Wednesday, July 27, 2016

एक ज्वलंत समस्या ,युवा पीढ़ी के भटकाव  को सहजता से  शब्दबद्ध करती एक भाव प्रधान कहानी "गुरु दक्षिणा "|समाज में व्याप्त ऐसी समस्याएं मुँह बायें खड़ी है ।सीधे सरल विद्धार्थी  कैसे नक्सली ,आतंकी लुटेरे बन जाते है ,जड़ में मज़बूरी के सिवा और क्या वजह रहती होगी ।
 राजेन्द्र श्रीवास्तव जी की यह कहानी आज व्हाट्सअप के साहित्यिक समूह "साहित्य की बात " पर प्रस्तुत की गई |इस समूह के मुख्य एडमिन है  ब्रज श्रीवास्तव ... पाठकों की त्वरित प्रतिक्रिया के साथ कहानी प्रस्तुत है |


परिचय 

राजेन्द्र श्रीवास्तव.

जन्म :4 जून 1954 
शिक्षा :एम. एस. सी(प्राणी विज्ञान) 
पिता :स्व. श्री जगन्नाथ प्रसाद. 
जीवन संगिनी :श्रीमती शारदा श्रीवास्तव. 
रूचि :साहित्य पढ़ना, लिखना. 
शासकीय सेवा :1980 में बस्तर के लोहंडीगुडा में उच्च श्रेणी शिक्षक पर पहली नियुक्ति फिर पदोन्नति पाकर अंता गढ़, सुन्दरेल.,धामनोद के बाद आयुधनगर इटारसी से प्राचार्य हाईस्कूल से जून 2016 में सेवानिवृत्त. 


गीतिकविता और बाल कविता में विशेष काम. एक संग्रह" मछली रानी " प्रकाशित. 
एक लघुकाव्य" लाक्षागृह"शीघ्र प्रकाश्य. 


निवास...साँई कृपा, आर. एम. पी. नगर. फेस.. 1,विदिशा. म.प्र.
मोबाइल नंबर.. 9753748806
......




🔯गुरु दक्षिणा🔯




  ⛔जिनको चाय-पानी ,पान बिङी  गुटका तम्बाकू लेना करना हो जल्दी करलें
यहाँ बस दस मिनट रुकेगी"।कंडक्टर ने बस रुकते ही यात्रियों से मुखातिब हो कर कहा,और चाय पीने चल दिया।बस से
कुछ लोग उतरे कुछ थके-माँदे बैठे रहे ।
दस मिनट बाद बस ने नेशनल हाइवे छोड़ नारायणपुर की ओर रुख कर लिया ।नाममात्र की पक्की सङक पर बस हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी ।इन मार्गों पर रात के नौ बजे भी आने-जाने से लोग कतराते हैं।
हेड लाइट के प्रकाश में ऊँचे साल-सागौन के बीच सर्पिल सङक पर अधिक दूर का कुछ दिखाई नहीं देता।
 अचानक ड्रायवर ने ब्रेक लगाये और बस हल्की घिसटती हुई रुक गई। सङक पर बङे-बङे पत्थर रख कर मार्ग अवरुद्ध किया गया था ।यात्रियों में सहज ही भय व्याप्त हो गया ,कोई तो इस बस में है,जो अब आगे की यात्रा नहीं कर सकेगा कदाचित जीवनयात्रा पर भी विराम लग जाय ।कुसुम ने सुधीर की ओर देखा तो सुधीर ने संकेत से ही उसे आश्वस्त किया।
एक शिक्षक से भला इन्हें क्या लेना-देना ?
सभी जान चुके थे जंगल से निकल कर अब बस को अपने कब्जे में कर चुके ये कौन लोग हैं ।ड्रायवर समझ चुका था कि आज हम बचें न बचें बस की होली तो जलना तय है ।  एक-एक कर यात्रियों को उतारना शुरु किया।किसी किसी की गेट पर तलाशी ली जा रही थी।ना-नुकर या
विरोध का प्रश्न ही नहीं ,दुश्परिणाम मात्र एक--'जीवन से हाथ धोना ।'बीच बीच में कुछ प्रश्न और डाँट -डपट ।सुधीर भी कुसुम का हाथ थामे अब गेट पर पहुँच चुका था अगला क्रम  उसका था ।
तलाशी ले रहे व्यक्ति ने सुधीर को गौर से देखा, क्षणैक ठिठका फिर यथावत्  तलाशी लेने लगा।सुधीर ने अनुभव किया कि  तलाशी  लेने वाले हाथ का स्पर्श कुछ ऐसा जैसे अपनत्व को छिपाने का प्रयास हो ।यह क्या ! तलाशी के अभिनय में चरणों का स्पर्श ! फिर कुसुम के साथ भी  कुछ ऐसा ही !!
"चqलो".... ।तलाशी ले रहे व्यक्ति ने अपने साथियो से कहा।
बस के भीतर शेष रहे यात्रियों में सुखद आश्चर्य तो बाहर खङे यात्री आशंका से भरे अगले आदेश की प्रतीक्षा में खङे थे। साथियों को उस व्यक्ति की बात पर कुछ आश्चर्य तो हुआ ।उन्हें यह व्यवहार  अप्रत्याशित लगा पर चुप रहे,और सब के सब एक दूसरे को कवर करते हुये  जंगल  में तिरोहित हो गये ।यात्रियों ने पत्थर हटाकर बस में अपनी जगह ली ।सुधीर ने अपने  ईश्वर व  बङे-बुजुर्गों का स्मरण कर मन ही मन प्रणाम किया ।
"आज तो अपना पुनर्जन्म समझो भाई"
एक ने कहा ।
हाँ ।किसी को एक खरोंच तक नहीं "
दूसरे ने कहा ।
"तलाशी भी  बीच में रोक कर चले गये,कुछ समझ में नहीं आ रहा"
"अरे भैया प्राण बच गये बस इतना समझ लो ।"
"आप सब इस घटना का जिक्र किसी से न करें, नहीं  तो वेवजह लेने के देने पङ जायेंगे ।आप भी  परेशान होंगे और हम भी  बस खङी करके थाना-कचहरी  में फँस जायेंगे।" कंडक्टर ने समझाईश भरा आग्रह किया ।
"हम जिंदा घर पहुंच रहे हैं ,बाकी सब बातें भूलना चाहते हैं ।" किसी एक का कहा यह वाक्य आम राय में परिवर्तित हो गया । शीघ्र अपने घर पहुँचने की व्यग्रता बातों में झलक रही थी ।
"सुनो!..आपने उसका चेहरा देखा ?" कुसुम ने धीमी आवाज में सुधीर से पूछा।
"कुछ पहचाना सा तो लगा" ।
उसने मेरे  पैर छुये,फिर तलाशी खतम,और चले भी  गये ...।ऐसा क्यों...?"
"चलो पूँछ कर आते हैं"।
"आपको ऐसे में भी  विनोद सूझ रहा है ।"
"कुसुम इन सब प्रश्नों के उत्तर मेरे पास भी नहीं हैं"  ।
बस, स्टाप पर सुधीर-कुसुम व कुछ अन्य यात्रियों को उतार कर आगे बढ़ गई ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद एक रात लगभग दस बजे सुधीर कोई किताब पढ़ रहे थे कि किसी ने हलके से दरवाज़ा खटखटाया।
कुसुम ने आशंकित नेत्र सुधीर पर टिका दिये ।यहाँ रात के दस ,अर्धरात्रि के बाद का समय जैसा निश्तब्ध व भयावह हो जाता है ।आठ बजे के बाद घर के बाहर प्रकाश पर अघोषित प्रतिबंध रहता है । सीमित साधन व सीमितआवश्यकताएँ ।
दरवाज़ा खुलते ही एक व्यक्ति सुधीर को लगभग ठेलते हुये भीतर आ गया , उसने
किवाड़ बंद कर लिये ।
"माँ पहिचाना मुझे ?"
दोनों के पैर छूकर एक कुर्सी पर बैठते हुये उसने कुसुम से पूँछा ।
यह वही  तलाशी लेने वाला युवक है,
दोनों के मन में निश्चितता थी,किन्तु निश्चिंतता न के बराबर ।
"तुम मंगलू हो न...?"कुसुम ने आशंकित स्वर में कहा।
"मैं जानता था ,सर भले ही भूल गये हों माँ  नहीं भूलेंगी ।"
"अब याद आया .. कई बर्ष बाद मिल रहे हो , वह भी ..........."  सुधीर ने बैठते हुये वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
कुसुम ने पानी का गिलास बङाते हुये पूँछ ही लिया -"इस रास्ते पर कैसे आ गये ।"
"आ गये या पहुँचा दिये गये  पता नहीं" मंगलू ने गहरी सांस भरते हुये कहा ।
"यहाँ किसलिए ?..किसी को पता चल गया तो नौकरी तो जायगी ही जेल भी  होगी "।सुधीर ने चिंतित हो कर कहा।
"मैं बस निकलता ही हूँ, आपको  कुछ नहीं  होने दूँगा ।"
मैं  आपसे जानना चाहता हूँ, क्या मेरा यह रास्ता सही नहीं है ?"
सुधीर चुप रहा।
"अपने विद्यार्थी के प्रश्न का उत्तर दीजिये"
कुसुम ने आग्रह के स्वर में कहा ।
"बेटे!वहाँ से स्थानांतरित हुये लगभग बारह साल हो गये हैं ।तुमने आगे पढ़ाई जारी रखी या नहीं ! , प्रताड़ना ,याअसीम उपेक्षा !!
अन्याय या शोषण और शोषक वअन्यायी के प्रति बदले की भावना अथवा विरासत में मिले अभाव... . .!!!  इस रास्ते पर आने की इनमें से कौन सी वजह है ,मुझे यह भी  नहीं पता ।हो सकता है किशोर -सुलभ उत्साह व जोश में यह कदम उठाया हो । बिना जाने क्या  कह दूँ ।"

 मंगलू क्या कहे!कुछ लोगों को ड्रेस-विशेष में एक अलग अंदाज़ में देखा तो उत्साही किशोर मन खिंचता चला गया ।
जिज्ञासा के साथ-साथ कदम भी बढ़ते गये ।और अब.....गहन जंगल में स्वयं को खङा हुआ पाता है।झंझावात से जूझता हुआ।                                     "सर ,...कदम तो बढ़ा चुका हूँ ।दुविधा तो यह है कि रास्ता सही है या गलत?"
"मैने  केवल पाठ्यक्रमआधारित किताबें पढ़ी है, व निर्मल बच्चों के बीच रहा हूँ
जैसे बारह साल पहिले तुम थे।बस इतना जानता हूँ कि इस रास्ते पर चलने वालों को समाज केवल भयभीत दृष्टि से देखता है ।वहाँ न प्रेम है न सहानुभूति न ही स्वैच्छिक समर्थन ।"
"तो क्या हमारा समाज असामाजिक है ?"
"तुम्हारा समूह है ,समाज का बहुत छोटा रूप - जो इस समाज से अलग दिशा में
 चल रहा है अपनी विचारधारा के साथ।"
अब तक कुसुम बिस्किट के साथ चाय ले कर आ गई थी। उसे वह मंगलू याद आ गया  जो इसी तरह अपनी  जिज्ञासाओं का पिटारा खोल कर काॅपी-किताब ले कर सुधीर के सामने बैठ जाता था।             परआज के प्रश्न जटिल , गंभीर व अलग                 तरह के हैं ,पाठ्यक्रम से अलग हट कर।जीवन-क्रम से जुडे हुये ।
"तो हमारा वाद जन-हितैषी नहीं है?"
"मैने पहिले ही कहा तुम्हारे वाद या सिद्धांत पढ़ने -समझने का अनुकूल अवसर ही नहीं  मिला ।और कितना हित किया है तुमने जन का ?.... इसका आकलन तुम्हें स्वयं करना चाहिये ।"
"तो क्या मुझे  लौट आना चाहिये ।"
"यह इस पर निर्भर है कि अब तक कितना  रास्ता तय कर चुके हो व लौटने अथवा  लक्ष्य पाने की संभावना कितनी शेष है।
या उस लक्ष्य को प्राप्त करने का कोई दूसरा सुनिश्चित जनप्रिय मार्ग है?"        
"समाज स्वीकार कर सकेगा?इतना आसान जीवन तो नहीं होगा।"
"बिल्कुल सही सोचा ,सहजता से समाज समाहित नहीं करने वाला!वहाँ की शत्रुता यहाँ का संदेह झेलना होगा । जीवन तो अभी भी आसान नहीं ।संघर्ष तो अभी  भी कर रहे हो। मृत्यु का भय वहाँ भी है,यहाँ भी रहेगा।अंधेरा कहाँ है ? वहाँ या यहाँ...,यह तुम स्वयं सोचो ।प्रकाश कहाँ पाओगे स्वयं पता लगाओ।
"हुम्म्........" मंगलू आँख बंद कर चुप रह गया।   कुसुम को चुप्पी खलने लगी तो उसने मंगलू से पूँछा--
"घर पर सब कैसे है?माई कैसी हैं?"
"माँ  ठीक है। कल थोड़ी देर के लिये गया था।उन्हें बस वाली घटना बताई तो उसने मुझे सर से मिल कर चर्चा करने का आग्रह किया "। " अरे हाँ ! माँ ने आपके लिये नींबू भेजे हैं अचार के लिये ।वे आप के हाथ का अचार का स्वाद अभी  तक नहीं भूली।"मंगलू बिल्कुल बच्चा बनकर बोल रहा था बारह साल छोटा ।सब तनावों से मुक्त  सब चिंताओं से दूर।अपने साथ लाये थैले को उसने कुसुम की ओर बढ़ा दिया।
"आज भी माई ने खाली हाथ नहीं आने दिया"कुसुम ने आत्मीयता से कहा ।
"मेरी गुरु दक्षिणा  लाया है "सुधीर ने भी  विनोद किया ।
वातावरण की गंभीरता उङनछू हो गई।
"नहीं सर !गुरुदक्षिणा तो आज भी  नहीं दे सकूँगा ।पर जल्दी ही इस ऋण से मुक्त
 हो जाऊँगा ।मेरी गुरुदक्षिणा से आपको भी प्रसन्नता ही होगी ।"
"अब आज्ञा दीजिये ।"
"बेटे! तुम्हारी दुविधा  दूर नहीं कर सका ।आज यह शिक्षक स्वयं पर शर्मिंदा है।
निर्णय तुम्हें स्वयं करना है वह भी  समय रहते। तुम्हारी जरूरत उन्हें भी है ,और समाज भी आशा भरी निगाह से तुम्हें निहार रहा है ।हम भी ।"
"सार्थक सर्वसम्मत जनहित वहाँ रह कर कर अधिक सुगमता से कर सकोगे या यहाँ आ कर।पूर्वाग्रह त्याग कर विचार करोगे ,तो यह तय करने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। मेरे या किसी अन्य के विवेक या विचार पर निर्भर मत बनो "।
"जी!..चलता हूँ ।... मेरी दुविधा  अब मेरे साथ नहीं है ।"
 दोनो के चरण स्पर्श कर वह पलक झपकते ही अंधेरे में विलीन हो गया ।
कुसुम अभी भी अधखुले दरवाजे के पास खङी थी।
"क्यों जी !वह वापिस आयेगा ?"
"शायद...।"

"लेकिन वह गया ही क्यों! उसने अपनी  माँ के बारे में क्यों नहीं सोचा!कहाँ गया होगा?"
"चलो देख कर आते हैं"
"आपका हर वक्त का मजाक शोभा नहीं देता।"कुसुम का स्वर रुआसा हो रहा था।     मंगलू के प्रति कुसुम की ममता से परिचित सुधीर ने दरवाज़ा बंद कर कुसुम को कुर्सी पर बैठाकर पानी का गिलास देते हुये कहा ।
"तुम्हारे सामने ही वह गुरु दक्षिणा के ऋण से जल्द मुक्त होने का वचन देकर गया है ।"
"चलो रात काफी हो गई है।"
"अरे हाँ ...तुम्हें कल नींबू का अचार भी तो बनाना है।"
.......
"वह कब आयेगा अचार लेने?" कुसुम ने सहज ही पूँछा ।
"ऐसा करो तुम अचार डालो ,तब तक मैं पूँछ कर आता हूँ ।"
सुधीर के स्वाभाविक विनोद पर स्मित हास्य अब कुसुम के चेहरे पर झलक रहा था।मन के अंधेरे में,आँखों में आशा के जुगनू चमक रहे थे।

कुछ दिनों बाद सुधीर ने समाचारपत्र से एक समाचार कुसुम को दिखाया।
कुसुम ने पढ़ा कि --मंगलू ने स्व विवेक से साथियों सहित मुख्यधारा में जुङने का निर्णय लिया है ।साथ ही समाज के सहयोग से अपने उन्ही उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सतत प्रयास करते रहने का संकल्प भी  व्यक्त किया है।
कुसुम की आशा भरी निगाहें द्वार की ओर चली गई ।


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प्रतिक्रियाये 
अजय श्रीवास्तव 
कोई तो इस बस में है, जो अब आगे की यात्रा नही कर सकेगा , कदाचित जीवन यात्रा पर भी विराम लग जाये ...।बहुत सहज तरीके से , प्रभावशाली अभिव्यक्ति...
हार्दिक शुभकामनायें 
कहानीकार श्री राजेंद्र श्रीवास्तव जी को ...💐

मधु सक्सेना 
राजेन्द्र जी कहानी की शुरुआत बहुत अच्छी है पर आगे जाकर कहानी में लेखक का असमन्जस दिखाई देता है ।वे खुद ही किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाते ।कहानी कमज़ोर होने लगती है ।समस्या को भी सही तरीके से नहीं उठा पाये लेखक ... । इस कहानी को फिर से लिखा जाना चाहिए ।संवाद अच्छे हैं ।शुभकामनाएं लेखन को ।आभार प्रवेश ।

घनश्याम दास सोनी 
ग्लैमराइज्ड किये जाने वाले  अपराध तथा अपराधियों का बचपन के अबोध मन पर चाहे अनचाहे प्रभाव पड़ता ही है , कुछ उससे प्रभावित होकर उस तरफ कदम बढ़ा देते हैं , जिसका समाज पर पड़ने वाला प्रभाव व ऐसे लोगों का नतीजा  सर्वविदित है । कहानी का नायक लगता है सही समय पर अपने शिक्षक से मार्गदर्शन पा गया और परिणाम सुखद रहा । कहानी बहुत शानदार लगी , चाचाजी श्री राजेंद्र श्रीवास्तव जी को बधाई
A. असफल 
राजेन्द्र जी की कहानी "गुरु दक्षिणा" काफी अच्छी है। बल्कि महत्वपूर्ण भी। क्योंकि नक्सलवाद हो, उग्रवाद या आतंकवाद मनुष्य समाज के अप्रिय किन्तु आवश्यक प्रसंग हैं। राज्य-समाज में जब व्यवस्थागत तरीके से प्रत्येक इकाई को उसका हक नहीं मिलता, कहीं कोई व्युतिक्रम होता है, तब विद्रोह अवश्यम्भावी हो जाता है। एक ऐसा गतिरोध जिसका हल आसान नहीं। कहानी में समस्या पर अच्छा विमर्श है। बड़ी स्वाभाविकता से पूरी कहानी बुनी गयी है। चलती भी अत्यंत सरल तरीके से है। पर समस्या का समाधान इतना सरल भी नहीं। जैसा कि कहानी में दिखा दिया गया। मेरे ख्याल से इसे यहीं ख़त्म क्या जाता, "सुधीर के स्वाभाविक विनोद पर स्मित हास्य अब कुसुम के चेहरे पर झलक रहा था। मन के अंधेरे में,आँखों में आशा के जुगनू चमक रहे थे।" तो कहानी भी रेडीमेड नहीं लगती और एक सुखद आशा भी जगाए रखती कि गुरु दक्षिणा के रूप में शायद कभी न कभी समस्या का निदान हो जाए।

लक्ष्मीकांत कालूस्कर 
कहानी एकदम से अच्छी है।एक विचार,एक समस्या को लेकर चली है और जो निदान बताया है वही एकमात्र सार्थक हल है।समाज और व्यवस्था के माध्यम से हो रहे अत्याचार के प्रति विरोध-विद्रोह भी जरूरी है और इस विद्रोह से जन्म लेने वाली समस्या की ओर भी समाधानकारक उपाय ढूंढना है।राजेन्द्र जी अभिनंदन।

 Mahjabin
राजेन्द्र जी की कहानी...... 'गुरुदक्षिणा' बहुत अच्छी कहानी है.. एक गंभीर समस्या प्रधान कहानी है... पढ़े-लिखे नौजवान कैसे नक्सलियों के चक्रव्यूह में फंस जाते हैं.... और उनकी जिंदगी ख़राब हो जाती है... जब्कि नौजवान लड़के देश का भविष्य हैं.... जब देश में, ग़रीबी भूखमरी, बेरोजगारी फैली हुई है तो, ऐसे में ग़लत संगठन के लोग, परेशानी से जूझ रहे, नौजवानों को अपने ज़ाल में फंसा लेते हैं... लेकिन एक अच्छा शिक्षक, हमेशा अपनी शिक्षा से अपने शिष्यों का उचित मार्गदर्शन करता है..... उन्हें दलदल में जाने से रोकता है... शिक्षक ही देश और राष्ट्रनिर्माण में नौजवानों को शिक्षा देकर, सहयोग करता है.... कहानी की मूल संवेदना भी यही है.. शिष्य और गुरू का रिश्ता बहुत गहरा होता है.... संवेदनशील होता है... कुर्आन की एक आयत में, उस्ताद का दर्ज़ा, माँ-बाप के बराबर बताया है..... और है भी यह रिश्ता बहुत अज़ीम... कहानी की भाषा भी बहुत भावपूर्ण है... अच्छी कहानी के लिए लेखक को बधाई....

Rajendr Shivastav Ji: महजबी जी बहुत धन्यवाद , आपका कहना सही है।इन भटके नौजवानों को कुसुम जैसे पात्र की भी चाह है ।जो यकीन दिला सकें कि हम तुम्हें अब भी पहले जैसा ही चाहते है
 Meena Sharma 
 राजेन्द्र जी की कहानी,अपने आस- पास के वातावरण को बारीकी से उकेरती हुई अपनी बात, बिना किसी व्यवधान के कहती चलती है.
एक भटके हुए युवक में  संस्कार
हैं कि वह चरण स्पर्श करता है ...
संवेदना है कि वह नींबू के अचार के बहाने गुरु के साथ वार्तालाप को सहज बनाये रखता है.
कैसे सहज ही कोई बदल सकता
है अपनी मानसिकता.  ? संस्कार वश वह मुख्य धारा में वापस आता है.
कहानी किसी एक मापक में नहीं
लिखी जाती.
हर लेखक की सोच भिन्न है....पाठक की सोच अलग है...! 
मार्गदर्शन है इसमें..   ..! 
समाज को दिशा देती कहानी..
अच्छी है...मेरे लिये.
प्रोत्साहन सदैव हमें और बेहत करने की प्रेरणा देता है....शुभकामनाएँ राजेन्द्र जी को !प्रवेश जी धन्यवाद एक नई कहानी देने के लिए....!
संचालन की खूबी कुछ अलग बनाती है आपको प्रवेश जी....!
बधाइयाँ !

 Aalknanda Sane Tai: अमूमन इस माध्यम पर कहानी जैसी लंबी रचनाओं को पढ़ना मेरे बूते का नहीं होता.अक्सर शुरुआत और अंत पढ़कर संतुष्ट हो लेती हूँ, लेकिन आज यह कहानी मुद्रित माध्यम की तरह एक सांस में पढ़ गई.एक ज्वलंत विषय पर सधे हुए तरीके से, बिना लाऊड हुए यह कहानी लिखी गई है, जिसके लिए कहानीकार बधाई के पात्र हैं.संवाद लंबे और उबाऊ होने से बच गए हैं, जिसकी इस कहानी में पूरी सम्भावना थी.शिक्षक को भी अकारण  गंभीर नहीं दिखाया जाना जीवंतता का प्रतीक है.धन्यवाद प्रवेश, एक बेहतरीन विषय पर बेहतरीन कहानी के लिए.

 Mukta Shreewastav: आज की कहानी गुरु दक्षिणा बहुत ही अच्छी कहानी है वास्तव मैं आज की युवा पीढ़ी भटक रही है और उसे सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है।

के के श्रीवास्तव 
आज की युवा पीढ़ी की भटकाव पर आधारित बेहद प्रासंगिक कहानी ।  दिल को छू गई ।  धन्यवाद प्रवेश जी।
 अमूनन मैं कहानी को ज्यादा पढ़ नहीं पाता जो मेरी कमजोरी है या जो भी ।राजेन्द्र जी की इस कहानी को बिना रुके पढ़ गया जिसमें संवेदना है संस्कार हैं जीवंतता है । कहानीकार का सहजभाव से कहने का प्रस्तुतिकरण अद्भुत है .गुरु और शिष्य के सम्बंधों को गहरा करती यह कहानी युवा पीढ़ी की ज्वलन्त समस्या को अच्छे ढंग से प्रगट करने में पूर्ण सफल है .लेखक को बधाई । धन्यवाद प्रवेश जी
..

ब्रज श्रीवास्तव 
कहानी, बहुत मार्मिक है. मैं तो चकित हूँ कि चाचाजी कितना अच्छा लिख लेते हैं. उनकी भाषा, वाक्यों का गठन, कथ्य निर्वाह और कहन विवेक कितने संतुलन में अपना उत्स यहां दे सके हैं. असफल जी ने अंत के बारे में जो कहा तो मैं कहना चाहूंगा लगभग इतना ही सहज अंत कहानी में था, लेकिन मैंने सुझाव देकर कहा कि थोड़ा बदल दीजिए. तो अब पशेमान हूँ कि चाचाजी ने पहले ठीक ही किया था. साकीबा में यह.. प्रस्तुत हो सकी मुझे अच्छा लगा. आज ताई, कालुस्कर जी, भावना जी, मधु जी, मीना और मेहज़बीं ने टिप्पणी दी तो मुझे अच्छा लग रहा है. प्रवेश की पहल तो हर दम बेहतर होती ही है... 🌂ब्रज श्रीवास्तव

सुदिन श्रीवास्तव 
 कोई व्यक्ति क्रोध,अपमान या बदले की भावना के आवेग वश अपराध कर बैठता है लेकिन अपराधी को समाज मुख्य धारा में आसानी से स्वीकार नहीं  कर पाता यह बात शिक्षक भी जानता है और मंगलू के मन में भी इसी बात को लेकर संशय है । अपराध की इसी पृष्ठभूमि से उपजी कहानी गुरूदक्षिणा
में कहानीकार राजेन्द्र श्रीवास्तव जी ने   भावावेशी परिस्थितियों में अपराधी बने मंगलू के प्रति ऐक शिक्षक के सुधारवादी और आशावादी दृष्टिकोण को स्पष्ट रखा है । शिक्षक सदैव समाज की मुख्यधारा के प्रति आस्थावान रहता है । अपनी कहानी के द्वारा उन्होंने शिक्षक की सामाजिक सकारात्मक भूमिका का निर्वाह गरूदक्षिणा कहानी में बहुत भावपूर्ण प्रवाह के साथ किया । राजेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई । अच्छे गीतकार का कसा हुआ गद्य रूप प्रस्तुत करने के लिये उतनी ही बहुआयामी प्रतिभाओं वाली प्रवेश जी का विशेष आभार


हरगोविंद मैथिल ..
 गुरु दक्षिणा एक अच्छी और भाव प्रधान कहानी है ।जिसकी सरल भाषा और सहज संवाद कहानी को प्रवाह के साथ आगे बढ़ाते है ।कहानी पाठक को  अंत तक बाँध कर रखती है ।लेकिन कहानी के शीर्षक से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यह एक सुखान्त कहानी है ।कहानी के नायक पर अपने शिक्षक की शिक्षा और उनकी पत्नी कुसुम के स्नेह का गहरा प्रभाव पड़ा जिसके कारण वह मुख्य धारा में लौटने का साहस पूर्ण कार्य कर सका ।कहानी में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बात है अंत में शिक्षक द्वारा मंगलू को कोई उपदेशात्मक ज्ञान न देकर स्व विवेक से निर्णय लेने की छूट प्रदान करना ।आ. राजेन्द्र प्रसाद जी को बधाई और प्रवेश जी का आभार ।साथ ही आ . श्री वास्तव जी का इस नए रूप में हार्दिक स्वागत ।🙏🙏


Ravindra Swapnil: 
इस कहानी को पढ़ने के बाद ये तो लगा की कहनी अच्छी है।
क्या बताऊँ कहानी अच्छी होना ही पर्याप्त होता तो सब कहानियां अच्छी हो जाती। तारिफ  बहुत लोग कर चुके। मेरा ये कहना व्यर्थ के शब्द् होंगे कि कहानी बहुत शानदार है।
कहानी में शिक्षक की भूमिका बेहद लिजलिजी है। कहा जाता है कि भारतीय शिक्षक ने 1 हजार साल के इतिहास में जब से क्रांति की बात बंद की है तब से ये देश गुलाम हुआ। यहाँ शिक्षक की भूमिका पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं।

एक इसमें भाषा का बहुत लोच है।इसमें कृत्रिम सा माहौल बन जाता है।
Padma sharma
 राजेन्द्र श्रीवास्तव जी की कहानी गुरुदक्षिणा सहज सरल शैली में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हुई है।
आज आतंकवाद जैसी अनेकानेक समस्याएँ चल रही हैं उनमे कुछ लोग बाहरी चमक दमक से प्रेरित होकर सम्मिलित हो जाते हैं और अपने भविष्य को बर्बाद कर लेते हैं। कहानी के अंत के लिए
असफल जी से सहमत हूँ।

बधाई लेखक को

Uday dholi 
आदरणीय राजेन्द्र श्रीवास्तव जी की कहानी अच्छी लगी भटके हुए युवक का मुख्यधारा में लौटना ही सकारात्मक हल है ,हमारी सनातन परंपरा में गुरु के लिए जो आदर का भाव है वह आज भी कायम है एक शिक्षक के नाते लेखक का यह निजी अनुभव रहा होगा।
कहानी में रोचकता शुरुआत से आखिर तक बनी हुई है कहीं भी झोल नहीं है।

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