1
डॉ मालिनी गौतम ,समकालीन साहित्य की दुनियाँ में स्थापित नव लेखिका है |गीत ,ग़ज़ल ,कविता दोहा ,मुक्त छंद आदि विधा में आपने अपनी विशेष पहचान बनाई है |हाल ही में आपका कविता संग्रह "एक नदी जामुनी सी "बोधि प्रकाशन से आया है |डॉ मालिनी अपने लेखन में आधुनिक संवेदना के सूत्र पिरोती हुई दिखाई देती है |प्रेम के कोमलतम अहसासों को गीतों की लय देते हुयें यथार्थ की जमीं के उबड़ खाबड़ रास्तों को भी अपने जहन में रखती है |जहाँ नून ,लकड़ी ,तेल में साँसों की रवानी अटक जाती है |लेखन में संवेदनाओं का प्याला लबालब भरा हुआ है ,हर विषय पर इनकी गहन अनुभूति का परिचय भाषा ,शैली से सजा हुआ मिलता है |अपनी निजी अनुभूतियों को काव्य के विविध रूपों में बुनावट और बनावट के साथ पाठकों के समक्ष रखा है | आइये आज उनके कुछ गीतों से रूबरू होकर उनकी उनसे लयबद्ध हो जाए |
परिचय
नाम मालिनी
गौतम
जन्म 20
फरवरी 1972 को झाबुआ (मध्यप्रदेश) में
शिक्षा एम.ए.,
पी-एच. डी. (अंग्रेजी)
लेखन विधाएँ मुक्तछन्द
कविता,ग़ज़ल,गीत,दोहा, अनुवाद इत्यादि
कृतियाँ 1
बूँद-बूँद अहसास (कविता-संग्रह)
2
दर्द का कारवाँ ( ग़ज़ल-संग्रह)
3 एक नदी जामुनी-सी ( कविता-संग्रह)
4 गीत अष्टक तृतीय
( साझा गीत संकलन)
5 काव्यशाला ( साझा कविता-संग्रह)
6 कविता अनवरत ( साझा कविता-संग्रह )
सम्मान 1 आगमन साहित्य सम्मान -2014, दिल्ली
2 परम्परा ऋतुराज सम्मान-2015, दिल्ली
3 आशा साहित्य सम्मान-2015, भोपाल (म. प्र.)
4 अस्मिता साहित्य
सम्मान-2016,बड़ौदा (गुजरात)
5 भारतीय साहित्य
सेवा सम्मान-2016, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, इन्दौर
संप्रति एसोसिएट
प्रोफेसर (अंग्रेजी), कला एवं वाणिज्य
महाविद्यालय,
संतरामपुर (गुजरात)
संपर्क ई
मेल - malini.gautam@yahoo.in
----------
प्रेम के आखर
अब नहीं झरते कलम से
प्रेम के आखर
हर सुबह खटपट पुरानी
घाव-सी रिसती जवानी
नून, लकडी, तेल में ही
घाव-सी रिसती जवानी
नून, लकडी, तेल में ही
साँस की अटकी रवानी
छौंक में उड़ते-बिखरते भावना के पर
लय कहीं ठिठकी हुई है
राह फिर भटकी हुई है
सफर में दलदल उगे हैं
राह फिर भटकी हुई है
सफर में दलदल उगे हैं
चाल फिर अटकी
हुई है
सर्द सन्नाटे हुए क्या ताल क्या तरुवर
सर्द सन्नाटे हुए क्या ताल क्या तरुवर
एक
बालक-सी हठीली
धूसरित कुछ, कुछ सजीली
धूसरित कुछ, कुछ सजीली
सीढ़ियों
पर चढ़ रही है
उम्र सीली हो कि गीली
हो रही है आस बेशक रेत-सी झर-झर
हो रही है आस बेशक रेत-सी झर-झर
2
रतजगा काजल
समय के बिखरे हुए हर ओर
निर्मम पल
टीसता है मन कि जैसे
सुआ कोई चुभ गया है
ओढ़ पंखों का दुशाला
क्यों हुई गुमसुम बया है
इन सवालों के कहीं मिलते नहीं हैं हल
सुआ कोई चुभ गया है
ओढ़ पंखों का दुशाला
क्यों हुई गुमसुम बया है
इन सवालों के कहीं मिलते नहीं हैं हल
एक हांडी आँच पर
सम्बन्ध पल-पल जाँचती है
सम्बन्ध पल-पल जाँचती है
अधपके-से सूत्र
सब
बैचेन होकर ताकती
है
गगन छूने को धुंआ है हो रहा बेकल
गगन छूने को धुंआ है हो रहा बेकल
मोरपंखी ओढ़नी में
संदली कुछ याद महकें
पर, कशीदों में कढ़े
कोयल-पपीहे अब न चहकें
दृगों में ठहरा हुआ है रतजगा काजल
3
जूझने का दम
इन हक़ीमो में
नहीं है जूझने का दम
व्याधि फैलाने लगी
अपनी जड़ें गहराइयों में
फुनगियों के शीश गिरते
सर्द-गहरी खाइयों में
नब्ज़ गायब है समय की,हाँफता बेदम
अपनी जड़ें गहराइयों में
फुनगियों के शीश गिरते
सर्द-गहरी खाइयों में
नब्ज़ गायब है समय की,हाँफता बेदम
रौशनी के कुछ
संदेशे लिए
रवि द्वारे खड़ा है
कूचियाँ ले कालिमा की
तम मगर पीछे पड़ा है
दाग सारे वक़्त के मुँह पर अभी कायम
रवि द्वारे खड़ा है
कूचियाँ ले कालिमा की
तम मगर पीछे पड़ा है
दाग सारे वक़्त के मुँह पर अभी कायम
कान-आँखें,मूँद कर
सेना निरर्थक लड़ रही है
है विवश राजा कि उसकी
चाल उल्टी पड़ रही है
खून से लथपथ समय की आँख नम बस नम
है विवश राजा कि उसकी
चाल उल्टी पड़ रही है
खून से लथपथ समय की आँख नम बस नम
4
इच्छाओं के प्रेत
बहुत सँभाला मगर हाथ से निकली जीवन रेत ।
हाथ धरे माथे पर अलगू
चिंता बहुत करे
ताड़ हुई बेटी को देखे
या फिर करज भरे
ज़मींदार की तेज नज़र से बच न सकेंगे खेत ।
मौसम हुए मनचले जबसे
खुशियाँ हुईं कपूर
बौराए काँटों से छलनी
हुआ सुमन का नूर
बूढ़े बरगद पर छाये हैं इच्छाओं के प्रेत ।
बन्दवारों ने स्वागत में
दिए द्वार जब खोल
चोर-लुटेरे घुस आए
पहने पाहुन का चोल
मुँह में राम बगल में चाकू बगुला फिर भी श्वेत |
5
कुंज-गलिन में
चलो मुरारी फिर से घूमें
कुंज-गलिन में
प्रेम बाँसुरी
तुम बिन रीती
यमुना कूड़ा
कचरा पीती
डाल-डाल
लटके चमगादड़
राधा घाव
व्यथा के सीती
काँटे फूलों के मुख चूमें
कुंज-गलिन में
बाल-वृन्द सब
मुँह बिसराते
माखन-मिसरी
अब नहीं पाते
कंस लूटते
छींके घर-घर
व्यथा पहरुए
किसे सुनाते
काल-सर्प मस्ती में झूमें
कुंज-गलिन में
6
भोर के उत्सव
बन्द आँखों में मचलते भोर के उत्सव ।
अपने काँधों पर उठाए
रेशमी कुछ ख्वाब
ढूँढता वह डिग्रियों के
बल पे अदना जॉब
अर्थियाँ कागज़ की ढोना कब तलक सम्भव ।
गाँव बैठा शहर के
द्वारे पसारे हाथ
लौट आयेंगे कभी वो
जिनने छोड़ा साथ
आस कोमल-सी निगलता स्वार्थ का दानव
हल चलाते सोमला का
मन बड़ा चंचल
ढूँढता वह बादलों में
ख्वाहिशों का जल
बालियाँ गेंहूँ की करती नींद में कलरव ।
मालिनी गौतम
डॉ मालिनी अपने लेखन में आधुनिक संवेदना का सूत्रपात करती हुई दिखाई देती है |प्रेम के कोमलतम अहसासों को गीतों की लय देते हुयें यथार्थ की जमीं के उबड़ खाबड़ रास्तों को भी अपने जहन में रखती है |जहाँ नून ,लकड़ी ,तेल में साँसों की रवानी अटक जाती है |लेखन में संवेदनाओं का प्याला लबालब भरा हुआ है ,हर विषय पर इनकी गहन अनुभूति का परिचय भाषा ,शैली से सजा हुआ मिलता है |अपनी निजी अनुभूतियों को काव्य के विविध रूपों में बुनावट और बनावट के साथ पाठकों के समक्ष रखा है | आइये आज उनके कुछ गीतों से रूबरू होकर उनकी उनसे लयबद्ध हो जाए |
ReplyDeleteमालिनी जी की कविताये :जैसे सुबह की भोर की ताजगी ,जैसे जमीन से जुडी सच्चाई की फसल ,जैसे संवेदनाओ की मोतियों की जुडती टूटती माला !अद्वितीय संग्रह !!
ReplyDeleteधन्यवाद अर्चना नायडू जी
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 27 फरवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDelete