Thursday, October 13, 2016


इतिहास की कोख से साहित्य में कभी कभी ऐसा लिखा जाता है जिसे पढ़ते हुए रूह भी कांप उठती है । यह लेखन की वीभत्सता नहीं है ,कुछ ऐसे सच  गुजरे है इतिहास की राहो से जिन्होने  इंसानी क्रूरता का चरम दर्ज किया ।  कई सवाल छोड़े है जिनके उत्तर आज भी अपना युद्ध लड़ रहे है । 
क्या कोई धर्म मानवता की हत्या करके अपना अस्तित्व कायम रखता  है.... ? नहीं ,यह सिर्फ उन्माद होता है जिसे धर्म के आवरण में लपेट कर रखा जाता है । मानवता की चीत्कार सुनता है कवी ह्रदय ,और अपनी संवेदनाओ की स्याही कलम में उड़ेल कर लिखता है उस क्रूरता भरे उन्माद को | 

शरद कोकास ने अपनी तीन कविताओ में ऐसा ही सच लिखा है । जिसे  वात्सअप के समूह विश्व मैत्री मंच पर प्रस्तुत किया है सुश्री मधु सक्सेना ने ।  इस समूह की एडमिन है सुश्री संतोष श्रीवास्ताव् जिन्होंने इसी विषय पर अपनी एक कहानी लिखी है "अंकुश की बेटियाँ "

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परिचय 
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❇ शरद कोकास का परिचय ❇

                                                                      
🛂वैज्ञानिक दृष्टिकोण और इतिहास बोध पर लिखी चर्चित लम्बी कविता पुरातत्ववेत्ता के लिए प्रसिद्ध कवि शरद कोकास का जन्म बैतूल मध्यप्रदेश में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा भंडारा महाराष्ट्र में हुई और क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय भोपाल से स्नातक तथा विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की । 

📙लम्बी कविता पुस्तिका “ पुरातत्ववेत्ता “ का प्रकाशन प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका पहल  द्वारा, 2005 में किया गया, इससे पूर्व उनका कविता संग्रह गुनगुनी धूप में बैठकर 1994 में प्रकाशित हुआ तथा हमसे तो बेहतर हैं रंग  2014 में  दखल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ 


📕 सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविता,कहानी ,समीक्षा और कालम के प्रकाशन के अतिरिक्त नवसाक्षरों हेतु तीन कहानी पुस्तिकायें ,चिठ्ठियों की एक किताब कोकास परिवार की चिठ्ठियाँ भी उनकी प्रकाशित है ।                         





कौसर बानो का अजन्मा बेटा – एक

पृथ्वी पर मनुष्य के जन्म लेने की घटना 
इतनी साधारण है अपनी परम्परा में 
कि संवेदना में कहीं कोई हस्तक्षेप नहीं करती 

इसके निहितार्थ में है इसकी असामान्यता 
जो ठीक उस तरह शुरू हुई
जैसे कि एक जीवन के अस्तित्व में आने की शुरुआत होती है 

अपनी देह के पूर्ण होने के शिल्प में 
जीवन के लिये आवश्यक जीवद्रव्य लिए 
बस कुछ ही दिनों बाद बाहर आना था उसे 
अपनी माँ कौसर बानो की देह से 
और सृष्टि की इस परम्परा में 
अपनी भूमिका का निर्वाह करना था  
छोटे - छोटे ऊनी मोज़ों व दस्तानों के साथ
बुना जा रहा था उसका भविष्य 
पकते हुए गुड़ में सोंठ के लड्डुओं के स्वप्न तैर रहे थे

गर्भवती कौसर बानो की तरह 
इठलाती हुई चल रही थी बसंती हवा 
उसमें घुसपैठ करने की कोशिश में थीं कुछ अफवाहें 
भौतिक रूप से जिन अफवाहों में
कुछ जली हुई लाशों की गन्ध थी 
रेल के थमते  हुए पहियों से
एक चीख निकलकर आसमान तक पहुंची थी 
जिसमें दब कर रह गए थे पीर-पैगम्बरों के सन्देश 
और सृष्टि के कल्याण के लिए रचे गये मंत्र 

विवेकशून्य भीड़ के मंच पर मंचित 
नृशंसता के प्रदर्शन से बेख़बर कौसर बानो
इमली की खटाई चखते हुए 
गर्भ में करवट लेते बेटे से 
एक तरफा बातें करने में मशग़ूल थी 
पृथ्वी पर चल रही इस हलचल से अधिक 
उसे परवाह थी 
अपने जिस्म पर उग आई इस पृथ्वी की 
वहीं बृह्मांड में कीड़े-मकोड़ों की तरह रेंगने वाले जीव 
इस पृथ्वी को कई हिस्सों में बाँट देने के लिये बेताब थे

मातृत्व की गरिमा और 
मानवता के इतिहास की अवमानना करते हुए 
उन्माद की एक लहर उठी 
दया , रहम , भीख जैसे शब्दों की धज्जियाँ उड़ाते हुए
हवा में एक तलवार लहराई 
और क्रूरता का यह अध्याय लिख दिया गया 
अगले ही क्षण लपटों के हवाले था 
पृथ्वी , जल ,तेज , वायु और आकाश में लिथड़ा
आदम और हव्वा के जिगर का वह टुकड़ा 

यह हमारी नियति है कि 
कल्पना से परे ऐसे दृश्यों को देखने के लिए 
हम जीवित हैं इस संसार में 
कौसर बानो के उस बेटे की नियति यही थी 
कि यह सब देखने के लिए
उसने इस संसार में जन्म नहीं लिया ।

                     




कौसर बानो का अजन्मा बेटा – दो

कौसर बानो का अजन्मा बेटा 
हमारा ही कोई रिश्तेदार था दूर का 
वह भी उसी माँ का बेटा था 
जिसकी आदिमाता 
हज़ारों साल पहले 
आफ्रिका के जंगलों से आई थी 
उसके भीतर भी था 
वही माइटोकोंड्रिया जीन 
जो उस आदिमाता से होते हुए
उसकी माँ कौसर बानो तक पहुंचा था 

आदिमानव से आधुनिक कहलाने की यात्रा में  
बेटियों  की भ्रूण हत्या पर गर्व करने वाली  
मनुष्य प्रजाति के लिये यह बात 
भले ही गले से न उतरे 
भले ही वह इसे जायज़ सिद्ध करने के लिए 
बदला , अपमान , प्रतिक्रिया जैसे शब्द चुन ले 
कौसर बानो के अजन्मे बच्चे की हत्या के लिए 
उसे क्षमा नहीं किया जा सकता 

अपना अपराध बोध कम करने के लिये 
कहा जा सकता है कि अच्छा हुआ
जो उसने पाप के बोझ से दबी
इस धरा पर जन्म नहीं लिया 
वरन वह क्या देखता 
चिता की तरह राख हो चुकी बस्तियाँ 
जले हुए बाज़ारों 
टूटे हुए मन्दिरों- मस्जिदों ,विहारों और मज़ारों के सिवा 

अपनी आँख खुलते ही उसे दिखाई देते 
कीचड़ से अटे घरों के खंडहर
जिनमें पानी भरकर करंट प्रवाहित किया गया था 
ढूँढा गया था एक नायाब तरीका 
इंसान की नस्ल खत्म करने का 

वह किस चाची या मौसी की गोद में खेलता 
खोल दिए गए थे जिनके जिस्म 
सीपियों की मानिन्द 
और स्त्रीत्व का मोती लूटकर 
जिन्हें चकनाचूर कर दिया गया था 

शायद ही नसीब होता उसे
अपने बदनसीब चाचा का कंधा
जिसकी नज़रों के सामने 
उसकी बारह साल की बच्ची की योनि में 
सरिया घुसेड़ दिया गया 

बस बहुत हो चुका कहकर 
कान बन्द कर लेने वाले सज्जनों 
कविता में वीभत्स रस या अश्लीलता पर 
नाक-भौं सिकोड़ने वाले रसिक जनों 
इस आख्यान को पूर्वाग्रह से ग्रस्त न समझें 
सिर्फ एक बार कौसर बानो की जगह 
अपनी बहन या बेटी को रखें और महसूस करें 
अतिशयोक्तियों से भरी हुई नहीं है   
कौसर बानो के अजन्मे बेटे की दास्तान 

यह कदापि सम्भव नहीं है फिर भी 
क्रिया और प्रतिक्रिया की इस दुनिया से दूर 
फिर कहीं जन्म लेने की कोशिश में होगा 
वह अजन्मा देवशिशु 
देवकी की सातवीं बेटी की तरह 
कंस के हाथों से निकल कर 
आकाश में अट्टहास कर रहा होगा 
या जन्म मरण के तथाकथित बन्धन से मुक्त होकर 
देख रहा होगा अपनी उन बहनों को 
जो अभी भी टूटे घर के किसी कोने में 
डर से छुपी बैठी होंगी 
अपनी गीली शलवारों में 
पेशाब के ढेर के बीच 

अभी भी बिखरे होंगे जूते -चप्पल गलियों में 
पिघली हुई दूध की बोतलें और खिलौने 
जली हुई साइकिलें और औज़ार 
खंडहर के ढेर पर खड़े अभी हँस रहे होंगे 
हिटलर के मानस  पुत्र

वहीं कहीं अभी समय कसमसा रहा होगा 
एक दु:स्वप्न से जागने की तैयारी में 


धर्म की परिभाषा को 
विकृत करने वाली इस सदी में 
समय सबक ले रहा होगा मनुष्यों से 
अभी फिर कहीं किसी कौसरबानो के गर्भ में 
पल रहा होगा कोई अभिमन्यु 
अन्याय को इतिहास में दर्ज करने की अपेक्षा में 
इस दुष्चक्रव्यूह को 
अंतिम बार ध्वस्त करने की प्रतिज्ञा करता हुआ ।






बुरे वक़्त में जन्मी बेटियाँ


बेटियाँ जो कभी जन्मीं ही नहीं
वे मृत्यु के दुख से मुक्त रहीं 
जन्म लिया जिन्होंने इस नश्वर संसार में 
उन्हें गुजरना पड़ा इस मरणांतक प्रक्रिया से 

अस्तित्व में आने से लेकर 
अस्तित्वहीन हो जाने की इस लघु अवधि में 
एक पूरी सदी उनकी देह से गुज़र गई 
किसी को पता ही नहीं चला और वे  
दाखिल हो गईं समय के इस अमूर्त चित्र में

शायद ही आ पातीं वे कभी समकालीन कविता में 
यदि उनके जिस्म से एक एक कपड़ा नोचकर 
जलते टायरों की माला उन्हें न पहनाई गई होती 

शायद ही वे आ पाती कभी राष्ट्रीय समाचारों में 
अगर उनकी मृत देहों से स्तन अलग करने और 
उन पर जुगुप्सा भरा वीर्यपात करने की 
बदतमीज़ियाँ नहीं की जातीं 
अफसोस कि उनमें  
भारतीय सैनिकों की लाशों के साथ 
बदसलूकी पर आक्रोश जताने वाले लोग भी थे 

पुरुषों के पजामे उतरवाकर धर्म जानने 
और उनकी ज़िन्दगी का फैसला करने का तरीका 
वे पीछे छोड़ चुके थे 
इस नरसंहार में इस बात की कोई दरकार न थी 
कि जिसे मारा जाना है उसका धर्म क्या है 

उनका सबसे प्रिय शिकार थीं 
पीठ पर ज़िम्मेदारी का बोझ लिए  
स्कूल जाने वाली नन्हीं नन्हीं बच्चियाँ
नरपिशाचों की नज़र पड़ते ही 
जो औरतों में तब्दील हो गईं 
कैलेंडर से अलग होती तारीखों के ढेर में 
गुम हो गईं वे बच्चियाँ
और खुद पर हुए ज़ुल्म के बारे में 
बयान देने के लिये जीवित नहीं बचीं

धर्म के तानाशाहों द्वारा 
उनके नग्न शरीरों पर खड़े होकर किए गए अट्टहास
अभी थमे नहीं हैं 
भय का भयावह दैत्य 
फिलहाल राहत का मुखौटा धारण किये हुए है 

अभी आयोगों के पालने में 
न्यायिक प्रक्रिया अंगूठा चूस रही है 
ईश्वर की अदालत में प्रस्तुत करने के लिये 
तर्क जुटाये जा रहे हैं 
मनु से लेकर न्यूटन तक तमाम ऋषि
मुगलों व अंग्रेज़ों की बसाई दिल्ली में 
फिर किसी राज्याभिषेक की तैयारी में हैं 

अभी राजनीति की बिसात पर 
अगले कई दशकों की चालें सोची जा चुकी हैं 
अभी कई मोहरे दाँव पर लगे हैं
धर्मप्राण राजाओं और वज़ीरों को बचाने के लिए 
वहीं तुलसी की क्षेपक कविता 
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी 
चरितार्थ की जा रही है 

ताड़ना के अंतिम बिन्दु पर स्थापित 
इस आधी दुनिया के लिये 
बहुत दुख से कह रही हैं प्राध्यापिका रंजना अपनी छात्राओं से 
तुम्हे तो पढ़ने-लिखने का मौका मिल गया मेरी बच्चियों 
शायद तुम्हारी बेटियों या पोतियों को न मिल पाये 

बावज़ूद इसके कि जनतंत्र की इस विशाल खाई में 
जहाँ नैतिकता , ईमान , सद्भावना और समानता की लाशें 
अंगभंग की अवस्था में बिखरी पड़ी हैं 
गिद्धों की नज़र से बचती कुछ बेटियाँ 
धीरे धीरे बड़ी हो रही हैं ।

🔲 शरद कोकास 🔲
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कविताओं पर कवि के मन की बात 

विश्व मैत्री मंच के सभी मित्रों को मेरा नमस्कार 
सामान्यतः किसी मंच से कवि अपनी बात कविता में ही कहता है .कविता पाठ के बाद कुछ कहने की गुंजाईश भी नहीं होती . और कोई मंच होता तो शायद मैं भी एक औपचारिक सा आभार मित्रों के प्रति प्रकट कर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर लेता लेकिन यहाँ आज आप सबको संवेदना के स्तर पर इन कविताओं के साथ जुड़ता हुआ देखकर मेरा कुछ कहने का मन हो रहा है . 

किसी कवि से पूछिये उसे अपनी रचना अच्छी ही लगेगी ,तुलसीदास जी ने कहा भी है ' निज कवित्त कही लाग न नीका' .मुझे भी मेरी कविताएँ अच्छी लगती हैं , स्वयं उन्हें पढ़ता हूँ मित्रों को सुनाता हूँ , उन पर बात होती है तो अच्छा लगता है . 

लेकिन कभी कभी कोई कविता ऐसी हो जाती है जो कवि को सुख नहीं देती बल्कि उसे पढ़ते हुए उसे लगता है कि वह अंगारों पर चल रहा है . यह तीनों कविताएँ मेरे लिए कुछ ऐसी ही हैं . 2002 में यह कविताएँ लिखी गईं थीं और इनका पहला पाठ मैंने शायद उसके अगले  साल स्थानीय शासकीय कन्या महाविद्यालय में किया था .. 
कौसर बानो की दास्तान सब जानते थे ,गोधरा , बेकरी , नरोडा पाटिया अभी ताज़े ताज़े शब्द थे जो भारतीय जनमानस के शब्द कोश में जुड़े थे . मैंने कविता पाठ शुरू किया और पहला भाग ख़त्म ही हुआ था कि हाल से सिसकियों की आवाज़ आने लगी .. बमुश्किल मैं तीसरी कविता पूरी कर पाया .. 
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता याद आ रही थी " अगर किसी कमरे में लाश पड़ी हो तो क्या आप गा सकते हैं " 
कविता पढ़ते हुए मुझे वे समस्त लाशें दिखाई दे  रही थीं जिनकी देह पर दरिन्दगी के निशान थे .. मुन्नी, बबली , गुड्डी, पिंकी , फातिमा, नूर , 
शायद ऐसा पहली बार हुआ कि कविता पाठ के बाद मुझे तेज़ बुखार चढ़ गया  
इसके बाद एक बार बुद्धिजीवियों के बीच भी इसका पाठ किया ,उस बार बुखार तो नहीं चढ़ा लेकिन गुस्सा भीतर ही भीतर पलता रहा , उस गुस्से और आक्रोश से अभी भी मुक्त नहीं हुआ हूँ मैं . डॉ निरुपमा ठीक कह रही हैं , इन कविताओं को पढ़कर निशब्द नहीं हुआ जा सकता . 


गुजरात को घटित हुए लगभग डेढ़ दशक होने जा रहा है ..एक पीढ़ी समाप्त हो गई है दूसरी पीढ़ी आ गई है , अदालतों में कुछ मुकदमे ख़त्म हो गए हैं कुछ अभी भी चल रहे हैं . जिन पर अत्याचार हुए उनमे से बहुत कम लोग शेष बचे हैं , कुछ लोग समझौते कर चुके हैं कुछ लोग विस्मृति ओढ़ चुके हैं . कौसरबानों के लिए भी एक डॉ ने गवाही देते हुए कहा है कि उसका पेट नहीं फाड़ा गया था वह तो शॉक से मर गई थी .  

प्रश्न केवल एक शहर , एक घटना, एक समय या एक मनुष्य  का नहीं है , क्रूरता तो तब भी होती है जब एक माँ की कोख में पल रहे स्त्री भ्रूण को चिकित्सकों की यह पढ़ी लिखी जमात चुपके से मार देती है . एक स्त्री प्रतिमाह हारमोंस के बदलते चक्र में किस यातना से गुजरती है इस पर कौन ध्यान देता है . 

कौसरबानों न हिन्दू है न मुसलमान , वह तो एक माँ है उसका क्या धर्म .. माँ है वह उसी तरह जैसे मेरी माँ आपकी माँ ..इन कविताओं को लिखते हुए मैं जिस यातना से गुजरा हूँ शायद आपसे नहीं बता सकता .. यह कल्पना भी नहीं थी जो मैं खुद को सांत्वना दे  देता , सहमत द्वारा जारी तमाम रिपोर्ट्स , गुजरात के मित्रों के फोन , डॉ रंजना अरगड़े से बात , सब कुछ चीख चीख कर कह रहा था ऐसा हुआ है .. 

कई साल गुजर गए इन कविताओं को लिखे हुए लेकिन जब भी देश में ऐसा कुछ घटता है ऐसा लगता है ज़ख्म से पपड़ी उधेड़ दी गई है बस में उस बच्ची निर्भया के साथ जो घटित हुआ उसका समाचार अखबार और टी वी वाले जब दे  रहे थे मुझे लग रहा था कहाँ हूँ मैं कौन हूँ मैं ....  , क्या मैं सचमुच इसी मनुष्य जाति में जन्मा हूँ जो करोड़ों वर्षो का सफ़र तय करके इस सभ्यता के शिखर पर पहुंची है ..  
आप सभी इन कविताओं को पढ़ते हुए मेरी संवेदनाओं के साथ जुड़े आभारी हूँ आपका .. बहुत बहुत .. कोशिश करता हूँ ..अगली टिप्पणी में आप सबके नामोल्लेख सहित आपसे संवाद कर सकूँ .. फिलहाल इतना ही ..


शरद कोकास

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प्रतिक्रियाएं 

सुषमा सिंह 
दिल दहला दिया है, रौंगटे खड़े कर दिए हैं ,आंखों में बेतहाशा आँसू भर दिए हैं, लिखना भी मुश्किल हो रहा है। भीतर तक हिला कर रख दिया है शरद जी की कविता ने, चेतना को बुरी तरह झकझोर दिया हैं। सारे सवाल मस्तिष्क को कौंच रहे हैं और हम निरुत्तर बैठे हैं, अवसन्न !अमानवीयता के इस क्रूर अट्टहास को कैसे प्यार भरी लोरियों में बदला जाए? वहशीपन को कैसे करुणा का पाठ पढ़ाया जाए? कैसे प्रणय, वात्सल्य, मैत्री और अपनेपन की बरसात की जाए कि इतिहास के उस काले पन्ने की स्याही धुल जाए? बस यही समझ में आता है कि काश हम सबके हृदय में प्यार और इंसानियत अंकुराए, फूले-फले और एक आज़ाद खयाली का ,भाईचारे का चमन गुलज़ार हो। आमीन !

Varhsa Raval: शरद जी की ये रचनाएँ पहले भी पढ़ चुकी हूँ , दिल में टीस सी उठती है, मन व्यथित हो जाता है । जवाब की चाह चाहे जितना मन्थन कर ले , विवश हो जाता है , बेबस हो जाता है, असहाय हो जाता है........🙏                         
प्रतिमा अखिलेश :
 सच कहा सुषमा दी  वर्षा दी ठीक मेरी भी यही स्थिति है।
परन्तु एक बात समझ नही आती हम पढ़े लिखे लोग तो ये सब पढ़ लेते हैं समझ लेते हैं और इस हिंसा के खिलाफ भी हैं 
पर वे लोग जो ये स्थितियां उत्पन्न करते हैं वे तो जाहिल अनपढ़ और अपने आप में हिंसा पर उतारू मगन रहने वाले लोग हैं
वे कैसे इन परिस्थितियों को समझेंगे जिनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर।
हम उन तक कैसे ये बात पहुंचा सकते हैं उनकी आत्मा कैसे झंझोड़ सकते हैं।
बस हम पढ़कर उफ़ करके रह जाएँ क्या

बहुत विचलित होता है मन

कोई ऐसी कलम का अविष्यकार होना चाहिए जो इन अमानवीय प्रवृति के लोगों की आत्मा पर खरोंच खरोंच कर  कौसर बानो के दर्द को लिख दे जिससे वे तड़प उठें हथियार डाल दें  और उसके आजन्मे बेटे के गम में फूट फूट कर रो पड़ें।
इस व्यथा को उन जिम्मेवार लोगों तक कैसे पहुँचाया जाए
उन्हें कैसे पिघलाया जाए
शब्दों की आंच आत्मा को कुंदन बना सकती है।
पर उन्हें कैसे तपाये।
जो इस संवेदना से दूर हैं।
मैं शुरू से यही सोचती रही हूँ
शरद सर में आत्मा हिला देने वाली कलम की ताकत है
ये ताकत हमे सही जगह इस्तेमाल करनी होगी।
कुछ तो असर दिखेगा🌺🌺🌺🌺
प्रतिमा अखिलेश



महेश दुबे 
: बेहद संवेदनशील मुद्दे को उठाती शरद कोकास जी की यह कविता बेहद प्रभावी लगती है । मनुष्य के दानव होने की अनेक कहानियों में से एक। लेकिन अनेक दूसरे बुद्धिजीवियों की तरह केवल बहुसंख्यक वर्ग को अपराधी ठहराने की मानसिकता केवल एक नाम रख देने से सिद्ध हुई।  क्या यहाँ कौसर बानो नाम रखना जरुरी था ? केवल इस एक नाम से समूची बहुसंख्य बिरादरी कटघरे में आती है । और अगर कौसर बानो नाम रखा गया तब एक भयानक भूल तब सामने आती है जब गर्भ में मार दिए गए बच्चे के पुनर्जन्म की कल्पना की जाए जो इस्लाम में मान्य ही नहीं है । हर रचनाकार और मैं भी किसी भी किस्म की पाशविकता के विरोध में न हों तो रचनाकार हैं ही नहीं । मैंने पाकिस्तानी स्कूल पर हुए हमले पर जो करुण कविता लिखी थी वह वहाँ भी सराही गई क्यों कि मैं किसी हिंदूवादी संघटन का सदस्य नहीं हूँ । हर तरह के अत्याचार का विरोध होना चाहिए । पर कवि साहित्यकार अगर किसी एक विशेष नाम का उल्लेख करें तो दृष्टि एकांगी समझी जायेगी । एक नाम के उल्लेख से कविता संकुचित हो जाती है जो नाम न रखने पर विराट हो सकती थी । वैसे कविता हृदयस्पर्शी है । शरद जी की लौह लेखनी को नमन ! 
                        
जय श्री शर्मा 
 कौसर बनो का अजन्मा बेटा
मन मस्तिस्क को झकझोर देने। वाली रचना है
जिसमे आधुनिक मनुष्य की संवेदन। शून्यता परिलक्षित हो रही है

आडम्बर से बहुत दूर  ह्रदयग्राही
बेबाकी से लिी गई यह रचना                         
प्रभाव शाली है                         
 Madhu Saksena: महेश जी ...कौसरबानो किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही ।अजन्मे बच्चे की दुर्दशा की चश्मदीद गवाह और चीत्कार है ।और अगले जन्म की बात  कवि अपनी  तरफ से कर रहे हैं । कविता में कवि की मंशा स्पष्ट है उसे संकुचित रूप में लेना ठीक नहीं ।
आपकी कविता सराही गई ।बधाई ।
आपने कविता के मर्म को समझ कर अपने विचार रखे ।मंच समृद्ध हुआ ।  
                       
मल्लिका मुखर्जी 
 शरद जी कि यह कविताओं ने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की याद दिला दी। ऐसी अनगिनत घटनाएँ उस वक्त घटी थी। मेरे बहुत सारे रिश्तेदार अब भी  वहाँ रहते हैं । तब अत्याचार करनेवालों ने किसी भी धर्म की महिलाओं को नहीं बक्शा था। हैवानियत जब सवार होती है तब मानव राक्षस बन जाता है। 
जब भी मैं ऐसी कवितायेँ पढ़ती हूँ निःशब्द हो जाती हूँ। आंसू पलकों पर आकर जैसे जम जाते हैं बर्फ की तरह।                         
महेश दुबे 
आदरणीया मधु जी ! 
आपकी बातें समझ में नहीं आई । क्या यह कविता आपने लिखी है ? या शरद जी ने आपको बताया कि कौसर बानो किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही ? और यह नाम हिन्दू क्रिश्चियन सबमें मान्य है । अगले जन्म की बात कवि अपने मन से कर रहे हैं तो बाकी बातें क्या किसी और से लेकर की गई हैं ? जो बात तर्क की कसौटी पर गलत है उसे केवल डंडे के जोर पर सही कहेंगी आप ? आपने अगर ऐसा भी हो सकता है का प्रयोग किया होता तो मैं समझता पर आप इतने निश्चयपूर्वक कह रही हैं कि ऐसा ही हुआ है तो शायद कवि ने आपको बताया होगा । मैं हास्य व्यंग्य का बहुत छोटा सा कवि हूँ और गंभीर विषयों पर अधिक नहीं बोल सकता पर जो बात खटकी वह कही । अगर आपको बुरा लगा है तो क्षमा करें ।   

शरद कोकास 
महेश जी , साहित्य के इतिहास में जो कुछ भी साहित्य रचा गया है वह केवल काल्पनिक चरित्रों को लेकर नहीं रचा गया है । मनुष्य की दानवी प्रवृत्ति का शिकार भी किसी धर्म विशेष के स्त्री, पुरुष या बच्चे नही रहे हैं । 
क्रूरताएँ इतिहास में घटित होती रहीं और पात्रों के नाम बदलते रहे । कहीं वह घर से निकाल दी गई सीता है, कहीं पत्थर बना दी गई अहिल्या , कहीं वह देवकी जिसके सात बच्चे मार डाले गए , कहीं बिनब्याही माँ मरियम, कहीं स्पार्टकस की प्रेमिका वारिनिया, कहीं मोहम्मद की बेटी फातिमा , कहीं छह माह का बच्चा अली असगर जिसकी गर्दन पर तीन नोक वाला तीर मारा गया , तेरा साल का कासिम जिसे घोड़ों की टापों से रौंदा गया और अरब की वे तमाम बच्चियां जिन्हें ज़िंदा गाड़ दिया गया ।
क्रूरता का अध्याय समाप्त कहाँ हुआ है अभी भी निर्भया की चीख गूंज रही है , सोनी सोढ़ी जिसके गुप्तांगों में पत्थर डाले गए कराह रही है और भी तमाम बेटियां । 


इनकी कथा मैंने इस श्रृंखला की तीसरी कविता बुरे वक्त में जन्मी बेटियां में दी है । उसे भी नरोदा पाटिया में नूरानी मस्जिद के पास रहने वाली  कौसरबानो की इस गाथा के साथ पढ़ें ।
क्रूरता को अंजाम देने वाले न बहुसंख्यक होते हैं न अल्पसंख्यक ,  किसी धर्म के क्या वे तो मनुष्य भी नहीं होते । 

आपका दूसरा प्रश्न कौसरबानो के बच्चे के पुनर्जन्म के बारे में है । कविता में यह स्थूल अर्थ में नही है । अभिमन्यु का बिम्ब  यहाँ अत्यचार और क्रूरता के खिलाफ विद्रोह के रूप में आया है । विचार मस्तिष्क में भ्रूण की तरह ही होता है । 
बेसिकली यह कविता समस्त मानव जाति पर हो रही क्रूरता के खिलाफ है ।इसलिए नामो को लेकर भ्रमित न हों। 
सादर - शरद कोकास    

दिनेश गौतम 
आज इस मंच पर शरद कोकास की दो कविताएँ - 'कौसर बानो का अजन्मा बेटा - एक" और " कौसर बानो का अजन्मा बेटा -दो " देकर आपने मुझे अपने इस मित्र और उसके सृजन पर कहने का एक अच्छा अवसर उपलब्ध करवा  दिया है। शरद मेरे उन दोस्तों में से है जिन पर मैं सबसे ज़्यादा फख्र करता हूँ। यूँ शरद नियमित रूप से अपनी कविताएँ मुझे भेजते रहते हैं पर शरद की कविताएँ उनसे ही  सुनना भी एक  बहुत अच्छा अनुभव होता है। इस मंच के पटल पर रखी गई इन दो कविताओं में शरद ने दंगे की शिकार एक गर्भवती महिला और उसके अजन्मे बच्चे के बहाने संवेदनहीन और नृशंस होती जा रही दुनिया और मनुष्यता पर छाए संकट से सचेत करने का काम बख़ूबी किया है। कविता की संवेदना हमें उद्वेलित करती है। कविता में शरद की चिंता इस बात को लेकर है कि समाज में कुछ क्रूर और उन्मादी लोगों की पाशविकता का जैसे  परकाया प्रवेश मनुष्यता में हो गया है ।मैं शरद की  बहुत नम संवेदनशीलता और उसकी विलक्षण कथन भंगिमा   का क़ायल रहा हूँ और यह बात उनसे भी कहता भी रहा हूँ। शरद हमारे समय के सर्वाधिक संवेदनशील और इतिहास दृष्टि सम्पन्न कवियों में से एक हैं।
                 यूँ शरद की लगभग सभी कविताएँ हमें मनुष्यता की प्रक्रिया में शामिल करती हैं। पुरातत्ववेत्ता को ही लें, आप शरद की प्रशंसा इस बात के लिए किए बिना नहीं रहेंगे कि उनके पास अपनी इतिहास दृष्टि है जो बहुत प्रभावित करती है। इतिहासकार मनुष्य का इतिहास लिखते हैं पर शरद मनुष्यता का इतिहास लिखते दिखते हैं। शरद की कविता दुनिया की बनावट और बुनावट में हो रहे बदलाव की साक्षी है। 'कौसर बानो का अजन्मा बेटा' की घटना यह सिद्ध करती है कि कुछ खास विचारधाराओं और कृत्यों के चलते मनुष्यता की मूलभूत अवधारणा ही खतरे में पड़ गई है और यह ख़तरा काल्पनिक नहीं वास्तविक है। मनुष्य विरोधी विचारधाराएँ दुर्भाग्य से और भी हृदयहीन और सर्वव्यापी होती जा रही हैं।  
         हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ आज बहुत सी  विचारधाराएँ  अपने को ही सत्य माने जाने का तीव्र और अतार्किक दुराग्रह पाले हुए हैं। ये सभी विचारधाराएँ अपने सत्य का प्रचार बड़ी तत्परता से करती दिखती हैं ताकि उनका सत्य सभी का सामान्य सत्य हो जाए। शरद की  कविताओं से झलकता उनका सर्जनात्मक चिंतन मनुष्यता के मूल्यों को बचाए, बनाए रखने के लिए है और उन मूल्यों की बढ़ोत्तरी में अपना योगदान करने वाला है। वस्तुतः शरद की लगभग सभी रचनाएँ मनुष्यता को अभिव्यक्ति देने का उपकरण बन गई हैं। इसीलिए मैं उन्हें हमारे बीच उपस्थित हमारे समय का अति महत्वपूर्ण कवि मानता हूँ।
         शरद के पास बहुत अच्छी भाषा है, आप देखें , विज्ञान , भूगोल,  नृतत्वशास्त्र,  इतिहास सभी की ख़ास शब्दावलियाँ उनके पास मौजूद है । उनकी विलक्षण कथन भंगिमा  भी उन्हें विशेष बना देती है। क्या आपने उनकी कविता ' झील से प्यार करते हुए ' पढ़ी है ? --

" बादलों के कहकहे  
मेरे भीतर जन्म  दे रहे हैं
एक नमकीन झील को
आश्चर्य नहीं यदि मैं
किसी एक दिन
नमक के एक बड़े पहाड़ में
तब्दील हो जाऊँ।"

या शहर में शाम की ये पंक्तियाँ-

"घर लौटते मजदूरों के साथ
ख़ाली टिफ़िन में बैठकर
लौटती है शाम"
उनकी कविता - 'बीच का आदमी ' पेट के लिए पंछी, चींटियों ,कीट पतंगों, छिपकलियों के संघर्ष की तरह  रिक्शे वाले के संघर्ष को बताते हुए वह भी दिखा देती है जो हमें नहीं दिखता। 

  उनकी कविता की व्याप्ति में  लगभग सारा का सारा विश्व है। मनुष्य की वेदना, दुर्भाग्य और दरिद्रता,  मनुष्य के तनाव और संकट  सभी को आप उनमें देख सकते हैं।  मूर्त से अमूर्त की यात्रा करवाती हैं शरद की कविताएँ। शरद की कविताएँ हमारी संस्कृति की और सही मायनों में मूल्य बोध की  कविताएँ हैं ।अपनी कविताओं के माध्यम से मानवीय गौरव की स्थापना में जुटे इस बहुत ख़ास कवि और मेरे  बहुत खास दोस्त को सबसे मिलवाने के लिए आपका आभार।

रुपिंदर 
शरद जी की कविता सत्य के तथ्यों पर आधारित होती हैं।जातिधर्म से उठ कर विचारने को विवश करती हैं।भले ही पात्र धर्म विशेष का है किन्तु पाश्विकता का एक ही धर्म होता है अमानुषिकता।पृथ्वी सत्य पर टिकी है,घटनाएं किसी एक के साथ घटती है किन्तु प्रभावित समस्त मानव जाति होती है।शिशु के जन्म की कल्पना अति सुखद होती है।
अप्रकृतिक हिंसा मनुष्य की बर्बरता का उदाहरण।कितना भी सभ्य हो प्रवृत्ति सदैव पाश्विक ।
सच है केवल भाग्य को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि यहाँ तो भाग्य भी जन्म ही नहीं ले पाता।

स्तब्ध करती आपकी कविता यथार्थ का वीभत्स रुप दर्शाती है।सच उगलती कलम को नमन शरद जी।🙏

डॉ मंजुला श्रीवास्तव 
सर्वप्रथम मैं शरद कोकास जी की तलम को नमन करती हूँ
मैं सुबह से कई बार पढ़ चुकी पर अभी भी मेरे पास लिखने  के लिए शब्द नहीं है
    दर्द का सैलाब, फूट गया है

सागर से भी गहरे भावों के अनगिनत थपेड़ों के बाद ,जन्मी कविता ,कवि व कलम की गहरी पैठ को सलाम

लेखा सिंह 
माननीय शरद जी की कवितायें बहुत ही संवेदना लिये हुए हैं.... अमानवीय कृत्यों को उजागर करती हुईं..... और...और.... एकदम जड़वत करती सच्चाई..... झकझोर देने वाली कड़वी सच्चाई का वीभत्स रूप..... उफ़्फ़....
भावनाओं को व्यक्त करने के लिये जैसे शब्दों का अकाल छा गया हो..... 
शरद जी, आपकी लेखनी को नमन....🙏🏼....


       लेखा.....

आशा रावत 
शरद जी की तीनों कविताएँ बहुत स्तरीय और सशक्त हैं।एकदम सहज तरीके से अभिव्यक्त हुईं पंक्तियाँ समूचे मस्तिष्क को झिंझोड़ डालती हैं।मानव जन्म की एक साधारण सी घटना कितनी असाधारण हो सकती है और किन किन असामान्य परिस्थियों से होकर गुजर सकती हैं, यह उन्होंने प्रभावशाली ढंग से बताया है।


प्रवेश सोनी 
शरद जी की ये तीनों कवितायेँ जब भी पढ़ी रूह में कम्पन हुआ ।
सच्चाई इतनी वीभत्स हो सकती है ,यह कहना आसान नही ।

मैं इन कविताओं के एक एक शब्द और पंक्ति में मनुष्यता की मृत्यु देखती हूँ।



😒😔😥
ज्योति गजभिये 
: शरद कोकास की कविताओं पर कुछ कहने से पहले नि:शब्द हो गई, मन ही मन प्रार्थनायें करने लगी ईश्वर कहीं से कहीं  से तू मानवता को बचा ले पर उसे ईश्वर नहीं मनुष्य ही बचा सकता है, जिस तरह मानवता का कोई धर्म नहीं होता, आतंकवाद का भी कोई धर्म नहीं होता
धर्मान्धता का जहर मानवता की देह गलाने में कोई कसर नहीं छोड़ता.
कौसर जान को सपने देखने का हक नहीं देना चाहता है यह समाज, वह अपनी कोख केे पुत्र को इन आधुनिक कंसों से बचा नहीं पाई, 
अजन्मी बेटियाँ को मार डालने का क्रूर कार्य वे कर रहे हैं जिन्हें हम बुद्धिजीवी कहते हैं , काश......मनुष्य को ऐसी वीभत्स बुद्धि ही न प्राप्त होती, 
दोनों कविताओं के पश्चात जो तीसरी कविता लगाई है वह भी बेहद मार्मिक है,
गिद्धों की नजर से बचकर बड़ी हो रही हैं बेटियाँ......अपने बड़ेे होने का साधारण सा हक वे मुश्किल से पाती हैं.
कौसर बानो की कोख में अभिमन्यु की कल्पना कर हिंदू -मुस्लिम को जोड़ने की बात कही है शरद जी ने,
वैसे भी खून से लथपथ मरता हुआ व्यक्ति यदि कोई उसकी मदद करना चाहे तो जात-धर्म नहीं देखता, खून मुसलमान का हो या हिंदू का लाल ही होता है, इस बात पर किसी ने कहा था-खून तो पशुओं का भी लाल होता है , वाह रे मनुष्य इतना ही शेष रह गया था, खुद की पशुओं से तुलना, शेर भी पेट भरने के बाद शिकार नहीं करता पर इंसान का तो पेट ही भरता नहीं,
शरद जी की जागरूक कविताओं के लिये उन्हें नमन,
मधु जी में गुस्ताखी नहीं करूँगी, तीर कमान आपके हाथ में है,
धन्यवाद !                         

कृप्या कोख के पुत्र के स्थान पर कोख के शिशु पढ़ें

सुधीर 
 शरद जी अपने समय, विगत और भविष्य की नब्ज टटोलने वाले कवि हैं। वे मिथकों में समकालीनता की सांस को महसूस लेते हैं। 
मैं हमारे समय के बहुत ही महत्वपूर्ण कवि के रूप में उन्हें पढ़ता हूं, वे कविता के राष्ट्रीय मानचित्र में छत्तीसगढ़ को प्रकट करते हैं । पुरातत्ववेत्ता जैसी उनकी लंबी कविता मुझे बेहद प्रिय है।                         
 बावज़ूद इसके कि जनतंत्र की इस विशाल खाई में 
जहाँ नैतिकता , ईमान , सद्भावना और समानता की लाशें 
अंगभंग की अवस्था में बिखरी पड़ी हैं 
गिद्धों की नज़र से बचती कुछ बेटियाँ 
धीरे धीरे बड़ी हो रही हैं

रत्ना पाण्डे
शरद जी की कहानी  पढकर  बंटवारे  का दर्द  दंगो  का दृश्य सब कुछ तैरता रह दिन भर आँखों के सामने 
युद्ध  विभाजन उपद्रव   कारण कुछ  भी हो पर औरतों के हिस्से में अक्सर  आता है शारीरिक यातना  और  मानसिक वेदना की अंतहीन  यात्रा  जो  मृत्यु पर्यंत चलती है  
ऐसा भयावह दृश्य  दुनिया के किसी भी हिस्से में कभी न दुहराया जाए यही कामना है  

मधु  जी  का हमेशा की तरह उत्तम संचालन  पर आज हार आंख नम है   यही शायद  एक लेखक के रूप में शरद जी की सफलता भी है   और जैसा कि सुधीर जी ने कहा  वे छत्तीसगढ का  गौरव हैं     एक दिन भारत का भी गौरव बनेगे   
दिल  बहुत भारी है  अब कुछ नहीं लिख पाऊँगी 


रत्ना पाँडेय

डॉ निरुपमा वर्मा 
शरद जी की कविता पढ़ कर मैं निःशब्द नहीं हूँ  । मौन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है । 
भारतीय मानस में स्त्री हिंसा को लेकर किसी भी  घटना के बाद कोई परिमार्जन हुआ हो, ऐसा भी नहीं जान पड़ता, पर प्रश्न उससे कहीं बड़े हैं। क्या हिंसा (शारीरिक, मानसिक, वाचिक) जैसे विघटनवादी तत्त्व का उन्मूलन संभव है? क्या हम वास्तव में सहमति की अवहेलना को लेकर तत्पर और उत्सुक हैं? क्या अहिंसा परमोधर्म: गाने वाला यह समाज अपने धर्म की चिंतन मनन और सुधारवादी परिधि से बाहर जा चुका है? ऐसे में ही शायद महाभारत की धर्म संबंधी अवधारणा सनातन प्रतीत होती है कि जब जब धर्म का विनाश होगा, उसकी पुनर्स्थापना उस हर युग में होगी, क्योंकि युग की जरूरतें और स्वरूप बदलेगा और तदनुसार उस अमुक युग का धर्म दुष्टों का विनाश करके सज्जनों की रक्षा के लिए जन्म लेगा।
यहां युधिष्ठिर के एक यक्ष प्रश्न का उत्तर बेहद समीचीन जान पड़ता है- ‘इस लोक में परमधर्म क्या है?’ का जवाब युधिष्ठिर ‘अनृशंस्यं परो धर्म:’ कह कर देते हैं, यानी जो धर्म नृशंसता के निषेध में हो। उस अजन्मे बेटे की मां की असहायता, गुहार, संतान का इंतजार, कुछ नहीं दिख रहा, क्योंकि हम नृशंसता के आदी हो चुके हैं। भीड़ नृशंसता के, सामजिक नृशंसता के, समाज उसे अबाध्य ‘मर्दानगी’ पढ़ा कर बड़ा तो कर पाई, पर अपने ही पैदावार के लिए आज न्यायसम्मत रिहाई की कोई कीमत नहीं, कोई उत्तर भी नहीं।  सिवा ‘मर्द’ होने के कोई और मायने नहीं समझाया। उससे हम किसी पश्चाताप की, हृदय परिवर्तन की और स्वयं पर किसी भी अतिरेक से बचने की कोई बाध्यता, कोई अंकुश नहीं लगा पा रहे।
क्या हमारा धर्म यही कहता है? अगर धर्म, जो हृदय को सर्वोपरि मानता हो, की अवधारणा हम आजतक कुशलता पूर्वक समाज के आचरण से संप्रेषित करने में सफल हुए रहते तो अजन्मे बेटे की कविता  महज एक कांड के तौर पर हमारे सामने नहीं आती और न ही क्रमश: राजनीतिक, न्यायिक प्रतिबिंबों में सिर्फ एक ऐसा अध्याय बन कर रह जाती, जो बार-बार सिर्फ हिंसा के नए-नए अध्याय और पुनरावृत्ति की संभावना पैदा करती और हिंसा, नृशंस हिंसा सिर्फ एक मिथक बनती जाती, जिसे जब चाहा अपने अनुसार परिभाषित कर दिया।
ऐसे में हिंसा के इन रोज उत्पन्न होते मिथकों को तोड़ने के लिए इस युग का एक धर्म निर्धारण करना होगा, मानव धर्म। स्त्री अपने आप महज असुरक्षा के बिंब से निकलने को स्वतंत्र हो जाएगी, आखिरकार स्त्री के प्रश्न और भी हैं।
 शरद कोकास जी ने कलम से नहीं तलवार से लिखी है ये कविता । इस लिए इतनी धार है उनके शब्दों में । 

   बधाई स्वीकार करें शरद जी ।












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