Thursday, January 4, 2018

डा.अमरजीत कौंके  की कविताएं 




डॉ अमरजीत कौंके 




डा.अमरजीत कौंके 
शिक्षा : एम.ए (पंजाबी ), पी एच डी
सम्प्रति : लेक्चरार


साहित्यिक परिचय


कविता संग्रह ( पंजाबी )
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1.दायरियां दी कब्र चों
2.निर्वाण दी तलाश विच
3.द्वन्द कथा 
4.यकीन 
5.शब्द रहनगे कोल 
6.सिमरतियां दी लालटेन 
7.प्यास

कविता संग्रह (हिंदी)
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1. मुट्ठी भर रौशनी 
2.अँधेरे में आवाज़ 
3.अंतहीन दौड़ 
4.बन रही है नयी दुनिया 

अनुवाद (हिंदी से पंजाबी )
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1.आधुनिक भारती कविता संचयन (हिंदी )
2.औड़ विच सारस (डा. केदार नाथ सिंह )
3.अरण्य ( श्री नरेश मेहता )
4.नवें इलाके विच ( अरुण कमल )
5.दूजा कोई नहीं ( कुंवर नारायण )
6.साम्प्रदायिकता ( बिपिन चन्द्रा )
7.ना छूहीं परछावें ( हिमांशु जोशी )
8.गाथा महामनुख दी ( बलभद्र ठाकुर )
9.देवकी नंदन खत्री ( मधुरेश )
10.गोट्या ( न.ध. तम्हनकर )
11.उस रात दी गल्ल ( मिथिलेश्वर)
12.धुप्प निकलेगी ( जसबीर चावला)
13.उषा यादव दीयां चोनवियां कहानियां ( ऊषा यादव )
14.औरत मेरे अंदर ( पवन करण )

अनुवाद (पंजाबी से हिंदी)
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1.आधुनिक भारतीय कविता संचयन (पंजाबी )
2.गलिये चिक्कड़ दूरि घर ( वणजारा बेदी )
3.शब्दों की धूप ( सुखविंदर कम्बोज )
4.सूरज का तकिया ( रविंदर रवि )
5.बांसुरी क्या गीत गाये ( रविंदर )
6.पत्ते की महायात्रा ( परमिंदर सोढ़ी )
7.टुकड़ा टुकड़ा वर्तमान ( सुरिंदर सोहल )
8.हार कर भी ( दर्शन बुलंदवी )
9.पल पल बदलते रंग ( बीबा बलवंत )

अनुवाद (अंग्रेजी से पंजाबी)
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1. जदों दुनिया नवीं नवीं बनी 
( वेरियर एल्विन )
2. काठ दा पुतला ( कार्लो कलोदी )


बच्चों के लिए 
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1.कुक्कड़ूं घड़ूं (कविताएं )
2.कुड़ियां चिड़ियाँ ( कविताएं )
3.वातावरण संभाल (कविताएं )
4.लक्कड़ दी कुड़ी ( लोक कथाएं )
5.मखमल दे पत्ते ( लोक कथाएं )

सम्पादित पुस्तकें
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1.समानांतर ( नवें दशक की पंजाबी कविता )
2.समां उदास नहीं ( समकाली पंजाबी कविता )
3.स्वर्ण सिंह परवाना दी कावि चेतना ( आलोचना )
4.अखर अखर एहसास ( फेसबुक के कवियों की कविता)
5.शब्द शब्द परवाज़ ( फेसबुक के कवियों की कविता )

** पंजाबी में 2003 से निरंतर त्रैमासिक साहित्यक मैगज़ीन " प्रतिमान " का संपादन
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अमरजीत कौंके की कविता पर प्रकाशित आलोचना की पुस्तकें 
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1.अमरजीत कौंके काव्य-सृजना ते संवाद , संपादक : डॉ. आत्म रंधावा 
2.अमरजीत कौंके दा कावि-संवाद, संपादक : डॉ. लखविंदर जीत कौर 
3.अमरजीत कौंके दी कविता विच बेगानगी दा संकल्प, लेखक : हरविंदर ढिल्लों
4.अमरजीत कौंके-कावि : चिंतन ते समीक्षा, संपादक : डॉ.बलजीत सिंह , डॉ.मुख्तियार सिंह
5.अमरजीत कौंके-कावि :पंध ते प्रबंध , संपादक : डॉ. भूपिंदर कौर, सोनिया
6.अमरजीत कौंके दी कविता : स्वै-चिंतन तों युग-चिंतन तक , 
संपादक : डॉ. संदीप सैनी, रमनदीप कौर 
7." सिलसिला "अमरजीत कौंके-कावि विशेषांक, संपादक: सुधीर कुमार 

** अमरजीत कौंके की कविता पर एम फिल और पी एच डी के लिए सभी यूनिवर्सिटीज में 15 से ज्यादा शोध प्रबंध मुकम्मिल 

** साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार 

** भाषा विभाग पंजाब, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर , कनाडा पुरस्कार , तथा अनेक संस्थानों द्वारा अनेक सम्मानों से सम्मानित....

**
३० वर्ष से रेडियो टी वी पर रचनाओं का प्रसारण





साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2016 के लिए अनुवाद पुरस्कार प्राप्त करते हुए 





कविताएं 

साँवले हाथ 

साँवले
बहुत साधारण से
हाथ थे वे
जिन्हें
यह भी नहीं था मालूम
कि वे हाथ हैं
सृष्टि रचने वाले
दुनिया को
ख़ूबसूरत बनाने वाले

लेकिन अचानक
प्यार से लबालब दो होठों ने
उन हाथों को क्या छुआ
कि हाथ सिहर उठे

साँवले से
उन हाथों को
पहली बार एहसास हुआ
कि वे हाथ है
सृष्टि की
सब से अज़ीम वस्तु

हाथों को
पहली बार एहसास हुआ
कि वे हाथ हैं
सृष्टि को रचने वाले
दुनिया को
ख़ूबसूरत बनाने वाले ।




शिला 

वह जो मेरी
कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई

बहुत स्मृतियों का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी
कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हँसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ याद नहीं आया
इस तरह
यादों से परे
शिला हो गई वह

उसके एक ओर मैं था
सूर्य के सातवें घोड़े पर सवार
किसी राजकुमार की तरह
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अँगुली पकड़
अनोखे नभ में
उसे घुमाता

एक और उसका घर था
जिसमें उसकी उम्र दफ़्न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलाँग रहे थे

एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिन्दूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था

समाज के बन्धन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेड़ियाँ बनते जा रहे थे
उसे लगता था
कि उसके सपनों की उम्र
उसके संस्कार ही खा रहे थे

इन सब में
इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई ।





भिन्नता 

तुम्हारे साथ
प्यार करने के बाद
पता चला मुझे
कि कितनी सहज रह सकती हो तुम
और मैं कितना बेचैन

कितनी सहज रह सकती हो तुम
घर में सदैव मुस्कराती
रसोई में कोई गीत गुनगुनाती
अच्छी बीवी का दायत्व निभाती
कि घर दफ़्तर
कहीं भी मालूम नहीं पड़ता
कि किसी के प्यार में हो तुम

पर मैं हूँ
कि तुम्हारे न मिलने पर
झल्ला उठता हूँ
बेचैन हो जाता हूँ
अपने आप पर 
क्रोधित होता हूँ
खूँटे पर बँधे हुए
जिद्दी घोड़े की तरह
अपने पाँव तले की 
ज़मीन उखाड़ता हूँ
और सारी दीवारें तोड़ कर
तुम्हारे तक आने के लिए
भागता हूँ

मेरी बेचैनी
तुम्हारी सहजता से
कितनी भिन्न है ।







मछलियाँ

उस की उम्र में
तब आया प्यार
जब उसके बच्चों के
प्यार करने की उम्र थी
तब जगे उसके नयनों में सपने
जब परिन्दों के
घर लौटने का वक़्त था

उसकी उम्र में
जब आया प्यार
तो उसे फ़िश-ऐकुयेरियम में
तैरती मछलियों पर बहुत तरस आया
फैंक दिया फ़र्श पर उसने
काँच का मर्तबान
मछलियों को 
आज़ाद करने के लिए

तड़प तड़प कर
मर गईं मछलियाँ
फ़र्श पर
पानी के बिना

नहीं जानती थी
वह बावरी
कि मछलियों को
आज़ाद करने के भ्रम में
उसने मछलियों पर
कितना जुल्म किया है ।






फिर भी

उसका 
कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे
न कोई ख़त, न सपना
न कोई याद, न दुआ
न कोई अँगूठी, न छल्ला
न कोई रूमाल
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास

न उसके साथ बिताया दिन कोई
न अकेले जाग कर काटी कोई रात
न ख़ामोशी, न आवाज़ कोई
न यादों में सुलगती कोई बात
कुछ भी नहीं था उसका
मेरे पास

न कोई पहाड़ों की स्मृति
न किसी समुन्दरी किनारे की रेत
न कोई गुनगुना दिन, न तीखी दोपहर
न किसी जाड़े की निघ्घी धूप
न उसकी हँसी, न गहरी चुप
उसका कुछ भी तो नहीं था
मेरे पास

उसका
कुछ भी तो नहीं था
पास मेरे

लेकिन फिर भी न जाने क्यों
वह छटपटा रही थी
मुझसे मुक्त होने के लिए ।




मैं तुम्हारे पास नहीं होता 

तुम्हारे पास नहीं होता
भले ही
तुम मुझे असीम प्यार करती
मुझ पर
अपना तन मन न्योछावर करती
लेकिन तुम्हारे संग लिपटा हुआ भी
मैं तुम्हारे पास नहीं होता
वैसे तो मैं भी
तुम से बहुत प्यार करने का
दावा करता हूँ
बार-बार किसी 
प्यासे मरूस्थल की तरह
तुम्हारी गोद में आकर गिरता हूँ
पूरे का पूरा अपनी रेत संग
तुम्हारे नीर में भीगने के लिए
लेकिन भीतर
मन के ठीक भीतर
वह कौन सी जगह है
जो बिल्कुल शुष्क रहती है
जो पानी की बूँद को भी तरसती है
सच मानना
वह जगह बिल्कुल शुष्क रहती है
मैं मन के 
उस शुष्क टुकडे़ पर
एक समुद्र
बिछा देना चाहता हूँ
एक नखलिस्तान
लहरा देना चाहता हूँ
लेकिन 
मन की 
अनगिनत परतों में 
बँटा हुआ 
मैं
आज का मानव
तुम्हारे नीर में 
भीग कर भी
भीतर से
बिल्कुल शुष्क रहता हूँ ।






चलो मिलें फिर कभी

चलो मिलें फिर कभी
बहुत देर से इन्तज़ार कर रही है धरती
बहुत देर से तरस रहा है आकाश
सड़कों के किनारे इन्तज़ार करते वृक्ष
चलो फिर इनके नीचे खड़े होकर
कोई इकरार करें हम

बहुत देर से इन्तज़ार करता
बहता हुआ पानी
अपने भीतर हम दोनों का अक्स
फिर से फ़्रेम करना चाहता
इन्तजार करते पुलों से गुजरते राही
जिनकी परवाह किये बिना
देर तक नदी किनारे
बैठे रहे हम

चलो फिर मिलें कभी
अभी भी वह सड़कें
हमारी पदचासपों का
इन्तज़ार करती
पवन हमारी आवाज़
सुनने को तरस रहा
तुम्हारी वह खनखनाती हँसी 
सुनने को
तरस रहा वातावरण

वे लोग..
जिन्होंने हमें इक्ट्ठा देखकर
कितने बवाल मचाए
कितने तूफ़ान उठाए
जिन्होंने हमें जुदा करने में
अहम रोल निभाए

देखो ! वे फिर
हमारे मिलन का
इन्तजार करते

आओ मिलें फिर कभी ।





अग्नि

वैसे तो हर इन्सान के भीतर
होती है अग्नि

कहीं होती है
यह संस्कारों की राख के नीचे
कहीं आदर्शों की पर्त के नीचे गुम
कहीं डर के बादलों के नीचे छुपी
कहीं फर्ज़ की सतह के नीचे
अक्सर दबी रहती है
अग्नि

कितनी देर से
शब्दों की कुदाल लेकर
मैं खोद रहा था
तुम्हारे मन की धरती
इस कोने-कभी उस कोने
इस दिशा में कभी उस दिशा में

ढूँढता रहा अग्नि
क्योंकि तुम्हारी आँखों में
मैंने पढ़ा था सेंक इसका

खोदता रहा बहुत देर
तुम्हारे मन की पृथ्वी
मुझे लगा था
कि संस्कारों की भारी स्तह के नीचे
यहीं
कहीं न कहीं
छुपी है अग्नि

खोदते-खोदते
आख़िर मैंने ढूँढ ही ली
एक दिन
तुम्हारे मन की पृथ्वी में
गहरी दबी हुई
अग्नि

लेकिन इससे पहले
मैं अग्नि चुराता
अग्नि का फूल बनाता

मैं अग्नि पकड़ने की
कोशिश करता
अग्नि में
भस्म हो चुका था ।





लालटेन 

कंजक कुँआरी कविताओं का
एक कब्रिस्तान है
मेरे सीने के भीतर

कविताएँ
जिनके जिस्म से अभी
संगीत पनपना शुरू हुआ था
और उनके अंग
कपड़ों के नीचे
जवान हो रहे थे
उनके मरमरी चेहरों पर
सुर्ख आभा झिलमिलाने लगी थी

तभी अतीत ने
उन्हें क्रोधित आँखों से देखा
वर्तमान ने
तिरछी नज़रों से घूरा
और भविष्य ने त्योरी चढ़ाई

इन सुलगती हुई 
निगाहों से डर कर
मैंने उन कविताओं को
अपने मन की धरती में
गहरा दबा डाला
अपनी तरफ़ से उन्हें
गहरी नींद सुला डाला
और कहा-
कि अभी कविताओं को
प्यार करने का समय नहीं

लेकिन टिकी रात के
ख़ौफ़नाक अंधेरे में
मेरे भीतर अब भी
उनकी भयानक हँसी गूँजती
दिल दहला देने वाली चीख़ें
विलाप की आवाज़
मेरे मन की दीवारों से
टकरा-टकरा कर लौटती
और पूछती-
कि हमारा गुनाह क्या था ?
आवाज़ पूछती
तो मेरे मन की मिट्टी काँपती
काँपती और तड़पती
और मैं
घर से छिपकर
समाज से छिपकर
पूर्वजों से छिपकर
हाथों में
स्मृतियों की लालटेन पकड़े
सारे क़ब्रिस्तान की 
परिक्रमा करता।

और कंजक कुँआरी
कविताओं की कब्रों पर
अपने लहू का
एक-एक चिराग
रोशन करता।






वर्षा 

वर्षा जब बाहर होती

तो कैसे निखर जाता
धीरे धीरे आकाश
प्यासी धरती
भीतर तक तृप्त होती 

वृक्षों के पत्ते
धुल कर हो जाते नए नवेले
पवन से निकल कर 
सोंधी महक 
सांसों में घुलने लगती 

काश !
वर्षा ऐसी
कभी इन्सान के
भीतर भी हो पाती.... !!!


1 comment:

  1. बहुत खूबसूरत कविताईं । बधाई ......

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