Wednesday, October 26, 2016

 ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चहिये


जब ऐसी सोच की स्याही कलम में हो तो साधारण नहीं असाधारण लिखा जाता है |जन चेतना  की अलख जगाने वाले जनकवि गोरख पाण्डे आज हमारे बीच नहीं है ,लेकिन उनकी लिखी गई कविताएं उनकी सोच को ,संवेदना को, आक्रोश को उसी तरह बयां कर रही है जैसे उनके होने पर उनके शब्द चीत्कार करके सुनने वाले को बैचेन कर देते थे |उनकी कविताओं में  सत्ता को ललकारने की  माद्दा है ,जन आंदोलनों में उनके गीतों की लय  है |
वाट्स अप के साहित्यिक समूह
"साहित्य की बात " जिसके व्यवस्थापक श्री ब्रज श्रीवास्तव है ,पर विरासत प्रस्तुति के अन्तर्गत  सुरेन सिंह ने गोरख पाण्डे की कवितायें ,गीत और ग़ज़ल प्रस्तुत की |जागरूक पाठको ने न सिर्फ प्रस्तुत पोस्ट पर बात की बल्कि गोरख पाण्डे के जीवन से जुड़े कई पहलुओं पर भी विस्तृत चर्चा की और उनकी अन्य कविताओं से समूह को  गुलज़ार कर दिया |

रचना प्रवेश पर सपूर्ण विवरण के साथ पंकज दीक्षित के कविता पोस्टर भी है |






साहित्य की बात 
1945 में उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में जन्मे गोरख पांडेय ने अपनी कविताओं और गीतों के जरिए हिन्‍दी साहित्य के साथ ही आम जनमानस में एक विशिष्ट जगह बनाई  । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्‍दी के वह इकलौते कवि हैं, जिनकी रचनाएं सच्चे अर्थों में लोकगीत की तरह पूरे उत्तर भारत में प्रचलित हुईं और जल्द ही अन्य भाषा-भाषी प्रांतों में भी जनांदोलनों में उनके गीत सुनाई देने लगे।


ज्ञानरंजन कहते है कि --  सातवें दशक के उत्तरार्ध में भयावह सामाजिक परिस्थितियों, राजसत्ता की असफलताओं और क्रूरताओं के प्रतिरोध में उभरी लड़ाईयों ने जब देश की चेतना को गुणात्मक स्तर पर बदलना शुरू किया तो एक और तरह की कविता की जरूरत पैदा हुई। इस कथन के आलोक में हम देखते है कि गोरख पांडेय उस एक और तरह की कविता की जरूरत को पूरा करने वाले आलोक धन्वा और कुमार विकल के साथ के कवि है ।
वह क्रन्तिकारी और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित जनकवि थे। उन्होंने हिंदी और भोजपुरी में अपनी कवितायें और गीत लिखे। उनकी कविताओं में समाज के गरीब मजदूर और किसानों पर हो रहा उत्पीड़न ,सम्वेदना और आक्रोश  पाठक को झकझोरने का माद्दा रखता है ।


शमशेर बहादुर  कहते है  क़ि कविता क़ी सबसे बड़ी ताकत उसका लोकगीत बन जाना होता है, और गोरख, उस मुकाम तक पहुंचने वाले कवि हैं । उनकी कविता में हम देखेंगे कि वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर एवं  भाव और बोध, संवेदना और विचार, अर्थवत्ता और प्रासंगिकता, समकालीन और कालजयी क़ी द्वंद्वात्मक एकता को अपनी कविता में घटित करते हैं ।


आम किसान, मज़दूर, छात्र, स्त्री और दलित समाज की जीवन-स्थितियों का जितना सांद्र, मार्मिक और प्रभावशाली चित्रण उन्होंने किया है ,वह उल्लेखनीय है । कला और आन्दोलनधर्मिता, दोनों ही कसौटियों पर खरी उतरनेवाली अनेक श्रेष्ठ और अविस्मरणीय रचनाएँ उन्होंने संभव कीं।


संक्षिप्त परिचय
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जन्म  --  1945, देवरिया, उ0 प्र0

भाषा --   हिंदी , भोजपुरी

विधाएँ --  कविता, वैचारिक लेख, नाटक

प्रमुख कृतियाँ --

कविता  -- भोजपुरी के नौ गीत, जागते रहो सोने वालो, स्वर्ग से बिदाई, समय का पहिया, लोहा गरम हो गया है
 वैचारिक गद्य -- धर्म की मार्क्सवादी व्याख्या

निधन -- 29 जनवरी 1989

विशेष -- सन 1985 में जन संस्कृति मंच की स्थापना में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही और वे उसके संस्थापक महासचिव चुने गए।



अपने  काव्य कर्म के बारे में स्वयं गोरख पांडेयका कहना था कि ---

 “सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है. व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं. व्यक्तिगत समस्याएं जहां तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं. अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके”। 


उनकी डायरीका एक अंश प्रस्तुत है ---- 
कविता और प्रेम - दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है. प्रेम मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ. क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योग देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ-
::
इसलिये कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिये ही लिखता हूँ. कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं. हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं.
(6/3/1976 डायरी)


गोरख पाण्डे स्किजोफ़्रेनिया के मरीज रहे थे और इसी बीमारी के चलते रहते उन्होंने आत्महत्या कर ली थी । आलोचक नामवर सिंह ने शोक जताते हुए उन्हें ‘हिंदी का लोर्का’ कहा था। व्यक्ति और आंदोलन- दोनों को सम्‍बोधित करने की दृष्टि से उनकी कविताएं अद्भुत हैं।कहा जाता है कि अलगावों में पड़े हुए लोगों को उनकी कविता जोड़ती है ।



तो आइये साथियों ,गोरख पांडेय जी के काव्य कर्म को याद करते हुए , आज प्रस्तुत कुछ प्रतिनिधि रचनाओं के माध्यम से चर्चा करते है ।
          ------- सुरेन

🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰🌰


बंद खिड़कियों से टकराकर
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

नई बहू है, घर क़ी लक्ष्मी है
इनके सपनों क़ी रानी है
कुल क़ी इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है

लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

कानूनन सामान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े बड़ों क़ी नजरों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चहिये प्यार
चहिये खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना?

घर घर में श्मसान घाट है
घर घर में फांसी घर है घर घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं.



कैथर कला की औरतें
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

 तीज – ब्रत रखती धन पिसान करती थीं

गरीब की बीबी

गाँव भर की भाभी होती थीं

कैथर कला की औरतें

गली – मार खून पीकर सहती थीं

काला अक्षर

भैंस बराबर समझती थीं

लाल पगड़ी देखकर घर में

छिप जाती थीं

चूड़ियाँ पहनती थीं

होंठ सी कर रहती थीं

कैथर कला की औरतें

जुल्म बढ़ रहा था

गरीब – गुरबा एकजुट हो रहे थे

बगावत की लहर आ गई थी

इसी बीच एक दिन

नक्सलियों की धड – पकड़ करने आई

पुलिस से भीड़ गईं

कैथर कला की औरतें

अरे , क्या हुआ ? क्या हुआ ?

इतनी सीढ़ी थीं गऊ जैसी

इस कदर अबला थीं

कैसे बंदूकें छीन लीं

पुलिस को भगा दिया कैसे ?

क्या से क्या हो गईं

कैथर कला की औरतें ?

यह तो बगावत है

राम – राम , घोर कलिजुग आ गया

औरत और लड़ाई ?

उसी देश में जहाँ भरी सभा में

द्रौपदी का चीर खींच लिया गया

सारे महारथी चुप रहे

उसी देश में

मर्द की शान के खिलाफ यह जुर्रत ?

खैर , यह जो अभी – अभी

कैथर कला में छोटा सा महाभारत

लड़ा गया और जिसमे

गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा

मिला कर

लड़ी थीं कैथर कला की औरतें

इसे याद रखें

वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं

और वे भी

जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों

इसे याद रखें

क्योंकि आने वाले समय में

जब किसी पर जोर – जबरदस्ती नहीं

की जा सकेगी

और जब सब लोग आज़ाद होंगे

और खुशहाल

तब सम्मानित

किया जायेगा जिन्हें

स्वतंत्रता की ओर से

उनकी पहली कतार में

होंगी

कैथर कला की औरतें.


नोट  -- सत्तर के दशक में बिहार में चल रहे क्रान्तिकारी किसान आंदोलनों के दौरान जब पुलिस द्वारा जमींदारों के पक्ष में गरीब किसानों पर जुल्म किये जा रहे थे और उनके आन्दोलन को हथियारों द्वारा बलपूर्वक दबाया जा रहा था, तब बिहार के कैथरकलां नामक जगह पर वहाँ की आम औरतों ने पुलिस के साथ उनके ही हथियार छीनकर हथियारबंद संघर्ष शुरू कर उन्हें मार भगाया। कैथर कलाँ के संघर्ष को सलाम करते हुए कवि गोरख ने ये कविता लिखी थी ।



समझदारों का गीत
🅾🅾🅾🅾🅾🅾


हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं

हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं

हम समझते हैं खून का मतलब

पैसे की कीमत हम समझते हैं

क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं

हम इतना समझते हैं

कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं

बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम

हम बोलने की आजादी का

मतलब समझते हैं

टुटपुँजिया नौकरी के लिए

आजादी बेचने का मतलब हम समझते हैं

मगर हम क्या कर सकते हैं

अगर बेरोजगारी अन्याय से

तेज दर से बढ़ रही है

हम आजादी और बेरोजगारी दोनों के

खतरे समझते हैं

हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं

हम समझते हैं

हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह

सिर्फ कल्पना नहीं है

हम सरकार से दुखी रहते हैं

कि समझती क्यों नहीं

हम जनता से दुखी रहते हैं

कि भेड़ियाधँसान होती है

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं

हम समझते हैं

मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी

हम समझते हैं

यहाँ विरोध ही बाजिब कदम है

हम समझते हैं

हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं

हम समझते हैं

हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं

हर तर्क गोल-मटोल भाषा में

पेश करते हैं, हम समझते हैं

हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी

समझते हैं

वैसे हम अपने को किसी से कम

नहीं समझते हैं

हर स्याह को सफे़द और

सफेद को स्याह कर सकते हैं

हम चाय की प्यालियों में

तूफान खड़ा कर सकते हैं

करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं

अगर सरकार कमजोर हो

और जनता समझदार

लेकिन हम समझते हैं

कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं

हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं

यह भी हम समझते हैं।




उनका डर
🅾🅾🅾🅾

वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे



समाजवाद
🅾🅾🅾🅾

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई

गांधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई

कांगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई

महँगी ले आई, गरीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
( नवगीत )




कैसे अपने दिल को मनाऊँ
🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾🅾

कैसे अपने दिल को मनाऊँ मैं कैसे कह दूँ तुझसे कि प्यार है
तू सितम की अपनी मिसाल है तेरी जीत में मेरी हार है

तू तो बाँध रखने का आदी है मेरी साँस-साँस आजादी है
मैं जमीं से उठता वो नगमा हूँ जो हवाओं में अब शुमार है

मेरे कस्बे पर, मेरी उम्र पर, मेरे शीशे पर, मेरे ख्वाब पर
यूँ जो पर्त-पर्त है जम गया किन्हीं फाइलों का गुबार है

इस गहरे होते अँधेरे में मुझे दूर से जो बुला रही
वो हसीं सितारों के जादू से भरी झिलमिलाती कतार है

ये रगों में दौड़ के थम गया अब उमड़नेवाला है आँख से
ये लहू है जुल्म के मारों का या फिर इन्कलाब का ज्वार है

वो जगह जहाँ पे दिमाग से दिलों तक है खंजर उतर गया
वो है बस्ती यारो खुदाओं की वहाँ इंसां हरदम शिकार है

कहीं स्याहियाँ, कहीं रौशनी, कहीं दोजखें, कहीं जन्नतें
तेरे दोहरे आलम के लिए मेरे पास सिर्फ नकार है
  (ग़ज़ल)

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प्रतिक्रियाएँ                      

                   
                   
Ghanshym Das Ji: आज प्रस्तुत कविताओं में कवि ने स्त्री की लाचारी तथा शक्ति , गरीब , सत्ता की निरंकुशता ,मध्यम वर्ग की विवशता , राजनैतिक दलों के खोखले वादों को बहुत ही सरल शब्दों के माध्यम से प्रभावकारी रूप में व्यक्त किया है । उनका डर रचना तो बहुत ही शानदार है । जो बताती है जब तक डर बना रहता है सत्ता बनी रहती है डर के ख़त्म होते ही सत्ता का पतन शुरू हो जाता है । प्रस्तुतकर्ता सुरेन जी को विरासत में शानदार चयन के लिये धन्यवाद ।                      
                   
Naresh Agrawal : कविताएं सचमुच अच्छी हैं  इनके बारे में सोचते-सोचते मन को विराम नहीं मिल रहा है.👌👌                      
 Aanand Krishn: गोरख पांडेय का नाम पहली बार सुनीता शानू की एक कविता में पढ़ा था । फिर और तलाश किया, पढ़ा, गुना और ये शर्मिंदगी भी हुई की इतना महत्वपूर्ण कवि मुझसे कैसे नज़रअंदाज़ रह गया ।                      
 Mukesh Kumar Sinha: लाजवाब करती ग्रामीण परिदृश्य व स्त्री विमर्श  को दिखाती बेहद सुन्दर रचनाएँ ! हम नौसिखिये के लिए सीखने लायक है ! शुक्रिया सुरेन जी !                      
                      
 Chandrashekhar shrivastav : गोरख पाण्डेय को पहले कभी नहीं पढ़ा.. यहाँ प्रस्तुत सामाजिक चेतना पर उनके विचार और डायरी के अंश अद्भुत हैं
उनका डर बहुत प्रभाव छोड़ती है।
सुरेन जी के श्रम को सलाम।                      
 Bhavna Sinha: गोरख पाण्डेय को पहली बार पढ़ रही हूँ ।  स्त्री विमर्श पर अद्भुत कविताएँ ।
 डर कविता ने भी बहुत प्रभावित किया ।
प्रस्तुतकर्ता सुरेन जी को शानदार चयन के लिए  धन्यवाद।
Shaahnaaz: गोरख पांडेय हिन्दी के उन कवियों में से हैं जिनके जीवन और रचनओं में अन्तर नहीं है उनका जितना मूल्यांकन होना चाहिए था उतना नहीं हुआ उनके जैसी संवेदना हिन्दी कविता में दुर्लभ है । गोरख पान्डेय की कविताओं में मेहनतकशों की आवाज़ सुनाई देती है उनकी कविताओं की कई पंक्तियाँ हमारी यादों का हिस्सा बन चुकी हैं । गुगल में बेशुमार कविता पोस्टर मिल जाते हैं ।
सुरेन्द्र जी आभार आपका बहुत बढ़िया कविताएँ साझा की और विरासत को धन्यवाद ।
गोरख पान्डेय की स्मृति को सलाम ।

दंगा
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुईं थी
ख़ून की बारिश 
अगले साल अच्छी 
होगी फ़सल 
मतदान की ।

गोरख पान्डेय                      
                                           
                     
 Sanjiv Jain :
हज़ार साल पुराना है उनका गुस्सा
हज़ार साल पुरानी है उनकी नफ़रत
मैं तो सिर्फ़ 
उनके बिखरे हुए शब्दों को
लय और तुक के साथ लौटा रहा हूँ
मगर तुम्हें डर है कि 
आग भड़का रहा हूँ                      
                   
 Madhu Saksena: आदरणीय गोरख पाण्डेय की रचनाये चेतना के स्वर में बात करती हैं ।
पहली कविता में स्त्रियों की जकड़न की बात हो रही है ।व्यंग्यात्मक लहजे में नारी पीड़ा का सटीक चित्रण किया है ।
" हम सब अपराधी है " कह कर अपने को जागृत सिद्ध कर दिया ।आशा पूर्णा देवी ने भी अपनी कहानी में ये बात कही है कि  "किसी  भी अन्याय का जिम्मेदार पूरा समाज होता है।"

कैथर कला की औरतें से चिपको आंदोलन की औरतें याद आ गई ।राहबोहरे जी की भी यह कहानी है ऐसी ही ।स्त्री शक्ति का अंत नही जरूरत है एक बार उभरने की ।

समझदारों का गीत ..समाज के मुखोटे को निकाल कर फेंक दिया हो मानों ।हम भी तो यही करते है ।सब कुछ समझकर ना समझी का  नाटक पहचान लिया कवि ने ।बहुत बढ़िया कविता ।

उनका डर ...  बलशाली और सत्ता पर काबिज़ आदमी का डर । वहां से हटने का डर ।सबसे डरपोक है वो ।
शेष रचनाये भी अच्छी है ।पहली बार पढ़ा गोरख पाण्डेय जी को।
उनकी बीमारी और आत्महत्या से प्रश्न भी उठे ।क्यों ? दूसरों को राह दिखाने वाले खुद चल  दिए  ।ठीक नहीं लगा ।
आज की विरासत बहुत बढ़िया ।
आभार सुरेन ।                      
 Vivek Nirala: गोरख पाण्डेय हिन्दी के एक्टिविस्ट कवि थे। नक्सलबाड़ी की वह पीढी कविता की बेहद उर्वर पीढी थी जिसमें आलोक धन्वा, कुमार विकल, कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह, गोरख पाण्डेय और वीरेन डंगवाल थे। कैथर कलाँ की औरतें जैसी कविताएँ हिन्दी की उपलब्धि हैं। सचमुच, उनकी कविताओं के अंशों ने सूक्तियों का रूप धारण कर लिया मसलन, 'समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई'। गोरख पाण्डेय उस परम्परा के कवि हैं जो महज़ कलम से नहीं सड़कों पर आन्दोलनों से मनुष्य के पक्ष में लड़ाई लड़ते हैं। ऐसे कवि को नमन।                      
Sanjiv Jain :
समय का पहिया चले रे साथी 
समय का पहिया चले 
फ़ौलादी घोंड़ों की गति से आग बरफ़ में जले रे साथी
समय का पहिया चले
रात और दिन पल पल छिन 
आगे बढ़ता जाय
तोड़ पुराना नये सिरे से 
सब कुछ गढ़ता जाय
पर्वत पर्वत धारा फूटे लोहा मोम सा गले रे साथी
समय का पहिया चले
उठा आदमी जब जंगल से 
अपना सीना ताने
रफ़्तारों को मुट्ठी में कर 
पहिया लगा घुमाने
मेहनत के हाथों से 
आज़ादी की सड़के ढले रे साथी
समय का पहिया चले                      
                     
Arunesh Shukla: गोरख पाण्डेय की रचनाएँ इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं की मार्क्सवादी चेतना से लैस होने के बावजूद बौद्धिकता से आक्रांत नही करती।वो मार्क्सवाद को लेकर कमरे मे बैठ के सोचने वा लिखने वाले नही थे।सीधे लोक से जुड़ कर उसमे राजनैतिक चेतना लाने का प्रयास करने वाली jnu की उस धारा से तालुक रखते थे जो किसानों वा मजदूरो के बीच गयी।उनके साथ काम किया।इसलिए गोरख कविता मे लोक का इस्तेमाल खूब करते।जिसके लिए लिख रहे वो समझे इसलिए लोक भाषा की लय वा गीतात्मकता का सहारा लिया।भोजपुरी का असर साफ दिखता।खासकर भोजपुरी की लय का।यह जानते थे की समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई।और जहां से आना है कविता को वहां लेकर गए                      
Sayeed Ayub Delhi: गोरख को हीरावल पटना ने अद्भुत गाया है। आप लोग यू ट्यूब पर हीरावल गोरख पाण्डेय टाइप करके पा सकते  हैं। हीरावल ने बहुत से जनवादी कविताओं को स्वर देकर उसे जन-जन तक पहुँचाने का काम किया है                      
 Sanjiv Jain :
 चैन की बाँसुरी बजाइये आप
शहर जलता है और गाइये आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइये आप                      
1
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई।

2
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है।

3
महज ढाँचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी।

4
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है।

5
कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया।

6
ख़ून के समन्दर पर सिक्के रखे हैं
सिक्कों पर रखी है कुर्सी
कुर्सी पर रखा हुआ
तानाशाह 
एक बार फिर
क़त्ले-आम का आदेश देता है।

7
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक।

8
मदहोश लुढ़ककर गिरता है वह
नाली में आँख खुलती है
जब नशे की तरह
कुर्सी उतर जाती है।

9
कुर्सी की महिमा
बखानने का
यह एक थोथा प्रयास है
चिपकने वालों से पूछिये
कुर्सी भूगोल है
कुर्सी इतिहास है।                        
                        
                   
 Akhilesh: देवरहवा बाबा के धरती के कवि गोरख पांडेय की भाषा उस माटी के अनुकूल ही है चौरी चौरा के कवि को पुश्तैनी अधिकार है विद्रोह के स्वर की अगुवाई करने का । सत्तर व अस्सी का दशक जनता के मोहभंग का दशक भी था ,इमरजेंसी की पीडा ने उसे और आग दे दी यह न भी होता तो गोरख की शैली शुरुआत से ही हा हूं वाली शैली नही थे वो सीधे जनता से संवाद करते थे और अक्सर सत्ता के प्रतिपक्ष मे ।इस काम के लिए जबर्दस्त संप्रेषणनीयता चाहिए थी जिसके लिए उन्होंने लोक के शब्द जो जबान पर तो थे पर कोश मे नही को खुल कर अपनाया । वैसे भी उनकी कविताओं को एडीडास के जूते पहनकर अकादमी का चक्कर तो लगाना नही था न ही उन्हें बात बात मे हे हे कर के सत्ता के मुह के आगे पीकदान रखने की महती जिम्मेदारी मिली थी सो उनकी कविताओं मे खट खट की आवाज आती है ये दर असल खढाऊं की आवाज है जिसे पहन ये कविताएं कभी किसानो के चौपाल मे घुस जाती है या फिर मजूरो के भेली पानी टाइम मै एक आवाज बन उभरती है जो शाम होते होते ठेकेदार के कान मे खट से टकराती है कि' बताव काहे नाही देब मजूरी लाट साहब ' ।
शरद जी ने उस दिन संप्रेषणनीयता पर बात की थी उस दिन मै गोरख जी  याद आ रहे थै ।
उस दिन न सही आज सही जन के बीच फैले कविताई वट वृक्ष को सलाम । मन कर रहा है इसी वृक्ष के नीचे   मै भी उगूं बरसाती मशरूम बनकर ।                      
Sandhya Kulkarni: समालोचन पर उनकी डायरी पढी थी तब भी बहुत बेचैनी हुई थी अबभी उनकी कवितायें निशब्द करती हैं ,एक श्रीज़ोफ्रेनिअक ही ऐसा लिख सकता है सामान्य आदमी शायद नहीं ।
जैसा जिया वैसा ही लिखा ये उनकी कविताएँ का सार है ।
बहुत अच्छी उद्वेलित करती हुईं कवितायें ।
                     
Dr Dipti Johri: गोरख पांडेय ने मेहनतकश जनता के संघर्ष और उनकी संस्कृति को उन्हीं की बोली और धुनों में पिरोकर वापस उन तक पहुंचाया । उन्होंने सत्ता की संस्कृति के प्रतिपक्ष में जनसंस्कृति को खड़ा किया था । जैसा कि प्रस्तावना में ज्ञान रंजन जी  के कथन के संदर्भ में कहा गया , कि उस माहौल में  गोरख पांडेय जैसा काव्य निकल कर आया ।

ये महत्वपूर्ण है कि कवि अपने माहौल को कितनी गहनता से पकड़ता है और फिर उसे रिफ्लेक्ट करता है और रिफ्लेक्शन भी ऐसा कि वो लोक का हिस्सा बन जाए । कुछ समय पहले किसी न्यूज़ चैनल पर पुण्य प्रसून वाजपेयी एक आंदोलन को रिपोर्ट कर रहे थे और बैक ग्राउंड में -- समाजवाद धीरे से आये बज रहा था जिसे वो भी गुनगुनाने लगे .. ये कविता की ताकत है जिसका अहसास जब यूँ होता है तो कवि के प्रति एक गहरा सा ग्रेटिट्यूड स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है ।

सभी प्रतिनिधि कविताएं बेहतरीन और कवि की रेंज को पकड़ने में सफल सिद्ध होती है । हाँ ,समझदारों का गीत  बहुत अच्छी लगी । सत्य को बयां करती एक एक पंक्ति ।समझदारों की hypocricy का पर्दाफाश करती ।                      
                     
 अपर्णा: ये कुछ प्रतिभाएँ विश्व भर में धूमकेतु की तरह कम समय में ही बहुत कुछ कह जाती हैं, कर जाती हैं। सिक्ज़ोफ्रिनिया भी और आत्महत्या भी कॉमन दिखता है। जैसे अपने भीतर और बाहर की दुनिया के बीच का सामंजस्य साध नहीं सके। ब्लैक और वाइट के बीच के सहूलियतों के ग्रे में जहाँ सब रहते हैं वो वहाँ नहीं रुकते।
ये कविताएँ सच और सरोकार से भरी हैं इसलिए ये लोक-गीत बन सकीं। ये जन की, जन के लिए, जन द्वारा बनी हैं।
कविताओं का चयन हमेशा की तरह बेहतरीन है। और आज इस कवि का चुनाव भी सामयिक है। संभवतः हमेशा ही रहेगा। ये स्वर अपनी प्रासंगिकता कभी नहीं खोते।
शुक्रिया सुरेन जी
शुक्रिया साहित्य की बात

टी वी पर 'मिसीसिपी बर्निंग' देख रही हूँ। अमेरिका में अश्वेतों पर हुए अत्याचार पर बनी कल्ट फ़िल्म है। गोरख पाण्डे की प्रासंगिकता सार्वभौमिक लग रही है।                      
 Akhilesh: कवि आत्म हत्या कर सकता है पर कई कविताओ को अमरत्व मिला होता है क्योंकि इन कविताओं का बास मष्तिक मे नही जन की नाभि मे होता है । गोरख बाबू की ऐसी ही एक कविता पढवाता हूं ।                      
 गण मन अधिनायक जय हे  !
जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेज़ी के गायक जय हे ! जन...
जय समाजवादी रंग वाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे ! जन...
जय हे ज़मींदार पूंजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतन्त्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे ! जन...
जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुन्दरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे ! जन...

गोरख पांडेय                        
                      
                 
 Dinesh Mishra Ji: गोरख पाण्डेय जी
की कविताएं पहली बार पढ़ी, बहुत अच्छी लगीं, बिलकुल compect और to the point, कहीं कुछ भी ग़ैरज़रूरी नहीं, और ज़रूरी कुछ छूटा नहीं, ये बहुत बड़ी ख़ासियत है।इन कविताओं को पढ़कर एक सुखद अहसास हुआ।   HarGovind Maithil: गोरख पाण्डेय जी को पहली बार पढ़ा ।
गरीब वर्ग, स्त्री विमर्श और ग्रामीण परिवेश की ,कविता के माध्यम से बहुत हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति है ।
आ. गोरख पाण्डेय जी को नमन ।
सुरेन जी का बहुत आभार ।💐💐🙏🙏                      
                     
 Alka Trivedi: वाकई क्रान्तिकारी कवितायें।आज के परिप्रेक्ष्य में कितनी प्रासंगिक                      
 Smita Tiwari: सुरेनजी,आप ने  गोरख पान्डेय जी की कविताओं की प्रस्तुत कीं -अभी पढीं,लोकगीत जनमानस का दर्पण,हर व्यक्ति का अपना व़जूद है,डर आदमी के  भीतर होता है,बाकी  सब ऊपरी तामझाम है,समाजवाद एक व्यवस्था है,प्यार अपने आप में निराला होता है,चुनाव पर कटाक्ष-ये निर्मम सच है....गोरख पान्डेय जी--अद्भुत रचनाएँ                      
 Naresh Agrawal : यह सच नहीं है मेरे भाई, मैं जो भी कह रहा हूं बहुत सोच-समझ कर कह रहा हूं ।आपमें एक बहुत ही अच्छा समीक्षक बनने की प्रतिभा है, लेकिन अपने भीतर घास की तरह उपज रहे या उपज चुके बचकानी  हरकतों को जड़ मूल से काट देना होगा, तभी आपको सफलता मिलेगी। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं । उम्मीद  है उम्र के साथ-साथ आपकी  समझ भी बढ़ती जाएगी।

                     
                 
 Sanjiv Jain  
गोरख पाण्डेय» स्वर्ग से बिदाई »
हत्या की ख़बर फैली हुई है
अख़बार पर,
पंजाब में हत्या
हत्या बिहार में
लंका में हत्या
लीबिया में हत्या
बीसवीं सदी हत्या से होकर जा रही है
अपने अंत की ओर
इक्कीसवीं सदी
की सुबह
क्या होगा अख़बार पर ?
ख़ून के धब्बे
या कबूतर
क्या होगा
उन अगले सौ सालों की
शुरुआत पर
लिखा ?                    
 Sayeed Ayub Delhi: आज पटल पर 'विरासत' के तहत गोरख पाण्डेय को पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई। सबसे पहले तो सुरेन भाई को बधाइयाँ कि एक बार फिर से उन्होंने 'विरासत' को हम सबके लिये संजोने लायक़ बनाया है और एक बार फिर से मेरे एक पसंदीदा कवि को हम सबके सामने रखा है।

गोरख सच्चे अर्थों में जनवादी कवि थे। जनता के बीच रह कर, जनता के दुख दर्द के कारणों को समझ कर उन कारणों और उनसे निदान के क्रांतिकारी कवि। यूँ तो गोरख पर बहुत सी बातें होती रहती हैं पर गोरख पाण्डेय गोरख पाण्डेय कैसे बने, यह थोड़ा बहुत पता चल सकता है यदि हम गोरख के अभिन्न मित्र रहे प्रो. तुलसी राम की आत्मकथा का दूसरा भाग 'मणिकर्णिका' पढ़ें। किस तरह से गोरख अपने छात्र जीवन में ही क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े, कैसे कई-कई बार, कई-कई दिनों तक भूमिगत रहे, कैसे उनकी मनः स्थिति आम जन की समस्याओं, मज़दूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों की दुर्दशा देख देख कर बेचैन हो जाने वाली हुई और कैसे उसी मनः स्थिति ने उनकी जान ले ली, इसका बहुत हद तक अंदाज़ा 'मणिकर्णिका' से हो जाता है। कहते हैं कि उनकी मौत (आत्महत्या) वियतनाम युद्ध की विभीषका और अपने कुछ न कर पाने की विवशता की उपज थी परंतु सच यह है कि गोरख अपने छात्र जीवन से ही क़तरा क़तरा मर रहे थे। थोड़ी-थोड़ी आत्महत्या कर रहे थे। उनकी आत्महत्या एक ऐसी आत्महत्या थी जिसे मैं किसी शहादत से कम नहीं मानता।

मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में से हूँ जिन्हें गोरख पाण्डेय के कुछ क़रीबी और कुछ उनसे जुड़े रहे मित्रों से मिलने एवं उनसे गोरख के बारे में बहुत कुछ सुनने-जानने को मिला है। उनके गीत ख़ास तौर से 'हिलेले झकझोर दुनिया...' अपने नाट्य समूह और दूसरे मित्रों के साथ मिलकर जगह-जगह गाने का अवसर मिला है और साथ ही साथ गोरख पाण्डेय के गाँव जाकर परिवार के सदस्यों एवं गाँव वालों से मिलने का अवसर मिला है। लेकिन यह बड़े दुख की बात है उनके गाँव के ही बहुत से लोगों को गोरख के बारे में ठीक से पता नहीं था न कवि के रूप में उनकी कोई पहचान वहाँ थी।

बीएचयू और फिर जेएनयू के छात्र रहे काॅमरेड  गोरख कम्युनिस्ट विचारधारा के उन कवियों में से थे/हैं जिन्होंने बंद कमरों में कविताएँ लिखने के बजाये सीधे आम लोगों के संघर्षों से जुड़ना और उसमें भागीदारी करना पसंद किया। इसलिये गोरख के गीतों एवं कविताओं की भाषा लोक की भाषा बन कर हमारे सामने आती है। उनके प्रतीक लोक के विभिन्न अंचलों से उठकर हमारे सामने आते हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि वही गोरख जब डायरी लिखते हैं या पत्र लिखते हैं तो उनकी भाषा अलग होती है। संभवतः ऐसा इसलिये है कि डायरी और पत्र उनके नितांत निजी जीवन के हिस्से हैं जबकि उनकी कविताएँ और गीत उसी जन का हिस्सा हैं जिसके लिये वे जी रहे थे, मर रहे थे और कविताएँ एवं गीत लिख रहे थे।                      
                                           
Vivek Nirala:
फिलिस्तीन
***
फिलिस्तीन
वे तबाह नहीं कर सकते
तुम्हें कभी भी
क्योंकि तुम्हारी टूटी आशाओं के बीच
सलीब पर चढ़े तुम्हारे भविष्य के बीच
तुम्हारी चुरा ली गयी हँसी के बीच
तुम्हारे बच्चे मुस्कुराते हैं
धवस्त घरों, मकानों और यातनाओं के बीच
ख़ून सनी दीवारों के बीच
ज़िन्दगी और मौत की थरथराहट के बीच।

==============================                   
 कला कला के लिए

कला कला के लिए हो
जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए
न हो
रोटी रोटी के लिए हो
खाने के लिए न हो

मजदूर मेहनत करने के लिए हों
सिर्फ मेहनत
पूँजीपति हों मेहनत की जमा-पूँजी के
मालिक बन जाने के लिए
यानी, जो हो जैसा हो वैसा ही रहे
कोई परिवर्तन न हो
मालिक हों
गुलाम हों
गुलाम बनाने के लिए युद्ध हो
युद्ध के लिए फौज हो
फौज के लिए फिर युद्ध हो

फिलहाल कला शुद्ध बनी रहे
और शुद्ध कला के
पावन प्रभामंडल में
बने रहें जल्लाद
आदमी को
फाँसी पर चढ़ाने लिए।                      
बंद खिड़कियों से टकरा कर

==============================
अमीरों का कोरस
******
जो हैं गरीब उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं जरूरतें तो मुसीबतें कम हैं
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं


वे नंगे रहते हैं बड़े मजे में
वे भूखों रह लेते हैं बड़े मजे में
हमको कपड़ों पर और चाहिए कपड़े
खाते-खाते अपनी नाकों में दम है

वे कभी कभी कानून भंग करते हैं
पर भले लोग हैं, ईश्वर से डरते हैं
जिसमें श्रद्धा या निष्ठा नहीं बची है
वह पशुओं से भी नीचा और अधम है

अपनी श्रद्धा भी धर्म चलाने में है
अपनी निष्ठा तो लाभ कमाने में है
ईश्वर है तो शांति, व्यवस्था भी है
ईश्वर से कम कुछ भी विध्वंस परम है

करते हैं त्याग गरीब स्वर्ग जाएँगे
मिट्टी के तन से मुक्ति वहीं पाएँगे
हम जो अमीर हैं सुविधा के बंदी हैं
लालच से अपने बंधे हरेक कदम हैं

इतने दुख में हम जीते जैसे-तैसे
हम नहीं चाहते गरीब हों हम जैसे
लालच न करें, हिंसा पर कभी न उतरें
हिंसा करनी हो तो दंगे क्या कम हैं

जो गरीब हैं उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं मुसीबतें, अमन चैन हरदम है
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं 

 गोरख पाण्डेय 
==============================                  
 Meena Sharma:
शानदार, अय्यूब जी ! यही इंतज़ार था, कोई करीब से बताये ,गोरख पान्डेय जी के विषय में !
क्राँन्तिकारी कवि के जीवन का
दूसरा पृष्ठ दुखद पहलू के साथ ही समाप्त हुआ !
कई कविताएँ, संजीव जैन जी लेकर आए ! अखिलेश जी, सकल अमंगल दायक जय हे !जब तक वह जमीन पर था ...
फिलीस्तीन.........
खून सनी दीवारों के बीच
ज़िन्दगी और मौत की थरथराहटके बीच.....
और कला कल के लिए ...फिलहाल कला शुध्द बनी रहे !!
आधी दुनियाँ की फिक्र वाला कवि
सभी कविताएँ ,अमीरों का कोरस...
                   
Sanjiv Jain
बिल्कुल मामूली चीज़ें हैं
आग और पानी
मगर सोचो तो कितना
अजीब होता है
होना
आग और पानी का
जो विरोधी हैं फिर भी
मिलकर पहियों को गति देती हैं

मगर सोचो तो अन्धेरे में
चमकते ये हज़ारों हाथ हैं
इतिहास के पहियों को
आगे की ओर ठेलते हुए
इतिहास की क़िताबों में
इनका ज़िक्र न होना भी
सोचो तो कितना अजीब है

ऐसे ही
जो अनाज पैदा करते हैं
उन्हें भरपेट रोटी मिलनी चाहिए
जो कपड़े बुनते हैं
उनके पास कपड़े ज़रूर होने चाहिए
और प्यार उन्हें ज़रूर मिलना चाहिए
जो प्यार करते हैं
मगर सोचो तो कितना अजीब है
कि अनाज पैदा करने वालों को
दो जून रोटी नहीं मिलती
और अनाज पचा जाते हैं चूहे
और बिस्तरों पर पड़े रहने वाले लोग
बुनकर फटे चिथड़ों में रहते हैं
और सबसे अच्छे कपड़े प्लास्टिक की
मूर्त्तियाँ पहने होती हैं
ग़रीबी में प्यार भी नफ़रत करता है
जबकि पैसा
नफ़रत को भी प्यार में बदल देता है

सोचो तो सोचने को बहुत कुछ है
मगर सोचो तो यह भी कितना अजीब है
कि हम सोच सकते हैं
मसलन हम सोच सकते है कि
अगर कल-कारख़ाने मज़दूरों के ही
हाथ से चलते हैं
तो मज़दूरों को ही उनका मालिक
होना चाहिए
खेतों के मालिक खेत जोतने वाले
ही होने चाहिए
और पानी, ख़ून पीकर जीने वाली
जोकों के बिना भी बहता रह सकता है
आग झोपड़ों को जलाने के लिए
नहीं, बल्कि
ठण्ड से काँपते लोगों को गर्मी
पहुँचाने के लिए हो सकती है

सोचो तो सिर्फ़ सोचने से
कुछ नहीं होने जाने का
और करने को पड़े हैं ढेर सारे काम
मगर सोचो तो कितना अजीब है
कि बग़ैर सोचे भी
कुछ होने जाने का नहीं
जबकि
होते हो इसलिए सोचते हो ।                      
 गोरख पांडये 
=========================                     
Vivek Nirala: गोरख की डायरी का एक और अंश


एक बिल्कुल बेहूदा जीवन. पंगु, अकर्मण्य समाज विरोधी जीवन. क्या जगह बदल देने से कुछ काम कर सकूंगा ? मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं . तत्काल . मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं. कुछ भी कर न पा रहा . मुझे कोई छोटी मोटी सर्विस पकड़नी चाहिए. और नियमित लेखन करना चाहिए. यह पंगु, बेहूदा, अकर्मण्य जीवन मौत से बदतर है. मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस करनी चाहिए . मैं भयानक और घिनौने सपने देखता हूं . लगता है, पतन और निष्क्रियता की सीमा पर पहुंच गया हूं . विभाग, लंका, छात्रावास लड़कियों पर बेहूदा बातें . राजनीतिक मसखरी. हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है. लेकिन क्या फिर हमें खासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए ? जरूर कभी भी शुरू किया जा सकता है. दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए. मैं यहां से हटना चाहता हूं. बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं . मैं जड़ हो गया हूं, बेहूदा हो गया हूं. बकवास करता हूं . कविताएं भी ठीक से नहीं लिखता . किसी काम में ईमानदारी से लगता नहीं. यह कैसी बकवास जिंदगी है ? बताओ, क्या यही है वह जिंदगी जिसके लिए बचपन से ही तुम भागमभाग करते रहे हो ? तुमने समाज के लिए अभी तक क्या किया है ? जीने की कौन सी युक्ति तुम्हारे पास है ? बेशक, तुम्हे न पद और प्रतिष्ठा की तरफ़ कोई आकर्षण रहा है न अभी है. मगर यह इसीलिए तो कि ये इस व्यवस्था में शोषण की सीढ़ियां हैं ? तो इन्हें ढहाने की कोई कोशिश की है ? कुछ नहीं कुछ नहीं. बकवास खाली बकवास. खुद को पुनर्निर्मित करो. नये सिरे से लड़ने के लिए तैयार हो जाओ.

मैं दोस्तों से अलग होता हूं
एक टूटी हुई पत्ती की तरह
खाई में गिरता हूं
मैं उनसे जुड़ा हूं
अब हजारो पत्तियों के बीच
एक हरी पत्ती की तरह
मुस्कुरा उठता हूं.

मेरे दोस्तो के हाथ में
हथकड़ियां
निशान मेरी कलाई पर
उभरते हैं
हथकड़ियां टूटती हैं
जासूस मेरी निगाहों में
झांकने से डरते हैं. 
==========================                      
Sanjiv Jain :
 तुमने बहुत सहा है

तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़-माँस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सजा देना
उसमें काठ की पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन
मैं तो जोगी के साथ जाऊँगी, माँ
सुनो, वह फिर से बाँसुरी
बजा रहा है
सात सुरों में पुकार रहा है प्यार
भला मैं कैसे
मना कर सकती हूँ उसे ? 
हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।
(रचनाकाल : 1980) 
गोरख पाण्डेय 
===============================   
                  
Vivek Nirala: डायरी का एक और अंश

कितना गहरा डिप्रेशन है. लगता है मेरा मस्तिष्क किन्हीं सख्त पंजों द्वारा दबाकर छोटा और लहूलुहान कर दिया गया है. जड़ हो गया हूं. कुछ भी पढ़ने-लिखने, सुनने समझने की इच्छा ही नहीं होती. ठहाके बन्द हो गये हैं. सुबह इन्तजार करता रहा. कोई नहीं आया.
फ़ैज की कविता
 'तनहाई' -
फिर कोई आया दिलेजार ! नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा.

मुझे शक हो रहा है कि मेरे देखने, सुनने, समझने की शक्ति गायब तो नहीं होती जा रही है.अगर मेरे पत्र के बाद उन्हें देखा, तो निश्चय ही वे सम्बन्धों को फिर कायम करना चाहते हैं. अगर नहीं, तो हो सकता है कि मैंने भ्रमवश किसी और को देखकर उन्हें समझ लिया हो. यह खत्म होने की, धीरे धीरे बेलौस बेपनाह होते जाने की, धड़कनें बन्द कर देने वाले इन्तजार की सीमा कहां खत्म होती है ? क्या जिन्दगी प्रेम का लम्बा इन्तजार है ? अगर मैं रहस्यवादी होता तो आसानी से यह कह सकता था. लेकिन मैं देखता हूं, देख रहा हूं, कि बहुत से लोग प्रेम की परिस्थितियों में रह रहे हैं. अतः मुझे अपने व्यक्तिगत अभाव को सार्वभौम सत्य समझने का हक नहीं है. यह एक छोटे भ्रम से बड़े भ्रम की ओर बढ़ना माना जायेगा. मुझे प्रेम करने का हक नहीं है, मगर इन्तजार का हक है. स्वस्थ हो जाऊंगा, कल शायद खुलकर ठहाके लगा पाऊंगा.
                      
 Braj Shivastav: 🔴गोरख पांडेय की कविताएं पढ़ते हुए आश्चर्य होता रहा कि ,कैसे  स्पष्ट और कविता की शैली में क्रांति की बात करने वाले कवि, बाद बाद में अचर्चित से रहने लगते हैं ,मैं भी स्वीकारता हूं आज ही में विस्तारपूर्वक गोरख पांडेय की क्रांति धर्मिता को समझ सका हूं, जब सुरेन ,विवेक निराला ने और संजीव जैन ने ,और सईद अय्यूब जी ने, गोरख की कुछ कविताएं एवं उनसे जुड़े प्रसंग प्रस्तुत किये, वाकई मैं यह कह सकता हूं, कि हम लोग इन साहित्यिक समूहों में कुछ नया और काम का काम करते जाने में सफल होते जा रहे हैं बेशक विरासत नामक स्तंभ में हम किसी कवि को जानकर ना केवल समृद्ध होते हैं बल्कि कविता की शैली से जुड़ी हुई बातों को भी सीख जाते हैं ,आज जिन जिन लोगों ने यहां शिरकत की और टिप्पणी की उनके प्रति आभार के साथ आभार  उनके प्रति भी है जो पोस्ट को पढ़ तो रहे हैं और इस बहाने प्रस्तुतकर्ता को प्रोत्साहन दे रहे हैं सिलसिला चलता रहेगा !!आप लोगों का साथ जिंदाबाद हमारा साकीबा जिंदाबाद*..
                    
 Suren: अखिलेश भाई , मेरा प्रयास था कि कम से कम में कवि की रेंज को आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ । इसलिए में व्याप्त एक लोक भोजपुरी गीत , एक  ग़ज़ल  और चार कविताये जो कवि विचारधारा के विविध पक्ष उजागर कर सके को समाहित किया । निसन्देह जिस  कविता का आपने ज़िक्र किया वह काफी महत्वपूर्ण है ।                    
 भाई आनंद जी ,जहाँ तक मुझे लगता है ... दोनों कवि अपनी वैचारिकता में भिन्नता रखते है । जहां गोरख पांडेय नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि में वाम विचारधारा के क्रांति पक्ष से उद्द्वेलित होकर लिखते थे वही धूमिल जी की वैचारिक प्रतिबद्धता वामपंथी नही थी । हाँ उन्हें कठोर यथार्थ वादी खा जा सकता है ।

दोनों की कविता में आवेग और आक्रोश तो समान दीखता है पर  उसका हल जहाँ गोरख को वाम में दिखता है वही धूमिल केवल यथार्थ के धरातल की  विसंगति को जोरदार  तरह से मार्क करते है ।                    

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