Thursday, November 15, 2018

उपन्यासनामा: भाग नौ 

चित्तकोबरा
एक अनोखी प्रेम कथा



मृदुला गर्ग 



“प्रेम को परिभाषित करना असंभव है और प्रेम का उम्र से कोई संबंध नहीं है।”

यह एक लगभग सटीक व्याख्या हो सकती है चित्तकोबरा उपन्यास की। यही वह उपन्यास है जिसके कारण मृदुला जी को कोर्ट में भी खड़ा होना पड़ा था। नैतिकता के पंडितों ने इसे विवादित बना दिया। खैर इस विवाद से आज कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि नैतिकता की सीमाएं इस उपन्यास के विवादित बिंदुओं से मीलों आगे आ चुकी है।

 कोई भी उपन्यास नैतिकता और अनैतिकता के सवाल से नहीं समझा जा सकता है। मृदुला जी की मानवीय संवेदना के उस आयाम तक पहुंचना जहां खड़े होकर वे मानवीय संबंधों को महसूस कर रहीं थीं, एक विशिष्ट दृष्टि के लिए ही संभव है। समाज का जो मानसिक अनुकूलन नैतिकता और अनैतिकता की सीमाओं में किया गया है उसे तोड़े बिना चित्तकोबरा को समझना असंभव है।

 स्त्री पुरुष का संबंध तमाम तरह की सामाजिक और परिवेशगत लक्ष्मण रेखाओं से परे होता है परंतु सामान्यतया वह इस रेखा के दरम्यान ही अभिव्यक्ति पाता है। यह जो विसंगति है यह प्रेम की वस्तुगत संवेदना को भौंथरा करती है, कुछ लोग हैं जो अपनी अनुभूति को भौंथरा बनने देने से इंकार कर देते हैं, मनु जो इस उपन्यास की नायिका है, वह इसी तरह की स्त्री है और तमाम सीमाओं के बीच अपने वास्तविक
प्रेम को जीने का स्पेस वह निकाल लेती है और इस स्पेस को उम्र के उस पड़ाव तक ले जाना चाहती है जब देह को प्रेम के परे मान लिया जाता है।




 मृदुला गर्ग का मानना है कि ‘‘जीवन को उसके समग्र और उदात्त रूप में जानने-पहचानने के लिए प्रेम से अधिक उपयुक्त माध्यम नहीं मिल सकता। जो लोग प्रेम के कथ्य को मात्र स्त्री पुरुष संबंध तक सीमित कर लेते हैं, वे साहित्य के प्रति और जीवन के प्रति भी अन्याय करते हैं या शायद अन्याय वे सिर्फ अपने प्रति करते हैं, जीवन की उस उदात्त धारा से अपने को काट जो लेते हैं, जो मनुष्य को उसके आदर्श रूप में उद्घाटित कर सकती है। प्रेम स्त्री पुरुष के बीच ही होता है पर मात्र उनके आपसी संबंधों की खोज प्रेम का कथ्य नहीं है। कम से कम मेरे लिए नहीं है; इस उपन्यास - चित्तकोबरा - में तो बिल्कुल नहीं। प्रेम के चैतन्य मनः समागम के अनुभव से गुजरते हुए दोनों पात्रों का जो आत्मोत्सर्ग होता है, उनके भाव-बोध में जो सूक्ष्मता, व्यापकता और गहनता आती है, उनकी संवेदनशक्ति जिस प्रकार प्रगाढ़ होती है, अपने चारों तरफ के घटित से जिस प्रकार वे एक दूसरे के माध्यम से पहले से अधिक घनिष्ठ तारतम्य स्थापित करता है, वही प्रेम का कथ्य है।’’1

चित्तकोबरा की मूल कथा एकदम अमूर्त है। इसके कथ्य को हमें संकेतों, और संवादों से ही समझना होता है। इसकी कथा में कुल जमा तीन पात्र हैं - मनु, रिचर्ड और महेश। इसके अतिरिक्त जैनी रिचर्ड की पत्नी, उसके तीन बच्चे, मनु और महेश के दो बच्चे, नाटक मंडली के कुछ सदस्यों का संकेत, मनु के परिवार के कुछ सदस्यों का खाने पर आने का संकेत और इसी तरह के कुछ अन्य इंसानों के होने का संकेत मिलता है।
इसमें मदर टेरेसा हैं, गाँधी हैं, मार्क्स हैं, जीसस हैं। ये सब हैं, परन्तु इनका होना सिर्फ मनु और रिचर्ड के होने से ही है। भौतिक रूप से जीवन्त पात्र इन दो के अलावा सिर्फ महेश है। इस उपन्यास में मनु का नाम लगभग 28 पेज पढ़ने के बाद आता है और रिचर्ड का नाम 74 पेज पढ़ने पर। जबकि ये सारे पेज सिर्फ दोनों के बीच घटित संवाद और घटनाओं से ही रंगे हैं। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि रिचर्ड और मनु के बीच का संबंध ‘स्त्री’  ‘पुरुष’ के बीच का संबंध है जिसमें दोनों की सत्तायें एक दूसरे से इतनी अभिन्न हैं कि उन्हें ‘नाम’ की आवश्यकता नहीं है।

मनु की पहचान ‘मनु’ के ‘होने से’ है, मनु नाम से नहीं, उसके लिए रिचर्ड का ‘होना’ उसके होने को महसूसना जितना मायने रखता है उतना उसका नाम नहीं। नाम की सार्थकता तब महसूस होती है जब वे एक दूसरे के करीब नहीं होते, तो नाम से ही एक दूसरे के होने को महसूस करते हैं।

चित्तकोबरा एक अनूठी और बेमिसाल प्रेम कहानी है। शायद हिन्दी साहित्य में तो दूसरी न लिखी गई और न आगे संभव दिखाई देती है। प्रेम दो प्राणियों के बीच ही होता है और वे प्राणी दैहिक भी होते हैं। देह के बिना चेतना का विकास संभव नहीं। प्रेम एक सशरीरी चैतन्य प्राणी का चेतना युक्त दैहिक अनुभव है।

लेकिन यहाँ मानसिक अनुभव और संवेदनाजन्य अनुभव अधिक महत्वपूर्ण है, शरीर के संबंध उतने महत्वपूर्ण नहीं है। मनु का रिचर्ड के साथ ‘रहना’ बिना सामाजिक कुंठाओं के, बिना सामाजिक लांछनों के ज्यादा महत्वपूर्ण हैं न कि उसके साथ संभोग जन्य क्षण बिताना। वह बार-बार यह कहती है कि हम तीस वर्ष बाद मिलेंगे। साठ वर्ष की उम्र में ताकि कोई शंका न करे। हम निर्द्वन्द्व भाव से जैस चाहें वैसे रह सकें। यह समयातीत, शरीरातीत प्रेम की अनुभूति इस उपन्यास का कथ्य है।

‘मनु’ इस उपन्यास की नायिका है, मनु ही कथा वाचिका है। मनु के अनुभव और रिचर्ड के प्रति उसका अशरीर, अकुंठ प्रेम ही इस कथा को एक उच्चकोटी की प्रेम कथा बनाता है। प्रेम कैसे एक स्त्री को मुक्त करता है, उसे कैसे शरीर से ऊपर उठाता है, कैसे एक समयातीत अनुभव मे जीवन के सूत्रों का पकड़ने देता है। मनु के अन्दर कोई कुंठा, अवसाद, अपराधबोध, अनैतिकता का अनुभव नहीं है। वह रिचर्ड के प्रति अपने व्यक्तित्व को, चेतना को पूर्णतः समर्पित करती है उसके शरीर से आकर्षित होकर नहीं, उसके विश्वव्यापी मानवता को समर्पित व्यक्तित्व से आकर्षित होकर करती है। रिचर्ड का पूरा जीवन विश्व मानवता को समर्पित है। वह निहायत ही संवेदनशील व्यक्ति है, अपने संबंधों के प्रति ईमानदार।





मनु महेश के साथ सिर्फ शरीर बन जाती है, महेश के साथ सोने में, पार्टी में जाने में, खुद को सजाने में सिर्फ शरीर बन जाती है। विवाह एक शारीरिक कांटेक्ट है, प्रेम मानसिक, स्वयं के द्वारा निर्णीत, चुना गया चैतन्य विकल्प है। थोपा गया संबंध नहीं, कोई बाध्यता नहीं, कोई व्यवस्था नहीं, कोई नियम नहीं, स्वयं द्वारा अनुशासित, आत्मोत्सर्ग और सौन्दर्य के नए प्रतिमान रचता विकल्प है। उम्र, स्थान, शरीर और समय से परे का संबंध है मनु और रिचर्ड का प्रेम। मनु को इंतजार है उसके होने का, अस्तित्व का, मिलने का, समाचार का। इस पूरी प्रक्रिया में उसे रिचर्ड के साथ बिताए शारीरिक संभोग के क्षणों का इंतजार नहीं रहता।

मृत्यबोध, समय का बीतना, वर्षों का क्षणों में समाप्त होने की विकलता, साठ वर्ष का होकर एक साथ रहने की विकलता उसे तीस वर्ष कुछ पल की तरह महसूस कराते हैं।

‘‘बस तीस साल और फिर मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’’
‘‘बस तीस साल?’’
‘‘बस।’’
तीस साल का क्या है। कुछ महीने ही तो होंगे।’’
‘‘हां। या कुछ हफ्ते।’’
‘‘हफ्तों में कुछ दिन।’’
‘‘या घंटे।’’
‘‘घंटों के मिनट।’’
‘‘या सैकिंड।’’
‘‘देखते -देखते कट जायेंगे।’’
‘‘हां, हर पल में कहूँगी.....रिचर्ड-रिचर्ड-रिचर्ड....एक पल में तीन बार और पल बीत जायेगा।’’ 2

यह संवाद प्रेम को सिर्फ संभोग तो बिल्कुल नहीं रहने देता। यद्यपि यह सच है कि बिना शरीर के प्रेम नहीं होता। प्रेम हवा में नहीं पनपता। उसका आश्रय और मूर्त रूप शारीरिक संबंध ही है। लेकिन महेश के साथ बिताए गए संभोग क्षण और रिचर्ड के साथ बिताये क्षणों के बीच जो मनु की अनुभूति है वह प्रेम और विवाह को बिल्कुल अलग-अलग कर देती है, यद्यपि दोनों में शारीरिक संबंध है। रिचर्ड का मनु के स्तनों को स्पर्श करना और महेश का उसके स्तनों के साथ खेलने के बीच मनु क्या सोचती है? कैसे स्वयं को अनुभव करती है? कैसे अपनी पहचान और व्यक्तित्व को पेश करती है? यह बहुत महत्वपूर्ण है। वह रिचर्ड के साथ अपने होने को महसूस करती है और महेश के साथ सिर्फ शरीर का होना। यह जो अनुभूति है यही इस उपन्यास का कथ्य है। प्रेम इंसान के साथ उसकी इंसानियत के कारण होना चाहिए न कि उसके फिगर के साथ।

‘‘और लोगों का ख्याल है कि साठ-पैंसठ साल की उम्र में इंसान इंसान नहीं रहता।’’
‘‘वे कुछ नहीं जानते। कुछ भी नहीं।’’
‘‘बूढा  सिर्फ शरीर होता है, मन नहीं।’’
‘‘और उसे पाने के लिए तीस साल का इंतजार कुछ भी नहीं है।’’
‘‘बस चंद महीने।’’
...............................
तीस साल तक हम नहीं मिले तो वे निरापद हो जायेंगे। सोचेंगे अब डर नहीं रहा।’’3

 ठीक यही अनुभूति स्थान की दूरी के संबंध में है -
‘‘कम-अज-कम दस हजार मील दूर।’’
‘‘सिर्फ दस हजार मील। क्या है....बस कुछ मीलों का जोड़।’’
‘‘हां बस...कुछ मील....’’
‘‘या फलांग.....’’
’’बस चंद कदम।’’






यह स्थान और समय की दूरी को महसूस न करने की चेतना प्रेम को बिल्कुल नया आयाम दे देती है। अभी तक हम पढ़ते आ रहे थे ‘‘हार पहार से लागत हैं’’ या एक क्षण की दूरी जन्मों की दूरी लगती थी प्रेमियों के लिए। वृन्दावन से मथुरा की दूरी भी नहीं पाटी जाती थी। प्रेम अपने सम्पूर्ण मानवीय संदर्भों में यहाँ विद्यमान है। काल और स्थान, समय और स्पेस के बीच की यह आवाजाही चित्तकोबरा को बिल्कुल अलग आयाम प्रदान करती है।

चित्तकोबरा अपने लक्ष्य में एकदम स्पष्ट है पति-पत्नी का संबंध सिर्फ दैहिक संबंध है पर वह जायज इसलिए है कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है…..पर उस देह के साथ जो चेतना है उसका क्या? उसे क्या चाहिए? इस प्रश्न का कोई जबाव इन परंपरागत संबंधों के पास नहीं है। चित्तकोबरा इस प्रश्न का समाधान है। जीवन जीने का एक अलग दृष्टिकोण है। जीवन की दैहिक और चेतनागत के बीच की खाई को पाटने का एक रास्ता है।
मनु और रिचर्ड के बीच मानवीय संवेदनाओं की वास्तविक समझ के कारण चेतनागत संबंध बनता है। चूंकि चेतना कोई वायवीय चीज नहीं है वह एक ठोस भौतिक यथार्थ है इसलिए दैहिक नजदीकी पाने की ललक और साथ बिताए गये क्षणों में सेक्स का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। देह के संवेदनशील स्थलों के स्पर्श के साथ जो अनुभूति गत अंतर महेश और रिचर्ड के बीच मनु अनुभव करती है उसके फर्क को नैतिकता की परिभाषाओं से नहीं समझा जा सकता। इस फर्क को न समझने के कारण है उपन्यास पर अनैतिकता के आरोप लगाये गये थे।
  मनु रिचर्ड के बीच जो रिलेशन है वह सामाजिक-पारिवारिक परिभाषाओं और सीमाओं से परे है। दरअसल यह उपन्यास जीवन और स्त्री-पुरुष के बने हुए सांचों को तहस-नहस करता है और संबंधों की अनपरखी संभावनाओं को प्रकट करता है। हमारी सोच की सीमाएं जो सामाजिक नैतिकता से बंध गई है और थोड़ी बहुत छूट के साथ उस डोर से बंधे रहने में ही सार्थकता पाती है, उससे बहुत आगे की और गुणात्मक रूप से भिन्न संबंधों को रेखांकित किया गया है।

मनु का जो एटीट्यूड है वह स्वच्छंदतावादी या अनैतिकता को मूल्य की तरह जीने का नहीं है। सच्चाई यह है कि उसकी अनुभूति और प्रेम को जीने की उत्कट भावोच्छलता में नैतिकता अनैतिकता की परिभाषा का कोई भी तत्त्व नहीं है। वह इन से परे है। उसमें विद्रोह नहीं है। न वह पारिवारिक नैतिकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए झंडा लेकर नारे लगाती है। वह महेश के साथ एक पत्नी की तरह रहती है चूंकि महेश एक पुरुष देह बनकर उसके पास आता है तो वह भी स्त्री देह मात्र बनकर उसे मिलती है। इसमें महेश को विलेन नहीं बनाया है। बस देह को स्पर्श करने के पीछे की फीलिंग को अलग दिखाया है यह फीलिंग जिसमें रिचर्ड की मानवतावादी जीवन दृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका है।

मनु के जीवन में महेश और रिचर्ड एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं वह दोनों को अलग तरह से जीती है। महेश अपनी परंपरागत पति की भूमिका में हैं उसके लिए मनु एक पत्नी है उसकी दैहिक और पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने का औजार। एक व्यक्ति इस खांचे से बाहर भी जीने की ख्वाहिश रखती सकता है, उस ख्वाहिश को मनु का जीवन अभिव्यक्ति देता है।
     चित्तकोबरा एक अलग स्पेस मुहैया कराता है जीने का। खांचाबद्ध जीवन से परे एक अद्भुत बेमिसाल जीवन। इसे इसी तरह जीने के लिए एक स्वतंत्र सोच और साथी की जरूरत होती है ।



डॉ संजीव जैन 


 संदर्भ
1. चित्तकोबरा मृदुला गर्ग की भूमिका से उद्धरित
2. वही पृष्ठ 93
3. वही पृ. 97
                             

डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय संजय गाँधी स्मृति स्नात्कोत्तर महाविद्यालय,
गुलाबगंज 
522 आधारशिला, बरखेड़ा
भोपाल, म.प्र.
मो. 09826458553

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