Friday, August 5, 2016



किशोर कुमार का जन्म 4 अगस्त 1929 को मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में वहाँ के जाने माने वकील कुंजीलाल के यहाँ हुआ था। किशोर कुमार का असली नाम आभास कुमार गांगुली था। किशोर कुमार अपने भाई बहनों में दूसरे नम्बर पर थे। उन्होंने अपने जीवन के हर क्षण में खंडवा को याद किया, वे जब भी किसी सार्वजनिक मंच पर या किसी समारोह में अपना कर्यक्रम प्रस्तुत करते थे, शान से कहते थे किशोर कुमार खंडवे वाले, अपनी जन्म भूमि और मातृभूमि के प्रति ऐसा ज़ज़्बा बहुत कम लोगों में दिखाई देता है।

शिक्षा

किशोर कुमार इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़े थे और उनकी आदत थी कॉलेज की कैंटीन से उधार लेकर खुद भी खाना और दोस्तों को भी खिलाना। वह ऐसा समय था जब 10-20 पैसे की उधारी भी बहुत मायने रखती थी। किशोर कुमार पर जब कैंटीन वाले के पाँच रुपया बारह आना उधार हो गए और कैंटीन का मालिक जब उनको अपने एक रुपया बारह आना चुकाने को कहता तो वे कैंटीन में बैठकर ही टेबल पर गिलास और चम्मच बजा बजाकर पाँच रुपया बारह आना गा-गाकर कई धुन निकालते थे और कैंटीन वाले की बात अनसुनी कर देते थे। बाद में उन्होंने अपने एक गीत में इस पाँच रुपया बारह आना का बहुत ही खूबसूरती से इस्तेमाल किया। शायद बहुत कम लोगों को पाँच रुपया बारह आना वाले गीत की यह असली कहानी मालूम होगी।


किशोर दा  के मस्त मौला  अभिनय और गायन के अंदाज़ से भला कौन  वाकिफ़ नहीं है |रूप तेरा मस्ताना ......,पाचँ रुपैया बारह आना .....जैसे गीत जब भी कभी कानों में रस घोलते है किशोर कुमार की अलमस्त अदा आँखों से चिरौरी करने लग जाती है |क्या आज भी किशोर दा की रूह उसी मस्ती और पुरसुकूं को महसूस करती है ??  यह महसूस करने के लिए पढ़ते है 
4  अगस्त २०१६ को उनके जन्म दिन पर खंडवा के ही किशोर दा के प्रशंसक  श्री संतोष तिवारी  का लिखा एक व्यंग ...





व्यंग (संतोष तिवारी )

अल सुबह 5 बजे डोर बैल बजी। उनींदा डगमगाते कदमो से नीचे पहुँच के दरवाज़ा खोला तो सामने किशोर दा एक पैर पर थोड़ा झुके हुए और  चेहरे पर वही मुस्कान। ताज़े गुलाब की तरह तरोताज़ा।  दरवाज़ा खोलते ही उछल कर बोले- बांगड़ू हमारा बर्थडे विश नही करेगा। मैं आधा जागा आधा सोया अलसाया सा बोला - हैप्पी बर्थडे दादा। पर आप तो ..... ? मेरी बात को बीच में ही लपकते हुए दादा बोले - दुनियां में नही रहा यही ना? ऊपर वाले को दो घण्टे  बैठा कर गाने सुनाये तब जा कर आज आने की मोहलत मिली।  पर  सिर्फ आज भर की। क्या है कि अपनी उधर भी बहुत डिमांड है।  पीठ घुमा कर अंदर आते हुए मैंने सोफे की तरफ इशारा करते हुए उनसे कहा- बैठिये। पर दादा तो मस्ती के मूड में थे । आँखें घुमाते हुए बोले- एक दिन तो मिला है उसको भी बैठने में बर्बाद कर दूँ क्या बांगड़ू। चल  दूध जलेबी खाएंगे और आज के दिन तो बस खंडवे के हो जायेंगे। 
"दादा फ्रेश तो हो जाऊं? "
"ठीक है पर जल्दी करले मेरे लड्डू गोपाल।"
हाज़त से फारिग होते होते राशोकि रमाकु ने घर भर में वो धमाचौकड़ी की कि श्रीमती जी ने आँखों आँखों में मुझे उन्हें जल्दी ले जाने का फरमान सुना डाला। बासे मुंह निकल पड़े मैं और दादा। मेरी खुमारी अभी तक उतरी नही थी। चाल थोड़ी मद्धम थी। दादा कूदते फांदते आगे आगे चले जा रहे थे। एक तो उनका उत्साह और दूसरे वक़्त की कमी। वो एक पल भी बर्बाद करने को राज़ी नही थे। बातें करते करते गौरी कुञ्ज आ गए। किशोर कुमार की माता गौरी देवी और पिता कुञ्जी लाल की याद में बना ऑडिटोरियम। आसपास झाड़ झंखाड़ और गंदगी का पसारा, भवन पर जगह जगह काई को देखते देखते दादा की चाल थोडी कम पड़ गयी। हॉल में दाखिल होते ही दर्शकों के एंगल से स्टेज निहारने के लिए जैसे ही सामने की एक कुर्सी पर बैठने को उद्यत हुए मैंने चिल्ला कर उनका हाथ थाम लिया-दादा दादा ज़रा बच के , कुर्सी टूटी हुई है। सहमे से वो मेरी और देखने लगे। उत्साह का एक हिस्सा दरक गया था और मायूसी का प्रश्नवाचक उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। धीरे से एक बच्चे जैसे उन्होंने अपनी  एक ऊँगली उठा कर लघुशंका जाने की फरियाद की। मैंने उन्हें हाल के बाजू से लगा कक्ष दिखा दिया। निपटने के बाद दादा ने आवाज़ दी - बांगड़ू पानी मिलेगा। मैंने कहा - दादा पानी का इंतज़ाम तो आयोजक ही करते हैं। दादा बोले - चल मेरे प्यारे! ज़रा ग्रीन रूम तो दिखा। मैंने कहा- चलिये आगे। दादा बोले -यहीं बाथरूम के अंदर से ??  थोड़ी सी शर्म अब मुझे भी आने लगी थी। धीरे से जवाब दिया - हां। ग्रीन रूम में जाकर दादा का चेहरा और उतर गया जब उन्होंने पाया कि जिसे ग्रीन रूम कह के मैं दिखला रहा हूँ वहां ड्रेसिंग टेबल तो छोड़िए एक अदद आईना तक नही है। दादा ने तंज़ कसा बड़ा अच्छा ऑडिटोरियम है। ज़रा गा कर तो देखूं। देखें तुम्हारा साउंड सिस्टम कैसा है। मैंने गर्दन छुपा लेने वाले अंदाज़ में कहा - दादा साउंड का इंतज़ाम भी आयोजक ही करते हैं। ऑडिटोरियम का अपना साउंड सिस्टम तो धूल फांक रहा है। प्रत्येक रहस्य से पर्दा उठाने के साथ मैं  किशोर दा की मस्ती और उत्साह में गिरावट दर्ज कर रहा था। "रख रखाव नही होता यहाँ?" दादा ने पूछा। 
" होता होगा दादा। मतलब चार्ज तो इसी का लिया जाता है।" 
" कितना चार्ज?"
" बारह हज़ार ।"
"छूट या रियायत नही मिलती।"
"दादा सरकारी कार्यक्रम या सरकार का कार्यक्रम हो तो मुफ्त भी मिल जाता है ऐसा सुना है मैंने। पर कलाकारों को तो....।" 
" समझ गया समझ गया।"
किशोर दा के चेहरे का वो बचपना जिसे सुबह दरवाज़ा खोलते वक़्त मैंने देखा था गायब सा हो रहा था और गम्भीरता आने लगी थी। वैसी ही जैसे किसी सैड सांग को गाते वक़्त आ जाया करती थी।
" लगता है सब भूल गए मुझे।" उन्होंने निराश स्वरों में कहा।
"नही दादा। हम सब आपको याद करते हैं। आपका नाम ले ले कर इतराया करते हैं। मंच से प्रेरणा देने का काम तो हर साल बिला नागा करते हैं।"
किशोर दा के चेहरे पर मुस्कान खिली। पूछ बैठे -अच्छा तो इस बार किस खंडवा वाले को प्रेरणा मिली है। मैंने कहा - दादा खण्डवा शहर से तो कोई नही है। हाँ आसपास के अंचलों और ज़िलों से ज़रूर लोगों के नाम आगे आये हैं। वो प्रश्न भरी निगाह से मुझे देखने लगे। 
हम गौरी कुञ्ज से बाहर निकले और शहर से होते हुए समाधि तक जाने लगे। रस्ते में उन्होंने खुद के घर की दशा देखी। मायूसी का अंधकार घना हो गया था। मैं अंदर चलने को कहता इसके पहले ही उन्होंने इशारे से मना कर दिया। रास्ते भर जाने किस किस को याद करते रहे अपनी बातों में।  कइयों के तो मैं नाम भी नही जानता। 
समाधि पर जाकर तो जैसे वो टूट से गये।  आँख की पोरों में मैंने कुछ नमी महसूस की। किशोर दा गुनगुना उठे- रहने दो छोडो जाने दो यार हम ना करेंगे प्यार। चलते चलते समाधि पर लगे दूध जलेबी के भोग में से अनमने तरीके से जलेबी का एक हिस्सा मुंह में डाला और धीरे धीरे उसी समाधि में जैसे  विलीन हो गए। 
मैं उन्हें इस तरह गायब होते देख ज़ोर से चिल्लाया-  दादा। 
अचानक झकझोरते हुए पत्नी ने जगाया। उठ जाओ सूरज सिर पर आ गया है। ओ तेरी की ये तो सपना था। सपने में महसूस हुई शर्म को मैं भूल गया जैसे हम खंडवे वाले भूल जाते हैं। और दादा के जन्मदिन के कार्यक्रमों को रिकॉल करने लगा। समाधि पर दूध जलेबी का भोग, फिर वहीँ ऑर्केस्ट्रा पर बड़े बड़े अधिकारियों की मान मनौव्वल कर एक दो लाइने गवाना, फिर जगह जगह किशोर दा की तस्वीरों पर  माल्यार्पण। शाम को प्रेरणाओं को पुरस्कार ऑर्केस्ट्रा की धमाचौकड़ी। और फिर बस।

टीवी पर गाना चल रहा था- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।
ओ माँ किशोर दा का सपना पर मैं सपने को सपने में भी याद नही करना चाहता था। तैयार होते समय आईने के सामने खड़ा मैं गुनगुना रहा था- 
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में
आईना झूठ बोलता ही नही।

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परिचय 

संतोष तिवारी
#जन्म- 14 दिसम्बर 1966
#मुख्य विधा- कविता /ग़ज़ल
#अन्य विधाओं में भी कार्य

#कवि सम्मेलनों और अखिल भारतीय स्तर के मुशायरो में शिर्कत
#लगभग 200 सुप्रभात संदेशो की श्रृंखला का लेखन जिसमे जीवन जीने की कला और मानवीय संबंधों पर नए दृष्टिकोण से विश्लेषण किया है।
# सांध्य दैनिक अग्निबाण में  मन्तर नाम से कॉलम का प्रकाशन जिसमे सत्यार्थ के छद्म नाम से लेखन।
#स्थानीय समाचार पत्रों में कवितायेँ ग़ज़लें प्रकाशित
# इ टीवी उर्दू द्वारा प्रसारित ग़ज़ल के एक कार्यक्रम में ग़ज़ल पाठ
# आकाशवाणी खण्डवा एवं इंदौर से कवितायेँ एवं वार्ताएं प्रसारित
# कुछ अप्रकाशित व्यंग्य जिनमे से प्रस्तुत भी एक है।

# अखिल भारतीय साहित्य परिषद की जिला इकाई का सचिव

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