आज कवितायेँ छंद से मुक्त होकर एक अनंत आकाश में फेली हुई है |मुक्त छंद कविताओं की खूबसूरती उनके कथ्य में प्रयुक्त बिम्ब और भाषा का शिल्प होता है |अपर्णा अनेकवर्णा की कवितायें मौलिक बिम्बों से सजी ,सहजता से पाठक मन में सम्प्रेषित होती है |अनेक रंगों से रंगी कवितायें प्रस्तुत है रचना प्रवेश पर ,जिन्हें साहित्य की बात वाट्सअप समूह में प्रस्तुत किया है सुरेन सिंह ने |पाठको की त्वरित प्रतिक्रियाएं भी सलग्न है
नाम: अपर्णा श्रीवास्तव भगत
कविनाम: अनेकवर्णा
पिता: डॉ अशोक कुमार श्रीवास्तव
माता: श्रीमती चित्रा श्रीवास्तव
पति: श्री नीलेश भगत
पुत्री: रेवा भगत
जन्मस्थान: पटना
गृहनगर: गोरखपुर
शिक्षा: अंग्रेज़ी साहित्य में एम ए
निवास: नई दिल्ली
विशेष: पाँच वर्षों तक इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मिडिया में कार्यरत रही।
लेखन: चार वर्षों से कविताएं और एक कहानी लिखी है। कुछ विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लागों में प्रकाशित हुई हैं। कविता कोश में कविताएं हैं।
*अपर्णा अनेकवर्णा* की कविताएं ।
कविताओं का स्वर मद्धम सा है और पाठकीय पुनर्पाठ में यह स्वर आसानी से आत्मसात होने वाला है । कवि अपनी कविताओं को पिरोता है यहाँ आत्मीय धागे से और पाठक भी उस आत्मीयता को महसूस करता है । पाठक से मानसिक जिम्नास्ट कराने की कवि की मंशा नही लगती जैसा की आधुनिक कई कवियों की कविताओं में प्रतीत होती है । हाँ ,पाठक को इन कविताओं तक आना जरूर होगा ।
कवि अपने कहन को काव्य में ढालने के लिए जिन बिम्बो का उपयोग करता है वह सब आसपास के तो दृष्टिगत होते है परंतु अपने निहितार्थों में गझिन है । इस गहनता तक ही पाठक को आना होगा कविताओं को खोलने के क्रम में ।
कवि अपनी कविताई में नए आयामो को पुरानो के साथ लगातार संश्लेषण की प्रक्रिया में संलग्न प्रतीत होता है इसलिए काव्य में अभी विश्लेषणात्मक तत्व नही आया है । यह एक कमी जैसा नही बल्कि क्रमिक या उत्तरोत्तर विकास को दर्शाते हुए काव्य में कुछ ऐसा स्थान पा जाने की छटपटाहट को इंगित करता है जहाँ से वह देख सके चीज़ों को इतनी दूर से कि स्पष्टता और आत्मीयता के साथ साथ एक अभीष्ट दूरी भी अनुरक्षित हो सके ।
इसके अतिरिक्त काव्य के संरचनात्मक स्तर पर कवि अपने कौशल से ,शैली से ,बिंम्ब विधान से के साथ साथ अपने एनरिच एस्थेटिक सेन्स से पाठक को आकृष्ट करने में कामयाब प्रतीत होता है ।
-- सुरेन
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मैंने तुम्हें आज भी उस रसिक भीड़ में बहुत ढूंढा
कितने ही तो थे वहाँ
मुहावरे जैसा ही 'खचाखच' भरा था सभागार
पर तुम कहाँ थीं
तुम एक बार फ़िर कहीं नहीं थीं
चैता उत्सव में
संग साजिंदे, जगाती बंदिशें
गाती थीं गायत्री देवी, पद्मश्री!
एक श्वेत आभा मंडल 'जगमग'
सुर-स्वर की धूप-छांह
मैं डूबता आनंद भाव में ज्यों
चौंक उपरा जाता त्यों
कहाँ थीं तुम
तुम आज फ़िर वहाँ नहीं थीं
बोली भी तुम्हारी थी
ठिठोली भी तो तुम्हारी ही थी
राग बसंत का कंपन था
और थी कहरवा की थपकियाँ
शब्द भाव बिंब तुम्हारी बातों से ही छन आए थे
समूचा पूरब आ बसा था उस बीच वहाँ
बस तुम हो
कि वहाँ थीं ही नहीं
राजधानी के सरज़मीं पर
तनते हैं चंदोबे
सितार, हारमोनियम, सारंगी, तबला साधते हैं तान
गायक कर ऋतु-स्वागत गान
बींध देते हैं मन प्रान
मैं बींधा हुआ सहसा
सम्मोहन के चिटकने के स्वर
समेटता हूँ
भरी सभा में उचट जाता हूँ
सोचता हूँ तुम गूंथ रही होगी मन
बेल रही होगी स्वप्न
सेंक रही होगी जीवन
और हौले हौले गुनगुना रही होगी
'एही ठंइयां झुलनी हेरानी हो रामा.. कहवां मैं ढूंढूं?'
मैं चाहता था
मैं चाहता हूँ
रेशमो-अतलसो-कमख़ाब में लिपटी
जूड़े में मोतिए का घना गजरा बाँधे
कलाईयों में इत्र की नफ़ीस लहक संभाले
तुम बस एक शाम आ जाओ
इस जश्ने मौसम में
भूल जाओ संसार की सारी अनबनी रोटियाँ
ढुलका आओ मसाले सालन सब्ज़ियाँ
सुर-स्वर-ताल की थाम सारी वल्गाएं
कर लो वो सारी यात्राएं जिन्हें तुमने अब तक सिर्फ़ स्थगित ही किया है
और मैं जब भी तुम्हें ढूंढू
उसी सभागार के एक कोने में गुम पाऊँ
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आलता लाल एक जोड़ी घिसे पाँव
निकल पड़े हैं आदिम दिशा को
कर आई विदा जिन्हें बस कल ही
वो पलटे नहीं न ठिठके
न ही बदली दिशा अपनी
पुकारता रहा आकाश
बरसता रहा जल
खूब धधकी अग्नि
चंदन पहने डोलती रही पवन
धरती ने फिर किया वहन
एक और वियोग का भार
अपने आदिम धैर्य से
संकोच ने रुंधन को जड़ दिया था ग्रंथियों में ही
दुबकी रही वह
महानगर की थमी विथिकाओं से उभरी संवेदना
जुटी और फिर वहीं लौट गईं
असहाय सी एक दूसरे से आँखें चुराए
लौटती मेरी देह से झूलता रहा
चिरायंध
चटकता रहा कानों में बंधनों का खुलते जाना
मन में बिखरा रहा कुछ देर शमशान-वैराग्य
फिर कपूर सा उड़ गया
बस एक चिन्ह से स्मृति में रुके हुए हैं
आलता से लाल एक जोड़ी घिसे पाँव
*उमस*
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फ़्रीडा की चिर रोगशय्या और फीतों वाली कसी पोशाक के बीच कहीं से
उसके पकते-सूखते घावों और आइने से चित्रों के रास्ते
वर्षावनों के किसी प्रौढ़ बारहसिंगे सी
ठिठक ठिठक कर बढ़ती आती है उमस
मीज़ो बांसवनों के उष्णकटिबंधीयता में उभरती
बज उठती है रह-रहकर झींगुर की तमाम पीढ़ीयों में
उनके गुणसूत्रों में पिरोई कड़ियाँ बनकर
हुगली-जल पर बहती, डूबती, उतराती
उमड़ आती है घाट की सीढ़ियों पर
कालीपद के जवा पुष्प सरका कर, तनिक सुस्ताती है
दर्शन को आई नववधु का सिंदूर
पसीजकर नाक की नोक तक जा बहता है
सबसे लाल जवापुष्प वही है
भाप के नख से कुरेदती है
लाल माटी, संथाल वनान्तर की
पुचकार पुकारती है बीज में सोए शिशु वनों को
हंड़िया, महुआ, सघा-साकवा, बांसुरी, मांदर के तिलिस्म के बीच
हुलसती है ममत्व से, छलक जाती है
हमने भी तो बालों में, सीने पर और कान के पीछे
पहन लिया है उसे गहनों की तरह
उमस हमारी साधी हुई दूरीयों में रेंगती है
व्यक्त होने की कगार से लौट-लौट
सर पटक कर केश बिखराए
हारी-थकी, बीच में आ पसरती है
*श्रद्धांजलि में दो मिनट का मौन*
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जो मारता है, वो कौन है
जो मारे गए, वो कौन थे
जो बचा न सके, वो कौन रहे
जो सियासत करेंगे, वो कौन हैं
और आज के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक
जो प्रतिक्रियाएँ दे रहे, वो कौन हैं
इन सबसे हटकर वो कौन हैं जो मौन हैं
इन बिंदुओं पर सोचने की जगह हम सिर्फ़ नाराज़ हैं
ये फ़लसफ़ा नहीं क्रूर सच्चाई है
कितना आक्रोश भरा है कि हम वही करते हैं हर बार
एक प्रतिनिधि युद्ध लड़ते हैं
अपनी रोज़मर्रा के निजी पराजयों के विरुद्ध मात्र
बस जीतने भर की तृप्ति के लिए
अपनी जेबों से लेबल निकाल
हर दूसरे का माथा खोजते हैं
बहस/संवाद सुने बिना होते हैं
इस सार्वजनिक मंच पर जहाँ हम उतने ही निजी स्पेस में भी हैं
अपने अपने क्रोध से लैस
हम सिर्फ़ कहने बैठते हैं
ये भी आतंकवाद ही है
अरे साहब! या तो अपने स्तर वालों से भिड़ें
नहीं तो सामने वाले की समझ देख कर ही कुछ कहें
अपनी अपनी कहकर अपने अपने अहं को सहलाने वाले
हम सबके सब भी आतंकवादी हैं
और ये कोई कविता नहीं है
➖ *अपर्णा अनेकवर्णा*
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अपर्णा जी अपनी कविताओं में अपने अंदर की झुरझुरी को या यूँ कहें अपनी सोच को बृहद कैनवास में परिवर्तित करने की फिराक में
नये प्रयोगों से अवतरित होना चाहती हैं,और इसके लिए प्रयासरत रहती हैं.
कविताई के फार्मेट या समकालीन कविताओं की होड़ से अलग हट कर कुछ नया करना चाहती है, यही कारण है कि इनकी कविताओं की भाषा, बिंम्ब और प्रतीक गहन अर्थों से लिपटे हुए होते हैं. यही कारण है कि अपर्णा जी की कविताओं को पढ़ते समय बिलकुल अलग और गहरी सोच साधना पड़ता है.
आज जब कविता मन के भीतर उपजे भाव को व्यक्त करने का सहज,सरल और आम साधन हो गयी है तो कविता के भीतर कविता रचा जाना सार्थक लगता है,
अपर्णा जी की कविताएं कविता के भीतर की कविताएं है. इन्हें पूरे मनोयोग से पढ़ने के बाद ही समझ जा सकता है. मानता हूं इनकी कविताओं में गूढ़ अर्थों का समावेश हित है पर इन्हीं गूढ़ अर्थों में जीवन मूल्य का सार होता है.
आज की कविताएं इसका प्रमाण हैं.
ज्योति खरे ==============================
अपर्णा दी की कविताएं पाठक से बेहद अनुशासनात्मक पाठ की माँग करती है।
ये वो कविताएँ नहीं जो मन बहलाने के लिए पढी जाएँ, ये पहली पंक्ति में ही पाठक को आगाह करती दिखती हैं कि इन कविताओं को पढ़ने आप तभी आयें जब आप एक जहीन बुद्धिजीविता को ग्राह्य करें और यदि न कर सकें तो कम से कम उसे समझने या उस तक पहुँचने का प्रभामंडल साथ लिए हो..
पहली कविता में अंत तक एक omnipresent voidness नजर आती है..
कविता का नरेटर उसी खालीपन को भरने की कवायद में लगा नजर आता है जो वह अंतत: शून्यता में ही रखना पसंद करता है..
इस रिक्तता को भरने की यात्रा में वो प्राप्य से अधिक यात्रा का होकर रह जाता है..
दूसरी कविता में एक गहरी वेदना है वियोग की जो अपूर्णीय है.. किसी युवा स्त्री के दाहसंस्कार का ये दृश्य मन को अंदर तक व्यथित कर जाता है.. दृश्य की संवदेनाशीलता ही अत्यधिक है, उस पर इतनी मार्मिक पंक्तियाँ, बेजोड़ प्रभाव दिखाती हैं:
*लौटती मेरी देह से झूलता रहा*
*चिरायंध*
*चटकता रहा कानों में बंधनों का *खुलते जाना*
*मन में बिखरा रहा कुछ देर* *शमशान वैराग्य*
*फिर कपूर सा उड़ गया..*
तीसरी कविता बिम्ब प्रधान है और ये बिम्ब फ्रीडा के बनाये चित्रों के जान पड़ते है..
कवियत्री कला प्रेमिका है और उनकी कला के प्रति गहरी समझ इस बात से परिलक्षित होती है कि एक कला को (चित्र) दूसरी कला(कविता) में इतनी खूबसूरती से अभिव्यक्त करती हैं.
चौथी कविता का फलक बेहद ही विस्तृत है.. पाठक को दो क्षण रूकने और अपनी बात पर मंथन करने को विवश करती कविता है..
चाहकर भी कोई विवेकशील पाठक इस कविता को बगैर सुने आगे नहीं बढ़ सकता, सहमति असहमति अलग मसला है किन्तु इसका स्वर अवश्य पहुँचता है..
जैसा कि ये कविता स्वयं कहती है,
*और ये कविता नहीं है*
यकीनन ये क्रूर सच्चाई है..
अपर्णा जी भावनाओं की कवि है, सार्वभौमिकता की कवि हैं और बन्धनों से मुक्त एक विशिष्ट कवि है..
कोमल सोमरवाल
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कविता के अंदर कविता है । वहां तक पहुंचना होता है ।
अपर्णा की कविताएं अपने पास बैठाकर सहजता से अपनी बात कहती है ।पाठक को उनके पास जाने की थोड़ी मेहनत करनी होगी ।
ये कवितायें धीमे स्वर में अपने दुख बताती है ।न रुदन ,न चीत्कार.... बस हाथ थामती है और ये स्पर्श ही सब कह जाता है ।अनिता ने कहा मिश्री की डली ....सचमुच मिश्री की डली है ....। धीरे धीरे मन मे घुलती है ।
गीता के पाठ की तरह है ।अपने को साथ लेकर महसूस करते हुए रास्ता तय करना होगा ..तब पता चलेगा कि इस घुमाव में अपना बिछुड़ा कोई मिल गया ।
दुख है तो सहने की शक्ति भी है ।
गायत्री देवी ..न होने पर भी हैं ।
स्मृतियां होने और न होने के बीच की कड़ी है ।
आलता लगे पांव ....ये किसी करीबी का ही बिछोह है अपर्णा का .." धरती ने फिर किया वहन
एक और वियोग का भार " मन रो उठता है ...पर श्मशान की सच्चाई कितनी देर ठहर पाती ।
उमस कविता में फ्रीडा का अर्थ समझ नही आया ।ये उपन्यास की नायिका है क्या ..ये संथालियों की कोई देवी ।
अंतिम कविता में बढ़िया तंज है ।
कबीर याद आ गए ....**जिन खोजा तिन पाइयाँ**
ऐसी ही है ये कवितायें ।
मधु सक्सेना
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अपर्णा जी की कविताएँ जब भी पढ़ती हूँ ज़ेहन को खासी मशक़्क़त करनी पड़ती है समझने के लिए लेकिन कविताओं में छुपे गूढ़ रहस्यों तक पहुँच कर बहुत सुकून मिलता है कि कुछ अलग मिला पढ़ने को।उम्दा सोच से उपजी कविताएँ उनकी सख्सियत की परिचायक होती हैं। कविताओं में लिए गए बिम्ब बिलकुल अनोखे होते हैं जैसे ... प्रौढ़ बारहसिंगे सा ठिठक जाना,आलता से लाल एक जोड़ी घिसे पाँव। आज की सभी कविताएँ बेहतरीन हैं ।
गज़ाला तबस्सुम
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अपर्णा दी कि कविताओं पर कुछ कहने से पूर्व आपके लिए दो शब्द कहना चाहूँगी। जितना मैंने जाना है सरलता सादगी और बौद्धिकता अपर्णा दी के कवि हृदय के विशेष गुण रहे हैं। जिनका आस्वाद कई बार चखा है।
आप मेरी चुनिंदा प्रिय कवियों में से एक हैं।
जिस तरह सरल शब्दों में गहन बात आपने रखी है उनसे कवि होने का लक्ष्य साधती हैं। अपनी कविताओं के पैनेपन से पाठक को चिंतन को विवश कर देती हैं।
*मैंने तुम्हें आज भी उस रसिक भीड़ में बहुत ढूंढा*
अलग मिज़ाज की इस कविता में एक स्त्री जो अपने आप में सोलह कलाओं की स्वामिनी होती है। वह कभी किसी और कभी किसी बाधा में उलझी अपनी हर कला को आगे आने वाली हर परिस्थिति में ढालकर निढाल लेती है सगरा जीवन और जीवन के पथ पर अपनी ही गति को रोकते बढ़ाते चलती जाती है। शायद कभी किसी कला में से कोई नाद उभरे और जिन्दा कर दे वो रंग जो खो गए हैं कहीं ज़िन्दगी जीते जाने की जद्दोजहद में।
कविताएं बगैर लाउड हुए अपनी बात कहने में सक्षम हैं।
शिखा तिवारी
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मन/कल्पनाओं/सुनहरी स्वप्नों की किताब खोलती पहली कविता!! विशिष्ट अवसरों पर मन व स्मृतियों के आँगन में किसी की कमी से अनायास उभरे मनोभावों का बेहतरीन चित्रण!!!
अंतिम कविता में "और ये कोई कविता नहीं है" पंक्ति के अभिनव समावेश के विषय में कुछ भी कहना नाकाफी ही होगा। या कहिये कि कविता में निम्नलिखित पंक्ति और बढ़ाने की गुंजाइश पैदा करने जैसा होगा कि -
"अगरचे कोई तुम्हे धिक्कारे भी तुम्हारी इस नपुसंकता के लिए
तुम बस उसे एक कविता ही समझोगें
और वाह-वाह करने की रश्म अदायगी से
ढाँपने का प्रयत्न करोगे
अपनी कापुरुता को
भारत सिंह यादव
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अपर्णा जी की कविताएं अलग कहन की हैं। पाठक शब्द दर शब्द गहन वन में बारहसिंगा जैसा ठहरता है ।सूंघता मैं शब्द/बिम्ब के अर्थ।पहली कविता में व्याप्त व्यापक सूनापन बहुत स्पष्ट उभरा है।
शेष कविताएं समय मांगती पुनर्पाठ का।
श्रद्दांजलि में दो मिनट का मौन आक्रोश व्यक्त तंज की अच्छी अभिव्यक्ति।
राजेन्द्र श्रीवास्तव
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अपर्णा की सबसे गज्जब बात है कि वो एक कठिन कवि है पर हमसबके लिए बेहद सहज सरल है। उसके कैनवस का विस्तार इतना बड़ा है कि हर बार चमत्कृत होता रहा हूँ। कभी पता नहीं कौन कौन से विदेशी कवियों के पंक्तियों पर कविता लिखेगी तो कभी अम्मा चौखट अंगना और खोइन्चा की बात कर गोरखपुर की ललाइन बन जाएगी . अपर्णा जन्म से कवि है और हमारे लिए प्रौढ़ शिक्षा वाली टीचर जैसी है।
मुकेश कुमार सिन्हा
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1 - *तुम कहां थी..?*
पहली कविता का कोई शीर्षक नही दिखाई दिया ,तो मैंने सोचा ,'छोटी-छोटी बातें पूंछने से अच्छा ,खुदी ही दे दो' ...
ऐसा लगता है कि अपर्णा जी को शास्त्रीय संगीत में भी गहन रुचि है, कविता जाहिर कर रही है ...आप से कविता का प्लाट ढूंढने में आईडिया मिला ...अब हम भी उन पर कविता लिख सकते हैं , जिसमें हम भी अच्छे जानकार हैं जैसे क्रिकेट,फुटबॉल, शतरंज आदि आदि ,धन्यवाद अपर्णा जी ।
2 - *वैराग्य ..* दूसरी कविता ,यह गंभीर किस्म की लगी और पढ़ते पढ़ते मन द्रवित हो गया ...कुछ ख्याल में भी आ गया...
3- *उमस* - यह और भी गूढ़ कविता लिखी आपने।पहले तो हम समझे ,फ्रीडा -स्लम डॉग वाली होगी ..फिर मालूम हुआ कि परदेशी है ...
सके बार तो लगा कि यह कविता KBC के 15 -16 प्रश्न जैसी है ...अब हम भी ऐसे ही कुछ फॉरेन का पढ़ेंगे और कविता लिखेंगे डराने के लिए ...
4 - *श्रद्धांजलि में दो मिनट का मौन* - यह कविता अपनी टाइप की लगी ...किसीं को नही छोड़ना का है ...अब इसमें सब कुछ इजी था तो शीर्षक की गुगली डाल दी आपने ...
खैर आपकी कविताओं में लिखना ,निहायती जरूरी था ,आप उन दुर्लभ जन में से हैं ,जो हमारी कविता में ,बिना नागा लिखती हैं ...
कविताएं सहज तो नही हैं समझने के लिए ...लेकिन बहुत कुछ सीखा जा सकता है ...
पटल में आपकी कविताएं फुल मेकअप में (कविता के सौंदर्य शास्त्र को पूर्ण करती हुईं , बिम्ब-उपमानों से युक्त) शोभायमान रहीं ...
अजय श्रीवास्तव
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अपर्णा जी की कविताएँ अक्सर ही पढ़ता रहता हूँ। एक तरह से मुरीद हूँ उनकी कविताओं का। किसी नए लेखक को कविता सीखनी हो तो मुझे नहीं लगता अपर्णा जी से बेहतर कोई गुरु हो सकता है।
विदेशी लेखकों की कविताएँ जब हिंदी में अनुवाद होकर आती हैं तो जरूर उनमें कुछ बात होती होगी। अपर्णा जी उसी अनुवाद वाले लेखकों श्रेणी में आती हैं। एक random खयाल आया भी था कि उनकी कविताओं का अनुवाद हो और वे एक विस्तृत मंच तक पहुँचें।
प्रयोगधर्मिता उनकी सबसे बङी पहचान है। इधर उधर बिंब तलाशने वाली, दिनचर्या की आम सी बातों में दर्शन की तलाश और एक परिपक्व लेखक लेखक के मँझे हुए शब्द बेहद प्रभावित करते हैं
अबीर आनन्द
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अपर्णा अनेकवर्णा जी आपके खूबसूरत नाम और व्यक्तित्व की तरह ही ...कुछ अलग सा चयन है आपकी हर कविता की पृष्ठभूमि का ...नये -नये प्रयोग ,अलग-अलग बिम्बों कीजगमगाहट साथ ही भावों की गहराई में और अधिक गहरे का उभर आनाऔर फिर पाठक को कुछ नायाब सा अनुभव दे जाना ये आपकी रचनाओं की बड़ी अलग सी अदा है ।पाठक के सतत चिन्तन को गतितिशीलता देती है ये रचनाएँ....पाठक के मन की कौतूहलता को कहीं असीम में विलय करते हुए अनवरत चाल से लक्ष्य तक पहुँचा कर एक नायाब अहसास हाथ दे जाती है जो बड़ा ही अनोखा है ...पहली दो रचनाओं पर फ़िदा है ये दिल ...बहुत खूब !
ज्योत्सना प्रदीप
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अपर्णाजी की सारी कविताएं उदात्त भाव की कविताएं हैं। फिर वहाँ प्रेम हो, विदग्धता की स्थिति में फिर सम्भलने की कोशिश में लगी स्त्री या आदिवासी समुदाय की स्त्रियों की संवेदनाओं के साथ जुडते हुए देख पाना अदभुत है। अपर्णाजी की सम्वेदनाओं का कायल हूँ ही उसे प्रणाम भी करता हूँ।
सुधीर देशपाण्डे
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अपर्णा जी की कविताओं को पढ़ना खुद को समृद्ध करना है। देर तक साथ रहने वाली कविताएँ उनकी। मराठी की शैली में बोलना अच्छा लगेगा मुझे, 'अंतर्मुख करने वाली कविताएँ हैं।
दीप्ति कुशवाह
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कविताओं को यदि रंगों की भाषा में खोलना हो तो मैं कहूंगा चटक रंगों से बनी कविताएँ हैं। ताप की कविताएँ हैं अतः दूर से ही उष्णता का बोध करा देती है। कविता अपने सामर्थ्य पर खड़ी है और मज़बूती से खड़ी है अतः ये बरबस आकर्षित करने वाली कविताएँ हैं।
खचाखच भरा होने के मुहावरे का प्रयोग, साजिंदे, बंदिश, से लेकर उसी सभागार के एक कोने में गुम हो जाना मुखर बिंब हैं।
लाल अलता, अग्नि का धधकना से लेकर एक चिह्न का स्मृति में रुक/बस जाना मुखर बिंब हैं।
रोगशैया से लेकर हर-थक कर बीच में पसर जाना मुखर बिंब हैं।
श्रद्धांजलि में दो मिनट का मौन बहुत लाउड बिंब है।
कहने का गरज़ यह है कि कविताओं की इन्टेन्सिटी तीब्र है। ये कविताएँ कहती ही नहीं, अपनी बात चीख चीख कर कहती हैं।
हर कविता जिस नोट पर समाप्त हो रही हैं उस नोट को पकड़ने की ज़रूरत है। "उसी सभागार के एक कोने में गुम हो जाऊं" , "आलता से लाल एक जोड़ी घिसे पाँव" , "हारी-थकी, बीच में आ पसरती है" एवं "ये कोई कविता नहीं है" आदि केवल पंक्तियाँ मात्र नहीं हैं बल्कि हर पंक्ति बिंबों का विस्तार है।
बिंबों का क्रमिक विस्तार पोस्टमोडरनिज्म की कविताओं में खूब है और मैं व्यक्तिगत स्तर पर इसे बहुत पसंद करता हूँ, प्रयास करता हूँ कि अपनी कविताओं में भी यह चमत्कार कर पाऊं लेकिन इसके लिए कुब्बत आती सतत अभ्यास से है। मुझ जैसे काहिल के लिए यह संभव कहाँ है!? यह कलाकारी आपकी कविताओं में देख कर आनंदित होता हूँ। मुझे भी सिखाएँ दी प्लीज़।
प्रश्न है कि एक पंक्ति में कई बिंब कैसे हो सकते हैं तो तीसरी कविता की अंतिम पंक्ति देखें, (1.हारी-थकी, 2.बीच में आ पसरती है।) यहाँ प्रयोग भी है बिंबों में, अमूमन हम थकी-हारी पदबन्ध का प्रयोग करते हैं; यहाँ वाईस-वर्सा है।
प्रत्येक कविता की अंतिम की पंक्ति/पंक्तियाँ देखने में तो अंडरटोन लग रही हैं पर दरअसल है /हैं नहीं। ये पंक्तियाँ चीखती हुई पंक्तियाँ हैं और यह ऐसे ही नहीं कह रहा, स्त्री मन की सघनतम पंक्तियों की तीब्रता नापने की कोई यंत्र हो तो नाम लें।
स्त्रिमन से लिखी कविताएँ यदि एक बड़े मास को अपील कर रही हो या टारगेट कर रही हो तो उसका मूल स्वर तीसरे सप्तक में जाएगा। पुरुष मन को बहुत साधने पर ये चीज़ अनुभव में आएगी। पवन कारण की कविताओं में वह स्वर है लेकिन कविताओं का ताप अलग है। कुछ और पुरूष साथियों की कविताएँ हैं इस इंटेंसिटी की पर उनका टेस्ट अलग है।
सौरभ शांडिल्य
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