Wednesday, February 14, 2018


सूर के भ्रमरगीत में वियोग-रस
आलेख: अनिता मण्डा



अनीता मण्डा  


डॉ. नगेंद्र का कथन है,  “भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। प्रवास जनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रसंग तो सूर की काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है।”

डॉ. नगेंद्र के इस कथन में सूर साहित्य का सार समाहित है। इस कथन के पहले भाग 'भक्ति के साथ शृंगार को जोड़कर'  को समझने की कोशिश करते हैं। भक्तिकाल में वैष्णव सम्प्रदायों की प्रवृत्ति सगुण भक्ति की थी। आदि शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत या निर्गुण वाद जनता के मन में बैठी निराशा से मुक्ति नहीं दिला सका। वल्लभाचार्य जी ने भक्ति के क्षेत्र में शुद्धाद्वैत वाद की स्थापना की।  शंकराचार्य मानते हैं कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है। ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही भीतर ही उपस्थित है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है।

सूरदास जी वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे। उन्होंने शुद्धाद्वैत-दर्शन पर आधारित पुष्टि-मार्ग को अपनाया। इसमें प्रेम प्रमुख भाव है। इसे 'वल्लभ सम्प्रदाय' भी कहा जाता है। पुष्टिमार्ग में भक्त भगवान के स्वरूप दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह आराध्य के प्रति आत्मसमर्पण करता है। इसको 'प्रेमलक्षणा भक्ति' भी कहते हैं। 'भागवत पुराण' के अनुसार, "भगवान का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है।" वल्लभाचार्य ने इसी आधार पर पुष्टिमार्ग की अवधारणा दी। प्रेमलक्षणा भक्ति ही भक्ति को शृंगार से जोड़ देती है। भक्त आराध्य  की लीलाओं का गान करते हैं। इस प्रकार आमजन के हृदय में रागात्मकता का संचार होता है व नैराश्य से मुक्ति मिलती है।
नगेंद्र जी का कथन आगे कहता है,  "संयोग और वियोग पक्षों का जैसा मार्मिक वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।" भक्ति काल से पहले जन्मे सभी दार्शनिक मत कमोबेश एक-दूसरे के पूरक ही हैं। इन्हीं मतों से निकले विभिन्न मार्गों ने भक्तिकाल के साहित्य को भी पोषित किया क्योंकि भक्तिकाल के लेखक कोई दरबारी कवि न होकर आमजन के बीच रहने वाले आमजन ही थे।
 वल्लभ सम्प्रदाय में अष्टछाप कवि सूरदास, कुंभनदास, परमानन्ददास, कृष्णदास, नन्ददास, छीतस्वामी, गोबिन्द स्वामी और चतुर्भुज दास थे।  महाकवि सूरदास जी इनमें सबसे प्रमुख थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदासजी की भक्ति और श्रीकृष्ण-कीर्तन की तन्मयता के बारे में उचित ही लिखा है – "आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएं श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठीं जिनमें सबसे उंची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदासजी की वीणा की थी।"
 सूर ने वात्सल्य, शृंगार और शांत रस को अपनाया और अपने गुरु के बताये पथ पर न केवल चले बल्कि उसे जन मन में प्रतिष्ठित भी किया।


कृति: प्रवेश सोनी 



हिंदी साहित्य में सूर बेजोड़ हैं। और सूर साहित्य में भ्रमरगीत बेजोड़ है। शृंगार रस को रसों का राजा बताया गया है क्योंकि इसके दो पक्ष होते हैं संयोग और वियोग। इसलिए शृंगार का कैनवस अन्य रसों से विस्तृत है वियोग शृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण सूरदास जी के सूरसागर  का भ्रमरगीत प्रसंग है।
सूरसागर के दशम स्कन्ध के दो प्रसंग 'कृष्ण की बाल-लीला’ और 'भ्रमरगीत-प्रसंग' बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसमें से 400 पदों को छाँटकर 'भ्रमरगीत-सार' के रूप में संग्रहित किया है। इन पदों में सगुण भक्ति को श्रेष्ठता व ज्ञान पर प्रेम की विजय सूरदास जी ने प्रकट की है।

भ्रमरगीत प्रसंग इस तरह उपस्थित होता है कि  बाल लीलाएं करते हुए कृष्ण बड़े हो रहे हैं। कभी माखन-चोरी लीला कभी कोई राक्षस-वध लीला कभी गोचारण को जाना कभी माता से लाड लडवाना। कृष्ण केवल एक घर के नहीं पूरी गोकुल नगरी के वासी हैं। वह गोप-गोपियाँ,  नंद-यशोदा बालसखा सभी घुले मिले हुए हैं। सभी पर अपना स्नेह न्यौछावर करते हैं। कृष्ण की लीलाएं गोकुल के नित्य जीवन का हिस्सा हैं।  परंतु जब मथुरा नरेश का संदेश पाकर वे गोकुल से मथुरा चले जाते हैं तब ना केवल गोप-गोपियाँ, नंद-यशोदा बल्कि गायें, पशु-पक्षी आदि प्रत्येक प्राणी यहां तक कि गोकुल की वनस्पतियां भी विरह के ताप में बेसुध हो जाती हैं। सूरदास जी ने इस प्रसंग को बहुत तल्लीनता के रचा है। संपूर्ण गोकुल के प्राण श्री कृष्ण में हैं और उनके वहां न रहने से जो दशा होती है वह अत्यंत कारुणिक है कोई भी सहृदय उस वियोग को अपने हृदय में अवश्य अनुभूत कर सकता है।
भ्रमरगीत में सरसता है।  वाग्वैदग्ध्य एवं माधुर्य के साथ-साथ उद्धव-संदेश, गोपियों की झुंझलाहट, प्रेमातिरेक, व्यंग्य-विनोद, हास-परिहास, उपालंभ, उदारता, सहज चपलता, वचनवक्रता  आदि बहुत मनोरम हैं।

भ्रमरगीत में जो अंश सबसे मोहक लगता है वह है उपालंभ। कृष्ण गोपियों को समझाने के लिए  उद्धव को भेजते हैं। उद्धव जब निर्गुण का उपदेश देते हैं तो गोपियों को तनिक भी अच्छा नहीं लगता। उन्हें आशा थी कि कृष्ण ने प्रेम सन्देश भिजवाया होगा। लेकिन उद्धव का निर्गुण ईश्वर का उपदेश सुनकर उनकी विरह व्याकुलता और बढ़ जाती है। गोपियों की हाजिर ज़वाबी देखते ही बनती है उनके व्यंग्य, ज्ञान पर कटाक्ष उनकी कृष्ण पर आस्था देखकर एक तरह से उद्धव जी की सिटी पिटी गुम हो जाती है। वह ठगे से रह जाते हैं। गोपियां उनसे एक से एक तर्क करती हैं इस प्रसंग में सूरदास जी द्वारा गोपियों का मनोविश्लेषण अद्भुत है। किसी एक बात को अलग-अलग पहलुओं से देखने का दृष्टिकोण इतना महीन कि आश्चर्य होता है। गोपियों के मन की आंतरिक चेष्टाओं का इतना सूक्ष्म-विश्लेषण सूर की गहरी मनोवैज्ञानिक समझ दर्शाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूर के वियोग-वर्णन  के महत्व  को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि - “ वियोग की जितनी अंतर्दशाएं हो सकती हैं ,जितने ढंगों से उन दशाओं का वर्णन साहित्य में हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उसके भीतर मौजूद हैं |”



कृति: प्रवेश सोनी 


 भ्रमर गीत में बड़ी रूचि व तल्लीनता के साथ सूरदास जी ने विरह की अनेक दशाओं -अभिलाषा, चिंता, गुण-कथन, स्मृति, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, मूर्छा एवं मरण आदि का मार्मिक व रोचक चित्रण किया  किया है -

स्मृति -
“एहि बिरियां बन तें ब्रज आवते।
दूरहिं तें वह बेनु अधर धरि बारंबार बजावते।।”

वात्सल्य वियोग में चिंता का उदाहरण यह पद-             
“संदेसो देवकी सों कहियो।
हौं तो धाय तिहारे सुत की, कृपा करति ही रहियो।।”



उद्धव जब कहते हैं कि ईश्वर का कोई रूप आकार नहीं होता वह तो निराकार होता है।
दरअसल उद्धव ज्ञानमार्गी हैं। और गोपियाँ प्रेममार्गी। तो सूरदास जी ने प्रेम को ज्ञान पर श्रेष्ठता प्रदान की है इस प्रसंग में।  गोपियाँ कहती हैं कि हमारे पास तो एक ही मन था उद्धव, वह भी कृष्ण के साथ चला गया। अब ईश की आरधना कैसे करें?  कोई दस बीस मन तो हैं नहीं कि एक से प्रेम करें, एक से निर्गुण को भजें।

उद्धव का आग्रह गोपियों से -
"सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
किर समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।"

गोपियों का उद्धव को उत्तर:-
"ऊधौ मन ना भये दस-बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥"

इस तरह निपट गंवार अनपढ़ गोपियों ने उद्धव को जता दिया कि तुम यह ज्ञान के पौथे अपने पास रखो, हमें नहीं आवश्यकता इनकी। ज्ञान प्रेम की कहीं बराबरी नहीं कर सकता।

संयोग के समय जो प्रकृति सुखकारी थी वही वियोग के समय दारुण दुःख देती है। जहाँ-जहाँ संयोग था-नदी, पेड़, लताएँ, बाग़, कुँज, खेत अब वे सब वस्तुएं स्मृति में दुःख का कारण बन गये हैं।

"बिनु गोपाल बैरनि भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुन्जैं।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं अलि गुन्जैं।।
पवन पानि घनसार संजीवनि, दधि सुत किरन भानु भई भुन्जैं।।
ए उधो, कहियो माधव सों, बिरह कदन करि मारत लुन्जैं।।
सूरदास प्रभु को मग जोबत अँखियाँ भई बरन ज्यों गुन्जैं।।"

वियोग में गोपियों की दशा ऐसी हो गई है कि चाहे कोई भी ऋतु हो उनके यहाँ पावस ऋतु ही रहती है।

"निसिदिन बरसत नैन  हमारे।
 सदा रहत पावस ऋतु हमपै, जब ते स्याम सिधारे।।
दृग अंजन लागत नहिं कबहूँ ,उर कपोल भए कारे"

उद्धव जी अपने ज्ञानमार्ग का आचरण जब गोपियों को समझा रहे होते हैं, उसी समय एक भ्रमर उड़ता हुआ वहाँ आ जाता है। उद्धव जी का एक नाम मधुकर भी होता है। अब तो जी गोपियों को बहाना मिल गया भ्रमर का, वो उसे माध्य्म बनाकर वो खरी-खरी व्यंग्य भरी बातें कहती हैं उद्धव को कि उद्धव जी अपने ज्ञान के तरकश में से तीर चलाते चलाते पस्त हो जाते हैं।

"रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।"



कृति: प्रवेश सोनी 




भ्रमरगीत में गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। :-
"उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहति हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी।"

गोपियों का कृष्ण से प्रेम कोई आकस्मिक घटना नहीं है बल्कि निरन्तर साहचर्य से उपजा प्रेम है। खेल के बहाने तो कभी पनघट पर तो कभी गो-दोहन के समय तो कभी यमुना-तट पर राधा व गोपियों की कृष्ण से भेंट होती ही रहती है। ग्राम के उन्मुक्त वातावरण में ये निरन्तरता प्रेम का रूप धारण कर लेती है। राधा से अचानक हुई पहली भेंट का दृश्य इस प्रकार है :-

“खेलत हरि निकसे ब्रज–खोरी।
औचक ही देखी तहं राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिली परी ठगोरी।।”

सूर परिदृश्य उपस्थित करने में माहिर हैं एक उदाहरण देखिये क्या अद्भुत है।

“बार-बार तू जानि ह्यां आवै।
मैं कहा करौ, सुतहिं नहिं बरजति, घर तें मोहि बुलावै।।
मोंसो कहत तोहिं बिनु देखे, रहत न मेरौ प्रान।
छोह लगति मोकौं सुनि बानी, महरि तिहारी आन।।
मुंह पावति तबही लौं आवति, और लावति मोहिं।
सूर समुझि जसुमति उर लाई, हंसति कहत हौ तोहि।।”

गोपियों का गरीमामय वियोग:- सूर की गोपियाँ चंचल और प्रत्युत्प्न मति वाली तो हैं लेकिन उनका प्रेम बहुत उदात्त और सच्चा है। आंतरिक है। संवेदना की गहराई लिए है।  सूर ने वियोग में कहीं भी उहात्मक स्थिति को नहीं आने दिया है जैसा कि बाद में रीतिकाल के समय हुआ कि विरहिणी नायिका के शरीर के ताप से पापड़ भुंजे गये। सूर ने वियोग के मन पर प्रभाव के बहुत सूक्ष्म चित्र अपने पदों में रखे। उन्होंने मन की पर्तों का अवलोकन किया। गोपियों को पूरी सृष्टि ही वियोगमयी दृष्टिगत होती है क्योंकि वे स्वयं वियोग में हैं। यमुना का पानी भी उन्हें दुःख के कारण काला हुआ जान पड़ता है। यह दुःख  की एकरूपता है। प्रत्येक सहृदय प्राणी इसे महसूस करता है। बुद्ध भी तो संसार में यही दुःख देखते हैं सब में। यहाँ गोपियाँ भी बुद्ध की दृष्टि अपना लेती हैं। वाल्मीकि के राम वन-वन पूछते हैं सीता को, वनस्पति जगत को संबोधित कर भाव व्यक्त करते हैं। तुलसी के राम भी वियोग में वन के पशु-पक्षियों से सीता के बारे में पूछते हैं। कालिदास का यक्ष भी चेतन-अचेतन के भेद को भूल बादल को सन्देशवाहक बनाता है। लेकिन गोपियाँ तो अपने साथ सम्पूर्ण सृष्टि को ही वियोगी समझने लगती हैं। वो मधुवन को उपालम्भ देती हैं:-

"मधुबन तुम कत रहत हरे।
बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाड़े क्यों न जरे?"

सूरदास के रस एवं भाव निरूपण की सबसे बड़ी विशेषता उक्ति वैचित्र्य एवं वाग्विग्धता की प्रचुरता रही है। तभी तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा, “सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, प्रायः उतनी ही चतुरता और वाग्विद्गधता भी है।” सूर ने भाव सम्पदा से समृद्ध हृदय पाया है मनोभावों पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी है, साथ ही विविध रसों के मर्मज्ञ कवि तो वे हैं ही। वात्सल्य रस के रूप में साहित्य को उनका अवदान तो कालजयी है। भ्रमरगीत के माध्य्म से ज्ञान पर प्रेम की विजय भी सूर की सहृदयता व संवेदनशीलता का प्रमाण है।

अंत में उद्धव अपनी हार मान लेते हैं। वो समझ जाते हैं कि कृष्ण ने उन्हें ज्ञान के बोझ से मुक्त होने व भक्ति के सागर में डुबकी लगाने ब्रज में भेजा था।

"अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गह्यौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ।।"



परिचय:-
अनिता मण्डा
जन्म- 20 जुलाई 1980
सुजानगढ़, राजस्थान।
निवास-दिल्ली
शिक्षा- एम ए, बी एड हिन्दी, इतिहास
साहित्य पठन में रूचि

1 comment:

  1. अनिता मण्डा जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद आपने यह जानकारी हम लोगों कों दी

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