Monday, October 1, 2018

उपन्यासनामा: भाग सात 

ठीकरे की मंगनी 
नासिरा  शर्मा         



ठीकरे की मंगनी और एक अविस्मरणीय चरित्र महरूख

नासिरा जी मानवीय रिश्तों की सूक्ष्म पकड़ रखती हैं और वह अपने चरित्रों तथा परिस्थितियों के वर्णन के माध्यम से उसे प्रस्तुत भी ‘करती हैं। ‘ठीकरे की मंगनी’ हो या ‘शाल्मली’ फिर चाहे ‘जिंदा मुहावरे’ ही क्यों न हो रिश्तों को बनाये रखने में स्त्री के संघर्ष और समर्पण को रेखांकित करने में कहीं भी नहीं चूकती हैं। लेकिन रिश्तों के माध्यम से नाजायज फायदा उठाने की दरकार जब कोई करता है तो उनके स्त्री चरित्र अपने व्यक्तित्व की गरिमा और मानवीय व्यवहार के माघ्यम से उसे नाजायज फायदा उठाने से रोक देती हैं। ठीकरे की मंगनी’ लगभग इसी आधार पर लिखा गया उपन्यास है।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि औरत का भी उसका अपना बजूद होता है समाज में पहचान होती है। उसकी मेहनत उसके सपनों का भी घर हो सकता है। जो केवल उसका अपना होता है। आज के जमाने की नई युवा पीढ़ी में ऐसी कई महरूख हैं जो केवल अपनी पहचान चाहती हैं और कुछ रफतमियां जैसे भी हैं जो केवल मानवीय रिश्तों को सफलता के शिखर तक जाने के लिए मात्र उन रिश्तों का उपयोग सीढ़ी के तौर पर करते हैं।

स्त्री पुरुष के पारस्परिक संबंध जितने सरल सहज स्वाभाविक दिखाई देते हैं उतने होते नहीं हैं। दोनो के बीच आकर्षण तो सामान्य रूप से मान लिया जाता है, लेकिन उसकी परिणति घोर अरूचि में कैसे हो जाती है। स्त्री-पुरुष को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए ही विवाह नाम की संस्था बनी होगी। यह संस्था अनेक बुराइयों, दोषों, कमजोरियों के बावजूद आज तक चली आ रही है। 

    सदियों से चली आ रही विवाह प्रथा से विभिन्न समाजों के सदस्य इतने अनुकूलित हो गए हैं कि इसकी परिधि से परे बनाऐ जाने वाले संबंधों को ये किसी सूरत में हजम कर ही नहीं पाते। किसी लड़का-लड़की का समय रहते विवाह न होना, वैवाहिक जीवन का सफल न होना, विवाह विच्छेद होना, वैवाहिक प्रतिबद्धता का उलंघन  आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो सभी समाजों में सामान्य हो चली हैं।


नासिरा जी ने अपनी कथा रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य को अविसमरणीय स्त्री चरित्र दिए हैं। उनके चरित्र पाठक के मानस पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। महरूख एक ऐसा ही अविस्मरणीय चरित्र है जो स्त्री चरित्रों की परंपरा में सबसे अनूठा कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी

विवाह की एक प्रतीकात्मक घटना है जो इस उपन्यास की नायिका महरूख के जन्म के साथ ही घटित हुई थी। ‘‘खालिदा, आज से यह लड़की मेरी हुई।’’ कानपुर वाली खाला ने उसकी पैदाईश के फौरनवाद गन्दगी से भरे ठीकरे पर चांदी का चमचमाता रुपया फेंक कर कहा था। यह टोटके की रस्म थी, ताकि लड़की जी जाए, इसके ददिहाल में तो लड़कियाँ जीती ही न थीें। शाहिदा ने पैदा होते ही उसे गोद ले लिया था, मगर टोटके की रस्म सच पूछो, ‘ठीकरे की मंगनी’ में बदल डाली थी।’’1 

जैदी खानदान में चार पुश्तों के बाद अल्लाह की नेमत के रूप में लड़की पैदा हुई थी। इस लड़की का नाम रखा गया महरूख। ‘‘महरूख दादा की आंखों का नूर और दिल का सरूर थी। अम्मी और अब्बू की खुशी और गुरूर का नायाब तोहफ़ा, चचा और ताया के लिए एक रूहानी राहत का सामान और बाकी खानदान वालों के लिए एक इत्मीनान कि चलो खानदान पर से फ़क़ीर की दी बद्दुआ का साया तो हटा और हमें एक लड़की का मूँह देखना नसीब हुआ।’’2 








इस उपन्यास में महरूख के पैदा होने और उसके बाद खानदान में खुशियों और बधाइयों के जो स्वर सुनाई पड़े, उनसे नासिरा जी ने इस मिथक को तोड़ने की कोशिश की है कि लड़की का पैदा होना गौरव की बात है न कि अफसोस की। जैसा कि पूरी दुनिया में खास तौर पर भारत में यह भ्रम फैलाया गया है कि इस्लाम में और उसके अनुयायी स्त्री विरोधी होते हैं और स्त्रियों पर अत्याचार करना उनके लिए कोई शर्म की बात नहीं होती। नासिरा जी ने महरूख के जन्म से उसके जीवन के अन्तिम पढ़ाव तक की कहानी लिखकर इस भ्रम को तोड़ने की कोशिश की है।
लड़की के प्रति जो हिंसक और पर्दानशीं होने का मिथक गढ़ा गया वह इस्लाम के आगमन के बाद से ही संभव हुआ। इस उपन्यास के माध्यम से हम इस मिथक की हकीकत से भी दो चार होते हैं। ‘‘सच कहा है किसी ने, लड़की घर की बरकत होती है।’’ ‘‘रसूले खुदा का घर भी लड़की की रोशनी से मुनव्वर हुआ था, लड़कियाँ तो प्यार की बरकत होती हैं।’’....सच पूछो तो नगर की रौनक और दुनिया की आबादी इन्हीं के दम से है।’’3
दादा-पोती के संबंध - महरूख भी अपने दादा जान से बहुत प्यार करती है और दादा जान भी उस पर जान न्यौछावर करते हैं।
महरूख बचपन से ही अलग मिजाज की लड़की है। वह अन्दर से भावुक होते हुए भी बाहर से सुदृढ़ है। अपनी कमजोरी को अन्दर ही अन्दर पी जाना उसकी आदत है। उसके व्यक्तित्व की रेखाओं को इस तरह उकेरा गया है - ‘‘रोना उसकी शान के खिलाफ था। वह हुक्म देना जानती थी। बात मनवाना जानती थी। वह तो दिलो पर हुकूमत करती थी और हुकम्रां कभी रोते नहीं है। दादी ने इस हुकक्मरां की अकड़ को प्यार से सहला-सहलाकर एक नाजुक लड़की में बदलना शुरू कर दिया था।’’4 

हमारा समाज एक लड़की को हुक्मरां के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता। न घर के बड़े बूढ़े न आस-पड़ौस के लोग। इसीलिए महरूख की दादी ने उसे एक लड़की बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया था। यह वह प्रक्रिया है जिसके तहत सिमोन द बोऊवार ने कहा था कि ‘‘औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है।’’ चाचा और आस-पड़ौस ने महरूख के उठने-बैठने पर चलने-फिरने पर शिकायतें करनी प्रारभं कर दीं। उसका गली मोहल्ले में लड़कों के साथ खेलना भी लोगों को पंसद नहीं आता और उसकी दादी और अम्मी को उसकी इन गतिविधियों को रोकने के लिए कहा जाता। उसके घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गईं।

‘‘महरूख पर लगी पाबन्दियाँ उसकी उम्र के साथ बढ़ती गईं। महरूख के बालिग हो जाने के पहले नहान के बाद, जब उसकी गोद तरह-तरह के फलों से भरी गई और लाल दुपट्टे उसको सजाया गया, तो उसके अन्दर एक ऐसी लड़की का जन्म हुआ, जो झिझकना, शरमाना जान गई थी, जो काढ़ना, बुनना और पकाना सीखना चाहती थी, जो दूसरों के दुख पर उदास हो जाती थी।’’5  

महरूख की मंगनी रफ़त से हुई थी। जब उसके अब्बू न निकाह की बात की तो रफत भाई ने लड़की को आगे पढ़ाने के लिएक कहाँ चूँकि रफत भाई कम्यूनिस्ट विचारधारा के हैं इसलिए वे कुछ प्रगतिशील बातों में विश्वास करते हैं। उन्होंने महरूख का दिल्ली में पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। महरूख रफत मियां के साथ दिल्ली जाती है पढ़ने। यह एसका अपने घर से बाहर दुनिया से जुड़ने का अवसर था। उसकी अम्मी उसके पढ़ने के पक्ष में थीें। ‘‘मगर तालीम से समझ तो बढ़ी, अपना हक तो पहचाना-गलत तेजी की तरफदार तो मैं भी नहीं हूँ, मगर लड़की अपना अच्छा बुरा समझे यह अक्ल तो तालीम इी दे सकती है।’’6  

इस तरह अम्मी के यह प्रगतिशील विचारों ने महरूख को सही गलत के बीच चुनने की तालीम, निर्णय करने की क्षमता के विकास के लिए आगे पढ़ने भेजने का निर्णय लिया। उसकी दादी भी सुलझे विचारों की हैं और उसकी माँ को सांत्वना देते हुए कहती हैं कि -ग ‘‘वह जमाना कब का लद चुका है, जब औरत नए-नए पकवान बनाकर, ससुराल वालों की खिदमत करके मियां का दिल जीतती थीं, आज तो उसे इन सबके साथ बाहरी दुनिया में भी अपने पैर जमाने हैं। घर-बाहर दोनों जह अपनी खूबी का सिक्का जमाना होता है, फिर पढ़ी-लिखी लड़कियाँ किसी पर बोझ बनकर नहीं रहतीं, बल्कि गिरे वक्त में घर को मर्द की तरह संभालती हैं।’’7

दादी के यह विचार स्त्री विमर्श के संबंध में एकदम उचित हैं। हमारे समाज और परिवार को लड़कियों के संबंध में इसी तरह के दृष्टिकोण और विचारों का अपनाने की आवश्यकता है। रफत भाई और उसके परिवार के लोगों के यह विचार समाज के विचार बनें। नासिरा जी ने उन्हें इसी रूप में प्रस्तुत किया है। पितृसत्ता के विभिन्न रूपांे को यहाँ उदारकृत और मानवीय भूमि पर पेश किया गया है। यद्यपि वे अपने मूल रूप में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतीक ही हैं।

महरूख विवाह के संबंध में सोचती है कि ‘‘हर औरत को शादी के बाद अपने का मिटाकर अपने वजूद को शौहर के वजूद में मिलाना पड़ता है। पता नहीे अम्मी शादी के पहले कैसी आदतों की होंगी! फिर क्यों हमसे कहा जाता है कि इस तरह रहना चाहिए, यह हमारे घर का रिवाज है और फिर एक दिन सब कुछ छोड़ कर अपने को नए सांचे में ढालना पड़ता है। आखिर क्यों?’’8 

यहाँ महरूख एक महत्वपूर्ण सवाल उठा रही है? कि जब विवाह के बाद लड़की को ससुराल के रीति-रिवाज की अपनाने हैं, अपनी पहचान और वजूद को शौहर की पहचान और वजूद में क्यों मिलाना पढ़ता है? और जब मिलाना ही है तो उन्हें मायके के रीति-रिवाज और परंपरायें सीखने को क्यों कहा जाता है? इस सवाल का जबाव यह हो सकता है कि मायके में रीति-रिवाजों को अपनाने के लिए इसलिए कहा जाता है ताकि उसे रीति-रिवाज अपनाने की आदत पढ़ जाए। यह आदत उसे ससुराल में भी वहाँ की रीति-रिवाजों और परंपराओं को स्वीकारने में सहयोग देती है। इससे लड़की में विद्रोह की आग नहीं सुलगपाती है। वह सर झुकाकर नए परिवेश में अपने वजूद को विलीन कर देती है। यही पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सुक्ष्म तकनीक है जो लड़की को लड़की बनाय रखने के लिए इस्तेमाल करती है।
दिल्ली में पढ़ते हुए उसकी दोस्ती रवि से होती है। कुछ ही समय में वह रवि के साथ कभी-कभी दिल्ली घूमने निकल जाती थी। एक शाम रवि के कमरे में दोनों काफी पी रहे थे। इसी बीच जब रवि ने उसे अपनी बांहों में भर लिया तो महरूख को गहरा सदमा लगा। रवि ने उसे इतने हल्के किरदार की लड़की कैसे समझ लिया। रवि एक मर्द है और वह औरत के साथ दोस्ती को इसी रूप में लेता है और जो महरूख जैसी औरत उसके काबू में न आये तो उसे लगता है कि वे नाम के लिए आधुनिक हैं, दरअसल तो वे उन्हीं पुरानें ख्यालातों की हैं, तभी तो वह कहता है ‘‘मिस जैदी, केवल ऊपरी आवरण के बदल लेने से मनुष्य का आंतरिक रूप नहीं बदल जाता है। आधुनिकता का तो नाटक है, वरना रूढ़िवादिता तो लोगों के हावभाव से टपकती है।’’9

एक अकेली लड़की को मर्दवादी विचारधारा हमेशा ही गर्मगोश्त के रूप में देखती रही है, तमाम प्रगतिशील विचारों को अपनाते हुए भी। महरूख को रवि की यह बात बहुत चुभती है ‘‘ रह रह कर एक बात मन को मथती रही कि यदि दो लड़कों की मित्रता इस स्तर पर होती, तो क्या वह भी इस नतीजे पर जा पहुँचती, फिर लड़की के साथ दोस्ती का मानवीय सन्दर्भ अपने अर्थ क्यों खोने लगता है और एक बंधे-बंधाए रास्ते पर चल पड़ता है? उसे हैरत होती कि इस विश्वविद्यालय में भी औरत को देखने वाली नजरों का वही पुराना दृष्टिकोण है, तो फिर वह किस अर्थ में अपने को स्वतंत्र, प्रगतिशील और शिक्षित कहते हैं? उसके किसी सवाल का जबाव इस माहौल ने नहीं दिया। यहाँ तो सिर्फ सवालों की फसल उगती है, सिर्फ सवालों की।’’10 

महरूख के जीवन की दिशा परिवार और दिल्ली के इस प्रवास के बाद ही तय होती है। इस माहौल में ही उसे स्त्री होने का बोध होता है और यह भी कि दिल्ली का विश्वविद्यालय परिसर हो या गाँव की गलियाँ सभी जगह औरत को यौनिकता के संदर्भ में ही देखा जाता है। उसे उपभोग की वस्तु के रूप में ही देखा जाता है और उसी तरह का व्यवहार उसके साथ किया जाता है।
महरूख ने अपने व्यक्तित्व को इस माहौल के खिलाफ एक मानवीय संदर्भ में देखे और समझे जाने के रूप में डाला और पितृसत्ता के विभिन्न रूपों के समक्ष पेश किया। ‘‘महरूख के दिल में एक बात कील की तरह गड़ गई थी कि अब उसे अपने को ऊपर से भी ऐसा ही बनाना है, जैसी वह अन्दर से है, जो महरूख तो हो, मगर साथ इस माहौल की चुनौतियाँ का सामना करने के लिए सीना तानकर खड़ी हो सके, आते हुए तीरों को कुन्द कर सके और अपने ढाल जैसे व्यक्तित्व पर उसका निशान तक पड़ने न दे।’’11 







पितृसत्ता की भूमिकाओं से इंकार - और अन्ततः महरूख ने स्वयं को चुनौतियाँ का सामना करने के लिए तैयार कर ही लिया और उसने निकाह करने से इंकार कर दिया और एक गाँव में बच्चों को पढ़ाने का गुरूतर भार ग्रहण कर लिया। यह उसने अपने विवेक पूर्वक विकल्प का चयन किया है। दुनिया और परिवार के दबावों के आगे झुकी नहीं। अपने लिए गए निर्णय पर साहस पूर्वक, संकल्प सहित चलती रही। रास्ते मंे आने वाली चुनौतियों का भी सामना किया और अपना संतुलन भी नहीं खोया। न तो उसे अपने निर्णय पर अफसोस है और न जिंदगी से कोई गिला-शिकवा। एक बार वापस आने के बाद जब खानदानी मकान बिक जाता है तो वह पुनः अपने उसी गाँव लौट जाती है।
महरूख निरंतर पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई भूमिकाओं और परंपराओं से टकराती रही। उनको नकारती रही, नए सिरे से सोचने के लिए विवश करती रही और स्वयं अपने जीवन में उनकी भूमिकाओं का नकारती रही। नए विचारों को अपनाना, और आधुनिकता की आड़ में स्वच्छन्दता को जीने का रास्ता जो रवि जैसे अधिकांश युवा अपना लेते हैं, उसने नहीं अपनाया। उसने एक कठिन और बीहड़ राह चुनी, दिल्ली जैसे महानगर और विश्वविद्यालय से पढ़कर प्रगतिशील से प्रगतिशील व्यक्ति भी गाँव की राह नहीं पकड़ता, विदेश का रास्ता तलाशता है, जैसा कि रफत भाई, परन्तु महरूख के माध्यम से नासिरा जी ने नई पीढ़ी और खास कर ‘स्त्री’ को यह दिशा दी है कि प्रगतिशीलता और स्वयं की मुक्ति का रास्ता इधर से जाता है।
ठीक ऐसा ही निर्णय कठगुलाब की स्मिता और असीमा करती हैं। दोनों चरित्रों की सोच की समानता को देखा जा सकता है।
उसके विरोध के स्वर को इन शब्दों में देखा जा सकता है ‘‘यह क्या बात हुई, अम्मी, जो होता चला आया है, वह क्यों होता चला जाएगा? पहले और आज की जरूरतों में बहुत फ़र्क है। यह बात हमें समझनी पडे़गी।’’12  

महरूख वर्तमान जीवन की आवश्यकताओं को पहले देखती है और परंपरा निर्वाह के नाम पर पैसे लुटाना उसे पसंद नहीं। वह अपनी अम्मी अब्बु से घर की हालात का वास्ता देती है और उसे सुधारने की बात कहती हैं।
महरूख की जिन्दगी का रुख रफत मियां के अमेरिका जाने के बाद से बदलता है। उसे खबर मिलती है कि रफत मियां वहाँ किसर वैलरी नामक अमेरिकन युवती के साथ ‘लिविंग टु-गेदर’ जैसी जिंदगी गुजार रहे हैं तो उसका पुरुष पर निर्भरता का भ्रम चकनाचूर हो गया। ‘‘रफत भाई के व्यक्तित्व का फानूस टूटना था सो टूट गया। उससे फूटती फैलती रोशनी के दायरे से वह हमेशा के लिए आजाद हो गई थी, मगर जिस अंधेरे से वह जा लगी थी, उसने जिंदगी का मकसद ही खत्म कर दिया था।’’13 

‘‘ (उसे) महसूस हुआ, दुनिया का हर रिश्ता झूठा है। एतबार नामकी चीज का कोई वजूद इन्सानी रिश्तों के बीच अब बाकी नहीं बचा है।’’14 

‘‘आज उसे महसूस हो रहा था कि इन्सानी रिश्ते भी कागज की नाव की तरह होते हैं, जो सारी एहतियात के बाद हालात के समन्दर में डूब जाते हैं।’’15 

‘‘हवाई किले की सैर से महरूख लौट आई थी। अब उसकी समझ में यह बात आ गई थी कि वह रफत भाई के दिल व दिमाग में कभी नहीं थी। वह तो रिश्ते के नाम पर एक पोस्टर थी, एक नारा थी, जिसे रफत भाई समाज की दीवार पर चिपका कर अपनी पहचान का झण्डा ऊँचा रखना चाहते थे, वरना वह महरूख का हक किसी और औरत को क्यों दे बैठते? उसके दिल में बगावत के तूफान उठने लगते। गम के बादल छंट गए थे। अब वहाँ नफरत और हिकारत का आसमान फैला हुआ था, जो महरूख को बताता कि सबने उसे छला है, कभी प्यार के नाम पर, कभी जिम्मेदारी के नाम पर, कभी रिश्तेदारी के नाम पर।’’16

  पितृसत्तात्मक समाज में एक स्त्री को कितनी तरह से ठगा जाता है, महरूख का यह अनुभव हमें बताता है। इसी अनुभव से गुजर कर महरूख को एक नई दिशा की खोज करनी पड़ी और वह सारे रिश्तों को धत्ता बताते हुए अपने लिए नई जमीन बनाने में जुट गई। उसने पुरुष पर निर्भरता के सारे लबादे फेंक दिए और बिना किसी पुरुष की सहायता के अकेले ही अपनी पहचान बनाने में और अपने वजूद को कायम रखने में किस तरह कामयाब हुई इसकी कहानी है महरूख का जीवन संघर्ष।

उसे पांच हजार की आबादी वाले गाँव में, अपने अस्तित्व की लड़ाई किस तरह लड़नी पड़ी यह वही जानती है, क्योंकि हमारा परंपरागत सोच वाला समाज यह बात सहज रूप से पचा नहीं पाता कि एक पढ़ी लिखी सुंदर लड़की अकेली छोटे-से गांव में नौकरी क्यों कर रही है? ‘‘महरूख गाँव के मुसलमानों के लिए एक ‘राज’ थी और बाकी लोगों के लिए एक पहेली। ऐसी पाक साफ, निखर लड़की, जिसके दामन पर नमाज पढ़ी जा सकती हो, वह इतनी तन्हा, अलग-थलग क्यों रहती है? एक साल तक यह सवाल पूरे गाँव में नाचा, मगर जब कोई जबाव न मिला, तो थक हार कर सवाल खुद महरूख की तारीफ में ढल गया।’’17 

संबंधों में विखराव और पारिवारिक विघटन - महरूख के जीवन में परिवार बसने से पहले ही विघटित हो चुका है। उसके संबंध जो ठीकरे की मंगनी के टोटके से बचपन से ही बंध गए थे, वे जब वाकई बंधने का अवसर आया तो समाप्त हो चुके थे। संबंधों में विखराव समय की मांग थी या रफत भाई की आवश्यकता ताकि वह अपने को बडा  बना सके, महरूख को सीढ़ी बनाकर वह आसमान की सैर करना चाहता था तो उसने किया। महरूख ने इस विखराव को अपनी ताकत बनाकर एक नए जीवन को चुनाव किया। दिल में कसक तो जिंदगी भर बनी रही, परन्तु वह टूटी नही, विखरी नहीं, स्वयं को जलते तवे पर खड़ा रखकर भी जिंदगी का संतुलन बनाए रखा।
महरूख एक विचारशील लड़की है। वह इंसानी रिश्तों और खून के रिश्तों और सामाजिक रिश्तों के बारे में खुले दिल और दिमाग से सोचती है। उसे यह भी समझ में आता है कि इंसानी रिश्तो अन्य रिश्तों से ज्यादा ताकतवर होते हैं, सफल होते हैं।

‘‘अपनी जिंदगी जीता तो अकेला इंसान है, मगर उसकी जिंदगी में कितने लोग जुड़े होते हैं! कितने रिश्ते बंधते हैं, जो हालात् को बनाते-बिगाड़ते हुए चाहे-अनचाहे उस इन्सान की किस्मत का फैसला भी करते हैं और इन सबसे जुड़े रहने के बावजूद इन्सान को अपनी निजी जिंदगी की सलीब खुद उठानी पड़ती है, अपनी जिन्दगी का जबावदेह होना पड़ता है।’’18 

‘‘इन्सानी रिश्ते कभी कभी खून के रिश्तों से ज्यादा सुख देते हैं।’’19

महरूख ने अपनी जिंदगी को समाज के निचले तबके के लोगों को जीवन के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का तरीका सिखाने का बीड़ा उठाया है और इसके लिए उसे आरोप-प्रत्यारोप भी सहने पड़ने थे।
महरूख का असली द्वंद्व और संघर्ष उस वक्त प्रारंभ होता है जब रफत भाई अमेरिका से डिग्री लेकर बिना मेंम के लौट आये थे। अब लोगों का भी और रफत भाई का भी ख्याल था कि महरूख को उनसे निकाह कर लेना चाहिए। जब रफत भाई ने पूछा कि ‘‘तुम खुश तो हो ना?....मेरी खुशी से क्या बनना बिगड़ना है।’’ ...किसी का मंगेतर डॉक्टरेट की डिग्री लेकर आये, तो क्या खुशी की बात नहीं है? रफत ने लहजे में दुलार-भर कर पूछा। ....‘‘किसका मंगेतर और कैसी खुशी, रफत भाई?’’20

 यह जो महरूख का जबाव है यह उसके साहस और स्वतंत्र व्यक्तित्व की गरिमा से ओत-प्रोत है। यहाँ उसके आत्मनिर्णय और स्वतंत्र व्यक्तित्व का झलक मिलती है। उसने रफत की मजबूरी बताये जाने के बाद कहा कि ‘‘डिग्री आपको मुबारक हो, मगर मैं तो इन ख्वाहिशों के बंधन से कब की आजाद हो चुकी हूँ।’’21 

यह आजादी की घोषणा उसके अन्दर से व्यक्तित्व के गौरव और आत्मविश्वास की आवाज है। वरना आज की कौन लड़की इस तरह का जबाव दे सकती है। इसके बाद रफत कहते हैं कि मेरा सहारा मिलेगा तो तुम्हें आसानी होगी। पितृसत्ता अपना जाल फेंकती है। पुनः लाभ-लालच और भय का जाल फेंकती है, कैसे भी कोई लड़की बिना उसके सहारे कैसे विकास कर ले कैसे अपना अस्तित्व बना ले।
महरूख का रफत भाई को जबाव है - ‘‘रहम खाइये, रफत भाई, मुझ पर रहम खाइए। मुझे फिर तराशने और चमकाने की जिम्मेदारी मत लीजिए। मुझे फिर एक खूबसूरत जिंदगी का भुलावा मत दीजिए। मेरा सुकुन मत छीनिये। मैंने बड़ी मुश्किलों से दोबारा इसे पाया है।’’22 

महरूख का स्वयं को किसी चीज या वस्तु की तरह देखे जाने का तीव्र विरोध किया। जब रफत कहते हैं कि मैं तो सोचता था कि जैसे मैं तुम्हें महकता हुआ छोड़ गया था, वैसा ही लौट कर पाऊँगा। तो महरूख कहती है ‘‘मैं जगह, चीज या मकान नहीं थी, रफत भाई, जो वैसी की वैसी ही रहती। मैं इन्सान थी, कमजोरियों का पुतला। मैंने आपको जिस भरोसे से भेजा था, आप भी वैसे कहाँ रह पाए? कुछ चीजें कितनी बेआवाज टूटती हैं। मैं बेआवाज टूटी थी, किरच-किरच होकर बिखरी थी। बड़ी मुश्किल से अपने को चुना है, समेटा है, जोड़ा है, तब कहीं जीने के काबिल हुई हूँ। मुझसे अब मेरी यह जिन्दगी वापस मत छीनिये।’’23 

पुरुष हमेशा ही औरत के विरोध को उसके पीछे छिपे मानवीय पहचान के दर्द को गुस्से या क्षणिक आवेग का नाम देकर उपेक्षित करता है। महरूख भी यह समझती है, तभी तो वह कहती है ‘‘मेरे जज्बात को सिर्फ गुस्से का नाम देकर इसकी अहमियत कम मत करिए। यह सब कुछ हमारी जिन्दगी की हकीकत है, जिसने हमें तोड़ कर अलग कर दिया है।’’24 

जब रफत भाई कहते हैं कि क्या अब तुम्हारी जिंदगी पर मेरा कोई हक नही तो महरूख का जबाव है - ‘‘अब मेरे पास समझ है।  मैं अपना बुरा-भला खुद समझ सकती हूँ। ठोस जमीन पर ठोस जिन्दगी चाहती हूँ। मेरी जिन्दगी पर सिर्फ मेरा हक है।’’25 
यह एक ब्रह्म वाक्य महरूख ने बोला है कि मेरी जिन्दगी पर सिर्फ और सिर्फ मेरा हक है। इस वाक्य के पीछे पूरा स्त्री विमर्श का स्वरूप और सिद्धांत खड़ा है। स्त्री की जिंदगी पर से स्त्री का हक छीनने का ही तो पूरा षड्यंत्र पितृसत्ता ने रचा रखा है। यह बात कह कर महरूख ने स्त्री की आवाज को समाज के सामने पेश किया है।
स्त्री के आँसू उसके वजूद के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं। पुरुष उसकी इस भावुकता और कमजोरी का फायदा उठाता है। यही कारण है कि महरूख रफत भाई के सामने स्वयं को कमजोर नहीं पढ़ने देती और सोचती है - ‘‘वह रफत भाई के सामने रो कर अपने को छोटा नहीं करेगीं वह अपनी कमजोरी को यूँ रुसवा नहीं करेगी। वह एक बूंद आँसू किसी के सामने नहीं गिरने देगी।’’26 

महरूख को अपने निर्णय और जिंदगी पर भरोसा है। वह अपने निर्णय पर शर्मिंदा  नहीं है। तभी तो वह अपने अब्बू से कहती है ‘‘अब्बू, मैं अपनी मौजूदा जिन्दगी से पूरी तरह मुतमईन हूँ।’’27 

महरूख भी स्कूल को अपना जीवन लक्ष्य बनाती है। चाक में सारंग स्कूल और सकूल मास्टर के लिए सब कुछ दांव पर लगाती है। कठगुलाब की स्मिता और असीमा गाँव को अपना कर्मक्षेत्र चुनती हैं।
महरूख अपनी नौकरी को अपना सब कुछ बना लेती है और सोचती है कि ‘‘घर का मतलब अगर ईंट, गारे पत्थर की चहारदीवारी होता है और शौहर का मतलब जिन्दगी की बुनियादी जरूरतों का जरिया, तो फिर वे दोनों चीजें मेरे पास मौजूद हैं। यह दीवारें और नौकरी जो मेरा सहारा है।’’28 

महरूख का यह सोचना भी पितृसत्ता के उस विचार को धराशायी करना है जिसके तहत स्त्री को घर की सुरक्षा और अस्मिता और पेट की बुनयादी आवश्यकताओं की संरक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर बनाया गया था। उसके पास नौकरी है अर्थात् वह इन दोनों चीजों की  जरूरत पूरी कर लेती है। अतः उसे पुरुष और उसके द्वारा दी गई सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है।






महरूख ने पुरुष पर निर्भरता के खिलाफ स्वयं को खड़ा किया है, पुरुष के खिलाफ नहीं और न ही उसके मन में मर्द के खिलाफ नफरत का जहर है जैसा कि असीमा और स्मिता (कठगुलाब, और आवां) के मन में है। जब रफत भाई उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तुम्हारे मन में मर्द के लिए नफ़रत पैदा हो गई है?’’....है तो उसका जबाव है कि ‘‘नहीं बिल्कुल, नहीं, औरत की जिन्दगी के सारे करीबी व ज़जवाती रिश्ते मर्द से ही होते हैं। बाप, भाई, शौहर, बेटा जैसी अहमियत को नकार कर औरत कहाँ जायेगी, रफत भाई? सवाल मर्द से नफरत का नहीं है, बल्कि सवाल यह उठता है कि मैं आपके ख्वाबों में बसे घर की मालकिन बन सकती हूँ या नहीं? मुझे लगता है, यह नामुमिकन है।’’29  

यह सवाल औरत को औरत के नजरिये से देखने की मांग करता है। यह सवाल औरत ने स्वयं खड़ा किया है और स्वयं इसका जबाव दिया है। यह स्त्री के द्वारा स्त्री की भूमिका को स्वीकारना है और अपनी भूमिका को स्वयं चुनना है। यह चुनाव उसे अलग व्यक्तित्व देता है। स्वतंत्र व्यक्तित्व, पुरुष के द्वारा दी गई भूमिका के बिना बना उसका अस्तित्व और उसकी पहचान।
महरूख के लिए स्त्री पुरुष के संबंध एक अलग ही विचार पर केन्द्रित हैं। सामान्यतया जो सोचा जाता है जो आधार और आवश्यकता पितृसत्ता ने बना रखी है, महरूख के लिए वे वही नहीं है। वह रफत भाई से कहती है ‘‘क्या बताऊँ रफत भाई? आप तो खुद रिश्तों की गहराई और फैलाव का समझते हैं। कुछ के लिए रिश्ते महदूद होते हैं और उसका इजहार कभी बलात्कार, कभी झुंझलाहट और कभी तरस और नफरत, तो कभी नस्ल की बढोत्तरी होता है, मगर एक और नजरिया रखने वाले के लिए यह मर्द-औरत के ताल्लुक का सबसे खूबसूरत इजहार है। मेरी नजर में जहाँ दिल और दिमाग मिलते हैं वहीं अपनी खुदी देने की ख्वाहिश उभरती है और उस खुदी को, उस नफ्स को कोई कैसे दे सकता है, जब तक...?30

महरूख ने रफत भाई के सामने बहुत स्पष्ट शब्दों में यह बात रख दी की आपने जो घर का ख्वाब देखा था उसे पूरा करने के लिए आप विवाह कर लें। इसके साथ यह भी कि अब यह आवश्यक नहीं की जो ख्वाब आपने देखा है वही मेरा भी हो और मैं उसे ही अपनी हकीकत बनाऊँ। ‘‘मेरे पास कोई ख्वाब आपको लेकर या जिन्दगी को लेकर नहीं है, जो कुछ मेरा है, उसे जो भी कह लें, ख्वाब या हकीकत वह यह गाँव है, यहाँ के लोग हैं, यह नौकरी, जो मेरी पहचान है, जो मेरा भविष्य और वर्तमान है।’’31

महरूख ने पितृसत्ता का यह अहं तोड़ दिया कि स्त्री की पहचान बनाने का काम वही करती है - ‘‘मैं ही तो उसे बनाने वाला हूँ। अगर न ले आता दिल्ली, तो क्या वह आज इतनी समझदार और खुले दिमाग की मालिक बन सकती थी?’’32 
महरूख ने रफत भाई से अपने विवाह होने से इंकार कर दिया। विवाह के बंधन और पति के साथ घिसटते रहने से उसने इंकार कर दिया। उसने अपनी जिंदगी का लक्ष्य आम आदमी के साथ चलना तय किया न कि पूँजीवादी विकास की रफ्तार में दौड़ना। ‘‘आपको बहुत आगे जाना है और मुझे एक जगह ठहरकर बहुत लोगों के साथ चलना है।’’33
वह विवाह को एक समझौते के रूप में जीने से इंकार करती है। क्योंकि वह मानवीय संबंधों को दिलो दिमाग से जीना चाहती है। ‘‘यदि रिश्ता बना भी तो बस वह एक समझौता होगा, फिर कुछ दिन बाद रफत भाई अपने रेस के मैदान में उतर जायेंगे, फिर नई रफ्तार, नई चुनौतियाँ, नई स्कीमें उन्हें उकसायेंगी और वह उनसे इंकार नहीं कर पायेंगे। तब वह उनकी बीबी होगी। उनके साथ घिसटते हुए ही सही दौड़ना तो पडे़गा और उस दौड़ के बीच वह कहीं...? ऐसी जिंदगी वह अब नहीे जी सकती है। कोई मजबूरी, कोई मुसीबत नहीे आन पड़ी है उस पर जो वह सर झुका कर इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दे।’’34

 मर्दों की दुनिया में मर्दोे के सामने उनके द्वारा लिए गए निर्णय से इंकार करके अपना निर्णय सुनाने का साहस महरूख दिखाती है। जब रफत भाई यह कहते हैं कि उसकी जिंदगी में यदि कोई और है तो वह रास्ते से हट जायेंगे तो महरूख कहती है ‘‘आखिरी बार मैं सबके सामने, खासकर अब्बू मैं आपसे कह रही हूँ कि रफत भाई मेरे बड़े भाई हैं। मैं उनको अपने बुजुर्ग की तरह देखती हूँ, बस! चेहरे की तमतमाहट, आँखों से टपकता फैसला खड़े होने का अन्दाज और आवाज में आत्मविश्वास, इन सबने पल भर में ही मसले को हल कर दिया था।’’35  

पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सच्चाई बताते हुए ताई जी कहती हैं -‘‘मर्द सौ गलती करें, तो उन्हें माफी, औरत एक करे तो उसके लिए पिस्तौल तैयार है। कभी सुना है कोई मर्द औरत के नाम पर बैठा रहा हो, मगर औरत एक मर्द के नाम पर जिन्दगी तज देती है। सारी जिन्दगी उसी के नाम की माला जपती रहती है। जमाना कभी नहीं बदलेगा। औरत मर-मर कर जियेगी, चुप रह-रह कर सहेगी। (माई, गीतांजली श्री)’’36

इस पूरी घटना में सबसे महत्वपूर्ण बात जो हुई, वह यह कि एक औरत ने मर्द को ठुकरा दिया। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक टूटन दिखाई दी। ‘‘परंपरागत खानदान के लिए यह हादसा जितना शर्मनाक था, उतना हैरतअंगेज भी कि औरत मर्द को ठुकरा दे? गम की परतों और फिक्र की घटनाओं के बीच कहीं इस बात का दबा-दबा गुरूर भी था।’’37






क्या आज का स्त्री विमर्श और उसके पैरोकार इस गुरूर को गुरूर बनाकर जी सकते हैं? शायद नहीं, अधिकांश स्त्रियाँ महरूख जैसी औरत को ही दोषी और कुलच्छनी कहेंगी।
महरूख ने अपने अंदर की लड़की को, स्त्री चेतना को खोज लिया है, पा लिया है और वह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। इसके साथ ही वह यह भी समझ गई कि मुझे जो निरंतर औरत बनाया जा रहा था, एक परंपरागत स्त्री के रूप में ढाला जा रहा था, उसने उससे अलग अपने वजूद को पा लिया है, अब वह उसक दांव पर नहीं लगा सकती।
‘‘महरूख कमरे में विस्तर पर औंधी पड़ी सोच रही थी कि जिस महरूख को पूरा खानदान बचपन से मुझ पर लादता आया था, वह महरूख मैं नहीं थी। मुझे सांस ही कब किसी ने लेने दी, जो मैं अपने अंदर छिपी लड़की को ढूंढती, समझती, पाती और पहचानती। आज जब मैंने अपने को पहचान लिया है, तो उस लड़की को पा लिया है, जो मेरे अन्दर है, जिसका सही नाम महरूख है और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि उसकी पहचान जो भी हो, मगर रफत भाई हरगिज नहीं है।’’38  

यह जो उसने रफत यानि की पुरुष के बना और उससे अलग अपनी पहचान बनाने का कार्य किया है, वह अपने आप में बेमिसाल है।
विवाह से इंकार और विकल्प - ‘‘महरूख अम्मी की इन बातों को सुनकर सोचने लगती कि शादी हर औरत-मर्द के लिए जरूरी है, मगर इतनी भी जरूरी नहीं है कि वह बेजान दीवारों और बेजबान पलंगों से कर ले या जो भी अंधा, लूला, लंगड़ा रास्ते में आ टकराए उसी के साथ निकाह पढ़वा लिया जाए। आखिर हर जिंदगी का एक ही चौखटा तो नहीं हो सकता।’’39 

‘‘सही और गलत की कसौटी ‘औरत’ होती है, मजहब और रीति रिवाज की जिम्मेदारी भी औरत होती है, राजनीतिक बदलाव को दर्शाने वाली भी औरत होती है। परिवार और कुल की मर्यादा औरत होती है। कुल मिलाकर इस दुनिया को जिन्दा रखने चाली ‘शै’ भी औरत होती है, फिर औरत को इतनी  हिकारत की नजर से क्यों देखा जाता है? क्या सिर्फ इसलिए कि एक गुलाम, एक वेजुबान कनीज की जो आदत सदियों से पड़ गई है, उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता है। वरना संबंधों की तानाशाही किस पर चलेगी और तानाशाही का अपना एक मजा होता है। क्या स्वयं में यह दृष्टिकोण एक प्रकार की राजनीति नहीं है,? फिर उससे औरत क्यों दूर रहे? उस राजनीति में उसका बराबर से हिस्सा होना चाहिए। उसकी मांग, जरूरत, और पुकार को तभी दूसरा पक्ष समझ पायेगा।’’40 
स्त्री जाति का यह विश्लेषण वास्तविकता के धरातल पर है। इसमें उसके होने को दुनिया के लिए आवश्यक बताया गया है और उसके पक्ष को दूसरा पक्ष बराबरी के स्तर पर सुने और समझे इसकी प्राकृतिक आवश्यकता को स्वीकार किया गया है।
स्त्री विमर्श का स्वर पुरुष के खिलाफ नहीं होना चाहिए, बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ होना चाहिए। महरूख के माध्यम से नासिरा जी ने यह बात बहुत ही सटीक ढंग से प्रस्तुत की है। अमृता के संघर्ष में वह उसे समझाती हुई कहती है ‘‘मर्द न हमारा दुश्मन है, न हरीफ़-वह हमारी तरह का इंसान है। मानती हूँ औरतों की तकलीफें बेशुमार हैं, मगर मर्द कब अपनी उलझन से आजाद है? उसकी सबसे बड़ी उलझन तो आज की बदलती औरत है जिसे वह समझ नहीं पा रहा है -मर्दों को हम जज़्बाती नजर से न देखकर उन्हें व्यावहारिक तौर पर देखें तो शायद हम उनकी कुण्ठाओं की गिरहें खोल सकें और उन्हें बहुत कुछ समझा सकें।’’41

वे स्त्री की लड़ाई में पुरुष को प्रतिद्वंद्वी नहीं सहयोगी बनाने का सुझाव रखती हैं। ‘‘हमारी लड़ाई अपनों से संघर्ष की लड़ाई है, यानी भूमिगत, अपने अन्दर अपने को समझने और मजबूत बनाने की -हमें मर्द नहीं बनना है न ही मर्द को औरत बनाना है - एक दूसरे को लबादा पहनने की यह ललक ही मुसीबत बन रही है। जरूरत है अपनी -अपनी जगह खड़े होकर अपने आप को समझने और दूसरे को समझाने की जब समझ कह दे, यह नामुमकिन है तो उसे कबूल कर लो, मगर इस तरह से मर के नहीं - याद रखो, इन्सान का जिन्दगी सिर्फ एक बार मिलती है और उसे सिर्फ एक के लिए खत्म करना नासमझी ही नहीं; जुर्म भी है।’’42 

स्त्री-पुरुष के संबंध को पति-पत्नी के संबंध में बांधना पितृसत्ता का वर्चस्वी राजनीति की तकनीक थी। स्त्री के माँ बनने के प्राकृतिक अधिकार को सामाजिक और नैतिक कानून से जोड़कर शुचिता और पवित्रता का वास्ता देकर पितृसत्तात्मक भूमि और बीज के संबंध में क्यों बदल दिया गया। इस पर भी महरूख विचार करती है।
‘‘अपने चारों तरफ गूंजते-गंुधते सन्नाटे में उतरती हुई महरूख महसूस करती कि औरत को बनाते हुए खुदा ने कोख तो उसी के बजूद में बनाई है, अपने बाद सृष्टि का अधिकार उसे ही दिया है फिर उसका श्रेय मर्दों के नाम पर किसने चढ़ा दिया है? हर औरत की माँ बनने का पैदाइशी हक खुदा ने दिया है, तभी तो कयामत के दिन करम का लेखा-जोखा तय करते समय मुर्दों को उनकी माँ के नाम से पुकारा जायेगा। फिर इस दुनिया में जिन्दा इन्सानों के बीच बच्चे की पहचान और नाम माँ न होकर बाप क्यों हो गया है और बाप भी ऐसा जो पति हो, मजाजी खुदा हो, सामाजिक बन्धनों के मुताबिक हो वरना....?’’43

महरूख ने जहाँ से पितृसत्ता द्वारा दी गई भूमिका के आगे अपनी सरहदें फैलाई थीं, वहीं से उसकी पहचान बन थी और वह तय शुदा भूमिकाओं - पत्नीत्व, मातृत्व को न निभाते हुए भी एक मुकम्मल इंसान है और अंदर से पूर्णत्व और मुक्ति का अनुभव करती है।
‘‘अब वह अम्मी को क्या कहे और उन्हें कैसे समझाये कि आपकी महरूख रिवायती दायरे को तोड़कर एक नई जमीन पर खड़ी है। वह अगर माँ नहीं बनी तो चाह अधूरी नहीं है। यह ख्याल अपने में कितना बेमानी है, फिर खुद तो इसकी ख़तावार महरूख नहीं, बल्कि वह माहौल और हादसे हैं जिन्होंने नई महरूख को जन्म दिया।’’44 

महरूख स्त्री के वजूद और पहचान को बंधे-बंधाये ढर्रे से हट कर सोचने पर मजबूर करती है। वह समाज और पितृसत्ता के सामने यह प्रश्न उठाती है कि क्यों औरतों की बोलियाँ लगाना बंद किया जायेगा और कब इनको कोड़ियों और ठीकरों में नापना बंद होगा?

‘‘महरूख अपने बिस्तर पर लेटी चुपचाप अम्मी की यह बेकली देख रही थी कि औरतों की खुशकिस्मती और बदकिस्मती के कितने बंधे-बंधाये ढर्रे हैं। बरसों से चली आ रही यह सोच कब बदलेगी? कब औरत की कीमत ठीकरों और कौड़ियों से नापना बन्द होगा? कब उसे इन्सान समझ कर उसकी बोलियाँ लगनी बन्द होंगी? कब उसे मर्दों के सहारे के बिना दुनिया जीते देखना पसन्द करेगी? कब उसे अपनी तरह जीने की आजादी मिलेगी? आखिर कब?’’45 

महरूख ने अपने लिए गए फैसले की कीमत भी चुकाई है, आने वाली चुनौतियों का सामना किया है। स्त्री को यदि मुक्त होना थोपी गई भूमिकाओं से तो उसे महरूख की तरह फैसले लेने होंगे और साहस के साथ चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना होगा।

‘‘तो मैंने भी अपने पसन्द की जिन्दगी जीने की कीमत अदा की है, मैं अपनी जिन्दगी से मुतमईन हूँ। मैंने कुछ खोकर पाया है अम्मी! आप इसे न जान सकें तो वह अलग बात है, मगर मैंने सचमुच हादसों से घिर कर तजुर्बों की सुरंगों से निकल कुछ पाया है जो बहुत कीमती, बहुत पुरमयानी है जो आप नहीं मगर आने वाली नस्लों की औरतें समझेंगी कि उसका सफ़र कब से शुरू हुआ था - और वह औरत भावनात्मक धरातल पर हमसे ज्यादा मजबूत होगी, हर चोट को हर चिटकन को गहराई से समझ कर उसे रचनात्मक मोड़ देना इमसे कहीं ज्यादा जरूरी समझेगी।’’46 

महरूख के इस निर्णय से भविष्य की औरत आजाद होगी, स्वतंत्र व्यक्तित्व की धनी  होगी और अपने फैसले स्वयं करेगी। इस संभावना को महरूख इन शब्दों में व्यक्त करती है - ‘‘जहरा बीबी, तुम क्या कोई भी किसी लड़की को अब नहीं रोक पायेगा। रोज हालात की भट्टी में पक-पक कर कैसी पुख्ता लड़कियाँ निकल रहीं हैं। इस खानदान की मै पहली लड़की सही, मगर इस दुनिया की तो नहीं। बाहर निकल कर जमाने को तो देखो, आसमान कैसे-कैसे रंग बदल रहा है! सच कहा है किसी ने, जो दिल ग़म से आश्ना ने हो, वह दूसरों का दर्द क्या जाने।’’47
मर्द से अलग अपना भी औरत का घर हो सकता है, उसकी दुनिया हो सकती है, उसका अपना परिवेश और समूह हो सकता है। जिसमें मर्दों का बहिष्कार नहीं साथ भी हो सकता है और उनका वर्चस्वी रूप नहीं हो सकता है।
‘‘एक घर औरत का अपना भी तो हो सकता है, जो उसके बाप और शौहर के घर से अलग, उसकी मेहनत और पहचान का हो।....मेरा अपना घर वही पुराना है, जहाँ मैं पिछले तीस साल रही हूँ। तुम लोग अपने-अपने घर रहे हो, मैं अपने घर लौट रही हूँ। इसमें इतना पेरशान होने की क्याबात है? महरूख ने बड़े इत्मीनान से कहाँ’’48

इस तरह महरूख स्त्री विमर्श की नई दिशा, सोच और व्यवहार का ‘जिन्दा मुहावरा’ है।



डॉ संजीव जैन 

डॉ. संजीव कुमार जैन
सह-प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
गुलाबगंज, म.प्र. संपर्क
522 - आधारशिला, ईस्ट ब्लॉक एक्सटेंशन
बरखेड़ा, भोपाल, म.प्र. 462021
मो. 09826458553





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1. ठीकरे की मंगनी, नासिरा शर्मा, पृ. 17
2. वही, पृ. 12
3. वही, पृ. 12
4. वही, पृ. 14
5. वही, पृ. 17
6. वही, पृ. 22
7. वही, पृ. 26
8 वही, पृ. 40-41
9. वही, पृ.
10. वही, पृ. 49
11. वही, पृ. 50
12. वही, पृ. 51
13. वही, पृ. 61
14. वही, पृ. 61 
15. वही, पृ. 61
16. वही, पृ. 62
17. वही, पृ. 65
18. वही, पृ. 74
19. वही, पृ. 75
20. वही, पृ. 115
21. वही, पृ. 116 
22. वही, पृ. 116
23. वही, पृ. 117
24. वही, पृ. 117
25. वही, पृ. 117-118
26. वही, पृ. 118
27. वही, पृ. 119
28. वही, पृ. 125 
29. वही, पृ. 126
30. वही, पृ. 127
31. वही, पृ. 127
32. वही, पृ. 121
33. वही, पृ. 131
34. वही, पृ. 132
35. वही, पृ. 133
36. वही, पृ. 135
37. वही, पृ. 136
38. वही, पृ. 136
39. वही, पृ. 136
40. वही, पृ. 178
41. वही, पृ. 180
42. वही, पृ. 181
43. वही, पृ. 189
44. वही, पृ. 190
45. वही, पृ. 193
46. वही, पृ. 194
47. वही, पृ. 196
48. वही, पृ. 197

               

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