समीक्षक श्रीमती सरिता त्रिवेदी की नज़र में पुस्तक
"रिश्ते मन से मन के"-
कुछ कहानियाँ जिन्दगी सी होती है और कुछ ज़िन्दगियाँ कहानी सी
एक पुस्तक हाथों में है और अहसास हो रहा है..हर ज़िन्दगी में हजारों कहानियाँ छुपी होती हैं और हर कहानी में उतनी ही ज़िन्दगी।
जीवन में हर पल..हर स्थिति ..हर रिश्ता..हर अनुभव अपने आप मे एक दास्तान समेटे होते हैं ..सामान्य दृष्टि उसे नही देख पाती पर एक संवेदनशील नज़र और कलम के संपर्क में आते ही उन्ही बातों के मायने बदल जाते है...एक सर्जक हास्य में करूणा और करूणा में प्रेम या ममता पढ लेता है
जी हाँ ..सही समझा आपने आज मै हाज़िर हूँ "रिश्ते मन से मन के" के साथ..जिसकी शुरूआती कड़ियों ने ही मन से रिश्ता जोड़ लिया।
शिवानी के संस्मरण बहुत पढ़े हैं, रूचिकर लगते थे पर उनसे जुडाव नही महसूस नही हुआ..किन्तु कुछ उल्टा हुआ " रिश्ते ..." पढते समय..हर कडी स्व अनुभूत लगी, अरे ऐसा ही तो हुआ था अपने साथ भी..हमारी बात को, सोच को ही लेखक ने शब्द दे दिये।
शब्द भी तो अपने से ही..सरल, सहज, ग्राह्य,मन को छूती सादी बोलचाल की भाषा..हिन्दी में शामिल अंग्रेजी शब्द.. देशी अंदाज..स्वरचित मुहावरे..सहज प्रवाह मे लिखे गये कुछ अनौपचारिक शब्द भी खलते नही।
कड़ियों को पाठक सिर्फ पढ़ते नहीं जीवन के कुछ पल दुबारा जी लेते हैं।
यदि लेखन से पाठक कनेक्शन महसूस करे तो यह लेखक की बडी सफलता है।
अधिकांश कड़ियों मे एक न एक गूढार्थ वाक्य ..अप्रत्यक्ष संदेश के साथ।
बहुत सहज जीवन दर्शन या नेक नीयत विचारों को प्रेषित करता हुआ...आपके कुछ शब्द ..कुछ सहायता ..कुछ कार्य या व्यवहार जो आपको महत्वहीन लगते है वो ही किसी के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण बन कर उसकी नज़र मे आपका कद कायम करते है।
सभी कड़ियाँ बेहतरीन लिखी गयी है ,
76वीं कड़ी जो अनाम है
रिश्ता खुद का खुद से शायद हर रचनाधर्मी इस दोहरे व्यक्तित्व में उलझा होता है बिल्कुल विरोधाभासी ..खुद को पहचानने की यह खोज बनी रहे..
रिश्तों की कडियाँ आगे और जुड़े
थोडे और व्यापक परिप्रेक्ष्य मे मौलिक मूल्यो को परिभाषित करती कडियाँ उत्कृष्ट ..
किन्तु यदि वे निजी सामान्य व्यवहार को दर्शायेगी तो दूरस्थ पाठक वर्ग जुड़ने मे असहज होगा
भावों को शब्द देने पर एवं शब्दों को पुस्तक रूप देने पर जिम्मेदारी स्वतः बढ जाती है।
कुल मिलाकर " रिश्ते मन से मन के" पढ़ना एक सुखद अनुभव है
आजकल जब साहित्य मे भी मूल्यहीनता.. भावनाहीनता ,संस्कार ह्रास की चर्चा आम है तब यह पुस्तक बात करती है..स्नेह प्रेम की रिश्तो मे विश्वसनीयता की..मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की एक सर्जनात्मक सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर
जैसे
ज्येष्ठ माह की तपती लपट वाली दोपहरी मे... वर्षा की पहली फुहार
अगली पुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी।
- सरिता त्रिवेदी
अनिता मण्डा के विचार 'रिश्ते मन से मन के' पुस्तक पर;-
"संवेदनात्मक लेखा-जोखा"
"रिश्ते मन से मन के" संतोष तिवारी जी की पुस्तक मिली। जिसमें उन्होंने रिश्तों के पिचहत्तर गुलों से एक गुलदस्ता सजाया है। वैसे तो ये कड़ियाँ प्रतिदिन लिखे जाने के दौरान ही पढ़ने को मिल गई थीं। लेकिन एक पुस्तक में एक साथ पन्ने पलटते हुए देखना सुखद रहा। कई जगहों से पुनर्पाठ का लालच रोके न रुका।
अपने में रिश्तों को, रिश्तों में अपनों को पाते हुए लिखी गई ये कड़ियां 'स्व' से साक्षात्कार करने समान हैं।
संस्मरणात्मक शैली में लिखे गये गद्य में कहानी के जैसी क़िस्सागोई है लेकिन ये कहानियां नहीं हैं, कहानी में काल्पनिकता की छूट होती है। जबकि यहां हक़ीक़त की ज़मीन पर इबारत खड़ी की गई है।
वीरेन्द्र आस्तिक जी ने भूमिका में लिखा है कि "दरअसल ये कथाएँ न्यायिक-नैतिक बोध, मानविक आग्रह, जीवंत धार्मिकता और शैक्षणिक कर्तव्य-बोध की तथा ऐसे ही अनेक मूल्यों की प्रेरक कथाएँ हैं। लेकिन इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, वस्तुतः इन कथाओं की जो सबसे ज़्यादा रोचक चीज़ है, वो है इनकी भाषा का लालित्य, वह भी सहज प्रवाहयुक्त भाषा में। भाषा और अंतर्वस्तु का समन्वित प्रवाह ही इन कथाओं को भरपूर पठनीय बना देता है। पठनीयता भी ऐसी कि मूल बात अपनी जगह हृदय में बना ले। अब ऐसी स्थिति में ललित कथा या ललित कथाएँ कहकर संबोधित करना ही उचित होगा।"
पुस्तक की भाषा को रोज़मर्रा की बोलने की भाषा रखा गया है, जिसमें क्लिष्ट हिंदी न होकर सर्वसाधारण को समझ आने वाली हिंदी है। हिंदी के साथ घुलमिल गये अंग्रेजी, उर्दू के शब्दों को उसी तरह देवनागरी में लिख दिया गया है, जिससे कि भाषा की रोचकता व पठनीयता बरक़रार रही है। मुहावरे बेखटके आये हैं। व कहीं कहीं नये मुहावरे भी गढ़े गये हैं।
कुछ सूक्तियाँ भी ध्यान खिंचती हैं 'तकनीक ने विश्व की दूरियों को जितना खत्म किया, दिल की दूरियों को बढ़ा दिया।'
संवेदना से लबरेज़ अक्षर- अक्षर अपनी अमिट छाप हृदय पर अंकित करता है। कथावस्तु की सम्प्रेषणीयता सहज ही पाठक को पुस्तक से जोड़ देती है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज परिवार से व परिवार रिश्तों से बना है यह तो हुई साधारण सी परिभाषा रिश्तों की। लेकिन क्या वाकई रिश्तों को परिभाषित करना इतना आसान है। रिश्तों की पड़ताल करते जीवन बीत जाता है। यह अनसुलझे धागे बाँधे रखते हैं। कोई सिरा थाम समझने की कोशिश करते हैं, तो विवेक जवाब दे जाता है। इंसान का जीवन कुछ रिश्तों की बदौलत और कुछ रिश्तों से ही तो बना है। मनुष्य जीवन एक व्यापक घटनाक्रम है। इसमें कई लोगों का योगदान होता है, उन लोगों से मन एक रिश्ता बना लेता है। क्योंकि हम सभी रिश्तों में जीते हैं, इसलिए ये रिश्ते भी हमें पराये नहीं लगते, इनको पढ़ते हुए कहीं न कहीं हम अपने रिश्तों की ग़िरह भी खोलने लगते हैं, जैसा कि साहिर साहब कह गये हैं-
'कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया।'
जो बात मुझे संतोष जी के लेखन की सबसे अधिक प्रभावित करती है वह है पात्रों का मनोविशेषणात्मक चित्रण।
वो चाहे पहली कक्षा में खुद को शिक्षक के द्वारा न समझ पाने का क्षोभ हो (चौथी कड़ी) या स्वयं द्वारा एक अध्यापक के रूप में बादल से माफ़ी मांगना हो (तीसरी कड़ी)
संतोष जी स्वयं एक शिक्षक हैं अतः बाल मनोविज्ञान की समझ बहुत अच्छी है और इसे जीवन में उपयोग में भी लिया है (पांचवीं कड़ी) इसका प्रमाण देती है। संवेदनशीलता कहीं टॉनिक के रूप में बाज़ार में नहीं बिकती, उसे तो संस्कारों से ही व्यक्तित्व का अंग बनाया जा सकता है, यह जागरूकता एक शिक्षक की ट्रेनिंग का हिस्सा है। वह अपने बच्चे के मन में भी इसका बीजारोपण कर रहे हैं।
किताबी ज्ञान तो चार किताबें पढ़ मिल ही जाता है, पर जीवन युद्ध में जीत दिलाने वाले असली शस्त्र तो आत्मविश्वास और मन की शक्ति हैं और ये शस्त्र हमें परिवार के बाद अपने शिक्षकों से ही मिलते हैं। एक शिक्षक का जीवन व व्यवहार समाज के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी निभाता है इसे आप (आठवीं कड़ी) में पृथा से जुड़ कर गहराई से महसूस करेंगे।
अज्जु को दसवीं पास करवाना( 13 वीं कड़ी),
किसी ठेले वाले बुजुर्ग की निस्वार्थ भाव से पुल पर ठेला चढ़ाने में मदद कर ( 10 वीं कड़ी) संतोष रूपी धन से खज़ाना भर लेना भी हर किसी के बस की बात नहीं। 22 साल से एकरंग में रँगे हुए हमसफ़र (15 वीं कड़ी), प्रतिभा सम्पन्न छात्रा का बाल विवाह न रुकवा पाने की विवशता (16 वीं कड़ी) सब आँखों देखे किरदार से लगते हैं।
कहीं शरारती लोग, कहीं मुंहफट बेलाग क़िस्म के, कहीं शक़्क़ी, कहीं गम्भीर कई तरह के पात्रों की कहानीयाँ मिलेंगी इन रिश्तों में।
हमारा जीवन हमारे सम्पर्क में आने वाले लोगों से कितना व किस तरह प्रभावित होता है इसका भी अच्छा विश्लेषण इसमें मिल जाता है।
कड़ियों के सटीक शीर्षक इनको एक पायदान और ऊपर रख देते हैं। अतीत में डूब यादों के गुहर निकाल उनकी माला बनी यह पुस्तक संवेदना स्तर पर बहुत समृद्ध है। माँ-पिता, पत्नी, बेटे, भाई, पत्नी के पिता आदि नजदीकी रिश्तों पर लिखा हुआ भी लेखक के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम खोलता है। स्मृतियों से जिसका कोष भरा हुआ है वो कभी स्नेह शून्य हो ही नहीं सकता। स्मृति की अंगुली थाम निकल पड़िये किसी भी राह, ऐसे रिश्ते आपका हाथ थाम संग हो लेंगे। आपसी रिश्तों की भावपूर्ण कड़ियां मन को भीगो देती हैं।
इतनी सारी अच्छी बातों के बीच पुस्तक की एक कमी मुझे ज़रूर अखरी। और वो यह है कि बहुत सारी जगह नुक़्तों का ख़्याल बिलकुल नहीं रखा गया है। मुझ जैसे पाठकों का ध्यान इस बात पर ज़रूर जाएगा। पुस्तक की सरल व मुहावरे दार भाषा इसे आम पाठकों में प्रिय बना देगी। सरल लिखना ज़्यादा कठिन है। यह सरलता ही इस पुस्तक की ताक़त है।
परिचय
#नाम- संतोष तिवारी
#पिता- स्व. श्री लालाराम तिवारी
#माता- श्रीमती विद्यादेवी तिवारी
#पत्नी- श्रीमती प्रीति तिवारी
#जन्म- 14 दिसम्बर 1966
#शिक्षा- बी. एस सी.,बी. म्यूज़. एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), बी. एड.
#लेखन
*मुख्य विधा- कविता /ग़ज़ल
*अन्य विधा- रेखाचित्र लेखन
*लगभग 200 सुप्रभात संदेशो की श्रृंखला का लेखन जिसमे जीवन जीने की कला और मानवीय संबंधों पर नए दृष्टिकोण से विश्लेषण किया है।
*लघु नाटिकाओं का लेखन, मंचन एवं निर्देशन
*समसामयिक विषयों पर व्यंग्य लेखन
#प्रकाशन
* जीवन में बने रिश्तों की सच्ची कथाओं पर एक पुस्तक " रिश्ते मन से मन के" का प्रकाशन।
*विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कवितायेँ ग़ज़लें एवं आलेख प्रकाशित
* सांध्य दैनिक अग्निबाण में मन्तर नाम से कॉलम का प्रकाशन जिसमे सत्यार्थ के छद्म नाम से लेखन।
#प्रसारण
*ई-टीवी उर्दू द्वारा प्रसारित ग़ज़ल के कार्यक्रम में ग़ज़ल पाठ
*आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से कवितायेँ एवं वार्ताएं प्रसारित
*कवि सम्मेलनों और अखिल भारतीय स्तर के मुशायरो में शिर्कत
#सम्मान
शब्द प्रवाह साहित्यिक संस्था उज्जैन द्वारा 'शब्द विभूषण' की उपाधि से सम्मानित तथा कृति "रिश्ते मन से मन के" लघु कथा श्रेणी में द्वितीय स्थान पर चयनित।
#सम्प्रति
*अखिल भारतीय साहित्य परिषद की खण्डवा जिला इकाई का सचिव।
* शासकीय माध्यमिक शाला पदमनगर , खण्डवा में प्रधानाचार्य।
#निवास-
"प्रारब्ध"
12 शांतिनगर, सिविल लाइन्स
खण्डवा, म. प्र.
450221
मोबाइल - 9926571060
"रिश्ते मन से मन के"-
कुछ कहानियाँ जिन्दगी सी होती है और कुछ ज़िन्दगियाँ कहानी सी
एक पुस्तक हाथों में है और अहसास हो रहा है..हर ज़िन्दगी में हजारों कहानियाँ छुपी होती हैं और हर कहानी में उतनी ही ज़िन्दगी।
जीवन में हर पल..हर स्थिति ..हर रिश्ता..हर अनुभव अपने आप मे एक दास्तान समेटे होते हैं ..सामान्य दृष्टि उसे नही देख पाती पर एक संवेदनशील नज़र और कलम के संपर्क में आते ही उन्ही बातों के मायने बदल जाते है...एक सर्जक हास्य में करूणा और करूणा में प्रेम या ममता पढ लेता है
जी हाँ ..सही समझा आपने आज मै हाज़िर हूँ "रिश्ते मन से मन के" के साथ..जिसकी शुरूआती कड़ियों ने ही मन से रिश्ता जोड़ लिया।
शिवानी के संस्मरण बहुत पढ़े हैं, रूचिकर लगते थे पर उनसे जुडाव नही महसूस नही हुआ..किन्तु कुछ उल्टा हुआ " रिश्ते ..." पढते समय..हर कडी स्व अनुभूत लगी, अरे ऐसा ही तो हुआ था अपने साथ भी..हमारी बात को, सोच को ही लेखक ने शब्द दे दिये।
शब्द भी तो अपने से ही..सरल, सहज, ग्राह्य,मन को छूती सादी बोलचाल की भाषा..हिन्दी में शामिल अंग्रेजी शब्द.. देशी अंदाज..स्वरचित मुहावरे..सहज प्रवाह मे लिखे गये कुछ अनौपचारिक शब्द भी खलते नही।
कड़ियों को पाठक सिर्फ पढ़ते नहीं जीवन के कुछ पल दुबारा जी लेते हैं।
यदि लेखन से पाठक कनेक्शन महसूस करे तो यह लेखक की बडी सफलता है।
अधिकांश कड़ियों मे एक न एक गूढार्थ वाक्य ..अप्रत्यक्ष संदेश के साथ।
बहुत सहज जीवन दर्शन या नेक नीयत विचारों को प्रेषित करता हुआ...आपके कुछ शब्द ..कुछ सहायता ..कुछ कार्य या व्यवहार जो आपको महत्वहीन लगते है वो ही किसी के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण बन कर उसकी नज़र मे आपका कद कायम करते है।
सभी कड़ियाँ बेहतरीन लिखी गयी है ,
76वीं कड़ी जो अनाम है
रिश्ता खुद का खुद से शायद हर रचनाधर्मी इस दोहरे व्यक्तित्व में उलझा होता है बिल्कुल विरोधाभासी ..खुद को पहचानने की यह खोज बनी रहे..
रिश्तों की कडियाँ आगे और जुड़े
थोडे और व्यापक परिप्रेक्ष्य मे मौलिक मूल्यो को परिभाषित करती कडियाँ उत्कृष्ट ..
किन्तु यदि वे निजी सामान्य व्यवहार को दर्शायेगी तो दूरस्थ पाठक वर्ग जुड़ने मे असहज होगा
भावों को शब्द देने पर एवं शब्दों को पुस्तक रूप देने पर जिम्मेदारी स्वतः बढ जाती है।
कुल मिलाकर " रिश्ते मन से मन के" पढ़ना एक सुखद अनुभव है
आजकल जब साहित्य मे भी मूल्यहीनता.. भावनाहीनता ,संस्कार ह्रास की चर्चा आम है तब यह पुस्तक बात करती है..स्नेह प्रेम की रिश्तो मे विश्वसनीयता की..मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की एक सर्जनात्मक सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर
जैसे
ज्येष्ठ माह की तपती लपट वाली दोपहरी मे... वर्षा की पहली फुहार
अगली पुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी।
- सरिता त्रिवेदी
अनिता मण्डा के विचार 'रिश्ते मन से मन के' पुस्तक पर;-
"संवेदनात्मक लेखा-जोखा"
"रिश्ते मन से मन के" संतोष तिवारी जी की पुस्तक मिली। जिसमें उन्होंने रिश्तों के पिचहत्तर गुलों से एक गुलदस्ता सजाया है। वैसे तो ये कड़ियाँ प्रतिदिन लिखे जाने के दौरान ही पढ़ने को मिल गई थीं। लेकिन एक पुस्तक में एक साथ पन्ने पलटते हुए देखना सुखद रहा। कई जगहों से पुनर्पाठ का लालच रोके न रुका।
अपने में रिश्तों को, रिश्तों में अपनों को पाते हुए लिखी गई ये कड़ियां 'स्व' से साक्षात्कार करने समान हैं।
संस्मरणात्मक शैली में लिखे गये गद्य में कहानी के जैसी क़िस्सागोई है लेकिन ये कहानियां नहीं हैं, कहानी में काल्पनिकता की छूट होती है। जबकि यहां हक़ीक़त की ज़मीन पर इबारत खड़ी की गई है।
वीरेन्द्र आस्तिक जी ने भूमिका में लिखा है कि "दरअसल ये कथाएँ न्यायिक-नैतिक बोध, मानविक आग्रह, जीवंत धार्मिकता और शैक्षणिक कर्तव्य-बोध की तथा ऐसे ही अनेक मूल्यों की प्रेरक कथाएँ हैं। लेकिन इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, वस्तुतः इन कथाओं की जो सबसे ज़्यादा रोचक चीज़ है, वो है इनकी भाषा का लालित्य, वह भी सहज प्रवाहयुक्त भाषा में। भाषा और अंतर्वस्तु का समन्वित प्रवाह ही इन कथाओं को भरपूर पठनीय बना देता है। पठनीयता भी ऐसी कि मूल बात अपनी जगह हृदय में बना ले। अब ऐसी स्थिति में ललित कथा या ललित कथाएँ कहकर संबोधित करना ही उचित होगा।"
पुस्तक की भाषा को रोज़मर्रा की बोलने की भाषा रखा गया है, जिसमें क्लिष्ट हिंदी न होकर सर्वसाधारण को समझ आने वाली हिंदी है। हिंदी के साथ घुलमिल गये अंग्रेजी, उर्दू के शब्दों को उसी तरह देवनागरी में लिख दिया गया है, जिससे कि भाषा की रोचकता व पठनीयता बरक़रार रही है। मुहावरे बेखटके आये हैं। व कहीं कहीं नये मुहावरे भी गढ़े गये हैं।
कुछ सूक्तियाँ भी ध्यान खिंचती हैं 'तकनीक ने विश्व की दूरियों को जितना खत्म किया, दिल की दूरियों को बढ़ा दिया।'
संवेदना से लबरेज़ अक्षर- अक्षर अपनी अमिट छाप हृदय पर अंकित करता है। कथावस्तु की सम्प्रेषणीयता सहज ही पाठक को पुस्तक से जोड़ देती है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज परिवार से व परिवार रिश्तों से बना है यह तो हुई साधारण सी परिभाषा रिश्तों की। लेकिन क्या वाकई रिश्तों को परिभाषित करना इतना आसान है। रिश्तों की पड़ताल करते जीवन बीत जाता है। यह अनसुलझे धागे बाँधे रखते हैं। कोई सिरा थाम समझने की कोशिश करते हैं, तो विवेक जवाब दे जाता है। इंसान का जीवन कुछ रिश्तों की बदौलत और कुछ रिश्तों से ही तो बना है। मनुष्य जीवन एक व्यापक घटनाक्रम है। इसमें कई लोगों का योगदान होता है, उन लोगों से मन एक रिश्ता बना लेता है। क्योंकि हम सभी रिश्तों में जीते हैं, इसलिए ये रिश्ते भी हमें पराये नहीं लगते, इनको पढ़ते हुए कहीं न कहीं हम अपने रिश्तों की ग़िरह भी खोलने लगते हैं, जैसा कि साहिर साहब कह गये हैं-
'कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया।'
जो बात मुझे संतोष जी के लेखन की सबसे अधिक प्रभावित करती है वह है पात्रों का मनोविशेषणात्मक चित्रण।
वो चाहे पहली कक्षा में खुद को शिक्षक के द्वारा न समझ पाने का क्षोभ हो (चौथी कड़ी) या स्वयं द्वारा एक अध्यापक के रूप में बादल से माफ़ी मांगना हो (तीसरी कड़ी)
संतोष जी स्वयं एक शिक्षक हैं अतः बाल मनोविज्ञान की समझ बहुत अच्छी है और इसे जीवन में उपयोग में भी लिया है (पांचवीं कड़ी) इसका प्रमाण देती है। संवेदनशीलता कहीं टॉनिक के रूप में बाज़ार में नहीं बिकती, उसे तो संस्कारों से ही व्यक्तित्व का अंग बनाया जा सकता है, यह जागरूकता एक शिक्षक की ट्रेनिंग का हिस्सा है। वह अपने बच्चे के मन में भी इसका बीजारोपण कर रहे हैं।
किताबी ज्ञान तो चार किताबें पढ़ मिल ही जाता है, पर जीवन युद्ध में जीत दिलाने वाले असली शस्त्र तो आत्मविश्वास और मन की शक्ति हैं और ये शस्त्र हमें परिवार के बाद अपने शिक्षकों से ही मिलते हैं। एक शिक्षक का जीवन व व्यवहार समाज के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी निभाता है इसे आप (आठवीं कड़ी) में पृथा से जुड़ कर गहराई से महसूस करेंगे।
अज्जु को दसवीं पास करवाना( 13 वीं कड़ी),
किसी ठेले वाले बुजुर्ग की निस्वार्थ भाव से पुल पर ठेला चढ़ाने में मदद कर ( 10 वीं कड़ी) संतोष रूपी धन से खज़ाना भर लेना भी हर किसी के बस की बात नहीं। 22 साल से एकरंग में रँगे हुए हमसफ़र (15 वीं कड़ी), प्रतिभा सम्पन्न छात्रा का बाल विवाह न रुकवा पाने की विवशता (16 वीं कड़ी) सब आँखों देखे किरदार से लगते हैं।
कहीं शरारती लोग, कहीं मुंहफट बेलाग क़िस्म के, कहीं शक़्क़ी, कहीं गम्भीर कई तरह के पात्रों की कहानीयाँ मिलेंगी इन रिश्तों में।
हमारा जीवन हमारे सम्पर्क में आने वाले लोगों से कितना व किस तरह प्रभावित होता है इसका भी अच्छा विश्लेषण इसमें मिल जाता है।
कड़ियों के सटीक शीर्षक इनको एक पायदान और ऊपर रख देते हैं। अतीत में डूब यादों के गुहर निकाल उनकी माला बनी यह पुस्तक संवेदना स्तर पर बहुत समृद्ध है। माँ-पिता, पत्नी, बेटे, भाई, पत्नी के पिता आदि नजदीकी रिश्तों पर लिखा हुआ भी लेखक के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम खोलता है। स्मृतियों से जिसका कोष भरा हुआ है वो कभी स्नेह शून्य हो ही नहीं सकता। स्मृति की अंगुली थाम निकल पड़िये किसी भी राह, ऐसे रिश्ते आपका हाथ थाम संग हो लेंगे। आपसी रिश्तों की भावपूर्ण कड़ियां मन को भीगो देती हैं।
इतनी सारी अच्छी बातों के बीच पुस्तक की एक कमी मुझे ज़रूर अखरी। और वो यह है कि बहुत सारी जगह नुक़्तों का ख़्याल बिलकुल नहीं रखा गया है। मुझ जैसे पाठकों का ध्यान इस बात पर ज़रूर जाएगा। पुस्तक की सरल व मुहावरे दार भाषा इसे आम पाठकों में प्रिय बना देगी। सरल लिखना ज़्यादा कठिन है। यह सरलता ही इस पुस्तक की ताक़त है।
संतोष तिवारी |
परिचय
#नाम- संतोष तिवारी
#पिता- स्व. श्री लालाराम तिवारी
#माता- श्रीमती विद्यादेवी तिवारी
#पत्नी- श्रीमती प्रीति तिवारी
#जन्म- 14 दिसम्बर 1966
#शिक्षा- बी. एस सी.,बी. म्यूज़. एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), बी. एड.
#लेखन
*मुख्य विधा- कविता /ग़ज़ल
*अन्य विधा- रेखाचित्र लेखन
*लगभग 200 सुप्रभात संदेशो की श्रृंखला का लेखन जिसमे जीवन जीने की कला और मानवीय संबंधों पर नए दृष्टिकोण से विश्लेषण किया है।
*लघु नाटिकाओं का लेखन, मंचन एवं निर्देशन
*समसामयिक विषयों पर व्यंग्य लेखन
#प्रकाशन
* जीवन में बने रिश्तों की सच्ची कथाओं पर एक पुस्तक " रिश्ते मन से मन के" का प्रकाशन।
*विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कवितायेँ ग़ज़लें एवं आलेख प्रकाशित
* सांध्य दैनिक अग्निबाण में मन्तर नाम से कॉलम का प्रकाशन जिसमे सत्यार्थ के छद्म नाम से लेखन।
#प्रसारण
*ई-टीवी उर्दू द्वारा प्रसारित ग़ज़ल के कार्यक्रम में ग़ज़ल पाठ
*आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से कवितायेँ एवं वार्ताएं प्रसारित
*कवि सम्मेलनों और अखिल भारतीय स्तर के मुशायरो में शिर्कत
#सम्मान
शब्द प्रवाह साहित्यिक संस्था उज्जैन द्वारा 'शब्द विभूषण' की उपाधि से सम्मानित तथा कृति "रिश्ते मन से मन के" लघु कथा श्रेणी में द्वितीय स्थान पर चयनित।
#सम्प्रति
*अखिल भारतीय साहित्य परिषद की खण्डवा जिला इकाई का सचिव।
* शासकीय माध्यमिक शाला पदमनगर , खण्डवा में प्रधानाचार्य।
#निवास-
"प्रारब्ध"
12 शांतिनगर, सिविल लाइन्स
खण्डवा, म. प्र.
450221
मोबाइल - 9926571060
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