अपारे काव्य संसारे कविर्एका:प्रजापति के आलोक में कहें तो यह कि ईश्वर के बाद अगर कोई सर्जक है तो वह है कवि, पर कवि केवल भावोच्छवास करने वाला, शब्द क्रीड़ा करने वाला कोई व्यक्ति नहीं होता, बल्कि वह एक स्वप्नदृष्टा होता है, जो दुनिया को और बेहतर, और बेहतर होते देखने के वास्ते तड़पता है, विचार करता है, और अपने परिवेश में दखल देता है |और समर्थ यत्न अपनी तरफ से भी करता है ताकि सूरत बदले. सूरत बदलने के अहद के संग अभी एक कवि दिन रात दीपक के मानिंद जल रहा है, उसका नाम है निलय उपाध्याय, साहित्य की बात समूह में आज उनके रचना और मोर्चा पर चर्चा के लिए प्रस्तावना और संचालन युवा कवि और विचारक अखिलेश कर रहे हैं..." साहित्य की बात " समूह संचालक ब्रज श्रीवास्तव
मित्रों, आज मै एक पूर्ण कवि की अवधारणा को अपने कृतित्व व व्यक्तित्व से यथार्थ में बदल देने वाले समकालीन कविता के उस महत्वपूर्ण हस्ताक्षर को आपसे सामने रखता हूँ जिसके बिना गांव,किसान और गंगा की बहुत सी चिंताओ को स्वर नहीं मिल सकता था उसके सिसकियो को चीख और ललकार में बदल देने के लिए जिस कंठ की आवश्यकता थी वह सिर्फ निलय के पास है । कविता को अभियान बना देना उसे नारा बना देने से आगे की चीज है ।
निलय उपाध्याय नवे दशक से आरम्भ हुई हिंदी कविता के उस पीढी का प्रतिनिधित्व करते है जिसने अपने स्वत्व व अस्मिता की लड़ाई लड़ी है कविता कैसे कवि के आत्म का बोध होता है और कैसे वह उसके अंधेरे कोने में फैला उजास है यह देखना हो तो निलय की कविताएँ देखी जा सकती है ।भोजपुरी अंचल का वृहदतर क्षेत्र अपनी सांस्कृतिकता, अनन्यता,संघर्ष शीलता और स्वप्नशीलता के साथ साथ बेपनाह वेदना के जिन आयामो के साथ निलय की कविताओ में व्यक्त होता है उतना किसी और समकालीन कवि की कविता में नहीं ।ठेठ देशी मुहावरो में जीवन के संघर्षो से सिरजे बिम्ब जब कवि के अन्तर्मथन को स्वर देते है तो यह कविता एक जीवन राग में बदल जाती है ।जय पराजय के भाव से अलग यह कविता हिंदी जनता के जागरण की कविता है जिसमें पराजय की क्षणिक आवेग है तो जय उसकी संकल्प चेतना का प्रबल भाव ।
निलय मुंबई मे जब रेखाकिंत किये जाने तक की हद तक स्थापित थे तब वह फिल्मी दुनिया का वैभव त्याग साइकिल से गंग्रोती से गंगा सागर तक की यात्रा पर निकल पड़े,गंगोत्री से गंगा सागर तक यात्रा वृतांत लिखा जो एक प्रामाणिक ग्रंथ जैसा बन गया है। यात्रा के वर्तमान चरण मे वो घर परिवार का त्याग कर गंगा के लिए जीवन समर्पण का व्रत ले चुके है ।बनारस के घाटो पर महीनो गोष्ठियो व साहित्य सृजन से लोग जुटे है जिसमें आम जन से लेकर देशभर के पर्यावरण विद, लेखक शामिल है,नहीं शामिल है तो विदेशी कंपनियां, सत्ता तंत्र व सरकार ।
तो आइये आज एक कवि के संघर्षो का उत्सव मनाते है वो हमारे कुल के है हम सब का साथ उन्हें संबल देगा ।
कवि परिचय :
जन्म : 28 जनवरी 1963
स्थान : दुल्हन पुर,बक्सर बिहार ।
कृतिया :
कविता संग्रह : अकेला घर हुसैन का , कटौती ,जिबह बेला
उपन्यास : अभियान वैतरणी और पहाड़
यात्रा वृतांत : गंगोत्री से गंगा सागर तक
नाटक : पापकार्न विद परसाई
इसकू अलावा निलय ने टीवी सीरियल देवो के देव महादेव आदि का भी लेखन किया है ।
======================================
1. मैं गाँव से जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ
अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
खेत चुप हैं
हवा ख़ामोश, धरती से आसमान तक
तना है मौन, मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे... मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ ।
2.जिबह बेला
मेरे मुँह मे ठुँसा है कपड़ा
ऐंठ कर पीछे बँधे हैं हाथ
कोई कलगी नोचता हॆ
कोई पाख
कोई गर्दन काटता हॆ
कोई टाँग
हलक मे सूख गई हॆ
मेरी चीख़
मारने से पहले जैसे बिल्ली
चूहे से खेलती है
कोई
खेल रहा है हमसे
लो
फिर आ गए
फिर आ गए सात समन्दर पार से
कसाई...
गंडासा है दिल्ली के हाथ ।
3. शबरी के पिता:
पिता के आने की खबर सुनकर
कुछ कह नहीं पाई
शबरी
और आंख भर आई
लोटा में पानी ले आई
मल मल कर धोया गिलास
पीतल के थाल में धोयेगी पांव ..उतार देगी
छह कोस पैदल की थकान
यह क्या कम है कि
इस उम्र में चलकर आये पिता
जूते के आहट से जान लेती थी शबरी
कि पिता आ रहे है ..
आज भी जान लेगी कि पार
कर गये है घर का चौखट
बरामदा
इस घर में उनकी बेटी है
परदे पर कढ़े फूल से समझ जायेंगे ।
देर हुई तो थाल में पानी बदल दिया
ग्लास में लगी थी मिट्टी जरा सी कहीं
मल मल कर साफ किया
बिस्तर झाड़ा
बक्सा पर कपड़ा डाला
और कुछ न बचा करने को तो रो पड़ी
कैसी हो बेटी
कैसे कट रहे है दिन
कहने को कह ही देगी शबरी
ठीक ..बिलकुल ठीक..कौन बेटी चाहेगी
कि बेटी का हाल जान
दुखी हो पिता
लोटा फुटहा है
बूंद बूंद कर रिस गई शबरी
झन्न से बजी पीतल की थाल
चकरधिन्नी कीतरह घूम गया आकाश
और बचपन से जवान होने तक की
तमाम यादो को
एक मोटर साइकिल रौंदती हूई चली गई
जिसे नहीं दे सके थे पिता
तत्र करने के बाद भी
जरूर कांप रहे होंगे
जाते हुए
पिता के गठिया वाले पांव ।
4. और गोली चलती है
आखिर क्या चला जायेगा
एक रंडी का
नंगा होकर नाचने में
उसकी कीमत हम चुकायेगें
खत्म हो जायेगा
शादी का उत्सव
खत्म हो जायेगी शादी की रौनक
उतर जायेंगे लाल पीले रंग
बची रहेगी शान नंगा नचाने की
एक औरत को नंगा नचाने की शान
किसी कौरव की सभा नही है यह
उत्सव है शादी का
ध्वनि और प्रकाश की जगर -मगर
लोगों से खचाखच भरा बावन चोभ का शामियाना
और कांप रही है एक औरत
दो दिलो के मिलन में
खुशियो का सट्टा है जिसका
वे जरूर नचायेगें
उसे नंगा
छोड़ जायेंगे
गंगा के पवित्र मैदानी इलाके में
शराब की खाली बोतलें और
एक औरत को नंगा नचाने की शान
अगर इंकार करेगी
तो चलेगी गोली...
और गोली चलती है ...
5. बेदखल
मैं एक किसान हूँ
अपनी रोजी नहीं कमा सकता इस गाँव में
मुझे देख बिसूरने लगते हैं मेरे खेत
मेरा हँसुआ
मेरी खुरपी
मेरी कुदाल और मेरी,
जरूरत नहीं रही
अंगरेज़ी जाने बगैर सम्भव नहीं होगा अब
खेत में उतरना
संसद भवन और विधान सभा में बैठकर
हँसते हैं
मुझ पर व्यंग्य कसते हैं
मेरे ही चुने हुए प्रतिनिधि
मैं जानता हूँ
बेदख़ल किए जाने के बाद
चौड़े डील और ऊँची सींग वाले हमारे बैल
सबसे पहले कसाइयों द्वारा ख़रीदे गये
कोई कसाई...
कर रहा है मेरी बेदख़ली का इंतजार
घर के छप्पर पर
मैंने तो चढ़ाई थी लौकी की लतर -
यह क्या फल रहा है?
मैने तो डाला था अदहन में चावल
यह क्या पक रहा है?
मैंने तो उड़ाये थे आसमान में कबूतर
ये कौन छा रहा है?
मुझे कहाँ जाना है-
किस दिशा में?
बरगद की छाँव के मेरे दिन कहाँ गये
नदी की धार के मेरे दिन कहाँ गये
माँ के आँचल-सी छाँव और दुलार के मेरे दिन कहाँ गये
सरसों के फूलों और तारों से भरा आसमान
मेरा नहीं रहा
धूप से
मेरी मुलाकात होगी धमन-भट्ठियों में
हवा से कोलतार की सड़कों पर
और मेरा गाँव?
मेरा गाँव बसेगा
दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों की कीचड़-पट्टी में .
================================================
गत वर्ष नवम्बर में निलय भैया विशेष रूप से साबरमती नदी के किनारे बसे अहमदाबाद शहर की मल जल निकास परियोजना देखने के उद्देश्य से आये थे।परंतु इस यात्रा के दौरान निलय भैया ने साबरमती नदी का अनकहा एवं अनदेखा स्वरुप दिखाया वह मेरे जैसे वर्षो से अहमदाबाद में रहने वाले लोगो के लिए हैरान कर देने वाला था। उस अनकहे सत्य को निलय भैया ने मरी हुई नदी का मुकुट नाम दिया था, जिसे हम सभी साबरमती रिवेरफ़्रॉन्ट कहते आये है।
उस यात्रा की निलय भैया के साथ की कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूँ
सभी तस्वीरें जितेन्द्र राजपूत जी के सोजन्य से
===============================================
निलय जी की कविताओं के सापेक्ष समूह के कुछ सदस्यों ने भी सूखती नदियों के दर्द को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया
गंगा- दोहे
करती विष का आचमन, गंगा की हर धार।
भागीरथ अब अवतरे, करने बेड़ा पार।।
आँचल मैला हो गया, काया पल-पल क्षीण।
गंगा हँसती खेलती, क्यों है अब ग़मगीन।।
गंगा में मुख देखता, चाँद हुआ बेहाल।
मैली छवि को पोंछने, बादल हुआ रुमाल।।
शुभ्र धवल आँचल कहाँ, मैली गंगा देह।
बिसरा बैठे लाल ही, माँ से अपना नेह।।
और कुछ दिन देखता जा देखता रह जाएगा
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।
एक प्यासा दूसरे से प्यास का मांगेगा हल
आसमानों की तरफ हर सर उठा रह जाएगा।
गर्म आंखें सुलगी सांसें और दहकता हर बदन
रहमतों की बारिशों को ही खोजता रह जाएगा।
गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
हादसे की चाप है दिलशाद साहिब ये ग़ज़ल
जो समझ लेगा वो शायद कुछ बचा रह जाएगा।
- भवेश दिलशाद
=========================================
गंगा का पुत्र संवाद :
कल गुजरा
चांद के करीब से
साफ दिखाई पड रही थी
चेहरे की झुर्रिया
मुक्तिबोध ने कहा
और बूढा हो गया चांद
यूं ही गंगा भी
सुनती है निलय की बात
उनके बलिया आने की खबर
हवाओ ने दी चीतल को
कछार पर पानी पीते चीतल ने
बताया डाल्फिन को
और फिर उसी ने कहा होगा गंगा से
कि तेरा बेटा आ रहा है बलिया
बचा खुचा पानी समेट
बुढापे में बंधा तोड
बढियाई गंगा पहुच गई गांव के मुहाने
पुत्र के पांव पखारे घुटने तक
प्यासे पूत ने मांगा जल
पर मां जानती है
अब जल, जहर है सो
गंगा ने आंखो के नीर से भरा
उसका कासा ,कंमडल
पहले फफकी
फिर दहाड मार लिपट गई गले से
बुदबुदाई कान मे
अब इहे कंमडल टांग ल कांधे
ले चलअ गंगा सागर
लेटा द चंदन लकडी पे
फोड द मटका
कई द दाहा तापी
जटा से बा उद्गम
तोहरे कमंडल मे हो जाई मुक्ति
आ तबले कही द तनि हाकिम से
बडकी दतवा वाला मशीनवा हटा ले
छतिया से
कोडे ले बाबू लोग
त बहुत पिराला ।
अखिलेश
=============================================
हर शहर और गाँव में
रोज ही
मर रही है एक नदी
मेरे कस्बे में परासरी पूरी मर चुकी है
बेतवा मरने की कगार पर है
पास में नेवन सिर्फ दिखती है
बरसात में
और फिर
उज्जैन में क्षिप्रा भी तो
नर्मदा के पानी से जिंदा है.......!!!!
सब कोई देख रहा है अपने जीवन में
मरती हुई नदियों को.........
गंगा अकेली नहीं है
देश में
दिल्ली में यमुना और
नासिक में गोदावरी भी तो मर चुकी हैं
पूरी की पूरी.........
नदियों का मरना
सभ्यताओं के खात्मे का संकेत है
जैसे नदियों के होने से बनी-बसीं थीं सभ्यतायें
नगरों के प्रति हमारा मोह
विकास के प्रति हमारा दुराग्रह
मार रहा है नदियों को................
कोई नहीं बचा सकता
इस तरह मरती हुई सभ्यताओं
जैसे नदी के मरने पर रह जाती है गंदगी
वैसे ही सभ्यताओं के मरने से
नगरों में जिंदा लाशें चलती फिरती
दिखाई देंगी.........
सभ्यताओं के बिना मनुष्य
जिंदा लाश ही तो रह जायेगा एक दिन.......।
संजीव जैन
================================================
कविताओं पर प्रतिक्रियायें
ब्रज श्रीवास्तव ....अग्रज मित्र कवि की कविताओं को साकीबा में, देखकर विभोर हूँ, यहां कविता के बहाने, कुछ यथार्थ तैर रहे हैं, कुछ विवश सत्य गांव से शहर की ओर बढ़ते ही जा रहे हैं. अपने ही प्रतिद्वंद्वी से पनाह मांगने के दिनों में कुछ शख्स कविता में सच को स्थापित करते हुए, समझौतों को स्थगित करते जा रहे हैं, उनमें से एक हैं निलयऐसे कवि प्रलयके बाद तक रहे आने की संभावना को स्थापित करते हैं. धन्यवाद अखिलेश जी, दोस्तो, आज न चूकिये, आपके शब्दों का गुच्छा न केवल कवि और कविता की महत्ता बढ़ायेगा, बल्कि साहित्य जगत की सत्ता के पथ में एक फूल बिछाकर कवि को हौसला देगा...
सईद अय्यूब ....ये जो कविताएँ प्रस्तुत की गयी हैं, वे निलय के कवि और कविपन को पूरी तरह प्रतिनिधित्व नहीं दे पातीं। कम से कम उनकी दस कविताएँ देनी चाहिये थी। इन कविताओं से जैसा प्रतीत होता है, निलय जी उससे बड़े, बहुत बड़े कवि हैं। बड़े कवि होने के साथ ही साथ वे बड़े इंसान भी हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से उन्हें बहुत नहीं जानता। बस एक बार मुलाक़ात हुई है। पिछले साल के विश्व पुस्तक मेले में। पर जितना जानता हूँ उसके आधार पल उपरोक्त बातें कह रहा हूँ। अखिलेश भाई, शुक्रिया उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिये।
दिनेश मिश्रा .....निलय जी की कविता सीधे सीधे दिल को छू लेने वाली कविताएँ हैं, सीधे सच्चे तरीके से गाँव और उससे जुड़े अहसास को असरदार तरीके से बयान करती हुई, कविता कभी खुश करती हैं, तो कभी पलकें भिगो देती हैं, खुरपी कुदाल से लेकर शबरी की फ़िक़्र हमे भी फ़िक़्रों में डुबो देती हैं।
प्रस्तुति के लिये धन्यवाद
सुमन सिंह ....."मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं मेरे पुरखे...।कितनी गहरी अभिव्यक्ति, कितना गहरा दर्द।,
जिबह के माध्यम से समाज मे मचे घमासान पर बहुत सटीक टिप्पणी। "लोटा फुटहा है,बूँद बूँद रिस गयी शबरी....चकरघिन्नी की तरह घूम गया आकाश.....जरूर काँप रहे होंगे जाते हुए पिता के गठिया वाले पाँव... कितने ही भाव , कितनी ही शबरीयों का दर्द पिरोये पंक्तियाँ। निलय जी को बहुत बधाई। अखिलेश जी को इतनी सुन्दर कवितायें पढ़वाने के लिये बहुत धन्यवाद🙏
हरमिंदर सिंह :...अखिलेश जी बहुत बहुत आभार निलय जी से रूबरू करवाने के लिये..निलय जी के शब्द बोलते हैं और वे गूंजते हैं बार-बार..
किसान और गांव की बात जमीन से जुड़े मन की बात है..
Akhilesh Shreewastav: हरमिन्दर भाई, आप उपन्यासकार हो । आपने बहुराष्ट्रीय कंपनियों व जन और उसके लेखन का संघर्ष भी कमोवेश देखा है निलय की चिंताये भी वही है उनकी दृष्टि बड़ी है ।
और गोली चलती है : निलय उपाध्याय
प्रस्तुत कविताओं में चौथी कविता स्त्री विमर्श की नहीं उसके सशक्तिकरण की कविता है ।स्त्रीयो में भी एक उपेक्षित वर्ग है जिन्हें हम सिर्फ जीवन के विलास में शामिल करना चाहते है उनके लिए हमारे पास कुछ नियत घंटे है ,कुछ अंधेरा है, रात है पर दिन नही है वो हमारे लिये जिंदा कबाब है वो हमसे दो घूंट आब चाहती है पर हमारे पास उनके लिये सिर्फ शराब है ।
स्त्री विमर्श क्या मध्यम वर्ग की स्त्रीयो तक सिमट गया है यह विमर्श अपना दायरा क्यो नहीं बढ़ाता और इन स्त्रीयो को शामिल क्यों नहीं करता । वह इन्हे स्त्री मानता भी या नहीं या फिर निलय की पहली कविता पंक्ति जैसे युद्ध हार चुका है और विजेता से पनाह मांग रहा है ।
इस कविता का पूरा कविता तत्व इसकी अंतिम पंक्ति में है कि और गोली चलती है ...
यह कितना बड़ा इंकार है यह ऐसा है जैसे वहशी भेडि़यो के बीच फंसी एक हिरनी अचानक कंठ से शेरनी की आवाज निकालने लगे जबकि उसे पता है कि दांत गले पर गड़ने वाले है ।
अगर इंकार करेगी
तो चलेगी गोली...
और गोली चलती है ...
स्त्रीयो को बहुराष्ट्रीय माँल्स में खरीदारी करने को महिला सशक्तिकरण बताने वाला साहित्य व सरकार जुगलबंदी कर रही है जबकि असली लड़ाई ये स्त्रीया लड रही है इन स्त्रीयो के साहस पर कोई थपरी नही पीटता, निलय सुनते है और देखते है उनका संघर्ष ।
यही निलय का साहित्य, उनका विमर्श है जो उन चिंताओं को साहित्य मे शामिल करता है जिस पर दिल्ली मौन है इन पर लिखने के लिये कवियो को अंधेरो की, गंगा के किनारों पर फेकी शराब की बोतलो तक पहुँचना पड़ेगा तब उस नीरव में वह सशक्त इंकार सुनाई पड़ेगी,तब वह पुरूषिया ग्रंथि और उससे उपजा अट्टहास सुनाई पड़ेगा जिसमे स्त्री को नंगा नचा देना पुरूष होने की शर्त है ।
भवेश दिलशाद... निलय की कविताई एक आवाज़ है
लम्बे समय से मेरे मन में उहापोह चल रही है कि साहित्य या तो केवल साहित्यकारों के लिए लिखा जा रहा है या फिर साहित्य के विद्यार्थियों के लिए। लोक के लिए साहित्य का सृजन हाशिये पर है। खास तौर से कविता में यह हादसा बहुत गंभीर दिखता है। ऐसा है भी कि मैं किसी अनुचित विचार की गिरफ्त में हूं? ऐसा है तो क्यों है? क्या यह अकादमिकता का कोई षडयंत्र है? आदि-आदि प्रश्नों से जूझता हुआ मैं कभी-कभाी उस कविताई से भी रूबरू हुआ जो कश्मकश के इस अंधकार में पौ पफटती सी लगी। इसी आलोक में आज अग्रज निलय की पांच कविताएं बाध्य कर रही हैं, कुछ कहने के लिए, कुछ विचार के लिए और कुछ समझने के लिए भी।
बड़ी कविता पाठक से किसी किस्म की तैयारी की अपेक्षा नहीं करतीं, बल्कि पाठक को उद्वेलित कर और उठने के लिए तैयार करती हैं। बड़ी कविताएं चुंबकीय आकर्षण के साथ खींचती हैं अपनी ओर, न कि पाठक को नीचा दिखाते हुए आमंत्रित करने का ढोंग करती हैं। निलय की कविताएं बड़ी कविताएं हैं। अपने कथ्य में बख़ूबी गठी हुई ये कविताएं उन परदों को फाड़ती हैं जिनके पीछे छुपा समाज इस हकीकत को भूल गया है कि वह कितना नंगा है।
अगर मैं इस तरह कहूं कि पहली कविता औद्योगिकीकरण की कुरूपता, दूसरी कविता बाज़ारवाद की साज़िश और चौथी कविता पूंजीवाद व समाज की मानसिक विकृति आदि आदि को बयान करती है तो यह उथली समीक्षा होगी। यह सब है तो सही केंद्र में लेकिन बावजूद इसके इन कविताओं में इसके अलावा जो तत्व हैं, वाकई वह कविता को कविता और बड़ी कविता बनाते हैं। संवेदना का धरातल, विमर्श छेड़ने का माद्दा, सवालों के आईने में समाज को निरुत्तर कर देने की सलाहियत, तमाचा जड़ने जैसा प्रहार, एक साथ कई आंतरिक स्तरों को झकझोरने की क्षमता और शर्मसार या दुखी कर देने की तीव्रता जैसे अनेक तत्व इन कविताओं की कविताई के मरकज़ में हैं।
व्यंग्य तो आजकल ललित व सीधा भी होता है इसलिए व्यंग्य को इन कविताओं के संदर्भ में एक तीक्ष्ण विशेषण या किसी और बेहतर पर्याय की आवश्यकता पड़ती है। एक व्यंग्य वह होता है जो ताने जैसा चुभता है लेकिन यहां व्यंग्य तमाचे और मुक्के जैसा पड़ता है। लेकिन आभासी है। कुछ साहित्य की पुरोहिती सोच वाले कह सकते हैं कि ऐसा व्यंग्य, व्यंग्य की श्रेणी में नहीं आता लेकिन यहां तो आ रहा है। एक रंडी का नंगा होकर नाचना, बची रहेगी शान नंगा नचाने की, फिर आ गये कसाई... गंडासा दिल्ली के हाथ में है, गांव बसेगा महानगरों की कीचड़ पट्टी में... ये पंक्तियां पारंपरिक व्यंग्य की श्रेणी में नहीं हैं, इन्हें आंका जाना चाहिए। समर्थ आलोचक विचार करें।
निलय की कविताएं वास्तव में लोक की बात करती हैं, लोक के लिए सिरजी गयी हैं और लोक के हित के प्रश्नों की आवाज़ हैं। ये किसी साहित्यिक विमर्श को आमंत्रित करें या न करें, साहित्यकारों को जंचे या न जंचे, परन्तु लोक विमर्श का पटल प्रस्तुत करती हैं, लोक में पहुंचती ही नहीं, उसे उद्दीप्त करने की सामर्थ्य भी प्रदर्शित करती हैं। ये कविताएं आवाज़, एक बुलंद और बाग़ी आवाज़ की तरह हवाओं में गूंजने की सिफ़त रखती हैं और जो कविता आवाज़ बन सकती है, उसे न तो रोका जा सकता है, न नकारा जा सकता है और न ही क़ैद किया जा सकता है।
अग्रज निलय जी को साधुवाद और उम्मीदों व अपेक्षाओं से सिक्त शुभकामनाएं। अखिलेश को बधाई कि एक महत्वपूर्ण पोस्ट के ज़रिये चैतन्यता को सुषुप्तावस्था से निकाला और ब्रज भाई को भी एक गुलदस्ता कि मंच को ऐसे अवसरों के लिए ओपन रखा है।
Akhilesh Shreewastav: प्रमोद भाई
भवेश ने मान रख लिया यह पोस्ट देकर ।आपने जिन कविता तत्वो के आधार पर कवि व उसके साहित्य को समझने हेतु इंगित किया था भवेश भाई ने उन पर वह दृष्टि डाली है जो एक रचनाकार अपने साहित्यिक जीवन में निरंतर रच कर विकसित करता है ।
भवेश की एक गज़ल जल विमर्श का उन्वान रचती है पढ़वाऊंगा शाम को ।उसके दो शे़र तब तक रहेगे जब तक धरती पर जल है ।
भवेश को धन्यवाद नहीं कहूँगा, तुम्हें गले लगाये बिना यह शब्द बेमानी है ।
राकेश पाठक ..... आज साकिबा में जानदार प्रस्तुति...निलय जी के बारे में जानकार बेहद अच्छा लगा...
टटका बिम्बों और देशज शब्दों से भरी अपनी कवितायेँ लग रही है..यथार्थ को जमींदोज किये जा रहे उस घट की उत्तरकथा है इन कविताओं में । जो सर्वहारा और सर्वस्व हारा जन की दुर्दशा के इर्द गिर्द की जिंदगी में देखी है कवि ने..कवि की इन कविताओं और भाषा से ज्यादा कवि के उस मनोदशा को समझने की जरुरत है जो रची जा रही कविताओं के मूलस्वर का वायस बनी है...कवि की भाषा में समाज की चिंता है..देश के सपने है..और उन सपनों में हाड तोड़ रहे उस जन की बातें है जो इंडिया और भारत के दोआब में धंसे, दरकिनार कर दिए गए है..
कविताओं में जनवाद कवि की मौलिकता नहीं विवशता है बल्कि विचार के स्तर पर उस उद्वेलन की परिणीति है जो किसी आंदोलन का कारण बनने की उम्मीद लिए लिखी गयी है...
निलय जी मौन के कवि है, स्वाधीनता के कवि हैं, राही नहीं, राहों के अन्वेषी हैं, वे काल चिंतन के कवि हैं, वे आत्मान्वेषण के कवि है, यायावर हैं, वे नई भाषा संवेदना और शिल्प के चाकचिक्य के कवि हैं, वे अकेलेपन के अनुगायक हैं। आज की प्रस्तुत उनकी कवितायेँ जन और वाद के प्रतिमान की तरह है।
लोक-शिल्प,स्थानीये रंगों और अनुभूतियों को बड़े ही खूबसूरती से इसे शब्दों में ढ़ाला गया है कवि निलय ने।
दरअसल इस कविता की मनोदशा विवशता की बर्बरता की दास्तां की तरह है जो पूरी कविता में ही व्यक्त हुआ है... व्यथा की कविता संवेदना का जटिल शास्त्र लिखता है..और तब कविता, भाषा की बर्बरता के साथ ही पटल पर आ पाती है...पर यहाँ कविता का मूल जिस सरलता और तरलता के साथ व्यक्त हुआ है वह काबिलेगौर है।
कविता की शाश्वतता कवि मन की जटिलता का परत दर परत का अक्षुण्ण विवेचन है... पहली कविता "मैं गावँ से जा रहा हूँ" तथा "जिबहबेला" जिस भावप्रणित्ता के साथ लिखी गयी है वह देशज और खांटीपने के साथ शहर के जीवन से परपस्पर सवांद करती है। इस कविता में मार्क्सवादी विचार का बुनियाद छुपा है तो साथ ही व्यथापूर्ण कंटकीय जीवन का विवरण भी है....समाज का दोहरा चरित्र पर कटाक्ष और जातीय वर्गीकरण के उत्पीड़न का इतिहास भी.... जिबहबेला कविता की अंतिम पंक्ति...गड़ासा है दिल्ली के हाथ पढ़ते ही राजनीति, राजनीतिज्ञ और सत्ता के बीच क्षुद्र लालच के लिए रचा जा रहा पूरा परिदृश्य और गाँव की मुश्किल हालात सामने आ जाते है।
इसी तरह सबरी के पिता कविता भी संवेदना से घनीभूत है। इसमें वेदना भी है तो दुर्दुम्भ तल्ख़ सच्चाई से पिता और पुत्री के अदृश्य नयन संवाद से नम आँखों की विवशता भी। भावनाओं के ज्वार से भरी बड़ी मार्मिक कविता है जिसमें संवेदना का उत्कर्ष आँखों के कोर गीले कर देता है।
निलय जी जन जन के कवि यायावर है। इनका लिखा पढ़ने से यह सुकूँ मिलता है कि कोई फक्कड़ कवि शहरों में गावँ लिए चल रहा है...
अखिलेश भाई इस शानदार प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार मित्र..इनकी फ़क्कड़ी की डायरी पढ़ाइये.. आधुनिक सांकृत्यायन सरीखा यह व्यक्तित्व विश्व पटल पर ज़ल्द गावँ गंगा का आवाज बनेगा....
सादर
Anita Manda: अखिलेश जी के ज़रिये निलय जी की कविताओं से रूबरू होने का अवसर मिला, इन पर आई टिप्पणियों ने उन्हें और अधिक गहनता से आत्मसात करने में सहायक की भूमिका निभाई।
राजनितिक विद्रूपता के विरुद्ध हथियार सरीखी धार कविताओं में मौज़ूद है। उपेक्षित वर्ग की पीड़ा, हाशिये के लोगों की कराह और दुनिया की आधी आबादी का संघर्ष उनके लेखन में परिलक्षित होता है।
मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे... मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ ।
निलय की कविताएँ पाठक से संवाद करती हैं। उसके आँसू पोंछती हैं, वे आत्ममुग्धता की शिकार नहीं बल्कि कवि और समाज के बीच का पुल हैं।
समाज के अंतहीन ज़ख्मों के गहरे निशानों की अंतहीन चित्रावली इनमें मौजूद है जो कभी भूमिहीन किसान का दर्द दिखाती है, कभी मजबूर औरत की तस्वीर
किसी कौरव की सभा नही है यह
उत्सव है शादी का
ध्वनि और प्रकाश की जगर -मगर
लोगों से खचाखच भरा बावन चोभ का
शामियाना
और कांप रही है एक औरत
दो दिलो के मिलन में
खुशियो का सट्टा है जिसका
वे जरूर नचायेगें
उसे नंगा
अपसंस्कृतियों से निजात पाने व मूल्यों को स्थापित करने के मार्ग में निलय का रचनाकर्म गंगा की माफ़िक है।
जतिन अरोरा .... इन्हें बस कुछ कविताएँ कह लेना ज़्यादती होगा..... ये जीवन दर्शन है .....ये जीवन संघर्ष है ......बरसों से चल रहे गोरखधंधे की दुकान पर ताले की गुंजाइश है....एक एक शब्द के नीचे लंबी लड़ाई और तपस्या की नींव है। एक एक शब्द सूखती नदियों की रेत से सना है...एक एक शब्द में मरते परिंदों का रूदन है...कटते गिरते दरख्तों की आह है। सीमेंट तले चरमराते झोपड़ें हैं। हर शब्द गंगा के आँसू लिए हुए है।
इन कविताओं लिखा नहीं गया है जिया गया है. पल पल ज़हर की मानिंद निगला गया है।
स्त्री के मान की और झूठी शान की आवाज.
गाँवों में घुसते शहर..साथ में घुसती तबाही का आलम....
आम आदमी के दर्द को लेकर चलती और सूखती गंगा....निलय जी को सिर्फ साहित्यकार के ताैर पर देखना संभव नही....मेरे लिए वह इतर हैं। कलम लेकर निकले इन्कलाबी हैं....एक आंदोलन हैं,...
अखिलेश जी बहुत बहुत शुक्रिया... निलय जी को आपसे सुना था...जाना नहीं था...परसों ही आप ने कहा था परिचय करवाएंगे.. धन्य हूँ कि जान पाया....चाहे अंशमात्र ही सही 🙏
Madhu Saksena: अखिलेश ये कैसी कविताएँ पोस्ट की आज ?
नही ,ये कविताएँ नही है ।ये तो जर्जर होती संस्कृति और और मानसिकता की कहानियाँ है ।ये शांत होकर कहती है और हम आग हो जाते है ।
मैं गांव से जा रहा हूँ ....बात इतनी सी ही नही ....भूत वर्तमान और भविष्य को धार पर रख देती है ।एक मुठ्ठी दर्द पक कर दर्द का ज़खीरा बन जाता है ।छतीसगढ़ में हूँ .. ये कहानी यहां भी कही जाती है ।कोई एक बात सब देश की सीमा तोड़ जाती है और पूरी धरती को समेत लेने की योग्यता रखती है ।
गंडासा है दिल्ली के हाथ में .....बस यही तो कहा निलय जी ने और सारे गंडासे चमक गए ।आँख नही खुल पा रही इनकी चमक से ।चमक से या भर भर आने से ...समझ ही नही पा रही ।
शबरी के पिता ... ये कविता अगर निलय जी की नही बताई जाती तो निश्चित ही अखिलेश की समझती ।अब समझ गई ।निलय जी की अगली पीढ़ी तैयार हो रही ...उनके विजय पथ की पताका थामे
। शुभकमनाएं अखिलेश ।शबरियों की आँख सपने देखने लगी होगी ।'पाश' भी खुश हो लेगें ।
और गोली चलती है ...आज भी चल रही ।कभी उत्सव कभी धर्म का बहाना पहन कर ।कई मन्दिर सिद्ध कर रहे की वहां सिर्फ पत्थर हैं ।पत्थर ही तो है कभी राह में ,कभी जीवन पर और सबसे ज्यादा अक्ल पर ।
मैं किसान हूँ .....कभी धीरे धीरे तो कभी झन्न से गिर ही गए सब सपने ।छोटे छोटे ही तो थे ..बखरे तो समेट ही नही पाये हाथ ।वे कठोर मेहनतकश हाथ भी मज़बूर .....
निलय जी की कविताएँ ... हथियार लेकर खड़ी है और मानो हम खुद उनसे खुद को घायल किये जा रहे ।उनके मौन में इतना शोर भरा है विचारों के अंधड़ में कांपती है मानवता ....
बहुत बधाई निलय जी को ।
आभार अखिलेश ।
कोमल सोमरवाल :...समकालीन कवियों को पढना बेहद रुचिकर लगता है।
जब ईमानदारी बेमानी लगने लगती है और सत्ता छलावे की सीमाएँ लाँघ जाती है, जब आम आदमी की कठिनाइयां विद्रोह में तब्दील होने लगती है तब उठती है परिवर्तन की माँग.. निलय जी की कविताओं में ऐसे ही परिवर्तन की माँग स्पष्टत: परिलक्षित होती है।
निलय जी की "और गोली चलती है" कविता विडंबनात्मक यथार्थ की इस तरह की सपाट अभिव्यक्ति दुर्लभ नहीं सहज उपलब्धि है। T.S. Eliot की "The Preludes" में नारी की इस दशा को लेकर इस्तेमाल किये कुछ पंक्तियाँ याद आती है जिसका अनुवाद करने की कोशिश की है:-
सड़क महिला के समान
लेटती है पीठ के बल
वो झेलती है पुरुषों के दबाव
जो गुजरते है उस पर से
और रौंद देते है उसकी आत्मा
कई हजारों बार
मैं गाँव से जा रहा हूँ कविता पलायन की मनोस्थिति दर्शाती है। प्रवास हमेशा संवेदनाओं से जुड़ाव रखता है।
"अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह मांगने जा रहा हूँ"
गहरी संवेदनाएँ.. बेदखल में नगरीकरण पर निलय जी ने उम्दा कटाक्ष किया।
मानस पटल को झकझोर देने वाली प्रस्तुति के लिए अखिलेश जी को बधाई.. और पटल को आभार💐💐💐
प्रवेश सोनी ....अखिलेश जी आज आपको पुनः धन्यवाद दे रही हूँ ,यह कविताएं मात्र पढ़ने के लिए नही है इनके विद्रोह को ,विवशता को ,बैचनी को ,अपने भीतर महसूस करने की जरूरत है ।यह कवितायेँ सकीबा के लिए एक दिन का उत्स नही है हमेशा याद रखी जाने वाली कविताएं है ।निलय जी का रचना कर्म जन के बेबस मन की आवाज़ है ।
गाँव से जा रहा हूं …...पनाह मांगने जा रहा हूं ,
इस कविता में गाँव से बिछुड़ने का दुःख गर्दन झुका कर रोम रोम से बिसूर रहा है ।किसी सूतक का वस्त्र पहने........दीनता के भाव में बेबसी
गंडासा है दिल्ली के हाथ , राजनीती के छल प्रपंच ,समझते है फिर भी जिबह हो रहे है कवि ने आगाह किया फिर आगये ....
यह सच कहा है कि एक कवी की कलम ही हमें ऐसी विद्रूपताओं से बचा सकती है ।
शबरी और पिता की आँखों का संवाद एक बार फिर आँखों को नमी दे गया ।झन्न से बजी पीतल की थाल ,चक्करधिन्नी की तरह घूम गया आकाश ....आह ,शब्द नही कह पाते ऐसे दुखों का मर्म
और गोली चल गई ....अखिलेश जी आपकी बात से सहमत हूं क्यों यह स्त्री वर्ग स्त्री विमर्श की श्रेणी में नहीं आ पाता ।लेकिन एक सत्य से भी वाकिफ़ हूं स्त्री विमर्श कैसा ....इस कविता का इन्कार दहला तो देता है पर इन्कार शब्द को नवाज़ देता है ।
बेदखल ,सर्वहारा वर्ग की बेबसी अपनी जड़ों से छूट कर कोन हरा रह पाया है ।कसाई कर रहा है मेरी बेदखली का इन्तजार ,....इस कलम के आगे नत हूं ।
बोधिसत्व जी ....निलय जी की कविताओं का प्रभाव असीम है, वे हिंदी की एक अमिट वाणी हैं
ये अमर कविताएँ हैं
कालिदास बाल्मीकि भास तुलसी के स्तर की लेखनी है निलय की
उनको अनेक साधुवाद
मीना शर्मा ...घर परिवार के सुख त्यागकर ,गंगोत्री से गंगासागर तक की कठिन यात्रा का अमृत बन कर छलकना "निलय" जी के कठोर तप का फल है ।
,कविता या पूरा खंडकाव्य ,दो ही पंक्तियाँ काफी हैं....
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ ।
हर कविता गहन ,गंभीर अर्थ
लेकर साहितय की जड़ों को सींचती ।
निलय जी की कविता की गूँज ज्यों गंगा के तट पर शंखनाद !!
बधाई निलय जी !
आभार अखिलेश जी काल चिंतन की कविताओं से रू ब रू
कराने के लिए ।
💐💐💐💐💐💐💐
अबीर आनंद ......ग्रामीण परिवेश की कविता आज पढ़ने को मिली तो लगा मानो बाल पकड़ कर निलय जी ने झकझोर दिया हो। शहर के छलावे में एक अरसे से रहते हुए विचार आता था कि राजनैतिक नारों की बुलंदियों में शायद कुछ बदल गया हो पर ऐसा कुछ भी हुआ लगता तो नहीं है। कविता में यदि एक आध पंक्ति भी जीवन भर याद रहे तो कविता सार्थक हो जाती है। निलय जी की कविता आज कल के राजनीति को तटस्थ रखकर भी, बिना कोई पक्ष लिए देहाती पिछड़ेपन को रेखांकित करती है और एक जनजागरण का अलख जगाती है। मैं एक शिक्षक की भाँति विवेचना करने से बचता हूँ क्योंकि शिक्षक विवेचना मन में बहुत देर तक नहीं गूँजती। निलय जी की कविता सीधे सपाट शब्दों में समझें तो देर तक झकझोरती रहती है, कौंधती रहती है।
प्रमोद कुमार तिवारी ...आज जबकि जीवन और कृतित्व में दूरी बढ़ती जा रही है और अनेक मोर्चों पर अलग अलग रूपों में रह कर चालाकी से काम को साध लेना एक सफलता की तरह देखा जा रहा हो। निलय जी जैसे लोग एक भरोसे की तरह नजर आ रहे हैं। कि सबकुछ बाजार नहीं तय करेगा, सब कुछ भौतिक सुविधाओं के तर्क से नहीं चलेगा कि हमारा होना केवल शरीर और मजे का होना नहीं है। और घर परिवार के बाहर भी हमारा अस्तित्व है। सुख शब्द जिसके मूल में ही (सु-ख-- सुंदर विस्तार या आकाश) विस्तार निहित है वह कितना संकुचित होता जा रहा है। इतना कि पड़ोसी तक के लिए या अपने ही परिवार के बुजुर्ग तक के जगह नहीं अंटती उसमें। ऐसे समय में प्रकृति और पानी के हक में खड़ा होना एक बड़ा काम है। सवाल यह नहीं है कि इससे समाज को या गंगा को या सरकार को कितना फर्क पड़ेगा। मेरे लिए कम से कम यह महत्वपूर्ण है कि मुझे कितना फर्क पड़ रहा है। एक व्यक्ति के भीतर कुछ बदल रहा है या नहीं। गंगा बहुत बड़ी हैं और सरकार का भी अपना ढंग है परंतु इससे किसी व्यक्ति का काम छोटा नहीं हो जाता और इस बात को राम के सेतु निर्माण के समय गिलहरी के माध्यम से बहुत पहले दिखाया जा चुका है। जानता हूँ कि कुछ लोग इसे निलय जी की बड़ी महत्वाकांक्षा से भी जोड़ेंगे पर कुछ समय बाद ये बातें महत्व नहीं रखतीं। आज निलय जी की कविताओं पर सुखद चर्चा हो रही है। कविता और जीवन के साथ की जरूरत दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही हैै। कच्चे अनुभवों की मात्रा कम कवियों में दिखती है। निश्चित रूप से कुछ कवि कम अनुभवों से भी शानदार ईमारत बनाने में सिद्धहस्त हैं परंतु अनुभव अपनी बात अलग से कहते हैं। निलय जी की कविताओं में कलात्मक उत्कृष्टता से कहीं अधिक वैयक्तिक ईमानदारी नजर आती है जिसे उनकी विशिष्टता के रूप में देखा जा सकता है।
मित्रों, आज मै एक पूर्ण कवि की अवधारणा को अपने कृतित्व व व्यक्तित्व से यथार्थ में बदल देने वाले समकालीन कविता के उस महत्वपूर्ण हस्ताक्षर को आपसे सामने रखता हूँ जिसके बिना गांव,किसान और गंगा की बहुत सी चिंताओ को स्वर नहीं मिल सकता था उसके सिसकियो को चीख और ललकार में बदल देने के लिए जिस कंठ की आवश्यकता थी वह सिर्फ निलय के पास है । कविता को अभियान बना देना उसे नारा बना देने से आगे की चीज है ।
निलय उपाध्याय नवे दशक से आरम्भ हुई हिंदी कविता के उस पीढी का प्रतिनिधित्व करते है जिसने अपने स्वत्व व अस्मिता की लड़ाई लड़ी है कविता कैसे कवि के आत्म का बोध होता है और कैसे वह उसके अंधेरे कोने में फैला उजास है यह देखना हो तो निलय की कविताएँ देखी जा सकती है ।भोजपुरी अंचल का वृहदतर क्षेत्र अपनी सांस्कृतिकता, अनन्यता,संघर्ष शीलता और स्वप्नशीलता के साथ साथ बेपनाह वेदना के जिन आयामो के साथ निलय की कविताओ में व्यक्त होता है उतना किसी और समकालीन कवि की कविता में नहीं ।ठेठ देशी मुहावरो में जीवन के संघर्षो से सिरजे बिम्ब जब कवि के अन्तर्मथन को स्वर देते है तो यह कविता एक जीवन राग में बदल जाती है ।जय पराजय के भाव से अलग यह कविता हिंदी जनता के जागरण की कविता है जिसमें पराजय की क्षणिक आवेग है तो जय उसकी संकल्प चेतना का प्रबल भाव ।
निलय मुंबई मे जब रेखाकिंत किये जाने तक की हद तक स्थापित थे तब वह फिल्मी दुनिया का वैभव त्याग साइकिल से गंग्रोती से गंगा सागर तक की यात्रा पर निकल पड़े,गंगोत्री से गंगा सागर तक यात्रा वृतांत लिखा जो एक प्रामाणिक ग्रंथ जैसा बन गया है। यात्रा के वर्तमान चरण मे वो घर परिवार का त्याग कर गंगा के लिए जीवन समर्पण का व्रत ले चुके है ।बनारस के घाटो पर महीनो गोष्ठियो व साहित्य सृजन से लोग जुटे है जिसमें आम जन से लेकर देशभर के पर्यावरण विद, लेखक शामिल है,नहीं शामिल है तो विदेशी कंपनियां, सत्ता तंत्र व सरकार ।
तो आइये आज एक कवि के संघर्षो का उत्सव मनाते है वो हमारे कुल के है हम सब का साथ उन्हें संबल देगा ।
कवि परिचय :
जन्म : 28 जनवरी 1963
स्थान : दुल्हन पुर,बक्सर बिहार ।
कृतिया :
कविता संग्रह : अकेला घर हुसैन का , कटौती ,जिबह बेला
उपन्यास : अभियान वैतरणी और पहाड़
यात्रा वृतांत : गंगोत्री से गंगा सागर तक
नाटक : पापकार्न विद परसाई
इसकू अलावा निलय ने टीवी सीरियल देवो के देव महादेव आदि का भी लेखन किया है ।
======================================
1. मैं गाँव से जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ
अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
खेत चुप हैं
हवा ख़ामोश, धरती से आसमान तक
तना है मौन, मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे... मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ ।
2.जिबह बेला
मेरे मुँह मे ठुँसा है कपड़ा
ऐंठ कर पीछे बँधे हैं हाथ
कोई कलगी नोचता हॆ
कोई पाख
कोई गर्दन काटता हॆ
कोई टाँग
हलक मे सूख गई हॆ
मेरी चीख़
मारने से पहले जैसे बिल्ली
चूहे से खेलती है
कोई
खेल रहा है हमसे
लो
फिर आ गए
फिर आ गए सात समन्दर पार से
कसाई...
गंडासा है दिल्ली के हाथ ।
3. शबरी के पिता:
पिता के आने की खबर सुनकर
कुछ कह नहीं पाई
शबरी
और आंख भर आई
लोटा में पानी ले आई
मल मल कर धोया गिलास
पीतल के थाल में धोयेगी पांव ..उतार देगी
छह कोस पैदल की थकान
यह क्या कम है कि
इस उम्र में चलकर आये पिता
जूते के आहट से जान लेती थी शबरी
कि पिता आ रहे है ..
आज भी जान लेगी कि पार
कर गये है घर का चौखट
बरामदा
इस घर में उनकी बेटी है
परदे पर कढ़े फूल से समझ जायेंगे ।
देर हुई तो थाल में पानी बदल दिया
ग्लास में लगी थी मिट्टी जरा सी कहीं
मल मल कर साफ किया
बिस्तर झाड़ा
बक्सा पर कपड़ा डाला
और कुछ न बचा करने को तो रो पड़ी
कैसी हो बेटी
कैसे कट रहे है दिन
कहने को कह ही देगी शबरी
ठीक ..बिलकुल ठीक..कौन बेटी चाहेगी
कि बेटी का हाल जान
दुखी हो पिता
लोटा फुटहा है
बूंद बूंद कर रिस गई शबरी
झन्न से बजी पीतल की थाल
चकरधिन्नी कीतरह घूम गया आकाश
और बचपन से जवान होने तक की
तमाम यादो को
एक मोटर साइकिल रौंदती हूई चली गई
जिसे नहीं दे सके थे पिता
तत्र करने के बाद भी
जरूर कांप रहे होंगे
जाते हुए
पिता के गठिया वाले पांव ।
4. और गोली चलती है
आखिर क्या चला जायेगा
एक रंडी का
नंगा होकर नाचने में
उसकी कीमत हम चुकायेगें
खत्म हो जायेगा
शादी का उत्सव
खत्म हो जायेगी शादी की रौनक
उतर जायेंगे लाल पीले रंग
बची रहेगी शान नंगा नचाने की
एक औरत को नंगा नचाने की शान
किसी कौरव की सभा नही है यह
उत्सव है शादी का
ध्वनि और प्रकाश की जगर -मगर
लोगों से खचाखच भरा बावन चोभ का शामियाना
और कांप रही है एक औरत
दो दिलो के मिलन में
खुशियो का सट्टा है जिसका
वे जरूर नचायेगें
उसे नंगा
छोड़ जायेंगे
गंगा के पवित्र मैदानी इलाके में
शराब की खाली बोतलें और
एक औरत को नंगा नचाने की शान
अगर इंकार करेगी
तो चलेगी गोली...
और गोली चलती है ...
5. बेदखल
मैं एक किसान हूँ
अपनी रोजी नहीं कमा सकता इस गाँव में
मुझे देख बिसूरने लगते हैं मेरे खेत
मेरा हँसुआ
मेरी खुरपी
मेरी कुदाल और मेरी,
जरूरत नहीं रही
अंगरेज़ी जाने बगैर सम्भव नहीं होगा अब
खेत में उतरना
संसद भवन और विधान सभा में बैठकर
हँसते हैं
मुझ पर व्यंग्य कसते हैं
मेरे ही चुने हुए प्रतिनिधि
मैं जानता हूँ
बेदख़ल किए जाने के बाद
चौड़े डील और ऊँची सींग वाले हमारे बैल
सबसे पहले कसाइयों द्वारा ख़रीदे गये
कोई कसाई...
कर रहा है मेरी बेदख़ली का इंतजार
घर के छप्पर पर
मैंने तो चढ़ाई थी लौकी की लतर -
यह क्या फल रहा है?
मैने तो डाला था अदहन में चावल
यह क्या पक रहा है?
मैंने तो उड़ाये थे आसमान में कबूतर
ये कौन छा रहा है?
मुझे कहाँ जाना है-
किस दिशा में?
बरगद की छाँव के मेरे दिन कहाँ गये
नदी की धार के मेरे दिन कहाँ गये
माँ के आँचल-सी छाँव और दुलार के मेरे दिन कहाँ गये
सरसों के फूलों और तारों से भरा आसमान
मेरा नहीं रहा
धूप से
मेरी मुलाकात होगी धमन-भट्ठियों में
हवा से कोलतार की सड़कों पर
और मेरा गाँव?
मेरा गाँव बसेगा
दिल्ली मुम्बई जैसे महानगरों की कीचड़-पट्टी में .
================================================
गत वर्ष नवम्बर में निलय भैया विशेष रूप से साबरमती नदी के किनारे बसे अहमदाबाद शहर की मल जल निकास परियोजना देखने के उद्देश्य से आये थे।परंतु इस यात्रा के दौरान निलय भैया ने साबरमती नदी का अनकहा एवं अनदेखा स्वरुप दिखाया वह मेरे जैसे वर्षो से अहमदाबाद में रहने वाले लोगो के लिए हैरान कर देने वाला था। उस अनकहे सत्य को निलय भैया ने मरी हुई नदी का मुकुट नाम दिया था, जिसे हम सभी साबरमती रिवेरफ़्रॉन्ट कहते आये है।
उस यात्रा की निलय भैया के साथ की कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूँ
सभी तस्वीरें जितेन्द्र राजपूत जी के सोजन्य से
===============================================
निलय जी की कविताओं के सापेक्ष समूह के कुछ सदस्यों ने भी सूखती नदियों के दर्द को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया
गंगा- दोहे
करती विष का आचमन, गंगा की हर धार।
भागीरथ अब अवतरे, करने बेड़ा पार।।
आँचल मैला हो गया, काया पल-पल क्षीण।
गंगा हँसती खेलती, क्यों है अब ग़मगीन।।
गंगा में मुख देखता, चाँद हुआ बेहाल।
मैली छवि को पोंछने, बादल हुआ रुमाल।।
शुभ्र धवल आँचल कहाँ, मैली गंगा देह।
बिसरा बैठे लाल ही, माँ से अपना नेह।।
अनीता मंडा
===================================
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।
एक प्यासा दूसरे से प्यास का मांगेगा हल
आसमानों की तरफ हर सर उठा रह जाएगा।
गर्म आंखें सुलगी सांसें और दहकता हर बदन
रहमतों की बारिशों को ही खोजता रह जाएगा।
गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।
हादसे की चाप है दिलशाद साहिब ये ग़ज़ल
जो समझ लेगा वो शायद कुछ बचा रह जाएगा।
- भवेश दिलशाद
=========================================
गंगा का पुत्र संवाद :
कल गुजरा
चांद के करीब से
साफ दिखाई पड रही थी
चेहरे की झुर्रिया
मुक्तिबोध ने कहा
और बूढा हो गया चांद
यूं ही गंगा भी
सुनती है निलय की बात
उनके बलिया आने की खबर
हवाओ ने दी चीतल को
कछार पर पानी पीते चीतल ने
बताया डाल्फिन को
और फिर उसी ने कहा होगा गंगा से
कि तेरा बेटा आ रहा है बलिया
बचा खुचा पानी समेट
बुढापे में बंधा तोड
बढियाई गंगा पहुच गई गांव के मुहाने
पुत्र के पांव पखारे घुटने तक
प्यासे पूत ने मांगा जल
पर मां जानती है
अब जल, जहर है सो
गंगा ने आंखो के नीर से भरा
उसका कासा ,कंमडल
पहले फफकी
फिर दहाड मार लिपट गई गले से
बुदबुदाई कान मे
अब इहे कंमडल टांग ल कांधे
ले चलअ गंगा सागर
लेटा द चंदन लकडी पे
फोड द मटका
कई द दाहा तापी
जटा से बा उद्गम
तोहरे कमंडल मे हो जाई मुक्ति
आ तबले कही द तनि हाकिम से
बडकी दतवा वाला मशीनवा हटा ले
छतिया से
कोडे ले बाबू लोग
त बहुत पिराला ।
अखिलेश
=============================================
हर शहर और गाँव में
रोज ही
मर रही है एक नदी
मेरे कस्बे में परासरी पूरी मर चुकी है
बेतवा मरने की कगार पर है
पास में नेवन सिर्फ दिखती है
बरसात में
और फिर
उज्जैन में क्षिप्रा भी तो
नर्मदा के पानी से जिंदा है.......!!!!
सब कोई देख रहा है अपने जीवन में
मरती हुई नदियों को.........
गंगा अकेली नहीं है
देश में
दिल्ली में यमुना और
नासिक में गोदावरी भी तो मर चुकी हैं
पूरी की पूरी.........
नदियों का मरना
सभ्यताओं के खात्मे का संकेत है
जैसे नदियों के होने से बनी-बसीं थीं सभ्यतायें
नगरों के प्रति हमारा मोह
विकास के प्रति हमारा दुराग्रह
मार रहा है नदियों को................
कोई नहीं बचा सकता
इस तरह मरती हुई सभ्यताओं
जैसे नदी के मरने पर रह जाती है गंदगी
वैसे ही सभ्यताओं के मरने से
नगरों में जिंदा लाशें चलती फिरती
दिखाई देंगी.........
सभ्यताओं के बिना मनुष्य
जिंदा लाश ही तो रह जायेगा एक दिन.......।
संजीव जैन
================================================
कविताओं पर प्रतिक्रियायें
ब्रज श्रीवास्तव ....अग्रज मित्र कवि की कविताओं को साकीबा में, देखकर विभोर हूँ, यहां कविता के बहाने, कुछ यथार्थ तैर रहे हैं, कुछ विवश सत्य गांव से शहर की ओर बढ़ते ही जा रहे हैं. अपने ही प्रतिद्वंद्वी से पनाह मांगने के दिनों में कुछ शख्स कविता में सच को स्थापित करते हुए, समझौतों को स्थगित करते जा रहे हैं, उनमें से एक हैं निलयऐसे कवि प्रलयके बाद तक रहे आने की संभावना को स्थापित करते हैं. धन्यवाद अखिलेश जी, दोस्तो, आज न चूकिये, आपके शब्दों का गुच्छा न केवल कवि और कविता की महत्ता बढ़ायेगा, बल्कि साहित्य जगत की सत्ता के पथ में एक फूल बिछाकर कवि को हौसला देगा...
सईद अय्यूब ....ये जो कविताएँ प्रस्तुत की गयी हैं, वे निलय के कवि और कविपन को पूरी तरह प्रतिनिधित्व नहीं दे पातीं। कम से कम उनकी दस कविताएँ देनी चाहिये थी। इन कविताओं से जैसा प्रतीत होता है, निलय जी उससे बड़े, बहुत बड़े कवि हैं। बड़े कवि होने के साथ ही साथ वे बड़े इंसान भी हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से उन्हें बहुत नहीं जानता। बस एक बार मुलाक़ात हुई है। पिछले साल के विश्व पुस्तक मेले में। पर जितना जानता हूँ उसके आधार पल उपरोक्त बातें कह रहा हूँ। अखिलेश भाई, शुक्रिया उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिये।
दिनेश मिश्रा .....निलय जी की कविता सीधे सीधे दिल को छू लेने वाली कविताएँ हैं, सीधे सच्चे तरीके से गाँव और उससे जुड़े अहसास को असरदार तरीके से बयान करती हुई, कविता कभी खुश करती हैं, तो कभी पलकें भिगो देती हैं, खुरपी कुदाल से लेकर शबरी की फ़िक़्र हमे भी फ़िक़्रों में डुबो देती हैं।
प्रस्तुति के लिये धन्यवाद
सुमन सिंह ....."मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं मेरे पुरखे...।कितनी गहरी अभिव्यक्ति, कितना गहरा दर्द।,
जिबह के माध्यम से समाज मे मचे घमासान पर बहुत सटीक टिप्पणी। "लोटा फुटहा है,बूँद बूँद रिस गयी शबरी....चकरघिन्नी की तरह घूम गया आकाश.....जरूर काँप रहे होंगे जाते हुए पिता के गठिया वाले पाँव... कितने ही भाव , कितनी ही शबरीयों का दर्द पिरोये पंक्तियाँ। निलय जी को बहुत बधाई। अखिलेश जी को इतनी सुन्दर कवितायें पढ़वाने के लिये बहुत धन्यवाद🙏
हरमिंदर सिंह :...अखिलेश जी बहुत बहुत आभार निलय जी से रूबरू करवाने के लिये..निलय जी के शब्द बोलते हैं और वे गूंजते हैं बार-बार..
किसान और गांव की बात जमीन से जुड़े मन की बात है..
Akhilesh Shreewastav: हरमिन्दर भाई, आप उपन्यासकार हो । आपने बहुराष्ट्रीय कंपनियों व जन और उसके लेखन का संघर्ष भी कमोवेश देखा है निलय की चिंताये भी वही है उनकी दृष्टि बड़ी है ।
और गोली चलती है : निलय उपाध्याय
प्रस्तुत कविताओं में चौथी कविता स्त्री विमर्श की नहीं उसके सशक्तिकरण की कविता है ।स्त्रीयो में भी एक उपेक्षित वर्ग है जिन्हें हम सिर्फ जीवन के विलास में शामिल करना चाहते है उनके लिए हमारे पास कुछ नियत घंटे है ,कुछ अंधेरा है, रात है पर दिन नही है वो हमारे लिये जिंदा कबाब है वो हमसे दो घूंट आब चाहती है पर हमारे पास उनके लिये सिर्फ शराब है ।
स्त्री विमर्श क्या मध्यम वर्ग की स्त्रीयो तक सिमट गया है यह विमर्श अपना दायरा क्यो नहीं बढ़ाता और इन स्त्रीयो को शामिल क्यों नहीं करता । वह इन्हे स्त्री मानता भी या नहीं या फिर निलय की पहली कविता पंक्ति जैसे युद्ध हार चुका है और विजेता से पनाह मांग रहा है ।
इस कविता का पूरा कविता तत्व इसकी अंतिम पंक्ति में है कि और गोली चलती है ...
यह कितना बड़ा इंकार है यह ऐसा है जैसे वहशी भेडि़यो के बीच फंसी एक हिरनी अचानक कंठ से शेरनी की आवाज निकालने लगे जबकि उसे पता है कि दांत गले पर गड़ने वाले है ।
अगर इंकार करेगी
तो चलेगी गोली...
और गोली चलती है ...
स्त्रीयो को बहुराष्ट्रीय माँल्स में खरीदारी करने को महिला सशक्तिकरण बताने वाला साहित्य व सरकार जुगलबंदी कर रही है जबकि असली लड़ाई ये स्त्रीया लड रही है इन स्त्रीयो के साहस पर कोई थपरी नही पीटता, निलय सुनते है और देखते है उनका संघर्ष ।
यही निलय का साहित्य, उनका विमर्श है जो उन चिंताओं को साहित्य मे शामिल करता है जिस पर दिल्ली मौन है इन पर लिखने के लिये कवियो को अंधेरो की, गंगा के किनारों पर फेकी शराब की बोतलो तक पहुँचना पड़ेगा तब उस नीरव में वह सशक्त इंकार सुनाई पड़ेगी,तब वह पुरूषिया ग्रंथि और उससे उपजा अट्टहास सुनाई पड़ेगा जिसमे स्त्री को नंगा नचा देना पुरूष होने की शर्त है ।
भवेश दिलशाद... निलय की कविताई एक आवाज़ है
लम्बे समय से मेरे मन में उहापोह चल रही है कि साहित्य या तो केवल साहित्यकारों के लिए लिखा जा रहा है या फिर साहित्य के विद्यार्थियों के लिए। लोक के लिए साहित्य का सृजन हाशिये पर है। खास तौर से कविता में यह हादसा बहुत गंभीर दिखता है। ऐसा है भी कि मैं किसी अनुचित विचार की गिरफ्त में हूं? ऐसा है तो क्यों है? क्या यह अकादमिकता का कोई षडयंत्र है? आदि-आदि प्रश्नों से जूझता हुआ मैं कभी-कभाी उस कविताई से भी रूबरू हुआ जो कश्मकश के इस अंधकार में पौ पफटती सी लगी। इसी आलोक में आज अग्रज निलय की पांच कविताएं बाध्य कर रही हैं, कुछ कहने के लिए, कुछ विचार के लिए और कुछ समझने के लिए भी।
बड़ी कविता पाठक से किसी किस्म की तैयारी की अपेक्षा नहीं करतीं, बल्कि पाठक को उद्वेलित कर और उठने के लिए तैयार करती हैं। बड़ी कविताएं चुंबकीय आकर्षण के साथ खींचती हैं अपनी ओर, न कि पाठक को नीचा दिखाते हुए आमंत्रित करने का ढोंग करती हैं। निलय की कविताएं बड़ी कविताएं हैं। अपने कथ्य में बख़ूबी गठी हुई ये कविताएं उन परदों को फाड़ती हैं जिनके पीछे छुपा समाज इस हकीकत को भूल गया है कि वह कितना नंगा है।
अगर मैं इस तरह कहूं कि पहली कविता औद्योगिकीकरण की कुरूपता, दूसरी कविता बाज़ारवाद की साज़िश और चौथी कविता पूंजीवाद व समाज की मानसिक विकृति आदि आदि को बयान करती है तो यह उथली समीक्षा होगी। यह सब है तो सही केंद्र में लेकिन बावजूद इसके इन कविताओं में इसके अलावा जो तत्व हैं, वाकई वह कविता को कविता और बड़ी कविता बनाते हैं। संवेदना का धरातल, विमर्श छेड़ने का माद्दा, सवालों के आईने में समाज को निरुत्तर कर देने की सलाहियत, तमाचा जड़ने जैसा प्रहार, एक साथ कई आंतरिक स्तरों को झकझोरने की क्षमता और शर्मसार या दुखी कर देने की तीव्रता जैसे अनेक तत्व इन कविताओं की कविताई के मरकज़ में हैं।
व्यंग्य तो आजकल ललित व सीधा भी होता है इसलिए व्यंग्य को इन कविताओं के संदर्भ में एक तीक्ष्ण विशेषण या किसी और बेहतर पर्याय की आवश्यकता पड़ती है। एक व्यंग्य वह होता है जो ताने जैसा चुभता है लेकिन यहां व्यंग्य तमाचे और मुक्के जैसा पड़ता है। लेकिन आभासी है। कुछ साहित्य की पुरोहिती सोच वाले कह सकते हैं कि ऐसा व्यंग्य, व्यंग्य की श्रेणी में नहीं आता लेकिन यहां तो आ रहा है। एक रंडी का नंगा होकर नाचना, बची रहेगी शान नंगा नचाने की, फिर आ गये कसाई... गंडासा दिल्ली के हाथ में है, गांव बसेगा महानगरों की कीचड़ पट्टी में... ये पंक्तियां पारंपरिक व्यंग्य की श्रेणी में नहीं हैं, इन्हें आंका जाना चाहिए। समर्थ आलोचक विचार करें।
निलय की कविताएं वास्तव में लोक की बात करती हैं, लोक के लिए सिरजी गयी हैं और लोक के हित के प्रश्नों की आवाज़ हैं। ये किसी साहित्यिक विमर्श को आमंत्रित करें या न करें, साहित्यकारों को जंचे या न जंचे, परन्तु लोक विमर्श का पटल प्रस्तुत करती हैं, लोक में पहुंचती ही नहीं, उसे उद्दीप्त करने की सामर्थ्य भी प्रदर्शित करती हैं। ये कविताएं आवाज़, एक बुलंद और बाग़ी आवाज़ की तरह हवाओं में गूंजने की सिफ़त रखती हैं और जो कविता आवाज़ बन सकती है, उसे न तो रोका जा सकता है, न नकारा जा सकता है और न ही क़ैद किया जा सकता है।
अग्रज निलय जी को साधुवाद और उम्मीदों व अपेक्षाओं से सिक्त शुभकामनाएं। अखिलेश को बधाई कि एक महत्वपूर्ण पोस्ट के ज़रिये चैतन्यता को सुषुप्तावस्था से निकाला और ब्रज भाई को भी एक गुलदस्ता कि मंच को ऐसे अवसरों के लिए ओपन रखा है।
Akhilesh Shreewastav: प्रमोद भाई
भवेश ने मान रख लिया यह पोस्ट देकर ।आपने जिन कविता तत्वो के आधार पर कवि व उसके साहित्य को समझने हेतु इंगित किया था भवेश भाई ने उन पर वह दृष्टि डाली है जो एक रचनाकार अपने साहित्यिक जीवन में निरंतर रच कर विकसित करता है ।
भवेश की एक गज़ल जल विमर्श का उन्वान रचती है पढ़वाऊंगा शाम को ।उसके दो शे़र तब तक रहेगे जब तक धरती पर जल है ।
भवेश को धन्यवाद नहीं कहूँगा, तुम्हें गले लगाये बिना यह शब्द बेमानी है ।
राकेश पाठक ..... आज साकिबा में जानदार प्रस्तुति...निलय जी के बारे में जानकार बेहद अच्छा लगा...
टटका बिम्बों और देशज शब्दों से भरी अपनी कवितायेँ लग रही है..यथार्थ को जमींदोज किये जा रहे उस घट की उत्तरकथा है इन कविताओं में । जो सर्वहारा और सर्वस्व हारा जन की दुर्दशा के इर्द गिर्द की जिंदगी में देखी है कवि ने..कवि की इन कविताओं और भाषा से ज्यादा कवि के उस मनोदशा को समझने की जरुरत है जो रची जा रही कविताओं के मूलस्वर का वायस बनी है...कवि की भाषा में समाज की चिंता है..देश के सपने है..और उन सपनों में हाड तोड़ रहे उस जन की बातें है जो इंडिया और भारत के दोआब में धंसे, दरकिनार कर दिए गए है..
कविताओं में जनवाद कवि की मौलिकता नहीं विवशता है बल्कि विचार के स्तर पर उस उद्वेलन की परिणीति है जो किसी आंदोलन का कारण बनने की उम्मीद लिए लिखी गयी है...
निलय जी मौन के कवि है, स्वाधीनता के कवि हैं, राही नहीं, राहों के अन्वेषी हैं, वे काल चिंतन के कवि हैं, वे आत्मान्वेषण के कवि है, यायावर हैं, वे नई भाषा संवेदना और शिल्प के चाकचिक्य के कवि हैं, वे अकेलेपन के अनुगायक हैं। आज की प्रस्तुत उनकी कवितायेँ जन और वाद के प्रतिमान की तरह है।
लोक-शिल्प,स्थानीये रंगों और अनुभूतियों को बड़े ही खूबसूरती से इसे शब्दों में ढ़ाला गया है कवि निलय ने।
दरअसल इस कविता की मनोदशा विवशता की बर्बरता की दास्तां की तरह है जो पूरी कविता में ही व्यक्त हुआ है... व्यथा की कविता संवेदना का जटिल शास्त्र लिखता है..और तब कविता, भाषा की बर्बरता के साथ ही पटल पर आ पाती है...पर यहाँ कविता का मूल जिस सरलता और तरलता के साथ व्यक्त हुआ है वह काबिलेगौर है।
कविता की शाश्वतता कवि मन की जटिलता का परत दर परत का अक्षुण्ण विवेचन है... पहली कविता "मैं गावँ से जा रहा हूँ" तथा "जिबहबेला" जिस भावप्रणित्ता के साथ लिखी गयी है वह देशज और खांटीपने के साथ शहर के जीवन से परपस्पर सवांद करती है। इस कविता में मार्क्सवादी विचार का बुनियाद छुपा है तो साथ ही व्यथापूर्ण कंटकीय जीवन का विवरण भी है....समाज का दोहरा चरित्र पर कटाक्ष और जातीय वर्गीकरण के उत्पीड़न का इतिहास भी.... जिबहबेला कविता की अंतिम पंक्ति...गड़ासा है दिल्ली के हाथ पढ़ते ही राजनीति, राजनीतिज्ञ और सत्ता के बीच क्षुद्र लालच के लिए रचा जा रहा पूरा परिदृश्य और गाँव की मुश्किल हालात सामने आ जाते है।
इसी तरह सबरी के पिता कविता भी संवेदना से घनीभूत है। इसमें वेदना भी है तो दुर्दुम्भ तल्ख़ सच्चाई से पिता और पुत्री के अदृश्य नयन संवाद से नम आँखों की विवशता भी। भावनाओं के ज्वार से भरी बड़ी मार्मिक कविता है जिसमें संवेदना का उत्कर्ष आँखों के कोर गीले कर देता है।
निलय जी जन जन के कवि यायावर है। इनका लिखा पढ़ने से यह सुकूँ मिलता है कि कोई फक्कड़ कवि शहरों में गावँ लिए चल रहा है...
अखिलेश भाई इस शानदार प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार मित्र..इनकी फ़क्कड़ी की डायरी पढ़ाइये.. आधुनिक सांकृत्यायन सरीखा यह व्यक्तित्व विश्व पटल पर ज़ल्द गावँ गंगा का आवाज बनेगा....
सादर
Anita Manda: अखिलेश जी के ज़रिये निलय जी की कविताओं से रूबरू होने का अवसर मिला, इन पर आई टिप्पणियों ने उन्हें और अधिक गहनता से आत्मसात करने में सहायक की भूमिका निभाई।
राजनितिक विद्रूपता के विरुद्ध हथियार सरीखी धार कविताओं में मौज़ूद है। उपेक्षित वर्ग की पीड़ा, हाशिये के लोगों की कराह और दुनिया की आधी आबादी का संघर्ष उनके लेखन में परिलक्षित होता है।
मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे... मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ ।
निलय की कविताएँ पाठक से संवाद करती हैं। उसके आँसू पोंछती हैं, वे आत्ममुग्धता की शिकार नहीं बल्कि कवि और समाज के बीच का पुल हैं।
समाज के अंतहीन ज़ख्मों के गहरे निशानों की अंतहीन चित्रावली इनमें मौजूद है जो कभी भूमिहीन किसान का दर्द दिखाती है, कभी मजबूर औरत की तस्वीर
किसी कौरव की सभा नही है यह
उत्सव है शादी का
ध्वनि और प्रकाश की जगर -मगर
लोगों से खचाखच भरा बावन चोभ का
शामियाना
और कांप रही है एक औरत
दो दिलो के मिलन में
खुशियो का सट्टा है जिसका
वे जरूर नचायेगें
उसे नंगा
अपसंस्कृतियों से निजात पाने व मूल्यों को स्थापित करने के मार्ग में निलय का रचनाकर्म गंगा की माफ़िक है।
जतिन अरोरा .... इन्हें बस कुछ कविताएँ कह लेना ज़्यादती होगा..... ये जीवन दर्शन है .....ये जीवन संघर्ष है ......बरसों से चल रहे गोरखधंधे की दुकान पर ताले की गुंजाइश है....एक एक शब्द के नीचे लंबी लड़ाई और तपस्या की नींव है। एक एक शब्द सूखती नदियों की रेत से सना है...एक एक शब्द में मरते परिंदों का रूदन है...कटते गिरते दरख्तों की आह है। सीमेंट तले चरमराते झोपड़ें हैं। हर शब्द गंगा के आँसू लिए हुए है।
इन कविताओं लिखा नहीं गया है जिया गया है. पल पल ज़हर की मानिंद निगला गया है।
स्त्री के मान की और झूठी शान की आवाज.
गाँवों में घुसते शहर..साथ में घुसती तबाही का आलम....
आम आदमी के दर्द को लेकर चलती और सूखती गंगा....निलय जी को सिर्फ साहित्यकार के ताैर पर देखना संभव नही....मेरे लिए वह इतर हैं। कलम लेकर निकले इन्कलाबी हैं....एक आंदोलन हैं,...
अखिलेश जी बहुत बहुत शुक्रिया... निलय जी को आपसे सुना था...जाना नहीं था...परसों ही आप ने कहा था परिचय करवाएंगे.. धन्य हूँ कि जान पाया....चाहे अंशमात्र ही सही 🙏
Madhu Saksena: अखिलेश ये कैसी कविताएँ पोस्ट की आज ?
नही ,ये कविताएँ नही है ।ये तो जर्जर होती संस्कृति और और मानसिकता की कहानियाँ है ।ये शांत होकर कहती है और हम आग हो जाते है ।
मैं गांव से जा रहा हूँ ....बात इतनी सी ही नही ....भूत वर्तमान और भविष्य को धार पर रख देती है ।एक मुठ्ठी दर्द पक कर दर्द का ज़खीरा बन जाता है ।छतीसगढ़ में हूँ .. ये कहानी यहां भी कही जाती है ।कोई एक बात सब देश की सीमा तोड़ जाती है और पूरी धरती को समेत लेने की योग्यता रखती है ।
गंडासा है दिल्ली के हाथ में .....बस यही तो कहा निलय जी ने और सारे गंडासे चमक गए ।आँख नही खुल पा रही इनकी चमक से ।चमक से या भर भर आने से ...समझ ही नही पा रही ।
शबरी के पिता ... ये कविता अगर निलय जी की नही बताई जाती तो निश्चित ही अखिलेश की समझती ।अब समझ गई ।निलय जी की अगली पीढ़ी तैयार हो रही ...उनके विजय पथ की पताका थामे
। शुभकमनाएं अखिलेश ।शबरियों की आँख सपने देखने लगी होगी ।'पाश' भी खुश हो लेगें ।
और गोली चलती है ...आज भी चल रही ।कभी उत्सव कभी धर्म का बहाना पहन कर ।कई मन्दिर सिद्ध कर रहे की वहां सिर्फ पत्थर हैं ।पत्थर ही तो है कभी राह में ,कभी जीवन पर और सबसे ज्यादा अक्ल पर ।
मैं किसान हूँ .....कभी धीरे धीरे तो कभी झन्न से गिर ही गए सब सपने ।छोटे छोटे ही तो थे ..बखरे तो समेट ही नही पाये हाथ ।वे कठोर मेहनतकश हाथ भी मज़बूर .....
निलय जी की कविताएँ ... हथियार लेकर खड़ी है और मानो हम खुद उनसे खुद को घायल किये जा रहे ।उनके मौन में इतना शोर भरा है विचारों के अंधड़ में कांपती है मानवता ....
बहुत बधाई निलय जी को ।
आभार अखिलेश ।
कोमल सोमरवाल :...समकालीन कवियों को पढना बेहद रुचिकर लगता है।
जब ईमानदारी बेमानी लगने लगती है और सत्ता छलावे की सीमाएँ लाँघ जाती है, जब आम आदमी की कठिनाइयां विद्रोह में तब्दील होने लगती है तब उठती है परिवर्तन की माँग.. निलय जी की कविताओं में ऐसे ही परिवर्तन की माँग स्पष्टत: परिलक्षित होती है।
निलय जी की "और गोली चलती है" कविता विडंबनात्मक यथार्थ की इस तरह की सपाट अभिव्यक्ति दुर्लभ नहीं सहज उपलब्धि है। T.S. Eliot की "The Preludes" में नारी की इस दशा को लेकर इस्तेमाल किये कुछ पंक्तियाँ याद आती है जिसका अनुवाद करने की कोशिश की है:-
सड़क महिला के समान
लेटती है पीठ के बल
वो झेलती है पुरुषों के दबाव
जो गुजरते है उस पर से
और रौंद देते है उसकी आत्मा
कई हजारों बार
मैं गाँव से जा रहा हूँ कविता पलायन की मनोस्थिति दर्शाती है। प्रवास हमेशा संवेदनाओं से जुड़ाव रखता है।
"अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह मांगने जा रहा हूँ"
गहरी संवेदनाएँ.. बेदखल में नगरीकरण पर निलय जी ने उम्दा कटाक्ष किया।
मानस पटल को झकझोर देने वाली प्रस्तुति के लिए अखिलेश जी को बधाई.. और पटल को आभार💐💐💐
प्रवेश सोनी ....अखिलेश जी आज आपको पुनः धन्यवाद दे रही हूँ ,यह कविताएं मात्र पढ़ने के लिए नही है इनके विद्रोह को ,विवशता को ,बैचनी को ,अपने भीतर महसूस करने की जरूरत है ।यह कवितायेँ सकीबा के लिए एक दिन का उत्स नही है हमेशा याद रखी जाने वाली कविताएं है ।निलय जी का रचना कर्म जन के बेबस मन की आवाज़ है ।
गाँव से जा रहा हूं …...पनाह मांगने जा रहा हूं ,
इस कविता में गाँव से बिछुड़ने का दुःख गर्दन झुका कर रोम रोम से बिसूर रहा है ।किसी सूतक का वस्त्र पहने........दीनता के भाव में बेबसी
गंडासा है दिल्ली के हाथ , राजनीती के छल प्रपंच ,समझते है फिर भी जिबह हो रहे है कवि ने आगाह किया फिर आगये ....
यह सच कहा है कि एक कवी की कलम ही हमें ऐसी विद्रूपताओं से बचा सकती है ।
शबरी और पिता की आँखों का संवाद एक बार फिर आँखों को नमी दे गया ।झन्न से बजी पीतल की थाल ,चक्करधिन्नी की तरह घूम गया आकाश ....आह ,शब्द नही कह पाते ऐसे दुखों का मर्म
और गोली चल गई ....अखिलेश जी आपकी बात से सहमत हूं क्यों यह स्त्री वर्ग स्त्री विमर्श की श्रेणी में नहीं आ पाता ।लेकिन एक सत्य से भी वाकिफ़ हूं स्त्री विमर्श कैसा ....इस कविता का इन्कार दहला तो देता है पर इन्कार शब्द को नवाज़ देता है ।
बेदखल ,सर्वहारा वर्ग की बेबसी अपनी जड़ों से छूट कर कोन हरा रह पाया है ।कसाई कर रहा है मेरी बेदखली का इन्तजार ,....इस कलम के आगे नत हूं ।
बोधिसत्व जी ....निलय जी की कविताओं का प्रभाव असीम है, वे हिंदी की एक अमिट वाणी हैं
ये अमर कविताएँ हैं
कालिदास बाल्मीकि भास तुलसी के स्तर की लेखनी है निलय की
उनको अनेक साधुवाद
मीना शर्मा ...घर परिवार के सुख त्यागकर ,गंगोत्री से गंगासागर तक की कठिन यात्रा का अमृत बन कर छलकना "निलय" जी के कठोर तप का फल है ।
,कविता या पूरा खंडकाव्य ,दो ही पंक्तियाँ काफी हैं....
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ ।
हर कविता गहन ,गंभीर अर्थ
लेकर साहितय की जड़ों को सींचती ।
निलय जी की कविता की गूँज ज्यों गंगा के तट पर शंखनाद !!
बधाई निलय जी !
आभार अखिलेश जी काल चिंतन की कविताओं से रू ब रू
कराने के लिए ।
💐💐💐💐💐💐💐
अबीर आनंद ......ग्रामीण परिवेश की कविता आज पढ़ने को मिली तो लगा मानो बाल पकड़ कर निलय जी ने झकझोर दिया हो। शहर के छलावे में एक अरसे से रहते हुए विचार आता था कि राजनैतिक नारों की बुलंदियों में शायद कुछ बदल गया हो पर ऐसा कुछ भी हुआ लगता तो नहीं है। कविता में यदि एक आध पंक्ति भी जीवन भर याद रहे तो कविता सार्थक हो जाती है। निलय जी की कविता आज कल के राजनीति को तटस्थ रखकर भी, बिना कोई पक्ष लिए देहाती पिछड़ेपन को रेखांकित करती है और एक जनजागरण का अलख जगाती है। मैं एक शिक्षक की भाँति विवेचना करने से बचता हूँ क्योंकि शिक्षक विवेचना मन में बहुत देर तक नहीं गूँजती। निलय जी की कविता सीधे सपाट शब्दों में समझें तो देर तक झकझोरती रहती है, कौंधती रहती है।
प्रमोद कुमार तिवारी ...आज जबकि जीवन और कृतित्व में दूरी बढ़ती जा रही है और अनेक मोर्चों पर अलग अलग रूपों में रह कर चालाकी से काम को साध लेना एक सफलता की तरह देखा जा रहा हो। निलय जी जैसे लोग एक भरोसे की तरह नजर आ रहे हैं। कि सबकुछ बाजार नहीं तय करेगा, सब कुछ भौतिक सुविधाओं के तर्क से नहीं चलेगा कि हमारा होना केवल शरीर और मजे का होना नहीं है। और घर परिवार के बाहर भी हमारा अस्तित्व है। सुख शब्द जिसके मूल में ही (सु-ख-- सुंदर विस्तार या आकाश) विस्तार निहित है वह कितना संकुचित होता जा रहा है। इतना कि पड़ोसी तक के लिए या अपने ही परिवार के बुजुर्ग तक के जगह नहीं अंटती उसमें। ऐसे समय में प्रकृति और पानी के हक में खड़ा होना एक बड़ा काम है। सवाल यह नहीं है कि इससे समाज को या गंगा को या सरकार को कितना फर्क पड़ेगा। मेरे लिए कम से कम यह महत्वपूर्ण है कि मुझे कितना फर्क पड़ रहा है। एक व्यक्ति के भीतर कुछ बदल रहा है या नहीं। गंगा बहुत बड़ी हैं और सरकार का भी अपना ढंग है परंतु इससे किसी व्यक्ति का काम छोटा नहीं हो जाता और इस बात को राम के सेतु निर्माण के समय गिलहरी के माध्यम से बहुत पहले दिखाया जा चुका है। जानता हूँ कि कुछ लोग इसे निलय जी की बड़ी महत्वाकांक्षा से भी जोड़ेंगे पर कुछ समय बाद ये बातें महत्व नहीं रखतीं। आज निलय जी की कविताओं पर सुखद चर्चा हो रही है। कविता और जीवन के साथ की जरूरत दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही हैै। कच्चे अनुभवों की मात्रा कम कवियों में दिखती है। निश्चित रूप से कुछ कवि कम अनुभवों से भी शानदार ईमारत बनाने में सिद्धहस्त हैं परंतु अनुभव अपनी बात अलग से कहते हैं। निलय जी की कविताओं में कलात्मक उत्कृष्टता से कहीं अधिक वैयक्तिक ईमानदारी नजर आती है जिसे उनकी विशिष्टता के रूप में देखा जा सकता है।
अहा.. निलय जी के रचनाकर्म और टीपों का संकलन....बहुत ही बढ़िया प्रयास है।
ReplyDeleteधन्यवाद जतिन
Deleteबहुत खूबसूरती से सहेज लिया इन जरूरी कविताओं को ।
ReplyDeleteबधाई प्रवेश ।
धन्यवाद मधु
Deleteबहुत खूबसूरती से सहेज लिया इन जरूरी कविताओं को ।
ReplyDeleteबधाई प्रवेश ।
उम्दा कवितायें, जल्दी ही विस्तृत पोस्ट लिखूंगा।
ReplyDeleteधन्यवाद विमल चंद्राकर जी
Delete