । अखबारों में पत्रकारिता । फिलहाल परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केन्द्र, इन्दौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत। 

संपर्क -  प्रदीप मिश्र, दिव्याँश ७२ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, डाक : सुदामानगर,  इन्दौर - ४५२००९, म.प्र.।

मो.न. : +९१९४२५३१४१२६, दूरभाष : ०९१-७३१-२४८५३२७, ईमेल – misra508@gmail.com.   

                     
डूबते हुए हरसूद पर पाँच कविताएं
( हरसूद म.प्र. का एक गाँव है, जहाँ के निवासियों को बाँध निर्माण के कारण विस्थापित कर दिया गया। )

एक - घर
जब भी कोई जाता
लम्बी यात्रा पर
घर उदास रहता
उसके लौटने तक

जब भी उठती घर से
बेटियों की डोली
वह घर की औरतों से
ज़्यादा विफरकर रोता

जब भी जन्मते घर में बच्चे
गर्व से फैलकर
अपने अन्दर ज़गह बनाता
उनके लिए भी
उत्सवों और सुअवसरों पर
इतना प्रसन्न होता कि
उसके साथ टोले-मुहल्ले भी
प्रसन्न हो जाते

इसी घर पर
आज बरस रहे हैं हथौड़े
वह मुँह भींचे पड़ा हुआ है
न आह, न कराह
चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर

घर विस्थापित हो रहा है।


दो - छूटा हुआ जूता
सुनसान सडक़ पर छूटा हुआ है
एक पैर का जूता
उसे इन्तज़ार है
हमसफ़र पाँव का
जिसके साथ
टहलने जाना चाहता है
पान की दूक़ान तक

एक किनारे औंधा पड़ा हुक्का
सुगबुगा रहा है
कोई आकर उसे गुडग़ुड़ाए
तो वह फिर जी जाएगा
भर देगा रग-रग में तरंग

ठण्डा पड़ा चुल्हा
खेतों में खटकर लौटी भूख
को देखकर जल उठेगा
लपलपाते हुए

खूँटी पर टँगा हुआ बस्ता
अपने अन्दर की स्याही से
नीला पड़ रहा है
उसे लटकने के लिए
नाज़ुक कन्धा मिल जाए तो
उसे बना देगा कर्णधार

उजड़ती हुई खिड़कियों के झरोखों
और दरवाज़ों की ओट में पल्लवित प्रेम
विस्थापित हो रहा है
अभी भी मिल जाऐं आतुर निगाहें तो
वे फिर रच देंगे हीर-राँझां

नीम की छाँव में
धूप के चिलकों का आकार बढ़ता जा रहा है

खेतों के गर्भ में
बहुत सारी उर्वरा खदबदा रही है

आखिरी तारिख़ का ऐलान हो चुका है
एक दिन इन सब पर
फिर जाएगा पानी

इस पानी से बनेगी बिज़ली
जो दौड़ेगी
नगर-नगर, गाँव-गाँव
चारो तरफ विकास ही विकास होगा

एक दिन विकसित समाज में 
कोई दबाएगा बिज़ली का खटका तो
उसकी बत्ती से रोशनी की जगह
विस्थापितों के जूते बरसेंगे
जो पुलिस के डंडे की डर
से छुट गए थे सड़क पर

कोई टेबल लैम्प ज़लाएगा
पढ़ने के लिए
उसके सामने फ़ैल जाएगी
बस्ते की स्याही
जो खूँटी पर टँगा छूट गया था

कोई कम्प्यूटर का खटका दबाएगा
तो उसके कम्प्युटर के स्क्रीन पर
उभरेगा मरणासन्न हुक्का
पूछेगा कहाँ गए वो लोग
जो मुझे गुडग़ुड़ाते थे

कोई हीटर का खटका दबाएगा
चाय बनाने के लिए
तो हीटर पर रखी केतली में
उन चूल्हों के ख़ूनभरे आँसू उबलेंगे
जिनकी आग पानी में डूब गयी

खेतों के गर्भ में खदबदाने के लिए
कुछ भी नहीं बचेगा
सड़ रही होंगी जड़ें

फिर दबाते रहिए बिज़ली के खटके
गाड़ते जाएं विकास के झण्डे
वहाँ कुछ नहीं बचेगा
जीवन जैसा ।


तीन - डूबता पीपल, तिरती स्लेट
बढ़ रहा है नदी में पानी
चढ़ रहा है गाँव पर

कसमसा रहे है खेत
वर्षों पैदा किया अनाज
अब जम जाएगी उन पर काई

या उनके अंदर बची हुई जड़ें
सडक़र बदबू फैलाएंगी
हो जाएगा जीना मुहाल
मर जाऐंगे खेत
चिल्ला रहे हैं
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई

आधा डूब चुका है बूढ़ा पीपल
और पानी चढ़ रहा है लगातार
वह डूबते हुए आदमी की तरह
अपनी टहनियों को ऊपर उठाए
चिल्ला रहा है
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई

अभी मेरे जि़म्में बहुत सारी मन्नतें हैं
जिनको पूरा करना है
अपनी छाया में खेलते-कूदते बच्चों को
जवान होते देखना है
बहुत सारे तीज-त्यौहारों में शामिल होना है

एक घर जो बचा रह गया था
सरकारी बुल्डोजरों और हथौड़ों से
न रो रहा है
न बचाव के लिए चिल्ला रहा है

खुद के आँसुओं से
गल रहीं हैं उसकी दीवारें

चढ़ रहा है नदी का पानी
घर जल समाधि लगा रहा है

देखते ही दखते डूब गया हरसूद
हाथियों नीचे पानी में
और पानी की सतह पर
एक स्लेट तैर रही है
जिसपर लिखा है क ख ग।


चार - डूब गया एक गाँव हरसूद
एक बार फैली थी महामारी
दखेते-देखते
पूरा गाँव खाली हो गया था

यहाँ तक कि जानवर भी नहीं बच पाए थे
महामारी के प्रकोप से

एक बार आया था
बहुत भयानक भूकम्प
धरती ऐसी काँपी थी कि
नेस्तनाबुत हो गया था पूरा गाँव

एक बार गाँव के बीचो-बीच
फूट पड़ा था ज्वालामुखी
जलकर राख हो गए थे
गाँव के बाग-बगीचे तक


एक बार आया था प्रलय
ऐसा महाप्रलय कि
उसमें समा गया था पूरा गाँव

इसबार न फैली महामारी
न भूकम्प से थरथरायी धरती
न ज्वालामुखी से उमड़ा आग का दरिया
न ही हुआ प्रलय का महाविनाशक ताण्डव
फिर भी डूब गया एक गाँव हरसूद

हरसूद डूब गया
अपनी सभ्यता-परम्परा और
जीवन की कलाओं के साथ।


पाँच - छूटी गीतों की डायरी, रंगोली के रंग
 पकिस्तान से विस्थापित होकर
मैं आया था अपने देश में
अपने देश में भी विस्थापित
होता रहा बार-बार
हर बार तोड़ी एक गृहस्थी
हर बार जोड़ी एक गृहस्थी

नयी गृहस्थी हमेशा ही पुराने से
कमतर ही रही
अब फिर अस्सी वर्ष की उम्र में
उज़ड़ रहा हूँ हरसूद से
अस्सी वर्ष की उम्र में
उज़डऩा बहुत आसान होता है
बसना नामुमक़िन

मुझे सरकार ने दिया है
बहुत सारा मुवावज़ा

मैं आजकल रूपये
ओढ़-बिछा रहा हूँ
ख़ूब चबा-चबाकर खा रहा हूँ
सौ-सौ के नोट
लेकिन कम्बख़्त भूख़ है कि मिटती नहीं
नोटों के गद्दे पर वो नींद नहीं आती
जो कर्ज़ में गले तक डूबे रहने के बाद भी
अपनी झोपड़ी के ज़मीन पर आती थी
मैं हरसूद से विस्थापित हो गया
मेरा जीवन वहीं छूट गया
डूबकर मरने के लिए

मेरी सुहाग की चूडिय़ाँ
लोक गीतों की डायरी
रंगोली के रंग
चौक पूरने का सामान
तुलसी का चौरा
सखी -सहेलियाँ
सबकुछ छूट गया हरसूद में
हरसूद डूब गया

अब मैं डूबने से बच गयी
या मैं भी डूब गयी
हरसूद के साथ
कौन बताएगा मुझे

मास्टरजी ने कहा था
विकास मनुष्य को बेहतर जीवन देता है
विषय पर लेख लिखने के लिए
मैंने बहुत अच्छा लेख लिखा है

लेकिन मेरी पाठशाला और मास्टरजी
दोनों छूट गए हरसूद में
अब मैं क्या करूँ इस लेख का।

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हरसूद की बुड़ान और कवि प्रदीप मिश्र की संवेदना

बचपन का वह दृश्य याद कीजिए जब आपने भोजन की तलाश में भटकती चीटियों की किसी पांत  को अचानक पानी के किसी रेले के बहाव में आकर बहते देखा होगा या उनके बिल में अचानक पानी भर जाने के कारण उन्हें इधर-उधर जान बचाते हुए भागते हुए देखा होगा । आपके मन में शायद ही यह विचार आया हो कि अगर  चीटियों की जगह मनुष्य होते तो क्या होता ? चीटियां मूक प्राणी है और उनकी औकात ही क्या है मर गईं तो मर गईं । लेकिन सोचिए सचमुच यदि ऐसा मनुष्य के साथ होता तो क्या होता ।

पिछले वर्षों में ऐसा हुआ । मध्यप्रदेश में नर्मदा के किनारे बसे एक गांव हरसूद के निवासियों के साथ ऐसा ही हुआ । यहां यह अवश्य हुआ कि वे  इंसान थे चीटीं नहीं इसलिए उन्हें  जान बचाने का मौका दिया गया लेकिन जान के अलावा उनका सब कुछ बांध के उस पानी में डूब गया । पानी भरने से डूब गए उनके मकान खेत खलिहान और उसके साथ डूब गईं उनकी स्मृतियां भी । 

स्मृतियाँ मनुष्य के मस्तिष्क में संग्रहित होती हैं लेकिन उनके आलंबन होते हैं उनसे जुड़े स्मृति चिन्ह । सबसे भयावह होता है स्मृतियों से जुड़ी चीजों का खत्म हो जाना । हम आज गांधीजी, नेहरू जी, बाबा साहेब आंबेडकर और बड़े-बड़े नेताओं से जुड़े स्मृति चिन्हों को बरकरार रखने के लिए संग्रहालय बना रहे हैं , और तो और काल्पनिक चरित्रों के लिए भी संग्रहालय बनाये जा रहे हैं लेकिन हरसूद के उन निवासियों की स्मृतियां जानबूझकर सदा सदा के लिए समाप्त कर दी गईं । उन का कसूर इतना सा था कि वे  अत्यंत साधारण इंसान थे ।

हरसूद के उन  निष्पाप , निरपराध,  सीधे-साधे निवासियों की इसी वेदना को प्रदीप मिश्र अपनी इन कविताओं में स्वर देते हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि वहां के निवासियों के जीवन के छोटे छोटे सुख-दुःख  के अवसरों , शादी ब्याह ,जन्म ,शिक्षा आदि से जुड़े स्मृतिचिन्ह इस डूब में डूब गए । प्रदीप इतने छोटे-छोटे बिम्बों के माध्यम से  डूबे हुए उस हरसूद  के चित्र रचते हैं जो कभी खुशहाल था आबाद  था ।

शायद आप उनको हरसूद वासियों का दर्द नहीं समझ सकते इसलिए कि खोया तो उन्होंने है लेकिन कविता यही काम करती है , यह आपको हरसूद के विस्थापितों की संवेदना से जोड़ती है।  उन चौराहों, खेतों-खलिहानों ,शिक्षा संस्थानों , बाज़ारों , पनघट, और चौपालों की सैर कराती है जो कभी आबाद थे । पीपल और नीम के उन पेड़ों को दिखलाती है जिन्हें छू कर हवाएं कभी आती थी जो हरसूद के निवासियों के लिए प्राण वायु थी । 

प्रदीप की इन कविताओं में हरसूद वासियों के लिए सिर्फ संवेदना मात्र नहीं है वह एक सटायर के साथ तत्कालीन व्यवस्था और उसकी विकास की समझ पर भी प्रहार करते हैं ।

फिर दबाते रहिए बिजली के खटके 
कुछ भी नहीं बचेगा 
सड़ रही होंगी जड़ें 

नीतियां वातानुकूलित भवनों में बनती है और जमीन से उनका कोई सरोकार नहीं होता । सुविधाएं मनुष्य के लिए जरूरी हैं  लेकिन किस कीमत पर ? यह सवाल भी वे अपनी कविताओं में खड़ा करते हैं ।
चढ़ रहा है नदी का पानी 
घर जलसमाधि लगा रहा है 

यह घर ईंट पत्थरों का घर है लेकिन इस घर से संवेदनाएं जुड़ी है इस में रहने वालों की । यह आपदाएं भूकंप और महामारी की तरह प्राकृतिक आपदाएं नहीं है बल्कि यह कुछ मनुष्यों की सोची समझी चाल है जो कुछ लोगों के जीवन को अपने स्वार्थ  के लिए बढ़ाना चाहते हैं यद्यपि यहाँ उनका उद्देश्य विकास है जो कि एक छद्म आवरण में है ।

प्रदीप इस बात के लिए आगाह करते हैं कि मनुष्य और उसकी विरासत को पैसों से नहीं तौला जा सकता है ।यह  जीवन एक बार ही मिलता है और उसका कोई मोल नहीं होता । हरसूद के परिदृश्य पर बहुत सारे लेख लिखे गए हैं , पुस्तिकाएं आई हैं , रपट प्रकाशित हुई है हमारे एक दिवंगत मित्र पूरन हार्डी ने एक कहानी भी लिखी थी 'बुडान' जो काफी चर्चित हुई . लेकिन कविता इन सबसे अलग काम करती है यह पाठक को उन सरकारी गैर सरकारी रपटों से अलग वहाँ के विस्थापितों की संवेदना से जोड़ती है । एक कवि ही होता है जो संवेदना के स्तर पर अत्याचार और शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है और अपने साथ तमाम लोगों को शामिल करता है ।हरसूद और उसकी स्थितियों से इन कविताओं के माध्यम से पाठकों का साक्षात्कार करवाने के लिए प्रदीप मिश्र का बहुत-बहुत आभार ।

शरद कोकास    
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 प्रदीप मिश्र जी की पाँच कविताएँ दो दिन पहले ब्रज जी से प्राप्त हुईं और इन दो दिनों के अपनी सहूलियत से किए पाँच पहरों में कई बार इन कविताओं को पढ़ा. पढ़ा और हर बार बेचैन हुआ. बेचैन हुआ और कई बार अपनी यादों के हरसूद से मिल कर लौटा. ख़ाली-ख़ाली सा और भरा-भरा भी. खंडवा से भोपाल की रेल लाइन पहले हरसूद से होकर जाती थी और फिर मेरी माँ का ननिहाल हरसूद रहा तो एक ज़ाती रिश्ता हरसूद से रहा है. इसलिए लाग-लपेट के बग़ैर कहूँ तो इन कविताओं ने दिल ही दुखाया है. कहाँ फ़ुर्सत हमें अपनी आपाधापी में गुज़रे को याद करने की! पर जब इस तरह ठोकर लगती है तो मन वही सवाल करता है जो प्रदीप जी ने इन कविताओं में किए हैं. मैंने इस क़स्बे को देखा है फिर मुआवज़ा लेकर हरसूद से विस्थापित होकर आए परिवारों को अपने शहर खंडवा में बसते हुए भी. इसलिए इन कविताओं ने उन सब किरदारों और एक भरे पूरे जीवन के विलीन हो जाने से गुज़र जाने का अवसर ही दिया. शीर्षक 'डूबते हुए हरसूद पर पाँच कविताएँ' मुझे तब भी कुछ उम्मीद दे गया कि हरसूद अभी डूबा नहीं बस डूबने को है. अशोक वाजपेयी की कविता की  एक पंक्ति है 'इतिहास जिस काम को करने की अनुमति भी नहीं देता, कविता उसे आसानी से करने की छूट देती है'. मुझे शीर्षक पढ़ कर लगा कि हरसूद अभी डूबा नहीं और उसे बचाया जा सकता है. कम से कम इन कविताओं ने उस डूबे हुए हरसूद को थोड़ा-सा तो बचाया ही है. 
फिर एक-एक कर के मैं कविताओं के सिरे पकड़कर और थोड़ा अपनी याद के सहारे एक घर से मिला जो विस्थापित हो रहा है. फिर कुँवर नारायण याद आए 'घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएँगे. समय होगा हम अचानक बीत जाएँगे'. जैसे वह विस्थापित घर चीख-चीख कर कह रहा हो मैं अब भी हूँ और पानी के नीचे रहूँगा, तुम्हारी यादों को समेटे. आदमी ने फिर दग़ा किया. घर वहीं रहा और आदमी चल दिया. घर, बेघर हो रहा है. वही घर जिसने हर ग़म और हर ख़ुशी, हर हँसी और हर शर्म में सर छुपाने से लेकर गली-मोहल्लों तक को आबाद किया. 

चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर

यह मार्मिक पंक्ति प्रदीप जी के भीतर किस ताप से गुज़री होगी उसका सही- सही आकलन नहीं कर सकता. उसका देशज शब्द प्रयोग 'भरभराना' अपने आप में सब कह रहा है. अगली कविता में एक और दृश्य 'छूटा हुआ जूता' है जो सबसे छोटी कहानी 'फ़ॉर सेल: बेबीज़ शूज़, नेवर वोर्न' की तरह ही दुखती रग को बार-बार छेड़ता है. कविता पढ़ने के बाद भी आप उससे बाहर निकलने में असमर्थ होते हैं. और उस छूटे हुए जूते के साथ ही छूट जाते हैं. उसी जूते के साथ विकास के सवाल भी हैं जैसे आप किसी और के हिस्से की रोटी छीनकर खा रहे हैं! 
...बस अब हरसूद डूब चुका है. इस तीसरी कविता में केवल घर, जूता और सांसारिक चीज़ें ही नहीं बल्कि एक पूरी सभ्यता और संस्कृति लेकर. 

आधा डूब चुका है बूढ़ा पीपल
और पानी चढ़ रहा है लगातार
वह डूबते हुए आदमी की तरह
अपनी टहनियों को ऊपर उठाए
चिल्ला रहा है
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई

अभी मेरे ज़िम्मे बहुत सारी मन्नतें हैं
जिनको पूरा करना है
अपनी छाया में खेलते-कूदते बच्चों को
जवान होते देखना है
बहुत सारे तीज-त्यौहारों में शामिल होना है

यही संस्कृति के डूब जाने का दर्द अगली कविता में विस्तारित होता है. अंतिम कविता 'छूटी गीतों की डायरी, रंगोली के रंग' मुआवज़े के नाम पर तोले गए इंसान के ईमान के साथ बातचीत करती है. 

प्रदीप मिश्र जी की इन कविताओं पर साहित्यिक कमी-पेशी, चर्चा/विमर्श होते रहेंगे. फ़ॉर्म, शब्द-चयन, वाक्य, भाषा आदि पर भी वरिष्ठ साथी कुछ कहेंगे ही. मुझे बस पहली कविता की अंतिम पंक्ति 'घर विस्थापित हो रहा है' खल रही है. शायद कविता इस पंक्ति के पहले मुकम्मल हो चुकी और बहुत वज़न के साथ अपनी बात रख चुकी है. ये केवल मेरी असहमति है और इस बाबत मैं प्रदीप जी से विनम्रतापूर्वक अपनी असहमति जता रहा हूँ. उम्मीद है आप अन्यथा न लेंगे. 

मुझे यह नहीं पता कि कवि का हरसूद से क्या रिश्ता है पर इन मुकम्मल तस्वीरों और जज़्बातों ने लगभग एक दशक पहले डूब चुके हरसूद के बहाने झकझोरा तो है ही. आगाह भी किया है कि क्या पता विकास (या विनाश) के नाम पर तबाह होने वाले अगले व्यक्ति, छूटे हुए जूते, पीपल के पेड़, शहर और छूटी हुई डायरी हमारी ही हो ?

(अपनी समझ से मैं बस इतना ही लिख पाया. पहली बार इस तरह कुछ कहने का प्रयास किया है. इसे बस मेरी टिप्पणी ही समझिएगा प्रदीप जी. शुक्रिया ब्रज जी इस अवसर के लिए
सुदीप सोहनी📕📕                                                
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श्रीकान्त सक्सेना :  हरसूद के ऊपर बहुत वर्ष पहले एक युवा पत्रकार.ने यात्रा वृतांत शैली में एक पुस्तक लिखी थी।बहुत पसंद आई थी।हरसूद जैसे विषय साझा पीड़ा को महसूस करने और साझा संघर्ष को ज़िन्दा रखने का हौसला देते हैं तो तथाकथित विकास के योजनाकारों की नीयत और प्राथमिकताओं को भी स्पष्ट कर देते हैं।
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प्रदीप मिश्र का कवि धर्म हैं  हरसूद श्रृंखला की कविताएं 
पोलिटिकली भले ही अब हमारा नेतृत्व इन दिनों  नदियों को मनुष्य का दर्जा देने का स्वांग करने का खूब प्रयास कर रहा हो,लेकिन हमारे समाज में न जाने कब से नदी,पहाड़,गांव,मुहल्लों,प्रकृति में प्राण होने की मान्यता और व्यवहार और आचरण रहे हैं।
संवेदनशील व्यक्ति इन सब पर आई विपदा पर दुखी हुए हैं। विशेषतः जब कवि इन क्षणों को देखता है अनुभूत करता है, अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने को बेचैन हो उठता है। दरअसल कवि का ये अपना विशिष्ट धर्म भी होता है।
समर्थ और युवा कवि प्रदीप मिश्र ने हरसूद श्रृंखला की अपनी कविताओं में एक बस्ती के उजड़ जाने और एक गांव के साथ स्मृतियों और सुख दुख के पानी में समा जाने की पीड़ा और उससे पैदा हुई उखड़ी हुई साँसों को अभिव्यक्त करने का कवि धर्म निभाया है।
ये कविताएँ मैंने उनसे सुनी भी हैं,पढ़ी भी और उस कवि के  विकास का भी साक्षी रहा जब ये कविताएँ अवतरित हो रहीं थीं।
कहीं की संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार का वहां का होना या उन कष्टों को भोगना उतना ज्यादा जरूरी भी नही होता जितना कि उन अनुभूतियों को अपने हृदय में सीजने के लिए स्वीकार कर लेना। बावजूद कि कवि मूल उत्तरप्रदेश के रहे, हरसूद प्रसंग के समय इंदौर मालवा में होकर हरसूद के दर्द को उन्होंने महसूस किया,प्रत्यक्ष देखने की कोशिश की है।
अनेक संवेदनशील लोग हरसूद और वहां के निवासियों के जीवन को लेकर चिंतित हुए लेकिन कुछ ही प्रदीप मिश्र की तरह अपने को अभिव्यक्त करने में सफल हुए।
ये प्रदीप की प्रतिबद्धता और एक कवि की चिंता ही थी जिसके परिणाम स्वरूप हरसूद श्रृंखला की कविताएं साहित्य की धरोहर हो सकीं।
इन कविताओं के बाद भी प्रदीप मिश्र ने बहुत बेहतर सृजन किया है, लेकिन जब उनकी कविताओं पर बात होने लगती है। हरसूद नदी के तल से निकलकर सतह पर तैरने लगता है।
बहुत शुभकामनाएं उन्हें। एक बार पुनः सुंदर कविताओं को पढ़वाने के लिए समूह का आभार।

ब्रजेश कानूनगो      
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ज्योति खरे : हरसूद तो डूब गया है पर प्रदीप मिश्र की कविता पढ़ते समय लगा कि आज भी हरसूद जिन्दा है.
कविता लिखना और उसमें संवेदना भरना अलग बात है पर कविता की सवेंदना को जिन्दा रखे रहना अलग बात है, इसे तभी जिन्दा रखा जा सकता है,जब कवि की अनुभूति मन को मथती है,मन की परतों को गीली करती है, स्मृतियों का यही गीलापन प्रदीप की संवेदना है और उनकी अभिव्यक्ति है.
डूब रहे हरसूद और डूब गया हरसूद का मर्म वही समझेगा जिसके घर गाँव की चौखट उखाड़ दी जाती है .
विस्थापन की मन को छूती कवितायें.
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राखी तिवारी : विस्थापन पर लिखी प्रदीप जी की कविताओं ने झकझोर दिया।विकास की गांथाऐ.....एक गहरे रूदन से निकले क्या ये जरूरी है?
संवेदनाओं से ओतप्रोत कविताएं हरसूदमय है.....सच की सशक्त अभिव्यक्ति।
प्रदीप जी को बधाई.....
शरद दा एवं सुदीप जी को धन्यवाद।
शानदार टीप.......🙏🏻                        
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मणि मोहन मेहता: जैसे की वाद्य पर विस्थापन की एक उदास धुन बज रही हो , बेहतरीन कविताएं।बधाई प्रदीप भाई ।  
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घनश्याम सोनी : डूबे हुए हरसूद पर प्रदीप मिश्र जी की कवितायेँ विनाश पर विकास की सच्चाई का ऐसा यथार्थ प्रस्तुत करती हैं जिसे भुक्तभोगी ही गहराई से समझ सकता है l योजनाकारों की योजना में कुछ घर , झोपड़ी , सड़कें , खेत आदि डूब क्षेत्र में आयेंगे/ आते हैं लेकिन वे उन संवेदनाओं को कहाँ अनुभव कर सकते हैं जो उस क्षेत्र के रहवासियों की उस क्षेत्र विशेष से जुड़ी होती है l जिन्हें कवि ने सजीव निर्जीव सभी में बहुत ही गहराई से एक प्रत्यक्षदर्शी/ भुक्तभोगी की तरह अनुभव कर सहज सरल व दिल में गहरे पैठ कर जानेवाले शब्दों में अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया है l बहुत ही शानदार रचनाये पढवाने के लिए साकीबा व प्रस्तुतकर्ता का आभार l 
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मनीष वैद्य : मित्र प्रदीप मिश्र की कविताओं से गुजरते हुए पीड़ा और उदासी के भावों में जाना अवश्यम्भावी ही है।पाठक तक इस संवेदना को प्रेषित करने में ये कविताएँ स्वाभाविक अपना कर्म बखूबी करती है। हरसूद के बीस से ज्यादा साल गुजर जाने के बाद आज भी वह किसी लाइलाज नासूर की तरह जब तब हमें अपनी टीस से बिलबिला देता है।जब हमारी यह स्थिति है तो उन पर क्या गुजरती होगी जो इसकी वजह बेदखल होकर बेघर बार हो गए। उनकी स्मृतियों में वह कितनी भयावह पीड़ा होगी। बात यहीं नहीं रूकती। इससे बेदखल लोग आज भी विस्थापन की तमाम विसंगतियां झेल रहे हैं।फिर बात विकास की भी है। मनुष्य और मनुष्यता को उजाड़कर कैसा विकास। एक तरफ संस्कृति बचाने की बात तो दूसरी तरफ संस्कृति डुबोने का काम। ये रचनाएँ नॉस्टेलजिया ही नहीं जगाती हमें झकझोरती भी है।ये आगाह करती हैं कि कोई दूसरा हरसूद न बन सके। कविताएँ सहजता से संप्रेषित करती हैं अपनी बात को। प्रदीप लंबे वक्त से शब्दों की दुनिया में प्रतिबद्धता से काम कर रहे हैं। वे विचारों के साथ रचते हैं पर रचनाओं में सहज सरल होकर तरल हो जाते है।यहाँ विचारों की संश्लिष्टता नजर नहीं आती। आज की कविताओं पर खूब लिखा जा सकता है। पर फ़िलहाल इतना ही, प्रदीप को सर्जना के लिए अशेष शुभकामनाएं।    
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उदय ढोली :अपनी जडो़ं से मजबूरन दूर होने वाले विस्थापितों के दर्द कोा मार्मिक अंदाज़ में बयाँ  करती हैं प्रदीप जी की कविताएँ,पाठक के अंतर्मन को उद्वेलित करने वाली बेहतरीन कविताओं के लिए शुभकामनाएँ 💐          =================================================             
विनीता वाजपई  : प्रदीप मिश्र जी की कविताओं ने कई पन्ने पलट दिए 
आए दिन खबरें आती थीं कि हरसूद डूब जाएगा 
खंडवा में हमारी बहन रहती है सो आना जाना लगा रहता है 
रास्ते में हरसूद है जिसका नया नाम छनेरा है , मन हुआ और हम डूबा हरसूद देखने गये 
दूर दूर तक पानी और उसमें डूबती उतराती जाने कितनों की स्म्रतियां 
कैसे वहां के रहवासियों ने विस्थापन का दर्द सहा होगा , एक आह निकल कर रह गयी 
हम रीते मन से लौट आए 
आज प्रदीप जी की कविताओं ने उन्हें आवाज दी , बहुत अच्छी कविताएँ 
पांचवी कविता तो मन को छू गयी ,
उस पर सुदीप जी की टिप्पणी ने उसे और सदा दी , 
बहुत अच्छी प्रस्तुती
सुदीप सोहनी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं , मैने उनकी कविता भी सुनी है और नाटक भी देखा है ,वो बहुत दूर तक जाएंगे 
शुभकामनाएँ      
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दीप्ती कुशवाह : हरसूद के लिए मेरा मन भी बहुत दुखता है। टिहरी और हरसूद.. एक सी नियति रही...! प्रदीप जी की कविताओं ने एक बार फिर मन गीला किया। उम्दा कविताएँ, प्रदीप जी !   
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डॉ पद्मा शर्मा  :विस्थापन की अद्भुत और भावपूर्ण कवितायेँ। सवेद्नात्मक धरातल पर मन को भिगो जाती हैं।
वीरेन्द्र जी का डूब उपन्यास भी विस्थापन समस्या पर है।
बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई प्रदीप मिश्र जी।
धन्यवाद ब्रज जी   
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भावना सिन्हा  : बड़ी ही सूक्ष्मता से विस्थापन के दर्द  उकेरा गया है। कितनी बड़ी त्रासदी है यह  , कैसा विकास । कविताएँ मन  को भिगो गई ।सच को उजागर करती  सशक्त अभिव्यक्ति के लिए 
कवि को बहुत बहुत बधाई । 🌹🌹    
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हरगोविंद मैथिली: विस्थापित परिवारों के एक दर्द का नाम है हरसूद और उस दर्द को कवि ने एक भुक्तभोगी की तरह महसूस कर अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है जो बेहद मार्मिक, संवेदनशील और सहज संप्रेषणीय हैं।
प्रदीप मिश्र जी को बधाई और ब्रज जी का आभार🙏🙏💐💐    
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अखिलेश श्रीवास्तव 
 हरसूद श्रृंखला की कवितायें पढ़ते हुये कौन होगा जो इन कविताओं की छोर पकड़े हुये उस समय में न पहुँच जायेगा जब पानी हरसूद के कंठ के ऊपर पहुँच रहा होगा,अंजुर भर हम भी डूबते हैं, जब पानी से लगभग अफनाते हुये खेत पुकार लगाते हैं, बचाने की गुहार को अनसुना करना,उसे डूबते हुये छोडकर निकलने की बेबसी का शंताश तो हमें भी ये कविताएँ महसूस करा ही देती है भले ही हम उस दुख के साक्षी न रहे हो पर संवेदना से परिपूर्ण प्रदीप जी का कवि मन पाठक को उस हाहाकार की अनुभूति करा देता हैं ।
इन कविताओं पर बिम्बों की मार है न शिल्प की लदान, पर कवि में रस उपाजने की क्षमता है तो ज्यादा मेहनत की आवश्यक नहीं होती, ये कविताएं दुख की एक गठरी साथ लेके चलती है और डूब के बीच भी आपकी आंखो को पनियाती रहती हैं जैसे घर से विस्थापित कोई आदमी पनिआये आंखों से गृहस्थी की गठरी उठाकर कदम पानी में रखता हैं ।
प्रदीप जी ने सायास कुछ भी नहीं जोडा या घटाया हैं जिस तरल भाव से कविताएं आई है उसी तरह से पाठकों की ओर तैरा दिया हैं,पाठकों को भी कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना है इन समझने में,सिर्फ भाव पक्ष को महसूस करते हुये एक दुख से गुजरा जा सकता है ।
प्रदीप जी अपनी कविताओं से उस दुख के साक्षी व हमसफ़र रहे है आज  हमें भी कुछ कदम चलने का मौका मिला ।
आभार प्रदीप भाई । 
                      
 आजकल प्रदीप जी को पढ़ रहा हूँ, हरसूद श्रृंखला में कविता अपने वास्तविक व सहज रूप में है पर प्रदीप जी के बिंब विधान को भी समझा जाना चाहिए, उनकी एक कविता रखता हूँ पटल पर ।                        
 फ़ाउण्टेन पेन की कविता / प्रदीप मिश्र

फाउण्टेन पेन को चलाते समय
बहुत ध्यान रखना पड़ता है
ठीक कोण पर टिका हो
अंगुलियों के बीच 
निब पर दबाव सही हो
ठीक हो स्याही का बहाव

अक्षर बनाने का एक निश्चित तरीका होता है
नहीं तो कागज,निब और अक्षर का
तालमेल बिगड़ जाता है
उंगलियों में लगनेवाली स्याही को
बार-बार पोंछना होता है सिर पर
अक्षर सुन्दर ही बनाने पड़ते हैं
जब लिखा जाता है फाउण्टेन पेन से

इतनी सारी पाबंदियाँ और सुन्दरता की शर्त
ऐसे में भला फाउण्टेन पेन से कोई
कैसे लिख सकता है कविता

कविता लिखते समय तो

एक मासूम सी बच्ची
अचानक गृहस्थी से जूझती औरत में बदल जाती है
                            
उछलते-खेलते नौजवान
कब शामिल हो गए बूढ़ों की जमात में
लिखने के बाद भी पता नहीं चलता

नदी अपने तटबंधों को तोड़कर
इस तरह फैलती है
जैसे उसके अन्दर भरता जा रहा हो समुन्द्र

अपनी धूरी पर घण्टों ठहर कर
सोचती रहती है पृथ्वी 
निरंतर घूमते रहने का कारण

इतनी गति
इतना उफान
इतना आक्रोश
इतना ठहराव
ऐसे में कोई कैसे रखेगा
सुन्दरता और पाबंदियों का ध्यान
जब तक हम पूरी करते हैं 
सुन्दरता की शर्त

एक मासूम सा खूबसूरत चेहरा
भयानक अठ्ठाहास करने लगता है

जब तक खोलते हैं पाबंदियों की गाँठ
आजादी का उत्सव मनाते लोग
गुलामों की तरह गिड़गिड़ाने लगते हैं

कविता लिखने के लिए
ऐसी कलम चाहिए
जिसमें पहली उड़ान पर पर निकले 
चिड़ियों का आकाश बहे 
स्याही की जगह

निब डाक्टर के आले की तरह टिकी हो
समय के छाती पर।                        

मेरे समय का फलसफा/ प्रदीप मिश्र

मेरे समय का फलसफा


इकट्ठे हुए थे सारे जीव एक जगह
फुनगी पर बैठी चिड़िया / गर्वोन्नत शेर
रेत में अलसाया मगरमच्छ
इधर-उधर रेंगते कीड़े-मकोड़े
हरी कालीन जैसी बिछी घास 
और टीले पर बैठा मनुष्य 

प्रकृति के सारे जाने-अनजाने जीव
इकट्ठे हुए थे एक जगह
सबकी समस्या थी जीवन की 
जीवित बचे रहने की 

इस विकट समस्या की बहस में उपस्थित
हर जीव 
दूसरे के लिए भोजन की थाली था
कोई भी एक नष्ट होता तो 
दूसरा स्वंय ही नष्ट हो जाता
फिर कैसे कोई किसी को खाता
और अगर खाता नहीं तो जीवित कैसे रहता

मनुष्य ही ऐसा था 
जो किसी का भोज्य नहीं था 
जानता था जीवन जीने की कला
बुरे दिनों में घास की रोटियाँ खाकर भी 
बचा सकता था अपने आपको
अच्छे दिनों में शेर का शिकार करता था
शगल की तरह 
इसलिए टीले पर बैठा
मुस्करा रहा था

नहीं सूझा किसी को भी 
इस विकट समस्या का हल
तब मनुष्य ने ही सुझाया
प्रेम में सबकुछ जायज होता है
प्रेम में कोई नष्ट नहीं होता
जितना व्यापक प्रेम उतना ही ज्यादा जीवन

इतना सुनते ही
सबको सूझ गया विकट समस्या का हल
बकरी को घास से प्रेम हो गया
और वह प्रेम से चरने लगी घास
शेर को बकरी से हो गया प्रेम
और वह प्रेम से बकरी को खा गया

तबसे प्रेम का सिलसिला खूब फलाफूला
अब कभी भी/कहीं भी/किसी को/किसी से
प्रेम हो जाता है।      
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प्रवेश सोनी : किसी का भी अस्तित्वहीन हो जाना अत्यंत पीड़ा दायक होता है ।इन कविताओं से गुजरते हुए लगा जैसे संवेदनाओं के अथाह सागर में डूब गए हो । 
विकास का पहिया इतनी क्रूर गति से चलता है ,रौंद देता है वो मासूम  गाँव की सभ्यता को ।
विस्थापित होने का दुःख जड़ो से अलग हुए पौधों की तरह होता है जिनके नसीब  में हरियाली नही होती है ।
अच्छा लगा इन कविताओं को पढ़कर ,साथ ही सभी की प्रतिक्रियाओं ने इन्हें और खोल दिया ।
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जतिन अरोड़ा : निलय जी का दर्द कुरेद गया. गंगा के आँसू पीकर चले निलय जी के आंदोलन की मानिंद ही यह रचनाएँ भी दर्द की पराकाष्ठा हैं। दिल दिमाग में गहरा के बैठे दर्द को शब्दों में पिरोने या बाँधने की कोशिश बिलकुल नहीं की गई है। यही वजह है कि  इन रचनाओं ने जुबान से दिल तक दस्तक दी.प्रदीप जी को सलाम💐===================================================                      
मधु सक्सेना : प्रदीप जी कविताएँ सुबह से कई बार पढ़ चुकी हूँ पर कुछ लिख नही पाई ।हरसूद की पीड़ा बार बार उभर कर आ रही है ।विस्थापन का दर्द पुरे बचे जीवन को प्रभावित करता है ।स्मृतियाँ टीसती है ।
अब सब कहा जा चुका है ।कवि को सुनना है अब ।

आभार ब्रज जी ।
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संतोष  तिवारी : प्रदीप जी की कविताएं, मोह की मार्मिक परिभाषाएं गढ़ती हैं। अब भले बड़े ज्ञानी महात्मा कुछ कहें मगर जिसे अपनी माटी से प्यार हो जाये उसे बड़ी बड़ी बातें उद्धव के निर्गुण प्रवचन सी लगती है। 
हरसूद से मेरा भी वास्ता है। हालांकि विस्थापन का दर्द मैंने नही  भोगा, मगर प्रदीप जी की कलम ने मन को ऐसा छुआ की दर्द के निशान उभर आये हैं।
कुछ हरसूदवासी साहित्यकार मित्रों को कविताएं प्रेषित की बगैर अनुमति। उम्मीद है माफी मिल जाएगी।
- संतोष तिवारी      
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जतिन अरोड़ा : हिमाचल में पौंग बांध बना तो करीब तेरह हजार परिवार बेघर हुए....कुछ को राजस्थान में मुरब्बे मिले ...पुरानी जमीन की कीमत उतनी नहीं थी लेकिन नई जमीन ने सोने के अंडे दिए...लोगों की जिंदगी बदल गई...बुजुर्ग और कुछ लोग जो मिट्टी से जुड़े थे आज तक कसमसाते हैं पर जो
पीढ़ी पंख लगाने की जुगत में थी वह खुश है कि उनकी जिंदगी बन गई। इतने सालों बाद भी पौंग बांध के समीप के इलाके विकास से महरूम हैं विस्थापित नए शहरों में नए तरक्की पसंद इलाके में मौज में है। कुछ विस्थापित एेसे भी हैं जो आज भी कहते हैं..मेकी अोही मिट्टी लियाई दैया...मेकी उत्थे चैण पौणा,.....     
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प्रदीप मिश्र : भाई बाँध तो बनना चाहिए। विकास होनी चाहिए। एक समाप्त होता तो दूसरा रचा जाता है। लेकिन अकाल मृत्यु और स्वाभाविक मृत्यु का अंतर तो है। यहाँ सवाल यह है कि दूसरे विकल्प को भी देखा जाना चाहिए जो कि उपस्थित हैं देखिए परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लेकिन इसकी गति क्या है। अगर हमारा परिवर्तन प्रकृतिक गति के अनुरूप हैतो  यहउतना विध्वंस नहीं करेगा। हमारे समयका सबसे बड़ा संकट गति है। यह अंधाधुँध गति हमें कहाँ ले जा रही है? सब कुछ स्वाभाविक और प्रकृतिक हो जैसे पतझर और कोंपल होता है तो उसका स्वागत है।                        

अंजू शर्मा : प्रदीप जी हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं और पिछले कुछ समय से मैं उनकी कविताएँ लगातार पढ़ रही हूँ।  उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता मुझे यही लगती है ये कविताएँ अपने समय के सजग दस्तावेज की तरह जरूरी और सामयिकता से भरपूर हैं।  हरसूद की त्रासदी के विषय में मैं बहुत नहीं जानती थी पर साहित्य में इसका दर्ज होना इसे कभी विस्मृत नहीं होने देता।  इससे पहले मनोज कुलकर्णी की एक संस्मरण विधा में लिखी कहानी ने मुझे हरसूद तक पहुंचाया था। आज प्रदीप जी की कविताओं में विस्थापन की पीड़ा साकार ही उठी है।  मुझे नहीं लगता कि उस त्रासदी का कोई पहलू भी कवि की नज़र से छूटा होगा।  डूबते हरसूद की ये कविताएँ गहरी ख़लिश पैदा करती हैं।  धीमे धीमे अवसाद मन पर हावी होने लगता है और यही कवि की सफलता है।  बधाई प्रदीप जी      
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सुरेन सिंह 
हरसूद ... एक डूबता हुआ गांव । इस डूब के साथ डूबते है वहां के निवासियों के अरमां और डूब जाता है बहुत कुछ । 
प्रदीप जी इस डूब को एक कवि के रिश्ते से महसूस करते  है  और एक नॉस्टेलजिया रचते है । सबसे बड़ा दर्द क्या है ?  कि मानवीय  विस्थापन का दर्द  प्रकृति से ,नियति से तय न होकर  शक्ति के खेल में नियंत्रक कुछ मानवों के  निर्णयों से ही आकार ग्रहण कर रहा है । 
कवि उस पीड़ा को आवाज देना चाहता है जो मानव द्वारा ही अन्य मानवों के लिए  निर्मित  की गई है । या यूं कहें कि एक मानवीय निर्णय की यहां बांध बनेगा या आज से यह तुम्हारा देश नही और संसार का सबसे बड़ा मानवीय विस्थापन होता है और कवि कहता है कि पाकिस्तान से विस्थापित होकर मैं आया था अपने देश ...
मतलब कितनी जल्दी एक झटके में उसने अपने पूर्व  स्थान को पराया मान लिया .... क्यों ,क्योंकि वहां उसे वह शक्ति का  निर्णय  कंविंसिंग  सा लगने लगा ... क्यों ,क्योंकि उसके पीछे एक  समुच्च्य की साइक काम कर रही है पर पुनः विस्थापन उसी अपने देश में ... जो निर्णय अपने  बस का लगता था पर वो वास्तव में बसका न रहा .... तो पीड़ा का स्वर  आर्तनाद में कन्वर्ट होने को आतुर हो जाता है । यह बिंदु पाठक को एक विचारतन्द्रा मे डुबोने को पर्याप्त लगता है ।
कविताओं का स्वर अपने लोकेल को उभारता तो है पर उसके नॉस्टेल्जिया में रोको ,जाने मत दो के साथ एक कवि का तथाकथित विकास और आधुनिकता से कोरिलेशन बनाने की भयावयता के बिंदु पर जोर देकर छोड़ देना .. मतलब पाठक को विचलित कर पाने की सफलता के श्रेय का आयाम तो स्थापित होता है पर एक सरल सा अर्थक्रियाकारित्व क्रिएट नही होता जैसा ....

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे

मैं उनसे मिलने

उनके पास चला जाऊँगा
 (विनोद शुक्ल )

एक चीज़ होती है यथार्थ जो दिखता है पर एक और चीज़ होती है फैंटेसी  । कोई यथार्थ वास्तव में यथार्थ तभी बनता है जब उसमे फैंटेसी भी घुल जाती है ,तभी काव्य भी जन्म ले लेता है जो डूब रहा है... बुरा होरहा है पर इस ने कितनो के मन मे और कैसी फैंटसी पैदा कर दी जिससे आने वाले समय का विचार ,रूप और पूरी साइक रीक्रेयेट होगी का आभास भी कवि उतार सकता है पन्नो पर ... ( हो सकता है विषयान्तर हो रहा हूँ पर इसमें सुदीप सोहनी का दोष है जिन्होंने विनोद शुक्ल जी का जिक्र कर मुझे बहका दिया 😊😊🌸)
बाकी अन्य बाते काव्य ,बिंम्ब , लोच ,भाषा की सहजता की ऊपर हो ही चुकी है ,जिन्हें दोहराने का मतलब नहीं ।अंततः प्रदीप जी को बहुत बधाई की वह निरन्तर गम्भीर काव्य रच रहे है और अपने पाठकों की अपेक्षाओं को बढ़ाते जा रहे है ।  निश्चित ही हरसूद पर लिखी यह कविताएं महत्वपूर्ण है और एक रोचक बात आपसे कहना चाहूंगा कि किसी समूह में  मैंने इसी प्रकार की डूब पर कविताएं पढ़ी थी वहां अन्य बातों के अलावा कवि से यही कहा था कि आप प्रदीप जी की हरसूद पर कविताएं पढ़े  .... ☺
तो प्रदीप जी एक पाठक के नाते यह सब जो भी कहा वो बढ़ती  पाठकीय अपेक्षाओं के तहत ही कहा । 
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 आशुतोष श्रीवास्तव :उजड़ने की व्यथा से भली भाँति परिचित हूँ! मेरा गाँव का पैतृक मकान भी बाढ़ में कट गया था ! आधा गाँव नदी में बह गया था ! जब मेरे बाबा जी को लग गया की अबकी बार नदी नहीं मानेगी ओर हमारी सारी ज़मीन का पता नदी के पूरब से नदी के पश्चिम में बदल के ही रहगी, तो घर तोड़ने का फ़ैसला लिया ! काफ़ी बड़ा मकान था ! जो गाँव वाले घर के डेहरी में सर झुकाये आते थे ! आज वो सब हाथ में हाथ में खनती भाला लिए छतों दीवारों पे चढ़े उसे गिरा रहे थे ! पुराने ज़माने का पुश्तैनी मकान मिट्टी की मोटी मोटी दीवारें, जिनसे पुरानी महुए की लकड़ी ओर मलबे सिवा कुछ निकल रहा था तो मेरे पापा की आँखों के आँसू थे ! जिस घर मकान में पैदा हए बड़े हुए उसी को तोड़ने में मदद कर रहे थे ! 

ओर शहर में आयीं तो ढेर सारी पुरानी लकड़ियाँ ! जलौनी से ज़्यादा क़ीमत नहीं थी बाज़ार में,लेकिन फिर भी ट्रक का किराया देकर ले आए थे गोरखपुर शहर तक ! क्यूँकि वही बस निशानी बची थी गाँव की !
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 ए असफ़ल :हरसूद पर बढ़िया कविताएं प्रदीप मिश्र की। साथ ही अखिलेश जी द्वारा साझा की गई अन्य कविताएं भी शानदार रहीं। मित्रों ने सुरेन जी आदि ने बहुत अच्छी समीक्षा की। साकिबा का यह दिन बेहद महत्वपूर्ण रहा जो अब तक के कई यादगार दिनों में शुमार हो गया।
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 साहित्य सम्मेलन,"साहित्य की बात" 17-18 september 2022 साकिबा  साकीबा रचना धर्मिता का जन मंच है -लीलाधर मंडलोई। यह कहा श्री लीलाधर...

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