Tuesday, October 10, 2017

फिल्मों के माध्यम से सामयिक जन समस्याओं को जनता के सामने रखना एक अच्छे फिल्म निर्माता का कर्तव्य होता है 
|जबकि  आजकल बाज़ार मसाला फिल्मों का है तो एक समवेदन शील विषय पर फिल्मांकन व्यावसायिकता की द्रष्टि से रिस्क वाला काम ही है |लेकिन यह काम अमित मसूरकर  ने न्यूटन फिल्म बना कर किया |फिल्म के बारे में लिखते है भवेश दिलशाद 

परिचयात्मक लेख - आकांक्षा

परिचय - भवेश दिलशाद
ग़ज़ल के पर्यायवाची, दोहों सी सार्वभौमिकता, काव्य रगों में, साहित्य का मर्म और नज़्मों सा जीवन... भवेश दिलशाद की सम्पूर्ण व्याख्या।

15 बरस से ज़्यादा समय से साहित्यिक पत्रकारिता, प्रमुख हिन्दी अखबारों में सेवाएं, साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन, हिन्दी में स्नातकोत्तर और अंग्रेज़ी में स्नातक और सीखने की तत्परता अब भी...

शिवपुरी में जन्मे, भोपाल में पले-बढ़े, परिवार में बड़े बेटे, बड़े भाई का प्यार, भरोसा और साथ देने का वादा निभाते हुए आगे बढ़े...
ज़िद्दी दिल, समझौता न करता हुआ दिमाग, बहुत गहरी सोच और संतुलित समझ भवेश हैं। भवेश एक चिन्तक हैं। विश्व को देखने का उनका अपना एक दृष्टिकोण है जो शुद्ध है, पवित्र है, छलरहित है। शान्त स्वभाव के दिखने वाले भवेश अगर आपसे ज़्यादा बात कर रहे हैं तो समझ लीजिएकि आपकी सोच उनसे कहीं मिल रही है। वक़्त गुज़ारना, बिताना या व्यर्थ गंवाना उन्हें कतई पसंद नहीं आता...
शेर जब 'हो रहे' होते हैं तो उनके माथे पर एक चंचलता, आंखों में स्थिरता और खालीपन और शरीर की शिथिलता देखना एक अनुभव होता है। शेर या ग़ज़ल होने की प्रक्रिया उनके सामने बैठकर देखना एक रोमांच है। भवेश एक ऐसे पुरुष हैं जिन्होंने मेरे कार्यों को प्राथमिकता देते हुए अपने व्यवसाय में तब्दीलियां कीं, स्थान बदले, मेरी बात परिवार व समाज के सामने सम्मान व दृढ़ता के साथ रखने में संकोच नहीं किया और... मुझे खुशी है कि मैं ऐसे पुरुष के साथ ज़िन्दगी निवेश कर रही हूं।









न्यूटन : वैज्ञानिक नियमों का जीवन दर्शन और कंट्रास्ट

- भवेश दिलशाद
गैलिलियो ने जब यह बताया था कि सूर्य पृथ्वी के नहीं, बल्कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है तो चर्च की सत्ता ने उसका पुरज़ोर विरोध किया। ऐसे ही, आइज़ैक न्यूटन ने जब गुरुत्वाकर्षण और गति के सिद्धांतों की विवेचना की तब भी धर्म की सत्ता को नागवार गुज़रा। अमित मसूरकर निर्देशित हालिया फिल्म न्यूटन का ऐसे वैज्ञानिक सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन दर्शन के स्तर पर मामला कुछ ऐसा ही है कि जब फिल्म का नायक न्यूटन कुमार अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदारी प्रदर्शित करता है और सच का साथ देता है तो पूरा सिस्टम उसे कुचलने के लिए तत्पर रहता है। सिस्टम ने एक कुचक्र रचा है जिसमें किसी भी सच और ईमानदारी की गुंजाइश नहीं है।

नक्सलवाद को लेकर, लोकतंत्र की महानता को लेकर भारत ने किस प्रकार के झूठे प्रचार किये हैं, एक सीधी-सादी कहानी के ज़रीये कठोर कटाक्ष करने वाली फिल्म न्यूटन की परतों में दर्शन के स्तर पर न्यूटन के “गति के प्रचलित नियमों” की अवधारणा को जीवन के संदर्भ में समझना एक अनुभव है। फिल्म की कहानी की शुरुआत में एक “इनर्शिया मोमेंट” है और फिर कुछ बाहरी बल दर्शाती घटनाएं भी। एक कंसेप्ट के तौर पर गति के तीनों नियमों का दर्शन फिल्म में इस तरह नज़र आता है - कि हालात ऐसे ही बने रहेंगे अगर हमने कोई पहल नहीं की तो; एक छोटे प्रयास से एक छोटी उपलब्धि हासिल हो सकती है लेकिन समस्या चूंकि बड़ी है इसलिए प्रयासों को बड़ा होना ही पड़ेगा; छोटी ही सही आप कोई पहल करेंगे तो उसका छोटा ही सही एक परिणाम तो मिलेगा ही।

इस दर्शन को भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के एक समस्याग्रस्त इलाके में आरोपित करने से पूरे दर्शन का एक दिलचस्प कंट्रास्ट भी पैदा होता है जो न्यूटन के निर्देशक की अतिरिक्त बौद्धिकता ही है। प्रकारांतर से, इस कहानी के साथ जुड़ते ही एक स्तर पर न्यूटन के नियम झूठे भी लगने लगते हैं। जैसे एक बल लगने के बावजूद हालात बदल नहीं रहे; उस बल का सर्वथा अभाव ही है, जो एक बड़ी समस्या को हिलाने के लिए ज़रूरी है; कहीं ऐसा भी लगता है कि ज़रूरी नहीं है कि हर क्रिया के बराबर और विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया हर बार हो ही।

यह समय सिनेमा का उद्देश्य निर्धारित करने की कोशिश का समय है। जब न्यूटन जैसी कोई फिल्म आती है तो निश्चित ही हम कह सकते हैं कि एक वर्ग है, जो सिनेमा के माध्यम और उसकी उपादेयता को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि उसके बड़े लक्ष्य को लेकर प्रयासरत भी है। इस तरह या इस धारा को चूंकि अब छोटे शहरों तक में स्क्रीन मिलने लगी है, यह इसलिए भी शुभ है क्योंकि अब ऐसा सिनेमा उन दर्शकों तक भी पहुंच रहा है जो अब तक इससे वंचित रहे हैं। ऐसे दर्शकों के लिए ऐसे सिनेमा के क्या मायने होते हैं? ऐसा दर्शक वर्ग क्या इस तरह के ठहराव वाले सिनेमा को आकर्षक पाता है? क्या एक बड़ा दर्शक वर्ग सिनेमा से एक नये बौद्धिक अनुभव की अपेक्षा रखता भी है या वह सिर्फ इस माध्यम से एक गुदगुदी, एक टाइम पास और एक मनोरंजन की ही मांग करता है?

न्यूटन उस ज़मीन से उगने वाला सिनेमा है जिसमें हरियाली और नज़ारों का सौंदर्य नहीं है और जिसे लगभग बंजर ज़मीन जा चुका है। तो क्या बंजर ज़मीन पर पर्यटन का कोई आकर्षण नहीं होता? होता है। बंजर ज़मीन का पर्यटन हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी होता है जिसके अंतस में एक बंजर मेदान फैल चुका हो। बंजर ज़मीन हमारे सामने आईने का काम करने लगती है।

कई कोणों से न्यूटन को देखे जाने की ज़रूरत महसूस होती है। सबसे पहले, इसके कथ्य की रेंज को समझना होगा। न्यूटन अपने कथ्य में एकबारगी सपाट दिखती है क्योंकि इसमें कोई चौंकाने वाला दृश्य विधान नहीं है, क्योंकि इसमें पटकथा के लिहाज़ से कोई सनसनीख़ेज़ पेंच नहीं हे और क्योंकि इसका व्यंग्य बहुत सरलता से संप्रेषित होता भी है। फिर भी, इसके कथ्य की रेंज इतनी है कि हम इसे विश्व स्तर का सिनेमा कह सकते हैं।

पहला तो यह कि, यह फिल्म दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का वह कुरूप चेहरा सामने रखती है, जो हमारा ही है, लेकिन हमें ही इससे घिन आती है। लोकतंत्र का आधार उपकरण है मतदान और हमने इसे ही लोकतंत्र के खिलाफ एक हथियार और हथकंडा बना लिया है। राजनीति इस हथियार का प्रयोग उस स्तर पर कर रही हे जिसे समझ पाना करोड़ों की जनसंख्या के लिए मुमकिन तक नहीं है। यह एकदम जड़ का भ्रष्टाचार है, जिसे न्यूटन एक फिल्म के परदे पर सीधे ढंग से उतार देती है। एक उदाहरण यह है कि सिटिज़न चार्टर के नाम से यूके पहला देश बना था दुनिया का, जिसने लोक सेवाओं के प्रदाय में गारंटी दी थी। यह 90 के दशक में हुआ था। और 2010 में मध्य प्रदेश ने लोक संवा गारंटी अधिनियम पास किया जिसमें कुछ सेवाओं को गारंटी के साथ दिये जाने का दावा किया जाता है। अब मप्र दुनिया भर में ढिंढोरा पीट रहा है और यह कदम उठाने वाला पहला राज्य होने का दावा करते हुए दुनिया भर से प्रशंसा भी प्राप्त कर रहा है, पुरस्कार भी। इस कानून की ज़मीनी सच्चाई क्या है, यह मप्र का कोई भी नागरिक आपको दो मिनट में बता सकता है। बावजूद इसके, हमने यह कला हासिल कर ही ली है कि सच कुछ भी हो, हम जैसे प्रस्तुत करेंगे, दुनिया को वही दिखायी देगा। दूसरे स्तर पर, कहा जा सकता है कि प्रबंधन की शिक्षा नीति के तहत भ्रष्टाचार की एक नयी विधा को हम ईजाद कर चुके हैं।

न्यूटन का कथ्य यही है कि भारत कैसे दुनिया के सामने यह प्रस्तुत करता है कि आतंक के साये में लोकतंत्र को बचाने और सथापित करने की दिशा में वह जोखिम उठाकर आदर्श रचने के लिए प्रतिबद्ध है। जबकि, सच यह है कि यह सारा खेल भारत की राजनीति रचती है और जिसे चाहती है, उसे खलनायक घोषित कर देती है।

न्यूटन के कथ्य का दूसरा पहलू यह है कि इस देश का मीडिया अप्रासंगिक हो चुका है। ‘जाने भी दो यारो’ के बाद ‘पीपली लाइव’ से हम इस स्थिति पर प्रहार देख रहे हैं। न्यूटन साबित करती है कि मीडिया इतना पंगु है कि उसे भी सच से कोई सरोकार नहीं है और वह सत्ता द्वारा प्रोजेक्ट किये जा रहे हालात को ही सच की तस्वीर बताने के लिए बाध्य है क्योंकि भ्रष्टाचार का एक बड़ा हिससा उसकी झोली में भी जा रहा है। लोकतंत्र के आदर्श का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया की आस्था लोकतंत्र में शेष नहीं रह गयी है। इसी का परिणाम है कि अब सिनेमा के कलाकारों को ऐसी फिल्मों का सृजन करने के लिए सजग होना पड़ रहा है जो वास्तव में, मीडिया का काम होना चाहिए था। दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि मीडिया अपने कर्तव्य के प्रति यदि सजग रहा होता तो ऐसी फिल्मों के निर्माण की आवश्यकता नहीं होती।

न्यूटन के कथ्य का तीसरा पहलू है एक और प्रश्न, कि देश में बन चुकीं ऐसी विपरीत स्थितियों में हम और आप क्या कर सकते हैं? फिल्म का नायक ऐसा कोई विज्ञापन नहीं करता कि उसकी ईमानदारी, कर्तव्यपारायणता और नियम पालन करने से वह कोई महानता का परिचय दे रहा है या देश को इसकी ज़रूरत है। फिल्म की कहानी इसी निराशा के साथ समाप्त भी होती है कि एक ईमानदार प्रयास से कोई बदलाव नहीं आता। अतः हम इसे प्रश्न उठाने की चेष्टा कह सकते हैं। किसी परत में फिल्म हालांकि यह संदेश ज़रूर दे जाती है कि व्यक्ति को अपने चरित्र निर्माण के प्रति सजग रहना होगा और अपने स्तर पर लगातार प्रयास करते रहने होंगे।

न्यूटन के कथ्य को एक ओर इस फिल्म के संवाद सार्थक बनाते हैं तो दूसरी ओर, फिल्म का छायांकन इसमें एक विस्तार प्रदान करता है। सिनेमा या लगभग हर कला में शिल्प वास्तव में, कथ्य का ही विस्तार, आयाम अथवा गतिशील लय होता है। न्यूटन का सिने शिल्प उसके कथ्य की गंभीरता या यूं कहें कि कथ्य के मिज़ाज के अनुकूल है। और यही उसकी सार्थकता है। यह ओढ़ा हुआ शिल्प नहीं है या जबरन लादा गया नहीं है। स्वाभाविकता एवं सादगी में ही सौंदर्य की परिभाषा तलाशने के प्रति एक बड़े दर्शक वर्ग को आंदोलित करने वाला कदम कहा जाना चाहिए इसे।

फिल्म का छायांकन इस फिल्म के विन्यास में बेहद महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। एक शॉट है, जिसमें स्कूल के एक क्लासरूम की मैली-कुचैली, उखड़ी हुई हल्के रंग की दीवार है, आयताकार दीवार के बीचों-बीच एक आयताकार ब्लैक बोर्ड है और उस बोर्ड निचले हिस्से पर बीचों-बीच फिल्म के नायक का सिर फोकस होता है। यह शॉट अपने बिम्ब और प्रतीक में बहुत कुछ कहता है। दुनिया की सफेदी मैली पड़ चुकी है, एक काला घेरा बन चुका है और इसमें सोच, समझ सब फंस चुके हैं। यह ब्लैकबोर्ड खाली है जिस पर कुछ लिखा हुआ नहीं है। इस दृश्य को ज़ूम आउट करते हुए फिल्माया गया है जिससे एक व्यक्ति की सत्ता का बौनापन पूरी दुनिया के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। ऐसे और कुछ दृश्य बेहद सार्थक बन पड़े हैं।

फिल्म के कमज़ोर पहलुओं में संगीत को रेखांकित किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि गीत-संगीत की गुंजाइश फिल्म में थी नहीं, लेकिन ऐसा नहीं है। इस संभावना का दमन किया गया है और जितना है, वह और प्रभावी हो सकता था। अभिनय का पक्ष प्रबल है। राजकुमार राव, अंजलि पाटील और पंकज त्रिपाठी की भरपूर प्रशंसा की जानी चाहिए। सहायक कलाकार संभवतः अधिकतर क्षेत्रीय ही हैं और अभिनय के कैनवास पर न्यूटन उन फिल्मों की श्रेणी में है जो अभिनय में नैसर्गिकता की पक्षधर है।

फिल्म का निर्देशन अमित मसूरकर ने कुशलता से किया है। पूरी फिल्म एक तार में सुरों की तरह निबद्ध नज़र आती है। अमित कलात्मकता के मोह से मुक्त दिखायी देते हैं और खुरदरे सच को खुरदरे ढंग से ही परोसने के हामी। वह जब ऐसा कर रहे होते हैं तो उनकी प्रतिरोधी चेतना हावी नहीं होती और अनावश्यक खुदरापन भी फिल्म में आने से बच जाता है, जो गौर करने लायक बिंदु है। इस फिल्म को लेकर एक बहस यह भी है कि यह एक ईरानी फिल्म से प्रेरित है लेकिन चूंकि उस ईरानी फिल्म के निर्देशक खुद इस बात का खंडन करते हुए कह चुके हैं कि न्यूटन एक अलग और सार्थक फिल्म है, तो मान लिया जाना चाहिए कि इस बहस में पड़ने का औचित्य नहीं है। अंततः न्यूटन ज़रूरी सिनेमा की श्रेणी की फिल्म है। यह कहना आवश्यक है कि न्यूटन का सृजन हमारे समय की घटना भले ही न हो, लेकिन यह बरसों रहने वाली एक याद ज़रूर है।


- भवेश दिलशाद



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