Thursday, May 5, 2016



आज वाटसअप  के "साहित्य की बात समूह"मुख्य एडमिन श्री ब्रज श्रीवास्तव  से , सुरेन्द्र रघुवंशी जी की कविताये ली  गई| जिनकी विशद चर्चा यहाँ प्रस्तुत है |









 पिरामिड में हम


पिरामिड के आधार पर हम हैं
अधिसंख्य कीड़े मकोड़ों की तरह लावारिश
रेंगते और टकराते हुए परस्पर अर्धमूर्छित से

दिशाहीन और कानों के कच्चे  सीधे- सच्चे
भूमि पुत्र हम धूल धूसरित अर्धनग्न तन
और महोदय आप हवा के पैरोकार हो
पिरामिड के शीर्ष पर गिने चुने
साफ़ सुथरे , उजले चिकने धुले पुछे

देश की बैंकों को लूटकर दिन दहाड़े
 नौं हज़ार करोड़ के डाके की रकम लेकर
हवाई जहाज में बैठकर भाग जाते हो विदेश
और हम घर और खेत की बिजली का बिल भी
न भर पायें तो जेल जाएँ अपराधी बनकर

हवा से तुम्हारा पुराना रिश्ता है
तुम आसमान में उड़ने वाले हवापुत्र हो
तुम सम्मानित और समरथ हो
दोषरहित तुम हम ही दोषी
जय हो जय हो जय हो

व्यवस्था के गठजोड़ से आनन्द विभोर हो
तुम मूतते हो पिरामिड के शीर्ष से
और खारेपन के उन छींटों को
ज़रूरी बताया जाता है हमारे उद्धार के लिए



                 बरगद आदमी

कहानी  बीजांकुरण से शुरू होती है
और इसे शुरूआत इसलिए कहेंगे
कि अपने अंकुरण के लिए बीज ने  वर्षों तक
तपती धूल में दबे रहकर भी
हारकर मरे बिना बरसात की प्रतीक्षा की है

फिर  संकल्प की धरती पर
बारिश को तो  होनी ही होती है देर सवेर
बीजांकुरण पौधे से मज़बूत पेड़ तक का
सफर  तय  करता है

आदमी बरगद है
जो दुनिया की धरती पर निरंतर फैलता है
समय के आकाश के नीचे
पल्लवित ,शाखाओं में विभक्त और विशाल

जर्जर होकर कहीं से ख़त्म होता है बरगद
पर ठीक उसी वक़्त होता है पुनर्जीवित भी
अपने तनों की लड़ियों को
पत्तियों के संसार से धरती की यात्रा कराता है
फिर समानांतर  कई तने विकसित करता है
यही स्वनिर्मित दुनियावी सहारे हैं
और अन्ततः यही हमें बचाते हैं

आदमी बरगद है
न रोपा जाता किसी बगीचे में
न सम्हाला जाता मालियों द्वारा
और न ही सुरक्षित रखने के लिए
किसी सुनियोजित  और चर्चित जल तंत्र  द्वारा
सींचा जाता उसे

पर वह स्थानांतरित होता है
एक तने से दूसरे तने में
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में
और तना रूपांतरित होता है जड़ों में

यह ख़ुशी का चमकदार विषय है
कि आदमी बरगद है
बरगद है बिल्कुल आम और साधारण आदमी
इस हद तक बरगद
कि व्यवस्था की  तूफानों से
 गठबंधन कर चुकी षड्यंत्रकारी आँधी भी
उसको ध्वस्त नहीं कर सकती।


                 🅾 जब हिलते हैं पेड़


एक पैर पर खड़े होकर दिन- रात जागते हैं पेड़
वे रेंगते हैं धरती के भीतर अपनी जड़ों से
दौड़ते हैं बूँद-बूँद पानी  के पीछे
और ऊपर  आकाश से थमे रहने की अपील करते हैं

सोते नहीं हैं पेड़ कभी
कि हारे-थके पंक्षी लौट रहे हैं उड़ान से
जिनके लिए पेड़ों के पास मज़बूत कंधे हैं

पेड़ अनगिनित आँखों से देखते समय की क्रूरता
और धिक्कार में झरा देते हैं पीली पत्तियां

वे अपने फूल, फलों और छँव तक
सबको पहुंचने की आज़ादी देते हैं
और इसीलिए खड़े हैं खुले आसमान के नीचे

पतझड़ में खड़े रहते हैं दिगम्बर और  सूखे
पर समन्दर से पानी मांगने नहीं जाते
हाँ अपने स्वाभाविक हक़ के लिए
वे निसंकोच ललकारते हैं बादलों को

जब हिलती है धरती
तो सबसे पहले काँपकर आगाह कर देते हैं पेड़
और जब हिलते हुए झुकते हैं पेड़ एक कोंण से ज्यादा
तब आ जाता है भूकम्प
             

           

            🍀 शहर से बहिष्कृत


मेरा आगमन शहर की छाती पर
अतिक्रमण के पॉव थे
शहर की अनिच्छा जिसे असंगत बताती रही

काँच सी चिकनी सड़कें
मुझे इन्द्रपुरी की कथा की याद दिलाती थीं यहीं आकर सार्थक हो रहे थे
सफाई के विविध  नारे

मेरी मन की निर्मल झील को अनदेखा कर
फटी पुरानी कमीज़ को इंगित कर
लोग मुझे गन्दा कहे जा रहे थे

आँखों के द्रव्य को देखने वाली  दृष्टि
मर गई थी अल्पायु में ही
और लोग दृष्टि सम्पन्नता का पुरस्कार पा रहे थे

मैं शहर के स्वप्न लोक के
आकर्षक किस्से सुनकर
अपने खेत छोड़कर चला आया शहर मे
पर शहर खड़ा था तराजू लेकर
और मेरे पास कोई बजनी बाँट नहीं था

शहर मुझे धकिया रहा था
गरिया रहा था नाक भौहें सिकोड़कर
मैं भी शहर  से बाहर निकलने का रास्ता
तलाश रहा था  चौन्धयायी आँखों से
पर वह मुझे मिल नहीं पा रहा था|
               


🔴 तुमसे मिलते हुए


तुम्हें देखकर लगता है
कि दुनिया की चमक अभी कम नहीं हुई है
घिसे नहीँ हैं अभी भी विश्वास के सभी वर्तन
कि ख़ुशी होती है पर्वतों से भी ऊँची

हर बार तुम्हारी आँखों में उगते दिखाई देते हैं
उम्मीदों के अनन्त सूरज
जिनके साथ विचारों के सिन्दूरी आसमान में
तुम्हारी मुस्कुराहट का विस्तार है

तुम्हारे आगमन की खबर
खुशियों की नदी में बदल जाती है
तुमसे मिलना किसी साम्राज्य को प्राप्त कर लेना है

तुम्हारे मुलायम सुन्दर हाथों के स्पर्श से
हजारों अश्व शक्ति की ऊर्जा का संचार होता है
आभाव के गड्ढों को कौन देखता है
प्रेम में दौड़ते हुए लक्ष्य विहीन

विभाजन की दीवारों को ढहाते हुए
तुम गाती हो समता और सरसता के गीत
इस कोलाहल भरे विरुद्ध समय में
कानों को जिनकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है
                     - सुरेन्द्र रघुवंशी



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प्रतिक्रियाये ::

[09:10, 5/5/2016] Aanand Krishn Ji: सुरेन्द्र जी की कविताएँ समय के साथ संवाद करती मुखर कवितायेँ हैं । पहली कविता पिरामिड में हम समकालीन घटनाओं के माध्यम से सर्वहारा की सर्वकालिक स्थितियों का ईमानदारी से चित्रण करती है । इस तरह यह कविता अपने समय का इतिहास भी है । 

दूसरी कविता "बरगद आदमी" चमत्कारी कविता है । ये कविता, कविता की अनंत संभावनाओं का क्षितिज खोलती है । आशा और अस्तित्व को नया बिम्ब देने में कवि सफल रहे हैं, "यह ख़ुशी का समझदार विषय है ।"

तीसरी कविता "जब हिलते हैं पेड़" पेड़ों के लिए एक जीवंत मन का अभिनन्दन पत्र है । ये कविता तो पाठ्यक्रम में होना चाहिए ।
[09:10, 5/5/2016] Aanand Krishn Ji: चौथी कविता एक धोखा खाये हुए सरल आदमी की पीड़ा है । इसे पढ़ते हुए एक शेर याद आया :

अब मैं राशन की दूकानों में नज़र आता हूँ ।
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ । 

पांचवीं कविता "तुमसे मिलते हुए" एक बेहतरीन प्रेम कविता है जिसमें नए प्रतीकों और रूपकों का सफलता पूर्वक प्रयोग हुआ है । बार बार पढ़ने योग्य कविता । 

सुरेन्द्र जी को बधाई । एडमिन जी के प्रति आभार ।



शरद कोकास
सुप्रभात मित्रों , आज कार्ल मार्क्स की जन्मजयन्ती पर आप सबको क्रन्तिकारी सलाम . संजीव ने बहुत अच्छे उद्धरणों से आज के दिन की शुरुआत की और रवीन्द्र ने बात आगे बढ़ाई , जैसा कि एडमिन महोदय ने कहा है हम इन पर रविवार को चर्चा करेंगे . आज साप्ताहिकी के अंतर्गत कॉमरेड सुरेन्द्र रघुवंशी की कविताओं पर बात की जाए . 

सुरेन्द्र की कविताओं में मनुष्य की चिंता के साथ परिवर्तन की चाह उभरकर आती है ,कला पक्ष गौण होने के बावजूद इनमे विचार अपनी पूरी ताकत के साथ आते हैं . बरगद का बिम्ब जिसे वर्ग विभाजन के अंतर्गत अब तक समर्थ और समृद्ध के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया जाता था वे आम आदमी के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं . इस बात में विरोधाभास हो सकते हैं लेकिन बिम्बों को नए अर्थों में प्रस्तुत करना भी एक काव्यकला है . 
जब हिलते हैं पेड़ में उन्होंने पेड़ों को सजीव की तरह ही देखा है और इनमे भी नए बिम्ब इस्तेमाल करते है . गति सजीव का लक्षण है लेकिन दर्शन में इसे सजीव और निर्जीव की तरह समाज के सन्दर्भ में भी  परिभाषित किया गया है. कविता की अंतिम पंक्तियों में फिर विरोधाभास है .



[17:32, 5/5/2016] Saksena Madhu: पिरामिड में हम ..... कुछ दिन पहले हुई एक घटना को लेकर उसके मूल में पहुंच कर सियासी वरदहस्त पाये लोगों की खुल कर बात करती है ये कविता ....यही इसकी खासियत है ।अपने पुरे तल्खी पन  के साथ उन पर थप्पड़ मारती है जो इसमें शामिल हैं ..
. बरगद ... साधारण और आम आदमी की शक्ति का बयान करती है .बरगद और आम आदमी की तुलना बहुत बढ़िया तरीके से की ।
जब हिलते हैं  पेड़ .... पेड़ कवि का महत्वपूर्ण विषय है ..कई कविताएँ है उनकी ..प्रकृति प्रेम स्पष्ट है और उनके किसान परिवार का होने का सबूत भी ।हर कविता में वे उपमा उपमान और उपमेय के आधार पर आम आदमी की आवाज़ बन कर उभरते है ।
शहर से बहिष्कृत ..गांव से शहर की और पलायन और फिर पछतावा ... पर फिर भी जारी है पलायन ।वहां के आकर्षण से कोई बरी नहीं ।एक किसान की व्यथा ।
तुमसे मिलते हुए .... ऊपर की कठोर कविताओं के विपरीत प्रेम कविता  .. असल में तीखी कविताओं के मूल में भी प्रेम ही होता है और उसकी ऊर्जा भी ।
 सुरेन्द्र की कविताएँ विशवास और साहस से अपनी बात कहती है ।समग्र का विकास और गलत को गलत कहने के साहस के साथ मज़बूती से विरोध को स्वर देती है  । बधाई सुरेन्द्र ।
आभार एडमिन जी ।

[18:41, 5/5/2016] Chandrashekhar Ji: सुरेन्द्र जी की कविताओं में एक एक्टिविस्ट का  चिंतन स्पष्ट रूप से नज़र आता है। जब हिलते हैं पेड़ कमाल की कविता है।पिरामिड में खारे छींटे बहुत कड़वा सच है।सुरेन्द्र भाई को बहुत बधाई।

[18:58, 5/5/2016] +91 94240 74638: टुकडों में पढ़ पायी आज की कविताएँ ।पर अब बार बार पढ़ने को जी चाह रहा है । पहली कविता तो हाल ही में लिखी लगती है ,आज मार्क्स के जन्मदिन पर और सामयिक लगती है। दूसरी कविता आशावादी कविता है जो विश्वास को और मजबूत करती है , पेड़ पर लिखी कविता में बड़े ही खूबसूरत बिम्ब हैं साथ ही तंज भी ,अगली कविता आबदाना ढूंढते हर आम आदमी का सच है अंतिम कविता बहुत अच्छी है जो प्रेम की ताकत और उसकी महक को बखूबी पेश करती है।इस कविता को सहेज कर रखूंगी । वाह

[19:11, 5/5/2016] Archana Naidu: हर कविता अपना आसमान खुद ही बना लेता है,  सुरेश जी की रचनाओं ने   पेड़, पिरामिड, आदमी, तुमसे मिलते हुए,  जैसे आलंबनो  से  कविताओं की  आत्मा को रचा है,  सार्थक  प्रयास हेतु साधुवाद 😊

[20:31, 5/5/2016] +91 97820 45060: सुरेन्द्र जी की कवितायेँ एक आग्रह है बदलाव का ,वो ललकार भी बन जाती हैपेड़ के हिलने मात्र से । चेताती है की जब  तक पेड़ है धरा भी स्थिर है , प्रकृति के प्रेम को दर्शाती खूबसूरत कवितायेँ ।
शहर में बहिष्कृत है आज  धरती पुत्र क्या कुसूर उसका ,यही न की उसने अपने खेत  बिसराये और शहरी शिकंजे में फस गया ।बहुत ही मार्मिक विवेचन है इस कविता में गाँव और शहर की व्यवस्था का ।
बरगद है आदमी ,गहरे अर्थ है इसमें ,कविता वह लेजाती है जहाँ जाकर आदमी  अपने  यथार्थ से परिचय पाता है ,अद्भुद बिम्ब है इस कविता में ।
तुमसे मिलते हुए ,..कवि अपने प्रेमिल मन  के भावों को इस तरह की सरसता देता है की लगता ही नही की यही कवि पिरामिड जेसी कविता लिखकर आहत है ।
कवि का मन भावों का समन्दर होता है ,कब कोनसी लहर आकर उसे तट पर पछिट देती है की लो यह भाव साथ बहा लाइ अपने गहरे तल से  ,अब लिखों इस पर अपनी कविता ।
हमारे आज के कवि महोदय ऐसे ही सागर को समेटे रहते है अपने मन में ।और ऊपर से सहज,सरल व्यक्तित्व की आभा लिए हुए ।
शुभकामनाएं सुरेन्द्र जी 
🙏🌷
[20:41, 5/5/2016] Premchand Gandhi: सुरेन्द्र जी की प्रतिबद्धता जगज़ाहिर है और वह इन कविताओं में पूरी तरह से मुखरित हो रही है। बधाई।

[20:46, 5/5/2016] +91 97085 19884: आम आदमी , प्रकृति ,  प्रेम जैसे विषयों पर लिखी कविताएँ सामयिक  होने के साथ  इस निराश समय में आशावादी  कविता हैं।  सभी कविताएंड अपने आप मे  व्यापक अर्थ लिए है।  ऊर्जा और उम्मीद से लबरेज कविताओं के लिए सुरेन्द्र जी को बधाई  ।
साकीबा का आभार ।

[21:02, 5/5/2016] Suren: सुरेन्द्र जी की कवितायेँ  आग्रह की कवितायेँ है । इन कविताओं में कवि की जन पक्षधरता का आग्रह स्पष्ट है । कविताओ में एक विचारधारा विशेष का  वर्चस्व बढ़ चढ़ कर बोलता है ।  इस वैचारिक आग्रह के लिए कवि काव्य की तरलता और लोच को तिलांजलि देने के लिए भी तत्परता से प्रस्तुत रहता प्रतीत रहता है और सपाट बयानी से स्वयम को बवह नहीं पाता और ऐसा कोई प्रयास करने को भी उद्धत  होता प्रतीत नहीं होता ।   ....एक दो बात और , बरगद कविता में जब आदमी बरगद है तो वह अन्य बरगदो को अंततः कैसे बचाते है ,स्पष्ट नहीं हुआ । पेड़ कविता का अंतिम पैरा , क्या बाकि कविता के मोटिव से रेसेम्बलेंस करता है ? ये स्पष्ट नहीं हो पा रहा  । ओवरऑल अच्छी है कविताये  । बधाई सुरेन्द्र जी ,शुक्रिया ब्रज सर

[21:05, 5/5/2016] Suren: *प्रतीत होता है  । #स्वयं को बचा नहीं



5 comments:

  1. बहुत बढ़िया । अब फिर से देखना पढ़ना सुगम होगा

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    1. धन्यवाद आंनद कृष्ण जी, आपकी पहली प्रतिक्रिया ने हौसला दिया

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  2. बहुत बढ़िया । अब फिर से देखना पढ़ना सुगम होगा

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  3. बहुत सही कहा है -देश की बैंकों को लूटकर दिन दहाड़े
    नौं हज़ार करोड़ के डाके की रकम लेकर
    हवाई जहाज में बैठकर भाग जाते हो विदेश
    और हम घर और खेत की बिजली का बिल भी
    न भर पायें तो जेल जाएँ अपराधी बनकर
    साथ ही -
    तुम्हारे आगमन की खबर
    खुशियों की नदी में बदल जाती है
    तुमसे मिलना किसी साम्राज्य को प्राप्त कर लेना है
    लाजबाब है

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 27 मार्च 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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