Thursday, July 14, 2016



समालोचन के सोजन्य  से  कथाकार राकेश दुबे की कहानी "कउने  खोतवा में  लुकइलू " प्रस्तुत है |

इस कहानि को "उसने कहा था" के समानांतर देखा जा रहा  है |आपकी क्या राय है |क्या इस कहानी में भी "उसने कहा था" जितनी प्रेम की गहराई है ?

यह कहानी व्हाट्स अप के साहित्यिक समूह "साहित्य की बात "  जिसके एडमिन ब्रज श्रीवास्तव है पर पोस्ट की गई |जहाँ पर कहानी के कई अनछुए पहलुओं पर भी विषद चर्चा हुई | समूह की प्रतिक्रियाए सलग्न है |इसी कहानी पर आलोचक ,समीक्षक ,कथाकार राकेश बिहारी ने  विस्तृत विश्लेषण करते हुए सटीक  व्याख्या की है ,जिसके उजास में पाठक कहानी को नई द्रष्टि से देख ,समझ पाता है |समालोचन पर राकेश बिहारी के आलेख का लिंक है ....
http://samalochan.blogspot.in/2016/07/blog-post_5.html






कहानी
कउने खोतवा में लुकइलू                                       

राकेश दुबे  





वंशी काका आजकल दिन में तीन चार बार मोहन के घर जाकर यह जरूर पूछते हैं कि वह शहर से कब आएगा. उनके इस बेचैनी का रहस्य मोहन के घर वाले बखूबी जानते हैं. वे ही क्या पूरा गांव जानता है कि उनके इस तरह से बेचैन होने का क्या मतलब है. मोहन के घर वाले मुस्कराते हैं ‘काका इस बार तो मोहन महीने भर बाद ही घर आएगा.’

उनके इस जवाब पर तड़प उठते हैं काका ‘लेकिन वह तो हर शनिवार को घर आता है.’
आता तो है लेकिन इस बार परीक्षा की वजह से नहीं आएगा.

अरे कौन सी कलेक्टरी की परीक्षा है जो एक दिन घर आने से खराब हो जाएगी. झल्लाते हैं वंशी काका. काका की झल्लाहट का मतलब साफ है. मोहन शहर जाते समय जरूर उनको छूकर चला गया होगा.अब जब तक वे भी मोहन को छू नहीं लेंगे ऐसे ही बेचैन रहेंगे.

वर्षों हो गये यदि कोई वंशी काका को छू ले तो जब तक वे उसे दुबारा छू न लें चैन नहीं आता उन्हे. वे ऐसा क्यों करते हैं किसी को इसका ठीक ठीक कारण नहीं पता है लेकिन अनुमान सबके पास है. किसी के लिए यह मानसिक बिमारी है तो किसी के लिए भूत प्रेत का साया. कारण चाहे जो भी हो पर काका की इस आदत ने बच्चें को मनोरंजन का एक नया साधन दे दिया है. वे काका को छूकर भाग जाते हैं काका उन्हे छूने के लिए उनके पीछे जी जान से दौड़ लगा देते हैं. कई बार उन बच्चों को न छू पाने की कातरता उनकी आंखो से आंसुओं के रूप में दिखने लगती है.बच्चे जल्दी ही सबकुछ भूल दूसरे काम में लग जाते. उन्हे आश्चर्य तब होता जब दो चार दिन बाद आचानक काका उन्हे छूकर धीरे से मुस्करा उठते ‘देखा. मैने तुम्हे छू लिया.तुम उस दिन मुझे छूकर भाग गये थे.’ उस समय उनके चेहरे की खुशी देखने लायक होती. धीरे धीरे पूरा गांव उनकी इस आदत से परिचित हो गया. अब तो नात रिश्तेदार भी जान गये हैं. बच्चों के साथ साथ बड़े बूढ़े भी अब मजे लेकर उनकी इस आदत का जिक्र करते हैं.

उनकी इस आदत के अलाव बच्चे उन्हे एक और बात के लिए तंग करते हैं. जब भी वे उन्हे एकांत में पाते हैं घेर कर खड़े हो जाते हैं ‘काका.गाना सुनाइए न.’
चुप ससुर नहीं तो. गाना सुनाइए.अपने बाप से क्यों नहीं कहते गाना सुनाने को. काका डपट देते.

काका अगर गाना नहीं सुनाओगे तो हम तुम्हे छूकर भाग जाएंगे. बच्चे अपना आखिरी और सबसे मजबूत दांव आजमाते.

इस दांव पर काका हमेशा ही हथियार डाल देते हैं. वे तुरत पालथी मार कर बैठ जाते हैं जैसे पूजा की तैयारी कर रहे हों. बच्चे भी उन्हे चारो ओर से घेरकर बैठ जाते हैं. सभी यह जानते हैं कि बाबा वही गीत सुनाएंगे फिर भी सब दम साधे रहते हैं.अनगिनत बार वे यह गीत सुन चुके हैं लेकिन जब भी काका यह गीत सुनाते हैं गाँव का उदंड से उदंड बच्चा भी भाव विभोर हो उठता है. बाबा की आवाज वातावरण को बेध उठती है

‘कवने खोतवा में लुकइलू अहि रे बालम चिरई.’ वर्षों से बाबा केवल यही गीत गाते हैं.एक अजीब सी तड़प होती है उनकी आवाज में. कभी कभी तो रात के बारह बजे जब पूरा गांव दिन भर की मेहनत के बाद गहरी नींद सो रहा होता है काका की तड़पती टेर न जाने कितने कलेजों में कसक पैदा कर जाती.

लेकिन गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि वंशी कभी और भी गाने गाते थे. वे उनकी उठानी के दिन थे. बहुत जल्दी ही उनकी आवाज का जादू गांव जवार के सर चढ़कर बोलने लगा. वे देखते देखते ही गांव की कीर्तन मंडली की शान बन गये.कसा हुआ सलोना शरीर कंठ में साक्षात् सुरसती का वास.वे जब भी कहीं बाहर गाने जाने को तैयार होते मां सर और गले पर काजल का टीका जरूर लगातीं. वंशी कई बार झल्ला उठते ‘अब मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूँ जो किसी की नजर लग जाएगी.’

मां मुस्कराती ‘तुम कितने भी बड़े हो जाओ लेकिन मेरे लिए तो बच्चे ही रहोगे. तुम्हे क्या पता है एक से एक जादूगरनियां हैं एक नजर से ही ऐसा गला बांध देती हैं कि सांस नहीं निकलती. वंशी चुप होकर हौले से मुस्कराने लगते. जब वे गांव के शिवाले पर ढोल और मजीरे की थाप पर ‘तुहरे सरनियां में बानी सुन हे भोला अवढर दानी’ का आलाप लेते तो बड़ी बूढ़ी औरतों के तमाम पहरे के बावजूद अनगिनत खिड़कियां खुलने की जिद कर बैठतीं.

गांव वालों को अब होली का बेसब्री से इन्तजार है.इस बार होली पर फाग्ाका मुकाबला पड़ोस के गांव बीरपुर में होना है.इन दोनों गांवो का सम्बन्ध भारत पाक सम्बन्धो की याद दिलाता है. खेल हो संगीत हो या मेड़ डांड़ का मसला हो हर जगह एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता है. होली के दिन फाग के मुकाबले की परंपरा वर्षों पुरानी है जो एक साल इस गांव में तो दूसरे साल बीरपुर में होता है.फाग के रूप में बकायदा जंग. साल भर गवइयों की टोली केवल इसी दिन के लिए रियाज करती है. विजेता की औपचारिक घोषणा न होने के बावजूद यह पता चल ही जाता है कि कौन बीस रहा.प्रतिद्वंदिता के बावजूद श्रेष्ठता पर वाह वाह करने का कलेजा गांव की विशिष्टता है.

गांव के लोग मन ही मन यह स्वीकार करते हैं कि बीरपुर वाली टोली अच्छा गाती है.लेकिन इस बार वंशी की गायकी देखकर उनके मन में उत्साह है.वंशी जैसा गवैया उनकी टोली में नहीं है.वह अकेले पूरे गांव पर भारी पड़ेगा. माना कि मुकाबला उनके गांव में है लेकिन अच्छी गायकी का वे भी सम्मान करते हैं. प्रधान जी ने ऐलान कर दिया है ‘अगर बीरपुर में झण्डा गड़ गया तो पूरी टोली को पंचायत की ओर से दावत.’

वंशी भी उत्साहित है. नहा धोकर सबेरे ही काली माई के चौरे पर कपूर जला आया ‘माई लाज रखना. मर्द की जान भले ही चली जाए लेकिन शान नहीं जानी चाहिए. पानीदार मरद का जीवन शान के बिना मृतक के समान होता है. पगड़ी की लाज रखना माई.’

पेट्रोमैक्स की रोशनी में समूचा बीरपुर नहाया हुआ है. बुजुर्ग चारपाई पर तो बच्चे और जवान नीचे ही बैठकर मुकाबले का मजा ले रहे हैं. एक किनारे औरतों की मण्डली भी जमी हुयी है. मुकाबला अब तक बराबरी का ही चल रहा है.

वंशी के उठते ही माहौल में गरमी आ गयी. उसकी गायकी की खबर बीरपुर में भी पहुँच चुकी है. वे जानते हैं कि यह मुकाबले का निर्णायक दौर है. वंशी ने मन ही मन काली माई का सुमिरन किया फिर भीड़ का जायजा लेना शुरू कर दिया. आचानक उसकी नजर औरतों की टोली में ठहर गयी. एक चेहरे ने मानो उसे बांध ही लिया. उसने कोशिस किया वापस आने का लेकिन सफलता नहीं मिली. भीड़ का उत्साह चरम पर था.

वंशी को चुहलबाजी सूझी. नजरों से ही पूछ लिया ‘का गुइयां.साथ दोगी.’
नजरें मुस्कराईं ‘गांव से दगा नहीं कर सकती.’
वंशी के होठ फड़के ‘लड़की का असली गांव तो ससुराल का होता है न.’
उधर भी होठ बुदबुदाए ‘इतनी जल्दी.पहले जीतो तब सोचेंगे.’
दिल धड़क उठा वंशी का ‘तो इसे स्वयंवर समझे.तुम हार जाओगी.’
धड़कन ही इठलाई ‘देखेंगे.’
वंशी ने खुद को संयत किया सुर का संभाला और आलाप लिया

‘तुहरे झुलनी के कोर कटारी जान हति डारी.
कि झुलनी तू नइहर पवलू कि पवलू ससुरारी.
कि झुलनी कोई यार गढ़ावत कि कइलू सोनरवा से यारी जान हति डारी.’’

गांव के लोगों ने वंशी को कंधे पर उठा लिया. काली माई की जय महावीर स्वामी की जय से वातावरण गूंज उठा. वंशी ने मैदान मार लिया. बीरपुर के लोगों ने भी खुले मन से बधाई देना शुरू कर दिया. लेकिन भीड़ में घिरा वंशी किसी और को ही तलाश रहा था.
जाते जाते चेहरे ने पलट कर देखा. वंशी मुस्कराया ‘वादा याद रखना गुइयां.तुम हार गयी.’
चेहराया मुस्कराया ‘तुम सचमुच जीत गये.’

पूरा गांव इस जीत से उत्साहित है.वर्षों बाद पड़ोसी गांव के सामने सर उंचा करके चलने का मौका आया है.पंचायत की ओर से कीर्तन मंडली को दावत दी गयी.वंशी के लिए तो प्रधान जी विशेष रूप से शहर जाकर जींस की पैंट और टी शर्ट लाए.वंशी गांव का नया हीरो हो गया है लेकिन यह केवल वंशी को पता है कि वह हार गया है.उसे ऐसा लग रहा है जैसे वह उस रात वापस ही नहीं आ पाया.रात को जब भी सोना चाहता है दो उदास आंखे सामने खड़ी हो जाती हैं ‘हमने तो तुम्हे अपना मान लिया है.कहीं तुम वादा भूल तो नहीं जाओगे.’

वंशी करवट बदलता है ‘तुम्हे भूल ही तो नहीं पा रहा हूँ गुइयां. पर तुम्हे ढूंढे भी कहां. नाम तो तुमने बताया ही नहीं अपना.’

‘बुद्धू तुमने पूछा भी कब.’
पूछता कैसे. तुम इतनी भीड़ में जो थी.

वंशी बेचैन हो उठता.यह बेचैनी हर दिन बढ़ रही थी. मंडली वाले साफ महसूस कर रहे थे कि बीरपुर से आने के बाद वंशी बेमन हैं. अब वे श्रृंगार में भी विरह का आलाप लेने लगे हैं. घर के किसी काम में मन नहीं लगता.लोग सोच में हैं.क्या यह वही वंशी है जो मिलने पर घंटो इधर उधर की बातें करता.कई बार तो लोग झुंझला उठते ‘अरे भाई तुमको को तो कोई काम धाम है नहीं हमें बहुत काम करना है.’

वंशी मुस्कराकर कहता ‘कभी हम भी काम करेंगे.’ आज वही सामने से इस तरह निकल जाता है जैसे देखा ही न हो. आजकल उसका अधिकांश समय बीरपुर के सिवान पर ही बीतता है. अकेले सिवान पर बैठे बैठे वह बीरपुर की ओर न जाने क्या एकटक निहारता रहता है.कई बार अकेले ही बड़बड़ाता है ‘यह तुमने क्या किया वंशी.कहां दिल लगा बैठे.न नाम पूछा न पता.पता नहीं उसे तुम्हारी परवाह भी है या नहीं.कहां परवाह है. परवाह होती तो इस तरह से आराम से घर में थोड़े ही बैठी होती.जरूर किसी न किसी माध्यम से खबर भेजती.लेकिन खबर भेजती भी तो कैसे.जब वह मर्द होकर खबर नहीं भेज पाया तो वह बेचारी.वंशी आलाप लेते हैं

‘मंदिर से मस्जिद ले ढूंढली गिरिजा से गुरूद्वारा
काशी से मथुरा ले ढूंढलीं ढूंढलीं तीरथ सारा
पंडित से मुल्ला ले ढूंढली ढूंढलीं घरे कसाई
सगरी उमरिया छछनत जियरा कंहवा तुहके पांई कवने बतिया पर कोंहइलू अहि रे बालम चिरई.’’

राप्ती की बाढ़ सचमुच इस साल कहर ढाने पर आमादा है. हर तरफ पानी ही पानी. सारी फसल बर्बाद. गांव के लोग बिल्कुल खाली. जब फसल ही नहीं तो काम क्या करेंगे. कल तो पानी गांव में भी प्रवेश कर गया. पांड़े चाचा बताते हैं कि पिछले 25 सालों में यह पहला मौका है जब राप्ती का पानी गांव में पहुँचा है. सभी बंधे पर शरण लिए हैं. बाढ़ ने समाजवाद ला दिया है. वंशी मन ही मन मुस्कराता है. जय हो राप्ती मइया. तुम्हारी लीला अपरंपार है. एक झटके में दूबे चौबे यादव हरिजन सबको बराबर कर दिया.थोड़े से जगह में पूरा गांव.किसी के छूने से किसी का धरम नहीं बिगड़ रहा है.

वंशी के खुश होने का एक और भी कारण है जिसे वह किसी से भी जाहिर नहीं करता.बाढ़ के कारण बीरपुर के लोग भी इसी बंधे पर आ गया है. और वे जाते भी कहां. जीवन की चाह सभी मान सम्मान पर भारी पड़ती है और जीवन फिलहाल इसी बंधे पर है.वंशी उत्साहित है. यही मौका है उसे ढूंढ़ने का.ढूँढ़ लो अपनी गुइयां को.

पूरे बंधे पर केवल प्लास्टिक के तंबू नजर आ रहे हैं जैसे विशाल जलराशि में तमाम नौकाएं तैर रही हों. औरतें बच्चे बूढ़े सभी उसी बरसाती में.दोनों गांवो के बीच की दीवारें भी तमाम चीजों के साथ इसी जल में विलीन हो गयी हैं. वर्षों बाद यह देखने को मिला है जब दोनों गांवो के लोग एक साथ मिलकर राप्ती मइया की प्रार्थना कर रहे हैं ‘हम वर्षों  से तुम्हारी छांव में जीवन बसर करते रहे हैं. तुमने हमेशा हमें माँ की तरह प्यार दिया है अब हमसे कौन सी ऐसी गलती हो गयी है जो तुम इस तरह से नाराज हो गयी हो.’

बनवारी यादव खांसते खांसते बोल उठते हैं ‘धरती पर जितना ही अधरम बढ़ेगा उसका यही परिणाम होगा.परलय आखिर इसी को तो कहते हैं.’

सुदामा समर्थन करते हैं ‘ठीक कहते हो बनवारी भाई.जहां देखो वहीं झूठ फरेब और मक्कारी.आदमी आदमी का गला काटने में लगा हुआ है.यह तो केवल चेतावनी भर है आगे आगे देखो होता क्या है.’

तमाम परेशानियों के बावजूद नौजवान खुश हैं.कोई काम नहीं सिर्फ दिन भर की तफरी.सबेरे से ही बोरियां बिछाकर ताश की अलग अलग टोलियां जम जाती हैं.मजीद मास्टर का हृदय परिवर्तन उन्हे आश्चर्य चकित कर रहा है.नाव पर सवार होकर कस्बे से गुटखा लाते हैं.आम दिनों में अपने बाप को भी उधार देने से मना करने वाले मास्टर आजकल किसी को भी मना नहीं कर रहे हैं.जिसके पास नहीं भी पैसा है उसे भी.पूछने पर मुस्करा देते हैं ‘अब इसमें क्या हिसाब रखना.जो बचेगा वह जोड़ेगा.कोई लेकर थोड़े ही जा पाएगा.’मजे की बात यह कि आम दिनों में उधार न देने पर मास्टर को गालियां देने वाले आजकल उधार लेने से बच रहे हैं ‘कौन जाने जिन्दा भी रहें या नहीं.फिर किसी का उधार खाकर क्या मरना.’

ताश और गुटखे की जुगलबन्दी. मजा यह की कोई टोकने वाला भी नहीं.और दिन होता तो गालियों से कान पक जाते ‘ससुरे आवारा हो गये हैं. न कोई काम न धाम. जब देखो तब ताश.इन तशेड़ियों ने गांव का माहौल खराब करके रख दिया है.’शिवपूजन मिसिर का यह रटा रटाया जुमला है जिसे सुनने की आदत हर नौजवान को है.आजकल वही शिवपूजन मिसिर अक्सर कहते सुने जाते हैं ‘लड़के भी बेचारे क्या करें. अब कोई काम धाम भी तो नहीं रह गया है.अब ताश भी न खेलें तो कहां जाएं.

सूरज के मगन होने के अपने कारण हैं. वह रोज राप्ती मइया का धन्यवाद देता है ‘हे मइया.पूरे महीने ऐसे ही कृपा रखना. कहां रधिया से मिलने के लिए दिन रात जुगत भिड़ानी पड़ती थी कई कई दिन चक्कर लगाने के बाद भी देखना नसीब नहीं हो पाता था और आज्कल राप्ती मइया की कृपा से बिल्कुल बगल में ही उसकी बरसाती है. रधिया इतनी नजदीक है कि वह रात को उसकी धड़कन को भी साफ साफ महसूस कर सकता है. गांव के तमाम प्रेमी प्रेमिकाओं की आजकल चांदी है.

शाम होते ही कीर्तन मंडली जम जाती है. समय जो काटना है.दोनो गांवो के लोगो को एक साथ गाते हुए देखना सबको सुखद लगता है. देर रात तक ढोल मजीरों की थाप पर जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी को ठेंगा दिखाते देखना किसी के लिए भी आश्चर्यजनक हो सकता है पर यहां के लोगों के लिए यह स्वाभाविक सा ही है.वंशी की कमी जरूर सबको खलती है. उसे पता नहीं आजकल क्या हो गया है मंडली में शामिल ही नहीं होता. बहुत कहने सुनने के बाद यदि आता भी है तो बस चुपचाप बैठा रहता है. उसे तो आजकल समाजसेवा का धुन सवार है. दिन भर समाजसेवी संस्थाओं की गाड़ियों की बाट जोहता रहता है.खाने के पैकेट दवाइयां कपड़े इकट्ठा करता है फिर शाम को घर घर घूम कर बांटता है. बड़े बूढ़े उसकी इस लगन से गदगद् हैं ‘वंशी बहुत समझदार और संवेदनशील लड़का है.जब गांव पर इस तरह की विप़त्ति आयी हो तो भला गाना बजाना कैसे किया जा सकता है.गीत गवनई तो उछाह का मामला है.उ न्हे इस बात का थोड़ा जरूर मलाल रहता है कि वंशी अपने गांव से अधिक बीरपुर का खयाल रखता है.

तुम वंशी हो ना. ’छोटी बच्ची के इस सवाल पर वंशी अचकचा गया.
हां लेकिन तुम्हे कैसे पता.’
क्योंकि मुझे सोना दीदी ने बताया था.’
अच्छा. लेकिन तुम्हारी सोना दीदी मुझे कैसे जानती हैं.
क्योंकि तुम चोर हो.
क्या तुम्हारी सोना दीदी पुलिस हैं.
नहीं.
फिर वह मुझे कैसे जानती हैं.
क्योंकि तुमने उनका कुछ चुरा लिया है.
अच्छा.क्या चुराया है मैने तुम्हारी सोना दीदी का.
यह तो मुझे नहीं पता लेकिन वह जरूर कोई कीमती चीज ही होगी.
तुम्हे कैसे पता.
वह इतना उदास जो रहती है आजकल.
अच्छा.लेकिन तुम्हारी सोना दीदी रहती कहां हैं.

बच्ची ने एक बरसाती की ओर इशारा किया.

वंशी मुस्कराया ‘और क्या बताया तुम्हारी सोना दीदी ने मेरे बारे में.
यही कि शायद आजकल तुम भी कुछ उदास रहते हो.
यह कैसे पता चला तुम्हारी दीदी को.
आजकल तुम गाना जो नहीं गाते हो.

वंशी का मन कर रहा था कि वह उस बच्ची से खूब बातें करे लेकिन बच्ची तो भाग गयी.वंशी मुस्कराया ‘अब तो गाना ही पड़ेगा गुइयां.’
उस रात वंशी का अलाप चरम पर था

‘जब रात रही बाकी कुछहूँ छिप जाई अंजोरिया आ जइह.
वोही जगहा पर मिलब हम बनि ठनि के गुजरिया आ जइह.
कहीं वादा कइल तू भुलइह ना आवे के बेर लजइह ना
बड़ा दिन भइल देखला तुहके देखब भरि नजरिया आ जइह

कोई कितना भी गा ले लेकिन वंशी की बात ही और है. वह कलेजे से जो गाता है.
चारो तरफ राप्ती का पानी. आकाश में अलसाता हुआ चन्द्रमा और हर ओर निस्तब्धता.केवल दो जोड़ी आंखे थी जिनमें जीवन की सबसे गहरी चमक थी. आज अगर नींद आ गयी तो पूरे जीवन सोना मुश्किल हो जाएगा.

ऐसे क्या देख रहे हो.
देख रहा हूँ कि इतनी सुन्दर होकर भी तुम इतना निर्दयी कैसे हो सकती हो.
अच्छा. अब हमीं निर्दयी भी हो गये. तुम्हे तो हमारी इतने दिनों तक याद भी नहीं आयी.
हम तुम्हे भूले ही कहां थे जो याद करते.
बातें बनाना तो कोई तुमसे सीखे.
तुम्हारी कसम गुंइया.
हम नहीं मानते.इतना ही प्रेम था तो आ न जाते.
मैं तो रोज सिवान पर तुम्हारी राह देखता था.
ससुराल के सिवान में ऐसे ही थोड़ी आया जाता है.
अब तो आओगी न.
देखेंगे.
क्या तुम्हे हमारी जरा भी परवाह नहीं है.
तुम्हे हमारी है.
बातें समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थीं और रात थी की दौड़ी ही चली जा रही थी.
तुम हमे भूल तो नहीं जाओगे.
खुद को भूल जाऊंगा पर तुम्हे नहीं.
अगर मैं नहीं मिली तो.
इसी राप्ती मइया की धारा में छलांग लगा दूँगा.
सोना ने तड़पकर अपना हाथ वंशी के मुंह पर रख दिया ‘खबरदार जो ऐसी बातें दुबारा की तो.कसम है हमारी.राधा जी को कहां मिले किसन जी.तो क्या उन्होने जान दे दिया.परेम का अर्थ केवल मिलना ही थोड़े ही होता है.हम मिले या न मिले लेकिन जान कोई नहीं देगा.
वंसी अपलक निहार रहा थासोना को.
ऐसे क्या देख रहे हो.
देख रहा हूँ कि तुम कितनी समझदार हो.
धत्.अच्छा मैं अब चलती हूँ.
कल आओगी.
देखूँगी.
मैं यहीं इन्तजार करूंगा.

सोना नहीं आयी. सारी रात इन्तजार करता रहा वंसी.अगले कई रातों तक भी.कहीं नाराज तो नहीं हो गयी.
सोना दीदी तो अपने मामा के घर चली गयीं.’छोटी बच्ची की इस खबर से वंशी सन्न रह गया.
कब.
कई दिन हो गये.
क्यों.

उसके मामा के गांव में बाढ़ जो नहीं आती.अब वह बाढ़ खतम होने पर ही आाएगी.
वंशी उसी जगह उदास बैठा है ‘जाना ही था तो आयी क्यूं थी गुंइया.’ भीग आयी आंखो की कोर को पोछते हुए वंशी मुस्करा उठा ‘तुम्हारा छूना ही आज से मेरी पूंजी है. मैं इसे जीवन भर संभाल कर रखूंगा.’

महीनों लग गये राप्ती का पानी कम होने में.सोना की शादी उसके मामा ने अपने घर से ही कर दिया यह खबर वंशी को भीतर तक उदास कर गयी.अब वह न किसी से बोलता है न हंसता है. गाना तो कबका भूल गया है. बस गुमसुम सा बैठा रहता है. कई बार तो अकेले सिवान में बैठा बैठा खुद से ही बातें करने लगता है.जरूर किसी चूड़ैल का साया पड़ गया है. चूड़ैलें अक्सर नौजवानों को ही अपना शिकार बनाती हैं. रामसमुझ मिसिर के पास इस तरह की कहानियों का भण्डार है ‘जान लो बच्चा.आसमान में सुकवा निकल आया था.हम पड़ोस वाले गांव से नाच देखकर अकेले ही चले आ रहे थे. अकेले थे सो मस्ती में गा भी रहे थे.गांव के पूरब वाले पीपल के पास पहुंचे तो क्या देखते हैं कि सफेद कपड़ों में खूब सुन्दर लड़की बैठी हुयी है. हमारे तो हाथ पांव फूल गये.मन ही मन हनुमान जी का सुमिरन करने लगे.उसने हमसे कहा ‘डरो मत.हमे तुम्हारा गाना सुनना है.’

हमें तो काटो तो खुन नहीं. मरता क्या न करता. सो गाना शुरू किया. गाते गाते कब आंख लग गयी पता भी नहीं चला.आंख खुली तो दिन चढ़ आया था. लड़की गायब थी. घर आते ही बुखार ने ऐसा पकड़ा कि पूछो मत. महीनो दवाई खाई. कोई फायदा नहीं. फिर पीर बाबा से दुआ कराया तब जाकर जान छूटी.’

वंशी न तो पीर बाबा की दुआओं से ठीक हुए नहीं सोखा ओझा की झाड़ फूँक से.अम्मा का रोते रोते बुरा हाल था.एक वंशी ही सहारा था उसे भ ीन जाने किसकी नजर लग गयी.वंशी ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली थी जिसमें वह खोते ही चले जा रहे थे.

जिस रात अम्मा को काले नाग ने डसा वंशी बंजारों की टोली में बैठे हुए थे.जबसे बंजारे गांव में आए हैं वंशी को उनके साथ बैठना अच्छा लगता है.अम्मा उन्हे बराबर मना करती ‘ये लोग तमाम जादू टोना जानते हैं. अभी गधे ने कम ही खेत खाया है.अगर फिर से कुछ हो गया तो कहीं के न बचोगे.’ लेकिन वंशी को बंजारे अच्छे लगते हैं. उनका खुलापन उन्हे आकर्षित करता है.कोई परदा नहीं नहीं कोई भेद भाव.काश कि वे भी बंजारा होते तो आज सोना उनके साथ होती.

गांव में कोहराम मच गया.वंशी घर की ओर भागे. अम्मा का शरीर नीला पड़ गया था और मुँह से झाग निकलने लगा था. एक बंजारा जानता था सांप का विष उतारना.वह घंटो कोशिस करता रहा.सब बेअसर. कौड़ी फेंकनी पड़ेगी. यह अन्तिम उपाय है.यह कौड़ी उस सांप को खीच कर लाएगी.वही विष खींचेगा.लोग दम साधे देख रहे थे.यह सबके लिए नया अनुभव था.भला मंत्र और कौड़ी के प्रभाव से सांप आएगा.लेकिन सांप आया.उसके फन पर दोनो कौड़ी चिपकी हुयी थी. लोग हैरान रह गये.काला भुजंग नाग.सांप अम्मा के पैरो के पास घूमने लगा. बंजारा कभी मंत्र पढ़ता कभी सांप का मनुहार करता.वंशी लगातार रोए जा रहे थे ‘अम्मा .तुम भी मुझे छोड़कर चली जाओगी.’

सांप ने एक बार उस स्थान पर मुंह लगाया जहां डंसा था लेकिन अगले ही पल मुड़ा और वापस चला गया.बंजारे ने आंखे खोल दी ‘देर हो गयी.तुम्हारी अम्मा जा चुकी है वंशी.

वंशी के चित्कार से पूरा गांव हिल उठा.सबकी आंखे नम थी.भगवान ऐसी विपत्ति किसी को न दे.

अम्मा के क्रिया कर्म के बाद एक शाम वंशी सांप झाड़ने वाले बंजारे के सामने बैठे थे ‘मैं सांप का विष उतारने वाला मंत्र सीखना चाहता हूँ.’

बंजारा मुस्कराया ‘क्यों.इसमें खतरा बहुत है.’
वैसे भी मुझे जीवन से बहुत प्रेम नहीं रह गया है गुरूजी लेकिन मैं चाहता हूँ कि किसी और की अम्मा अब सांप के जहर का शिकार न हो.मुझे जीने का एक मकसद भी मिल जाएगा.’वंशी उसके पैरों की तरफ झुकते चले गये ‘अब आपको गुरू मान लिया है.जब तक हां नहीं कहेंगे हटूंगा नहीं.

वंशी का जीवन के प्रति उपेक्षा का भाव उनके मंत्र सीखने में लाभदायक सिद्ध हुआ.खतरनाक से खतरनाक सांप को भी सामने देखकर उनके मन में जरा भी सिहरन नहीं पैदा होती.गुरू उनके इस निडरता पर मंत्रमुग्ध हो जाते ‘सांप का जहर उतारने में निडरता बहुत जरूरी है.तुम मुझसे भी बड़े ओझा बनोगे.’

वंशी एक फीकी हंसी हंस देते ‘डरता तो वह है जो जीना चाहता है.’

गूरू जी की मृत्यु के बाद वंशी जब गांव लौटे तो सांप का विष उतारने में महारत हासिल कर चुके थे.उनके इस हुनर ने गांव वालों को एक दिलासा दिया.वंशी काका के रहते कोई सांप के डसने से नहीं मर सकता.वंशी ने अब तक उनके भरोसे को बनाए रखा है.अब तो दूसरे गांवो से भी लोग आने लगे हैं.काका इसी एक काम को अब भी पूरे लगन से करते हैं.रात विरात दिन दुपहरिया जब भी कोई सांप का काता मरीज आता है वे चाहे जिस स्थिति में हों तत्काल उसके इलाज में लग जाते हैं. बाकी कोई काम करने क ीन तो उन्होने कोशिस क ीन ही जरूरत पड़ी.

इधर वे किसी के छूने को लेकर ज्यादे ही संवेदनशील हो गये हैं.बेचैन हो जाते हैं अगर कोई उन्हे छू ले और वे उसे न छू पाएं तो.कई बार तो आंखो से आंसू तक बहने लगते हैं.

गांव वाले उनकी इस दशा से दुखी हैं क्योंकि उनका होना गांव जवार के लिए बहुत जरूरी है. कुछ पढ़े लिखे लोगों का मानना है कि वे किसी मानसिक अवसाद के चलते ऐसा कर रहे हैं. आजकल इसकी दवा बाजार में उपलब्ध है.वे ठीक हो सकते हैं.

प्रस्ताव को सुनते ही काका आगबबूला हो गये ‘सालों.पागल तुम तुम्हारा बाप तुम्हारा सारा खानदान.मैं बिल्कुल ठीक हूं और किसी डॉक्टर के पास नहीं जाऊंगा.’
प्रधान जी और गांव के तमाम बुजुर्गों के बहुत समझाने पर काका किसी तरह तैयार हुए.शहर के एक नामी चिकित्सक को दिखाया गया.उसकी दवा से कुछ आराम जैसा लगता है.

तीन महीने बाद डॉक्टर ने मुस्कराते हुए काका के पीठ पर हाथ रखा ‘अब आप बिल्कुल ठीक हैं.अब आपको किसी दवा की जरूरत नहीं है.’डॉक्टर अपने केबिन में चला गया.

जीप जैसे ही स्टार्ट हुयी काका चिल्लाए ‘जरा रूकना.डॉक्टर बाबू से एक बात पूछना तो भूल ही गया.’

काका दौड़कर डॉक्टर के पास पहुँचे और उसकी पीठ पर हाथ रखकर मुस्कराए ‘तुमने ठीक कहा बेटा. अब मैं बिल्कुल ठीक हो गया हूँ.’और झटके से बाहर निकल गये.
डॉक्टर मुस्कराने लगा.

आज शाम से ही काका बेमन हैं. खाने में भी मन नहीं लग रहा है. घंटो से करवट बदल रहे हैं लेकिन नींद आंखो में दूर दूर तक नहीं है.आज पता नहीं क्यों तमाम पुरानी बातें याद आने लगी हैं. अम्मा राप्ती की बाढ़ एक छोटी सी बच्ची और सोना भी.

प्रधान जी की आवाज पर चौंके काका.इतनी रात को.कहीं किसी को सांप ने तो नहीं डस लिया.

‘काका. डुमरी के ठाकुर साहब की पत्नी को नाग ने डंस लिया है. वे लोग बाहर खड़े हैं.’प्रधान जी की आवाज पर काका झटके से बाहर आ गये. ठाकुर साहब इलाके के बड़े जमींदार है. गाड़ी घोड़ा नौकर चाकर सबकुछ है. काका ने मरीज को गाड़ी से बाहर निकालकर चौकी पर लिटाने को कहा. ठाकुर साहब बेचैन थ ‘मेरी बीबी को बचा लो वंशी अब तुम्हारा ही आसरा है.’

‘आप चिन्ता मत कीजिए ठाकुर साहब. गुरू की रहमत और उपर वाले का आशीर्वाद रहा तो मालकिन बच जाएंगी.’ काका नब्ज देखने के लिए झुके.

नब्ज छूते ही उनके शरीर में एक अजीब सी झनझनाहट होने लगी. काका आंखे बंद किए देर तक मौन रहे. फिर न जाने क्यों मुस्करा उठे. यह पहली बार है जब वे किसी मरीज को सामने देखकर मुस्करा रहे हैं वरना मरीज के परिजनों से अधिक सांप काटे मरीज को देखकर वे दुखी होते रहे हैं. कई बार तो रोते भी देखे गये हैं. शायद हर मरीज उन्हे माँ की याद दिलाता हो या फिर कुछ और. लेकिन मुस्कराते तो किसी ने उन्हे नहीं देखा.फिर आज क्या हो गया है काका को. गुरू जब किसी को सांप का जहर उतारने वाला मंत्र देता है तो यही वादा कराता है कि किसी भी स्थिति में रहोगे अगर सुन लिया कि किसी को सांप ने काटा है तो जरूर जाना होगा.

काका ने जल्दी से एक लड़के को अपने घर के भीतर से पीतल की थाली लाने को कहा.गांव के लोग जानते हैं कि अगर किसी को सांप ने काटा या छुआ है तो थाली उसके पीठ पर चिपक जाएगी.

थाली ठकुराइन के पीठ पर चिपक गयी. मतलब सांप ने छुआ नहीं बल्कि काट लिया है.काका हाथ में मिट्टी लेकर मंत्र पढ़ते हैं और थाली पर मिट्टी से मारते हैं.जैसे ही मिट्टी थाली पर पड़ती है ठकुराइन का शरीर लहराने लगता है.गांव के लोग काका को देखते देखते पूरी प्रक्रिया को समझ चुके हैं. यह ‘लहर’ है.जितनी अधिक लहर हो मतलब सांप उतना ही जहरीला.लेकिन आज सबकुछ सामान्य नहीं लग रहा है.जितनी ‘लहर’ ठकुराइन के शरीर मे उठ रही है उससे अधिक काका लहरा रहे हैं. लेकिन काका आज तक कभी हारे नहीं हैं. जहर जैसे उनका आदेश मानता हो.देर भले लग जाए लेकिन उसे शरीर से उतरना ही होगा.

इधर पढ़े लिखे लोगों की जमात बढ़ने से कुछ नयी व्याख्याएं भी सामने आयी हैं. कुछ लोग कहते हैं कि पीतल में ऐसा गुण होता है कि वह जहर को खींच लेता है. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यह मानते है कि वास्तव में आदमी साँप के जहर से नहीं बल्कि डर से मर जाता है इसलिए जब काका मंत्र पढ़ते हैं तो उनका भय समाप्त हो जाता है और वे बच जाते हैं.

काका मिट्टी पर फूँक मारते मारते खुद बेदम होने लगे हैं.लहर बढ़ती ही जा रही है लेकिन ठकुराइन की हालत में सुधार नहीं आ रहा है.क्या आज वह हो जाएगा जो वर्षों से नहीं हुआ.काका की बादशाहत खतम हो जाएगी.आचानक ठकुराइन्ा का शरीर बहुत जोर से लहराया.यह अब तक की सबसे तेज लहर थी.इतनी तेज कि ठकुराइन को पकड़ने वाले लोग उन्हे संभाल नहीं सके और उनके सिर से साड़ी पूरी तरह सरक गयी. चांदनी रात जैसे जवान हो गयी हो.इस उमर में और सांप के विष के बावजूद ऐसा लावण्य.काका ने ध्यान से मरीज के चेहरे की ओर देखा.आंखे सिकुड़ गयीं.लोग दम साधे हुए थे. काका दौड़ कर घर के भीतर चले गये. लोग सन्न रह गये. आज तक काका किसी मरीज को छोड़कर नहीं गये. ठाकुर साहब दहाड़ मारने लगे.गांव के लोग कुछ समझ पाते इसके पहले काका को देखकर जान में जान आई. लेकिन यह क्या.काका बरषों पुरानी मुड़ी तुड़ी जिंस और टी शर्ट पहने हैं. नौजवान हंसी रोकने की लगातार कोशिस कर रहे हैं. काका ने ठाकुर साहब के कंधे पर हौले से हाथ रखा ‘चिन्ता मत कीजिए ठाकुर साहब. यमराज को भी आज हारना ही पड़ेगा.’

काका ने जेब से एक ब्लेड निकाला और कांपते हाथों से उस जगह हल्का चीरा लगाया जहां सांप ने डंसा था. फिर मुंह लगाकर खुन चूसने लगे.खुन का घूँट मुँह में भरकर थूकते फिर खींचते. लोग चिन्तित हो उठे हैं. यह तरीका तो बहुत खतरनाक है.  इसमें काका की जान भी जा सकती है. काका आज तक केवल मंत्र से ही जहर उतारते रहे हैं.यह तो जान की बाजी लगाने जैसा है. कुछ लोग उन्हे रोकना भी चाह रहे हैं.लेकिन वे जानते हैं कि काका जिद के कितने पक्के हैं. वे नहीं रूकेंगे.

ठकुराइन का शरीर अब सहज होने लगा है. वे अब सामान्य हैं.उन्होने आंखे खोलने की कोशिस शुरू कर दी है. ठाकुर साहब की जान में जान आने लगी है. आचानक काका ने आलाप लिया

छंद छंद लय ताल से पुछलीं पुछलीं सुर के मन से.
धरती अउर आकास से पूछलीं पूछलीं नील गगन से.

हिया हिया में पइठ के पूछली पूछली मस्त पवन से कउने सुगना पर लुभइलू अहि रे बालम चिरई . इधर ठकुराइन ने आंखे खोलीं उधर काका की गरदन लुढ़क गयी.लोग कुछ समझ नहीं पा रहे थे. वंशी काका बुलाने पर भी नहीं बोल रहे.शरीर बेजान हो उठा है.यह क्या हो गया उन्हे. इतने वर्षों से सांप का विष उतार रहे हैं कभी कोई परेशानी नहीं हुयी फिर आज क्या हो गया.

ठाकुर साहब ने वंशी की नब्ज टटोलनी शुरू की.जीवन का कोई लक्षण नहीं.उन्हे कहना पड़ा ‘वंशी अब इस संसार से जा चुके हैं.’
सभी सन्न हो गये.सबकी आंखो में आंसू थे.

दो और भी आंखे थी जिनमें पानी छलछला रहा था लेकिन उन पर किसी की नजर नहीं पड़ी थी.
________
राकेश दुबे
mob. 8958344456
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प्रतिक्रियायें 


[13/07 08:40] Sandhya: प्रेम किसी एक व्यक्ति के साथ सम्बन्धों का नाम नहीं है यह एक ‘दृष्टिकोण’ है, एक ’चारित्रिक रुझान’ है- जो व्यक्ति और दुनिया के सम्बन्धों को अभिव्यक्त करता है न कि प्रेम के सिर्फ एक ‘लक्ष्य’ के साथ उसके संबंध को. अगर एक व्यक्ति सिर्फ दूसरे व्यक्ति से प्रेम करता है और अन्य सभी व्यक्तियों में उसकी जरा भी रुचि नहीं है- तो उसका प्रेम प्रेम न होकर मात्र एक समजैविक जुड़ाव भर है, उसके अहं का विस्तार भर है.”

(एरिक फ्रॉम की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ लिविंग’ के हिन्दी अनुवाद ‘प्रेम का वास्तविक अर्थ और सिद्धान्त’ (अनुवादक- युगांक धीर,से)

उपर्युक्त उद्धरण राकेश बिहारी जी ने अपनी समीक्षा में उद्धत किया है ।कहानी रचना समय के दुसरे विशिष्ट कहानी अंक में पढी थी और तब भी इतना ही उद्वेलन हुआ था और उसने कहा था की याद आई थी ।
कहानी को प्रतिकृति नहीं कहा जा सकता इसका अपना एक विस्तृत अलग प्रभाव है ।राकेश बिहारी जी की समीक्षा इसे लौकिकता के दुसरे कोण से भी देखती है।
राकेश बिहारी जी की समीक्षा गहन है ज़रूर पढी जाना चाहिए।
बेहतरीन कहानी...विस्तार से शाम तक😊💥
[13/07 11:39] Saksena Madhu: अभी कहानी और राकेश बिहारी की समीक्षा पढ़ी है  ....कहानी के बाद समीक्षा पढ़ना मानों कहानी के अधखुले दरवाजों को खोलकर हर पात्र से बतिया लेना होता है । वंशी और सोना की प्रेम कथा की गहराई में मुझे जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरस्कार की याद आ गई । मधुलिका का उत्कृष्ट प्रेम .. देशप्रेम और प्रिय प्रेम को अलग करता है वो उसका विस्तार रहा और फिर प्रिय के साथ मृत्यु मांगना निजी प्रेम का निर्णय रहा ... 
  इस कहानी में भी प्रेम किसी न किसी रूप में विस्तारित हुआ और फिर निजता पर आकर रुक गया ..
कहानी हमे लोकरंग और लोकगीतों के माध्यम से अपनेपन से अपने साथ घुमाती हुई हर पात्र से परिचित करवाती है । 
कहानी में प्रेम का उत्कृष्ट रूप दिखाया गया । 
जब अपने प्रिय पर तेज़ाब फेंकना ,ब्लैकमेल करना और हत्या करने जैसे अपराध बढ़ते जा रहे है ऐसी ऊर्जावान प्रेम कहानियों की बहुत आवश्यकता है ।
हमेशा की तरह बढ़िया चयन कहानी का ।आभार  प्रिय सखी प्रवेश ..तुम्हारे कारण अलग लोक की शानदार सैर कर पा रहे है  ।
आभार एडमिन जी और उनकी टीम का ।
[13/07 12:03] Pravesh soni: धन्यवाद मधु 
कहानी के बाद राकेश बिहारी जी की  समीक्षा कहानी के अधखुले दरवाज़े खोल देना ..... कहानी को  पूर्ण गहराई से समझने के लिए इस तरह की समीक्षा पाठक की किस तरह मदद करती है ।

मधु तुमने बहुत अच्छी बात कही ,एसिड अटैक ,ब्लैकमेल ,हत्या करने वालें को इस तरह की उर्जावान कहानी पढ़ने की आवश्यकता है 
👌👌👌👌

काश प्रेम,प्रेम ही रहे ...कुंठा में में न बदले ।प्रेम तो अधूरा रहकर भी पूर्णता लिए होता है ।
[13/07 15:47] Sudin Ji: प्रेम व्यक्ति से प्रकृति में और प्रकृति से व्यक्ति में विस्तारित होने और समाहित होने की क्रिया है । सोना के हाथ के स्पर्श को गांव के बच्चे बच्चे के स्पर्श में महसूस करने की इच्छा वंशी के सोना के प्रति मौन प्रेम का त्रिलोकी विस्तार है । कोई अच्छा लगता है तो आपके भीतर सारी प्रकृति गुनगुनाने और बतियाने लगती है  वंशी का प्रेम इकतरफ़ा नहीं है यह जानकर वंशी के समर्पण में सम्पूर्णता आ गयी और इसी समर्पण के कारण सांप के मंत्र के असफल होने के बाद भी वंशी के द्वारा सोना के शरीर में अपने प्राण फूंकना संभव बना । प्रेम इसी इंतहाई शिद्दत का नाम है । कहानी को गांव के पूरे वातावरण और लोकगीतों के साथ गुथते हुये विस्तार देने के लिये राकेश दुबे जी को बहुत बहुत बधाई और हमेशा बेहतरीन कहानी का चयन करने के लिये प्रवेश जी का बहुत बहुत आभार ।
[13/07 15:48] ‪+91 94256 36550‬: भावना जी का आभार सम्बंधित रचनात्मक जानकारी के लिए।
स्वतन्त्र पाठ में भी अच्छी रचना।
[13/07 15:49] ‪+91 94256 36550‬: कहानी पूरी पढ़ी।बहुत अच्छी लगी।
[13/07 15:55] ‪+91 95463 33084‬: बहुत दिनों के बाद इतनी अच्छी प्रेम कहानी पढ़ने को मिली ।आभार प्रवेश जी एवं एडमिन ।गुइयाॅ शब्द का अर्थ मुझे नहीं पता ।कहानी में एक जगह गाँव के सिवान का जिक्र है , हमारे तरफ यानी बिहार के ऑचलिक भाषा में इसे सीमान कहते हैं ....दो गाँव के बीच की सीमा रेखा ।यह मेरी जिज्ञासा भर है ....वस्तुतः यह कहानी पढनी नहीं पड़ती बल्कि खुद ही पढवा लेती है ।कथाकार राकेश दुबे जी को इस उत्कृष्ट कहानी हेतु हार्दिक बधाई🌹🌹प्रवेश जी से आग्रह है कि राकेश बिहारी जी की समीक्षा भी यहाँ लगाएँ जिससे कहानी को और बेहतर दृष्टिकोण से समझा जा सके ।राकेश बिहारी जी न केवल अच्छे समीक्षक है अपितु अच्छे कथाकार भी हैं ।🙏🙏🙏
[13/07 15:58] Mukta Shreewastav: राकेश दुबे जी की कहानी वंशी और सोना की अनोखी प्रेम कथा है।वास्तव में प्रेम खोने का ही नाम है,वंशी का सारा जीवन लोगों के लिए खेल वन गया।लेखक ने कहानी का अंत बहुत ही अच्छा किया है।
[13/07 16:04] ‪+91 80850 96010‬: राकेश दुबे जी की इस कहानी को आज पांचवीं बार पढ़ रही । ये कहानी रचना समय में भी आई है । कहानी अगर एक बार में पढ़वा ले जाये सबसे पहले उसकी यही सफलता है । ये ऐसी ही कहानी है जिसे बिना पूरी पढ़े आप नहीं छोड़ सकते । 
ये एक ग्रामीण परिवेश में बनी गई प्रेम कहानी है ।प्रेम के कितने रूप, हो जाने के कितने अफ़साने । पर प्रेम को प्रेम उसका त्याग भाव ही बनाता है ।हासिल करने का भाव प्रेम को प्रेम नहीं रहने देता ।कहानी इस मुद्दे पर कई बार मन को झकझोरती भावुक कर जाती है । सुन्दर शब्द प्रयोग कहानी के हर दृश्य का खाका खींच देता है । अगर मुझसे पुछा जाये कि रचना समय की कौन सी कहानी बेहतरीन लगी तो बिना अगर मगर मैं इस कहानी पर ऊँगली रख दूंगी । 
साकीबा में इस कहानी का स्वागत है और इस पर जरूर चर्चा होनी चाहिए। 
राकेश दुबे जी समूह से जुड़ गए हैं तो और भी बेहतरीन कहानियों से हम रूबरू होंगे । उनका स्वागत है 💐
[13/07 16:05] ‪+91 80850 96010‬: ग्रामीण परिवेश में बुनी गई
[13/07 17:29] Meena Sharma Sakiba: ग्रामीण परिवेश और प्रेम में आकंठ डूबी यह कहानी, गीतों के
साथ आगे बढ़ती...हर हृदय की
चाह ...कि यह प्रेम कहाँ खो गया ?
फिर -फिर पढ़ना... सुनना ...देखना और जी लेना...एक भावपूर्ण कहानी के साथ बाँध गया ! अद्भुत
चरित्र-चित्रण,भाव, और प्रेम से सराबोर ...कहानी के लिये राकेश जी
को बधाइयाँ एवं प्रवेश जी करबद्ध नमन प्रस्तनति के लिये
👍
[13/07 17:41] Manjusha Man: राकेश जी की कहानी पढ़नी प्रारम्भ की तो एक  मुस्कुराहट के साथ प्रारम्भ हुई.... किन्तु अंत तक आते आते आँखे नम हो आईं। अभी अच्छी कहानी है। 

बहुत अच्छी प्रेम कहानी हैं।
[13/07 17:49] Saksena Madhu: किसी किस्से जैसी लग रही कहानी ..
कई क्षेत्रों में अलग अलग प्रेम कहानियां प्रचलित हैं ।
[13/07 18:03] Archana Naidu: राकेश जी की कहानी ने अंत तक बांधे रखा, अच्छी रचना की यही सफलता है, हमारी बधाई,  प्रवेश जी  आपका सलेक्शन अच्छा रहता है,  👍👍😊😊
[13/07 18:11] Ravindra Swapnil: मखमल जेसी नरम और जटिल सामाजिक परिवेश को शानदार तरीके से कहानी में सवांरा गया है।  लेकिन कई चीजें नयेपन को उपेक्षा
की और ले जाती है। मेरा सवाल ये होता है कि किसी कहानी को तुलनात्मक या उसके अपने परिवेशगत रूप से देखा जाये। या दोनों से। या केवल ग्रुप की मान मर्यादा से। इस कहानी में जो उपेक्षा वाली बात है यही है की इस तरह का वर्णन हमारे कई वरिष्ठों की रचनाओं में मिलता है। गांव को आज भी पुराने अंदाज में मिला कर उकेरा है। प्रेम पर तो हमारे बाकि सदस्यों ने बोल ही दिया है।
                                   स्वप्निल
[13/07 18:24] अपर्णा: इस गीत से परिचित हूँ। अक्सर सुनती हूँ। गोरखपुर से हूँ तो इस भाषा और संस्कृति से अलग सा ही लगाव है। राप्ती, बाढ़, बंधा, गीत, फगुआ, होरी, चैती सब नितांत आत्मियऔर निजी बिंब उभार रहे हैं मेरे लिए। 
अब कहानी पर आती हूँ । कहानी ने रेणु की 'पंचलैट' और उससे भी गहराई से 'रसप्रिया' की याद दिलाई। राकेश बिहारी जी ने  अद्भुत विश्लेषण किया है। विषय को उसका आंचलिकता के साथ पढ़ना एक लार्जर पिक्चर उपस्थित करता है।एक विशिष्ट फ्लेवर देता है। 
लेखक ने वंशी की स्पर्श से जुड़ी ज़िद या सनक को यहाँ लाकर ऐसे इंटेंस व्यक्तित्व की परतों का निर्माण किया है जिसके लिए उसके प्रेम और उससे उपजे वियोग की हर छोटी बात बहुत गहरी बन चुकी है। वो प्रेम को तो छुपा गया पर उससे जुड़ी छोटी बड़ी बातें उसके प्रकट व्यवहार का हिस्सा बन गईं। अपने स्व को वो लोक में दबा देता है। जान न दे कर जान बचा रहा है।
शुभकामनाएँ  राकेश जी। 
राकेश बिहारी जी ने बेहतरीन तौर पर कथा को रेशा रेशा खोला है। आभार।
[13/07 18:31] ‪+91 87208 02790‬: सात्विक प्रेम का इजहार करने वाली ह्रदय स्पर्शी कहानी के चयन के लिए प्रवेश जी को बधाई
[13/07 19:08] Sudhir Deshpande Ji: आंचलिक पुट
कहन शैली जबरदस्त
वंशी काका का चरित्र चित्रण देशकाल परिस्थिति का सुंदर प्रयोग। नायिका चित्रण अदभुत। कितनी कोमलता से और विभिन्न अंगों की क्रियाओं से वार्तालाप कराया। वाह।
[13/07 19:12] Dinesh Mishra Ji: राकेश दुबे जी की वंशी और सोना की प्रेम कथा शुरुवात में सामान्य कथा जैसी ही लगी, पर जब उसके नेपथ्य की कथा यानि वंशी की व्यथा से रूबरू होते हैं, तो यूँ लगता हैं मानों वंशी की व्यथा और सोना के नयन जैसे हमारे मनोमस्तिष्क पर ऐसे चस्पा हो गए हैं की कथा को पूरी पढे बिना चैन ही नहीं पड़ता, साथ ही भोजपुरी केअद्भुत लोक गीत जो अर्थ समझ न आने पर भी वंशी के दर्द को हम तक पहुंचा देते हैं, आखरी में वंशी का जीन्स पहनकर आना और सोना की आँखे भीगना हमे अंदर तक भिगो देता है।
बहुत अच्छी कहानी
बधाइयाँ।
[13/07 19:15] Dinesh Mishra Ji: प्रवेश जी
इस अद्भुत कथा के चयन के लिए अनेकों मुबारकबाद और हमे पढ़ने का मौका दिया इसके लिएभी।
[13/07 19:48] Pravesh soni: सुधीर जी धन्यवाद ,देशकाल के बारें में  जाचेंगे तो थोडा विभेद लगेगा ,वंशी का जीन्स ,T शर्ट पहनना ,और सुचना  तकनीक का अभाव  ..... राप्ती में बाढ़ कब ,आप समीक्षा पढ़ेंगे तो  इस बात पर भी सोचने को विवश होंगे ।
[13/07 20:06] Rakesh Dubey: बहुत बहुत आभार आप सभी का कई बार रचनाकार के रूप मे हम इस तरह नहीं सोच पाते
[13/07 21:38] Sudin Ji: जींस टी शर्ट पहनने वाला हर व्यक्ति सूचना तकनीकी से जुड़ा हुआ हो आवश्यक नहीं । हममें से कुछ कुछ ऐसे हैं जो फेसबुक पर नहीं हैं तो इन बातों को समीक्षा से दूर रखते हुये मूल कहानी पर ही ग़ौर करना मेरी समझ से ज़्यादा ठीक होगा।
[13/07 22:07] Lakshmikant Kaluskar Ji: कहानी बांध कर रखती है।कथा खत्म होने के पहले ही संकेत देने लगती है कि किधर मुड़ने वाली है क्यों कि प्रेमकथाओं की परंपरा में दो रास्ते ही होते है,चौराहे नही होते।त्याग के साथ प्रेम की उत्कटता कुछ अलग ही नूर लिये रहती है जो इस कहानी में है।
[13/07 22:29] Braj Ji: कहानियां हमें धैर्यवान पाठक बनातीं हैं. हमें दूसरे के जीवन में देर तक रखती हैं. कहानियां हमें हंसाती हैं रुलाती हैं. 

कहानियाँ हमें कई तरह के इंसानों से मिला देतीं हैं. दूर दूर की ऐसी जगहें जो हमारे पास जैसी होती हैं, उनको हमारे और करीब ले आती हैं. और कुछ ऐसी जगहों पर भी कहानियां हमें ले जाती हैं जहां हम कभी नहीं जा सकते, 

कहानियों में कोई होता है जो हमारे और तुम्हारे जैसा होता है पर वो तुम्हारे और हमारे जैसा चुप्प नहीं रहता, 

कहानियों में और कौन होता है 
कहा गया है कि जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है. 

राकेश दुबे की कहानी में अनेक कहानियां हैं, वंशी की मां, बाढ़, गायन, सोना, सांप, लोकगीत, और भी कितने ही बिंब जो हम सबके साथ होकर हमारे जीवन की कहानी में इसलिये शामिल हो गए हैं कि यही उनकी फितरत है. ऐसी सुगठित कहानी को कथा और किस्सा कहने में संकोच होता है, यह केवल कहानी है |

बहुत कल्पनाशीलता के साथ, दृश्य और समकालीन भाषा के साथ ही कोई ऐसी स्थिति को रचना में बदल सकता है. बेशक राकेश दुबे ने इस कहानी के जरिए पाठकों को बड़ी चीज़ दी है. 

ब्रज श्रीवास्तव
[14/07 01:07] Devilal Patidar Ji Artist: पड ली कहानी व आज सकिबा पर जो भी हे . 
सब अच्छा ही नही बहुत अच्छा हे . बधाई लेखक व सब को .
[14/07 01:13] Devilal Patidar Ji Artist: एक सवाल भी 
जब हम सब को इतने मासुम  भोले निरदोस लोग इस कदर पसंद हे तो फिर हम खुद येसे क्यो नही बन जाते .
[14/07 07:57] Pravesh soni: सुदिन जी मेरा यह मतलब नही की जीन्स टी शर्ट पहनने वाले के पास सुचना तकनीक भी हो ,
मेरा आशय  कहानी के लेखन काल से है ।जींस का आगमन हुआ तब तक टेलीफोन भी आ गए थे ।कथा नायक ने युवा वस्था में जीन्स का  उपयोग किया और कहानी के अंत तक वह चर्चा में रही तो  उसके साथ आपसी संवाद के लिए सुचना तकनीक कहानी से दिखाई नही दी ।
लेखक मेरा आशय समझ गए ,और इस छोटी सी त्रुटि को उन्होंने स्वीकार भी लिया ।
धन्यवाद आपका 
कालुस्कर जी ,आपने अच्छी प्रतिक्रिया दी आभार आपका 
ब्रज जी आपके धैर्य का प्रणाम ,आखिर आपने कहानी को पढ़ कर लिखा ।साथ ही आज का दिन भी चर्चा के लिए रखा ,धन्यवाद 
पियूष जी धन्यवाद 
देवी सर आपका बहुत बहुत आभार ,आपके दो शब्द भी अपार ऊर्जा प्रदान करते है ।
आपके  मासूम सवाल का कभी जवाब मिलें ....😔
रविन्द्र जी राकेश बिहारी जी समूह में नही है ,आपको को जो वाक्य या शब्द समझ नही आये उनकी चर्चा यहाँ भी अवश्य करे और उनसे बात करके उनका आशय हमें भी अवश्य समझाए ।
जो हमसे छूटा उसे जरूर बतायें ।


अन्य सभी मित्रों से विनम्र अनुरोध है ,वो भी समय निकाल कर कहानी पर अपनी बात अवश्य कहें ।

सुरेन जी ,आनंद जी ,आरती और भी सभी सम्मानीय सदस्य , आपकी प्रतिक्रिया का इन्तजार है
[14/07 11:09] ‪+91 96800 04736‬: शरद जी

रविन्द्र जी की टीप व् ब्रज जी की सुचना, और फिर आपकी प्रतिक्रिया आप तीनों को बहुत बड़ा बनती है।

👍🏻
💐💐💐
[14/07 11:13] ‪+91 96800 04736‬: कहानी में बहुत अच्छा प्रवाह लगा...

साकीबा में प्रस्तुत उत्तम दर्जे की कहानी ...

कहानी का समय काल ऐसा लगता है की सन् साठ से पहले की है ...
कहानीकार व् प्रस्तुतकर्ता दोनों को बधाइयाँ ..

🙏🏻
[14/07 11:41] ‪+91 94240 74638‬: कल कहानी आधी पढ़ी थी , आज पूरी क़ी , सब कुछ पता होने के बाद भी बांधे रहती है , मासूम दिलों की दास्तान है ये , प्रवेश जी धन्यवाद
[14/07 11:56] Sudin Ji: शरद जी आपके कुछ कहने का हमेशा इंतज़ार रहता है
[14/07 12:26] Sharad Kokas Ji: राकेश दुबे की कहानी *कउने खोतवा में लुकइलू*पढ़ी ।यह कहानी बहुत रोचक है और जरा भी उबाऊ नहीं है । कहानी को पढ़ते हुए मुझे बार-बार यह ख्याल आता रहा कि इस कहानी पर एक रोचक और मसालेदार फिल्म बनाई जा सकती है । हालांकि कई दृश्य मुझे विभिन्न कहानियों और फिल्मों से जुड़े हुए भी दिखाई दिए । शायद महुआ या और कोई फिल्म थी जिसमे नायक नायिका के सांप के काटने पर मुंह से खींचकर उसका जहर उतारता है । 

प्रेम कथा के बारे में मैं कुछ विशेष नहीं कहना चाहता क्योंकि यह बहुत साधारण प्रेमकथा है और अनेक लोक कथाओं में इस तरह की प्रेम कथा का जिक्र हुआ है । फर्स्ट साईट लव में बाद नायिका का विवाह अन्य किसी व्यक्ति से हो जाना और उसके बाद नायक का दुखी रहना, गीत गाना और मानसिक रोगी की तरह व्यवहार करना आदि अनेक प्रेम कथाओं में होता है । एक तथ्यगत ग़लती और है ,बाढ़ का पानी उतरने में महीनों नहीं लेता वह दो तीन दिन में उतर जाता है ।

इस कहानी में उत्तरार्ध में जब नायक साहब उतारने सांप का जहर उतारने वाला ओझा बनता है उस वक्त यह कहानी मेरा ध्यान आकर्षित करती है । यह कहानी मैंने अपने एक सर्प विज्ञानी मित्र को भेजी तो उन्होंने कई मजेदार बातें बताई । वे बातें मैं आपके साथ में शेयर करना चाहता हूं । सांप का ज़हर किसी मंत्र से नहीं उतरता यह बात मांत्रिक भी अच्छी तरह जानते हैं लेकिन समाज में एक प्रतिष्ठा बनाने के लिए वह मंत्र से सांप उतारने का अभिनय करते हैं । 93 प्रतिशत सांप जहरीले नहीं होते और 7  % सांप में ही तेज़ जहर होता है । सर्प दंश के निशान से ओझा जान जाता है कि सांप जहरीला है या नहीं । ज़हरीले सांप का दंश एक या दो दांतों के निशान होते है और नॉन पायज़नस सांप के अंग्रेजी के U आकार के होते हैं । ख़तरे की स्थिति में ओझा मरीज़ को सीधे अस्पताल रेफर करते हैं ।सांप के काटने के दो तरीके होते हैं एक ड्राई बाईट और एक वेट बाईट । अगर इंसान को काटने के पहले सांप ने किसी जानवर लकड़ी या पत्थर पर दंश किया हो तो उसकी ज़हर की थैली खाली हो जाती है और यह ज़हर भीतर नहीं जाता । सांप के जहर के शरीर में समाने के 2 तरीके होते हैं एक वेन्स द्वारा और एक मसल के द्वारा । डॉक्टर भी इसी दो प्रकार के इंजेक्शन लगाते हैं यह आपको पता होगा । वेन्स में अगर दंश होता है तो सांप का जहर तेजी से भीतर प्रवेश कर जाता है और हार्ट  तक पहुंचता है जहां से वह धमनियों में फैल जाता है । मसल्स का ज़हर धीरे-धीरे प्रवेश करता है ।

इस कहानी में सांप का जहर शायद मसल्स में ही रहता है जिसके कारण ब्लेड से चीरा लगाकर और मुंह से खींचकर उसका निकालना संभव हो सकता  है लेकिन अगर वेन्स में ज़हर चला जाए तो वह तुरंत हार्ट  तक पहुंचता है और उसे मुंह से खींचकर निकालना संभव नहीं होता । दूसरी बात यह है कि मुंह से खींचकर जहर निकालना और उसी स्थिति में खींचने वाले की मृत्यु केवल उसी स्थिति में हो सकती है जब मुंह के भीतर कोई घाव आदि हो और जहर उस में प्रवेश कर जाए अन्यथा सांप का जहर प्रोटीन और एंजाइम होता है जो सीधे हजम हो जाता है । 

हालाँकि कहानी में यह लिखने की जरुरत भी नहीं है लेकिन क्योंकि आप सब लोग साहित्य की बात के सदस्य  हैं तो यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात आपको बताना मैंने उचित समझा । कुछ देर पश्चात डॉक्टर गजेंद्र जो बस्तर में किरंदुल नामक जगह पर वैज्ञानिक हैं और सांपों पर उनका काफी काम है अपना लेख भेज रहे हैं जिसे मैं यहां पर आप लोगों के लिए प्रस्तुत करुंगा ।

*शरद कोकास*
[14/07 12:44] Dinesh Mishra Ji: शरद भाई
कहानी पर पसंदगी ज़ाहिर करते हुए आपने अपना वैज्ञानिक पक्ष भी रखा, जिससे हमारी जानकारी में इज़ाफ़ा हुआ, शुक्रिया।
पर आप एक साहित्यकार और वैज्ञानिक के मिले जुले नज़रिये से जब कृतियाँ पढ़ते हैं, तो क्या किसी कृति का भरपूर आनंद लेने में कोई अवरोध तो महसूस नहीं होता।
जाने क्यों मुझे लगा की आपसे ये सवाल पूछूँ?
[14/07 12:50] Braj Ji: दिलो दिमाग दोनों पर अच्छा सवाल दिनेश जी
[14/07 13:03] Aanand Krishn Ji: दिनेश जी, आपने शरद जी से बहुत अच्छा सवाल पूछा है । वे इसका जवाब शायद टाइप कर रहे हैं । मैं भी साहित्य को पढ़ते हुए उसके वैज्ञानिक आयामों पर सतर्क दृष्टि रखता हूँ इसलिए मैं कह सकता हूँ की ऐसा करके मैं उस रचना का और अधिक रसास्वादन कर पाता हूँ । हालांकि बहुत सी रचनाओं में वैज्ञानिक दृष्टि की कमी या वैज्ञानिक व्यवधान होने से रचना की संप्रेषणीयता बाधित होती है ।
[14/07 13:06] Aanand Krishn Ji: विज्ञानं, तथ्यों का संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन करके निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया है । यही प्रक्रिया साहित्य की भी है । इस बिंदु पर कोई रचना लिखना वास्तव में वैज्ञानिक आचार है ।
[14/07 13:12] Sharad Kokas Ji: धन्यवाद दिनेश भाई ,कहानी कविता ,उपन्यास पढ़ते हुए या फिल्म देखते हुए मैं औरों से ज़्यादा आनंद लेता हूँ इसलिए कि मुझे पता होता है मेरे भीतर जो भाव जन्म ले रहे हैं वे किस वज़ह से हैं और कौनसे हार्मोन उन्हें बढ़ाने या घटाने में मदद कर रहे हैं . 
हाँ यह ज़रूर होता है कि पहली बार में ही अगर तर्क वाला पक्ष जाग जाए तो आनंद में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है ,लेकिन ऐसी स्थिति में  मैं सायास अवचेतन को साध लेता हूँ और तर्क वाले स्विच को कुछ समय के लिए ऑफ़ कर देता हूँ 😀😀

बस फिर क्या है , कॉमेडी वाले दृश्यों  पर पेट पकड़ कर हँसता हूँ , भावुक दृश्यों पर आंसू बहाता हूँ ,नास्टेल्जिक होता हूँ , उदास होने वाले गीत गाता हूँ . छोटी छोटी बातों पर खूब खुश होता हूँ , दुखी भी होता हूँ ..कुल मिलाकर ऐसा करते हुए भी एन्जॉय करता हूँ .

लेकिन लिखते हुए और अपनी या अन्य की समीक्षा करते हुए मैं सारे स्विच ऑन रखता हूँ ,मेरा प्रयास रहता है कि कोइ तथ्यगत ग़लती नज़र से छूट न जाये .आलोचना में मैं सबसे ज़्यादा अपने लिए ही निर्मम हूँ . हालाँकि इस तरह से भी रचना को एन्जॉय किया जा सकता है . मैंने इसीलिए कहा कि मैं औरों से ज़्यादा कई तरीकों से आनंद लेता हूँ .

*शरद कोकास*
[14/07 13:14] Sharad Kokas Ji: आनंद की बात से सहमत हूँ कि विज्ञान, तथ्यों का संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन करके निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया है । यही प्रक्रिया साहित्य की भी है
[14/07 13:23] Sharad Kokas Ji: यहाँ प्रस्तुत कहानी में भी वैज्ञानिक तथ्य आराम से जोड़े जा सकते थे ,मुश्किल से सौ शब्द और बढ़ाने पड़ते . जैसे नायक के मुंह में छाले या घाव का एक ज़िक्र या गुरु मान्त्रिक द्वारा शिष्य को वास्तविकता बताकर
[14/07 13:25] Aanand Krishn Ji: उसे गुटखा खैनी खाने का आदी बता कर, जिससे उसके मुंह में घाव हो जाता । 😀😀😀
[14/07 13:31] Sharad Kokas Ji: इस कहानी में स्पर्श ग्रंथि का बहुत बढ़िया प्रयोग है । यह एक तरह की मानसिक ग्रंथि है । प्रणय संबंधों में यह सबसे ज़्यादा सक्रिय रहती है ।
[14/07 13:34] Aanand Krishn Ji: जी भैया । पर इसे मानसिक ग्रंथि क्यों कह रहे हैं ? स्पर्श के संकेत सीधे मस्तिष्क में जाते हैं और वहां सम्बंधित हिस्से को सक्रीय करते हैं ।
[14/07 13:37] Aanand Krishn Ji: यह बात सही है कि प्रणय संबंधों में यह अनुभूति सबसे ज़्यादा सक्रिय रहती है ।
[14/07 13:49] Sharad Kokas Ji: स्पर्श के संकेत मस्तिष्क तक जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है इसके बारे में विस्तार से मैं एक कड़ी में बता चुका हूँ . किन्तु किसी के छू लेने पर दोबारा उसे छूने या प्रत्युत्तर में छूने की इच्छा रखना मानसिक ग्रंथि है .कई लोगों में तुमने देखा होगा वे छू छू कर बात करते हैं यह भी मानसिक ग्रंथि है बस या रेल यात्राओं में कुछ पुरुष जानबूझकर स्त्रियों को स्पर्श करते हैं या छूने की कोशिश करते हैं वह भी एक मानसिक ग्रंथि है  वह भी एक ग्रंथि है .
[14/07 14:04] Saksena Madhu: इस कहानी में लेखक  भी नायक की  मासूमियत को कम नहीं करना चाहता होगा ..इसलिए ऐसे तर्क नहीं दिए जैसे आनन्द जी ने कहा ... 
अब ये बातें हमे भी नहीं पता थी ।
[14/07 14:39] Sharad Kokas Ji: मधु जी , जो सिद्धहस्त लेखक होता है और जिसके पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता है उसे सायास कहानी में तर्क डालने की ज़रूरत नही होती । ऐसी कई कहानिया लिखी जा चुकी हैं ।

जैसा की इस कहानी में हो सकता था .... 
वंशी ने जैसे ही सर्पदंश को देखा उसके मुंह से निकला ....  उफ़ ... घोडा करैत । फिर मन ही मन सोचा , अब तो कोई उपाय काम नही करेगा । एकबारगी उसका मन हुआ कि चौधरी जी को उसे अस्पताल ले जाने की सलाह दे । फिर उसने ध्यान से देखा ज़हर भीतर तक नही गया था और देह के तट पर कहीं हिलोरे ले रहा था । एक पीतल की थाली लाओ , उसने आदेश दिया । हालांकि वह जानता था कि इस टोटके से भी कोई लाभ नही है । फिर भी उसने ............
एंड सो ऑन.......
[14/07 15:33] Sharad Kokas Ji: और यह याद रखा जाये कि यह प्रेम कथा है , मानवीय भाव सब तर्कों से परे होते हैं । 
प्रेमचंद की ' मन्त्र' कहानी को याद कीजिये ।
[14/07 16:08] Avinash Tivari Sir: कहानी बहुत अच्छी प्रेम कहानी है फार्मूला फिल्मों की तरह अंत में अतिनाटकियता का शिकार हो गई लगती है जब बूढ़ा बंशी दादा गांव दूर इलाज करने जाता है और सर्प दंशक अपनी प्रेमिका को देख अपनी जान न्यौछावर कर बचा लेता है यहाँ तक बिलकुल ठीक चली है किन्तु भाग कर बरसों पुरानी जींस टी शर्ट पहन कर इलाज करना नाटकीय हो गया है।गांव के दृश्य जीवन शैली और खास कर गीत बहुत ही सजीव हैं।बहुत बहुत बधाई आभार राकेश जी एडमिन जी।।
[14/07 16:27] Saksena Madhu: मुझे जीन्स  टी शर्ट वाली गलत नहीं  लगी गांव में कई लोग जीन्स टीशर्ट पहनते है और मोबाइल नहीं रखते या टेक्निक का उपयोग नहीं करते ।कई पढेलिखे जानकार लोग भी जानबूझकर इन चीजों का उपयोग नहीं करते ... हमारे कई रचनाकार fb और वाट्सप पसन्द नहीं करते और उनसे दूर हैं ।
[14/07 16:33] ‪+91 96800 04736‬: कहानीकार ने इंगित किया है , परिधान विशेष के साथ मधुर स्म्रतियां जो जुडी हुई हैं नायक की ....

💐
[14/07 16:54] Meena Sharma Sakiba: पुराने कपड़े उस वक्त की स्मृति
के लिये पहने है कहानी के नायक
ने.वह अपनी सारी शक्ति ...सारा
प्रेम , जैसे एकत्र कर रहा हो,नायिका के उपचार के लिये. 
पराकाष्ठा ...प्रेम की. ..बहुत 
अच्छी कहानी है,जो पढ़ते 
वक्त साइंस के नहीं....केवल 
प्रेम के साथ बुनी गई है...पुन: 
प्रवेश जी  को धन्यवाद उस 
कहानी की प्रस्तुति के लिये...
जिसे बार-बार पढ़ा गया और जिस पर अभी तक चर्चा ने विराम 
नहीं लिया है.
[14/07 16:56] Pravesh soni: सहमत हूँ मीना जी आपसे ,लंबे समय के विछोह के बाद यदि अपने प्रेम को बचाने का प्रश्न आये तब तमाम स्म्रतियां  शक्ति का संचार करती है ।
धन्यवाद  मित्र
[14/07 17:02] Meena Sharma Sakiba: प्रवेश जी आपने जिस तरह कहानी
के साथ बीच-बीच में आकर कमान कसी है, वह भी काबिले तारीफ है...!
[14/07 17:11] Sudin Ji: कई बार कहानी हू ब हू लेखक के जीवन से गुज़री होती है और वह बस पूरी घटना को शब्द देता है । कभी कभी नायक को सबसे अलग और विशेष दिखाने के लिये भी कुछ ख़ास लिबास में बताया जाता है । कहानियों में यह सब ऐक आम बात है । जींस टी शर्ट भी शायद उसे विशेष  बताने के लिये ही बतायें गये हों। अब वंशी की सोना से दूर रहते हुये कभी बात ही नहीं हुयी लेखक ने इसीलिए मोबाइल का ज़िक्र ना किया हो ऐसा मुझे लगता है
[14/07 17:35] Rakesh Dubey: आप सभी के प्रति आभार. मेरा यह मानना है कि रचनाकार को अपनी रचना पर बोलने से बचना चाहिए, लेकिन व्रज जी और प्रवेश जी का आदेश है तो कुछ बाते विनम्रतापूर्वक कह रहा हूँ. मेरा उद्देश्य केवल एक प्रेम कहानी लिखना था न कि सर्प और विष विग्यान पर जानकारी देना वैसे गांव के जो लोग मन्त्र से झाड़ते है  उनमे से अधिकान्श इस विग्यान को नही जानते लोग उनके पास आते है वे ठीक हो जाते हैं और विश्वास वनता जाता है. जहाँ तक सूचना क्रान्ति की बात है तो तीन दिन पहले पिथौरागढ़ की एक गर्भवती महिला को अस्पताल ले जाने के लिए 5 किमी डोली से और 40किमी ट्रक पर लादकर अस्पताल ले जाया गया महिला मर गयी. मेरे अपने गांव मे 2002 मे बिजली और पहला टावर वाला टेलीफोन लगा. जहॉ तक जीन्स पहनने का सवाल है वह लाक्छणीक प्रयोग मात्र है जो प्रथम मिलन स्म्रीति से सम्बन्धित है. कहानी का प्राथमिक उद्देश्य मेरी नजर मे मनोरन्जन है जो अनिवार्यतः कोई न कोई सन्देश देती ही है. मै इसी उद्देश्य से लिखना भी चाहता हूँ
[14/07 17:40] Rakesh Dubey: वैसे भी प्रेम मे तर्क कहॉ होता है 2 प्रेमी कई दिन विना किसी मुद्दे के बात कर सकते हैं
[14/07 17:42] Braj Ji: राकेश दुबे जी.. ठीक बात है. कहानी की जो जान है वो प्रेम का एक वाकया बताना है. आपने अपनी बात रखी. शुक्रिया. हर रचना की अति क्रिटिक्स उसके रचनात्मक, और पहुंच के उत्स को नीचे भी कर देती है. लेकिन मुझे लगता है कि चर्चा का भी अपना स्वभाव होता है. और हम सब उसकी जरूरत भी महसूस करते हैं.
[14/07 17:42] Rakesh Dubey: एक व्यक्ति है मेरे गॉव मे जो किसी के छूने से व्यथित हो जाते हैं
[14/07 17:51] Sudhir Deshpande Ji: कहानी जहां आपके भावोद्वेग से जुड जाती है तब विज्ञान, तर्क आदि तेल लेने जाते हैं। ऐसा मैंने देखा। आपका अवचेतन स्विचाफ होता ही है।
[14/07 18:00] ‪+91 96800 04736‬: भावनाएं ही तो भविष्य से परे(un predictable) होती हैं, शायद इसलिए कला जगत , विज्ञान जग से अनूठा होता है ...
[14/07 18:24] Sharad Kokas Ji: अवचेतन पर हमारे समूह में पहले भी काफी बातें हो चुकी हैं । हम जो कुछ भी पढ़ते लिखते हैं वह इसी अवचेतन से ही संभव होता है । यहाँ हमारा शब्द भंडार  होता है जिससे हम हर चीज का मतलब समझते हैं ।
[14/07 18:30] Sharad Kokas Ji: जीन्स का प्रयोग गलत नहीं है । जीन्स 70 के दशक में आ चुकी थी । मैंने पहली जीन्स 72 में खरीदी थी। मोबाइल क्या तब घरों में फोन भी नहीं होते थे । गांव में बिजली नहीं थी । 
लेकिन सर्प वाली घटना तक वह जीन्स पुरानी हो चुकी है इसलिए प्रवेश का यह शंका करना स्वाभाविक है। 
अगर इसमें कुर्ता पायजामा अचकन जैसे वस्त्रो का प्रयोग होता तो वह ज़्यादा स्वाभाविक लगता ।
[14/07 18:42] Meena Sharma Sakiba: राकेश जी आपने जिस उद्देश्य
को लेकर कहानी लिखी है, आप
उसमें पूर्णत: सफल रहे हैं..  
पात्रों की चरित्र चित्रण बखूबी
हुआ है.. 
शानदार कहानी के लिये.
आभार !
[14/07 18:43] Sharad Kokas Ji: राकेश जी का उद्देश्य कहानी लिखने का भले ही मनोरंजन हो लेकिन लेखक को तथ्यगत बातों का भी ध्यान रखना जरुरी होता वर्ना पढ़ते हुए व्यवधान उत्पन्न होता है । 
मैंने पूर्व में यह बताया है कि किस तरह एक दो जगह संवादों को चेंज कर यह बात लाई जा सकती है । आपने एक दो जगह पढ़े लिखे लोगों का ज़िक्र भी किया है यह अच्छी बात है उनके माध्यम से भी यह बात लाई जा सकती है ।
कहानी केवल ब्यौरे नही होती , कहानीकार का अपना अध्ययन ,अनुभव और दृष्टिकोण उसमे शामिल होता है । 

दुर्ग के हमारे मित्र प्रसिद्ध कथाकार मनोज रूपड़ा की एक कहानी में रेलवे इंजन का ड्राइवर एक पात्र था उसके संवादों में स्वाभाविकता लाने के लिए वे तीन माह तक अपने मित्र पूरण हार्डी जो रेलवे ड्राइवर थे उनके साथ इंजन में बैठकर दुर्ग से डोंगरगढ़ जाते थे  और इंजन की बारीकियाँ सीखते थे ।

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