Wednesday, January 5, 2022

  

विवेक त्रिपाठी उर्फ 'मानस ' रचित कहानी संग्रह "बाल्कनी" 




बालकनी कहानी संग्रह छोटी बड़ी 21 कहानियों का गुलदस्ता है,जो अपनी पूरी गमक के साथ आपके मन मे उतर कर मस्तिष्क को हरियल धूप की गर्माहट देगा ।जीवन में भोगे हुए  यथार्थ संवेदनाओ की नमी है इन कहानियों में जिसे पाकर मन के सुख दुख अंकुरित होकर अपनी ही जमीन में सुराख कर के बाहर झाखने लग जाते है ।अपने समय मे कृतिम हो चले आपसी व्यवहार का पंचनामा भी इनमें देखने को मिलेगा।कुछ असहमतियां भी है जो ठहर कर सोचने को विवश करती है ।

प्रेम की हल्की फुहार है जो बाल्कनी में बरस कर सोंधी महक से सुदर्शन को महका देती है और दरवाजे से भीतर आकर कहती है  कि कुछ सच्चाइयां खूबसूरत होती है ,उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए


रचना प्रवेश ब्लॉग पर इसी संग्रह की एक कहानी प्रस्तुत है 


कहानी

गिद्ध




सुपर्ण सुकुमार लखनऊ के बाज़ार में तेज़ी से साइबर कैफ़े की तरफ़ बढ़ रहा था। वहाँ भीड़ लगी थी। हर मॉनिटर के सामने तीन-तीन, चार-चार सिर घुसाए लड़के बैठे थे और कुछ उनको घेरे खड़े थे। SSC का रिज़ल्ट गया था। सुकुमार को क़रीब बीस मिनट बाद रिज़ल्ट देखने का मौक़ा मिला। धड़कनें इतनी तेज़ थी कि  इतनी भीड़ के शोर में भी वह उनकी आवाज़ सुन ले रहा था। रोल नम्बर डालते हुए हाथ काँप रहे थे। एक सेकंड रुका, भगवान का नाम लिया और इंटर का बटन दबा दिया

-bahutCongratulations!



अब पैर कांप रहे थे ख़ुशी से! सपना सच हो गया! मेहनत रंग ले आयी!

लेकिन माँ-पापा के जाने के बाद कोई है भी नहीं जिससे वह ख़ुशी साझा करे। पढ़ाई के चक्कर में ज़्यादा  दोस्त भी नहीं बने। बस एक आचार्य जी है, जिन्होंने सुकुमार की पढ़ाई-लिखाई का ख़र्च उठाया और समय-समय पर अपने अनुभव से मार्गदर्शन भी करते रहे है।

सुकुमार ने आचार्य जी को फोन लगाया,

"आचार्य जी प्रणाम!"

"सुकुमार! कैसा रहा परिणाम? लेकिन बेटा परिणाम जैसा भी हो, ये मनुष्य का सामर्थ्य नहीं आँकते।"

"जी! हो गया, ऑडिट मिलेगा।"

"अरे वाह! कितना बड़ा बोझ मन से उतर गया होगा तुम्हारे! बहुत आशीर्वाद बेटा। आगे जीवन में भी ऐसे ही लड़ते जाना है। जो भी तुम्हारी कामना होगी, वह तुम्हें ज़रूर प्राप्त होगा।" आचार्य जी के दिल से निकली ये बात ज़ुबान तक आते-आते लड़खड़ा गयी थी।

"जी आचार्य जी!"

"अच्छा बेटा, पता नहीं ये समय ठीक रहेगा या नहीं, लेकिन एक प्रश्न मन में है?"

"जी आचार्य जी, आप आदेश करिए। इस जन्म में तो आपको कुछ कहने के लिए संकोच करना पड़े ये तो मेरी ही भूल होगी"

"बेटा, कैसे कहूँ," फिर कुछ रुक कर, "देखो बेटा, विनीता अच्छी लड़की है। बाक़ी तुम्हारी इच्छा!"

विनीता गाँव के मास्टर जी की लड़की है। सुकुमार को पता नहीं कि आचार्य जी ने विनीता के लिए क्यों कहा। लेकिन उनका ऋण चुकता करने का समय गया है।

"जी आपने कह दिया, अब कोई और बात नही।"

"मुझे गर्व है तुम पर!"



सुकुमार ऐसा महसूस कर रहा था जैसे उसका सर हवा में लहरा रहा हो। बिलकुल हल्का। सड़क पर जाने वाले हर इंसान से अपनापन लगने लगा। अब कोई उससे किसी भी प्रकार से सवाल नहीं पूछेगा। अब वह जो चाहे करेगा। इतने सालों में उसने तपस्या ही की है। ना कोई फ़िल्म देखी, ना बीयर पी, ना दोस्तों के साथ नाइट आउट, ना कोई लड़की का चक्कर, सादा खाना और पढ़ना। बस एक ही लत-SSC में सिलेक्शन और देश के लिए कुछ करना। सिस्टम को सुधारना है। अपने भारत को अच्छा बनाना है। तभी तो इतनी मेहनत की है और एक अच्छा इंसान बनना तो आचार्य जी ने सिखाया ही है।



चलते-चलते वह उस समय में चला गया जब वह तैयारी करने यहाँ आया था। एक-एक बात सोचकर वह सिहर उठता। उसके सारे संघर्ष उसके सामने आते गए और उसकी आँखों में आँसू आने लगे।

लगभग 9 महीने बीत गए। इस बीच बहुत कुछ हो गया। सुकुमार और विनीता की शादी हो गयी और सुकुमार ने अहमदाबाद में नौकरी ज्वाइन कर ली।


विनीता से शादी करके वह बहुत ख़ुश था। विनीता समझदार भी थी, पढ़ी लिखी भी और सुंदर भी। सुकुमार भी विनीता को हर तरीके की ख़ुशियाँ देना चाहता था। अच्छा घर, उसमें अच्छे फ़र्नीचर, अक्सर बाहर खाना खाना, ओपन थिएटर में सिनेमा देखना, नए कपड़े ख़रीदना। वह हर चीज़ जिससे वह दूर रहा अपनी ग़रीबी में; वह सारी चीज़ें विनीता के लिए करना चाहता था। दुनिया के लिए एक सुखी दाम्पत्य जीवन का आदर्श रखना चाहता था। विनीता एक अच्छी भागीदार की तरह उसकी खुशियों में शामिल रहती। लेकिन कभी ख़ुद से कुछ नहीं कहती।

ऑफ़िस में भी सभी मिलनसार लोग थे। सभी हँसी मज़ाक़ करते रहते।

ज्वाइन किए हुए एक हफ़्ते हो गए। एक दिन वह जैसे ही ऑफ़िस पहुँचा उसकी टेबल पर एक सफेद पैकेट रखा हुआ था, उसने प्यून को आवाज़ लगायी,



"उमाशंकर जी, एक सेकंड!"

"जी सुकुमार जी!"

"ये क्या है?"

"ये प्रसाद है।"

"कैसा प्रसाद?"

"गुलचंदा बिल्डर्स ने हनुमान जी का पाठ कराया था ये उसका प्रसाद है"

"लेकिन इसके अंदर तो पैसे है"

"अरे सर जी! आप मज़ाक़ भी नहीं समझते! ये आपका हिस्सा है। गुलचंदा बिल्डर्स की तरफ से आया है।"

"लेकिन मैं तो उन्हें जानता भी नहीं?"

"सर यहाँ पर सब सिस्टम के हिसाब से चलता है। आप नए है इसलिए ये स्वागत राशि है। यहाँ रैंक के हिसाब से सबका हिस्सा बँटा है।"

"अच्छा? ये तो सही है। इतना पैसा वह भी बिना कुछ किए!"

"अब बस ऐसा ही है सर!"

"ऐसे कितने पैकेट जाते है महीने में?"

"अब सर आप ख़ुद ही गिन लीजिएगा"


सुकुमार पैकेट के अंदर देखता है, लगभग दस हज़ार रुपए। उसने तो अभी तक सारा हिसाब वेतन के अनुसार ही किया था। इसलिए शीशम वाला सोफा कैंसिल करके बोर्ड का ऑर्डर कर दिया था। उसने तुरंत फर्नीचर वाले को फोन लगाया और शीशम का सोफा ही भेजने को बोल दिया।

शाम को ऑफिस से निकला। शुक्ला जी, साथी कर्मचारी भी निकलने लगे। उन्होंने साथ चलने का ऑफर दिया,

"आओ सुकुमार, छोड़ देता हूँ।"


"थैंक यू सर"


वो खड़े होकर इंतज़ार करने लगा, शुक्ला जी अपनी कार निकालने लगे। तभी ऐसा लगा जैसे कोई बड़ा-सा बादल का टुकड़ा सुकुमार के सर से टकरा जाएगा। वह एक दम से झुका, धड़कने डर के मारे तेज़ हो गयी। उसने पीछे मुड़ के देखा तो एक बड़ा-सा गिद्ध पंख फैलाए उड़ा जा रहा था।


"अरे क्या हुआ?" शुक्ला जी कार लेकर गए।

"कुछ नही!"

"आओ बैठो।"


सुकुमार बैठ गया। शुक्ला जी को जैसे पता था।


"अरे साले! बहुते गिद्ध है यहाँ। कभी ऑफ़िसवा के छत पर जाओ। हग के बरबाद कर दिए है सब।"

"शहर के बीचों बीच इतने गिद्ध कहाँ से?"

"पता नहीं कहाँ से है सब साले? कहते है यहाँ पहले कब्रिस्तान था। तभी आयें होंगे। अब फिर अपना प्लॉट छोड़ कर कौन जाता है इस जमाने में?"

दोनो हँसने लगे। 


"कैसा चल रहा है? मज़ा रहा है?"

"हाँ सर! अभी तक तो सही है। बॉस भी सही है।"

"अरे वह भी गिद्ध ही है लेकिन तुम अपना परसेप्शन बनाओ उनको लेकर। मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे कहे अनुसार एक धारणा बना लो उसकी।"

"अरे नहीं सर! ऐसा नहीं है। अभी तो नया ही हूँ।"

"और नहीं तो क्या! अभी एंजॉय करो। तुमने शादी बड़ी जल्दी कर ली। मैंने तो नौकरी लगने के चार साल तक शादी नहीं की। अकेला रहता था। ऐश करता था। अरे बहुत मज़े किए मैंने। लेकिन कोई बात नहीं! ऐसा नहीं है कि पत्नी के साथ एंजॉय नहीं कर सकते लेकिन यार अब बच्चा जल्दी से मत कर लेना।"

सुकुमार नक़ली हँसी हँसते हुए बोला, "नहीं..नहीं सर! अभी तो कोई प्लान नहीं है"

"हाँ। अब एक कार ले लो। एक काम करो, विष्णु मोटर्स के यहाँ चले जाना, बोलना शुक्ला जी ने भेजा है ऑडिट वाले। कोई भी कार पसंद कर लेना। बिना डाउन पेमेंट के ले आना। पैसे किश्त में देते रहना। खर्च ही कितना होगा दो मुर्गी का?"


हाँ सर सोचा तो है हमने लेने का।


"सोचो मत! इसमें सोचना क्या है?"


सुकुमार ने कई बार सोचा कि पैकेट के बारे में उनसे बात करे, लेकिन जाने क्या सोच कर वह बात नहीं कर पाया।

घर गया।

घर के अंदर आते ही विनीता ने पानी पिलाया। सोफा पैक्ड रखा था।

"मैंने कहा था ग्राउंड फ्लोर पर घर देखो। सोफा चढ़ाते कैसी हालत हो गयी थी बेचारों की!" विनीता ने उलाहना दी।


"अरे!सी टाइप में यही ख़ाली था। मैंने बोल रखा है। तुमने देखा नहीं सोया?"

"नहीं! देखना क्या है? शोरूम में तो देखा ही था।"

"अरे वही तो मैडम! शीशम वाला है ये! वह बोर्ड वाला नहीं है।" सुकुमार ने चहक कर कहा, जैसे कि उसकी सारी थकान ग़ायब होने लगी।

"हाँ? सच? लेकिन पैसे?"

"अरे मत पूछो। आज दस हज़ार तो ऐसे ही मिल गए"

"मतलब?"


सुकुमार ने उसको सारी बात बतायी। विनीता ने बड़े सहज भाव से पूछा,


"क्या ये आपको सही लग रहा है?"

"मुझे पता था कि तुम ये पूछोगी। सच कहूँ तो मुझे भी नहीं पता। लेकिन मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे किसी का नुकसान हो। लेकिन अगर फिर भी कहोगी तो इसे मैं लौटा दूँगा।"

"पता नहीं? आप देख लीजिए। मेरे हिसाब से तो लौटा देना चाहिए।"

कुछ सोचकर "लौटाना भी पता नहीं कैसा लगे सबको? सभी लेते है। सबको लगेगा कि हीरो बन रहा है"

"हाँ ये तो है। अभी से ही नज़र में आना ठीक भी नही। तो क्या करेंगे?"

"फिलहाल तो इस सोफे पर आराम करेंगे और आज रात इसी सोफे पर आपके साथ" और ये कहते हुए उसने विनीता को पीछे से अपनी बाहों में ले लिया। "बहुत मिस करता हूँ तुम्हारे बालों की महक को दिन भर।"

"अच्छा, तो एक आर्निका प्लस की शीशी दे दिया करूँगी कल से। मिस करो तो सूंघ लेना" विनीता का चेहरा सुर्ख़ लाल होने लगा था।


"लेकिन उसमें जो तुम्हारी महक का कॉकटेल बनता है उसका क्या करोगी?"

"हट!"

विनीता उठ के चाय बनाने चली गयी।

अब ऑफ़िस आते-जाते वक़्त सुकुमार की नज़र आसमान में रहने लगी। वह सतर्क होने लगा। ऑफिस में पहुंचकर उसने उमाशंकर को बुलाया।

"उमाशंकर जी! यार ये पैसे आप वापस कर देना।"

"क्या हुआ?"

"नहीं बस, आप कह देना कि जैसे ही जरूरत होगी मैं माँग लूँगा।"

"ठीक है सर!"


सुकुमार का मन हल्का हो गया। इतना भी कठिन नहीं था। उमाशंकर तो झट से मान गया। बस बॉस को कोई दिक्कत ना हो।

पूरे दिन सुकुमार इस इंतज़ार में रहा कि बॉस उसको बुला कर इसके बारे में पूछ ना ले! लेकिन किसी ने कुछ भी नहीं पूछा। बस शाम को शुक्ला जी ने पूछा था। उनको टालना कोई बड़ी बात नहीं थी।

एक महीने बीत गए। कई बार पैकेट आए लेकिन सुकुमार ने ये कहकर लौटा दिए की जरूरत होगी तो माँग लूँगा। सोफ़ा के पैसे उसने किश्त पर देने का बोल दिया। लेकिन इस एक महीने में धीरे-धीरे उसका नाम सुकुमार की जगह हरिश्चंद्र हो गया था। अक्सर लोग मज़ाक़ करने लगे थे।


" गए हमारे ऑफ़िस के हरिश्चंद्र!"

"सुकुमार जी सब्जी में नमक लेंगे या दूसरों का नमक खाने में दिक्कत है।"

"सर! आज तक किसी ने पैकेट नहीं लौटाया।"

"भैया हम तो करप्ट लोग है।"

"सुकुमार जी! आप ग़लत जगह गए। नहीं! मज़ाक़ नहीं कर रहे है।"


किसी का मक़सद मज़ाक़ उड़ाना नहीं था। लेकिन लोगों के मुँह से अनायास ही निकल जाता। एक महीना और बीता।

एक दिन बॉस, रमाकांत मित्तल, ने बुलाया।


" हाउज लाइफ़ ट्रिटिंग यू सुकुमार?

"फाइन सर!"

"गुड! हाउ इज योर फ़ैमिली?"

"शी इज फ़ाईन सर!"

"गुड! घुमाते हो कि नहीं उसको? सारा दिन घर पर रहकर ये लोग बोर हो जाते है। यहाँ बहुत-सी जगहें है अहमदाबाद से निकलते ही। यू मस्ट गो। किसी भी वीकेंड पर चले जाओ। आगे पीछे छुट्टी ले लो।"

"श्योर सर! थैंक्यू सर!"


"ख़ैर! मैंने क्यूँ बुलाया था मैं भूल ही गया। हाँ! याद आया। देखो तुम्हारे दो महीने हो गए है आए हुए। अब तुम फ़ील्ड वर्क पर जाना शुरू कर दो।"

"श्योर सर!"

"परसों रहेजा बिल्डर्स के ऑडिट पर जाओ और देखो काम कैसे होता है।"

"ओके सर!"

"ummm ठीक है! यू में गो नाउ"

"राइट सर!"

सुकुमार जाने लगता है। मित्तल जी रोकते है,

 ‘सुकुमार’ 

यस सर


"see not as a boss, ... but as a father figure I want to say something"

"please sir."


"सुना है तुमने एक भी पैकेट नहीं लिए। That's very commendable. नहीं तो आजकल के बच्चे तो आते ही, ख़ैर! तुम्हारा पैकेट रखा है। अगर लेना हो, ले लेना। नहीं लेना हो, मत लेना। Its all your choice and I respect that. लेकिन बेटा एक बात मैं ज़रूर कहना चाहता हूँ। You have to be little flexible. this system and its people are very cruel. तुम जितना ही सख्त होंगे उतना ही ये तोड़ने की कोशिश करेंगे


Don' t be cunning, don' t be clever, be shrewd with the system. Rest you are intelligent!"


"यस सर!"


"ओके! जाओ अब!


And keep your sharp eyes open like an eagle. Especially with cases like Rahejas."

"sure sir"


सुकुमार घर आकर विनीता को सारी बात बताता है। विनीता चुपचाप सुनती है।

रात में सोते-सोते सुकुमार अचानक नींद से उठता है, जैसे उसने कोई भयानक सपना देखा हो विनीता भी उठ जाती है। सुकुमार उसे सपने के बारे में बताता है -"वो ऑफिस से रहा है। शुक्ला जी भी है। मौसम खराब हो रहा है। आंधी आने वाली है जैसे। तभी एक बड़ा-सा गिद्ध आता है और सुकुमार को पंजो में दबाकर ले जाता है। वह आसमान में उड़ रहा है। लेकिन जैसे ही वह आसमान में ऊपर उठता है उसे कोई डर नहीं लग रहा। वह और ऊंचा उड़ता जा रहा है। तभी एक काला बादल आँखो के सामने जाता है और बस! नींद खुल जाती है।"

"ओह सपना ही तो है! शायद ऑफ़िस के वह गिद्ध आपके दिमाग़ में ज़्यादा चलने लगे हैं। सो जाओ। मैं सर दबा देती हूँ।"


"हाँ! कल सुबह  फ़ील्ड में भी जाना है। जल्दी जाऊँगा। शॉपिंग चलेंगे"

(अगली सुबह रहेजा इंटरप्राइजेज की बिल्डिंग)


सुकुमार और एक सहायक, ऑफ़िस में प्रवेश करते है। लोग पहले ही आवभगत के लिए तैयार खड़े है। मिठाइयां, नमकीन, जूस, पूरा टेबल भरा हुआ है।

रहेजा जी तो नहीं है, लेकिन इन-चार्ज वहाँ मौजूद है। वह वहाँ के एक कर्मचारी से सुकुमार को अवगत कराता है कि, "सर ये हैं विद्यासागर जी! आपको जिस चीज़ की ज़रूरत होगी, ये आपको लाकर देंगे। दो घंटे में लंच के लिए चलेंगे, मैं आपको लेने जाऊँगा।"


"ठीक है!"

"और सर! ये हमारी कंपनी की तरफ़ से छोटी-सी भेंट!" एक पैक्ड गिफ्ट सुकुमार को देते है।

"इसकी ज़रूरत नहीं थी, ख़ैर! रख दीजिए।"

वो चले जाते है और सुकुमार फ़ाइल्स चेक करने लगते है। "सर्विस रजिस्टर कहाँ है?"

"सर ये रहा" सुकुमार ध्यान से देखने लगता है।

"ये नर्सरी अलाउंस रविकांत जी को दिया है, इनकी डिटेल्स दीजिए। बर्थ सर्टिफिकेट कहाँ है?"

"सर वह तो नहीं है।"

"नहीं है मतलब!"

"सर वह मिस हो गयी है। हम ढूँढ के आपके ऑफिस भिजवा देंगे"

"ठीक है! यही बात मैं नोटिंग में लिख देता हूँ।"

"सर जाने दीजिए। सिर्फ़ तीन हज़ार रुपए के लिए क्या लिखेंगे वैसे भी उसको 1500 ही मिले।"

"बात पैसे की नहीं है"

"सर गरीब आदमी है"

"आप विक्टिम कार्ड मत खेलिए। मैं इसको रिपोर्ट करूँगा।"

"नहीं कर सकते"

सुकुमार ने ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं की थी। उसने विद्यासागर की तरफ़ देखा। किंतु विद्यासागर का चेहरा पहले की भाँति ही सौम्य था। सुकुमार ने गुस्से से पूछा-"क्या मतलब है आपका?"



"सर आप नहीं कर सकते। आपसे पहले ये ऑडिट हो चुका है। जिसमें सब कुछ ओके है। अब आप कुछ भी करेंगे तो वह आपके ऑफ़िस के खिलाफ जाएगा"


सुकुमार गुस्सा दबा के रह जाता है। उसने बहुत-सी कमियाँ निकाली लेकिन सबका यही जवाब।

सुकुमार को समझ नहीं आया कि आख़िर वह यहाँ कर क्या रहा है?

दो घंटे तक यही चलता रहा। फिर विद्यासागर उसे इन्फ़ोर्म करते है, "सर! लंच का समय हो गया, बॉस आपका बाहर वेट कर रहे है"


"हम्म..! हां..! चलिए"


सुकुमार जाने लगते है तभी विद्यासागर उसे गिफ्ट याद दिलाते है। "सर ये आपका गिफ़्ट"

गिफ़्ट लेकर सुकुमार तेज़ी से वहाँ से निकल जाता है। लंच के लिए भी नहीं जाता। सीधे घर जाता है।

शाम को शॉपिंग से लौटने के बाद दोनों थक गए हैं। तभी उनको ध्यान आता है गिफ्ट का। खोलकर देखते है-एक छोटा-सा संगमरमर का सफेद रंग का गिद्ध। सुकुमार समझ नहीं पाता कि ये गिद्ध उसका पीछा कब छोड़ेंगे।

अगले दिन बॉस के केबिन में-

"सर वहाँ पहले से ही सबकुछ ओके किया हुआ था।"


"सिर्फ़ सर्विस रजिस्टर देखा आपने?"

"यस सर!"

"आपको पता है और कितने रजिस्टर देखने होते है?"

"लेकिन सर,"

"वाट लेकिन?" मित्तल जी ग़ुस्से से खड़े हो जाते है। ,


"I told you keep your eyes open like an eagle. Didn't I?"


"यस सर!"

"काम पर ध्यान दो। सिर्फ़ हरिश्चंद्र बनने से काम नहीं चलने वाला।"

"यस सर!"

"चलिए जाइए"

सुकुमार बहुत शर्मिंदा होता है। उस दिन ऑफिस में उसका मन नहीं लग रहा। वह तबीयत का बहाना बना कर जल्दी घर चला जाता है।


घर पर भी शांति नहीं है। जब मन अशांत तो कहीं भी शांति कहाँ मिलती है? सही-ग़लत, अच्छा-बुरा, ऊँच-नीच, सबका मतलब धूमिल होता जा रहा है। सिस्टम को बदलना था और मैं क्या कर रहा हूँ? मैं कर भी क्या सकता हूँ? क्या मैं कुछ भी नहीं कर सकता? नहीं ऐसा नहीं है! कुछ तो कर सकता हूँ -उधेड़बुन में खोया सुकुमार एक टक उस सफ़ेद गिद्ध को ताक रहा है!

एक दिन ऑफ़िस में शुक्ला जी ख़ुद ही पैकेट लेकर आए। "ले लीजिए, अब व्रत तोड़ दीजिए। देख रहे है ना! क्या हाल है तंत्र का! किसके लिए मर रहे हो यार? बस इतना ध्यान रखना कि किसी का अहित ना हो। सिस्टम की आँख में किरकिरी भी नहीं बनना और जब मौक़ा मिले, लगा दो चौका। खोल दो सबकी पोल साला!"

सुकुमार कुछ नहीं बोला। पैकेट हाथ में लिए खड़ा रहा। शुक्ला जी ने फिर पूछा, "अरे गाड़ी क्यू नहीं ले रहे हो। दस बार तो वह हमको फोन कर चुका है।"


"लेता हूँ सर"

"लो जल्दी! फिर चलते है घूमने"

उस रात सेक्स में कुछ मज़ा नहीं आया। विनीता के पहले ही सुकुमार पराजित हो गए।

 "सॉरी" सुकुमार सीधे लेटते हुए बोले

"कोई बात नहीं! उसमें क्या है"

 "हम्म..!

"क्या सोच रहे है?"

"आज मैंने वह पैकेट ले लिया।"

"तो?"


"पता नहीं! कुछ ग़लत तो किया नहीं है। किसी का अहित नहीं करूँगा"

"अब ले लिए है तो मत सोचिए।"

"सही कह रही हो। मैं ही फालतू में क्यूँ अपना दिमाग ख़राब करूँ। सारी दुनिया तो कुकर्म करके भी मस्त है।"

"और नहीं तो क्या!"

"बस कुछ ग़लत नहीं करना है"

 "हम्म..!

"हाँ..! किसी का नुकसान ना हो बस।"

 "जी!" 

"अब कुछ दिमाग हल्का हुआ। 10 मिनट में फिर से करते है। तब तक रिचार्ज हो जाएँगे हम" सुकुमार ने आँख मारते हुए बोला, "ठीक है ना?"

"हम तो आधे पर ही है, हमको क्या दिक्कत?"


सुकुमार उसके ऊपर जाते है और उसे छोड़ने लगते है।

उस रात गिद्ध फिर से सपने में आता है।

अब गिद्ध सुकुमार को परेशान करने लगे है। वह इन सबसे मेंटली डिस्टर्ब रहने लगा है। ऑफ़िस में सिस्टम को लेकर और बाहर गिद्धों को लेकर।

एक दिन बॉस उसे दूसरे ऑडिट में भेजते है। सुकुमार उस ऑडिट में अपनी आँख चील की तरह खुले रखते है और जो चीज़ें निकल कर आती है वह भयानक है।


सुकुमार, मित्तल को ब्रीफ़ करते है,

"सर रूलिंग गवर्नमेंट ने-सी जी में अपना बंदा बैठा रखा है। यहाँ से कोई भी नोटिंग जाएगी, चाहे उसमें कुछ भी लिखा हो, वहाँ तो-सी जी ओके कर देंगे। फिर क्या मतलब है हमारे ऑडिट का? ऑपज़िशन के लीडर को ये लोक सभा में पुट अप करना चाहिए। सत्ता पक्ष को जवाब देते नहीं बनता। लेकिन वह भी नहीं कर रहे।"

"हम्म..! देखता हूँ मैं"

"सर क्या करूं इसका मैं तब तक?"

"तुम तो भेजो"

"लेकिन सर कोई फायदा ही नहीं है"

"तो छुट्टी लो और घूमने चले जाओ। मूड चेंज हो जाएगा। फिर आकर सिस्टम को एक्सेप्ट कर लेना।"


बॉस ने गुस्से से बोला

सुकुमार कुछ नहीं बोलता


"और हाँ, तुम्हारे पर्क्स पर मैंने साइन कर दिए है। कैश कराने के लिए उमाशंकर को भेज देना।"

"थैंक्यू सर!" सुकुमार बुझे मन से बाहर आता है।


अब उसे लगने लगा था कि सिस्टम में तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। बस अब चुपचाप अपनी ज़िंदगी एंजॉय  करे। इस देश की चिंता ने ख़ुद की छोटी-सी पारिवारिक ज़िंदगी को भी बोरिंग बना रखा है। वरना कितना मस्त वह विनीता के साथ एक ख़ुशी जीवन जी रहा होता। छोटी-छोटी ख़ुशियाँ ले रहे होते। सोच के वैसे भी वह कुछ नहीं कर पा रहा। इससे अच्छा सोचना ही छोड़ दे।


अब उसने निर्णय ले लिया। अपने करप्शन को लॉजिकल बाँट लिया। सर ने सही कहा था-फ़्लेक्सिबल होना है अब! अब उसके दिमाग को कुछ आराम मिला।

कई दिनो तक वह सिर्फ़ ऑफ़िस जाता और आता है। वह ऐसा कोई काम नहीं करता जिससे उसे लगे कि वह देश के लिए कुछ कर रहा है या देश के विरुद्ध। आज भी पैकेट आया है। घर पर विनीता के साथ एक साधारण जीवन जीने की कोशिश करता। सब कुछ ठीक है लेकिन ये गिद्ध!

अब उससे नहीं रहा जाता और ये बात विनीता से नहीं देखी जाती।

फिर विनीता एक दिन उसे सलाह देती है।


"आप आचार्य जी से बात क्यों नहीं करते?"

"अरे हाँ..! कितना पागल हूँ मैं! ये मेरे दिमाग में क्यों नहीं आया। बात नहीं करूँगा। ख़ुद मिलने जाऊँगा।"

अगले दिन उसने ऑफ़िस से छुट्टी ली और आचार्य जी के यहाँ के लिए निकल गया।

गाँव में खेतों के बीच एक छोटी-सी कुटिया जहाँ आचार्य जी खेतों में कुछ काम कर रहे है। सुकुमार को देख आचार्य जी बहुत ख़ुश हुए।

कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई फिर सुकुमार ने अपनी परेशानी बतायी।

"कब से हो रहा है ये?" आचार्य जी ने पूछा

"जॉब ज्वाइन करने के बाद से।"


 "हम्म..!" 

आचार्य जी कुछ सोचने लगे।

"ऑफ़िस में ऐसा कुछ तो नहीं कर रहे जो ग़लत हो?"

"सच कहूँ तो ग़लत सही का अब पता नहीं चल रहा। लेकिन अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसी का नुकसान किया है मैंने।"

आचार्य जी मुस्कुरा देते है। फिर कहते है,

"माँ बाप के जाने के बाद तुम डरे-डरे से रहते थे। स्कूल के बाद तुम मेरे पास जाते। रात में तुम्हें सुलाने के लिए मैं कहानियां सुनाता।"

"अच्छा?"

"हाँ और पता है तुम्हारी मनपसंद कहानी कौन-सी होती?"

"कौन सी?"


"गरुड़ पुराण की। तुम्हें उनके कृत्य बहुत अच्छे लगते। तुम बार-बार उनकी कहानियां सुनते"

"ओह। तो वह गिद्ध?"


"हाँ। वह तुम्हारे अवचेतन मन में विचरण कर रहे है।"

"लेकिन वह मुझे परेशान क्यों कर रहे है?"


आचार्य जी फिर एक बार मुस्कुराते है, "ये गिद्ध तुम्हारी मोरालिटी है। जब भी तुम ऐसा कुछ करोगे जो तुम्हारी मोरालिटी के खिलाफ जाएगा, वह तुम्हें आगाह करने जाते है। वो तुम्हें परेशान नहीं कर रहे। तुम्हारा मॉरल सिस्टम इतना मज़बूत है कि तुम्हें ग़लत रास्ते पर जाने से बार-बार रोक रहे है।"

सुकुमार को अब सब कुछ याद गया कि कब-कब गिद्ध उसे दिखे।

तभी उसने देखा दूर खेत की मुंडेर पर एक बड़ा-सा गिद्ध बैठा है और गिद्धों से बड़ा।

उसने तुरंत आचार्य जी को दिखाया, "वो देखिए। वहाँ भी एक बैठा है"


आचार्य जी ने देखा, उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई दिया। लेकिन उन्होंने बोला,


"वो तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है या तो भगवान विष्णु की तरह उसकी सवारी करो और ग़लत के ख़िलाफ़ लड़ो, या उसे मार कर सिस्टम का हिस्सा बन जाओ। लेकिन ये बीच का मार्ग अपना कर अगर ग़लत को जस्टिफ़ाइड करते रहोगे, तो ये गिद्ध तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाले। याद रखो कि  तुम्हें आज ग़लत और सही भले ना दिख रहा हो। लेकिन जो ग़लत है, वह ग़लत है और जो सही है वह सही।"


सुकुमार एक-टक गिद्ध को देखे जा रहा था। उसकी आँखे देख कर ऐसा लग रहा है जैसे अंदर एक नया सुकुमार जन्म ले रहा है।


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परिचय 




विवेक त्रिपाठी उर्फ मानस का जन्म 2 अक्टूबर 1983 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में एक मध्यम वर्ग परिवार में हुआइनकी माता शिक्षिका  तथा पिता स्वास्थ विभाग में कार्य़रत रहेविवेक ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बलिया से ही हासिल की हैइसके बाद उच्च शिक्षा के लिए भोपाल गए जहां उन्होंने  बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान और दर्शन शास्त्र में गोल्ड मेडल के साथ अपना स्नातक पूरा किया


इन सब के बीच अपनी रचनात्मकता को और कुरेदने के लिए इन्होंने लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र ‘नवजन्या ’ में क्रिएटिव हेड के रू में भी कार्य किया


दर्शन शास्त्र में परास्नातक करने के लिए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में दाखिला लियापरास्नातक के दौरान ही विवेक, SBI (पहले SBBJ) बैंक पीओ की परीक्षा में सफल हुए

नौकरी के दौरान इन्होंने सहायक प्रबंधक के तौर पर अलग-अलग स्थानों पर बैंक सेवा दीलेकिनइन सब के दौरान फिल्म इनके जेहन में लगातर चलता रहाएक समय यह साफ हो गया कि अब नौकरी और फिल्म बनाने की ललक एक साथ नहीं चल सकते.


अपनी चार साल की सेवा के बाद विवेक ने बैंक से इस्तीफा दिया सिनेमा का व्याकरण समझने के लिए  AAFT, नोएडा से फिल्म निर्देशन में का कोर्स लिया


सिनेमा की राह पर विवेक का सफर जारी है। अखबार की रचनात्मकता और सिनेमा के शौक को लेकर विवेक एक बड़े निर्देशन और लेखन के करियर की ओर बढ़ रहे है और इसी बीच उन्होंने कुछ अन्य रचनात्मक युवाओं के साथ मिलकर TBC FILM AND PRODUCTION’ नामक कम्पनी की स्थापना कीइस बैनर के तहत विवेक ने कई अवार्ड विनिंग शॉर्ट फिल्मों और डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन और लेखन कियाइसके साथ ही विज्ञापन की दुनिया में भी धमाकेदार एंट्री मारी हैविवेक कुछ फीचर फिल्मों की स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहे हैं और OTT प्लेटफार्म के लिए वेब सीरीज की तैयारी में भी लगे हुए हैं.


समीक्षा :-


नयी हिन्दी की दुनिया में नयी क़िस्सागोई

किताब : बाल्कनी (लघुकथाएं); लेखक : मानस (विवेक त्रिपाठी); प्रकाशक : स्टोरी मिरर, मुंबई
समीक्षा : भवेश दिलशाद
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इस बाल्कनी में दो कुर्सियां हैं, ताकि लेखक और पाठक रूबरू बैठें; एक मेज़, जिस पर एक कहानी बिछ सके और कुछ पौधे. इस बाल्कनी में कोई टेलिस्कोप नहीं रखा है, बल्कि एक ऐनक है, ताकि आसपास के लोग ख़ास-ख़ास दिख सकें. किताब की शीर्षक कहानी में लेखक के शब्द हैं : 'दुनिया घरों में क़ैद हो गयी और शाम को बाल्कनी में आने लगी. पौधे हटने लगे, पुराना कूलर हटा, बाल्कनी साफ़ होने लगी.'

ठीक ऐसे ही, लेखक का प्रस्ताव भी कि लॉकडाउन में ये कहानियां बाहर झांक सकीं. लेखक के भीतर जो बाल्कनी है, वहां पुरानी या घर में जिनकी जगह नहीं थी, वो चीज़ें घर कर गयी थीं. यह बाल्कनी लॉकडाउन में इन कहानियों से महकी. वास्तव में, इन कहानियों को एक शब्द में बांधा जाये तो वह है 'गंध'. रिश्तों, यादों और आंचलिकता की गन्ध से भरपूर इन बिम्ब बनाती कहानियों में तक़रीबन हर पाठक के जाने-पहचाने किरदार हैं.

कुछ समय से लघुकथाकार तीन श्रेणियों में दिख रहे हैं; स्थापित साहित्यकार, पत्रकार और फिल्मकार. स्थापित साहित्यकारों के यहां विमर्श/व्यंजना से भरपूर लघुकथाएं हैं तो पत्रकारों के यहां घटना प्रधान व विचारशील. तीसरी श्रेणी में शुमार मानस की लघुकथाएं संवेदना को पकड़ती हैं, जहां भीतर-भीतर चलता एक रूपक खुलता भी है.

'पत्थर' शीर्षक लघुकथा स्त्री विमर्श में एक दख़्ल है, तो 'गिद्ध' एक ख़ास रूपक. वस्तुत: 'गिद्ध' मानवता पतन के समय में समकालीन कथाकारों के यहां सकारात्मक लय पा रहा है. अपने फिल्मकार का पूरक, मानस का स्टोरीटेलर ऐसे कहता है कि पढ़ने वाला क़िस्से के साथ बह सके. इस प्रवाह में भाषा, विस्तार, सोशल-पॉलिटिकल अप्रोच और बिटवीन द लाइन्स कम गुंजाइश इन 21 लघुकथाओं की सीमा है. श्रेयस्कर होगा कि साहित्य की दुनिया इस युवा कथाकार की संभावना देखे. उम्मीद की जाना चाहिए कि दुकानों से लिटरेचर फेस्टिवलों तक पहुंच रहा सत्या व्यास व दिव्य प्रकाश दुबे जैसे नामों वाला 'नयी पीढ़ी का हिन्दी जगत' मानस की दस्तक को ध्यान से सुनेगा.

- भवेश दिलशाद

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