Wednesday, March 21, 2018

डॉ. केदारनाथ सिंह 1934 से 2018 


अब जबकि केदारनाथ सिंह हमारे बीच निसंदेह  नहीं हैं, उनका लेखन ही उनकी उपस्थिति की मोजूदगी को महसूस कराता रहेगा हमेशा।



डॉ केदारनाथ सिंह 


जीवन परिचय

केदारनाथ जी का परिचय उनकी अपनी कविता में कुछ इस तरह उन्होंने दिया था-

मेरी हड्डियाँ
मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल

क्या आप विश्वास करेंगे
यह एक दिन अचानक
मुझे पता चला
जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था

केदारनाथ सिंह का जन्म 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के चकिया गाँव में हुआ था। इन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से 1956 में हिन्दी में एम.ए. और 1964 में पी.एच.डी की। केदारनाथ सिंह ने कई कालेजों में पढ़ाया और अन्त में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। इन्होंने कविता व गद्य की अनेक पुस्तकें रची हैं और अनेक सम्माननीय सम्मानों से सम्मानित हुए। आप समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। केदारनाथ सिंह की कविता में गाँव व शहर का द्वन्द्व साफ नजर आता है। 'बाघ' इनकी प्रमुख लम्बी कविता है, जो मील का पत्थर मानी जा सकती है।

साहित्यिक परिचय
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह, अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, तालस्ताय और साइकिल आलोचना,
कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान,मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार संपादन
ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन)
समकालीन रूसी कविताएँ, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका)

सम्मान और पुरस्कार
ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रतीकः वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
कुमारन आशान पुरस्कार
जीवन भारती सम्मान
दिनकर पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार
व्यास सम्मान और 2013 के लिए देश का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। वह यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10वें लेखक हैं। ज्ञानपीठ की ओर से शुक्रवार 20 जून, 2014 को यहां जारी विज्ञप्ति के अनुसार सीताकांत महापात्रा की अध्यक्षता में हुई चयन समिति की बैठक में हिंदी के जाने माने कवि केदारनाथ सिंह को वर्ष 2013 का 49वां ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने का निर्णय किया गया। केदारनाथ सिंह इस पुरस्कार को हासिल करने वाले हिंदी के 10वें रचनाकार है। इससे पहले हिन्दी साहित्य के जाने माने हस्ताक्षर सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय, महादेवी वर्मा, नरेश मेहता, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को यह पुरस्कार मिल चुका है। पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार मलयालम के लेखक गोविंद शंकर कुरुप (1965) को प्रदान किया गया था। पुरस्कार के रूप में प्रो. केदारनाथ सिंह को 11 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र और वाग्देवी की प्रतिमा प्रदान की जाएगी।






केदारनाथ जी का साहित्य जिस परिवेश गत अनुभव से उपजा है उसको इस एक कविता से काफी कुछ महसूस किया जा सकता है। इस कविता में मुक्तिबोध के अंधेरे के संदर्भ को भी महसूस किया जाना चाहिए-

सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए

भर लो
दूध की धार की
धीमी-धीमी चोटें
दिये की लौ की पहली कँपकँपी
आत्मा में भर लो

भर लो
एक झुकी हुई बूढ़ी
निगाह के सामने
मानस की पहली चौपाई का खुलना
और अंतिम दोहे का
सुलगना भर लो

भर लो
ताकती हुई आँखों का
अथाह सन्नाटा
सिवानों पर स्यारों के
फेंकरने की आवाजें
बिच्छुओं के
उठे हुए डंकों की
सारी बेचैनी
आत्मा में भर लो

और कवि जी सुनो
इससे पहले कि भूख का हाँका पड़े
और अँधेरा तुम्हें चींथ डाले
भर लो
इस पूरे ब्रह्मांड को
एक छोटी-सी साँस की
डिबिया में भर लो।

एक कविता जो उन्होंने स्वयं की सांसों की पूंजी पर लिखी थी। इस पूंजी का ब्याज ही उन्हें चिरकाल तक जीवित रखेगा।


पूँजी
सारा शहर छान डालने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुँचा
कि इस इतने बड़े शहर में
मेरी सबसे बड़ी पूँजी है
मेरी चलती हुई साँस
मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूँजी
जिसे रोज मैं थोड़ा-थोड़ा
खर्च कर देता हूँ

क्यों न ऐसा हो
कि एक दिन उठूँ
और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है -
इस शहर के आखिरी छोर पर -
वहाँ जमा कर आऊँ

सोचता हूँ
वहाँ से जो मिलेगा ब्याज
उस पर जी लूँगा ठाट से
कई-कई जीवन



यह कहना काफ़ी नहीं कि केदारनाथ सिंह की काव्‍य-संवेदना का दायरा गांव से शहर तक परिव्‍याप्‍त है या यह कि वे एक साथ गांव के भी कवि हैं तथा शहर के भी। दरअसल केदारनाथ पहले गांव से शहर आते हैं फिर शहर से गांव, और इस यात्रा के क्रम में गांव के चिह्न शहर में और शहर के चिह्न गांव में ले जाते हैं। इस आवाजाही के चिह्नों को पहचानना कठिन नहीं हैं, देखिए एक कविता जिसमें गांव किस तरह समाया हुआ है उनके अनुभवों में -

कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए
केदारनाथ सिंह


मेरे बेटे
कुँए में कभी मत झाँकना
जाना
पर उस ओर कभी मत जाना
जिधर उड़े जा रहे हों
काले-काले कौए

हरा पत्ता
कभी मत तोड़ना
और अगर तोड़ना तो ऐसे
कि पेड़ को जरा भी
न हो पीड़ा

रात को रोटी जब भी तोड़ना
तो पहले सिर झुकाकर
गेहूँ के पौधे को याद कर लेना

अगर कभी लाल चींटियाँ
दिखाई पड़ें
तो समझना
आँधी आने वाली है
अगर कई-कई रातों तक
कभी सुनाई न पड़े स्यारों की आवाज
तो जान लेना
बुरे दिन आने वाले हैं

मेरे बेटे
बिजली की तरह कभी मत गिरना
और कभी गिर भी पड़ो
तो दूब की तरह उठ पड़ने के लिए
हमेशा तैयार रहना

कभी अँधेरे में
अगर भूल जाना रास्ता
तो ध्रुवतारे पर नहीं
सिर्फ दूर से आनेवाली
कुत्तों के भूँकने की आवाज पर
भरोसा करना

मेरे बेटे
बुध को उत्तर कभी मत जाना
न इतवार को पच्छिम

और सबसे बड़ी बात मेरे बेटे
कि लिख चुकने के बाद
इन शब्दों को पोंछकर साफ कर देना

ताकि कल जब सूर्योदय हो
तो तुम्हारी पटिया
रोज की तरह
धुली हुई
स्वच्छ
चमकती रहे


केदारनाथ के कविता की भूमि भी गांव की है। दोआब के गांव-जवार, नदी-ताल, पगडंडी-मेड़ से बतियाते हुए केदारनाथ ने अज्ञेय की तरह बौद्धिक होते हैं न प्रगतिवादियों की तरह भावुक। केदारनाथ सिंह बीच का या बाद का बना रास्‍ता तय करते हैं। यह विवेक कवि शहर से लेता है, परंतु अपने अनुभव की शर्त पर नहीं, बिल्‍कुल चौकस होकर। केदारनाथ सिंह की कविताओं में जीवन की स्‍वीकृति है, परंतु तमाम तरलताओं के साथ यह आस्तिक कविता नहीं है।

मैं जानता हूं बाहर होना एक ऐसा रास्‍ता है
जो अच्‍छा होने की ओर खुलता है
और मैं देख रहा हूं इस खिड़की के बाहर
एक समूचा शहर है



समकालीनता में सार्वभौम मूल्यों की प्रतिष्ठा उनका मुख्य लक्ष्य था। आधुनिक जीवन मूल्यहीनता का शिकार होता जा रहा है अतः कविता के माध्यम से मूल्यों को जीवन में स्थापित करने का उनका संकल्प है। वे लिखते हैं - ‘‘समाज के प्रगतिशील तत्वों और मानव के उच्चतर मूल्यों की परख मेरी रचनाओं में आ सकी है या नहीं, मैं नहीं जानता, पर उनके प्रति मेरे भीतर एक विश्वास, एक लालसा, एक लपट जरूर है, जिसे मैं हर प्रतिकूल झौंके से बचाने की कोशिश करता रहूँगा।’’ केदारनाथ सिंह वक्तव्य, तीसरा सप्तक, पृ. 118

केदारनाथ सिंह आशावादी मूल्यों  को प्रश्रय देते हैं, जीवन में निराशा और हताशा होती है तथापि वे इन सबके बीच विश्वास और आशा के गीत गाते हैं।

‘‘आज की यह लहर
आज की यह हवा
आज के ये फूल
ये झरती पंखुरियाँ
आज इस खामोश मिटते शब्द की
सारी उबलती अर्थवत्ता
राह में लेकर खड़ा हूँ
आओगे! कब आओगे।’’

नए वर्ष के प्रति, तीसरा सप्तक

‘मानव की जय यात्रा’ में कवि का विश्वास निरतंर बढ़ता है। बढ़ती जा रही मूल्यहीनता के बीच भी कवि आशा और विश्वास के गीत गाता है। ‘उस आदमी को देखो’ और ‘बुनने का समय’ में मानवीय जीवन की अदम्य सामर्थ्य को अभिव्यंजित किया है। इसके अतिरिक्त इसी संग्रह ‘यहाँ से देखो’ की ‘कस्बे की धूल’ व बनारस शीर्षक कविता भी मानवीय संवेदना से पूर्ण है, वह लिखता है ‘‘चट्टान को तोड़ो/वह सुंदर हो जायेगी/उसे और तोड़ो/वह और सुंदर हो जायेगी।’’ ‘टूटा हुआ ट्रक’ कविता कवि की भविष्य के प्रति आशामूलक मूल्य दृष्टिकोण को व्यक्त करती है। कवि को उम्मीद है कि यह ट्रक एक दिन अवश्य ठीक हो जायेगा और सक्रिय होकर काम करने लगेगा - ‘‘मेरे लिए यह सोचना कितना सुखद है/कि कल सुबह तक सब ठीक हो जायेगा। मैं उठूंगा/और अचानक सुनूंगा भोंपू की आवाज/और घरघराता हुआ ट्रक चल देगा/तिनसुकिया या बोकाजान....।’’

‘अकाल में सारस’ की इकसठ कवितायें मूल्यपरकता को समाहित किए हुए हैं, वे समसामयिक जीवन की मूल्यहीनता और उसमें उगने की संभावनावाले मूल्यों को प्रतीकित करती हैं इस संग्रह की कवितायें। जीवन के प्रति आस्था का संचार इन कविताओं का सार है। इस संग्रह की एक कविता है ‘सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से गुजरते हुए’। इसमें कवि का कहना है कि प्रत्येक संवेदनशील कवि को जीवन की वास्तविकता का सामना करना चाहिए। जीवन के कटु यथार्थ को आत्मसात करना ही चाहिए अन्यथा कविता में प्रमाणिकता नहीं आ सकती है। इस प्रमाणिकता के बिना कविता मात्र शब्दाडंबर है - ‘‘और कवि जी सुनो/इससे पहले कि भूख का हांका पड़े/और अंधेरा तुम्हें चीथ डाले/भर लो इस पूरे ब्रह्माण्ड को/एक छोटी सी सांस की/डिबिया में भर लो।’’

‘अकाल में दूब’ जीवन के प्रति गहन आस्था की कविता है। अकाल निराशा और विपरीत परिस्थितियों का प्रतीक है और दूब आस्था और विश्वास की प्रतीक है। तमाम निराशाओं और विपरीतताओं के बाद भी कवि दूब की तरह उगना चाहता है - ‘‘भयानक सूखा है/मवेशी खडे़ हैं/एक दूसरे का मूंह ताकते हुए/कहते हैं पिता/ऐसा अकाल कभी नहीं देखा/ऐसा अकाल कि बस्ती में/दूब तक झुलस जाए/सुना नहीं कभी/मगर दूब मरती नहीं/कहते हैं वे/और हो जाते हैं चुप/’’अकाल में दूब पृ. 20 21 वे आगे लिखते हैं कि - ‘‘लौटकर यह खबर/देता हूँ पिता को/अंधेरे में भी दमक उठता है उनका चेहरा/है, अभी बहुत कुछ है/अगर बची है दूब।’’

केदारनाथ सिंह की कवितायें जन सामान्य के जीवन को आधार बनाकर जीवन की तमाम विसंगतियों और विडंबनाओं के बाद भी सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। इसी तरह की कविता है ‘जन्मदिन की धूप’ जिसमें मूल्यपरक दृष्टि को प्रस्तुत किया गया है। वे चाहते हैं कि दुनिया में मूल्य भी बचे रहें और मूल्यों का धारण करने वाला जीवन भी -‘‘यों सब एक हैं/पाना भी / खोना भी/मेरी सारी कोशिश/बस इतनी सी है/कि बची रहे धूप/और बचा रहे दोना भी/’’ जन्म दिन की धूप, पृ. 65

आधुनिक नगरीय जीवन में अजनबीयत के बढ़ते माहौल को वे सबसे बड़ा अकाल स्वीकार करते हैं। अपनी कविता ‘एक और अकाल’’ में वे इसी बात को रेखांकित करते हैं। कवि इस बात से चकित है कि मनुष्यों के बीच अपरिचय किस हद फैलता जा रहा है -‘‘फिर एक दिन/जब किसी तरह नहीं कटा दिन/तो मैं निकल पड़ा लोगों की तलाश में/मैं एक एक से मिला/मैंने एक एक से बात की/मुझे आश्चर्य हुआ/लोगों को तो लोग/जानते तक नहीं थे।’’एक और अकाल पृ. 73

केदार सिंह का एक और काव्य संग्रह ‘‘उत्तर कबीर और अन्य कवितायें’’ जो 1995 में प्रकाशित हुआ था, उनका पाँचवां काव्य संग्रह था। भारतीय जनसमाज की पहचान हैं किसान। उनसे आत्मीयता और उनके जैसा अनुभव करने की तड़प उनकी कविता ‘गाँव आने पर’’ में दिखाई देती है ‘‘क्या करूँ मैं/क्या करूं कि लगे/कि मैं इन्हीं में से हूं/ इन्हीं का हूँ/ कि यही हैं मेरे लोग/जिनका में दम भरता हूँ कविता में/और यही यही जो मुझे कभी नहीं पढेंगे/छू लूँ किसी को/ लिपट जाऊँ किसी से?/मिलूं/पर किस तरह मिलूं/ और दिल्ली न आये बीच में।’’ गाँव आने पर. पृ.12

इसी संग्रह की ‘पंचनामा’ और ‘बची हुई करुणा’ नामक कवितायें मानवीय संवेदनशीलता के कम होते जाने परिचय देती हैं। उनका मानना है कि वह संवेदनशीलता किसी काम की नहीं जो कर्म में प्रवृत्त न हो। उन आम आदमियों के प्रति उनकी संवदेना का आवेग बढ़ता जाता है जो सड़क पर दिखते हैं, और मानवीय गौरव और गरिमा से हीन हैं - ‘‘कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/ पृथ्वी पर हो जाऊँगा सबसे दरिद्र/’’

कवि केदार की कविताओं में जन साधारण की प्रतिष्ठा है। वे उनके प्रति पूरी तन्मयता से प्रतिबद्ध हैं। ‘यहाँ से देखो’ संग्रह की कविताओं के केन्द्र में जन साधारण है। इन कविताओं का जन साधारण अपने पूरे परिवेश के साथ उपस्थित है। वह अकेला भी है तो उसका भौतिक परिवेश उसके साथ है और समूह में है तो भी। वह अपनी तमाम अच्छाइयों और बुराईयों के साथ उपस्थित है। जन साधारण में उम्मीद एक जिंदा शब्द की तरह दिखाई देता है तो उपेक्षा और हार भी उसमें दिखाई देती है। वे लिखते हैं कि ‘‘मेरी उम्मीद/ उसका पीछा नहीं करती/सिर्फ कुछ देर तक/चील की तरह हवा में मँडराती है/और झपट्टा मारकर/ठीक उसी जगह बैठ जाती है/जहाँ से वह चला गया था।’’

‘पानी में घिरे हुए लोग’ कविता के जन भी संघर्षशील हैं वे पानी से प्रार्थन नहीं करते बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष करते हैं। इसी तरह ‘कस्बे की धूल’ भी जन साधारण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती हुई कहती है - ‘‘सच्चाई यह है कि इस सारे माहौल में सिर्फ यह धूल है/सिर्फ इस धूल का लगातार उड़ना/जो मेरे यकीन को अब भी बचाए हुए हैं/नमक में/और पानी में और पृथ्वी के भविष्य में/और दन्त कथाओं में/’ शीतलहरी में ठंड की पीड़ा भोगता हुआ बृद्ध भी जन साधारण ही है, जो उस कोयले के लिए प्रार्थना करता है, जिस पर मानवीयता का रक्त गरम किया जाता है - ‘‘क्या मैं भी इंतजार करूँ/जैसे सब कर रहे हैं/क्या मैं उठूँ और अपने आपको बइल लूँ/एक कोयला झोंकनेवाले बेलचे में/क्या मैं बाजार जाऊँ/ और अपनी आत्मा के लिए खरीद लूँ/एक अच्छा सा कनटोप/’’

केदार जी के जन साधारण के प्रति प्रतिबद्धता के संबंध में नन्दकिशोर नवल लिखते हैं - ‘‘निस्संदिग्ध है कि ‘यहाँ से देखो’ की कविताओं के केन्द्र में साधारण मनुष्य है। केदार जी साधारण तल पर रहने वाले इसी साधारण मनुष्य के कवि हैं, अज्ञेय की तरह उस ऊँचाई के नहीं जहाँ कोई रहता नहीं है। यह ऊँचाई तो अपनी निर्जनता से उन्हें दहला देती है: मेरे शहर के लोगो/यह कितना भयानक है/ कि शहर की सार सीढ़िया मिलकर/जिस महान ऊँचाई तक जाती हैं/वहाँ कोई नहीं रहता!’’ समकालीन काव्य यात्रा, पृ. 151

इसी संकलन की एक कविता में कवि अंधकार और जन साधारण की गतिविधि का वर्णन करते हुए लिखते हैं - ‘‘अँधेरा बज रहा है/अपनी कविता की किताब रख दो एक तरफ/ और सुनो सुनो/अंधेरे मे चल रहे हैं/ लाखों करोड़ों पैर/’’ कवि और पाठक को वे जन साधारण के चलने की ध्वनि सुनने को कहते हैं। शब्द को कर्म में बदलने के लिए वे क्रियाशील होने के पक्षपाती हैं। इसी तरह ‘अकाल में सारस’ में भी जन साधारण अपनी पूरी यथार्थता के साथ मौजूद है।

केदार जी की कविता में स्त्री का आना मतलब श्रम के सौंदर्य का आना है। यहां हम निराला की वह तोड़ती पत्थर को महसूस कर सकते हैं -

घुलते हुए गलते हुए
देखता हूँ बूँदें
टप‍-टप गिरती हुई
भैंस की पीठ पर
भैंस मगर पानी में खड़ी संतुष्ट।
उसके थन दूध से भारी।
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण
पूरी ताकत से
थनों को खींचता हुआ अपनी ओर।
बूढ़े दालान में बैठे
हुक्का पीते - बारिश देखते हुए।
हुक्के के धुँए को
बाहर निकलते
और बारिश से हाथ मिलाते हुए।

सहसा बौछारों की ओट में
दिख जाती है एक स्त्री
उपले बटोरती हुई।
बूँदों की मार से
जल्दी-जल्दी उपलों को बचाने की कोशिश में
भीगती है वह
बचाती है उपले।
कहीं से आती है
उपलों से छनती हुई
फूल की खुशबू।
उपलों की गंध मगर फूल की गंध से
अधिक भारी
अधिक उदार

स्त्री को
बौछारों में
धीरे-धीरे घुलते हुए
गलते हुए देखता हूँ मैं।


स्त्री के रूप में मां भी उनकी कविता में हुई धागे के साथ समय को सिलते हुए आती है। देखिए कविता का इस तरह होना केदार जी के यहां -

सुई और तागे के बीच में 

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
कि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ को भूल जाऊँगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियाँ आ जाएँगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाईं की तरफ
ऊन के बारे में उसके विचार
बहुत सख्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फटा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गए हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस।


जीवन के जितने रंग हो सकते हैं हमें केदार जी की कविताओं में मिलेंगे। वे जीवन के लिए कविता रचते थे। परिवेश और परिप्रेक्ष्य के तीखे और चिरपिरे अनुभवों  और वस्तुगत यथार्थ को सहज प्रतीकों और स्थितियों में रच देना केदार जी की विशेषता है। उनकी एक छोटी सी कविता देखिए किस तरह वे जीवन की समग्रता को रचते हैं -

फलों में स्वाद की तरह 

जैसे आकाश में तारे
जल में जलकुंभी
हवा में आक्सीजन
पृथ्वी पर उसी तरह
मैं
तुम
हवा
मृत्यु
सरसों के फूल
जैसे दियासलाई में काठी
घर में दरवाजे
पीठ में फोड़ा
फलों में स्वाद

उसी तरह...
उसी तरह...


इसी और उसी तरह केदार जी समाये रहेंगे हमारे तुम्हारे जीवन में। यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

संजीव जैन 


संजीव जैन
भोपाल 

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