आज इन्टरनेट हर इंसान की जरुरत बन गया है ,यह संचार क्रांति का सुगम और तेज माध्यम है ,इसने जोड़ने का अद्दभूद काम किया है | इन्टरनेट क्रांति से हमारे देश में जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत उपयोग करके दुनिया जहाँ में अपने विचारो के तार जोड़ रहा है | लगता है जैसे सारी दुनिया मुठ्ठी में और एक क्लिक में समां गई है | फेसबुक जैसी सोअशल साईट के बाद आज व्हाट्सअप ने लोगो को द्रुत गति से जोड़ने का काम किया है |यहाँ बने साहित्यिक समूह विचारविमर्श का बड़ा मंच साबित हो रहे है |ऐसे ही एक साहित्यिक समूह "विश्व मैत्री मंच " पर एक बहुत ही संवेदित विषय "विस्थापन " पर हुई चर्चा को आज मै प्रवेश सोनी "रचना प्रवेश " पर रख रही हूँ | इस समूह की मुख्या एडमिन है सुश्री संतोष श्रीवास्तव ,जो समकालीन प्रतिष्ठित लेखिका है |इस समूह की विशेष बात यह है की इसकी सभी सदस्य स्त्रियाँ है और वो यहाँ पर अपने लेखन के अलावा अन्य विषयों पर भी जम कर चर्चा करती है |विस्थापन जैसे संवेदनशील विषय पर हुई चर्चा यह साबित करती है कि आज की स्त्रियों के सोचने के मापदंड बदल गए है वो अच्छा साहित्य पढ़, लिख तो रही है ,साथ में उच्य वैचारिकता का भी परिचय दे रही है ,जिसे व्हाट्स अप ने और मुखर कर दिया है |
♻परिचर्चा♻
विषय :विस्थापन
संतोष श्रीवास्तव
'विस्थापन ' एक ऐसा शब्द है जो दर्द के सिवाय कुछ नहीं देता ... नए -पुराने ,राष्ट्रीय -अंतराष्ट्रीय स्तर पर अनेको विस्थापित हमे मिल जायेगें या जिनके बारे में जानकारी हमे रही ।हरसूद ताजा उदाहरण है । अंतराष्ट्रीय स्तर पर मनुष्य ने विस्थापन का दर्द बहुत झेला है ।उसको विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं।
इस विषय पर साहित्य बहुत कम लिखा गया है ,अगर इस विषय पर विपुल साहित्य लिखा जाता तो क्या विस्थापन को रोका जा सकता था ? साहित्य जन चेतना का आधार भी तो है ना ?
दूसरी बात कभी कभी ये भी देखा है की विस्थापन उन्नति का कारण भी बना है । पारिवारिक ,आर्थिक ,सामाजिक ,राजनैतिक कारण है विस्थापित व्यक्ति उन्नति भी करता।
जीवन की कठिनाइयां संघर्ष की शक्ति भी देती हैं ।हम सब भी कहीं न कहीं से उठकर आये हैं स्वेच्छा या मज़बूरी में ......
तो क्या कहना है साथियों ...
विस्थापन से दर्द मिला या उन्नति ?
विकास के मार्ग खुले या अवरुद्ध हुए ?
आज इसी पर बात करके कुछ निष्कर्ष निकलते हैं .....कारण सहित अपनी बात कहें ।
रुपिंदर जी
शुभ प्रभात vmm🙏
एक सार्थक विषय के साथ मंच पर संमिधा परोसी है मधु दीदी ने।विषय ज्वलंत है,क्यों कि कहीं न कहीं पूरा विश्व ही झेल रहा है इस विस्थापन के दंश को।जैसा कि आदि काल से देखते आए हैं, एक शासक की छत्र छाया में विद्रोह पनपते थे।मानव का स्वभाव ही है सदैव सत्ता पाने हेतु आमजन का सहारा लेकर अलगाव से स्वयं की सत्ता को स्थापित करना।पर इस सत्ता में भी क्या आम जन को राहत मिली है।आज सब इस विषय का मनन करेंगे और इस चर्चा को समृद्ध कर कुछ तो हल निकालने की चेष्टा करेंगे कि आने वाली पीढ़ी इस दंश से राहत महसूस करे।
+जया जी
91 81099 90582: विस्थापन का दर्द तो वृक्षों को भी होता है फिर इंसान तो समझो टूट ही जाता है। सब कुछ नए स्थान पर नए सिरे से बीते को भुलाकर करना पड़ता है। हम भी तो विसाथापित ही हैं बहनो। एक सोची समझी समाज की परंपरा को निभाने के लिए जब हम माँ, पापा, भाई, बहन को छोड़कर ससुराल आते हैं तो साल दो साल लग जाते हैं सामन्जस्य बिठाने में। फिर जिन्हें मजबूरी में अपना सब छोड़ना पड़ता है उन्हें तो अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।
विस्थापन को टाला नहीं जा सकता। उसके बाद पुनर्स्थापन में जीवन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर एक के बाद एक कार्य करना पड़ता है। कई बार हमें सहयोगी मिल जाते हैं तब कुछ आसानी होती है पर जहाँ कोई मार्गदर्शक न मिले तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं।
Manjusha Man: विस्थापन चाहे जिस भी कारण से दर्द ही देता है। गहरी पीड़ा से भरा शब्द है विस्थापन। हर व्यक्ति इसे कभी न कभी झेलता ही है। कभी प्राकृतिक आपदा के चलते तो कभी मानव जन्य आपदाओं के कारण।
बाढ़, सुखा विस्थापन की बदे कारण है आज के दौर के। साथ ही सामाजिक वातावरण, दंगे, हिंसा, कठोर परम्पराये भी विस्थापन को जन्म देतीं हैं।
आज अगर देखें तो रोजगार की तलाश, बेहतर जीवन की आस भी विस्थापित का कारण बनते हैं।
हमारे समाज में स्त्री का भी विस्थापन होता है। विवाह के बाद अपना सबकुछ छोड़ कर नई जगह, नए परिवार में जीवन प्रारम्भ करना भी विस्थापन ही है।
पर जो भी हो अपनी जड़ों से कटने का दर्द तो झेलना ही पड़ता है।
आज के इस विषय पर आप सभी के विचारों की प्रतीक्षा है।
रुपिंदर जी
91 77729 99154: जी हाँ इस दिशा में पूरे विश्व की भागीदारी होना आवश्यक है।जैसे की युनिसेफ जैसी संस्थाओं को विश्व जागरण कर उनके लिए सुविधाओं को मुहैया करना एक सराहनीय कार्य है।और भी बहुत सो ऐसे समूह हैं।किन्तु क्या इनकी राहत परिपूर्ण होती है यह भी एक ज्वलंत प्रश्न है।
एक एक कर बात करने से उचित रहेगा।कई प्रकार की विस्थापना को एक साथ चर्चा में लेंगे तो भटक जाएंगे।बेहतर होगा मंजुषा मन जी प्रश्न करें और उसी का सब उत्तर देंवे।🙏🙏🙏😊
रत्ना पाण्डे जी
91 93291 17910: अपनी मिट्टी अपने वतन से दूर एक अनजान जगह में रहकर फिर से जिन्दगी की शुरूआत करना बहुत मुश्किल होता है
नई भाषा और संस्कृति के साथ कदमताल करते बरस बीत जाते हैं पर जब उन्हें बाहरी ही समझा जाता है तो दुख भी होता है
कई बार खुद भी अलग थलग रहकर खुद को बाहरी समझने का भाव भी स्वाभाविक विकास में बाधा बनता है
इतना निश्चित है कि कोई ब्यक्ति ऐसी स्थिति जानबूझकर नहीं लाना चाहेगा पर यदि किसी कारण ऐसी स्थिति बनती है तो स्थानीय रहवासियों को खुले दिल का परिचय देना होगा दूसरे देश के या स्वदेश के विस्थापितों के साथ एक मानवीय सदाचरण तो किया ही जा सकता है सब कुछ सरकार भरोसे नहीं छोड़कर अपनी जिम्मेदारी भी निभानी होगी समय परिस्थिति का क्या भरोसा ऐसी स्थितियाँ किसी के साथ भी आ सकती हैं
रुपिंदर जी
91 77729 99154: जी रत्ना जी आज भी तो विस्थापित इसकक दंश झेल ही रहे हैं।हाल ही में कश्मीरी पंडितों का विस्थापन कितना दुखद है क समय काल परिस्थितियों वातावरण सब को झेला हैं इन्होंने ओर झोल भी रहे हैं।बंगाल के विस्थापित आज भी रिफ्यूज़ी कहलाते हैं।पाकिस्तान में गए भारतीय मुस्लिम आज भी मुजाहिर कहलाते हैं।
Manjusha Man: अच्छे विचार आ रहे हैं। विस्थापन की त्रासदी से बचने के उपाय तलाशे जाना आवश्यक है।
नीलम दुग्गल जी
+91 99539 27728: जब तक राजनीतिज्ञ हमारे भाग्यविधाता रहेंगे राजनीतिक विस्थापन नहीं रोका जा सकता।
अपनी खुशी से कौन अपनी धरती छोड़ना चाहता है
Santosh Shreewastv: सखियों बहुत अच्छी चर्चा चल रही है।एक नज़र अपने देश पर भी डालिये ।आज़ादी मिलने के बावजूद कश्मीर से जान बचाकर भागे और जम्मू में विस्थापन का दर्द झेल रहे कश्मीरी ब्राह्मण जिनके घर ज़मीन उनकी बाट जोह रहे है।क्या गुनाह था उनका ?
Santosh Shreewastv: इसी तरह बांग्ला देशी भी भटक रहे है।मशहूर लेखिका तस्लीमा नसरीन को भी लज्जा लिखने के ज़ुर्म में इधर उधर भटकना पड़ रहा है।
Manjusha Man: क्या कारण है विघटन एवं विस्थापन के?
रुपिंदर जी
91 77729 99154: बहुत से कारण हैं मंजुषा जी।जब देशों में विस्थापन होते हैं तो उनके कारण स्पष्ट होते हैं माँ तो दो देशों में युद्ध की स्थिति माँ फिर आर्थिक मार।
जब स्थितियां देश के भीतर की होती हैं तो कई बार मुख्यतः प्राकृतिक आपदाएं होती हैं।
वगत सालों में आंतकवाद एवं नकस्लवाद का घिनौना रुप सामने आया है जो कि प्रमुख कारणों में एक है।उसके पश्चात् पलायन भी एक बड़ी समस्या है।जीवीका के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान विस्थापित होना आम हो गया है,पहले भी महानगरों का आकर्षण लोगों को अपनी ओर खींचता आया है।
किरण वैद
91 98265 16430: विस्थापन की कारणों से हो सकता है।विभाजन, शिक्षा ,रोज़गार चयन, आपसी मनमुटाव , संयुक्त परिवारों का विघटन ,शहरों का विस्तार, सौंदर्यीकरण, या मानव की अपनी महत्वाकांक्षा ।हालात कुछ भी हों पर विस्थापन अक़्सर दुखदायी होता है।
क्योंकि विस्थापन के बाद उतपन्न होती हैं व्यव्स्थापन की समस्या। जिसके चलते मानसिक,आर्थिक भावनात्मक सांस्कृतिक समझौते करने पड़ते हैं।फलस्वरूप जीवन तनावपूर्ण और एकाकी हो जाता है।
जया जी
91 81099 90582: पारिवारिक आपसी कलह जब विस्थापन का करण बनती है तब सबसे अधिक पीड़ा महिलाओं को सहना पड़ती है। उनका संवेदनशील मन व्थित हो उठता है।
Manjusha Man: अगला प्रश्न यही है कि...
क्या झेलना पड़ता है विस्थापन में, और किसे किस स्तर पर??
जया जी
सबसे पहले यदि देश से बाहर जाना पड़े तो बच्चों को स्कूल, भाषा,आदि की समस्या आती है।
मुखिया को रोजगार की तथा धन से जुड़ी जिम्मेदारियों के लिए जूझना पड़ता है
महिलाओं को भी आसपड़ौस से सामन्जस्य बिठाने में समय लगता है।
Saksena Madhu: विस्थापन को साहित्य में कितना स्थान मिला ? इस पर भी चर्चा हो ।
विस्थापन के दर्द को उकेरने में अमृता प्रीतम के पिंजर को याद करिये सखियों ।
हरसूद का बाँध की डूब में आना और पुरे गांव को विस्थापन का दंश झेलना ......ये उन्नतई है या अवनति ?
सुनीता जी
91 96468 56989: सखियों औऱ मन जी को नमस्कार!!
बहुत सार्थक बहस चर्चा की भागीदारी का सौभाग्य!!
क्या विस्थापन सिर्फ़ तक़लीफदायक ही है!!!!
मेरा मानना है नहीं।
जिस तरह पानी एक जगह जमा होकर सड़ता जाता है
मेरा मत है उसका अविरल बहना अत्यंत आवश्यक है,
उसी तरह हमारा भी।
बंध के या एक ही जगह से जुड़े रहना हमारी उतरोतर उन्नति में बाधक हैं।
नया परिवेश, नये लोग, नई भाषा औऱ नया जीवन!!
यूँ भी घर की साज -सँवार ही बदल देने से उत्साह औऱ ऊर्जा में आशातीत परिवर्तन आ जाता है तो क्या हमें विस्थापन नई प्रक्रिया में प्रवेश नहीं दिलाएगा!!!!!
अगर सकारात्मकता से सोचें तो ऋतुऐं बदलती हैं,
पेड़ नए वस्त्र धारते हैं, चलन बदलते हैं, इक्छाऐं बदलतीं हैं ,उम्र बदलती है,सोच बदलती है------- ये बदलाब निश्चित हमें अच्छा लगता है।
विस्थापन भी हमें विकास की ओऱ ही ले जाता है वरना हम स्वयं में मगन रहकर ही जी पाएंगे।
मंजूषा जी सुंदर संचालन की बधाई!!💥
पूर्ती खरे जी
91 91071 65448: नमस्कार सखियों🙏
आदरणीय मधु जी सदैव ही इतना रोचक विषय देती हैं की खुद को लिखने से रोक ही नही पाती।
समझ नही आता कहाँ से अपनी बात शुरू करूँ... आप सब बात अपने एक दायरे तक ही कर रहीं हैं, पर मुझे विस्थापन बिल्कुल पसन्द नही , हाँ ये अवश्य है की ये समय की माँग के अनुरूप और दाल-रोटी के लिये मन मार कर करना ही पड़ता है।
वो सब ठीक पर मैंने जो विस्थापन की कहानीयाँ सच्ची कहानियां जम्मू के लोगों के मुँह से सुनी मेरे रोंगटे खड़े हो गए। यहाँ पर हर शख्स की विस्थापन की अपनी कहानी है, कश्मीरी पण्डितों की कहानी, कई मुस्लिमों की कहानी इतना दर्द है इनकी बातों में यादों में की आप अपने आँसू रोक न पायेगें, आपका सभी का मन होता होगा अपने पुराने गाँव जाने का पुराने घर को देखने का, और आप सभी स्वेक्षा से उसे छोड़ कर आये पर जिन्हें जबरजस्ती अपने घर से निकाला गया उनका क्या?
बेहद उदास हो जाते ये लोग जब भी इनसे पुरानी बातें करो, ये जानते हैं विस्थापन का दर्द।
और ऐसे ही कई सिख, हिन्दू भाई बहिन हैं जो कश्मीर या उनके आस-पास बासे हैं मजबूरन विभाजन के दौरान पकिस्तान छोड़ कर आये।
इनका दर्द इतना गहरा है की व्यक्त करना मुश्किल।
इस विस्थापन के दर्द से ये कई बार गुजरे हैं।
किरण वैद जी 91 98265 16430: सुनीता जी आपने विस्थापन के उजले पक्ष पर प्रकाश डाला मैं भी इस से सहमत हूँ।पर विस्थापन के दुःख ज़्यादा हैं ,खुशियां कम । अपनी जड़ों से दूर कुछ ही रोपे पनप पाते हैं।जिनमें हम बेटियां अपनी मिसाल रखती हैं।
बेटी बिरवा धान का,जित रोपें उग जाए।
अपनी माटी छोड़ के,और जगह हरियाए।
Pravesh soni: ‘‘विस्थापन एक ऐसी परिघटना होती है, जो ठोस वस्तुगत यथार्थ में घटित होती है। इसके मूल में विवशता और बेबसी की चीख होती है। व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह जब विस्थापित किया जाता है तो उसमें उनकी परिवेशगत जड़ों से कटने का दंश होता है, और चूँकि यह दूसरों के द्वारा लिया गया निर्णय होता है इसलिए यह विवशता में ही स्वीकार किया जाता है। यह चाहे विकास के नाम पर हो या देश पर कुर्बान होने के नाम पर हो।
‘विस्थापन’ शब्द में ‘‘स्थान’’ जो सिर्फ एक जमीन का टुकड़ा भर नहीं होता, एक मानवीय जीवन की संपूर्णता का जीवंत परिवेश होता है, वहाँ के कण कण के साथ व्यक्ति का आंतरिक जुड़ाव होता है, जिससे उसका विस्थापन किया जा रहा होता है। यह ठीक उस तरह की प्रक्रिया होती है जिसमें अपने शरीर से रक्त और चेतना को अलग किया जा रहा हो और देह एक जड़ भौतिक वस्तु की तरह कहीं और फेंक दी गई हो।
स्वेच्छा से दूसरे स्थान पर रहने जाना या रोजगार के लिए जाना विस्थापन की श्रेणी में नहीं आता है। इसके साथ जोड़कर विस्थापन की भयावह सच्चाई को हल्का नहीं किया जाना चाहिए।
Rachana Groaver: *विस्थापन*
एक दर्द है
एक आह है
एक सिसकी है
दंश झेलती हैं
लड़कियाँ
जब बन जाती बहुएँ
तुम्हारे उस घर में होगा ये नियम
हमारे यहाँ नहीं चलता*
जैसे वाक्य चीर कर रख देते हैं
उसका सीना
विस्थापन देखा है मैंने
अपने पिता की आँखों में
जब कभी बात करो सन् 47 की
आँखों में क्रोध घृणा जैसे भावों
के साथ दर्द की एक लहर
साथ चली आई हो
भिंचे होंठ
तकलीफ बयान करते
आँखें भीग उठती
यादो के साये तले
विस्थापन
दंगे
रोज़गार
विभाजन
की परिभाषा के शब्द हैं ये
एक शब्द और है
विवाह
जिसमें विस्थापित होती है
कन्या बिरवें की भांति
बन जाती है पूरा दरख्त
बन जाती है पूरा दरख्त
@रचनाग्रोवर
डॉ मञ्जूषा हर्ष जी
91 94792 31098: सखियो विस्थापन के अनेक कारण होते है सामाजिक ,आर्थिक, जनसंख्या के कारण,जातिगत समस्या, घटना विशेष के कारण,
राजनीतिक कारण आदि
उदाहरण के लिए भारत पाक विभाजन रानीतिक कारण था,कश्मीर में एक विशेष वर्ग ने उस पर पूर्ण आधिपत्य के लिए साम ,दंड,भेद व हिंसा के द्वारा जबरन विस्थापित किया तो पश्चिमी
पाकिस्तान (वर्तमान बंगला देश )से हजारों ने शरणाऑर्थी के रूप में भारत में क्षरण ली
विस्थापित होने वालों निश्चित ही बहुत कुछ खोना पड़ता हैऔर घोर पीढ़ा व दर्द सहना पड़ता है पर अगली पीढ़ियों में वो तीव्रता नहीं होती
विकास कार्यों जैसे बाँध निर्माण में गाँव केगाँव डूब क्षेत्र में आ गए थे पर उनको आज तक न्याय नहीं मिला
Rachana Groaver: मधु दी
विस्थापन को साहित्य में कितना स्थान मिला?
आपके इस प्रश्न का उत्तर
पिंजर
पकिस्तान मेल
डार सेबिछुड़ी
टोबा टेक सिंह
गर्म हवा
इस्मत आपा हो या अमृता प्रीतम
सर सहादत हसन मंटो
भीषम साहनी का तमस
बहुत लिखा गया है।
रुपिंदर जी 91 77729 99154: सही कहना है आपका मंजुला दी।पर क्या कारण हो सकता है इसके पीछे क्या वह इतनी तीव्र वेदना देता है कि उसके बारे में लिखना स्वयं में त्रासदी भोगना है।
डॉ मञ्जूषा हर्ष जी +91 94792 31098: विवाह में विस्थापन सामाजिक आवश्यकता के साथ भारतीय परंपरा है क्योंकि किसी पेड़ के नीचे पौधे पल्लवित नहीं होते पर दर्द व टीस तो रहती ही हैजबकि दक्षिण भारत में मातृ प्रधान परिवार हैं
पर आज जीवन यापन के लिए सारे समीकरण बदले हुए हैं
जड़ से उखड़ने का दर्द तो पेड़ ही बता सकता है
संम्पूर्ण दृश्य ही परिवर्तित हो जाता हैअपनी माटी, देश,समाज तो याद रहेंगे ही स्मृतिमें
ऱिर माँपिता सा प्यार तो अपनी माटी ही देती है
रुपेन्द्र राज जी एक बात और है जो अपनत्व माँ या अपनी माटी देती वह दुबारा नहीं मिल पाता
विवाह एक जिम्मेदारी है इसमें फिर वही चक्र चलता है जो हमारे मातापिता ने झेला,
समय,काल परिस्थिति के कारण कुछ परिवर्तन हो सकते है पर वो बचपन की बेफिक्री वाली अवस्था नहीं लौटती और मन के एक कोने में बचपन सदैव रहता है
रुपिंदर जी 91 77729 99154: जी मंजुला जी आप शब्दश: सही कह रही है अपना कभी नहीं छुटता और जब छूट जाता है तो वह केवल एक त्रासदी बन जाता है।विस्थापन एक त्रासदी ही है।एक जगह से दूसरी जगह जाना पूरी आत्मा को झिंझोड़ देता है और विस्थापन सदैव विवशता से जुड़ा होता है।
किरण वैद जी 91 98265 16430: विस्थापन का एक कारण सही स्थान या मान न मिलना भी है।हमारे देश में प्रतिभाओं/योग्यताओं को/ क्षमताओं को सही स्थान न मिलने के कारण आज युवा विदेशों को पलायन करहा है। और झेल रहा है उसके साथ ही उसका परिवार भी यह त्रासदी।इसके लिए हमारी आरक्षण नीति दोषी हैं जिसके कारण सवर्ण सुयोग्य उम्मीदवारों का शोषण हो रहा है ।
Santosh Shreewastv: मैंने एक किताब सम्पादित की है जो विस्थापन पर मुम्बई के कथाकारो द्वारा लिखी कहानियो का संग्रह है।
"नही अब और नहीं'
यह किताब बेहद चर्चित हुई है। इसमें मेरी विस्थापन पर लिखी कहानी "जड़ो से उखड़ी" है।
किरण वैद जी 91 94792 31098: आपने सही कहा प्राचीन काल से शोषण की समस्या है
अंग्रेजों ने एग्रीमेंट के आधार पर एकमुश्त पैसा देकर कॉफी,जूट व चाय आदि के पौधे लगाने देश विदेश ले गए फिज़ी आदि दुवीपों में वे गिरमिटिया ( एग्रीमेंट का अपभ्रंश) मजदूर कहलाए
ये भोजपुरी बिहारी भाषा बोलते हैं इन्होंने अपनी संस्कृति नहीं छोड़ी पर विस्थापन का दर्द| सहा
इन्हें दिनरात काम करना पड़ता था मार खानी पड़ती थी घोर शोषण हुआ ये तो आज भी चल रहा है
आर्थिक,सामाजिक रूप से पिछड़े,अशिक्षित,किशोरों का जो जीवन की सच्चाई नहीं जानते,पैसे की लालच में अंधी युवा पीढ़ी
सबका विस्थापन व शोषण होता है,लड़कियों से गलत काम कराए जाते हैं ये गिरोह के रूप में काम करते है
Rachana Groaver: विस्थापन एक विस्तृत विषय है
विस्थापन अर्थात एक विशेष क्षेत्र को छोड़ कही अन्य स्थान पर चले जाना । इसके अनेक कारण है प्राकृतिक राजनैतिक पारिवारिक आर्थिक ।
प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को विस्थापित कर देती हैं। 1947 के दंगे हों या कश्मीरी पंडितो का दर्द या1984 के दंगे इन्हें जिसने झेल है उसकी ऑंखें आज भी नम है।
किसान आदिवासी तो आए दिन गए अपनी ज़मीन और जंगलों से बेदखल कर दिए जाते हैं।
आर्थिक कारण अपना गांव छोड़ झुग्गी झोपड़ी में रहने को
अभिशप्त है मजदूर वर्ग।
धारावी इनकी ही बस्ती है।
पारिवारिक कारण भी रोजीरोटी से जुड़े हैं।
आज देश का युवा अपना भविष्य विदेशों में अधिक देखता है
पर याद रहे वह प्रवासी है
विस्थापित नहीं
विकास ने शहर डुबाए हैं
हरसूद और टिहरी इसके उदाहरण है।
हमने विस्थापित किया है पशुपक्षियों को उनके ही घरों से।ं
मीरा श्रीवास्तव जी +91 91623 09770: विस्थापन की समस्या ,इसके गुणात्मक और ऋणात्मक पहलुओं पर आज वि मै मं के सदस्यों की सकारात्मक सक्रियता देखने को मिली है ।अनेक मत मतान्तरों के बीच मैं इस विषय पर कुछ बोलने से पहले शैलेन्द्र चौहान जी की एक कविता आपसबों के साथ बाँटना चाहूँगी --
सारा पानी
खंभात की खाड़ी में बह जाये
उससे बेहतर बने ऊँचा बाँध
केवड़िया गाँव के पास
दिखेगा नीला ,गहरा
ठहरा-ठहरा पानी पहुँचेगी नहर
कच्छ के रन तक
बदल जायेगा थार का रेगिस्तान
हरे -भरे नखलिस्तान में
विद्युत धारा जायेगी मध्य प्रदेश
महाराष्ट्र ,गुजरात पर्यटनस्थल
सरदार सरोवर ,हरी -भरी
वादियों में सतपुड़ा की डूब की
परिधि में साढ़े छ:हजार गाँव
अड़तालीस हजार ग्रामवासी
हैं जो ,उनका क्या ?
पुनर्वसन में लपकती लोभ की
लंबी जिह्वाएँ ,चमकती लालच की सहस्त्रों शहतीरें
मिटा देतीं फर्क इंसान और
श्रगाल ,गिद्ध ,भेड़ियों में
दरकता है सरदार सरोवर
लपकती मगरमच्छों सी
राजनीति
बेदखल नागरिकों की
गरदनें दबोचने के लिए ..........
मित्रों विस्थापन अपने साथ केवल स्थानांतरण की पीड़ा लेकर नहीउ आती ,गाँव के गाँव का वजूद नेस्तनाबूत हो जाता है ,केवल भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि आदमी का वजूद भी खत्म हो जाता है।अपनी जमीन से छूटकर व्यक्ति की अस्मिता पर ही खतरा मँडराने लगता है ,उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है ,जब न तो अपने पाँव तले की जमीन और न ही सिर के उपर के आसमान से उसका कोई परिचय होता है।उसकी जिजीविषा नई पहचान बनाने के लिए कोंचती है ,लेकिन कितने समझौतों की बिना पर ,अपने स्वाभिमान को किस कदर लहुलूहान करके ?इतने पर भी ताउम्र वह विस्थापन के दर्द और दंश को सहने के लिए अभिशप्त बना रहता है ।नई जमीन से जुड़ने की हर ईमानदार कोशिश उसे अविश्वसनीयता के संशय से मुक्त नहीं करा पाती।
उन्नति का मार्ग विस्थापन ने किस तरह प्रशस्त किया है ,यह शैलेन्द्र जी की कविता बखूबी बयान करती है ।
बहरहाल मंच पर एक सामयिक और सार्थक मुद्दे पर परिचर्चा में मेरी सहभागिता स्वीकार करने के लिए आप सभी विद्वजनों का हार्दिक आभार।संतोष जी का बहुत -बहुत धन्यवाद मुझे पुन:स्वीकृति देने के लिए ।🙏🙏🙏🌷🌷😊
रुपिंदर जी +91 77729 99154: सच है रचना जी आपने अंत में बहुत मार्मिक बात कही विस्थापित किए पशु पक्षी ।विस्थापन और प्रवासी होना तथ प्लायन करना यह है तो एक ही सूत के ताने बाने किन्तु बहुत ही महीन फर्क है इनकी केवल व्याख्या का।विस्थापन अर्थात उखाड़ फैकना।प्रवास अर्थात स्व इच्छा।और पलायन अर्थात रोजी रोटी की खोज में भटकना।
मीरा श्रीवास्तव जी शैलेंद्र चौहान जी की कविता का माध्यम से विस्थापन के दुख उसके कारक उसके घटकों के पीछे का घानौना सच उसकी पीड़ा सहते निरीह ।सब कुछ तो कह दिया इस कविता ने।यह एक सम्पूर्ण परिचय है विस्थापन के शाब्दिक अर्थ का ।बहुत सुंदर विवेचन काया है आपने मीरा जी चर्चा में आपकी सक्रिय भागीदारी के लिए हार्दिक आभार।🙏🙏🙏💐💐💐😊
मीरा श्रीवास्तव जी 91 91623 09770: विस्थापन से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा के दौरान इतने सार रोचक तथ्य सामने आ रहे हैं कि मैं अपने को फिर से जोड़ने से रोक न सकी।विस्थापन सिर्फ ,राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक ,प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारणों से ही नहीं मानवीय स्वार्थ की पूर्ति के लिए भी होता है।भारतीय संयुक्त परिवार के पारंपरिक संरचनात्मक विघटन भी ऐच्छिक वैयक्तिक विघटन का कारण बना।आबादी के बढ़ते बोझ ने भी विस्थापन को पलायन के रुप में बढ़ाया।और सबसे घातक विस्थापन का शिकार मनुष्य बना आधुनिकत
की दौड़ में शामिल होकर ,दिशाहीन स्थिति में वह अपने घर में ही बेघर हो गया ।
ये सारी स्थितियाँ हमें सोचने पर विवश तो करती हैं किन्तु
प्रयास में तीव्रता लाने की आवश्यकता है।एक निश्चित दिशा में विचार विमर्श एक समाधान हो सकता है ।इस दिशा मे आपसबों के प्रयास के लिए साधुवाद ।शुभ रात्रि।
मल्लिका मुख़र्जी 91 97129 21614: आज के विषय पर मैं इतना कुछ कहना चाहती हूँ पर समय ने मार दिया। जैसे संतोष जी ने पूछा बँटवारे के समय जो शरणार्थी बने क्या वे विस्थापित नहीं कहलायेंगे ? बिलकुल कहलायेंगे जी। मेरे माता-पिता दोनों पूर्व बंगाल से शरणार्थी बन अपने परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आये जब वे जवानी की दहलीज पर क़दम रख ही रहे थे। उनकी हालत किसी वृक्ष को जड़ से उखाड़ दिए जाने की थी। उनसे मैंने बंटवारे का दर्द इतनी बार सुना कि मैंने जैसे खुद उसे झेल हो। आज वे इस दुनिया में नहीं है पर मैंने 2013 में बांग्लादेश का दौरा किया उनकी जन्मभूमि देखी। मुँह से यही गीत निकला -ओ आमार सोनार बांग्ला आमि तोमाय भालोबासी। उस धरती से मुझे भी प्यार हो गया।
Santosh Shreewastv: आस्ट्रेलिया भी पहले मात्र विभिन्न देशो के कैदियों को सज़ा देने के लिए उपयोग में लाया जा लाया जाता रहा ।इस निर्जन द्वीप में जिन जिन देशो के कैदियों ने कैद की सज़ा भोगी जब वे देश आजाद हुए तो ये कैदी उन देशो में वापस नहीं लौटे और उन्होंने ही ऑस्ट्रेलिया को बसाया ।इसीलिए ऑस्ट्रेलिया में विभिन्न देशों के लोग ,भाषा और संस्कृति मिलती है।
रुपिंदर जी 91 77729 99154: बहुत अच्छी जानकारी संतोष दी द्वारा।आस्ट्रेलिया जहां एक निर्जन टापू था आज एठ समृद्ध देश है।और बिलकुल विविधता में अनेकता का संगम मिलता है। वहाँ।धन्यवाद संतोष दी एक ज्ञानवर्धक सत्य कड प्रकाश में लाने के लिए।🙏🙏💐💐
Santosh Shreewastv: इस विषय पर डॉ गिरीराजकिशोर ने उपन्यास लिखा है " पहला गिरमिटिया" और ये पहलस गिरमिटिया था महात्मा गांधी जिन्होंने साउथ अफ्रिका से आवाज़ उठाई थी ।हमारे पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग अंग्रेज़ो ने गिरमिटिया बनाकर भेजे थे सूरीनाम ,मॉरीशस ,हॉलैंड, फीजी आदि देशो में ,जो वही बस गए और उन देशो की तरक्की में सहायक हुए।
आशा जी 91 99200 57574: सही कह रहे हो आप संतोष जी। माफ कीजिएगा सुबह से लिख नहीं पाई पर सबके पोस्ट पढ़ रही थी। विस्थापन हमेशा किसी भी प्रकार का हो दुख से किसी न किसी तरह जुड़ा होता है। पर ये ज़रूरी नहीं की उसका परिणाम भी बुरा हो। जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन हुआ कई गांव उजड़े, लाखों डर उजड़े और कई लोग मानसिक संतुलन तक खो बैठे। कौमी दंगे दिन पे दिन और भयानक होते रहे। ये उन लोगों का साहस ही था जो उन्हें उससे आगे की सोचने का हौंसला दे सका। कइयों के पास ज़रिया होते हुए भी उनके देश प्रेम ने उन्हें जाने नहीं दिया। हमारे देश के सैनिक भी अपने आप को देश के हवाले कर देते हैं। कइयों को देश भर की मिट्टी संजोए रखने के लिए अपने घर और गलियारों से दूर रहना पड़ता है। इसके बदले में उनके परिवार को सेना के संरक्षण में ऐसा माहौल मिलता है जहाँ वे उन सुविधाओं का लाभ उठा पाते हैं जो शायद उनके गांव में उपलब्ध न होती। आजकल बच्चे कौलेज होते ही आगे की पढ़ाई के लिए निकल जाते हैं और कई बार घर से दूर ही नौकरी भी लग जाती है पर विस्थापन उसके भविष्य का निर्माण करता है। इस में भी महीनों इंतज़ार में बिछी माँ की आँखें हैं और उसके हाथ के बने खाने को तरसते बच्चे।
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