राजस्थान की पृष्टभूमि पर दो बिनब्याही माओं की कहानी ,जिसे अपनी सुगड शब्द शैली में लिखा है सुश्री वंदना देव शुक्ल ने |बिन ब्याही माँ होना समाज की द्रष्टि में एक ऐसा कलंक है जिसे पीढियों तक ढोना पढता है |राजस्थान की भूमि ...जहां शूरवीरों की गाथा गाते जुबां नहीं थकती ,वहीं बांदी बनाई गई स्त्रीयों के शोषण की कई कहानियाँ इस मिटटी में दफ़न है |
प्रस्तुत कहानी ,विलासी रजवाड़ों के कूटनीति की दास्ताँ है | रिसाला के किरदार में स्त्री एक वस्तु की तरह दासता में बंधी दहेज़ में आती है ,,जहाँ उसका ,उसके तन और मन पर कोई अधिकार नहीं रहता | वो छली जाती है भोग्या बनाई जाती है, अप्रत्यक्ष रूपसे मातृत्व को बचाने की खातिर अंत में निष्कासन .......और समाज द्वारा उसे हीन द्रष्टि का उपहार |जिसे वो नम आँखों से स्वीकार करती है |कहानी में भाषा का प्रवाह पाठक को बांधे रखता है सामंती परिवेश का चित्रं भी सटीक और बांदी के किरदार में रिसाला के जीवन की जद्दोजहद को खूब उकेरा है |
वंदना देव शुक्ल
परिचय ...
शिक्षा -- बी एस सी, एम . ए , एम म्यूज , बी. एड, डिप्लोमा इन फ़ूड एंड न्यूट्रीशन (मुम्बई) , शोध कार्य (हिन्दी )
२०१० में पहली कहानी वागर्थ में उड़ानों के सारांश'' प्रकाशित | तद्भव, हंस, कथादेश , परिकथा, कथाक्रम, , पहल, नया ज्ञानोदय, आउट लुक, जनसत्ता, रसरंग (भास्कर ), पाखी, लमही सहित हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ /लेख प्रकाशित |
आकाशवाणी कलाकार (सुगम संगीत एवं नाटक ) अस्थाई उद्घोषक,
रंगकर्मी |प्रेमचन्द की तीन कहानियों का नाट्यरूपांतरण , एवं मंचन ( निर्देशन )
कहानी संग्रह ''उड़ानों के सारांश '' एवं उपन्यास '' मगहर की सुबह '' प्रकाशित | कथासंग्रह ''दूसरी इबारत'' शीघ्र प्रकाश्य
पुरस्कार /सम्मान
कमलेश्वर कथा सम्मान ( मुंबई)
कथादेश एवं सर्नुनाह ( सिंगापुर ) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ''रहस्य कथा प्रतियोगिता '' में पुरस्कृत
बी एस ऍफ़ (इण्डिया) द्वारा आयोजित सरहद की कहानियाँ में पुरस्कृत (देहली)
शब्द निष्ठां पुरस्कार ( अजमेर)
कादम्बिनी कथा लेखन पुरस्कार (ग्वालियर)
संबोधन , मध्य प्रदेश के रचनाकार,गाथान्तर , यात्रा, कविता संकलन (बोधि प्रकाशन ),शतदल आदि के कहानी /कविता संकलन '' में कहानी/ कविता चयनित /प्रकाशित
कहानियों का तमिल, उडिया, उर्दू, पंजाबी , गुजराती , कन्नड़ भाषा के अतिरिक्त अंगरेजी व् चीनी भाषा में अनुवाद
हाल ही में क्रोएशिया यूनिवर्सिटी ( योरोप) के इंडोलोजी विभाग के पाठ्यक्रम में तीन कवितायें शामिल
सम्प्रति - शिक्षिका ( राज.)-
कहानी
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*चरम मोक्ष*
२७ अक्टूबर २००५
मैं अनब्याही माँ की
संतान हूँ और मेरी बेटी भी | यद्यपि मेरी माँ ताजिन्दगी लज्जा को औरत का गहना
मानती रहीं पर बचा नहीं पाईं जबकि मैंने पाखंडों को नकारते हुए मर्यादा की मिसाल
कायम करना चाही ,पर ..... |मैं और माँ दौनों ही अपने अपने ‘’विश्वासों’’ के हाथों
पराजित हुए | राई बराबर फर्क के साथ हम दौनों माओं में एक फासला रहा | माँ परम्परा
की ओट में माँ बना दी गईं और मैं परम्पराओं को तोड़ने की जिद में माँ बनी | मेरे मन
के भीतर जिद्द की कई गठानें हैं उन्हें एक एक कर खोलना ही अब मेरी ज़िंदगी का मकसद
है |अपनी माँ के लिए मैं दुनिया का सबसे खूबसूरत बोझ थी लेकिन मेरी बेटी मेरे लिए
एक सतत चुनौती है |
माँ को अग्नि के
हवाले कर ,म्रत्यु के उस हवन कुंड में उनकी तमाम कुंठाओं,पीडाओं की आहुति दे और उस
अभिशप्त धरती ,जहाँ कहते हैं कि मैं पैदा हुई थी से अलविदा कहकर वापस अपने
कुरुक्षेत्र बेंगलोर लौट रही हूँ | उसी पीठ से मुह फेरकर जो बुरे दिनों में मेरी
एक मज़बूत टेक थी | माँ निर्दोष होते हुए भी जीवन पर्यंत स्वयं को दोषी मानती रहीं,
क्या इसलिए कि उन्होंने अपने भविष्य बल्कि समूचे जीवन को एक सुरक्षापूर्ण बंधन से
मुक्त कर स्वयं को एक खुले युद्धक्षेत्र में झोंकने का दुस्साहस किया था लेकिन
सामंतवाद की जड़ें उखाड़ फेंकने में असफल रहीं ? माँ जिन्हें मेरे संघर्ष समझती थी उस चुनौती और
प्रतिशोध को देखने के लिए काश वो कुछ दिन और जिंदा रहतीं
अंतिम नमन माँ ...
किराए के मकान के उस
फर्स्ट फ्लोर के कमरे में ,जहाँ मैं नौकरी के शुरुवाती दिनों में रही थी और अभी दो
दिनों से रह रही थी, तकिये के नीचे मुझे ये पुर्जा मिला था
सुनो...मैंने झाडू
बुहारू करने वाली बाई को टेरा जो छत की सफाई कर रही थी
हाँ जी ...
मेरे बाद यहाँ कौन
किरायेदार आया था ?
कोई नहीं
मेरा मतलब इस कमरे
में ?
वो कुछ देर सोचती
रही ...फिर कुछ हिकारत से बोली ...किरायेदार तो कोई नहीं आया मैडम जी |हाँ ,वो
बांदी की छोरी है न सुनीता ...अपनी माँ के ख़तम होने पर वो ही आई थी यहाँ ..वो रही
थी इसमें ..बस कुछ घंटे के लिए ..फिर चली गयी हवाई जहाज से ..अंतिम पंक्ति उसने
कुछ आश्चर्य से कही |
रिसाल की बेटी ? ..
जी मैडम जी वही
रिसाल ..जो अम्माजी के कने रहती थी | बांदी....जैसी महतारी वैसी बेटी ...ऐसी औरतें
तो..
जस्ट शटअप ...जाओ
यहाँ से ..मैं अचानक जैसे फट पडी |वो घबरा गयी और वहां से भाग गयी
वो कागज का टुकडा
उलटते पुलटते हुए न जाने कितने द्रश्य कितनी कहानियाँ आँखों से होकर गुज़रने लगे|’मैंने
वो चिट्ठी अपने सिरहाने तकिये के नीचे रखी और आँखें मींचकर लेट गयी |
(१)
‘’रिसाल कंवर खत्म
हो गयी’’ ....खबर क्या थी एक ज़लज़ला था |
रिसाल अकेली ख़त्म
नहीं हुई | न जाने कितनी त्रासदियाँ,कितनी परम्पराएं,कितनी जर्जर हवेलियों के भीतर
के सच ,कितने रस्मो रिवाज़ और तहजीब उसके साथ दफ़न हो गईं | एक पूरा युग बनाम
राजपूताना इतिहास हवा के झोंके की नाईं आँखों के सामने से सहसा गुज़र गया
....|.सदाबहार मुस्कराहट, अदब कायदे ,तीखे नाकनक्श,बोलती ऑंखें ,तराशी हुई देह |
इस रूखे सूखे प्रदेश में रिसाल की उस मनमोहक मुस्कान के साथ स्वागत की नर्म
बैछारों का सुखद अहसास यहीं हुआ था |मकान नंबर १३४ब शिव कॉलोनी ,नूतन बाजार की गली
नंबर तीन की इस कोठी’ में | ये तब का
वाकया है जब मैं अपनी तमाम स्म्रतियों ,आगाहों व् हिदायतों को अपने साथ बटोरे मध्य
प्रदेश से आठ सौ किलोमीटर की यात्रा कर राजस्थान के इस सूखे सट्ट इलाके में
शिक्षिका की नौकरी के लिए बज़िद आई थी न
जाने कितना खोकर ..न जाने क्या पाने |राजस्थान और राजस्थानियों से ये पहला ही
तार्रुफ़ था नहीं तो अभी तक तो बस फिल्मों में ही यहाँ के रेतीले टीले,राजे रजवाड़े,महल,हवेलियाँ
,ठकुराई और बोली बानी सुनी थी |
भारत के नक़्शे में
राजस्थान का ये हिस्सा डेज़र्ट एरिया में आता था |ट्रेन मैं ऑंखें मींचे यहाँ के जो
काल्पनिक द्रश्य बना कर आई थी वो तो दूर तक रेत का समुद्र ,ऊंट गाडी, सूखे लम्बे
बबूल के दरख्त और तपती धूप में दूर दराज़ से पानी ले जाती हुई सर पर मटकी रखी औरतें
थीं | देश के उस मशहूर एजुकेशनल इंस्टीट्युट की उस विशाल केम्पस बाउंड्री के बाहर
का कस्बा बिलकुल वैसा ही था जैसा राजस्थान के किसी आम कसबे को होना चाहिए| झुलसे
हुए पेड़ पौधे ,कंधे पर पड़े अंगोछे से पसीना पोंछते रिक्शा खींचते आदमी , सडकों पर
डोलते बैचेन गाय ,बैल और कुत्ते ,सूखे से
अघाए खेत, लेकिन जब रिक्शा बस स्टेंड से निकलकर केम्पस में प्रविष्ट हुआ तो उसकी
हरियाली और सुन्दरता देख कर मन प्रफ्फुल्लित हो गया |राहत मिली कि हमारी दुनिया तो
यहाँ बसेगी वहां नहीं ,लेकिन ये खुशी ज्यादा देर नहीं टिक पाई जब पता चला कि परिसर
के अन्दर अभी एक भी स्टाफ क्वार्टर खाली नहीं है| अभी आपको स्कूल केम्पस के बाहर
कसबे में ही किसी किराए के घर में ही रहना होगा |यद्यपि हाउस रेंट स्कूल दे रहा था
और ये भी कहा गया था कि जैसे ही कोई क्वार्टर खाली होगा सबसे पहले आप को ही देंगे
| बहुत बुझे मन से मैं अपना सीमित सामान लेकर स्कूल द्वारा मेरे साथ भेजे गए उस
बूढ़े मारवाड़ी चपरासी के साथ ऑटो रिक्शा में बैठ गयी जिसने रास्ते में मुझे उस घर
जिसमे मैं किराए पर रहने जा रही थी के संक्षिप्त इतिहास और उसकी वर्तमान स्थिति के
बारे में यथासंभव पर्याप्त से ज्यादा ही बता दिया |उन कस्बाई खूसट सड़कों पर
उछलते,कूदते से चलते ऑटो की खड़ खड़ में मैं
जितना सुन पाई उसका सार संक्षेप ये था कि ये घर यहाँ के पुराने ‘सेठ’ स्वर्गीय
दीनानाथ जी शर्मा का है जो एक बड़े ठेकेदार थे अब उस कोठी में उनकी पत्नी एक सेविका
के साथ अकेली रहती हैं |कहाँ कॉलेज केम्पस की वो साफ़ चमकती लम्बी चौड़ी कोलतार पुती
सडकें ,स्कूल व् कॉलेज की भव्य इमारतें ,व्यवस्थित स्टाफ क्वार्टर और बड़े बड़े
पार्क और कहाँ स्कूल गेट के बाहर का ये ठेठ राजस्थानी कस्बा |सामने से हिचकोले खाती
ऊँट गाडी जिसपर ऊंघता हुआ एक आदमी सवार था और निश्चिन्त खरामा २ चलता वो ऊंट जिसके
चेहरे पर सुस्ती,बेफिक्री और जीवन की निस्सारता टंगी थी मस्त जुगाली करता हुआ चला
आ रहा था |उधर एक छकडा जिसमे गधा जुता हुआ था सवार लड़के के चाबुक से पिटता बहराया
भागा जा रहा था |लाल मटीली कच्ची सडक के आसपास मिट्टी की चिनाई पर चूने की पुताई
हुई ऊबड़ खाबड़ सी दीवारों वाली छोटी २ कपडे,नाई ,बढ़ई, सब्जी आदि की दुकानें | दूकान
पर बैठे अलसाए से ,टाईम पास करते दुकानदार | कुछ दुकानदार ज़मीन पर दरी बिछाकर
आसपास की गतिविधियों से बेखबर बिंदास ताश खेलते हुए |उस किराए के घर के भी मेरे मन
में अजीबोगरीब बल्कि डरावने से बिम्ब बन बिगड़ रहे थे लेकिन जब मकान मालकिन शर्मा
आंटी को और घर देखा तो नितांत संतोष हुआ कि वैसा बिलकुल भी नहीं है ये जैसा सोचा
था |
वो एक अपेक्षाकृत साफ़ सुथरी कॉलोनी में एक बड़ा
मकान था जिसे यहाँ कोठी कहते थे |मकान के
बाहर नेमप्लेट थी जिस पर अंग्रेजी में ‘’शर्माज’’ लिखा था|
जब मैं अपना सूटकेस
लेकर ऑटो रिक्शा से उस ‘’कोठी’’ पर पहुँची तो आंटी जी बाहर दालान में ही बैठी
‘’राजस्थान पत्रिका’’ पढ़ रही थीं |
’’या मैडम जी आपके
घर्यां रहण खातर आयां से जी | स्कूल से थारे कन्ने कोय मेसेज आयो होगो ‘’साथ आये
मारवाड़ी पियूंन ने मेरा परिचय दिया
उन्होंने घूरकर मुझे
देखा फिर अपनी भारी आवाज में बोलीं ‘’हाँ हाँ आया था फोन हमारे पास ...वो देख लो
ऊपर का कोने वाला कमरा ..वही है किरायेदारों का | लेट बाथ उसी में अटेच्ड है |’’
उन्होंने कुछ रूखेपन से कहा और फिर सहज भाव से पेपर पढने लगीं | वो वृद्ध स्त्री
जो इस दुमंजिली कोठी की मालकिन थी यानी आंटी जी पहली मुलाक़ात में मुझे कुछ रूखी
,तटस्थ और मतलब से मतलब रखने वाली स्त्री लगी थीं |
जी थेंक्यु मैंने
कहा और सीढियां चढ़कर कमरे की चटखनी खोलकर अन्दर चली गयी |पियूंन ने मेरा सामान
कमरे में रखा और कहा ‘’मैडम जी ,माताजी घणी भली औरत हैं |संकोच मत करना |जो ज़रुरत
हो उनसे कह देना ‘’ कहकर वो चला गया | शर्मा आंटी के पति का देहांत हो चुका था |एक
बेटी अंजू थी जो विवाहित थी व् बेंगलोर की एक कम्पनी में सॉफ्ट वेयर इंजीनियर थी
|आंटी एक तरक्कीपसंद ,सह्रदय और समझदार महिला थी | उनका परिवार यहाँ का पुराना
रसूखदार और रईस परिवार था जो झरते झरते अब बस आंटीजी पर टिका था |
मेरा कमरा छत पर
एकांत में ,खुला,हवादार और शांत था |बड़ी बड़ी दोतरफा खिड़कियाँ जिनमे मोटे परदे झूल
रहे थे | मैंने पर्दा खिसका दिया और सूटकेस एक और टेबल पर रख दिया और बैड पर बैठकर
चारों और देखने लगी |तभी एक औरत ने कमरे में प्रवेश किया |पीला लाल छींटदार लहंगा
,लाल छापे की लूंगडी ,पीली ओढ़नी हाथ भर भर पहने चूडले ,बोडले को ढंकता माथे तक
पल्लू और बेहद खूबसूरत उस औरत ने जब हाथ जोड़कर मुस्कुराकर ‘’राम राम से मड्डम जी
‘’ कहा तो मैं एक पल के लिए ठिठकी उसे देखती रह गयी | किसी अनजान शहर में जहाँ कोई
हमको नहीं पहचानता वहां कोई इतने अपनापे से स्वागत करे तो एक सुखद सी अनुभूति होती
है |लम्बे सफ़र की थकान और अपरिचित जगह की शंकाएं दौनों ने मिलकर मन को बड़ा बैचेन
कर रखा था | गर्मी और थकान से बुरा हाल था |
नमस्ते ...मैंने
उसका ज़वाब दिया ..|कहना चाहती थी कि राम राम से बेहतर था कि एक ग्लास ठंडा पानी
पिला देती |औरत कमरे से बाहर जा चुकी थी |
मैं खिड़की के पास
खडी हो बाहर झाँकने लगी |गर्मी की उस मरुस्थलीय दोपहर में इक्का दुक्का लोग उस गली
में आते जाते दिखाई दे रहे थे | कुछ देर पहले बारिश के कुछ छींटे पड़े थे और अब धूप
खिल आई थी |उमस और बढ़ गयी थी | नई जगह और नए लोगों को देखकर थोडा असहज सा महसूस करना
स्वाभाविक था |जैसा शुष्क प्रदेश है वैसे ही लोग ...मैं सोच रही थी|
गला अलग प्यास से
तडक रहा था लेकिन वहां कोई ऐसा दिखाई नहीं दे रहा था जिससे पानी मांगूं |वो औरत भी
न जाने कहाँ गायब हो गयी थी |कोठी क्या है कोई पुराने हवेली सी है |भूल भुलैया...|इतने
सारे कमरे जैसे ज़मीन के नीचे खोहें हों |’’क्यूँ बनाते थे पहले के लोग इतने बड़े
बड़े घर ? क्या उन्हें लगता था कि वो सब अमृत पीकर आये हैं ?हज़ारों साल इन मज़बूत और
नक्काशीदार कमरों में राज करेंगे?...इतने विशाल सन्नाटेदार घर में दो खँडहर सी
औरतें |एक तन से एक मन से |इनके बीच में ये कहाँ आ गयी मैं ...|सब ने कितना समझाया
था कि यहीं भोपाल में और अच्छी नौकरी मिल जायेगी लेकिन मेरी जिद्द को टालना भला
किसी के वश का रहा है ?और जिद्द जब फितूर में तब्दील हो गयी हो ?अब पछताए होत क्या
....भोपाल की पिछली नौकरी भी अब भूतकाल हो चुकी थी |
मद्दम जी लो पाणी
पियो...वही ‘वेश’ वाली औरत मेरे पास मुस्कुराती हुई ट्रे में पानी का गिलास लिए
खडी थी |
ओह थेंक्यु
...धन्यवाद ..दरअसल मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस औरत का किन लफ़्ज़ों में
शुक्रिया अदा करूँ ?इसके ठेठ राजस्थानी वेशभूषा से लगता तो नहीं था कि ये कोई और
भाषा समझती होगी |
एक बात कहूँ मैडम जी
?
हाँ हाँ कहो
...लेकिन मुझे मैडम नहीं कुछ और कहो |
वो कुछ और जोर से
हंसी .गोया ताजगी के कई सुगन्धित फूल एकसाथ कमरे भर में बिखर गए हो .’’क्या
कहूँ आप ही बताइए’’ ..
कुछ भी ...मैंने कहा
अच्छा ठीक है ..दीदी
जी कहती हूँ
हाँ ठीक है..दीदी से
भी काम चल जाएगा ..मैंने मुस्कुराते हुए कहा
दीदी खाणा तो नहीं
खाया होगा आपने |बताइये क्या खायेंगी ?कुछ हलका फुल्का बना दूँ या फिर दाल रोटी
सब्जी सब ?
अरे नहीं मुझे
बिलकुल भूख नहीं है ...बना सको तो थोड़ी चाय बना दो
ठीक है जी ...लेकिन
थोडा तो कुछ खा लीजिये |खाली पेट चाय मत पीजिये ..बाय करती है जी ...
नहीं नहीं ...बस चाय
..मैंने कहा
खाना बनाने में तो
अभी देर है |मेरे पास रोटी और लहसुन का अचार पड़ा है ..घर का बना ..आपको कोई एतराज़
न हो तो ले आती हूँ
अरे नहीं २ ...बस
चाय बना सको तो बना दो ‘’ मेरे स्वर में कुछ खीज थी |...क्या चेंट औरत है भाई ?
यहाँ तो थकान से बुरा हाल हो रहा है और ये खाने की जिद कर रही है |हालाकि मैं कल
की भूखी थी लेकिन थकान और नींद ने भूख को पीछे खदेड़ दिया था |
मैं कहती ही रही और
वो जाकर एक स्टील की तश्तरी में लहसन का अचार और मोटी मोटी दो रोटी ले आई | ‘’खायेंगी
तो भूख खुल जायेगी ‘’हँसते हुए उसने बहुत ही प्रेम से मेरे सामने रख दिया
अरे दो रोटी ?नहीं
नहीं ..इतना नहीं बस एक दो कौर
ठीक है जी एक रोटी
खा लीजिये |परदेस में आकर ऐसे भूखे नहीं
रहते ...
उसके इस आत्मीय
अनुरोध में न जाने कैसा सम्मोहन था मैं मना नहीं कर पाई और मैंने एक दो गस्से उसके
कहने पर खा लिए |
और खाओ न जी ...वो खुश दिखाई दे रही थी ..
मैंने हाथ से ‘बस’
का इशारा किया...’’बहुत टेस्टी बनाया है ‘’ मैंने कहा | मेरे इस कहने में कहीं कोई
बनावटीपन नहीं था ..वाकई लाज़वाब था
क्या नाम है
तुम्हारा ?मैंने पानी पीकर गिलास ट्रे में रखती हुए कहा
रिसाल है जी ..उसने
मुस्कुराते हुए कहा |
यहाँ काम करती हो?
हाँ जी ....माताजी
भोत अच्छी हैं ..उन्होंने मुझे अपने घर में एक कमरा रसोई दे रखी है |यहीं रहती हूँ
|नौकरानी नहीं हूँ बस समझ लीजिये सेवा करती हूँ माताजी की ..बिचारी वो भी अकेली
हैं जी ..हम दौनों एक दूसरे का सहारा हैं |
ठेठ राजपूताना पोशाक
और कितनी साफ़ हिन्दी ... कितनी मीठी बोली ...मैं उसकी तहजीब पर फ़िदा थी
‘’कोई काम हो तो बुला लेना दीदी जी ...बस यहीं
रहती हूँ वो कमरा देख रही हैं न नीचे ...रसोई के बाजू..उसमे
..आप बहुत अच्छी हैं ...मैंने कहा वो हंसने लगी
|
’’दीदी जी जानती हूँ
न नए शहर में आये लोगों की दिक्कतें ?’’उसने तश्तरी उठाते हुए कहा
एक बार जब वो ऊपर
चाय देने आई मैंने उससे पूछा ‘’तुम्हारे बच्चे हैं “?
हाँ जी एक बेटी है
...माताजी की बेटी अंजू जी के साथ बंगलौर में रहती है |वो ही उसे पढ़ा रही हैं |
तुम्हारे पति भी
यहीं काम करते हैं ?
दीदीजी ...आपका
स्कूल का टाईम क्या होगा |मैं आपको नाश्ता बनाकर दे दूंगी |लंच आप आकर खा ही लेंगी
..उसने बात पलट दी
ये तो सही २ कल पता
पडेगा जब ज्वाइन करूंगी |लेकिन नाश्ते के लिए परेशान मत होना |मुझे वैसे भी नाश्ता
करने की आदत नहीं है |और लंच मैं वहीं स्कूल मैस में ले लूंगी
अरे दीदी ..रहेंगी
यहाँ हमारे घर में और लंच वहां खायेंगी ..ऐसा नहीं चलेगा उसने हँसते हुए कहा
|माताजी के लिए तो बनाना ही पड़ता है न ...आप जिस टाईम पर कहेंगी आपको भी बना दूंगी
|
मुझे दो हफ्ते हो
चुके थे यहाँ रहते हुए |मैं कमरे से बाहर कम ही निकलती |स्कूल से आकर सीधे कमरे
में | अब धीरे धीरे यहाँ के माहौल में रच बस रही थी |स्कूल जाने का समय निश्चित था
लेकिन आने का अनिश्चित |वजह मीटिंग ,एक्स्ट्रा क्लास वगेरह होना | लेकिन रविवार को
हम लोग साथ बैठकर खाना खाते |मैं और आंटी जी उन्ही की डायनिंग टेबल पर |रिसाल
गर्मागर्म फुल्के सेंककर देती जाती |खूब अपनापे से खिलाती |कमाल का स्वाद था उसके
हाथ में |आंटी जी अब मुझसे थोड़ा घुल मिल रही थीं |अपनी व्यक्तिगत बातें भी शेयर
करतीं |छुट्टी वाले दिनों में हम दौनों बाहर आँगन में बैठते और दुनिया जहाँ की
बातें करते |साथ बैठकर टी वी देखते और धारावाहिकों पर चर्चा करते| कभी कभी हम
दौनों सामने वाले मार्केट में सब्जी वगेरह लेने भी चले जाते |
कस्बा छोटा था |
आधुनिक मॉल संस्कृति वाले बड़े शहरों जैसी यहाँ फितरत नहीं थी | टुच्ची २ बेईमानी,
चोर उचक्के ,धोखाधड़ी के बावजूद यहाँ के लोग सह्रदय, सहयोगी व् आपस में सरोकार रखने
वाले थे |
रिसाल जब कमरे में
चाय वगेरह देने आती तब कुछ अनौपचारिक वार्तालाप भी हो जाता |एक सोंधी सी गंध वाला
पौराणिक सौन्दर्य और आत्मीय स्वभाव के बेजोड़ मेल का अनूठा व्यक्तित्व था उसका |अ
रेयर ब्यूटी | मैं उसे ‘’बनी ठनी’’(राजस्थानी कलाकृति) कहती थी और वो खिलखिलाकर
हंस देती
’’आप भी जी...
.’’तुम हो ही इतनी
खूबसूरत ...कहे बिना रहा ही नहीं जाता |शहरी औरतें तो इस रूप सौन्दर्य के लिए जाने
क्या क्या नहीं करतीं ..मेरी इस तारीफ़ पर उसे खुश होना चाहिए था ...लजाना चाहिए था लेकिन वो अचानक बुझ सी जाती
....क्या उमर है तुम्हारी ?
जी ठेठ तो पता नहीं ..यही पैंतालीस पचास के
आसपास ..
.माशाल्लाह ..इस उमर
में इतना रूप तो फिर ..
.अच्छा मैडम ...जाणा
है ..कहकर वो चली जाती ...
यहाँ कुछ दिन रहने
के बाद मुझे ये अहसास हो गया कि रिसाल में कुछ विरोधाभासी गुण हैं |जैसे वो
जन्मजात गरीब और अपढ़ है लेकिन उसकी बोलचाल निहायत पढ़े लिखे लोगों जैसी और रहन सहन
सुसंस्कारित है |बेटी का ज़िक्र वो कभी नहीं करती न ही उसकी बेटी यहाँ आती | पति का
नाम लेते ही वो उदास हो जाती और बात पलट देती |मुझे उसके अतीत को जानने का एक अजीब
सा जूनून पैदा हो गया |रिसाल के कुछ चारित्रिक
रहस्य मुझे उसके बारे में जानने को उकसा रहे थे |सायकोलोजी की टीचर जो ठहरी
....लेकिन ये ‘’केस हिस्ट्री’’ इस कदर अजीबोगरीब होगी ,वाकई मुझे इल्म न था |
धीरे धीरे रिसाल की
उस तहजीब और उसकी अजीबोगरीब ज़िंदगी से पर्दाफ़ाश होने लगा निस्संदेह उसका मुख्य
निमित्त आंटीजी थीं |और फिर सामने खडी थी हिन्दुस्तान की एक बेबस ,बहादुर और
ज़िंदगी से बाकायदा मुठभेड़ करती वो निपट राजपूताना स्त्री ... जिसके नसीब पर बड़े
बड़े हर्फों में खुदा था ‘’बांदी’’|
कहानी कुछ यूँ थी
...
रिसाल चौदह बरस की
उम्र में पास के ही एक छोटे और पौराणिक शहर में एक राजशाही राजपूत खानदान जिनका
ताल्लुक छोटी मोटी रियासत से था के परिवार में ठाकुर साहब के बेटे की पत्नी के साथ
बांदी बनकर दहेज़ में आई थी |तात्कालीन रिवाज के मुताबिक बांदी सदा के लिए उस घर की
सेविका बनाकर भेजी जाती थी | इस तबके की औरतें ब्याही नहीं जातीं थीं |वो फ़कत एक
खानदान की ‘बांदी’ बनकर जीवन गुजारती थीं |उनकी देह भर उनकी अपनी होती थी ,लेकिन
उनके तन और मन पर उनके मालिकों का हक होता था| ये बुराई नहीं रवायत थी |राजपूताना
शान मानी जाती थी | इन औरतों की इस तन मन की कुर्बानी के एवज में उन्हें ताजिन्दगी
हवेली के भीतर रहने,भोजन ,पहनने ओढने और सुरक्षा की सुविधा मुहैया थीं |ये लड़कियां
उन गरीब घरों से ताल्लुक रखती थीं जो पैदा होते ही ‘’अफीम चटा कर मार दिए जाने ’’
के चलन से भाग्य (?) से बच जाती थीं |तब उन्हें जीवन सुरक्षा और संघर्ष हीन
गुज़ारने की गर्ज़ से बचपन से बांदी बनने की ट्रेनिंग दी जाती थी | घरवालों को उसकी
अच्छी खासी रकम भी दी जाती थी |लड़कियों को किसी रईस औरत के साथ दहेज़ में भेजने के
साथ ही उनकी याद पर मिट्टी डाल दी जाती |
रिसाल को भी तहजीब
,सहनशीलता और सेविका का पूरा प्रशिक्षण उसी के घर की औरतों द्वारा देकर भेजा गया
था ताकि शिकायत का कोई मौक़ा न आये | |जितनी खूबसूरत और हुनरमंद बांदी उतना रसूखदार
ठकुराइन का खानदान माना जाता और उतनी ही ससुराल में उनकी इज्ज़त यानी वाह वाही
|ठाकुर विश्राम सिहं की नई नवेली पत्नी ठकुराइन सुदर्शना कंवर रुआब दार,भरे
बदन,गेहुएं रंग और सामान्य नाक नक़्शे की स्त्री थीं लेकिन उनके साथ दहेज़ में आई
बांदी कमसिन रिसाल ने अपनी खूबसूरती व् हुनरमंदी से उनकी हर कमज़दी को ढँक लिया था
| फिलहाल रिसाल कंवर का काम ‘बींदणी’’ की सेवा करना था |उन्हें वो ‘’रानी सा’’
कहती थी | उनको उबटन लगाना ,स्नान कराना , उनकी केशसज्जा ,साज श्रंगार और उनकी हर
ज़रुरत को पूरा करना ही बांदी का काम था |यहाँ रिसाल को राजपूती सुहागिन स्त्री की
पोशाक यानी ‘’वेस’’ पहनना पड़ता और माथे तक पल्लू रहता जो ताजिन्दगी उसके ज़ख्मों को
छिपाता रहा |
वो जब शुरू में
हवेली में आई तो उसे कुछ दिन अच्छा लगा |रिसाल छोटी ठकुराइन यानी अपनी मालकिन का
खूब ख्याल रखती |ठकुराइन भी उससे सखी की तरह पेश आतीं |उन्हें तनिक भी मायके की
याद आती तो वो उदास हो जातीं |तब रिसाल उन्हें चुटकुले सुनाती, गाने गाकर उनका मन
बहलाती |रिसाल गाती बहुत अच्छा थी |उसे गाने का शौक भी था |शौक तो फ़िल्मी गानों पर
नाचने का भी था लेकिन नाचना वहां अछा नहीं माना जाता था |ठकुराइन सा कभी मूड में
आतीं तो उससे अलबत्ता नाचने की फरमाइश कर बैठतीं और वो द्वार बंद कर ग्रामोफोन की
आवाज़ पर खूब नाचती | रानी सा के आराम के वक़्त रिसाल कांसे की कटोरी से रानी सा के
तलवे सहलाती |बाज बख्त चांदी के पानदान के नक्काश्दार ढकने से उन की नंगी पीठ भी
हौले हौले खुजलाती |ठकुराइन अतीव आनंद में आँखें बंद कर लेती| ठकुराइन के इस अनजान
और आभिजात्य ससुराल में रिसाल एकमात्र उनका भावनात्मक सहारा थी जो मायके की याद को
धूमिल भी कर देती |
छोटी ठकुराइन पूरे
दिन खूब सजी धजी और स्वर्ण आभूषणों से लदी रहतीं लेकिन रंग बिरंगे लहरिया छापे के
गंवई सूती ‘वेस’ और माथे तक परदे में भी लम्बी नाज़ुक टहनी सी रिसाल उनसे कई गुना
आकर्षक लगती |ठकुराइन को इस बात का फख्र भी था और खौफ भी |फख्र इसका कि रिसाल उनके
मायके से आई बांदी थी और भय पुरुषों का क्यूँ कि वो ये भी जानती थीं कि खानदान के
पुरुषों को कोई बंदिश नहीं है |वो जिसके साथ चाहे रह सकते हैं अपना मन बहला सकते
हैं |कई बार उन्होंने बातों २ में रिसाल से अपनी घुटन और उसे यथासंभव सतर्क रहने
को कहना भी चाहा लेकिन रिसाल उस वक़्त इतनी छोटी और भोली थी वो ये बातें समझ नहीं
पायेगी ,उन्होंने सोचा और चुप रहीं |फिलहाल उन्होंने रिसाल को हवेली के मर्दों के
सामने ठोडी तक पर्दा करने की हिदायत दे रखी थी |रिसाल ने इस हिदायत को बाखुशी
कुबूला |
छोटे ठाकुर सा यानी ठकुराइन सुदर्शना देवी के
पति विश्राम सिहं खूब ऊंचे पूरे और दिखनौट नवयुवक थे |शिकार के शौक़ीन और अपनी मौज
में रहने वाले | |कई एकड़ में फ़ैली उस पुश्तैनी हवेली के इकलौते वारिस |हवेली के एक
हिस्से में शानदार रिजोर्ट था |स्वीमिंग पूल ,बार, जिम ,और मनोरंजन के लिए एक बड़ा
हॉल भी था |इनमे विदेशी सैलानियों के अतिरिक्त कुंवर विश्राम सिहं के अपने
ख़ास मेहमानों के मनोरंजन के लिए व्यवस्था थी |
अभी छोटी ठकुराइन सुदर्शना कंवर को ब्याहकर आये
एक महीना ही हुआ था | हवेली में कोई जश्न था | ठकुराइन सुदर्शना गहनों से लदी फदी
औरतों से घिरी बैठी थीं | खूब रंगीन माहौल था | उस दिन बड़े ठाकुर सा यानी ठाकुर विश्राम सिहं के पिता का फरमान था कि
मेहमानों को खाना और शराब बांदियां और नौकरानियां ही परोसेंगी | सुदर्शना का मन
रिसाल में ही रखा था जो सामने के कक्ष में पुरुष मेहमानों को मुस्कुराकर मदिरा पेश
कर रही थी | हालाकि रिसाल ने पर्दा कर रखा था लेकिन घूँघट से झांकती उसकी वो दिलकश
और भोली मुस्कराहट देखने वालों के दिलों में एक तूफ़ान सा पैदा कर रही थी |ठकुराइन
को याद आया और अपनी गलती का अहसास भी हुआ
कि उन्होंने रिसाल को मुस्कुराने के लिए मना नहीं किया |रिसाल के सुन्दर चेहरे पर
मुस्कराहट देह के हज़ार कौंधते आभूषणों को मात देती थी |बीच में पड़े झीने परदे में
से रानी सुदर्शना देख रही थीं और कुढ़ रही थीं |ठाकुर विश्राम सिंह ने भी पहली बार
रिसाल को इतने निकट व् उसके पारदर्शी घुंघट में से गौर से देखा था और देखते ही उस
पर रीझ गए |
इधर आओ ...उन्होंने
शराब का ग्लास हाथ में लिए उसे बुलाया
हुकम सा ....रिसाल ने आँखें नीची करके कहा
हमने सुना है तुम
गाती बहुत अच्छा हो ..तुम्हारे गुणों में बताया गया था हमें ...ज़रा कुछ सुनाओ
मेहमानों को
उस हवेली में ‘’ना’’
कहने का रिवाज़ नहीं था ये रिसाल एक माह में जान चुकी थी |ये उसके जीवन का पहला
मौक़ा था जब इतने मर्दों के बीच उससे गाने की फरमाइश की गयी थी |रिसाल ने कनखियों
से ठकुराइन की ओर देखा जैसे अनुमति मांग रही हो | घूँघट ज़रा सा और ओढ़ लिया और
सकुचाई सी जाकर तख़्त पर बैठ गयी | ‘’म्हारो छैल छबीलो नाख्राडो ‘’उसने गाया तो
मेहमान वाह वाह कर उठे | जश्न ख़त्म हो चूका था और ठाकर सा का चैन भी |उधर शराब की
खुमारी अलग | तभी रानी सा का बुलावा आ गया और रिसाल उनके साथ रानी सा के कक्ष में
आ गयी |
...लाइए आपके गहने
उतार दूं ..कहकर रिसाल ने उनका हाथ पकड लिया और चूडा उतरने लगी
रहने दो...कर लूंगी
मैं ..
रिसाल के चेहरे से
मुस्कराहट गायब हो गयी |समझ गयी कि रानी सा उससे नाराज़ हैं लेकिन उससे क्या खता
हुई ..ये न समझ पाई |वो चुपचाप उनके कपडे
तहाने लगी |
’’किवाड़ बंद करो’’
ठकुराइन ने रिसाल को हुक्म दिया |
उसने किवाड़ बंद कर दिए |
यहाँ आओ ...रिसाल
ठकुराइन सा के निकट गयी |ठकुराइन सा कुछ पल उसकी और एकटक देखती रहीं |
’’और पास आओ’’
उन्होंने रिसाल से कहा |वो डरी हिरनी सी और निकट आ गई |ठकुराइन सा ने एक भरपूर
तमाचा रिसाल के गाल पर जड़ दिया |दुबली पतली छरहरी काया दूर छिटककर गिरी |वो रोने
लगी |
सुण...बांदियों को
यहाँ रोने की इजाज़त नहीं समझी?...तेरी बर्बादी को अब मैं टाल न पाउंगी ...चल जा अब
यहाँ से उन्होंने गुस्से में कहा
आधी रात बीत चुकी थी
|मेहमान जा चुके थे |ठकुराइन पति का इंतजार करती रही मगर ठाकुर सा तो किसी और ही
दुनिया में थे | रिसाल को ठाकुर साहब ने कमरे में बुलवाया था |
खम्भा घणी हुकम
....रिसाल ने कमरे में जाकर नज़रें झुका अदब से कहा
घणी खम्भा ...द्वार
बंद करो |उन्होंने कहा |रिसाल ने वैसा ही किया
अब मेरे पास आओ और
ये पर्दा हटाओ सर से
कुछ देर रिसाल मौन
खडी रही |उसे ठकुराइन की हिदायत याद आई ‘’किसी मर्द को तुम्हारा चेहरा नहीं दिखना
चाहिए ‘’
मैंने कहा पर्दा
हटाओ ...ठाकुर सा ने कुछ कडक आवाज़ में कहा |रिसाल डर के मारे सिहर गयी |उसने घूँघट
हटा दिया |ठाकुर विश्राम सिहं देखते रह गए उसे अपलक |
....इधर आओ हमारे पास बैठो
डर से कांपती
-सिहरती रिसाल ठाकुर सा की बगल में बैठ गयी |लम्बे चौड़े ठाकुर सा की मज़बूत छाती
में अब एक निरीह गौरैया सी रिसाल दुबकी हुई थी |ठाकुर साहब के दिल की धड़कन उसे
किसी तोप की गरज जैसी लग रही थी ...तालबद्ध...लयबद्ध गर्जना ...|ठाकुर विश्राम
सिहं ने रिसाल की ठुड्डी उठाकर उसे निहारा |
...माशाल्लाह....उनके
मुहं से बेसाख्ता निकल गया
उसने अपनी ऑंखें बंद
कर लीं |
‘’मुंदे पलक देखें
बस उर में ‘’
ठाकुर साहब ने उसे
अपने सीने से लगा लिया और उसके घने लम्बे बालों में उँगलियाँ फिराने लगे |रिसाल को
मदहोशी आने लगी |और उस दिन रिसाल पूरी तरह बांदी बन गयी थी |उसे याद आया वो पल जब
रिसाल की माँ ने आते वक़्त उसे समझाया था ‘’बेटी अब थारा ठौर ठिकाना ठाकर सा का घर
ही है ...उणक़ा हुकुम ही इब थारा मण है ..बांदी बनकर जा रही है...राणी णा समझणा
...सबका खैर ख्याल रखियो री छोरी |’’ पहला ‘’भोग’’ रवायत के हिसाब से ठाकर सा ने
लगा दिया था | एक पुरानी वृद्ध बांदी गुलाब कंवर जो बड़ी ठकुराइन के साथ ज़हेज़ में
आई थी और बुढापे में हवेली के ही एक छोटे से कमरे में रहती मुफलिसी के दिन गुज़ार
रही थी ने रिसाल को समझाया |’’ री छोरी, रोण धोण से कुछ कोणी फायदा ... बांदी
अइयां ही नसीब लेके पैदा होवे छे रे बापरी ... |’’
रोज रात में रिसाल
को ठाकुर सा के कक्ष में जाना होता |एक अजीबोगरीब स्थित से गुज़र रही थी वो |इधर
रानी सा उससे सौतनों जैसा सुलूक करतीं और उधर उसे दिन भर ठाकर सा की याद आती |उनका
प्रेम करना याद आता |उसकी ऑंखें विरह से बोझिल रहतीं |आखिर उसकी कमसिन उम्र और
जीवन का पहला प्रेम था वो | उस कडक युवावस्था में ठाकुर सा ने उससे दिल से मुहब्बत
की और रिसाल ने भी ,पर बिना प्रेम की परिणिति जाने अकूत प्रेम करने का परिणाम क्या
होगा इस सत्य से वो अनभिग्य थे | उधर ठकुराइन भी नई नई ब्याहता ही थीं लेकिन ठाकुर
साहब तो रिसाल बांदी के दीवाने होचुके थे |रात भर ठकुराइन अकेली मीन सी तडपती और
दिन में रिसाल को खोई खोई देखकर ठकुराइन की छाती पर सांप लोटते | तभी रिसाल
गर्भवती हो गयी |मानो ज़लज़ला ही आ गया |
छोरी ...या तो भोत
गल्त हो गया ...इसे सपा करा दे ...पुरानी बांदी गुलाब ने हिदायत दी
सपा के होबे है बड़ी
अम्मा ?
सपा यानी गरभ गिरया
दे ...राणी सा थारे से ज्यूँ ही चिढती से..पता चल गया ते मारकर जंगल में गडवा देगी
पता भी ना चलेगा किसी ने...
रिसाल बुरी तरह डर
गयी |उसे कुछ समझ में न आया कि ये क्या हो गया |वो रोने लगी |
गुलाब ने उसे
समझाया ‘’मरद की फितरत अण बांदी की किस्मत
अईया ही होबे है छोरी | ठकुराइन थारी कोख से हुकम (ठाकुर सा) का टाबर कइयां
बर्दास्त कार्या सी ? ने तू हवेली में रहण की बचेगी री छोरी ने बाहर ..‘’....
गुलाब ने सोचा तो ये
था कि रानी सा को खबर भी नहीं होगी और वो चुपचाप उसे ‘कड़ा’’ खिलाकर उसका गर्भ गिरा
देगी लेकिन समय ज्यादा बीत चूका था ..खतरा था सो ठकुराइन को खबर देनी पडी |
ठकुराइन ने सुना तो
जैसे काठ मार गया उन्हें |वो खामोश रहीं और गुलाब से कहा
इसका ख्याल
रखो...खाने पीने का ध्यान और इसका काम तुम करोगी अब जब तक इसकी जचकी हो नहीं जाती
|हवेली के अन्य नौकर चाकरों से ये खबर छुपा कर रखने की सख्त हिदायत थी | ठाकुर
विश्राम सिहं अपनी पत्नी ठकुराइन सुदर्शना का आदर करते थे |और उनकी रसूखदार खानदान
का लिहाज भी |जब ठकुराइन ने रिसाल से सम्बन्ध रखने पर पति से नाराजगी प्रकट की तो
उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने रिसाल से कोई सम्बन्ध न रखने का वचन दे डाला |
रिसाल को बेटा हुआ
था |हवेली में कानो कान किसी को खबर न लगी सिवाय ठाकुर साब ,ठकुराइन और गुलाब के
|गुलाब को उसे पालने का जिम्मा सौंपा गया |जचकी के बाद तो रिसाल और भी सुन्दर
दिखने लगी थी |ठाकुर साब वचन बद्ध थे लेकिन ठकुराइन को ये भांपते देर न लगी
कि ठाकुर सा का शरीर भले ही उनके पास रहता है लेकिन तडपते वो अब भी रिसाल के लिए
ही हैं
ठाकुर साहब दो दिनों
के लिए कसबे से बाहर गए हुए थे |ठकुराइन ने एक चाल चली ...
हवेली में काम करने
वाले माली मलखान सिंग को बुलाया |
तुमने बाग़ बहुत
खूबसूरत कर रखा है तुम्हे इनाम देना चाहते हैं
मेहरबानी ठकुरानी
..उसने नज़रें झुकाकर बड़े अदब से कहा
लेकिन इनाम ये होगा
वो तो मलखान ने सपने भी ना सोचा था |
‘’रिसाल बांदी को ले
जाओ अपने साथ ...दो दिन की तुम्हारी छुट्टी मौज मनाओ ....जाओ
...रिसाल रोती रही
...अपने दुधमुहे बच्चे से बिछुड़ने की टीस से वो दुःख में डूब गयी ..खूब तडपी लेकिन
ठकुराइन का दिल न पसीजा |’’ थारा टाबर तो गुलाब संभालेगी ना |फिकर की के बात ..जा मौज करे ...|
ना रानी सा ..रहम
...रिसाल गिडगिडाई
अरे तो थाणे हवेली
के बाहर थोड़ा ही भेज रहे हैं ...? अपणा आदमी
ही तो है विशवास का ..’’ठकुराइन ने लाड़ का नाटक करते हुए दलील दी |मलखान
सिंह हवेली में ही नौकरों को दिए गए घरों में रहता था |रिसाल को जबरन उसके साथ
जाना पडा |ठाकुर साब जब वापस लौटे तो ठकुराइन ने उन्हें रिसाल का माली के साथ रात
गुजारना बताया |विश्राम सिहं दुखी तो हुए लेकिन कुछ कहा नहीं ...बांदी थी ..क्या
और किससे कहते |
अभी जवान लडकी है
..उसे भी तो हक़ है मौज मस्ती करने का ...उसकी अपनी हैसियत के लोग उसे मिल गए
...|ठकुराइन ने कहा |ठकुराइन जानती थी हवेली के कायदे क़ानून |एक बार बांदी का
उपभोग कोई और निम्न वर्गीय कर्मचारी कर ले तो ठाकुर खानदान के मर्द उसकी और देखते
तक नहीं |
उस दिन के बाद रिसाल
की ज़िंदगी नरक बन गयी |
न सिर्फ हवेली के
मेहमान बल्कि हवेली के किसी भी कर्मचारी,सेवक आदि जैसे लोगों के हाथ का खिलौना बन
गयी वो| मेहमानों के सामने उसे नजराने और हवेली के नौकरों के लिए बतौर इनाम इकराम
पेश किया जाता |ठकुराइन को फ़िक्र और कुढ़न से निजात मिल गयी |
तब रिसाल उन्नीस बरस की थी जब उसका पहला प्रेम
ठाकुर साहब के कार ड्राईवर लाखन सिहं से हुआ |लाखन सिहं अछे खानदान का और थोडा
बहुत पढ़ा लिखा युवक था |वो हवेली से बाहर कसबे में रहता था |वो रिसाल को मन ही मन
न जाने कबसे प्रेम करता था लेकिन कहने का न कभी मौका मिला न हिम्मत ही हुई | हवेली
की मज़बूत दीवारों के भीतर रिसाल के साथ क्या हो रहा है इसका ज़रा भी इल्म न था
|लाखन चाहता तो ठाकुर साहब से विनती करके रिसाल को ले जा सकता था |वो बांदी थी
|बांदी का काम ही हवेली से ताल्लुक रखने वाले लोगों का मन बहलाना था |लेकिन लाखन
सिहं रिसाल को दिल से प्यार करता था |मन के किसी कोने में उससे ब्याह करने का सपना
भी उसने संजो रखा था |
एक दिन बाग़ के घने
नीम के पेड़ के पीछे उसने रिसाल को बुलाया |रिसाल के हाथ को चूमकर उसने मुहब्बत का
इज़हार किया |
‘’मुझे यहाँ से ले
जाओ लाखन..ये लोग मुझे नोंच खायेंगे ..सब गिद्ध हैं
मतलब ? मैं समझा
नहीं
बस इतना ही समझ लो
कि मैं बांदी हूँ इंसान नहीं ...
ठीक है ...कल तू
मुझे यहीं मिलना ...मैं तुझे इस नरक से निकालूँगा ....कहकर लाखन चला गया | जैसे
तैसे मौक़ा देखकर रिसाल पोटली में अपने कुछ कपडे लत्ते रखकर अँधेरे में पेड़ के नीचे
खडी हो गयी |लाखन उसका इंतज़ार कर रहा था |वो दौनों जैसे ही वहां से धीरे धीरे बाहर
जाने को हुए ठकुराइन की कार की लाईट उनके चेहरों पर चमकी |वो कहीं से लौट रही थीं
‘’कौन है वहां इधर
आओ
लाखन और रिसाल डरे
हुए से उनके पास खड़े थे
कहाँ जा रहे हो
दौनों ..और ये क्या है ? उन्होंने रिसाल की पोटली की और इशारा किया |
कपडे हैं राणी सा
....
भागने की तैयारी थी
?
रिसाल डरकर कांपने
लगी |
जा भीतर जा
.....हमारे लिए खस का शरबत बनाकर रख ..
रिसाल को तो लग रहा
था कि रानी सा उसे भयानक सज़ा देंगी ...बांदी होकर भागने की जुर्रत ?लेकिन वो तो
बिलकुल ही सामान्य थीं| ..उसे खुशी हुई ...
जी रानी सा ..नीची निगाह कर उसने कहा और हवेली के भीतर चली
गयी |लेकिन उसके बाद लाखन सिहं ऐसा गायब हुआ कि फिर न मिला |रिसाल विक्षिप्त सी हो गयी |न खाना खाती थी न सोती थी
|रात रात भर पूरी हवेली में घूमती रहती | सूखकर काँटा हो गयी |लेकिन ठकुराइन को उसमे
इसके अलावा कुछ और भी बदलाव दिख रहे थे |
पेट से है क्या ?
उन्होंने रिसाल से पूछा
पता नहीं ...रिसाल
ने अनमने मन से कहा ..मेरा शरीर मेरा रहा है क्या ...ये तो वो लोग बताएँगे जिनका
मेरे शरीर पर अधिकार रहा है
बहुत बोलने लगी है
...बांदी को इतना बोलने की इजाजत नहीं जानती नहीं क्या ? ठकुराइन के स्वर में
तल्खी थी
बोलने दीजिये मुझे
रानी सा ...रिसाल अप्रत्याशित रूप से चीखी |’’बांदी की सिर्फ देह नहीं मुहं में
जबान भी होती है ..उसके सिर्फ छातियाँ नहीं उसके भीतर एक दिल भी होता है’’ तमाम
तहजीब धूप में बर्फ सी गलने लगी |अनर्गल विलाप....... चीखने का सिलसिला बडबड़ाने और
फिर निढाल हो जाने पर टूटा
ठकुराइन अचम्भे से
सिर्फ देखती रह गयी |आज पहली दफा उस नखरीली,रोबदार,नकचढी ठकुराइन की हिम्मत ने
थकान महसूस की थी
परे जांण दें हुकम
..या छोरी बाबली हो गयी सैय.....घबराई हुई गुलाब बांदी ने घिघियाकर कहा और अधमरी
सी रिसाल को घसीटती हुई भीतर कोठरी में ले जाने लगी
अभी इसे कड़ा खिला
|जानती नहीं क्या बांदी माँ नहीं बन सकती ? ठकुराइन गुस्से में बोली
‘’माफी चाहूँ रानी
सा ....माँ तो मैं पहले ही बन चुकी हूँ ...सुमेर की माँ ...’’ रिसाल अपने ही वश
में नहीं थी
हाँ लेकिन वो तो
ठाकुर सा का ...अचानक बोलते बोलते ठकुराइन रुक गयी | ठकुराइन के ज़ख्म हरे हो गए |पांच सालों में वो
माँ नहीं बन पाई थीं
ठाकुर सा ने सुना तो
उन्होंने रिसाल को बुलाया
क्या चाहती है?
बच्चा ...बच्चा
चाहती हूँ हुकम ...
लेकिन तू जानती है
यहाँ बांदियां सिर्फ सेवा के लिए होती हैं बच्चे जनने के लिए नहीं |सोच ले...यदि
बच्चा होगा तो तुझे हवेली छोडनी पड़ेगी |और यदि बच्चे का मोह छोड़ देती है तो तुझे यहाँ कोई तकलीफ नहीं
होगी |ज़िंदगी भर बेहतर खाना कपड़ा,रहना सब हमारी ज़िम्मेदारी
माफी हुकम ...पर मैं
भी माँ कहलाना चाहती हूँ
ठीक है...तूने इन
पांच बर्षों में हमारी खूब सेवा की है |हम तेरी हिफाजत से जचकी कराएँगे ..लेकिन
उसके बाद तुझे यहाँ से कहीं और ठौर देखना होगा
मंजूर हुकम
रिसाल ने बेटी को
जन्मा |वो दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दिन था |एक तो अपनी संतान का सुख और
दूसरे अब इस कैद से बाहर जाने का रास्ता साफ़ था |
जब रिसाल हवेली के
उस विशाल ,मज़बूत और नक्काशीदार द्वार से बाहर सदा के लिए निकली उसके पास एक टीन का
बक्सा था ,गोद में दुधमुही बेटी सुनीता और थीं बेहद कडवी व् डरावनी स्म्रतियां|
सुमेर को तो ठकुराइन ने देखने भी ना दिया |सुमेर खुद नहीं जानता था कि उसकी असल
माँ कौन हैं |
कुछ दिन कसबे के
मुहल्लों गलियों में इधर उधर भटकने के बाद ठाकुर साहब के किसी दयालु कारिंदे के
मार्फ़त ही वो इस ‘कोठी’ में आई | कस्बा छोटा था और लोग पुराने |सो बदनामी ने उसका
दामन यहाँ भी न छोड़ा | कभी कभार ठाकुर साहब भी आंटी (शर्माइन) के फोन पर उससे
बातचीत करते और हालचाल पूछते |बेटी की पढाई लिखाई के लिए पैसा भी देते लेकिन रिसाल
के जीवन में सुकून अब भी न आया था |वहां उसका तन उसका बैरी बना हुआ था और हवेली के
बाहर आने पर उसके मन पर आघात होते थे |उसे देखकर लोग नफरत से मुहं फेर लेते |जो
लोग रिसाल का अतीत जानते थे वो उसकी बेटी को अजीब सी नज़रों से घूरते |’’न जाने
किसकी बेटी है? बाप का भी पता ठिकाना किसी को नहीं पता ‘’लोग कहते |‘’सच तो कहते
हैं ...लोग |.फिर वो क्यूँ दुखी होती है लोगों की बात पर? क्या सच्चाई से उसे डर
लगता है? जो कुछ हुआ वो क्या उसकी मर्जी थी?नहीं वो राजपूतनी है किसी से नहीं डरती
|और डरे भी क्यूँ ?अपने अतीत को तो वो हवेली की उन दमघोंट परम्पराओं की ज़मीन में
बहुत गहरे दबा आई है जो उसकी खामोश चीखों और उसके वुजूद की न जाने कितनी बार हुई
ह्त्या की गवाह थीं |..अपनी बेटी सुनीता को खूब पढ़ायेगी लिखायेगी |उसके साथ
बाकायदा एक पति का नाम होगा |रिसाल के ख़्वाबों का साथ आंटी ने दिया |रिसाल की बेटी
सुनीता को स्कूल की पढाई करवाई |आंटी एक रसूखदार खानदान की महिला थीं जिनकी सामाजिक
छवि व् सह्रदयता ने रिसाल के अतीत और सुनीता के भविष्य की काली परतों को ढँक दिया
था |अब सुनीता बंगलौर में माताजी की बेटी अंजू के पास रहकर कॉलेज की पढाई कर रही
थी और उसका रहन सहन किसी सभ्रांत सुसंस्कारित परिवार की तरह था |वो अंजू को दीदी
कहती |
वक़्त गुजर रहा था
मंथर और सुनियत गति से | बंगलौर में सुनीता का प्रेम उसी के साथ पढने वाले एक
मराठी लड़के से चल रहा था |उसने ये बात माँ रिसाल को भी फोन पर बताई थी लेकिन उसकी
इस खबर से रिसाल बहुत विचलित हो गयी थी |उसे हमेशा ये भय सताता कि कहीं उसका वो
काला अतीत सुनीता व् लड़के को पता चल गया तो? जब लड़के के माता पिता सुनीता के पिता
के बारे में पूछेंगे तो वो क्या ज़वाब देगी ?लेकिन जब अंजू ने फोन पर बताया कि
सुनीता अपने उस दोस्त के साथ अलग रहने लगी है |ये इस ज़माने में बुरी बात नहीं समझी
जाती |ये एक आधुनिक व्यवस्था है बिना किसी रस्मो रिवाज के साथ रहने की इसे यहाँ
लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं |माता जी ये खबर सुनकर सन्न रह गईं |हालाकि उन्होंने ये
अप्रत्याशित खबर रिसाल को बहुत सामान्य तरीके से बताई लेकिन रिसाल दुखी हो गयी |वो रोने लगी |
माताजी ,एक ही तो
सहारा था मेरे जीवन का वो ही ...आप लोगों जैसे इज्ज़तदार घर में उसकी शादी करना
चाहती थी मैं |
अरे बड़े शहरों में ये आम बात है ...चिंता की कोई
बात नहीं |तू ये तो सोच यदि समाज के भय से किसी गंवार दारूखोर आदमी से बचपन में ही
ब्याह दी होती तूने अपनी छोरी तो अब तक तो तीन चार बच्चों की माँ बन गयी होती वो
|सुनीता और उसका वो दोस्त दौनों समझदार और पढ़े लिखे हैं |कम से कम उस बात की नौबत
तो नहीं आई जिससे तू डर रही थी |बाप का नाम ....
रिसाल ने अपने जीवन
में कई चोटें सही थीं सो इसका ज़ख्म भी वो हमेशा की तरह उसे भूलकर या अपने को
समझाकर भरने की कोशिश करने लगी |
ठाकुर विश्राम सिहं
के इंतकाल की जब रिसाल को खबर मिली वो कमरा बंद करके बेतहाशा रोई |आंटीजी ने उसे
नहीं रोका | रिसाल जब कमरे के बाहर निकली तो वो पूरी तरह बदल चुकी थी |उसने सफ़ेद
पोशाक पहन रखी थी |गले में तुलसी की माला |बदन पर कोई सुहाग का चिन्ह न था |उसकी
आँखें सूजी और लाल थीं
मुझे स्कूल परिसर में क्वार्टर मिल चुका था और
मैं आंटी और रिसाल से विदा लेकर भारी मन से उसमे पहले ही शिफ्ट हो चुकी थी | शुरू
में आंटी और रिसाल से मिलने मैं हर छुट्टी में ‘’शिव कॉलोनी ‘’उनके घर आती |फोन से
उनसे तारतम्य बना हुआ था |
दिन बीतते गए |रिसाल
का पहले वाला स्वभाव न जाने कहाँ लुप्त हो गया था |वो अचानक से बूढ़ी हो गयी थी| देह
और मन दौनों से |जैसे नसीब और उसके वुजूद की लड़ाई में जूझते जूझते अचानक वो थक गयी
हो |उसने हार मान ली हो |कुछ चिडचिडी भी हो गयी थी |बेटी सुनीता ने कई बार यहाँ
आना चाहा या उसे बंगलौर बुलाना तो रिसाल ने इनकार कर दिया |कहा ’’जहाँ रह रही हो
खुश रहो बस.. |’’
उस दिन सुबह आंटी जी
दूध लाने के लिए आवाज लगाती रहीं लेकिन रिसाल सोकर उठी ही नहीं |उन्हें आश्चर्य हो
रहा था |रिसाल को तो उन्होंने सिवाय तबीयत खराब के कभी इतनी देर तक सोते देखा ही
नहीं था |आंटी जी खुद उसके पलंग के पास गईं लेकिन तब तक रिसाल इस निष्ठुर
,स्वार्थी संसार से बहुत दूर जा चुकी थी हमेशा के लिए | उन्होंने मेरे स्कूल में
फोन लगाया लेकिन उस वक़्त मैं एक सेमीनार के सिलसिले में जोधपुर गयी हुई थी
|उन्होंने तुरंत पड़ोसियों को बुलाया |अपनी बेटी अंजू को बंगलौर में फोन किया |
करीब साढ़े चार बजे अंजू फ्लाईट से सुनीता को लेकर आ गयी | सुनीता माँ की मृत देह
को देर तक अपलक देखती रही |जब रिसाल को ले जाने लगे सुनीता ने कहा वो भी जायेगी
सबके साथ और माँ की चिता को अग्नि वो देगी | वहां मौजूद ठाकुरों के बीच सुगबुगाहट
शुरू हो गयी |सुनीता को समझाने की कोशिशें भी हुईं लेंकिन वो माहौल किसी बहस का न
था सो सब चुप्पी लगा गए |
गोधुली बेला होने को
थी |शमशान घाट पर पहले से ही एक गाडी एक पेड़ के नीचे खडी हुई थी |जिसके पास एक औरत
और एक जवान लड़का खड़े हुए थे |जब रिसाल की देह को चिता पर रखा गया ,और जैसे ही उसे
उसकी बेटी सुनीता ने अग्नि देने के लिए एक हाथ बढाया अचानक एक बूढा दुबला पतला सा
आदमी आया और उसने सुनीता के हाथ से वो लकड़ी ले ली
ला छोरी ...अभी मैं
ज़िंदा हूँ ....या कारज मैं ही करूंगा और चिता को आग दी |वो लाखन सिहं था |रिसाल का
गुमशुदा प्रेमी |
सारे लोग आँखें फाड़े
कभी उस बूढ़े को देख रहे थे और कभी उस कार में आयी ठकुराइन और उस लम्बे चौड़े युवक
को...रिसाल और ठाकुर साहब की नाजायज़ औलाद |सबके चेहरे पर एक अजीब सी तटस्थता थी
|ठकुराइन अब भी निर्भाव खडी थी |कुछ देर वो रिसाल की धू धू जलती हुई चिता को अपलक
देखती रहीं और फिर अपने सौतेले बेटे सुमेर सिंग के साथ गाडी में बैठकर चली गईं |कुछ
देर उनकी कार के पीछे उड़ता धूल का गुबार और चिता की लपटों से निकलता धुंआ इस कद्र
आपस में घुल मिल गए मानो एक दूसरे को अंतिम विदाई दे रहे हों |.वो फ़कत एक आम औरत नहीं थी जिसे अग्नि के सुपुर्द कर
वो लोग वापस लौट रहे थे ,बल्की वो धूल मिट्टी की कई तहों के नीचे लिपटा हुआ एक काल
था जो सदा के लिए ज़मीदोज़ हुआ था
रिसाल मुक्त हो चुकी थी अपनी हैसियत, रूप,देह,मन
,पीड़ा, मुहब्बत और संसार सब से ....|मुक्त वो भी हो चुके हैं जिन्होंने उस पर राज
किया |उसे तोहमतें व् दुःख दिए| जिन्होंने उसे सहारा दिया,मुहब्बत की ...सब समय की
खोह में विलीन हो गए |
सुनीता की बेटी अपनी
सिंगल पेरेंट के साथ बड़ी हो रही है.... नन्हें पाँव... और रास्ता मीलों लंबा ......
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राजस्थान की भूमि ...जहां शूरवीरों की गाथा गाते जुबां नहीं थकती ,वहीं बांदी बनाई गई स्त्रीयों के शोषण की कई कहानियाँ इस मिटटी में दफ़न है |
ReplyDeleteप्रस्तुत कहानी ,विलासी रजवाड़ों के कूटनीति की दास्ताँ है | रिसाला के किरदार में स्त्री एक वस्तु की तरह दासता में बंधी दहेज़ में आती है ,,जहाँ उसका ,उसके तन और मन पर कोई अधिकार नहीं रहता | वो छली जाती है भोग्या बनाई जाती है, अप्रत्यक्ष रूपसे मातृत्व को बचाने की खातिर अंत में निष्कासन .......और समाज द्वारा उसे हीन द्रष्टि का उपहार |जिसे वो नम आँखों से स्वीकार करती है |कहानी में भाषा का प्रवाह पाठक को बांधे रखता है सामंती परिवेश का चित्रं भी सटीक और बांदी के किरदार में रिसाला के जीवन की जद्दोजहद को खूब उकेरा है |
अच्छी कहानी ।
ReplyDeletedhanywaad Rajesh ji
Deleteवंदना जी की अच्छी और पठनीय कहानी है .. चरम मोक्ष l
ReplyDeleteइस कहानी के बारे में ये कहना संभवतः उचित हो कि कहानी में अंत की नाटकीयता हटा दे तो पूरी कहानी अपने प्रवाह में पाठक को बहाने में सक्षम है । रिसाला का किरदार वंदना जी ने पुरे मनोयोग से गढ़ा है । रिसाला के जरिये सामन्ती परिवेश का चित्रण काफी सटीक और उसमे एक बांदी जीवन जी रही महिला की जद्दोजहद लेखिका ने अच्छे से उभारी है । पढ़ते पढ़ते कई दृश्य फ़िल्म जुबैदा के भी आये और गए ,मतलब लेखिका में दृष्य को पाठक के समक्ष उतार देने की सलाहियत बखूबी नज़र आई । संवाद और दृश्य सामने लाने में लेखिका की मेहनत दीखती है । अभी भी एक मुकम्मल अंत की तलाश के फंडे से हमारे कहानीकार बाहर आने में हिचकते से लगते है । कहानी का नेरशन प्रथम पुरुष में हो या उत्तम में इस बात का फ़र्क़ नहीं पढता क्योंकि सुरियालिस्म की धारा में तो पता ही नहीं चलता की कब कौन कहानी का वाचन शुरू कर दे और पाठक को अपनी आँखे और ज्यादा गढ़ानी पड़े , परिदृश्य को समझने को । कहानी कही से भी नैरेट हो बस पाठक को पकडे रहनी चाहिए । जैसे अशोक वाजपेई जी कहते है पाठक को भी स्वयं को थोडा रचना तक ले जाने का प्रयास करना होगा ।