Tuesday, December 6, 2016

बच्चे ,फूल से कोमल ह्रदय वाले जिनकी मासूमियत भरी मुस्कान दो जहाँ की दौलत लुटा देती है |किसे प्यारे नहीं लगते हँसते - खिलखिलाते  बच्चे |यदि यही मासूम खिलखिलाहट कहीं खोई खोई सी मिले , फूल सा कोमल ह्रदय मुरझाया हुआ मिले तो क्या कहेंगे आप उस बचपन को | चिंता का विषय  है बच्चो का अपने आप में गुम हो जाना |इस संजीदा विषय पर  परिचर्चा की गई वात्स अप के साहित्यिक समूह "विश्व मैत्री मंच " पर ,जिसकी मुख्य एडमिन है सु श्री संतोष श्रीवास्तव और परिचर्चा का विषय  दिया अमर  त्रिपाटी जी ने |चर्चा के दौरान कई बिंदु इस विषय पर सामने आये जिन्हें हम किसी भी हाल में नकार नहीं सकते |तकनिकी प्रिय जीवन आज मासूम  बचपन को  कहाँ से कहाँ ले गया ...विचार करने योग्य है की इसके लिए हम  किसे कुसूरवार ठहराए .....??

समूह के जागरूक सदस्यों ने इस परिचर्चा में अपने अपने विचार रखे
रचना प्रवेश पर प्रस्तुत है समूह की परिचर्चा ****





बच्चे कही शिकार न हो जाये'
   मानसिक रोग के।
आने वाले दिनों में जो सबसे बड़ा खतरा हमारे जीवन मे हैं वह हैं मानसिक रोग का। यूथ तो इसके शिकार हो ही रहे है,पर ख़तरा बच्चो पर ज्यादा मंडरा रहा है।बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक पहुँचते पहुँचते जिस तरह से बच्चो मे मोबाइल फ़ोन और टेब की आदत पड़ती जा रही है उसका परिणाम यह हैं कि उनकी सम्बेदना धीरे धीरे कम होती जा रही है।परिवार में रहकर भी अकेले होते जा रहे है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की बहुतायत आबादी मानसिक रोग से त्रस्त हैं और उनको पता भी  उन्हें नही है।
मानसिक रोगों की दवा सस्ती है dr महंगे। समय रहते लोग डॉ के पास जाने से कतराते है।
समय रहते सचेत होने की आवश्यकता है। अगर बच्चे  लंबे समय तक मो 0 पर गेम खेल रहे है तो समय सीमा तय करने की आवश्यकता है।
गाँव में गरीबी थी ।इतनी सुविधा नही थी।बच्चे सुबह उठकर खेलते थे,दौड़ते थे, लोगो के साथ रहते थे,परिवार से जुड़े रहते थे।
शहर ने सुविधा  तो दी पर बच्चो को अवसाद भी दिया। पहलेसुबह उठकर रेडियो के गाने सुनकर दिनभर हँसते गाते थे।अब जानकारी को बढ़ाने में इंटरनेट ने मदद जरूर की पर बच्चे अकेले होते जा रहे है।

कुछ बाते ध्यान देने की है।
1
कही आपका बच्चा ख़ामोश तो नही होता जा रहा है,टीचर से पता लगाएं और टीचर से प्यार से ही बात करे।

2 बच्चो के सामने किसी भी हालत में झगड़ा न करे ।

3
अपने दुःख या किसी बड़े परेशानी की भी बात उनसे मत कीजिये

ख़ुशनुमा माहौल बनाये रखें, किसी नज़दीकी जिसे वो बहुत सम्मान करते हो उनके बारे में कोई झगड़ा या उनके अपमान की जानकारी  देने से बचें ।

सबसे महत्वपूर्ण
अगर आपका मान लो किसी सम्बन्धी से झगड़ा है तो आप भले सम्बन्ध तोड़ ले वहाँ  मत जाइये पर बच्चो को उनसे या खासकर उनके बच्चों से अलग मत कीजिये।

मूलमन्त्र


बच्चो को तो बच्चे चाहिए हरहाल में, अपने मतभेदों की सज़ा उनको मत दीजिये
🙏🏽
अमर त्रिपाठी
परिचय
लेखक और कहानीकार,कवि तथा चित्रकार तथा गुणवत्ता के आधार पर साहित्यिक रूप से सम्पन्न हर विधा में अंग्रेजी,मराठी तथा हिंदी भाषा में बिना धन लिए पुस्तक प्रकाशित करने के एक शानदार प्लेटफॉर्म स्टोरी मिरर में कॉन्सेप्ट एडिटर।



















एडमिन सुश्री संतोष श्रीवास्तव का कथन 
अमर त्रिपाठी द्वारा प्रस्तुत किए गए आज के विषय को लेकर मुझे मन्नू भंडारी लिखित आपका बंटी याद आ रहा है। वैसी ही पीड़ा और मानसिक स्थिति से  गुजरते न जाने कितने बच्चे आपका बंटी हो जाते हैं।

बच्चों का किसी बात पर उदास होना, चोट पहुँचना, उखड़ जाना और बढ़ती हुई उम्र में कई तरह की भावनाओं से गुज़रना सामान्य बाते हैं. लेकिन, कुछ बच्चों में ये भावनाएँ लंबी अवधि के लिए रह जाती हैं और उनके भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालती हैं.
अवसाद बच्चों के लिए एक बड़ी वास्तविक चिंता है. इसका असर बच्चों के सोचने, महसूस करने और उनके व्यवहार पर पड़ सकता है।
आज के प्रतिस्पर्धी युग में, बच्चों पर पढ़ाई लिखाई और अन्य गतिविधियों में बेहतर से बेहतर प्रदर्शन का अनावश्यक दबाव हो गया है. अभिभावक और शिक्षक इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि हर बच्चा अलग है. बच्चे को जबरन एक कट्टर सिस्टम और कड़े नियमों का पालन करने के लिए कहा जाता है। लेकिन इस दबाव को झेलना उनके लिए मुश्किल भी हो जाता है. बच्चों में अवसाद की एक प्रमुख वजहों में से एक ये भी हो सकती है क्योंकि वे अपना अधिकांश समय सीखने में ही बिताते हैं चाहे घर पर हों या स्कूल में. इसके साथ ही कई अन्य मनोवैज्ञानिक कारक भी हो सकते हैं जो बच्चे की मानसिक सेहत पर असर डालते हैं. ऐसे बच्चे जो भावनात्मक और मानसिक उतारचढ़ाव नहीं झेल पाते हैं, वे अवसाद के संभावित शिकार हो सकते हैं.।
वजह माता पिता के तनावपूर्ण या टकराहटभरे माहौल से लंबे समय तक बने रहने वाला मानसिक तनाव, मिसाल के लिए पिता नशा करते हों या माँ बाप के बीच वैवाहिक संबंध अच्छे न हों.।कई बार बच्चे सदमे वाली स्थितियाँ जैसे हिंसा, शारीरिक या मानसिक शोषण या उपेक्षा का भी शिकार हो जाते है। इस अवसाद से घिरा बच्चा खुद को व्यर्थ महसूस करता है. उसे अपना जीवन बेकार लगता है. उसे उदासी की भावना और नकारात्मक विचार लगातार घेरे रहते हैं और वह उनसे निकल नहीं पाता है.। अगर सचमुच अभिभावक बच्चों को लेकर  सही दृष्टिकोण अपनाएं हैं तो उन्हें बच्चों की सार-संभाल बहुत सावधानी से करनी होगी तभी एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा।
 संतोष श्रीवास्तव




सरोज ठाकुर 
आज पटल.. हमारे आदरणीय अमर त्रिपाठी जी  ने.. बहुत  ही सुंदर महत्वपूर्ण विषय रखा है.. वाकई आज मोबाइल और टेब बच्चों की जरूरत नही आदत बन गई  है  आज सुबह से शाम तक बस इसी में व्यस्त रहते है..... जिसके चलते वे अपनो के बीच में  होते हुये भी अकेले  है। उनको लगता है कि उनकी खुशी इसी में है। क्यो कि आज हमारे बडों के पास भी अपने बच्चों के लिऐ वक्त नहीं है। आज हमें अपने बच्चों को इन सबसे बचाने के लिये पहल हमें करनी होगी... ऐ एक महत्वपूर्ण विषय है हम सबके लिये.....
डॉ निरुपमा वर्मा 
आदरणीय अमर जी ने ज्वलन्त विषय उठाया है । यहाँ बात मोबाईल , टी वी से ज्यादा चिंता का विषय है बच्चों की परवरिश में परिवार की चूक कहाँ हो रही है ?  मोबाईल आदि तो भौतिक संस्कृति है , जिस की गति हमेशा तीव्र होती है । यही कारण है कि अभौतिक संस्कृति उस से पिछड़ जाती है ।
सच है ये कि बच्चों ने हंसना ही छोड़ दिया है। यह भी तो एक कटु सत्य है कि जब बच्चे हंसेंगे नहीं तो गुमसुम रहेंगे तथा अपने आप में ही डूबे-डूबे और खोए रहेंगे जब यह स्थिति बनी रहेगी तो वह अपने ही विचारों की उठती उथल-पुथल के कारण मानसिक तनाव झेलेंगे। बच्चों को ऐसी हालत में देखना किसी भी तरह सुखद तो नहीं कहा जा सकता।

जब वयस्कों ने तनाव झेलना शुरू कर दिया है तो परिवार के बच्चे इससे अछूते कैसे रह सकते हैं। आजकल पैरेंट्स संतान के जन्म लेते ही तनाव में आ जाते हैं। वह दिन-रात इस चिंता में घुलने लगते हैं कि पता नहीं बच्चे का भविष्य क्या होगा? वह पढ़ाई में कैसा रहेगा? स्कूल में कैसा परफॉर्म करेगा। इसका मस्तिष्क किन विद्युत तरंगों को आत्मसात करेगा जिनके कारण वह जीनियस कहलाएगा। जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ उनकी पढ़ाई अथवा उनके परीक्षा परिणामों को लेकर ही लगातार बात करते रहेंगे कि उसे तो केवल परीक्षा परिणाम में अच्छे प्रतिशत लाना है और इसके अतिरिक्त न तो किसी बात के विषय में सोचना है और न ही ध्यान देना है। सच ये भी है कि बच्चा जन्म से रोने और हँसने के सिवा और कुछ भी सीखकर नहीं आता। यदि यह समस्या विकट होती गई (वैसे अब भी कम विकट नहीं है।) तो हंसना केवल एक यौगिक क्रिया रह जाएगी जिसे पूरी कृत्रिमता के साथ योग करते समय एक क्रिया तक करना सीमित रह जाएगा। जब तक यह क्रिया जारी रहेगी लोग हंसेंगे तो नहीं पर हंसने की आवाजें जरूर निकालेंगे। शायद हम वर्तमान पीढ़ी को यहीं तक सीमित रहने की बंदिश में बांध रहे हैं। यदि ऐसी नौबत तक नहीं पहुंचना है और बच्चों की स्वभाविक और प्राकृतिक हंसी को लौटाना है तो कोशिश करें कि वह कुछ समय अपने फ्लैट या घर से निकलकर अपने हम उम्र साथियों के बीच जाएं।
मनोवैज्ञानिक हेरियट मैक्समिलन ने अपने पांच सहयोगियों के साथ काॅलेज मे अध्ययन करने वाले लगभग पांच हजार युवकों की प्रवृतियों का अध्ययन किया। अध्ययन से यह पता चला कि जिन युवकों की बचपन मेें पिटाई होती थी, उनमें से 21 प्रतिशत युवाओं में उग्रता के लक्षण पाए गए। 13 प्रतिशत शराब और नशीली दवाओं के आदी हो गए। 12 प्रतिशत अपराधी प्रवृति वाले, 10 प्रतिशत उम्र के हिसाब से कम बौद्धिक स्तर वालें तथा 9 प्रतिशत गंभीर मानसिक तनाव से ग्रस्त पाए गए। एक अन्य मनोवैज्ञानिक का कहना है कि अति किसी भी चीज की बुरी होती है, चाहे वह बच्चों के साथ अति प्यार की बात हो या मारपीट की, बच्चों के साथ हमेशा की जाने वाली डांट-डपट या मारपीट से बच्चा डरा सहमा रहता है। इस वजह से उसके काम में गलतियां अधिक से अधिक होती है जरूरी नहीं कि इसके परिणामस्वरूप बच्चें उग्र स्वभाव के ही होते है या कि गलत दिशा की ओर ही अग्रसर होते है। कई बार ऐसे बच्चें बिल्कुल चुप हो जाते हैं। वे दब्बू और डरपोक हो जाते है। उनका आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। उनकी निर्णय क्षमता तो प्रभावित होती है, साथ ही उनका बौद्धिक विकास भी रूक जाता है। कई बार बच्चें कुछ ऐसे कदम भी उठा लेते है, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते ।
शोधकर्ता मैरीलीन कैंपबेल ने कहा कि डर और मानसिक तनाव के बीच सीधा संबंध है। ज्यादातर बच्चे जिन गतिविधियों में आनंद अनुभव करते हैं उन्हीं से कुछ बच्चे डरते हैं।
शोधकर्ताओं ने कहा कि यह कोई निष्कर्ष नही है लेकिन यह एक संकेत है कि डरपोक बच्चे भविष्य में तनाव के शिकार हो सकते हैं। जीवन भर तनाव से गुजरना एक त्रासद अनुभव है। अगर हम बच्चों में पहले ही तनाव के कारणों का पता लगा लें तो यह उनके भविष्य के लिए बेहतर होगा।
अपर्णा शर्मा 
आदरणीया ड़ाॅ.निरूपमा जी - आपने बच्चों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आधार पर उनके अंदर ही अंदर एकाकी होते जाते और गलत आदतों के शिकार होने के प्रभावी विचार रखें हैं । आजकल के एकल परिवारों में जहाँ अधिकांश युगल में से दोनों नौकरीपेशा वहाँ बच्चों को पर्याप्त समय और देखरेख न दे पाने अभाव में बच्चे स्वाभाविक रूप से सहज उपलब्ध सोशल वेब साइट्स और इंटरनेट के माध्यम से खुद को व्यक्त करने और एकाकीपन दूर करने का जरिया बना लेते हैं जहाँ गंभीर रूप से छिपी पहचान वाले अपराधी,   विकृत मानसिकता के लोग आसान शिकारों को अपनी चपेट में जकड़ लेते हैं । बच्चों का कोमल भावुक मन सही-गलत की पहचान न होने के कारण अक्सर ही गलत संगत में पड़ जाता है। हर परिवार में बच्चों के साथ रोज आत्मीय संवाद और उनके मित्र और गतिविधियों पर नजर रखना आवश्यक है। ये भी कि वे सोशल वेबसाइट्स पर किस तरह की गतिविधियों में लिप्त हैं या कैसे दोस्त रखते हैं ।

मैंने स्वयं देखा है कि परिवारों में बच्चों को साथ लेकर चला जाता है और  आपसी संवाद के जरिए उनको स्वयं को व्यक्त करने पूरा मौका दिया जाता है वहाँ बच्चे मानसिक रूप से अधिक मजबूत होते हैं ।

सुरेश राजन अय्यर 
        आज का विषय बच्चे . बहुत ही गंभीर विषय है. मेरा ये मानना है कि बच्चे कभी भी गलत नहीं होते. उनके मातापिता जिम्मेदार होते हैं. बच्चे वही करते हैं जो उनके मातापिता करते हैं इसलिए किसी भी पालक को बहुत सोच समझ कर हर काम करना चाहिए . Child psychology में बच्चा छे साल की आयु तक बहुत कुछ सीख लेता है. उसके बाद  वह बच्चा अपने सीखे हुए बातों को अपने जीवन में अमल करता है. यह बात भी सच है आपका बच्चा ही आप को माता या पिता बनाताहै.  इसलिए बच्चोंकी देखभाल में मातापिता की बहुत बडी नैतिक जिम्मेदारी होती है . -  सुरेश राजन अय्यर 


महेश दुबे 
आदरणीय अमर त्रिपाठी जी का इतना संक्षिप्त परिचय चौंका गया।  दरअसल ये किंग मेकर हैं । परदे के पीछे रहने के उस्ताद । विषय बहुत अच्छा चुना है जिसपर विद्वानों ने खूब लिखा भी है।  कुछ और कहने की योग्यता तो मुझमें नहीं है । इसी विषय पर एक अपनी रचना प्रस्तुत है ।



बल्ली

           आज फिर बल्ली को खूब पीटा । दोनों हाथों से बाल पकड़ कर इतनी जोर से खींचे कि कई सारे तो जड़ से उखड़ गए । गालों पर तड़ातड़ इतने तमाचे जड़ेे कि गोरे गाल सिंदूरी लगने लगे और उनपर उँगलियों की छाप उभर आई। पीठ पर घमाघम कई मुक्के धरे पर मजाल है जो इस लड़के के मुंह से चूँ भी निकली हो। आँखों से पानी छलछला आया आँखें ऐसी लाल हो गई मानो सुबह का सूरज हो पर इसने मुंह नहीं खोला । परसों रात को रमन की दूकान से चांदी की जो ठाकुर जी की मूर्ति ले आया था और कल एकादशी को पंडित जी को दान करनी थी वह इस बल्ली के बच्चे ने किसके हाथ बेची वह नहीं बताया। मुझे खूब याद है । रमन की दूकान से डिबिया लेकर निकला और लाकर सीधे मंदिर की दराज में रखी । रास्ते में न कहीं रुका न किसी से मिला । अब देखा तो केवल रसीद और खाली डिबिया । तो क्या ठाकुर जी कहीं उड़ गए? वैसे भी जब डिबिया रख रहा था तब बल्ली महाराज पलंग पर लेटे दीदे फाड़े देख रहे थे।और कल शाम शिवलोचन ने इसे गुरशरण छोले वाले के यहां छोले और कुल्फी उड़ाते अपनी आँखों से देखा था।
        जब से इसकी माँ मरी है ये लड़का मानो मेरी जिंदगी का नासूर हो गया है । न पढ़ना न लिखना। केवल मुहल्ले के नालायकों की संगत और मुझे दुःख देने के सारे उपक्रम करता रहता है । ढीठ भी इतना हो गया है कि किसी तरह काबू में नहीं आता । बस ओठ सी लेता है। और चुप्पे से भला कभी जीता है कोई ? पर आज मैंने भी पूरी भड़ास निकाली । पीट पीट कर बेदम कर दिया और जब खुद थक गया तो बाजार को निकला। आखिर सुबह ही रामाधार शास्त्री जी दान लेने प्रकट जो हो जाते । रमन की दूकान में घुसते ही दूर से उसने पालागन की,और नजदीक आकर बोला,भइया आज कल कहाँ खोये रहते हो? परसों पैसा दिए रसीद कटवाए और ठाकुर जी को यहीं भूलकर खाली डिबिया लेकर चल दिए? इतना कहते उसने ठाकुर जी की नन्ही सी मूर्ति काउंटर पर रख दी। मेरे मुंह से बोल न फूटा । लाल रेशमी कपड़े में लिपटे ठाकुर जी मानो मुझे घूर रहे थे ।

                        महेश दुबे      

रूपेंद्र 
आदरणीय अमर जी प्रिय अपर्णा जी सर्वप्रथम तो आप दोनों को हार्दिक बधाई मंच पर द्वीय संचालन की।👏👏👏🌹💐
आदरणीय अमर जी एक सामयिक विषय पर आज आपका लेख परिचर्चा हेतु सटीक एवं सार्थक लेख हुआ।आज अपने आसपास घटता हुआ बच्चों का मानसिक स्तर देखने को मिलता है।संस्कार और सभ्यता से छूट कर आधुनिकता के अंधेपन का अनुसरण करते हुए हमारे भविष्य गर्त में गिर रहे हैं।न चाहते हुए भी अभिभावक यह सब सह रह रहे हैं। तकनीक के साथ समझौता हमें भारी पड़ रहा है।छोटे बच्चों का मानसिक विकास भी शिथिल हो रहा है जो अपने वातावरण में पनपता है वह अस्वाभाविक ढंग से विकसित हो रहा है जो उनके और सामाजिक भविष्य के लाए भी घातक है।स्वास्थ्य पर विपरीत असर छोड़ने वाले तथा मानसिक रूप से दुर्बल करने वाले मीडिया के यह उपकरण हमारे विकास के नहीं नाश को द्योतक न बन जाएं।सहज रूप से एक खिलौना लगने वाला उपकरण शिशुओं को पकड़ा दिया जाता है उसके रंग बिरंगे पटल उसके मनस पर विपरीत प्रभाव डालते हैं उसका खान पान सब प्रभावित होता है जिसका परिणाम उसके मानसिक व शारीरिक विकास पर पड़ने लगता है।

ईरा पन्त
गरीब बच्चे दिल से अमीर होते हैं, दिल खोल के हँसते है ख़ुशी बांटते है इसलिए शायद उदासी उनके पास आने से डरती है ।
🙏 सार्थक पोस्टर।

आज की परिचर्चा का विषय बहुत ही संवेदनशील है।
आधुनिकता के रंग में रंगे बच्चों का सबसे आकर्षक खिलौना आज मोबाइल ही है। कितना भी रो रहा हो बच्चा हाथ में मोबाइल आते ही चुप।
बच्चों को खाना खिलाना आज हर माँ पिता की समस्या है, और तब टीवी, मोबाइल या टैब, का ही सहारा होता है।
असल में बच्चे नहीं माँ बाप ही इस समस्या के जनक हैं। बालू में मत खेलो, पत्थर न उठाओ, भाई तो स्वाभाविक विकास कैसे होगा उनका।

मुझे लगता था काश मेरी पोती जो अमेरिका में है, बालू मिट्टी पानी से जी भर खेले, पर कैसे? लेकिन जब मैंने उसका स्कूल देखा तो मन तृप्त हो गया। यहाँ 5 बरस तक बच्चे सिर्फ और सिर्फ खेलते हैं और बालू के टीले, पानी, बागवानी सब से जी भर खेलते हैं बच्चे।
एक बैडमिंटन खिलाड़ी क्लब में अपनी जुड़वाँ बच्चियों को लाता है। दोनों को टैब दे रखा है। जब तक वो खेलता है, यानी 3 घण्टे,  बच्चियां टैब में उलझी रहती हैं।
एक बात यह भी है कि वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों को बहुत लाड़ प्यार से पाल रही है। आत्मविश्वासी हैं आज के बच्चे। हमारी तरह डरपोक नहीं।

बच्चों से पेरेंट्स की दोस्ती ज़रूरी है। हर बच्चा अपने पैरेंट्स से हर बात शेयर कर सके ताकि कोई उसे भयभीत न कर सके और न शोषण।

मेरा बेटा जब मेरी बात नहीं मानता था तो कई बार ख़ुशी होती थी कि वह अपने निर्णय खुद ले रहा है।

अपने झगड़े मतभेदों, दुश्मनी से नन्हों को अछूता ही रखना चाहिए ताकि कोमल मन मुरझाने न पाए।
और अवसाद से न भरे।

कच्ची मिट्टी से हैं ये बच्चे, इसे सुन्दर आकार दीजिये,
असमय न मुरझाये कोई फूल ये  जतन कीजिये,
घर, समाज, देश की पहचान हैं, शान हैं ये बच्चे,
इनके नन्हे सपनों को साकार कीजिये।
🙏
ईरा पन्त


जयश्री 
माँ बाप आज की परिस्थिति में माता पिता बच्चों में संस्कार दाल ही नहीं प् रहे हैं 
बच्चे जब ढाई साल का होता है उसे किसी नर्सरी स्कुल में दाल दिया जाता है जहाँउसे एक प्रोफेशनल शिक्षिका मिलती है जिसका उद्देश्य अपनी दाल रोटी होता है उसे बहुत कम पैसा मिलता है जिससे उसकी आवश्यकता की पर्ति नहीं होती
उसका व्यवहार बच्चों के प्रति म
उतना स्नेह मयि नही होता 
मेंजितने स्नेह की आवश्यकता बच्चे को होती है

बच्चा माँ के स्नेह से वंचित भी रहता है  हम इस गलत फहमी


सुनीता जैन 
अमर जी
नमस्कार!
आज आपने चर्चा को जो मुद्दा उठाया है वो बेहद अहम् है, ज़िम्मेदाराना है और सामयिक भी!
  मैं जब 87में सरिता ,धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान ,गृहशोभा में लिखना शुरू हुई ,तब भी ऐसे विषयों के आलेख की माँग होती थी ,मैंने लिखा भी! किंतु हर युग में ये समस्या जस की तस सो लेखन भी सामयिक!
     पहले मोबाइल और इंटरनेट नहीं थे ,तो भी समस्या थी, बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक वे कुंठाओं का शिकार ,गलत संगत या नशे में लिप्त हो जाना ,घर से भागना ,असफल प्रेम में आत्म हत्यायें या शिक्षा की असफलता से आहत हो जीवन बर्वाद कर लेना --- कुछ ऐसी समस्याएँ हैं ,जिनसे बाल मन को आहत होने का विशेष डर बना रहता है ,तब भी / अब भी! 

 आपके लेख में सब कुछ दर्शाया ,समझाया है ,अनुभव भी हैं तो तथ्य भी! 


नीलम दुग्गल 
 बढ़िया विषय। 
यदि बचपन स्वस्थ (मानसिक तौर पर भी) होगा तभी एक स्वस्थ समाज की रचना संभव है। पर हो इसके विपरीत रहा है। मैंने एक स्कूल ज्वॉइन किया कुछ वर्ष पूर्व। वहां अनुशासन की समस्या इतनी विकराल और विकट थी कि पूरे पी जी टी स्टाफ ने रिजा़इन देने की ठान ली। फिर चेयरमैन ने बुला कर बात की कि ज्यादातर बच्चे टूटे परिवारों से थे। धीरे-धीरे समस्याएं समझ आने लगी और कई केस सुलझाए भी। पर बच्चों को समझाना आसान था बनिस्पत मां बाप के।                        

 बच्चे बड़ों से बचने के लिए भी मोबाइल टैब में व्यस्त रहना पसंद करते हैं


सुरभि पाण्डेय 
हाजिर हूँ अमर जी, बात तो अभी करनी बाक़ी हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी.......
लेकिन आप जो मुझे ये विनम्र कहते हैं तो मेरे बच्चे बड़ा हँसते हैं, वो कहते हैं कि ये जोक ऑफ़ द डे नहीं, इस सदी का सबसे बड़ा मजाक़ है😀
मैंने भी कह रखा है कि दरअसल अमर जी ही हमें सही समझे हैं🌹
हाँ मैं चर्चा को हमेशा बल देना चाहती हूँ ,बल्कि सच कहूँ तो सच बात कहने से वो बलशाली हो जाती है, मेरी ही नहीं किसी की भी बात!!!!!!!!!
अभी दो तीन दिन पहले एक कहानी पढ़ी, एक आदमी घर में आये हर पुरुष मेहमान पर शक करता है कि वो उसके छोटे से घर में उसके बेटे के साथ वैसे ही यौन दुराचार करेगा जैसा उसके साथ उसकी किशोर उम्र में हो चुका है, घर आये हाई प्रोफ़ाइल मेहमान के द्वारा........कहानी का नायक साल में कई बार रातों को यूं ही जागता , चक्कर काटता रहता है, यहाँ तक कि बीवी के प्रिय कज़िन पर भी शक की सुई, जाते वक्त दोअर्थी कमेंट्स!!!!!!!!

न मेहमान को बात समझ आती है न बच्चों को और बीवी को तो आख़िर आख़िर तक.....बस कथाकार ने गोपन तऱीके से पाठक को बता रखा है उसके बचपन का ब्लैक पार्ट😌

मौक़ा मौज़ू है एक बात और निवेदित, अंग्रेजी की कहावत है कि ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं रह सकता इसलिये वो माँ बनाता है, लेकिन ये माँ बस माँ ही बनी रहे तो अच्छा , कभी कभी ये माँ मासूम बचपन पर प्रेत की तरह से चढ़ जाती है और फिर ये प्रेत बेताल सिद्ध होता है, कभी बच्चे के सर से उतरता ही नहीं है।

कभी कभी ये प्रेत की तरह से बच्चे के अंतर्मन पर सवारी करने का काम पिता श्री भी करते हैं, लेकिन उनका प्रतिशत थोड़ा कम होता है।चूंकि मां को पूरा समाज दबाये रखता है तो बच्चा हाथ में आते ही वो उसे अपनी निजी संपत्ति समझती है फिर उसके स्वतंत्र विकास का सत्यानाश करती है और जब तक जीवित रहती है करती रहती है, कई बार तो बच्चे समझ ही नहीं पाते कि इसके मरने पर हंसें या रोएं।

लेखा सिंह 

आज परिचर्चा के लिये जिस विषय का चुनाव किया गया है वो वाकई ज्वलंत है।

आज के अभिभावक निस्संदेह अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिये जी तोड़ मेहनत तो करते हैं परन्तु अपने ही बच्चों को उनके हक का समय दे नहीं पाते। और यहाँ ये कहना गलत नहीं होगा कि बच्चों को समय देना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि हम अपने आपको देते हैं।

अमूमन यही पाया जाता है और देखा भी जाता है, कामकाजी अभिभावक स्वयं के आराम करने में कोई बाधा न हो करके अपने बच्चों को उनके पसन्द के चैनल देखने या मोबाइल व् टैब ने उनके पसन्द के खेल खेलने की मंज़ूरी दे देते हैं जो सरासर गलत है।

अब, यदि आप इन कामकाजी अभिभावकों (सभी नहीं ) से कहेंगे कि ये सही नहीं है तो उनका जवाब यही होता है कि.... बाहर से थककर घर आते हैं तो थोड़ी सुकून की साँस चाहिये होती है, अतः उन्हें उनके हाल पर छोड़कर ज़रा सा आराम कर लेते हैं...... अब, इनका कहना भी गलत नहीं होता है। आज की भाग दौड़ की जिंदगी की भी यही माँग होती है। परन्तु..... इन सभी परिस्थितियों में सामन्जस्य बिठाकर, यदि चला जाय तो बहुत कुछ सम्भव हो सकता है। मसलन, बच्चों को समय देकर उनके साथ quality time  बिताना। और समय बिताते हुये उन्हें व्यवहारिक जानकारियाँ भी दे सकते हैं।

मेरा भी यही मानना है कि बच्चे जो देखते हैं, सुनते हैं, वही सब उनके आचरण में शनैः शनैः घर करने लगता है। अतः हम अभिभावकों को चाहिये कि उनके समक्ष आपस में सन्तुलित व्यवहार करना चाहिये। हमारा यही  सन्तुलित व्यवहार हमारे बच्चों में शिष्टता व् व्यवहारिकता लाएगा जिसकी भविष्य में उनके सफल होने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उनके सही मार्गदर्शन हेतु उनके समक्ष हमे एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।
हम स्वयं अनुशासन ने रहकर बच्चों को अनुशासित कर उन्हें शिष्ट व् व्यावहारिक बना सकते हैं जो हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
मैं स्वयं दो वर्ष से, शिक्षिका पद से इस्तीफ़ा देकर अपने पुत्र के साथ समय व्यतीत कर रही हूँ और उसमें सकारात्मक बदलाव देख रही हूँ ।
मैंने जो भी लिखा है वो केवल शब्दों का समूह नहीं है बल्कि मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है जिसे मैं इस ज्वलंत विषय पर, पटल  पर साझा करना चाहती थी।
अब, आप श्रद्धेय जनों से मार्गदर्शन की अपेक्षा है।

............ लेखा ...............

आशा रावत : 
अमर जी! बहुत महत्वपूर्ण विषय उठाया आपने।आज के बच्चे बचपन को इंजॉय करें तो कैसे? न वे खेल के मैदान रहे न वह सामाजिक साहचर्य का तानाबाना।एकल परिवार में एकाकी से बच्चे हैं।माता पिता के पास भी उनके लिए इतना समय नहीं है । पर हल तो उन्हीं को निकालना है ताकि आगे स्थिति विस्फोटक न हो।उन्हें अपने बच्चों को भरपूर समय देने के साथ ही शाम को किसी हाॅबी क्लास में डालना चाहिए । इससे उनमें एक अतिरिक्त रचनात्मक व्यस्तता आएगी, जो दिमाग को खालीपन से उपजी कुंठाओं से बचायेगी।                        
 Madhu Saksena: 

अमर जी .....विषय हमारे नोनिहालों से जुड़ा है जिनकी परवाह हमे है ... पर क्या हम पूर्ण माता -पिता है .? बच्चों के साथ कहाँ कैसा व्यवहार करना चाहिए क्या ये हम जानते हैं ? अपने में झांक कर देखें क्या हर बार हमने सही किया .. क्या उनके सामने झूंठ नही बोले ,किसी की बुराई नही की , काम चोरी नही की ..? पापा को मत बताना या चॉकलेट या कोई चीज का लालच देकर काम करवाना ..नही किया ?

बात बच्चों को नही खुद को  सुधारने की है ...बच्चे उपदेशों से नही अनुसरण से सीखते है ।
मुझे तो लगता  है कोर्स होना चाहिए बच्चों को पालने का ।उस कोर्स को किये बिना माता -पिता बनने की इज़ाज़त न हो ।

बच्चों को मोबाइल से खेलना या फास्ट फ़ूड खाना कौन सिखाता है ? हम अपनी सुविधा के लिए उन्हें मोबाइल , टैब , इंटरनेट सब मुहैया करा देते है ..वो जब उसके आदी  हो जाते है तो चिंता करते है ।बच्चों को सुधारने की बात करते है। पत्तों को खाद पानी देते है, जड़ को भूल जाते हैं । सदियों से यही चल रहा ।और सदियों से चिन्ता चल रही ।और नतीजा वही 'ढाक के तीन पात ' । शब्दों की जुगाली कर के थक कर बच्चों के हाथ में खिलोना पकड़ा कर सो जाते हैं । 

मन्नू भंडारी के 'आपका बंटी ' ही नहीं मुझे तो  ' हज़ार चोरासी की माँ ' भी याद आ गई ।

अर्पणा ....अमर जी .. जो कुछ आज इस मंच से कहा जा रहा है ... अमल  में भी हो। ... बच्चे तो गीली मिट्टी है .. आकार के आकांक्षी .. 

आवेश में  बहुत कह गई ... मन दुखी हो गया ... सबसे पहले अपना गिरेबां देखना है ।हमारा बचपन जैसा भी बीता हो अगला बचपन अपनी पूरी ऊर्जा और विश्वाश से जिए ।दुआएं है ।

     .......मधु सक्सेना ....

गीता भट्टाचार्य 
बच्चे कोमल मिट्टी कीतरह होते हैं।जिन्हें  माती-पिता जैसा चाहेआकार दें।आजकल  माता -पिता अतिमहत्वाकांक्षीहोगये हैं।हर किसीको अपना बच्चासवॆगुणसंपन्नचाहिए।हरकोई अपना बच्चा डाॅक्टर,इंजीनियर ,कलेक्टर ही बनाना चाहता है।बच्चे की चाहे संगीत-नृत्य ,चित्रकला,खेलकूद की ओर  रूझान क्यों न हो।बस यहीं से शुरू हो जाती है जद्दोजहद।बच्चे पर माता -पिता अपनी इच्छा  थोप देते हैं बच्चा बनना चाहता है कुछ और बन जाता है कुछ और फिर आजकल  एकल परिवार का चलन है।जहाँ
माता-पिता दोनोंकामकाजीहैं ।सो बच्चों  को समय नहीं  दे पाते बदलेमे वे भारीजेबखचॆ,मोबाईल,लेपटाप,गाड़ी इत्यादि दे देते हैं ।इसके साथ ही बच्चे को अगर गलतसंगति मिल गई तो सोने पेसुहागा होजाता है।इसीलिए कहा जाता हैअति सवॆत्र वजॆयेत"।अतः माता -पिता को बच्चोंकी परवरिशके लिए बच्चों के भीतर झांकने कीजरूरत होती है।बच्चा क्या चाहता हैइस पर सबसे पहलेध्यान दें।
किशोरवय के बच्चे शारीरिक -मानसिक परिवर्तन के चलते वैसे ही परेशान रहते हैं तिस पर परिवार से पूणॆ सहयोग न मिल पाना उन्हें कुंठित करदेता है।परित्यकता,तलाकशुदामाताएँ या विधुर पिता बच्चों के खचॆ जैसे-तैसे उठा लेते हैं लेकिन  बच्चों  की मानसिक अवस्था काआंकलन ठीक  से नहीं  करपातेऔर उन्हे अवसादग्रस्त कर देते हैं ।अतः माता-पिता अगरसुयोग्य,मजबूत बच्चेचाहते हैं तो बच्चोंकी मनोदशा की ओर अवश्यध्यान देवेउन्हेंभरपूरप्यार देवें।पति-पत्नी  के आपसी संबंध भी मजबूत होने चाहिए ।अपने -अ पने अहं का त्याग
करें क्योंकि माता-पिता की असली संपत्ति है सुयोग्य बच्चे जिनके लिए उन्हें भी सुयोग्य होना पड़ेगा।
गीता भट्टाचार्य


शरद कोकास 
धन्यवाद अमर जी मैं आपके प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूं कि आपने आज चर्चा का यह बहुत महत्वपूर्ण विषय उठाया है।
 सभी लोगों ने बहुत अच्छे विचार दिए है ।
दरअसल यह इतना व्यापक विषय है कि इस पर काफी कुछ लिखा जा सकता है । हम लोग मध्यवर्गीय हैं इसलिए हम अपने वर्ग के भीतर सबसे पहले इन चीजों को देखते हैं लेकिन जहां तक बच्चों की मानसिकता और उनके विकास की बात है वे एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां पर सभी वर्गों के लोग रहते हैं इसलिए उनका अपरिपक्व मानस और उसकी निर्मिति पर भी विभिन्न वर्ग के बच्चों का प्रभाव पड़ता है जैसे एक वैज्ञानिक के घर के बच्चे को उसके घर काम करने वाला एक नौकर भी भूत-प्रेत जादू-टोने जैसे अंधविश्वास उसके मन में डाल सकता है । इसलिए यदि हम समग्रता में इसे देखें तो यह एक सामाजिक प्रश्न है जिसका हल हम सबको मिल जुलकर ढूंढना है ।
मैंने इस विषय पर काफी लिखा है और एक पुस्तक मस्तिष्क की सत्ताभी इस विषय पर फिलहाल लिखना जारी है जिसमें संस्कार , व्यक्तित्व ,सेल्फ सजेशन के नियम जैसे विषय शामिल है । इन विषयों पर लगातार चर्चा होनी चाहिए।


ज्योति गजभिये 
बचपन फूल सा कोमल, उसे पुष्पित और सुगंधित होने के मध्य कोई भी बाधा नहीं आनी चाहिये पर ऐसा कई बार नहीं हो पाता और बच्चे झेलते हैं उदासी, तनाव , अकेलापन ....जैसे क्यारी को काँटे की बाड़ से बाँध दिया हो....
आजकल ही डिप्रेशन बच्चों पर हावी होता है, यह कहना गलत है, जैसा कि सुनीता जी ने बताया पहले भी पत्रिकाओं में इस विषय पर लेख आते रहे हैं, पहले भी बच्चों का शारीरिक, मानसिक शोषण होता आया है जिसे भूत-प्रेत बाधा या किसी की बुरी नजर या साया कह टाल दिया गया, आज पालक जागरूक हो गये हैं, वे बच्चों को मनोचिकित्सक के पास ले जाने का साहस करते हैं, इसे योग्य भी समझते हैं, आधुनिक युग में कई समस्याओं के साथ एक यह भी समस्या उभरी है कि पति -पत्नि दोनों नौकरी करते हैं और उनके पास बच्चों के लिये समय नहीं होता , कई दम्पत्ति तो शीघ्र बच्चे ही नहीं चाहते क्योंकि जो धरती पर पैदा हुआ वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व बनने वाला है उसे अपने हिस्से की धरती अपने हिस्से का आकाश चाहिये, बच्चों को पैदा करने से पहले उनके पालन-पोषण के विषय में जानकारी आवश्यक है.
हमारे समय में इतनी जल्दी विवाह होते थे कि माता-पिता खुद बच्चे होते थे, उन्हें क्या जानकारी बच्चों को पालने की बड़े लोग भी कई बार योग्य सलाह नहीं देते थे, पल जाते थे बच्चे मार खाकर, या अत्याधिक लाड़ पाकर, आज उम्र वाले माँ-बाप है फिर भी दूसरी समस्यायें हैॆ.
बहुत कुछ लिखना था पर संभव नहीं है,
अमर जी ने इस विषय पर लिखने के लिये प्रवृत किया, धन्यवाद

ज्योति गजभिये


डॉ लता 
अभी जस्ट यूनिवर्सिटी से सेमिनार अटैंड कर आ रही हूँ। संयोग वहाँ भी यही चर्चा महिलाओं में कि बच्चों को समय नहीं दे पा रहे। कहीं यह विवशता है तो कहीं महत्वाकांक्षा । किन्तु सत्य यही है कि  परिस्थितियां सभी के लिए विकट हैं। कुछ बच्चों की मानसिकता में भी अंतर आया है। जो बच्चे कभी तेज आवाज से डरते थे, अंधेरों से उन्हें भी लगता था आज वे तेज स्वर में संगीत सुनना पसंद करते है। सस्पेंस के नाम पर भूतिया फिल्में पसन्द करते हैं। इन्हें देखकर लगता है बच्चे मानसिक रोगी हो चुके हैं।
डॉ लता

Varhsa Raval:
अमर जी ,आपको साधुवाद इतना सम्वेदनशील विषय देने के लिए । सुबह से अकुलाहट है कि इतना विस्तृत विषय संकुचित कैसे हो , कहाँ से बात शुरू की जाए । जिससे एक नवजात शिशु से लेकर अच्छा इंसान बनने तक की सफल कहानी निहित हो , लेकिन बात  कहीं से तो शुरू करना ही है।
,,आजकल बच्चों को नींद सुहानी नही आती
क्योंकि दादा दादी को कहानी नही आती,,
वैसे भी अब संयुक्त परिवार रह कहाँ गए हैं जो बच्चों में प्रेम, सहयोग, सामंजस्य, कर्तव्य , और भावनाओं से रूबरू करवा सकें,, खैर संयुक्त परिवार एक अलग तरह का विषय हो सकता है जिस पर शायद फिर कभी चर्चा हो । लेकिन फिर भी बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उसकी भूमिका को नज़रअंदाज़ करना सही न होगा । एकल परिवार में बच्चों की मानसिक स्थिति और यूँ कहूँ कि स्तर भी बनाने में अभिभावक की भूमिका होती है , निश्चित ही पूरी तरह से तब तक , जब तक वो स्कूल नही जाता उसके बाद ही धीरे2 बाहर की दुनिया से उसका सामना होता है और उसके लिए बेहद मुश्किल समय भी होता है क्योंकि तभी उसे माता पिता के अलावा और लोगों के साथ भी सामंजस्य सीखना होता है । अगर घर में माता पिता जो अक्सर दोनों ही जॉब पर होने लगे हैं तब परवरिश उचित तरह से हो नही पाती क्योंकि दो कुंठाग्रस्त लोग जो ऑफिस और घर की ज़िम्मेदारियों में खुद दिमागी रूप से असन्तुलित हों उनसे किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा कर सकता है बच्चा, ऐसे में इतने छोटे से दिमाग में तमाम परेशानियां लिए घूमता है बच्चा , जो उसे मानसिक रोगी , मोबाइल , टीवी या वीडियो गेेम का एडिक्ट बना देता हैं  । इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण है माता पिता के आपसी सम्बन्ध। दोनों का एक दूसरे के प्रति सम्मानजनक न होना बच्चे में भी वैसा ही इंसान बनने की बीज डालता होता है , कुछ अवसरों में ये अपवाद अवश्य हो सकता हैं । हमने डाकू को इंसान बनते और इंसान को डाकू बनते भी देखा है । लेकिन मूल में हमेशा ही एक नर्म दिल बच्चा होता है जिसे समय रहते पहचाना सुधारा जा सकता है। जीवन मूल्य क्या है ,वही जिसे करते देख बच्चा बड़ा होता है । हमेशा बच्चे पर रोक टोक नही किया जाना चाहिए, उसे खुद ही परिणाम तक पहुंच पाने में सक्षम बनाना चाहिए , निर्णय लेने की क्षमता भी सिखाना चाहिए । दूर से देखकर सही गलत की पहचान करवाना ज़रूरी है बनिस्बत अपनी मर्ज़ी थोपने के। अक्सर हम बड़ों की आदत होती है अपनी छोटी बड़ी गल्ती दूसरे पर थोपते हैं , एक बार भी नही सोचते कि वजह क्या हो सकती है । पिता गल्ती पत्नी पर ,बच्चा अपने भाई बहन पर ,बॉस अपनी गल्ती कर्मचारियों पर आप चाहे कोई भी रिश्ता देख लें । ऐसा करके हम अपने अहम्  को ही सन्तुष्ट करते हैं ।ऐसा इसलीए कि हमने यही सीखा है , अपने को निर्दोष साबित करने के लिए दूसरों को वजह बता दो ,जिस दिन अपना मूल्यांकन करने की बात हम सोचने लगेंगे तब निश्चित ही बेहतर समाज बनेगा जिसके कर्णधार होंगे आजके नौनिहाल।
मेरा अपना मानना है कि बच्चे में किसी भी तरह की कला का विकास उसे मानसिक टूटन से न केवल बचाता है बल्कि उसमे विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ना और जीतना सिखाता है सो हमे ध्यान देना होगा कि उसकी अपनी अभिरुचि किसमे दिख रही है और उस ओर ही हमे प्रेरित करना है ।ख़ुशी की बात है कि विदेशो की तर्ज़ पर हमारे यहां भी अभिभावकों के लिए जीवन मूल्यों पर ट्रेनिग होती है , जिसमे अभिभावक भी बच्चे के साथ अपने व्यवहार का पाठ पढ़ते हैं। छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र,गुजरात में इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं जो धीरे2 अन्य राज्यों में भी सफल हो रहे हैं। मेरी तरह छत्तीसगढ़ के अन्य साथी जानते हैं कि ,, जीवन विद्या,, को ट्रेनिग है जिसमे हम सही अभिभावक ही नही बल्कि सही इंसान कैसे बनते हैं , यही सीखते हैं और क्रियान्वयन करते हैं। इसमें बच्चों की स्कूल भी हैं जो अभी प्रारम्भिक अवस्था में है वो प्रभावित करती है उन स्कूलों का नाम ही , अभिभावक विद्यालय, है । ये तो थी महज़ एक जानकारी , लेकिन फिर भी बच्चों की बढ़ती मानसिक बीमारी दरअसल उनकी नही हम्म अभिभावकों की है बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारे देश में एक बहुत बड़ा प्रतिशत किसी न किसी रूप में मानसिक बीमारी के रूप में सभी में है , जिसका पता स्वयं उसे भी नही होता ,लेकिन जिसका असर साथ रहने वाले सदस्यों के जीवन पर गम्भीर रूप से पड़ता है और अगर घर में भी इस ओर ध्यान न दिया जाए तो उसकी हरकतों का असर समाज के कई लोगों पर पड़ता है । इसलिए आत्मावलोकन ज़रूरी है ताकि समय रहते हम इसे समझ सकें और बाक़ी लोग प्रभावित न हों । बच्चों को हम जो सिखाते हैं ज़रूरी नही कि वे केवल वही सीखते हैं बल्कि अनजाने, अनचाहे ही हम उन्हें विरासत के रूप में वो सौंप जाते हैं जो उनके व्यक्तित्व के निर्माण में कदापि सही नही ।
निश्चित ही बहुत कुछ छूट गया होगा विषय से और कुछ अनावश्यक आ गया होगा , ये विषय ही ऐसा है जो परेशान कर देता है मानसिकता को ,आज इतना ही..........

वर्षा......                      
91 98181 03292: बालदिवस पर विशेष-
माता-पिता के अनावश्यक लाड़-प्यार के कारण आज बहुत से बच्चे असहिष्णु होते जा रहे हैं। आजकल बच्चों में जिद करना, कहना न मानना, तोड़फोड़ आदि की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और वे दिन-प्रतिदिन ईर्ष्यालु व अहंकारी बनते जा रहे है। यह वास्तव में चिन्ता का विषय है।
         आज इस इक्कीसवीं सदी में शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है। इसलिए घर में पति-पत्नी दोनों ही उच्च शिक्षा ग्रहण करके नौकरी अथवा अपना व्यवसाय कर रहे हैं। सवेरे से शाम तक अपने कार्यों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने बारे में भी सोचने का समय नहीं होता। इससे उनका अपना सामाजिक जीवन भी प्रभावित होता जा रहा है।
           वे लोग अपने परिवार के बारे में सोचने से पहले कैरियर के विषय में सोचते हैं। इसीलिए समयाभाव के कारण पहली बात तो वे बच्चे पैदा ही नहीं करना चाहते और यदि चाहते भी है तो बस एक। चाहे वह लड़की हो या लड़का, उन्हें इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता।
           आज परिवार सीमित होते जा रहे हैं। बच्चों की जायज-नाजायज माँगों को पूरा करके वे उन्हें जिद्दी बना रहे हैं। जब उनकी माँग किसी कारण से पूरी नहीं हो सकती तो वे पैर पटकते हैं और तोड़-फोड़ करते हैं। सारे घर को सिर पर उठा लेते हैं। और हंगामा करते हैं।
          किसी दूसरे बच्चे के पास जो भी नई वस्तु देखते है वही उन्हें चाहिए होती है। चाहे उसकी जरूरत उन्हें हो या न हों। चाहे  खरीदकर उसे कोने में पटक दें। दूसरों को अपने से छोटा समझने की प्रवृत्ति उनमें बढ़ती जा रही है। उन्हें ऐसा लगता है कि उनके माता-पिता के पास बहुत-सा पैसा है और वे जो चाहें या जब चाहें कुछ भी खरीद सकते हैं। इस प्रकार के व्यवहार से वे अहंकारी बनते जा रहे हैं। यह किसी भी प्रकार से उनके सर्वांगीण विकास लिए उपयुक्त नहीं है।
        हर उस बच्चे से वे ईर्ष्या करते है जो उनसे किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ रहा हो। वे इस बात को आत्मसात नहीं कर सकते कि उन्हें कोई भी किसी भी क्षेत्र में हरा दे और उनसे आगे निकल जाए। हर समय तो भाग्य साथ नहीं देता और जब ऐसा हो जाता है तो मानो उनकी दुनिया में कुछ भी नहीं बचता। अपने को पटकनी देने वाले का समूल नाश करने के लिए षडयन्त्र करने लगते हैं। ऐसे ही बच्चे बागी होकर फिर  गैगस्टर बन जाते हैं और हाथ से निकल जाते हैं।
         उनके माता-पिता उस अवस्था में स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं। तब उनकी सोचने-समझने की शक्ति जवाब दे जाती है और वे सोच भी नहीं पाते कि इन सपूतों को वापिस फिर इंसान कैसे बनाया जाए।
          माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को उनकी आवश्यकता के अनुसार सब कुछ खरीद कर दें। साथ ही उन्हें न सुनने की आदत भी डालें। ऐसा होने से बच्चे को यह समझ में आ जाएगा कि हर बात के लिए जिद नहीं की जाती। यदि कोई मनचाही वस्तु किसी कारण से न मिल पाए तो घर में न तो हंगामा करना होता है और न ही तोड़फोड़। इससे उनमें स्वत: सामंजस्य की समझ भी आ जाएगी।
         बच्चे घर की शोभा होते हैं, माता-पिता का मान होते हैं और राष्ट्र की धरोहर होते हैं। वे कच्ची मिट्टी की तरह कोमल होते हैं। उन्हें जिस भी साँचे में ढाला जाए वे वही आकार लेते हैं। इसलिए उनका चरित्र निर्माण करते समय बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है।
        अत: माता-पिता का नैतिक दायित्व बनता है कि वे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से थोड़ा-सा समय निकालकर बच्चों को संस्कारित करें। अति लाड-प्यार से उन्हें बिगाड़कर उनके शत्रु न बनें और अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारकर जीवन भर का सन्ताप मोल न लें।
चन्द्र प्रभा सूद

वन्या जोशी                      
 मंच पर सभी को यथायोग्य  नमस्कार 🙏🏻 आज का पोस्टर  बहुत बढिया लगा👌🏻 आज अमर जी ने जो जीवंत  मुद्दा मंच पर रखा है वो बहुत ही महत्वपूर्ण  है ! बच्चे  कहीं मानसिक रोग का शिकार  न बने ये हर परिवार  की मूल जिम्मेदारी  होनी ही चाहिये | पर ये बढते मोबाइल लगाव की वज़ह से कदापि नहीं  हो सकता ! ये तो सदियों से चली आ रही एक ज्वलंत  वेदना है जिसे पहले स्वीकारा ही नहीं गया ! लालन पालन,मार,शोषण ,बच्चे के डर या परेशानी  को नज़रअंदाज  करना ,रोते बच्चे को रोने के लिए  भी पीट देना और सास या पति के लिए  खाना बनाना इत्यादि  ज्यादा  जिम्मेदार  हैं ! बच्चों  के लिए  समय निकालना, उनको विश्वास  दिलाना कि उन्हें सिर्फ  बच्चा समझकर नज़रअंदाज़  नहीं किया जायेगा ,बहुत ज्यादा  टोका टाकी न करना( जैसे बाथरूम  जाओ ,पानी पी लो ,नाणा बांध  लो !)उनको जताना कि वो गलती करने पर घर वालों को बता सकते हैं उन्हें ग़लती की ढांठ तो पडेगी पर वो फिर भी घर की प्यारी संतान रहेंगे ! इन सब बातों से एक सकारात्मक  बदलाव  आएगा ही ! मंच के सामने मोबाइल  के पक्ष में यह कहना चाहूंगी कि आजकल  कई साईट्स हैं जो बच्चो को अपनी पीडा अपनी वेदना share करने के लिए प्रोत्साहित  करते हैं जैसे the artidote जिससे बच्चे अपना मन हल्का कर लेते हैं ! आदरणीय  ने जो विषय उठाया  है उस मानसिक पीडा के निवारण हेतू कई वषों  से सक्रिय हूं और बच्चों को भी उनके rights से अवगत  कराने  का कार्य  भी कपती हूं |१०९८ मिलाकर  बच्चे तुरंत  न्याय पा सकते हैं ! मंच ने इतना अच्छा  विषय उठाया  उसके लिए धन्यवाद  और बधाई इस विषय ने और सभी बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रियाओं ने मंच की गरिमा बढाई

आनंद बाला शर्मा 
ज्वलन्त और सामयिक समस्या ।
बच्चों के लालन पालन में अक्सर आड़े आते हैं
हमारे सपने,हमारे डर एवं कुंठाएँ,हमारी सामाजिक ,पारिवारिक और आर्थिक स्थिति ,
हमारी सोच, आदतें और स्वभाव ,हमारी शिक्षा व
कामकाज की स्थिति ,परिवेश आदि आदि।परिणाम
जो भी हों हम भी  झेलते हैं और बच्चे भी।अगर
कहीं कुछ गलत है तो उसे बदलने की आवश्यकता
है।
        हम कुछ सदस्य जो गायत्री परिवार से जुड़े
हैं।स्कूलों में जाकर बाल संस्कार शाला के अन्तर्गत बच्चों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देते हैं और कहानी,कविता सुनाकर साहित्य के प्रति रुचि
पैदा करते हैं।
नौनिहालों के प्रति छोटा सा योगदान


रूपेंद्र 
बहुत ही सार्थक चर्चा हो रही है। मिडिया ,मोबाईल और सोशल साइट्स की तिकड़ी ने जैसा जकड़ रखा है लगता नहीं उससे आज़ाद होना आसान है।महेश जी से सहमत हूँ स्वयं पर तो हम प्रतिबद्ध हैं नहीं बच्चो को कैसे टोकें।मैंने ऐसी माओं को देखा है जो अबोध बच्चों को यह उपकरण पकड़ा कर निश्चित हो जाती हैं।घर मे बड़ो के मना करने पर उन पर ही बिफर जाती हैं।समय के व्यस्थित नहीं कर पा रहे हैं।आज भी जिस पर चर्चा हो रही है वह भी यही माध्यम है।केवल ऊब ही हमें इसके अति प्रयोग से बचा सकती है अथवा इसके प्रयोग से होने वाले हमे शारीरिक व मानसिक स्थितियों पल  विपरीत प्रभाव।


डॉ निरुपमा वर्मा 
बच्चों में भारी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल कहीं सहानुभूति, सामाजिक एवं समस्या समाधान के कौशल को बाधित कर कर सकता है। ये सारी योग्यताएं बच्चों में अध्ययन, खेल और साथियों से बातचीत के जरिए अर्जित होती हैं।  इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बच्चों में ज्ञानेंद्रिय एवं दृश्य-मोटर कौशल के विकास के लिए आवश्यक गतिविधियों की जगह ले लेते हैं। यह कौशल गणित एवं विज्ञान सीखने और जीवन में उनके इस्तेमाल के नजरिए से महत्वपूर्ण है।
यह बात सर्वज्ञात है कि छोटे बच्चे चेहरे की भावनाओं और गतिविधियों को देखकर ज्यादा सीख पाते हैं। मोबाईल , या अन्य इलेक्ट्रॉनिक बच्चे को भाव भंगिमा से परिचित नहीं करा सकता । इसे समझना जरूरी है                      
हनुमंत शर्मा 
Vmm पर चर्चा का विषय अच्छा रहा...उम्दा टिप्पणीया  भी आई....पिश्ट पेषण और पुनरावृत्ति दोनों ही अनुचित होगी...
लेकिन यहाँ सवाल बच्चो का उतना नहीं है जितना बडो का
हर नई पीढी  अपने साथ नये गेजेट्स नयी तकनीक लेकर आती है
आयेगी ही
हम नहीं रोक सकते
हम जो बात रोक सकते है वह है जीवन को मशीन होने से रोकना
और जीवन को वापस जीवंतता की तरफ़ लौटाना काम मुश्किल है लेकिन और विकल्प नहीं है
पुरानी पीढी tv पर लगी रहे
और
नयी नेट पर
फर्क ज्यादा नहीं है
हाँ नई पीढ़ी को और तेज़ स्पीड चाहिये
लेकिन 4G और बुलेट ट्रेन कौन लेकर आ रहा है साठोत्तरी पीढी का नेता
तो हमारा पूरा समाज अब एक ऐसे ट्रेप मे फँस चुका है
जिसका अंत अपने ही भार से चरमराकर टूटी हुई सभ्यता मे होना तय है
कारण वापस लौटा नहीं जा सकता
और आगे सिर्फ डेड एंड आना है
मुझे वुदरिंग हाइट्स की याद आती है
जहाँ काला ही सफेद के रूप मे स्थापित हो जाता है
एक लिँगोदर समय
मनोहर श्याम जोशीके हरिया क्योलीस का गूम लेंड या उनका ही हमजाद
तो हमारा मेट्रो  समाज एक मेंटल असाय्लम मे लगभग बदल चुका है
पता नहीं कैसे इसे समाज कहा जा सकता है
सामाजिकता के तमाम लक्षणों से रिक्त
फिर भी जैसा विषय है बच्चो को इस भयानक असमाजीकता की व्याधि से बचाकर हम शायद भविष्य बचा ले
मैरे लिहाज से डीटेकनालाईजेश्न और रूसो के बेक टू नेचर के बारे मे सोचने का समय आ गया है
लेकिन नेचर भी कहाँ बचा है
इसलिये मोदी बाबा को स्वैप मशीन से पहले एक पौधा बाँटने पर विचार करने की ज़रूरत है
Thnx vmm उम्दा परिचर्चा के लिये


डॉ अल्का प्रकाश 

मुझे अपना बचपन याद आ रहा,जब हम सब भाई-बहन आपस मे ख़ूब खेलते,लड़ते-झगड़ते थे।कोई कमी नहीं थी।उदासी क्या होती है?यह पता ही नहीं था।दरअसल आज औरत  गृहणी मात्र नहीं रही,उसका कार्य -क्षेत्र बढ़ गया है।परिवार मे पुरुष अपनी भूमिका आज भी नहीं बदल पाया है।महिलाओं पर काम का दुहरा बोझ है और ऊपर से यह मोबाइल । समयाभाव के कारण माॅएं बच्चों का पहले जैसा ध्यान नहीं दे पा रहीं।जब बड़े कंट्रोल नहीं कर पा रहे तो बच्चे कहाँ तक करेंगे?एक क्लिक पर उपलब्ध पोर्न सामग्री बूढों तक को लम्पट बना रही,फिर बच्चे? ?कोई माॅनिटरिंग नहीं है।यौन -अपराध बढ़ने मे स्मार्ट फोन की भी भूमिका है। बच्चे जितना  प्रोजेक्ट नहीं तैयार करते या ऑन लाईन पढ़ते नहीं, उससे ज्यादा चैट करते और गेम खेलते हैं ।गेम भी  ज्यादातर हिंसक किस्म के हैं ।यू ट्यूब पर सर्च कुछ करो रीलेटेड लिंक कुछ और ही आने लगता है।साइबर क्रांति ने माता-पिता की ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ा दी है।अनवरत निगरानी और ख़ुद स्मार्ट फोन से दूरी बना कर ही बच्चों का भविष्य बनाया जा सकता है।दरअसल बच्चों की एकाग्रता कम हो रही ।उनका पूरा ध्यान गेम के अगले लेवल तक पहुँचने मे लगा हुआ है।हम जितना ज्यादा त्याग करेंगे हमारे बच्चों का भविष्य उतना सुंदर बनेगा।निर्णय हमें लेना है कि ख़ुद की लोकप्रियता जरूरी है या बच्चों का भविष्य ।सब एक साथ नहीं सधता ,सच यही है।बच्चों के सामने आदर्श उपस्थित करने के लिए हमे स्वयं आभासी दुनिया से एक निश्चित दूरी बनानी होगी।मेरे साथ साइबर-अपराध हो चुका है,भुक्तभोगी हूँ ।उचित वक्त आने पर यह लड़ाई लड़ूंगी।
          -डाॅ.अलका प्रकाश


अमर त्रिपाटी 
Internet ke liye
  जिधर देखता हूं,उधर तू ही तू है
न तेरी सी खुशबू न  तेरी सी बू है
रहे ख़ुद पे काबू तो ,तुझसा ना कोई
बहे ज्ञान गंगा,गजब यार तू है
 
बस थोड़ा सा ही इस्तेमाल हो तो इंटरनेट वरदान है नही तो लोग रस्ता चलते एक दूसरे से टकरारहे है और व्हाट्सप पर लगे हुए है।पत्नी पूछ रही है एक रोटी और दू
पति का जवाब ही नही आ रहा है एक हाथ से खाना एक हाथ से whatsap

ड्राइविंग करते वक्त भी चेक कर रहे है लोग घँटी बजते ही मोबाइल ऑन

आज बहुत सुंदर सुन्दर लेख पढ़े, बहुत कुछ सीखा अर्पणा जी का साथ मिला स्टोरी मिरर के बिभू जी बहुत प्रभावित है जी आपसे ।
साथ जुड़ने वाले सभी साथियों को प्रणाम खासकर राजम नटराजन बिभू दत्ता जो दोपहर को ओडिशा से आये और व्यस्त समय से भी समय निकाल कर अपना वक्त दिया।

आप सब को पढ़ने और आप सब से बहुत कुछ सीखने को मिला

इस चर्चा को फिर कभी आगे बढ़ाएंगे,विशेषज्ञ बुलाकर उनकी भी राय लेंगे।
बहुत कुछ शेष है फ़िर कभी
अमर त्रिपाठी🙏🏽

2 comments:

  1. शुक्रिया प्रवेश जी,विश्व मैत्री मंच समूह में आज के ज़रूरी विषय पर आयोजित परिचर्चा को रचना प्रवेश में देखकर यह तय पाया कि आप बेहद जागरुक लेखिका हैं,आपके सहयोग के लिये आभार मित्र।

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  2. सार्थक परिचर्चा

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