Tuesday, August 9, 2016

कुछ लिखी हुई कविताएं विरासत की इबारतें बन जाती है ,अमूल्य धरोहर के रूप में सहेजी जाती है |उन्हें जब जब पढ़ते है एक अलग ही उर्जा का संचार होता है और नत हो जाते है उस कलम के आगे |
वीरेन डंगवाल  ऐसी ही कलम के धनी थे |उनकी जीवटता को सादर नमन 

साहित्य की बात समूह ,(जिसके एडमिन ब्रज श्रीवास्तव है) पर  सप्ताह में एक दिन साहित्य विरासत पर ही चर्चा की जाती है और इस चर्चा के प्रभारी है सुरेन्द्र सिंह |
रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है आज वीरेन  डंगवाल जी की कवितायें ,साथ में उनके साथी  ,प्रमुख साहित्यकारों के विचार ...क्या कहते है वो वीरेंन डंगवाल जी के बारे में ...

सलग्न है समूह में चर्चा के दौरान पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियाए, जिनमे कई समकालीन साहित्यकार  भी शामिल है ...

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पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है


साथियों आज कविता विरासत में प्रस्तुत है  वीरेन डंगवाल ।
वीरेन डंगवाल जी की अभी 5 अगस्त को जयंती भी थी।आधुनिक कविता के प्रमुख स्वर वीरेन दा  केे बारे में समालोचक कहते है कि उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का सा विरल लोकतत्व निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बैचैनी और बौद्धिकता एक साथ मौजूद है।

विष्णु खरे जी  कहते है , वीरेन की जितनी दृष्टि व्यष्टि पर थी, उतनी ही समष्टि पर भी थी. वह न सिर्फ प्रतिबद्ध थे बल्कि वाम-चिन्तक और सक्रियतावादी भी थे. अपने इन आख़िरी दिनों में भी उन्हें जनमंचों पर सजग हिस्सेदारी करते और अपनी रचनाएँ पढ़ते देखा जा सकता था. पिछले कई वर्षों का गंभीर कैंसर भी उनके मनोबल, जिजीविषा और सृजनशीलता को तोड़ न सका बल्कि हाल की उनकी कविताओं, मसलन दिल्ली मेट्रो पर लिखी गई रचनाओं ने उनके प्रशंसकों और समीक्षकों को चमत्कृत किया ।


मंगलेश डबराल जी कहते है  उनकी रचनात्मकता के बहुत से छोर थे. कभी क्लासिकल, कभी तोड़फोड़ करने वाला, कभी छांदस, कभी एबसर्ड की तरफ झुका हुआ। परस्पर विरोधी धाराएं उनके व्यक्तित्त्व में शामिल थीं। वीरेन ने अपनी कविता में नगण्यता का गुणगान किया। समोसा, जलेबी, पपीता जैसी चीजों पर उन्होंने कवितायें लिखीं। वह हमारी पीढ़ी का सबसे बडा आशावादी था।


युवा आलोचक शिरीष मौर्य कहते है कि जब समकालीन हिंदी कविता, पाठ और अर्थ के नए अनुशासनों में अपना वजूद खोने के कगार पर खड़ी है, तब वीरेन डंगवाल कविता में कही गई बात को अर्थ के साथ (बल्कि उससे अलग और ज़्यादा) अभिप्राय और आशय पर लाना चाहते हैं। भाषा में दिपते अर्थ, अभिप्राय, आशय और राग के मोह के चलते वे एक अलग छोर पर खड़े दिखाई देते हैं, जो जन के ज़्यादा निकट की जगह है। वे हमारे वरिष्ठों में अकेले हैं जो हिंदी पट्टी के बचे हुए मार्क्सवाद - जनवाद के सामर्थ्य  के साथ उत्तरआधुनिक पदों को भरपूर चुनौती दे रहे हैं।

परिचय
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जन्म:  -  ५ अगस्त १९४७
कीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड, 




मृत्यु: -  २८ सितंबर २०१५
बरेली, उत्तर प्रदेश

कार्यक्षेत्र  : कवि,लेखक ,अनुवादक ,संपादक

प्रमुख कृतियां : -  दुष्चक्र में सृष्टा,
कवि ने कहा,   स्याही ताल।

पुरुस्कार :  -  

रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994), शमशेर सम्मान(2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2004) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित

आज विरासत में कुछ प्रतिनिधि कवितायेँ  वीरेन दा की प्रस्तुत कर रहा हूँ । तो आइये साथियो वीरेन जी  की कविता पर ,उसके दर्शन पर ,उनकी शख्सियत पर , उनके लेखन कर्म पर चर्चा करते है ।
                  ........  सुरेन 

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तोप
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कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप

इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार

सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में

अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बंद



आएँगे, उजले दिन ज़रूर आएँगे
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे

आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे


कवि - 1
🅾🅾🅾

मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ

और गुठली जैसा

छिपा शरद का ऊष्म ताप

मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन

जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँटकर

चबाता फुरसत से

मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ

उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं

तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ

इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे

उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है

एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी

उन्हें यह तक मालूम है

कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा

मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा

हर बार

भाषा को रस्से की तरह थामे

साथियों के रास्ते पर

एक कवि और कर ही क्या सकता है

सही बने रहने की कोशिश के सिवा


कवि - 2
🅾🅾🅾

मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट

बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज

मैं पपीते का बीज हूँ

अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों कोबी

अपने भीतर छुपाए

नाजुक ख़याल की तरह

हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो !

मैं तुम्हारी बद्दुआ हूँ

सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती

तुम्हारी लालसा

गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं

मुझे छाटों
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन

उस लालटेन की तरह

जिसकी रोशनी में

मन लगाकर पढ़ रहा है

तुम्हारा बेटा।


इतने भले नहीं बन जाना साथी
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इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो

काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी


परंपरा
🅾🅾🅾

पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए
और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'
फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया
और कहा - 'अब जा कर हुए तुम विवेकवान'
फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी
और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढो'
फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की
नदी में उतार दी
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।



दुष्चक्र में सृष्टा
🅾🅾🅾🅾🅾

कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!

छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों
की बेटी छत पर उल्टा
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो
नदियाँ, वो?
सूंड हाथी को भी दी और चींटी
को भी एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं
अलग से शायद शोभा के वास्ते
वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।

अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।

आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल-भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया तो बस सोया
सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा

हाँ एक अंतहीन सूची है
भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए
जैसा कि कहा ही जाता है।

यह ज़रूर समझ में नहीं
आता कि फिर क्यों बंद कर दिया
अपना इतना कामयाब
कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ
न बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप,
तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?

अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!!


◼◻◼◻◼◻◼◻◼

समूह की प्रतिक्रियायें 


ब्रज श्रीवास्तव ....
आज के दिन का अब इस समूह के सदस्यो का इंतज़ार सा रहता है, क्योंकि मंगलवार को "विरासत" में हमें क्लासिक पढ़ने मिलता है वो भी उम्दा प्राक्कथन के साथ, दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी अब समकालीन कविता से ही अपने माफिक कुछ हासिल कर पाते हैं, और इस कविता के एक ख़ास नक्षत्र हुए वीरेन डंगवाल, मुझे याद है राजकमल प्रकाशन के पत्र प्रकाशन समाचार में मैंने, दुष्चक्र में सृष्टा, कविता पढ़ी थी, और मैंने बहुत गुनी थी, तब एन्टी ईश्वर कुछ और अच्छी कविताएँ आ रहीं थीं, ऋतुराज जी ने, और शायद स्वप्निल श्रीवास्तव ने भी निहायत कविता के प्रारूप में इस विषय पर लिखा था, यह एक उत्तर आस्था जैसा कुछ था कि ग़ालिब से चलकर अब तक के कवि वैचारिक रूप से एक  विराट सत्ता के मुकाबिल थे. 

खैर. हम अगर साहित्य के विद्यार्थी हैं तो हम निसंदेह बेहतर ही पढ़ने के लिए तैयार हैं, हर  वो टिप्पणी हमें प्रिय है जो कविता की परतें खोल रही हो, टिप्पणी लिखने से  दरअसल हमारे गद्य लेखन का रियाज भी होता है, हालांकि इस वास्ते समय निकालने के लिए एक प्रतिबद्धता की जरूरत होती है, जो समूह के, प्रस्तुतकर्ता के लिए, या एडमिन के लिए से ज्यादा कविता और स्वयं के लिए हो तो ज्यादा अच्छा है . फिर भी यह सुखद संयोग कि हम सब यहां हैं और  slow and steady तरह से कुछ सार्थक कर पा रहे हैं तो धन्यवाद तो कहना चाहिए. 

कवि और कविता पर आज दीप्ति, शरद जी, ताई,  
अपर्णा जी , नरेश जी ,चंद्रशेखर जी ,घनश्याम सोनी जी , अजय  ,  भावना जी  संध्या जी , मीना जी ,संजीव जी ,पीयूष जी , मुकेश जी , दिनेश मिश्र जी ,अविनाश जी ,  ,हरगोविंद जी ,  सुधीर जी एवं प्रवेशजी, मधु जी ने चर्चा को बढाया,  आभार||
ब्रज श्रीवास्तव 

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नरेश अग्रवाल ....
वीरेनजी से फोन पर मेरी बातचीत मार्च 2015 में हुई थी। वे सख्त बीमार थे, कैंसर से। अफसोस दिल्ली में रहकर भी उनसे मिल न पाया!
मंगलेश डबराल जी कहते है - वीरेन के साथी कवि मंगलेश डबराल ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा हैः “कविता वीरेन की पहली प्राथमिकता भी नहीं थी, बल्कि उसकी संवेदनशीलता और इंसानियत के भविष्य के प्रति अटूट आस्था का ही एक विस्तार, एक आयाम थी, उसकी अच्छाई की महज़ एक अभिव्यक्ति और एक पगचिन्हक थी। तीन संग्रहों में प्रकाशित उसकी कविताएँ अनोखी विषयवस्तु और शिल्प के प्रयोगों के कारण महत्वहपूर्ण हैं, जिनमें से कई जन आन्दोलनों का हिस्सा बनी। उनकी रचना एक ऐसे कवि ने की है, जो कवि कर्म के प्रति बहुत संजीदा नहीं रहा। यह कविता मामूली कही जाने वाली चीजों और लोगों को प्रतिष्ठित करती है, और इसी के जरिए जनपक्षधर राजनीति भी निर्मित करती है। वीरेन की कविता एक अजन्मे बच्चे को भी माँ की कोख में फुदकते रंगीन गुब्बारे की तरह फूलते-पिचकते, कोई शरारत भरा करतब सोचते हुए महसूस करती है, दोस्तों की गेंद जैसी बेटियों को अच्छे भविष्य का भरोसा दिलाती है और उसका यह प्रेम मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, वनस्पतियों, फेरीवालों, नींबू, इमली, चूने, पाइप के पानी, पोदीने, पोस्टकार्ड, चप्पल और भात तक को समेट लेता है। वीरेन की संवेदना के एक सिरे पर शमशेर जैसे क्लासिकी ‘सौन्दर्य के कवि’ हैं, तो दूसरा सिरा नागार्जुन के देशज, यथार्थपरक कविता से जुड़ता है। दोनों के बीच निराला हैं जिनसे वीरेन अँधेरे से लड़ने की ताकत हासिल करता रहा। उसकी कविता पूरे संसार को ढोने वाली नगण्यता की विनम्र गर्वीली ताकत की पहचान करती कविता है, जिसके विषय वीरेन से पहले हिन्दी में नहीं आये। वह हमारी पीढ़ी का सबसे चहेता कवि था, जिसके भीतर पी.टी. उषा के लिए जितना लगाव था, उतना ही स्याही के दावात में गिरी हुई मक्खी और बारिश में नहाये सूअर के बच्चों के लिए था। एक पेड़ पर पीले-हरे चमकते हुए पत्तों को देखकर वह कहता है, पेड़ों के पास यही एक तरीका है यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं। मीर तकी मीर ने एक रुबाई में ऐसे व्यक्ति से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की है, जो सचमुच ‘मनुष्य’ हो, जिसे अपने हुनर का अहंकार न हो, जो कुछ बोले, तो पूरी दुनिया सुनने को इकट्ठा हो जाये और जब ख़ामोश हो तो लगे कि दुनिया ख़ामोश हो गयी है। वीरेन की शख़्सि‍यत कुछ ऐसी ही थी, जिसके खामोश होने से जैसे एक दुनिया ख़ामोश हो गयी है।”

चंद्रशेखर श्रीवास्तव ...
आँखों पर पट्टी और उपनिषद.... वाह।
बहुत सारवान कवितायेँ।

आभार सुरेन जी।

घनश्याम दास सोनी ....
विरासत में आज सुरेंद्र जी द्वारा पोस्ट वीरेन डंगवाल जी की सभी रचनाएँ बहुत शानदार हैं । कुछ पंक्तियां तो बहुत गहरे तक असर करतीं हैं जैसे तोप की "खासकर गौरैयें वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप एक दिन तो होना ही है उनका मुहँ बंद" ,आयेंगे, उजले दिन आयेंगे की" हर सपने के पीछे सच्चाई होती है , हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है", दुष्चक्र में सृष्टा की ये पंक्तियां" प्रार्थनागृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलिशान, मगर भीतर छीने हुए रक्त के गारे से, वे खोखले आत्महीन शिखर-गुम्बद-मीनार ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून !" बहुत ही गहरे अर्थ लिए । धन्यवाद सुरेन जी अच्छी रचनाओं की प्रस्तुति के लिए

 Sandhya:
 नरेश जी के कविता पोस्टर लाजवाब 👌

सुरेन जी के घर की पिछ्ली गली में ही रहते थे वीरेन जी मगर बरेली जाकर भी उनसे मुलाकात न हो पाई इसका अफ़सोस रहेगा 😞

मीना शर्मा ....
सुरेन जी..कभी-कभी शब्द कम पड़ जाते हैं तारीफ के लिये.
बस वही बात है...!
गज़ब का चुनाव  ..तोप.
कितनी भी बड़ी हो..एक दिन तो होना
ही है मँह बन्द .
आयेंगे उजले दिन जरूर आयेंगे.
सूखे चेहरे बच्चों के.... आगे बढ़ते हुए उम्मीद..की कविता है...!
मै ग्रीष्म की तेजस्विता हूं.
कवि १
कवि२
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूंगा मैं
ॉएक दिन.... बहुत अच्छी कविताएँ हैं.हर कदम नये अर्थ...
इतने भले नहीं बन जाना साथी
 सुनने में नये रंग प्रेषित करता गीत हो जाता है.
परंपरा. बहुत सारे अर्थ बताती.:    :..
 दुष्चक्र में सृष्टा सार्थक  रचना.
सुरेन जी शानदार प्रस्तुति.
अनोखी दनियाँ है इन कविताओं में. 

धन्यवाद ..!

पियूष तिवारी ...
वीरेन जी की कवितायें पढीं , आनंद  तोप और उजले दिन में ही आया , शेष औसत सी लगीं मुझे ।

मेरी व्यक्तिगत सोच है , कृपया अन्यथा न लें यही कवितायें आज कोई युवा कवि लिखे तो शायद लोग  पढना भी न चाहें , लेकिन नाम तो नाम है , कुछ भी कहें ।
सादर धन्यवाद सुरेन जी व साकीबा 

नरेश अग्रवाल ....
मुझे वीरेन डंगवाल जी की निम्नांकित पंक्तियां बेहद प्यारी लगी- 
“नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से 
जहाँ तक मैं जानता हूँ 
न बना कोई पहाड़ या समुद्र 
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार। 
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप, 
तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब 
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार 
रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी 
वर्दियां जैसे 
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए 
एक जैसी हुंकार, हाहाकार! 
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान! 
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से 
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार 
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून! 
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर 
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार? “
वीरेनजी बहुत बड़े कवि और बेहद अच्छे इंसान थे। उनकी श्रेष्ठ रचनाएं  ‘कवि ने कहा-चुनी हुई कविताएं’  पुस्तक में संकलित हैं । इस पुस्तक के सहारे उनकी रचनाशीलता को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। वे बड़े कवि इसलिए हैं कि उनकी भाषा में स्पष्टता है, वैसी चीजों का चयन है जो आम दृष्टि से प्रायः ओझल रहती हैं तथा व्यंग्यात्मक भाषा शिल्प जो समाज की कुरीतियों को बड़ी आसानी से कविता में गढ़ लेता है। 
 मैं सुरेनजी को भी अच्छी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद देता हूँ ।

मधु सक्सेना .....
वीरेंद्र जी की कविताएँ सादगी से चलते चलते ऐसी  बात  कर जाती है जो चमत्कृत कर देती हैं ।साधारण में भी असाधारण का तत्व होता है ये आज जाना ।'एक दिन तो होना ही है उसका मुह बन्द ' ये बात मात्र कम्पनी बाग़ की न होकर विश्व की हो जाती है ।
'आयेगें उजले दिन जरूर आयेगें ' आशा के साथ विशवास भी कायम करती हैं ।चूहे आखिर चूहे हैं कह कर,...दुष्टता की समाप्ति की घोषणा करते हैं कवि ।अपने मनुष्य होने पर विशवास दिलाती कविता ।
कवि के अपने होने के अहसास को बनाये रखना और सही बनने की कोशिश करते रहना सबसे बड़ा उद्देश्य है ..ये कविताये कविता को मनुष्य से जोड़ती हैं ।
डंगवाल जी की सभी कविताएँ अपने जीवन्त  होने  का प्रमाण देती हैं । कहीं  विनती है तो कहीं समझाइश ... इस संसार में सुंदरता को तलाश ही लेती हैं ।और अपने होने के प्रति कृतज्ञ भी होती हैं ।मन में कहीं कोई कुंठा नहीं ...दुःख, कष्ट में भी सुख पर अगाध विश्वास उन्हें दुनिया से अलग खड़ा कर देता हैं ।मात्र शरीर नष्ट होने से ऐसे कवि नहीं मरते । जब तक इस संसार में जीवन है वीरेन जी मोजूद हैं ।नमन कवि को .

.आभार सुरेन ।💐

अलकनंदा साने 
वीरेन डंगवाल मेरे प्रिय कवि रहे हैं.परंपरा और दुष्चक्र में सृष्टा अद्भुत कविताएं हैं."दुष्चक्र में सृष्टा" में अवलोकन गजब का है और अंत में सीधे ईश्वर को चुनौती . बेहद प्रभावी .तोप पहले भी पढ़ी थी.सुरेन जी का चयन हमेशा ही अच्छा रहता है और सामयिक भी.

मैं पीयूष से सहमत हूँ कि लेकिन नाम तो नाम है , कुछ भी कहें. अक्सर ऐसा होता है. नाम के दबाव में या प्रभाव में सिर्फ तारीफ की जाती है , जबकि किसी भी सृजक  की सारी रचनाएं कभी भी न तो श्रेष्ठ होती है और न ही यह जरुरी है कि सभी उन्हें पसंद करें.


मैं ब्रज जी की इस बात असहमत हूँ कि पीयूष हमें इस तरह से नहीं सोचना चाहिए. लिखना तो और भी नहीं चाहिए. क्यों नहीं लिखना चाहिए ? ये तो वही बात हुई कि नाम वालों की हमेशा प्रशंसा होनी चाहिए.एक बार मैंने राजेश जोशी की एक कविता को एक समूह में नापसंद किया तो बवाल मच गया था.उंगली उठाने का उद्देश्य यदि गलत न हों तो सभी को मत देने का स्वातंत्र्य होना चाहिए.

अविनाश तिवारी 
प्रतिक्रियाएँ तो तभी आईं थीं जब बिना नाम की पोस्ट डलीं थीं।जहाँ तक वीरेन्द्र जी का सवाल है वे नि:संदेह श्रेष्ठ हैं मुझे उनकी तोप दगष्चक्र में सृष्टा और इतने भले भी न बने ने बहुत प्रभावित किया है । पीयूष जी निर्भीक रहिये उड़ने को आसमान अनन्त है।यह भी सच है कि इन वरिष्ठ गुणिजनों ने भी आसमान पर मुकाम बनाया है।

शरद कोकास 
वीरेन दा की कविताएं बहुत मामूली से बिम्बो में गहरी बात कहती हैं । तोप कविता में तोप साम्राज्यवाद के शेष अवशेषों का  प्रतीक है । चिड़िया ( चिड़िया में भी गोरैया सबसे निरीह मानी जाती है ) और बच्चे उस पीढ़ी के प्रतीक हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के और ब्रिटिश शासन  बारे में नहीं सुना है लेकिन वे इतिहास से भयभीत नहीं हैं  यहाँ कवि यही कहना चाहते हैं कि एक न एक दिन  साम्राज्यवाद और पूंजीवाद को खत्म होना ही है शांत पड़ी तोप की तरह ।

HarGovind Maithil : 
वीरेन डंगवाल जी की बेहतरीन कवितायें ।तोप, संदेश देती है कि समय परिवर्तनशील है सदा एक समान नहीं रहता ।आएँगे, उजले दिन जरूर आएँगे , एक आशावादी दृष्टि कोण जगाती हुई कविता ।कवि 1 व 2 अच्छी कवितायें ।इतने भले नहीं बन जाना साथी, परंपरा और दुष्चक्र में सृष्टा भी गहन अर्थ लिए हुए ।
वीरेन जी को नमन और सुरेन जी का शानदार प्रस्तुतीकरण के लिए आभार ।
 Sharad Kokas Ji:
 उजले दिन ज़रूर आएंगे इस कविता में चूहों का बिम्ब शोषक ,उत्पीडक आतंक वादी , किसी भी रूप में देख सकते है आप , कवि यह मानता है कि यह लोग भीतर से बहुत डरपोक होते हैं आप इनके सामने डट कर खड़े हो जाइये यह भाग जायेंगे । दुनिया में जाने कब से हत्याएं हो रही है , लेकिन सब कुछ खत्म तो नही हुआ है ।
आज यह मंज़र जो दिखाई दे रहा है इसका भी कभी न कभी अंत होगा ।
Dr Dipti Johri Sakiba:
 कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई हाथ भर की दूरी पर होता है ,तो ऐसा लगता है कि इनको तो कभी भी सुन लिया जायेगा ,जान लिया जायेगा । कुछ ऐसा ही मुझे उनके साथ एक ही कालेज में रहते हुए लगता रहा। हाँ इस दौरान की अनगिनत छोटी बड़ी यादें तो संजो के रखी है ।जब भी मिलते थे तो इतने सहज ,सरल लगता ही नही था कि इतने बड़े कवि से मिल रहे है ।कुछ उन्होंने कालेज में कभी प्रदर्शन नही किया तो दूसरी तरफ ये भी कहना पड़ेगा कि कालेज को भी इतने विराट व्यक्तित्व की कद्र करनी नहीं आयी । खैर ये तो संस्थाओं का स्वाभाव ठहरा।
 उनकी कई कवितायेँ मुझे पसंद है , जिनमे "परंपरा " कविता काफी महत्वपूर्ण लगती है क्योंकि इसमें वो कविता के उस विद्रोही स्वर के साथ खड़े नज़र आते है जो सत्त्ता के विरुद्ध है यथास्थितिवाद के विरुद्ध है ,उन साज़िशों के विरुद्ध है जो वास्तविक स्मृतियां मिटा कर उसके स्थान पर छद्म रचने का  उत्तर आधुनिक उपक्रम कर रहे है ।जिसमे वर्चस्ववादी शक्तियां जनसाधारण के मनोजगत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लेना चाहती हैं ..और वही से कवि के मन में इस ताकत के लिए ललकार का भाव जन्मता है और यह उसका साहस ही है जो ठीक ठीक अपने युग की अतिरेकी छवियों से युक्त अवास्तविक संसार के निर्माण होते जाने को काव्य में ढाल पाते हैं ।
 Sharad Kokas Ji: 
कवि कविता में तो बिम्बों का अद्भुत खेल है हर बिम्ब अलग अलग अर्थ देता है ।

पपीते का बीज विचार का बीज है गूदड़ कपड़ों का ढेर । जैसे फुटपाथ से खरीदी हुई कमीज़ भी आपको अच्छी लगने लगती है । एक किसान के पढ़ने वाले बेटे से पूछिए कि लालटेन की रौशनी का क्या महत्व है ।

सुरेन :
परंपरा  , कविता इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि कवि इस कविता के कहन में मिशेल फूको और देरिदा  के उत्तर आधुनिक कांसेप्ट को कविता में ढालरहा है । 
हाशिये के आदमी के इतिहास बोध को अतिक्रमित करने के सत्ता के पावर गेम को कवि चुनौती देता है । पुनःश्च  मानकीकरण की प्रक्रिया से उपजे लादे गये सामान्यीकरण को कवि की चुनोती असाधारण है । 

इस बौद्धिकता के तेवर को आप भारतीय कवियों में  सिर्फ मुक्तिबोध में ही पा सकते है संभवतः  ।

सुधीर देशपांडे 
वीरेन डंगवाल की कविता का मुहावरा आम जन के पास से होकर गुजरता है। इनको पढना अपने आसपास और कहीं गहरे भीतर से होकर गुजरता है। चाहे वह तोप हो या आएंगे उजले दिन जरुर आएंगे। या कवि शृंखला मे शामिल कविताएं। सकारात्मक और अपनी प्रखर आशावादिता के चलते वे पसंदिदा कवि हैं। अच्छा चयन सुरेनजी। ब्रज आभार

 Dr Dipti Johri Sakiba:
 हम औरतें
रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !

 Dr Dipti Johri Sakiba: हम औरते कविता का बिम्ब विधान गज़ब का है इसमें दैनंदिन कार्यो को निपटाती निरीह औरत नहीं बल्कि उनकी कविता की  स्त्री वंचित स्वप्नों की चरागाहों में चौकड़ी का इच्छा मृग बनने की आकांक्षा रखने वाली है । वह एक स्त्री की वास्तविकताओं के असीम  संभावनाओं को तथा उसे एक सामान्य मनुष्य के  रूप में प्रतिष्टित करती हुई कविता है


5 comments:

  1. धन्यवाद प्रवेश जी. वीरेन डंगवाल पर केंद्रित इस अंक को सुरेन् और साकीबा के साहित्यिक मित्रों ने महत्वपूर्ण बना दिया है. वीरेन की कविताएँ सब तरफ फैलना चाहिए.

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    1. धन्यवाद ब्रज जी

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    2. आभार!प्रवेश सोनी जी,वीरेन दा की कविताएँ गहन अनुभूति की कविताएँ हैं ।सीधे सरल बिंबो के माध्यम से बड़ी बात का कहन लिए हुए ।हर पाठक को यह अपनी सी लगती हैं,क्योंकि इनमें बनावटीपन नहीं है।मौलिक सोच है,सजग,आत्मचेतस इंसान की चिंता और दुविधा है।छिछलापन और लिजलिजापन इन कविताओं को छू भी न सका है।आजकल जैसी कविताएँ लिखी जा रही हैं, कबाड़ की ढ़ेरी की तरह,जुगुप्सा पैदा करती हुयी,इरोटिक्स की अदाओं से भरी हुयी।वहां ऐसी कविताओं का होना मानवीय संवेदनाओं के बचे होने का सबूत है।

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    3. आभार!प्रवेश सोनी जी,वीरेन दा की कविताएँ गहन अनुभूति की कविताएँ हैं ।सीधे सरल बिंबो के माध्यम से बड़ी बात का कहन लिए हुए ।हर पाठक को यह अपनी सी लगती हैं,क्योंकि इनमें बनावटीपन नहीं है।मौलिक सोच है,सजग,आत्मचेतस इंसान की चिंता और दुविधा है।छिछलापन और लिजलिजापन इन कविताओं को छू भी न सका है।आजकल जैसी कविताएँ लिखी जा रही हैं, कबाड़ की ढ़ेरी की तरह,जुगुप्सा पैदा करती हुयी,इरोटिक्स की अदाओं से भरी हुयी।वहां ऐसी कविताओं का होना मानवीय संवेदनाओं के बचे होने का सबूत है।

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    4. धन्यवाद अलका प्रकाश जी ,आपने वीरेन दा की कविताओं के बारे में सही बात लिखी |

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