आज की औरत मूक है उसके आंसुओं को दुनिया देखती है उसके हिस्टिरिया के दौरे ,उसके चीखने चिल्लाने पर लोग कानों पर हाथ रख लेते है |स्त्री होना अपराध नहीं है पर नारीत्व की आँसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है ...
शब्दों का अपना इतिहास होता है ,और यदि वो छप जाए तो क्या यों उनकी उपेक्षा करना सम्भव होगा ?
जिंदगी कितनी रहस्मयी हो जाती है जब आप उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाते ?जबकि आपका सारा प्रयास होता है उसे पारदर्शिता का जामा पहनाने का ,मगर क्या जिंदगी को यूँ खोलकर रखा जा सकता है ?
उपन्यास से ...
छिन्नमस्ता हिंदी की प्रसिद्द लेखिका प्रभा खेतान अपने उपन्यास छिन्नमस्ता में स्त्री मुक्ति की कामना लेकर सवाल करती है ....कब तक आखिर कब तक पुरुष द्वारा स्त्री को रोंदा जाएगा |
परुष सिर्फ पुरुष है ,उसे बाप ,भाई ,पिता ,पुत्र के रिश्ते का नाम कथित सभ्य समाज में उज्जवल छवि दिखाने मात्र के लिए है |पुरुष की कामुकता इन नाम के रिश्तों में आज भी छिपी हुई है ....
9 वर्ष की उम्र में सगे भाई ,नौकर ..की वासना का शिकार हुई उपन्यास की नायिका अपने बचपन को तो खो ही देती है ,तमाम उम्र पुरुष के दमघोंटू साथ से मुक्ति के लिए कसकती रहती है |
छिन्नमस्ता पर डॉ संजीव जैन का आलेख पढ़िए और अपने बहु मूल्य विचार दीजिये |हो सकता है लेखिका के सवाल का जवाब आपके पास ही हो .......
पितृसत्तात्मक वर्चस्व और छिन्नमस्ता के स्त्री चरित्र
डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
गुलाबगंज, म.प्र.
हिन्दी उपन्यास के इतिहास में प्रभा खेतान का नाम चिरस्थायी हो गया है। यद्यपि उनके उपन्यासों का मूल्यांकन अभी होना शेष है। छिन्नमस्ता और पीली आँधी के अलावा उनके अन्य उपन्यासों पर किसी भी नामधारी आलोचक ने कोई खास टिप्पणी नहीं की और न उन लेख लिखे। आज स्थिति यह है कि उनके उपन्यास अप्रकाषत हैं। सामान्यतः पाठक और शोधार्थियों को पढ़ने के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं। इसके पीछे जो कारण है, उसमें हिन्दी साहित्य की खेमेबाजी तो है ही, साथ ही प्रभा जी का आलोचकीय व्यक्तित्व भी है। प्रभा जी ने स्त्री विमर्ष के क्षेत्र में जो वैचारिक लेखन कार्य किया है, वह उनके रचनात्मक लेखन पर छा गया। उनकी विचारधारात्मक पुस्तकें जो उपन्यासों के बाद आयीं - भूमंडलीकरण और ब्रांड संस्कृति, उपनिवेष में स्त्री मुक्ति कामना की दस वार्तायें, बाजार के बीच बाजार के खिलाफ, स्त्री उपेक्षिता (अनुवाद) और स्त्री विमर्ष पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वैचारिक आलेखों ने उनकी छवि उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होने दी।
बावजूद इसके उनका उपन्यास लेखन उनकी स्त्री विमर्ष की ही पहली कड़ी है। उनमें प्रभाजी का अनुभव क्षेत्र, संवेदना और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में घुटती स्त्री की मुक्ति का आख्यान दिखाई देता है। उनका अनुभव क्षेत्र न केवल भारतीय स्त्री तक सीमित है, उसमें अमेरिका, चीन, हांगकांग और कोरिया का परिवेष भी समाहित है। विदेषी परिवेष पर आधारित उपन्यास हैं ‘आओ पे पे घर चलें,’ अग्निसंभवा और एड्स। भारतीय समाज और राजनीति के परिवेष में वे मारवाड़ी समाज की पुरुष प्रधान सामंतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था को लक्ष्य बनाती हैं। उनके पीली आंधी और छिन्नमस्ता में मारवाड़ी जीवन के बीच स्त्री की दयनीय स्थिति को स्थान मिला है तो उसी परिवेष के बीच से विद्रोह करती स्त्री भी हमें दिखाई देती है। मारवाड़ी समाज मे हो रहे बदलावों, उनकी जीवटता और संयुक्त परिवार के टूटने की कहानी हमें प्रभा जी के यहाँ प्रमाणिकता से प्राप्त होती है।
एक बंद समाज में स्त्री पुरुष के बीच के संबंधों की कहानी भी है और उनके बीच से टूटते बनते रिष्तों और संबंधों का लेखा जोखा भी है। व्यापार और पैसा ही जिस समाज में महत्वपूर्ण हो वहाँ मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हैं प्रभा जी। उनके उपन्यासों में दमघोटू वातावरण से मुक्ति पाने का संघर्ष करती स्त्री भी है और उसमें ही स्वयं को खपाती स्त्रियाँ भी हैं। यौनषुचिता, सेक्स, समलिंगी प्रवृत्तियाँ, वैवाहेतर देह संबंध, देह संबंधों में विष्वास का टूटना, विवाह नामक संस्था के बिखरते जाने के लक्षण, सामंतीय परिवार के टूटने के स्वर और नए बनते परिवारों का स्वरूप हमें उनके उपन्यासों में मिल जाता है।
इस तरह प्रभा जी के उपन्यास संसार में जीवन की विविधता के साथ-साथ अनुभवों की भी गहराई और बदलते समय और समाज की आहट भी दिखाई देती है।
परंपरागत भारतीय समाज में स्त्री की भूमिका पूर्व निर्धारित है और उसे जन्म के साथ ही यह भूमिका घुट्टी में मिलाकर पिलाई जाती है। घर की चाहरदीवारी में माँ, दादी, बड़ी बहन, भाभी, चाची, बुआ इत्यादि स्त्रियाँ जो पितृसत्ता द्वारा थोपी गई भूमिका और स्वरूप को अंगीकार कर चुकी होती हैं, वे एक लड़की को जो जैविक इकाई के रूप में ठीक उसी तरह जन्म लेती है जैसे लड़का, एक सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से औरत या स्त्री बनाने की कार्यवाही को निरंतर अंजाम देती हैं। इन्हें हमारे समाज में संस्कार देने का काम माना जाता हैं। ‘संस्कार’ देने के नाम पर दरअसल एक जैविक इकाई को जो स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के साथ पैदा होती है, उसे ‘स्त्रीत्व’ की परंपरित और रूढ़ छवि में ढाला जाता है।
प्रभा खेतान के उपन्यासों में स्त्री चरित्रों की विविधता है। उनके उपन्यास - आओ पेपे घर चलें, तालाबंदी, छिन्नमस्ता, पीली आंधी, अपने-अपने चेहरे, अग्निसंभवा, स्त्री पक्ष और एड्स। इन आठ उपन्यासों में स्त्री जीवन का विविधरंगी चित्र हमें देखने को मिलते हैं। ‘आओ पेपे घर चलें’ की आइलिन, मिसेज डी. हेल्गा, केथरीन, एडिना, लारा, क्लारा ब्राउन, मरील; ‘तालाबंदी’ की पुष्पा; ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया, नीना, कस्तूरी, सरोज, जूड़ी, श्रीमती अग्रवाल, दाई माँ, तिलोत्तमा; ‘पीली आँधी’ की सोमा, सरोज चंद्रा, संगीता, बड़ी भाभी, चित्रा, लता, रेखा, राधा, पद्यावती, मोहन की पत्नी, निमली बाई, ताईजी; अपने अपने चेहरे की रमा, रीतू, श्रीमती गोयनका; ‘अग्निसंभवा’ की आई. वी., लियेना, ‘स्त्री पक्ष’ की वृंदा, रीया, सुनीता इत्यादि के अलावा भी जीवन के विविध प्रसंगों में आये अनेक स्त्री चरित्र हैं। पीली आँधी में बहुत से स्त्री चरित्र हैं, जो उपन्यास की कथा को विस्तार भी देते हैं और उसकी व्यापक जीवन दृष्टि को प्रमाणित भी बनाते हैं। परिवेष और प्रसंग के अनुकूल स्त्री चरित्रों का सृजन प्रभा जी की विषेषता है।
प्रभा जी का नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, वह उसकी परंपरागत छवि के साथ, समाज के व्यापक संदर्भ में उसकी नई छवि और भूमिका का निर्माण करना है। वे अपने वैचारिक क्षेत्र में स्त्री की स्वतंत्रता और उसकी मुक्ति की व्यापक पक्षधर रहीं हैं। उनके उपन्यासों में स्त्री चरित्रों की खास प्रवृत्ति है विवाह नामक संस्था को मृत संस्था सिद्ध करना है। उनका मानना है कि परिवार और विवाह का पितृसत्तात्मक ढांचा स्त्री के जीवन को जकड़ कर रख देता है। उसके विचारों और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को सामने लाने का अवसर नहीं देता। उसकी इच्छा-अनिच्छा को उसी सीमित बाड़े में घुट-घुट कर जड़ होने के लिए छोड़ देता है। यही कारण है कि उनके अधिकांष स्त्री चरित्र विवाह की घेरेबंदी को तोड़ते नजर आते हैं। यद्यपि वे पुरुष के साथ से इंकार नहीं करतीं, परन्तु पुरुष के चयन का अधिकार वे अपने स्त्री चरित्रों को देने की पक्षपाती हैं।
प्रभा जी ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘‘अक्सर सोचती हूँ कि औरत अपने बारे में ऐसा कुछ लिखे जिसे किसी पुरुष ने अभी तक न लिखा हो। क्या लिखना चाहिए? मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूँ ऐसी कोई स्पष्ट विचारधारा मेरे पास नहीं है। किंतु जानती हूँ स्त्री के अनुभवों की अभिव्यक्ति कुछ विषेष और अलग रंगों और रेखाओं की पहचान है। कम से कम कुछ तो ऐसा अखोजा रहा है जिसे केवल औरत ही खोज सकती है।’’ उनकी यह बैचेनी दरअसल पितृसत्तात्मक विचारपद्धति के बरक्स बिल्कुल नये जीवन संबंधी विचारों, संस्थाओं, संबंधों, और व्यवहारों के वर्णन में देखी जा सकती है। उन्होंने स्त्री के द्वारा चयनित कई ऐसे विकल्प खोजे हैं जो रिष्तों और संबंधों की नई इबारत लिखते नजर आते हैं।
प्रभा जी के प्रमुख स्त्री चरित्र अपने अस्तित्व और अस्मिता को खोजने की कोषिष में अपना जीवन होम करते दिखाई देते हैं। वे अपने वजूद और पहचान को अब तक दी गई भूमिका के खिलाफ बनाने का प्रयास करते हैं। उनके इन प्रयासों में परंपरागत मूल्य, नैतिकता के मानंदड़, संस्थाओं की घेराबंदी, संबंधों की मर्यादा, यौन शुचिता की अवधारणा, पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई भूमिकाओं, इत्यादि के नकार में देखा जा सकता है। वे अपने जीवन को पुरुष के संदर्भ में ही परिभाषित और निर्धारित कर देने के खिलाफ हैं और इसीलिए वे अपनी भूमिका स्वयं चुनती हैं। बने-बनाये रास्तों पर न चलकर स्वयं अपने लिए नए और बीहड़ रास्तों की खोज भी वे करतीं हैं। इन रास्तों पर चलने की कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना भी साहस के साथ करतीं हैं और हमेषा ही लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन के प्रयास में रावण की लंका में ही नहीं कैद हो जातीं। वे अपने लिए वन का आश्रम और राम की अयोध्या की रचना भी करती हैं।
छिन्नमस्ता के स्त्री चरित्र
स्त्री चरित्रों की दृष्टि से छिन्नमस्ता एक सषक्त उपन्यास है। प्रभा जी का स्त्री विमर्ष संबंधी दृष्टिकोण और विचारधारा इस उपन्यास में खुलकर सामने आया है। इसकी नायिका प्रिया मध्यवर्गीय स्त्री जीवन की प्रतिनिधि चरित्र है। प्रिया बचपन से ही दुतकार और फटकार की पीड़ा को सहन करती है, क्योंकि वह अपने सात भाई बहनों में पाँचवीं संतान थी। उसके शेष भाई बहन सुंदर थे और वह सांवली और हट्टी कट्टी थी। अपनी बड़ी बहन से वह देखने में बड़ी लगती है। उसकी माँ को संुदर बच्चे पसंद थे, इसलिए उस पर हमेषा डांट पड़ती रहती थी। नौ वर्ष की उम्र में ही उसके पिता का निधन हो गया था और उसके बड़े भाई ने उसे अपनी वासना का षिकार बनाया था। इन सब कारणों से वह डरी सहमी रहने लगी थी। इस डर और सहमेपन के बावजूद उसका बजूद उसे पितृसत्ता को चुनौती देने के लिए तैयार करता रहा और अन्ततः उसने पितृसत्ता के प्रतीक पति को और बेटे को चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया।
विवाह के बाद भी उसके जीवन में खुषी नहीं आयी। पति नरेन्द्र एक मर्द भर बनकर आता था उसके पास। उसकी वहषी भूख के कारण प्रिया को अपने औरतपन से चिढ़ हो गई। और उसे अपनी कोमल और स्त्रियोचित भावनाओं को कुचलने में ही मजा आने लगा। सेक्स के प्रति उसकी अरुचि बचपन की घटनाओं के कारण थी ही पति के लिए भी वह एक औरत भर ही थी। अतः उसने अपने औरतपन की चुनौती को स्वीकार किया और एक स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्वतंत्र पहचान बनाने में लग गई जो उसके औरतपन को उससे अलग कर सके। एक व्यक्ति के रूप में, एक इंसान के रूप में अपना वजूद उसने बनाया।
माँ बनना स्त्री के लिए सबसे अधिक महिमामंडित करता है, परन्तु प्रिया माँ बनने के बाद भी स्त्रियोचित खुषी नहीं पा सकी। अतः उसने स्वयं को एक व्यवसायी के रूप में स्थापित किया। वह अपने बेटे को नौ वर्ष की उम्र में छोड़ कर चली जाती है, क्योंकि वह जानती है कि वह भी अपने पिता की तरह बनेगा।
’’यह उपन्यास प्रिया नामक एक ऐसी नारी का आख्यान है, जो निरंतर शोषित है-समाज की जर्जर मान्यताओं से भी और पुरुष की आदिम भूख से भी, टूट जाने की हद तक, लेकिन वह टूटती नहीं बल्कि शोषक शक्तियों के लिए चुनौती बनकर एक नई राह पर चल पड़ती है, और यहाँ से आरंभ होती है उसकी बाहरी और आंतरिक यात्राएँ संघर्षों का एक अटूट सिलसिला, बीच-बीच में वह शिथिलता अनुभव जरूर करती है, लेकिन उसके सामने एक लक्ष्य है-समाज की जिन बर्बर मर्यादाओं शक्तियों के सामने एक दिन वह मेमने की तरह मिमियाती रही थी, वे देखें कि नारी सदा ऐसी ही निरीह नहीं रहेगी। और सचमुच, प्रिया उभरती है अपनी निरीहता से। अपनी खोई अस्मिता को पुनः प्राप्त करके वह एक सबल नारी के रूप में उपस्थित होती है। संक्षेप में कहंे, तो प्रिया के माध्यम से लेखिका ने नारी-स्वातंत्र्य की भावना का वास्तविक रूप उद्घाटित किया है।’’1
हमारी जीवन शैली और रोज-रोज की गतिविधियों में निरंतर इस बात की टेªनिंग दी जाती है कि वह एक लड़की है, उसका उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना-फिरना, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना, प्रतिक्रिया व्यक्त करना, निर्णय करना, सोचना-विचारना, आस-पड़ोस में आना-जाना, बाहर के लोगों के सम्पर्क आना या न आना, घर से बाहर कब निकलना कब नहीं निकलना, स्कूल और मोहल्ले में दोस्त बनाना आदि सब कुछ नियंत्रित और अनुकूलित किया जाता है। इन आम और रोजमर्रा की गतिविधियों को भी परिवार के बुजुर्ग सदस्य अपने अनुसार निर्धारित करते हैं और लड़की को उनके नक्षे कदम पर ही चलना होता है। उसी घर में लड़के के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। इस अन्तर को वह लड़की धीरे-धीरे महसूस करती है और स्वयं को नियंत्रण में रहने के अनुकूल ढालती चलती है। सामान्यतया ऐसा होता है, परन्तु सभी लड़कियाँ इस भूमिका को यथावत स्वीकार नहीं करतीं। वे इस भूमिका और नियंत्रण के खिलाफ या तो तत्काल विरोध करती हैं, या अपने अंदर विद्रोह को पालती रहती हैं और अवसर आने पर अपनी प्रतिक्रिया और विद्रोह को क्रियान्वित करती हैं।
यह नियंत्रण और पूर्वनिर्धारित भूमिका विवाह के बाद पुनः बदल जाती है। अब उसे एक नए घर में नए नियंत्रणों और नई पूर्वनिर्धारित भूमिका को निभाने के लिए तैयार होना होता है। यहाँ उसे अपनी वह आजादी भी छिन जाने का अहसास होता है, जो थोड़ी बहुत अपने मायके में उसे मिली हुई थी। इस कठोर नियंत्रण के चक्रव्यूह में स्त्री अपने को कैसे जिंदा रखपाती है, यह उसके धैर्य और साहस और अन्नत ऊर्जा का परिणाम ही है।
छिन्नमस्ता की ‘प्रिया’ एक ऐसी ही नायिका है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा प्रदत्त और परिवार द्वारा अनुकूलित भूमिका की सीमाओं को तोड़कर, नकारकर, परिवार और समाज तथा व्यवस्था से बाहर अपनी पहचान बनाती है। अपना अस्तित्व, अपने होने को प्रतिष्ठिापित करती है बिना किसी ‘मर्दत्व’ के सहयोग के।
‘‘आखिर तक नरेन्द्र ने मेरे साथ सही साझा नहीं किया। उसने समाज में मुझे जलील किया, लेकिन नरेन्द्र का समाज बड़ा छोटा है। वह सिफ दो-ढाई सौ पैसेवाले घरानों का समाज है, और मानव समाज इससे बहुत बड़ा है, और जब से मेरे कदम इस बृहत्तर समाज की ओर उठे, मैं रुक कहाँ पाई? मैं जितना ही अपने काम में सफल हो रही थी, उतना ही नरेन्द्र से किए जानेवाले रोज रोज के टुच्चे समझौते मुझे खलते थे। मेरे व्यापार की एक दुनिया थी, जहाँ काम करके मेरा आत्मविष्वास बढ़ता था। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह व्यापार में दस संभावनाओं के बीच चुनाव करती थी। अपने चुनाव पर डटे रहना भी मेरे लिए कठिन नहीं होता है।’’2
वह शोषित है, प्रताड़ित है अपनी माँ के द्वारा भी और बड़े भाई के द्वारा भी। कॉलेज में प्रोफेसर के द्वारा भी और अंत में अपने पति नरेन्द्र के द्वारा भी। उसका संपर्क पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष से जहाँ कहीं भी होता है, वहीं वह उसके द्वारा शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में उत्पीड़ित होती है और अन्त में अपने पुत्र के द्वारा भी जो कि उसे भुला ही देता है और पिता की भूमिका को आगे बढ़ाता है।
‘छिन्नमस्ता’ में ‘निरंतर शोषित’ प्रिया ‘अर्थ और सेक्स’ यानी दोनों ही मोर्चाें पर कुचले जाने के विरुद्ध या/और कुचले जाने से बचने के लिए शोषक शक्तियों के लिए चुनौती बनकर नई राह (?) पर चल पड़ती है यहाँ प्रिया भी आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के लिए संघर्ष करती हुई स्त्री है, जिसके सामने है संघर्षों का एक अटूट सिलसिला।’’3 प्रिया एक ऐसी स्त्री चरित्र है जो इंकार का साहस रखती है, अपने प्रति होने वाले शोषण और उत्पीड़न का विरोध करती है। पति से अलग होने की हिम्मत और आर्थिक रूप सुदृढ़ स्थिति में अपने खड़ा करने का विकल्प चुनती है। उसमें परिस्थितियों का सामना करने की हिम्मत और विवेक दोनों हैं। वह हार कर पलायन का रास्ता नहीं अपनाती, बल्कि नरेन्द्र को इस बात का अहसास कराती है कि वह अपने बल पर जिंदा रह सकती है। वह पितृसत्ता द्वारा दी गई भूमिकाओं से इंकार करती है। वह कहती है ‘‘नहीं, मुझे अम्मा की तरह नहीं होना, कभी नहीं। भाभी की घुटन भरी जिन्दगी की नियति मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। मैं अपने जीवन को आँसुओं में नहीं बहा सकती। क्या एक बूँद आँसू में ही स्त्री का सारा ब्रह्मांड समा जाए? क्यों? किसलिए? रोना और केवल रोना, आँसुओं का समन्दर, आँसुओं का दरिया और तैरते रहो तुम। अम्मा, जीजी, भाभीजी, ताई, चाचियाँ, यहाँ तक कि मेरी षिक्षिकाएँ भी, जिनकी ओर मैंने बड़ी ललक से देखा, जिनको मैंने क्रान्तिचेता पाया था, वे भी तो उसी समन्दर को अपने-अपने आँसुओं से भरती चली जा रही थीं। क्यों नहीं लड़कियाँ वैसे ही खिलखिला कर हँसतीं, मदमस्त, जैसे कॉलेज में लड़के हँसते हैं?’’4 ‘‘साधन-संपन्न उच्चवर्गीय संयुक्त परिवारों में बेटी से बहू तक, प्रायः हर स्त्री तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के बावजूद अनाथ और असहाय-सी व्यवस्था के सम्मोहन में सुरक्षा खोजती हुई व्यवस्था का एक हिस्सा बनने की पूरी चेष्टा में ही जिंदगी बिता देती है, लेकिन ‘छिन्नमस्ता’ की नायिका अंततः कहती है, ‘‘नरेंद्र की व्यवस्था के सामने हार मानने का अर्थ यह नहीं हुआ कि तुम सारे मुकामों पर हार गई। उसे वहीं छोड़ दो, वहाँ वह है। तुम खुद अपनी व्यवस्था बन सकती हो, अपनी जमीन।’’ इस यात्रा में लेखिका ने ‘‘नारी-स्वातंत्र्य की भावना का वास्तविक रूप उद्घाटित’’ करने के लिए ‘स्थिति और समस्या’ का ‘चिंतन मनन और बौद्धिक विश्लेषण’ की किया है। दर्शनशास्त्र से समाजशास्त्र तक सभी प्रमुख किताबी विचारों के बावजूद प्रिया की ‘जिंदगी विरोधाभासों का बंडल’ ही बनी रही है, खोई हुई अस्मिता को पुनः प्राप्त करने के संघर्ष में प्रिया के सामने जो मॉडल है, वह उसे लगातार वही बनाता है, जिसके खिलाफ उसकी सारी ‘लड़ाई’, ‘विद्रोह’ या ‘क्रांति’ है- यानी वह स्वभाव से मर्द बनती जाती है, अंततः अकेली और मृत्यु-इच्छा के विषाद से घिरी हुई, अपनी व्यवस्था और जमीन होने का भ्रम लिये हुए।’’5
नहीं चाहिए उसे पुरुष की सुरक्षा और परिवार का संरक्षण, नहीं चाहिए उसे पुत्र का सुख और परिवार की सुविधा। वह घर और परिवार के सुरक्षा के आतंक के घेरे को तोड़कर देष विदेष की यात्रा करती है और अपनी पहचान को स्थापित करती है। वह पुरुष के संदर्भ में और उसके द्वारा दिए गए स्वरूप से बाहर स्त्री का अपना अलग स्वरूप और संदर्भ खड़ा करती है।
‘‘कि मेरे स्व का घेरा वृहद् से वृहत्तर की ओर अग्रसर हो रहा है। नहीं, मैं दुनिया में असुरक्षित नहीं। मेरे पास मेरा व्यवसाय है।’’6 प्रिया की खासियत यह है जो अन्य उपन्यासों के स्त्री चरित्रों से उसे अलग करती है, वह यह कि वह नरेन्द्र से अलग होकर अपनी यौनिकता को नियंत्रित रखती है। वह किसी अन्य पुरुष का दामन नहीं थामती। उसके किसी अन्य पुरुष से सैक्सुअल संबंध नहीं हैं। यद्यपि वह अपने स्त्री होने के अहसास को खोती नहीं है। वह पुरुषत्व के गुण भी नहीं अपनाती। यह जो आत्मनियंण वह अपनाती है, यह उसे एक नए संदर्भ में देखने परखने के लिए विवष कर देते है। फिलिप से उसके मित्रता के संबंध हैं, उससे मिलकर, बातें करके वह अपने अन्दर पूर्णता का अहसास करती है। यह मिलना कुछ-कुछ कठगुलाब के रिचर्ड और मनु के संबंधों की याद दिला देता है, यद्यपि उनके बीच शारीरिक संबंध भी थे, परन्तु वे इतने उदात्त रूप में हैं कि वहाँ शारीरिकता गौण हो जाती है, और एक दूसरे का होना मात्र शेष रह जाता है। ठीक इसी बिन्दु पर प्रिया और फिलिप के रिष्ते खड़े हैं। फिलिप पुरुष है, परन्तु पितृसत्ता का प्रतिनिधि नहीं है। वह एक मनुष्य है और प्रिया को भी एक मानवीय इकाई के रूप में ही स्वीकारता है। यह यह अस्तित्व युक्त मित्रता का संबंध है यही वह बिन्दु जहाँ से स्त्री विमर्ष अपनी सफलता की लड़ाई जीतने का प्रयास कर सकता है।
फिलिप और प्रिया के संबंधों की पड़ताल होनी चाहिए और उनके बीच के मानवीय संबंध को रेखांकित किया जाना चाहिए। स्त्री विमर्ष स्त्री और पुरुष के बीच के इसी संबंध को कायम करना चाहता है। फिलिप की नजरिया न केवल प्रिया के प्रति बल्कि उसकी पत्नी जूडिथ के प्रति भी वैसा ही है। उसमें पितृसत्तात्मकता की बू कहीं भी आती नहीं दिखाई देती। इस संदर्भ में रोहिणी अग्रवाल का यह कथन सटीक बैठता है -
‘‘चूँकि नारीवाद अपने मूल रूप में लैंगिक लड़ाई को बढ़ावा देने के बजाय सह-अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना है अतः प्रत्येक संवेदनषील-विवेकषील स्त्री एवं पुरुष स्त्री-सषक्तीकरण का अनिवार्य एवं वांछित संवाहक बन जाता है।’’7 प्रिया और फिलिप का संबंध इसी सह-अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना को साकार रूप देने का प्रयास माना जाना चाहिए। ऐसा ही एक अलग प्रयास कठगुलाब की नीरजा और विपिन के बीच बनने वाले नए संबंध की परिकल्पना में मृदुला जी ने की थी।
पितृसत्ता द्वारा शोषित और प्रताड़ित - ‘‘बचपन में बड़े भाई द्वारा यौन-शोषण के बारे में चुप्पी और किसी से न कहने की सौगंध के साथ प्रिया को लगता है ‘यह मेरा कलंक है’। शील, कुँआरापन और पवित्रता के मिथकीय संस्कारों की शिकार प्रिया गहरे अपराध-बोध के कारण ही आत्महत्या की कोशिश करती है। इस दुर्घटना का ही प्रभाव है कि प्रिया ने ‘‘मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि मुझे लड़की ही बने रहना है, औरत नहीं बनना’’, लेकिन बार-बार सोचती है कि ‘‘क्या था मेरी आँखों में कि हमेशा पुरुषों की गिद्ध-दृष्टि मुझ पर पड़ती।’’ एक क्षण वह कहती है, ‘‘भीतर रोती हुई इस वर्ष की लड़की को एक दिन मैंने जिंदा दफना दिया था। नहीं मैं औरत नहीं होना चाहती’’, लेकिन अगले ही क्षण सोचती-विचारती है,ं ‘‘सदियों की इस अमानवीय परंपरा को किस बीमारी का नाम दूँ, जहाँ मेरी-जैसी विद्रोही लड़कियाँ भी समर्पित पत्नी और माँ बन जाने को विवश हो जाती है’’। बड़े भाई द्वारा बचपन में यौन-शोषण की दहशत भरी स्मृतियाँ ‘अँधेरी सुरंगों में दिन-रात दर्द का बोझ लिये दौड़ती रही हैं’ और प्रिया को हमेशा यह यहसास बना रहता है, ‘‘मैं ने फूल बनी, न नागफनी का काँटा। कुछ नहीं, बस एक सुलगता हुआ अंगारा या फिर एक धुआँ उगलती हुई आँसुओं से तर गीली लकड़ी।’’8
प्रिया के रूप में एक ऐसा स्त्री चरित्र हमारे सामने आता है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतिपक्ष रचता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की संरचना -सत्ता और वर्चस्व - की राजनीति पर आधारित होती है और उसके मूल में है आर्थिक स्रोतों पर पुरुष का वर्चस्व। छिन्नमस्ता की दो अन्य स्त्री चरित्र - प्रिया की माँ और सास, दूसरी सास पितृसत्ता के इसी आर्थिक रूप के द्वारा शासित हैं। प्रिया की सास अपने लड़के नरेन्द्र की अनाधिकार और नाजायज चेष्टाओं को सहन करती रहती है। उधर उसकी माँ प्रिया के भाई की नाजायज हरकतों पर परदा डालती रहती है। प्रिया ने इन दोनों ही घरों में पैसे की ताकत को पुरुष का हथियार बनते देखा था और महसूस किया था कि उत्पादन के स्रोत और आथर््िाक संसाधनों पर जिसका अधिकार होगा, घर, परिवार, समाज और देष में उसकी पहचान, वर्चस्व कायम रहता है।
अपनी ससुराल में उसे घर से बाहर निकलने के लिए और अपनी पहचान कायम करने के लिए, एक अवसर मिलता है और वह उस अवसर का फायदा अपने अस्तित्व को बनाये रखने में करती है। अपना व्यवसाय प्रारंभ करके। यहाँ देखने लायक बात यह है कि पुरुष के लिए पैसा वर्चस्व की सत्ता कायम करने का हथियार होता है, वह इसके आधार पर परिवार के अन्य सदस्यों पर अपनी दादागिरी चलाता है और अपनी जायज नाजायज कार्यों को बेखौफ करता है, परन्तु एक स्त्री के लिए पैसा उसकी पहचान होती है, उसकी आत्मिक संतुष्टी और अपने होने की सार्थकता को महसूस करती है। प्रिया सफल उद्योगपति बन कर भी अपने अहं को तुष्ट नहीं करती, न किसी पर षासन चलाती और किसी के अधिकारों का अतिक्रमण करती, वह उसके अपनी भावी पीढ़ी अपनी ननद को सौपने के लिए मानसिक रूप से तैयार होती है।
वह कहती है ‘‘नरेन्द्र, मैं व्यवसाय रुपए के लिए नहीं कर रही। हाँ चार साल पहले जब मैंने पहले-पहल काम शुरु किया था, मुझे रुपयों की भी जरूरत थी। पर आज मेरा व्यवसाय मेरी आइडेंटिटी है। यह आये दिन की मेरी विदेषों की उड़ान...यी मेरी जिन्दगी के कैनवास को बड़ा करती है। नित्य नए लोगों से मिलना - जुलना, जीवन के कार्य जगत को समझना। मुझे जिन्दगी उद्देष्यहीन नहीं लगती।’’9 स्त्री की इस पहचान और बढ़ते कैनवास को देखकर पितृसत्ता हमेषा से आतंकित होती आई है और अपने डर को स्त्री पर लांछन लगा कर नीचा दिखाना और उसे कमजोर करने का कार्य करती है। नरेन्द्र भी यही कहता है ‘‘तुम यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम्हें अकेले मौज करने की आदत पड़ गई है।’’10
पितृसत्ता के लिए स्त्री का काम करना दूसरे दर्जे का काम है, पत्नी होना, माँ होना, बहू होना प्राथमिक कार्य है। इसी तर्क से स्त्री दोहरे-तिहरे शोषण का षिकार बनाई जाती है। नरेन्द्र भी यही कहता है - ‘‘काम करो पर यह मत भूलो कि तुम विवाहिता हो, एक बच्चे की माँ हो, अग्रवाल हाउस की बहू हो।’’11
पितृसत्ता स्त्री की अलग पहचान नहीं बनने देने चाहती है। इसीलिए वह निरंतर उसे परंपरागत भूमिकाओं में घकेलते रहने का प्रयास करती है। जो स्त्री काम को अपनी पहचान बनाने का प्रयास करतीं हैं उनके पर इसी तरह कतर दिए जाते हैं। आज की सबसे बड़ी बिडंबना यही है कि घर बाहर काम करने वालों मेें स्त्री की संख्या तो बड़ी है, परन्तु वे उस काम को अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं बना पायीं हैं। काम उनके लिए पति की आय में थोड़ी सी वृद्धि करने तक ही सीमित होती है। आज मेरा अपना अनुभव यह जानता है कि मेरे आस-पास काम करने वाली सैकड़ों स्त्रियाँ जो अच्छे पदों पर हैं, वे भी अपनी मर्जी से अपने वेतन को खर्च नहीं कर सकतीं। कई स्त्रियों के साथ यह भी है कि उनका वेतन उन्होंने कभी देखा ही नहीं। बैंक में जमा होने वाला वेतन पति अपनी मर्जी से निकलता है, खर्च करता है और अपना षासन उसी तरह चलाता है जिस तर घरेलू स्त्री का पति। बहुत सी ऊँची तनख्वाह पाने वाली स्त्रियों ने तो कभी बैंक का मूँह भी नहीं देखा। अगर उनको अकेले बैंक भेज दिया जाये तो वे बैंक से पैसा भी नहीं निकाल सकतीं। तो इस स्थिति में वे घर के काम के साथ पैसे कमाने की मषीन और बन जाती हैं। यह स्थिति है आज के समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की।
प्रिया इस स्थिति को स्वीकार करने से इंकार कर देती है। वह पितृसत्ता की किसी भी व्यवस्था में फिट होने से स्वयं को अनुकूलित होने से बचा लेती है। यही उसका शांत विद्रोह है, एक मूक क्रांति है जो धीरे से उपन्यास में घटित हो जाती है। इसकी प्रतिक्रिया में नरेन्द्र आहत होता है, विचलित होता है, इसलिए नहीं की प्रिया उसकी पत्नी उससे अलग हो गई बिना तलाक दिए, बल्कि इसलिए कि वह पति होकर, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का संचालक होकर एक स्त्री को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका और इस रूप में वह असफल हो गया। इसी कारण उसके पुरुषत्व को चोट लगती है और वह एकदम अमानवीय स्तर पर उतर आता है। उसकी प्रतिक्रिया में कहे गऐ वाक्य पुरुषत्व के अंह को लगी चोट की प्रतिक्रिया ही अभिव्यक्त करते हैं।
उसका कहना है ‘‘दरअसल तुम्हें इतनी खुली छूट देने की गलती मेरी ही थी। मुझे पहले ही चिड़िया के पंख काट डालने चाहिए थे। पर मैं तुम्हारी बातों में आ गया। तुम्हारे इस भोले चेहरे के पीछे एक मक्कार औरत का चेहरा है।’’12 जब नरेन्द्र उससे प्यार और वफादारी, ईमानदारी, समर्पण की बात करता है तो प्रिया का जबाव पितृसत्ता की भाषा के चक्रव्यूह को विखेर कर रख देता है। ‘‘कुछ नहीं। सच कहूँ नरेन्द्र, ये शब्द भ्रम हैं। औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि वह इन शब्दों के चक्रव्यूह से कभी नहीं निकल पाए ताकि युगों से चली आती आहुति की परंपरा को कायम रखे।’’13 पुरुष का अहं जब चोट खाता है तो वह बौखला जाता है। नरेन्द्र में इस बौखलाहट को देखा जा सकता है। ‘‘हाँ, यह घर मेरा है, और सुनो, संजू भी मेरा है। कानून की नजर में बेटे की कस्टडी बाप को मिलती है।’’..... यह मत भूलो प्रिया कि मैं पुरुष हूँ, इस घर का कर्ता। यहाँ मेरी मर्जी चलेगी; हाँ सिर्फ मेरी।’’14
पितृसत्ता कभी यह सहन नहीं कर सकती है कि उसकी पत्नी उससे अधिक कमाये और उसकी जगह वह घर पर अपना वर्चस्व कायम कर ले। प्रिया एक नया रास्ता चुनती है। वह घर की सुरक्षा और पति के संरक्षण को ठोकर मार देती है। उसमें इंकार करने का साहस है। वह पितृसत्ता के समक्ष अपने का कमजोर नहीं करती। स्वयं को स्थापित करती है, एक व्यक्ति के रूप में, एक व्यवसायी के रूप में, एक मित्र के रूप में, एक भाभी (नीना की) के रूप में। वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उन सारे रूपों को नकार देती है जो उसे जन्म से घुट्टी की तरह पिलाये जा रहे थे।
प्रिया कई अवसरों पर स्वतंत्र निर्णय लेती है। वह बिना पति की इजाजत के अपनी दूसरी सास और ननद से मिलने जाती है। संजू को भी ले जाती है। पति के मना करने पर भी उनसे मिलना नहीं छोड़ती। नीना जो उसकी ननद है, उसे भावी पीढ़ी के रूप में देखती है और उसे स्वयं के बारे में निर्णय करने के लिए स्वतंत्र छोड़ती है। पति से अलग रहने का फैसला बहुत मायने रखता है। स्वतंत्र रूप से व्यवसाय करने का निर्णय भी उसका अपना है। वह सुरक्षा और मोह के मायाजाल को तोड़ने का निर्णय भी करती है।
एक स्त्री को संस्कार के रूप में स्त्री की पराधीनता की बेड़ियाँ मिलती हैं, अधिकांष स्त्रियाँ इन्हीं बेड़ियों को अपना स्वभाव बना लेती हैं। इसे ही स्त्री की नियति भी मान लिया जाता है। प्रिया अपने बचपन के शोषण में ही इस द्वंद्व को झेलती है- ‘’क्यों? मैं क्यों इतनी दब्बू? इतनी कायर? क्या दाई माँ के कारण भय का संस्कार पनपा? या अम्मा की उपेक्षा में या फिर हमारे समाज की हजारों-लाखों स्त्रियों के साथ ऐसा ही घटता रहा है? पर हर औरत मूँह खोलने से घबड़ाती है। क्या सबको एक ही निर्देष मिला है अपनी माँ से? अपनी बहन से? मत बोलना, बिटिया! कभी नहीं। क्या घुटती हुई हर माँ ने औरत के जनम को ही नहीं कोसा? क्यों? नहीं, मैं औरत होना नहीं चाहती। मैं कभी किसी से प्रेम नहीं करूँगी। कभी शादी नहीं। सेक्स से घृणा है मुझे, बेहद घृणा। मैं एक ठंडी औरत हूँ, ठंड़ी रहूँगी। पुरुष से बदला लेने का मुझे एक यही तरीका समझ आया।’’15 पुरुष के लिए स्त्री चाहे पत्नी रूप में हो या बहन या दोस्त, एक सेक्स की चीज ही होती है। नरेन्द्र प्रिया से कहता है ‘‘प्रिया, नहीं, तुम मेरी चीज हो....लोग इतनी अच्छी चीज को देखकर लार टपकाएँ, इसके पहले मुझे स्वाद चखने दो।’’16
पुरुष की यह सोच स्त्री के लिए उस क्षण के सुख को नफरत में बदल देती है। प्रिया के साथ भी यही होता है। बचपन में भाई की कामुकता, कॉलेज में प्रोफेसर का दिया हुआ घोखा और अब पति की बहषी भूख ने उसकी ‘देहिकता’ की आवष्कता और उससे मिलने वाले मानसिक सकून को घृणा और नफरत में बदल दिया।
नरेन्द्र के लिए प्रिया की इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती। न ही सेक्स के मामले में और न अन्य स्थलों पर, वे चाहे हॉटल में खाने का आर्डर देना हो या कोई सामान खरीदना हो।
‘‘नरेन्द्र ने मेरे अतीत के बारे में जानने की कोई चेष्टा ही नहीं की, ना ही मेरी पसन्द-नापसन्द के बारे में उसने कुछ पूछा। वह खाने का आर्डर भी अपनी मर्जी से दे दिया करता और खाते-खाते जब पेट भर जाता तो अचानक पानी पीकर उठ जाता। यह भी नहीं देखता कि मैं अभी तक पहली रोटी ही नहीं निगल पाई हूँ।’’17 प्रिया स्त्री की रूढ़ छवि के किसी भी रूप में अपने को फिट महसूस नहीं करती। उसे गहने पसंद नहीं है, जो स्त्री समाज के लिए स्टेट्स का प्रतीक बना दिए गए हैं। वह अपनी सास से कहती है ‘‘मम्मी मुझे गहने नहीं सुहाते.....और यह साड़ी तो अच्छी ही है, मम्मी।’’18 घर की तरह स्त्री का सजना भी उसे नहीं भाता था। ‘‘पार्टी में न केवल घर और मेज ही सजाना पड़ता, बल्कि खुद को भी।’’19
इस बात पर उसकी प्रतिक्रिया थी कि उसकी इन सब में रुचि कम होती जा रही थी और वह बात-बात पर झल्ला पड़ती। दाई नौकरों पर बरस पड़ती। उसकी जिन्दगी में पैसे से आयातित मँहगी वस्तुओं के खिलाफ विद्रोह पनपने लगा था। इस सबके बीच जो संबंधों की मिठास और जीवन की महक होती है वह इस दो ढाई पैसे वाले मारवड़ियों के बीच नहीं थी। एक रसता, ऊब और वातावरण में व्याप्त नंगेपन की घुटन से उसका जी विद्रोह कर उठता था। वह भिन्न प्रकार की वस्तुओं के बीच सजी संवरी माँसल जिस्म बन कर रहने से इंकार करती है और अपने होने का वस्तु में तब्दील नहीं होने देना चाहती। इस सबसे घबराकर ही उसने अपना व्यापार प्रारंभ किया और अलग इंसानियत के रिष्ते बनाए।
प्रिया कभी हार न मानने का संकल्प करती है और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। वह कीमत चुकाती है, अकेलापन चुनती है, पति और बेटे का साथ और सुरक्षा की कीमत चुकाती है। ‘‘नहीं, मैं हार नहीं मानूँगी, और बड़ी कीमत दूँगी.... और बड़ी आहूति। देखूँ कैसे कोई मेरी उपेक्षा करता है? मैं जरूरी हूँ। इस समाज का, अपने परिवार का बहुत जरूरी खम्भा हूँ, नींव का पत्थर हूँ। मेरे बिना सब कुछ ढह जायेगा।’’20
नीना - छिन्नमस्ता की दूसरी स्त्री चरित्र है जो स्त्री विमर्ष की आधुनिक कड़ी को रेखांकित करती है और स्वयं को पितृसत्ता के दलदल में फँसने ही नहीं देती। नीना नरेन्द्र की सौतेली बहन है। नरेन्द्र के पिता की रखैल या प्रेमिका की बेटी। यह एक अलग किस्म का चरित्र है। इसकी सामाजिक स्थिति द्वंद्वपूर्ण है क्योकि बिन ब्याही माँ की बेटी को समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। पितृसत्ता के इस षड्यंत्र और पिता की दयनीय विवषता को वह अपनी मजबूरी और विवषता नहीं बनने देती। वह पितृसत्ता के हर तरह के जाल को छिन्न-भिन्न करती है और अपनी अलग स्वंतत्र पहचान कायम करती है। इसी तरह का एक चरित्र दिलो दानिष की महकबानो की पुत्री का भी है। नीना से जब प्रिया पहली बार मिली तो वह उन्नीस वर्ष की थी।
‘‘नीना को देखकर मैं निहाल हो गई थी। उन्नीस बर्ष की वह लम्बी छरहरी नवयौवना, घने काले बाल, बड़ी-बड़ी आँखे और होंठ तथा चिबुक पापा की तरह निखर आई है।’’21
नीना एक आधुनिक विचारों वाली आत्मविष्वासी स्त्री है। उसके विचार और निर्णय उसके स्वयं के हैं। वह अपने बारे में स्वयं निर्णय लेती है और उन पर चलती है। अपने विवाह के संबंध में उसका कहना है कि ‘‘देखो भाभी, पापा चाहते हैं कि मेरी शादी हो जाए लेकिन मैं नहीं करूँगी। मैं पहले अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी।’’22
यह जो उसका आत्मविष्वास है, वह उसे एक नई स्त्री के प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। वह अपने अपमान, उपेक्षा और पीड़ा को भी अपने अंदर सहेज कर रखती है, उसे अपनी प्रेरणा और ताकत के रूप में इस्तेमाल करती है। उसका यह कहना ‘‘नहीं, जिन्दा रहने और अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपमान और बंचना को भी याद रखें। मुझे आप ये सब ‘चुप-चुप रहो’ वाली बातें न सिखलाएँ तो!’’23
‘‘यदि दुखी हूँ तो सुख को भी अर्जित करूँगी। अपने पैरों पर खड़ी स्त्री का कोई निरादर नहीं कर सकता। भाभी! पापा का यों महीने का महीने रुपया देना? मुझे नफरत होती है उनसे। सच कहती हूँ भाभी, ऐसे बुजदिल इंसान से मुझे सख्त नफरत है।’’24 प्रिया को उसकी दाई माँ ने हमेषा चुप रहने का पाठ पढ़ाया था, वह उस समय चुप भी रही और अपने प्रति होने वाले अन्याय और उत्पीड़न को सहती रही, परन्तु आज की नई स्त्री की प्रतिमूर्ति नीना यह चुप रहने वाला पाठ नहीं सीख सकती। उसे स्वयं पर विष्वास है, संघर्ष करने की क्षमता है और सुख पाने का संकल्प और साहस भी। ‘‘सुख नहीं है तो उसे अर्जित करके दिखा दूँगी।’’25
नीना अंत में अपने प्रेमी से विवाह करती है और अपने निर्णयानुसार जीवन यापन करती है।
जूडी - छिन्नमस्ता की एक और स्त्री चरित्र है जूड़ी जो कि फिलिप की पत्नी है और प्रिया की दोस्त। जूड़ी एक सुलझे हुए विचारों वाली संतुलित स्त्री है। जिसका जीवन और संबंधों का आधार एक दम स्पष्ट है। खुले विचारों की है और फिलिप के साथ पति-पत्नी के रिष्तों के साथ-साथ दोस्ती के रिष्ते में भी बंधी है। पूर्व और पष्चिम के बीच स्त्रियों को लेकर जो भ्रम है, वह उसकी सच्चाई और वास्तविकता को जानती है और प्रिया के समक्ष स्पष्ट भी करती है।
‘‘नहीं, सारी भूमिकाओं से परे एक हमदर्द औरत हूँ। औरत के दर्द को समझती हूँ। प्रिया, क्या केवल तुम्हीं ने नहीं सहा है? एक तुम ही नहीं जो दुख पा रही हो, हर औरत के अपने-अपने दर्द के तहखाने हैं।’’26
स्त्री विमर्ष के बीच अक्सर पूर्व और पष्चिम के परिवेष और भिन्न विचारधाराओं का आरोप लगाया जाता है। भारतीय स्त्री विमर्ष में देहवाद और यौन स्वच्छन्दता के लक्षणों को पष्चिम का असर और प्रभाव बताया जाता है। जूडी एक ऐसी स्त्री चरित्र है जो यह बताता है कि ‘औरत’ हर जगह औरत है और उसे औरत होने के नाते लगभग एक से दुखों को भोगना पड़ता है।
‘‘जिन्दगी जीने के लिए अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। यदि औरत व्यवस्था के बाहर कदम बढ़ाती है तो उसे ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पडे़गी। मैं जानती हूँ कि पष्चिम की हम स्त्रियों पर तुम लोग हँसते हो, तुम्हें लगता होगा कि हम स्वच्छन्द हैं, घरफोडू हैं, हर किसी के साथ पलँग पर साझा करने को तैयार रहती हैं।’’27
जूड़ी प्रिया से कहती है कि तुमने जितनी पीड़ा सही और संघर्ष किया है उससे तुम्हारे अनुभवों का संसार व्यापक हुआ और दुनिया के बारे में संबंधों के बारे में भ्रम टूटे हैं। ‘‘तुमने जितनी भी पीड़ा झेली पर तुम्हारी चेतना का विकास ही हुआ है, तुम्हारे भ्रम टूटे हैं, सीमाओं से बाहर आकर तुमने पारस्परिकता का संबंध स्थापित किया है। पर नरेन्द्र की पीड़ा देखो, उसकी चेतना तो मालिकाना अहम में ठस होती जा रही है। धन और सत्ता का मद उसे कितना अहंकारी और पागल बनाए रखता है। वह सोचता है कि पैसे से वह सब कुछ हासिल कर सकता है। पर जरा सोच कर देखो, उसने क्या हासिल किया? किसको उससे सहानुभूति है? कौन उससे प्रेम करता है? उसकी मुट्ठियों में बन्द संजू क्या खुली हवा में सांस लेने के लिए नहीं छटपटा रहा? और नरेन्द्र ने संजू को कौन से मूल्य दिए?’’28
छिन्नमस्ता के अन्य स्त्री चरित्र - इन स्त्री चरित्रों के अतिरिक्त कम से कम चार और स्त्री चरित्र हैं जो उल्लेखनीय हैं। इनमें प्रिया की माँ, दाई माँ, सास और सौतेली सास। दो माँ मायके में दो सास ससुराल में। दोनों ही स्थानों पर दूसरी माँ से प्रिया को प्रेम और स्नेह मिलता है। प्रिया की माँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चलाने के लिए कटिबद्ध है। प्रिया उसके लिए फालतू ही आ गई इसलिए वे उसकी उपेक्षा और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं। प्रिया का बड़ा भाई जो उसके साथ यौन संसर्ग बनाता है। उसकी माँ और दाई माँ उसके पुरुष होने के नाते उसके इस कूकृत्य पर परदा डालती हैं। इधर सास भी अपने लड़के के पुरुषत्व और आर्थिक स्रोतों पर वर्चस्व के कारण उसकी नाजायज हरकतों को सहन करती रहती हैं। और अपने खालीपन को जेवरों, साड़ियों और इसी तरह की वस्तुओं से भरने की कोषिष करती हैं।
संदर्भ ग्रंथसूची
1. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, प्रभा खेतान के उपन्यास ’छिन्नमस्ता’ का फ्लैप नंबर 2
2. छिन्नमस्ता, पृ. 184
3. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 55
4. छिन्नमस्ता, पृ. 98
5. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 55
6. छिन्नमस्ता, पृ. 183
7. आलोचना जुलाई-सितम्बर, 2003, रोहिणी अग्रवाल, पृ. 174
8. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 57
9. छिन्नमस्ता. पृ. 10
10. वही, पृ. 10
11. वही, पृ. 10
12. वही, पृ. 11
13. वही, पृ. 11-12
14. वही, पृ. 12
15. वही, पृ. 103
16. वही, पृ. 115
17. वही, पृ. 115
18. वही, पृ. 116
19. वही, पृ. 115
20. वही, पृ. 172
21. वही, पृ. 124
22. वही, पृ. 124
23. वही, पृ. 125
24. वही, पृ. 125
25. वही, पृ. 130
26. वही, पृ. 161
27. वही, पृ. 161
28. वही, पृ. 163
संपर्क
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डॉ. संजीव कुमार जैन
सहायक प्राध्यापक हिन्दी
शासकीय महाविद्यालय,
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हिन्दी उपन्यास के इतिहास में प्रभा खेतान का नाम चिरस्थायी हो गया है। यद्यपि उनके उपन्यासों का मूल्यांकन अभी होना शेष है। छिन्नमस्ता और पीली आँधी के अलावा उनके अन्य उपन्यासों पर किसी भी नामधारी आलोचक ने कोई खास टिप्पणी नहीं की और न उन लेख लिखे। आज स्थिति यह है कि उनके उपन्यास अप्रकाषत हैं। सामान्यतः पाठक और शोधार्थियों को पढ़ने के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं। इसके पीछे जो कारण है, उसमें हिन्दी साहित्य की खेमेबाजी तो है ही, साथ ही प्रभा जी का आलोचकीय व्यक्तित्व भी है। प्रभा जी ने स्त्री विमर्ष के क्षेत्र में जो वैचारिक लेखन कार्य किया है, वह उनके रचनात्मक लेखन पर छा गया। उनकी विचारधारात्मक पुस्तकें जो उपन्यासों के बाद आयीं - भूमंडलीकरण और ब्रांड संस्कृति, उपनिवेष में स्त्री मुक्ति कामना की दस वार्तायें, बाजार के बीच बाजार के खिलाफ, स्त्री उपेक्षिता (अनुवाद) और स्त्री विमर्ष पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वैचारिक आलेखों ने उनकी छवि उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होने दी।
बावजूद इसके उनका उपन्यास लेखन उनकी स्त्री विमर्ष की ही पहली कड़ी है। उनमें प्रभाजी का अनुभव क्षेत्र, संवेदना और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में घुटती स्त्री की मुक्ति का आख्यान दिखाई देता है। उनका अनुभव क्षेत्र न केवल भारतीय स्त्री तक सीमित है, उसमें अमेरिका, चीन, हांगकांग और कोरिया का परिवेष भी समाहित है। विदेषी परिवेष पर आधारित उपन्यास हैं ‘आओ पे पे घर चलें,’ अग्निसंभवा और एड्स। भारतीय समाज और राजनीति के परिवेष में वे मारवाड़ी समाज की पुरुष प्रधान सामंतीय संयुक्त परिवार व्यवस्था को लक्ष्य बनाती हैं। उनके पीली आंधी और छिन्नमस्ता में मारवाड़ी जीवन के बीच स्त्री की दयनीय स्थिति को स्थान मिला है तो उसी परिवेष के बीच से विद्रोह करती स्त्री भी हमें दिखाई देती है। मारवाड़ी समाज मे हो रहे बदलावों, उनकी जीवटता और संयुक्त परिवार के टूटने की कहानी हमें प्रभा जी के यहाँ प्रमाणिकता से प्राप्त होती है।
एक बंद समाज में स्त्री पुरुष के बीच के संबंधों की कहानी भी है और उनके बीच से टूटते बनते रिष्तों और संबंधों का लेखा जोखा भी है। व्यापार और पैसा ही जिस समाज में महत्वपूर्ण हो वहाँ मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हैं प्रभा जी। उनके उपन्यासों में दमघोटू वातावरण से मुक्ति पाने का संघर्ष करती स्त्री भी है और उसमें ही स्वयं को खपाती स्त्रियाँ भी हैं। यौनषुचिता, सेक्स, समलिंगी प्रवृत्तियाँ, वैवाहेतर देह संबंध, देह संबंधों में विष्वास का टूटना, विवाह नामक संस्था के बिखरते जाने के लक्षण, सामंतीय परिवार के टूटने के स्वर और नए बनते परिवारों का स्वरूप हमें उनके उपन्यासों में मिल जाता है।
इस तरह प्रभा जी के उपन्यास संसार में जीवन की विविधता के साथ-साथ अनुभवों की भी गहराई और बदलते समय और समाज की आहट भी दिखाई देती है।
परंपरागत भारतीय समाज में स्त्री की भूमिका पूर्व निर्धारित है और उसे जन्म के साथ ही यह भूमिका घुट्टी में मिलाकर पिलाई जाती है। घर की चाहरदीवारी में माँ, दादी, बड़ी बहन, भाभी, चाची, बुआ इत्यादि स्त्रियाँ जो पितृसत्ता द्वारा थोपी गई भूमिका और स्वरूप को अंगीकार कर चुकी होती हैं, वे एक लड़की को जो जैविक इकाई के रूप में ठीक उसी तरह जन्म लेती है जैसे लड़का, एक सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से औरत या स्त्री बनाने की कार्यवाही को निरंतर अंजाम देती हैं। इन्हें हमारे समाज में संस्कार देने का काम माना जाता हैं। ‘संस्कार’ देने के नाम पर दरअसल एक जैविक इकाई को जो स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के साथ पैदा होती है, उसे ‘स्त्रीत्व’ की परंपरित और रूढ़ छवि में ढाला जाता है।
प्रभा खेतान के उपन्यासों में स्त्री चरित्रों की विविधता है। उनके उपन्यास - आओ पेपे घर चलें, तालाबंदी, छिन्नमस्ता, पीली आंधी, अपने-अपने चेहरे, अग्निसंभवा, स्त्री पक्ष और एड्स। इन आठ उपन्यासों में स्त्री जीवन का विविधरंगी चित्र हमें देखने को मिलते हैं। ‘आओ पेपे घर चलें’ की आइलिन, मिसेज डी. हेल्गा, केथरीन, एडिना, लारा, क्लारा ब्राउन, मरील; ‘तालाबंदी’ की पुष्पा; ‘छिन्नमस्ता’ की प्रिया, नीना, कस्तूरी, सरोज, जूड़ी, श्रीमती अग्रवाल, दाई माँ, तिलोत्तमा; ‘पीली आँधी’ की सोमा, सरोज चंद्रा, संगीता, बड़ी भाभी, चित्रा, लता, रेखा, राधा, पद्यावती, मोहन की पत्नी, निमली बाई, ताईजी; अपने अपने चेहरे की रमा, रीतू, श्रीमती गोयनका; ‘अग्निसंभवा’ की आई. वी., लियेना, ‘स्त्री पक्ष’ की वृंदा, रीया, सुनीता इत्यादि के अलावा भी जीवन के विविध प्रसंगों में आये अनेक स्त्री चरित्र हैं। पीली आँधी में बहुत से स्त्री चरित्र हैं, जो उपन्यास की कथा को विस्तार भी देते हैं और उसकी व्यापक जीवन दृष्टि को प्रमाणित भी बनाते हैं। परिवेष और प्रसंग के अनुकूल स्त्री चरित्रों का सृजन प्रभा जी की विषेषता है।
प्रभा जी का नारी के प्रति जो दृष्टिकोण है, वह उसकी परंपरागत छवि के साथ, समाज के व्यापक संदर्भ में उसकी नई छवि और भूमिका का निर्माण करना है। वे अपने वैचारिक क्षेत्र में स्त्री की स्वतंत्रता और उसकी मुक्ति की व्यापक पक्षधर रहीं हैं। उनके उपन्यासों में स्त्री चरित्रों की खास प्रवृत्ति है विवाह नामक संस्था को मृत संस्था सिद्ध करना है। उनका मानना है कि परिवार और विवाह का पितृसत्तात्मक ढांचा स्त्री के जीवन को जकड़ कर रख देता है। उसके विचारों और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को सामने लाने का अवसर नहीं देता। उसकी इच्छा-अनिच्छा को उसी सीमित बाड़े में घुट-घुट कर जड़ होने के लिए छोड़ देता है। यही कारण है कि उनके अधिकांष स्त्री चरित्र विवाह की घेरेबंदी को तोड़ते नजर आते हैं। यद्यपि वे पुरुष के साथ से इंकार नहीं करतीं, परन्तु पुरुष के चयन का अधिकार वे अपने स्त्री चरित्रों को देने की पक्षपाती हैं।
प्रभा जी ने एक स्थान पर लिखा है कि ‘‘अक्सर सोचती हूँ कि औरत अपने बारे में ऐसा कुछ लिखे जिसे किसी पुरुष ने अभी तक न लिखा हो। क्या लिखना चाहिए? मैं अब भी नहीं समझ पा रही हूँ ऐसी कोई स्पष्ट विचारधारा मेरे पास नहीं है। किंतु जानती हूँ स्त्री के अनुभवों की अभिव्यक्ति कुछ विषेष और अलग रंगों और रेखाओं की पहचान है। कम से कम कुछ तो ऐसा अखोजा रहा है जिसे केवल औरत ही खोज सकती है।’’ उनकी यह बैचेनी दरअसल पितृसत्तात्मक विचारपद्धति के बरक्स बिल्कुल नये जीवन संबंधी विचारों, संस्थाओं, संबंधों, और व्यवहारों के वर्णन में देखी जा सकती है। उन्होंने स्त्री के द्वारा चयनित कई ऐसे विकल्प खोजे हैं जो रिष्तों और संबंधों की नई इबारत लिखते नजर आते हैं।
प्रभा जी के प्रमुख स्त्री चरित्र अपने अस्तित्व और अस्मिता को खोजने की कोषिष में अपना जीवन होम करते दिखाई देते हैं। वे अपने वजूद और पहचान को अब तक दी गई भूमिका के खिलाफ बनाने का प्रयास करते हैं। उनके इन प्रयासों में परंपरागत मूल्य, नैतिकता के मानंदड़, संस्थाओं की घेराबंदी, संबंधों की मर्यादा, यौन शुचिता की अवधारणा, पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई भूमिकाओं, इत्यादि के नकार में देखा जा सकता है। वे अपने जीवन को पुरुष के संदर्भ में ही परिभाषित और निर्धारित कर देने के खिलाफ हैं और इसीलिए वे अपनी भूमिका स्वयं चुनती हैं। बने-बनाये रास्तों पर न चलकर स्वयं अपने लिए नए और बीहड़ रास्तों की खोज भी वे करतीं हैं। इन रास्तों पर चलने की कठिनाइयों, चुनौतियों का सामना भी साहस के साथ करतीं हैं और हमेषा ही लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन के प्रयास में रावण की लंका में ही नहीं कैद हो जातीं। वे अपने लिए वन का आश्रम और राम की अयोध्या की रचना भी करती हैं।
छिन्नमस्ता के स्त्री चरित्र
स्त्री चरित्रों की दृष्टि से छिन्नमस्ता एक सषक्त उपन्यास है। प्रभा जी का स्त्री विमर्ष संबंधी दृष्टिकोण और विचारधारा इस उपन्यास में खुलकर सामने आया है। इसकी नायिका प्रिया मध्यवर्गीय स्त्री जीवन की प्रतिनिधि चरित्र है। प्रिया बचपन से ही दुतकार और फटकार की पीड़ा को सहन करती है, क्योंकि वह अपने सात भाई बहनों में पाँचवीं संतान थी। उसके शेष भाई बहन सुंदर थे और वह सांवली और हट्टी कट्टी थी। अपनी बड़ी बहन से वह देखने में बड़ी लगती है। उसकी माँ को संुदर बच्चे पसंद थे, इसलिए उस पर हमेषा डांट पड़ती रहती थी। नौ वर्ष की उम्र में ही उसके पिता का निधन हो गया था और उसके बड़े भाई ने उसे अपनी वासना का षिकार बनाया था। इन सब कारणों से वह डरी सहमी रहने लगी थी। इस डर और सहमेपन के बावजूद उसका बजूद उसे पितृसत्ता को चुनौती देने के लिए तैयार करता रहा और अन्ततः उसने पितृसत्ता के प्रतीक पति को और बेटे को चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया।
विवाह के बाद भी उसके जीवन में खुषी नहीं आयी। पति नरेन्द्र एक मर्द भर बनकर आता था उसके पास। उसकी वहषी भूख के कारण प्रिया को अपने औरतपन से चिढ़ हो गई। और उसे अपनी कोमल और स्त्रियोचित भावनाओं को कुचलने में ही मजा आने लगा। सेक्स के प्रति उसकी अरुचि बचपन की घटनाओं के कारण थी ही पति के लिए भी वह एक औरत भर ही थी। अतः उसने अपने औरतपन की चुनौती को स्वीकार किया और एक स्वतंत्र व्यक्तित्व, स्वतंत्र पहचान बनाने में लग गई जो उसके औरतपन को उससे अलग कर सके। एक व्यक्ति के रूप में, एक इंसान के रूप में अपना वजूद उसने बनाया।
माँ बनना स्त्री के लिए सबसे अधिक महिमामंडित करता है, परन्तु प्रिया माँ बनने के बाद भी स्त्रियोचित खुषी नहीं पा सकी। अतः उसने स्वयं को एक व्यवसायी के रूप में स्थापित किया। वह अपने बेटे को नौ वर्ष की उम्र में छोड़ कर चली जाती है, क्योंकि वह जानती है कि वह भी अपने पिता की तरह बनेगा।
’’यह उपन्यास प्रिया नामक एक ऐसी नारी का आख्यान है, जो निरंतर शोषित है-समाज की जर्जर मान्यताओं से भी और पुरुष की आदिम भूख से भी, टूट जाने की हद तक, लेकिन वह टूटती नहीं बल्कि शोषक शक्तियों के लिए चुनौती बनकर एक नई राह पर चल पड़ती है, और यहाँ से आरंभ होती है उसकी बाहरी और आंतरिक यात्राएँ संघर्षों का एक अटूट सिलसिला, बीच-बीच में वह शिथिलता अनुभव जरूर करती है, लेकिन उसके सामने एक लक्ष्य है-समाज की जिन बर्बर मर्यादाओं शक्तियों के सामने एक दिन वह मेमने की तरह मिमियाती रही थी, वे देखें कि नारी सदा ऐसी ही निरीह नहीं रहेगी। और सचमुच, प्रिया उभरती है अपनी निरीहता से। अपनी खोई अस्मिता को पुनः प्राप्त करके वह एक सबल नारी के रूप में उपस्थित होती है। संक्षेप में कहंे, तो प्रिया के माध्यम से लेखिका ने नारी-स्वातंत्र्य की भावना का वास्तविक रूप उद्घाटित किया है।’’1
हमारी जीवन शैली और रोज-रोज की गतिविधियों में निरंतर इस बात की टेªनिंग दी जाती है कि वह एक लड़की है, उसका उठना-बैठना, खाना-पीना, चलना-फिरना, पहनना-ओढ़ना, बोलना-चालना, प्रतिक्रिया व्यक्त करना, निर्णय करना, सोचना-विचारना, आस-पड़ोस में आना-जाना, बाहर के लोगों के सम्पर्क आना या न आना, घर से बाहर कब निकलना कब नहीं निकलना, स्कूल और मोहल्ले में दोस्त बनाना आदि सब कुछ नियंत्रित और अनुकूलित किया जाता है। इन आम और रोजमर्रा की गतिविधियों को भी परिवार के बुजुर्ग सदस्य अपने अनुसार निर्धारित करते हैं और लड़की को उनके नक्षे कदम पर ही चलना होता है। उसी घर में लड़के के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। इस अन्तर को वह लड़की धीरे-धीरे महसूस करती है और स्वयं को नियंत्रण में रहने के अनुकूल ढालती चलती है। सामान्यतया ऐसा होता है, परन्तु सभी लड़कियाँ इस भूमिका को यथावत स्वीकार नहीं करतीं। वे इस भूमिका और नियंत्रण के खिलाफ या तो तत्काल विरोध करती हैं, या अपने अंदर विद्रोह को पालती रहती हैं और अवसर आने पर अपनी प्रतिक्रिया और विद्रोह को क्रियान्वित करती हैं।
यह नियंत्रण और पूर्वनिर्धारित भूमिका विवाह के बाद पुनः बदल जाती है। अब उसे एक नए घर में नए नियंत्रणों और नई पूर्वनिर्धारित भूमिका को निभाने के लिए तैयार होना होता है। यहाँ उसे अपनी वह आजादी भी छिन जाने का अहसास होता है, जो थोड़ी बहुत अपने मायके में उसे मिली हुई थी। इस कठोर नियंत्रण के चक्रव्यूह में स्त्री अपने को कैसे जिंदा रखपाती है, यह उसके धैर्य और साहस और अन्नत ऊर्जा का परिणाम ही है।
छिन्नमस्ता की ‘प्रिया’ एक ऐसी ही नायिका है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा प्रदत्त और परिवार द्वारा अनुकूलित भूमिका की सीमाओं को तोड़कर, नकारकर, परिवार और समाज तथा व्यवस्था से बाहर अपनी पहचान बनाती है। अपना अस्तित्व, अपने होने को प्रतिष्ठिापित करती है बिना किसी ‘मर्दत्व’ के सहयोग के।
‘‘आखिर तक नरेन्द्र ने मेरे साथ सही साझा नहीं किया। उसने समाज में मुझे जलील किया, लेकिन नरेन्द्र का समाज बड़ा छोटा है। वह सिफ दो-ढाई सौ पैसेवाले घरानों का समाज है, और मानव समाज इससे बहुत बड़ा है, और जब से मेरे कदम इस बृहत्तर समाज की ओर उठे, मैं रुक कहाँ पाई? मैं जितना ही अपने काम में सफल हो रही थी, उतना ही नरेन्द्र से किए जानेवाले रोज रोज के टुच्चे समझौते मुझे खलते थे। मेरे व्यापार की एक दुनिया थी, जहाँ काम करके मेरा आत्मविष्वास बढ़ता था। मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह व्यापार में दस संभावनाओं के बीच चुनाव करती थी। अपने चुनाव पर डटे रहना भी मेरे लिए कठिन नहीं होता है।’’2
वह शोषित है, प्रताड़ित है अपनी माँ के द्वारा भी और बड़े भाई के द्वारा भी। कॉलेज में प्रोफेसर के द्वारा भी और अंत में अपने पति नरेन्द्र के द्वारा भी। उसका संपर्क पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष से जहाँ कहीं भी होता है, वहीं वह उसके द्वारा शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में उत्पीड़ित होती है और अन्त में अपने पुत्र के द्वारा भी जो कि उसे भुला ही देता है और पिता की भूमिका को आगे बढ़ाता है।
‘छिन्नमस्ता’ में ‘निरंतर शोषित’ प्रिया ‘अर्थ और सेक्स’ यानी दोनों ही मोर्चाें पर कुचले जाने के विरुद्ध या/और कुचले जाने से बचने के लिए शोषक शक्तियों के लिए चुनौती बनकर नई राह (?) पर चल पड़ती है यहाँ प्रिया भी आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होने के लिए संघर्ष करती हुई स्त्री है, जिसके सामने है संघर्षों का एक अटूट सिलसिला।’’3 प्रिया एक ऐसी स्त्री चरित्र है जो इंकार का साहस रखती है, अपने प्रति होने वाले शोषण और उत्पीड़न का विरोध करती है। पति से अलग होने की हिम्मत और आर्थिक रूप सुदृढ़ स्थिति में अपने खड़ा करने का विकल्प चुनती है। उसमें परिस्थितियों का सामना करने की हिम्मत और विवेक दोनों हैं। वह हार कर पलायन का रास्ता नहीं अपनाती, बल्कि नरेन्द्र को इस बात का अहसास कराती है कि वह अपने बल पर जिंदा रह सकती है। वह पितृसत्ता द्वारा दी गई भूमिकाओं से इंकार करती है। वह कहती है ‘‘नहीं, मुझे अम्मा की तरह नहीं होना, कभी नहीं। भाभी की घुटन भरी जिन्दगी की नियति मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। मैं अपने जीवन को आँसुओं में नहीं बहा सकती। क्या एक बूँद आँसू में ही स्त्री का सारा ब्रह्मांड समा जाए? क्यों? किसलिए? रोना और केवल रोना, आँसुओं का समन्दर, आँसुओं का दरिया और तैरते रहो तुम। अम्मा, जीजी, भाभीजी, ताई, चाचियाँ, यहाँ तक कि मेरी षिक्षिकाएँ भी, जिनकी ओर मैंने बड़ी ललक से देखा, जिनको मैंने क्रान्तिचेता पाया था, वे भी तो उसी समन्दर को अपने-अपने आँसुओं से भरती चली जा रही थीं। क्यों नहीं लड़कियाँ वैसे ही खिलखिला कर हँसतीं, मदमस्त, जैसे कॉलेज में लड़के हँसते हैं?’’4 ‘‘साधन-संपन्न उच्चवर्गीय संयुक्त परिवारों में बेटी से बहू तक, प्रायः हर स्त्री तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं के बावजूद अनाथ और असहाय-सी व्यवस्था के सम्मोहन में सुरक्षा खोजती हुई व्यवस्था का एक हिस्सा बनने की पूरी चेष्टा में ही जिंदगी बिता देती है, लेकिन ‘छिन्नमस्ता’ की नायिका अंततः कहती है, ‘‘नरेंद्र की व्यवस्था के सामने हार मानने का अर्थ यह नहीं हुआ कि तुम सारे मुकामों पर हार गई। उसे वहीं छोड़ दो, वहाँ वह है। तुम खुद अपनी व्यवस्था बन सकती हो, अपनी जमीन।’’ इस यात्रा में लेखिका ने ‘‘नारी-स्वातंत्र्य की भावना का वास्तविक रूप उद्घाटित’’ करने के लिए ‘स्थिति और समस्या’ का ‘चिंतन मनन और बौद्धिक विश्लेषण’ की किया है। दर्शनशास्त्र से समाजशास्त्र तक सभी प्रमुख किताबी विचारों के बावजूद प्रिया की ‘जिंदगी विरोधाभासों का बंडल’ ही बनी रही है, खोई हुई अस्मिता को पुनः प्राप्त करने के संघर्ष में प्रिया के सामने जो मॉडल है, वह उसे लगातार वही बनाता है, जिसके खिलाफ उसकी सारी ‘लड़ाई’, ‘विद्रोह’ या ‘क्रांति’ है- यानी वह स्वभाव से मर्द बनती जाती है, अंततः अकेली और मृत्यु-इच्छा के विषाद से घिरी हुई, अपनी व्यवस्था और जमीन होने का भ्रम लिये हुए।’’5
नहीं चाहिए उसे पुरुष की सुरक्षा और परिवार का संरक्षण, नहीं चाहिए उसे पुत्र का सुख और परिवार की सुविधा। वह घर और परिवार के सुरक्षा के आतंक के घेरे को तोड़कर देष विदेष की यात्रा करती है और अपनी पहचान को स्थापित करती है। वह पुरुष के संदर्भ में और उसके द्वारा दिए गए स्वरूप से बाहर स्त्री का अपना अलग स्वरूप और संदर्भ खड़ा करती है।
‘‘कि मेरे स्व का घेरा वृहद् से वृहत्तर की ओर अग्रसर हो रहा है। नहीं, मैं दुनिया में असुरक्षित नहीं। मेरे पास मेरा व्यवसाय है।’’6 प्रिया की खासियत यह है जो अन्य उपन्यासों के स्त्री चरित्रों से उसे अलग करती है, वह यह कि वह नरेन्द्र से अलग होकर अपनी यौनिकता को नियंत्रित रखती है। वह किसी अन्य पुरुष का दामन नहीं थामती। उसके किसी अन्य पुरुष से सैक्सुअल संबंध नहीं हैं। यद्यपि वह अपने स्त्री होने के अहसास को खोती नहीं है। वह पुरुषत्व के गुण भी नहीं अपनाती। यह जो आत्मनियंण वह अपनाती है, यह उसे एक नए संदर्भ में देखने परखने के लिए विवष कर देते है। फिलिप से उसके मित्रता के संबंध हैं, उससे मिलकर, बातें करके वह अपने अन्दर पूर्णता का अहसास करती है। यह मिलना कुछ-कुछ कठगुलाब के रिचर्ड और मनु के संबंधों की याद दिला देता है, यद्यपि उनके बीच शारीरिक संबंध भी थे, परन्तु वे इतने उदात्त रूप में हैं कि वहाँ शारीरिकता गौण हो जाती है, और एक दूसरे का होना मात्र शेष रह जाता है। ठीक इसी बिन्दु पर प्रिया और फिलिप के रिष्ते खड़े हैं। फिलिप पुरुष है, परन्तु पितृसत्ता का प्रतिनिधि नहीं है। वह एक मनुष्य है और प्रिया को भी एक मानवीय इकाई के रूप में ही स्वीकारता है। यह यह अस्तित्व युक्त मित्रता का संबंध है यही वह बिन्दु जहाँ से स्त्री विमर्ष अपनी सफलता की लड़ाई जीतने का प्रयास कर सकता है।
फिलिप और प्रिया के संबंधों की पड़ताल होनी चाहिए और उनके बीच के मानवीय संबंध को रेखांकित किया जाना चाहिए। स्त्री विमर्ष स्त्री और पुरुष के बीच के इसी संबंध को कायम करना चाहता है। फिलिप की नजरिया न केवल प्रिया के प्रति बल्कि उसकी पत्नी जूडिथ के प्रति भी वैसा ही है। उसमें पितृसत्तात्मकता की बू कहीं भी आती नहीं दिखाई देती। इस संदर्भ में रोहिणी अग्रवाल का यह कथन सटीक बैठता है -
‘‘चूँकि नारीवाद अपने मूल रूप में लैंगिक लड़ाई को बढ़ावा देने के बजाय सह-अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना है अतः प्रत्येक संवेदनषील-विवेकषील स्त्री एवं पुरुष स्त्री-सषक्तीकरण का अनिवार्य एवं वांछित संवाहक बन जाता है।’’7 प्रिया और फिलिप का संबंध इसी सह-अस्तित्वपरक समाज की परिकल्पना को साकार रूप देने का प्रयास माना जाना चाहिए। ऐसा ही एक अलग प्रयास कठगुलाब की नीरजा और विपिन के बीच बनने वाले नए संबंध की परिकल्पना में मृदुला जी ने की थी।
पितृसत्ता द्वारा शोषित और प्रताड़ित - ‘‘बचपन में बड़े भाई द्वारा यौन-शोषण के बारे में चुप्पी और किसी से न कहने की सौगंध के साथ प्रिया को लगता है ‘यह मेरा कलंक है’। शील, कुँआरापन और पवित्रता के मिथकीय संस्कारों की शिकार प्रिया गहरे अपराध-बोध के कारण ही आत्महत्या की कोशिश करती है। इस दुर्घटना का ही प्रभाव है कि प्रिया ने ‘‘मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि मुझे लड़की ही बने रहना है, औरत नहीं बनना’’, लेकिन बार-बार सोचती है कि ‘‘क्या था मेरी आँखों में कि हमेशा पुरुषों की गिद्ध-दृष्टि मुझ पर पड़ती।’’ एक क्षण वह कहती है, ‘‘भीतर रोती हुई इस वर्ष की लड़की को एक दिन मैंने जिंदा दफना दिया था। नहीं मैं औरत नहीं होना चाहती’’, लेकिन अगले ही क्षण सोचती-विचारती है,ं ‘‘सदियों की इस अमानवीय परंपरा को किस बीमारी का नाम दूँ, जहाँ मेरी-जैसी विद्रोही लड़कियाँ भी समर्पित पत्नी और माँ बन जाने को विवश हो जाती है’’। बड़े भाई द्वारा बचपन में यौन-शोषण की दहशत भरी स्मृतियाँ ‘अँधेरी सुरंगों में दिन-रात दर्द का बोझ लिये दौड़ती रही हैं’ और प्रिया को हमेशा यह यहसास बना रहता है, ‘‘मैं ने फूल बनी, न नागफनी का काँटा। कुछ नहीं, बस एक सुलगता हुआ अंगारा या फिर एक धुआँ उगलती हुई आँसुओं से तर गीली लकड़ी।’’8
प्रिया के रूप में एक ऐसा स्त्री चरित्र हमारे सामने आता है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतिपक्ष रचता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था की संरचना -सत्ता और वर्चस्व - की राजनीति पर आधारित होती है और उसके मूल में है आर्थिक स्रोतों पर पुरुष का वर्चस्व। छिन्नमस्ता की दो अन्य स्त्री चरित्र - प्रिया की माँ और सास, दूसरी सास पितृसत्ता के इसी आर्थिक रूप के द्वारा शासित हैं। प्रिया की सास अपने लड़के नरेन्द्र की अनाधिकार और नाजायज चेष्टाओं को सहन करती रहती है। उधर उसकी माँ प्रिया के भाई की नाजायज हरकतों पर परदा डालती रहती है। प्रिया ने इन दोनों ही घरों में पैसे की ताकत को पुरुष का हथियार बनते देखा था और महसूस किया था कि उत्पादन के स्रोत और आथर््िाक संसाधनों पर जिसका अधिकार होगा, घर, परिवार, समाज और देष में उसकी पहचान, वर्चस्व कायम रहता है।
अपनी ससुराल में उसे घर से बाहर निकलने के लिए और अपनी पहचान कायम करने के लिए, एक अवसर मिलता है और वह उस अवसर का फायदा अपने अस्तित्व को बनाये रखने में करती है। अपना व्यवसाय प्रारंभ करके। यहाँ देखने लायक बात यह है कि पुरुष के लिए पैसा वर्चस्व की सत्ता कायम करने का हथियार होता है, वह इसके आधार पर परिवार के अन्य सदस्यों पर अपनी दादागिरी चलाता है और अपनी जायज नाजायज कार्यों को बेखौफ करता है, परन्तु एक स्त्री के लिए पैसा उसकी पहचान होती है, उसकी आत्मिक संतुष्टी और अपने होने की सार्थकता को महसूस करती है। प्रिया सफल उद्योगपति बन कर भी अपने अहं को तुष्ट नहीं करती, न किसी पर षासन चलाती और किसी के अधिकारों का अतिक्रमण करती, वह उसके अपनी भावी पीढ़ी अपनी ननद को सौपने के लिए मानसिक रूप से तैयार होती है।
वह कहती है ‘‘नरेन्द्र, मैं व्यवसाय रुपए के लिए नहीं कर रही। हाँ चार साल पहले जब मैंने पहले-पहल काम शुरु किया था, मुझे रुपयों की भी जरूरत थी। पर आज मेरा व्यवसाय मेरी आइडेंटिटी है। यह आये दिन की मेरी विदेषों की उड़ान...यी मेरी जिन्दगी के कैनवास को बड़ा करती है। नित्य नए लोगों से मिलना - जुलना, जीवन के कार्य जगत को समझना। मुझे जिन्दगी उद्देष्यहीन नहीं लगती।’’9 स्त्री की इस पहचान और बढ़ते कैनवास को देखकर पितृसत्ता हमेषा से आतंकित होती आई है और अपने डर को स्त्री पर लांछन लगा कर नीचा दिखाना और उसे कमजोर करने का कार्य करती है। नरेन्द्र भी यही कहता है ‘‘तुम यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम्हें अकेले मौज करने की आदत पड़ गई है।’’10
पितृसत्ता के लिए स्त्री का काम करना दूसरे दर्जे का काम है, पत्नी होना, माँ होना, बहू होना प्राथमिक कार्य है। इसी तर्क से स्त्री दोहरे-तिहरे शोषण का षिकार बनाई जाती है। नरेन्द्र भी यही कहता है - ‘‘काम करो पर यह मत भूलो कि तुम विवाहिता हो, एक बच्चे की माँ हो, अग्रवाल हाउस की बहू हो।’’11
पितृसत्ता स्त्री की अलग पहचान नहीं बनने देने चाहती है। इसीलिए वह निरंतर उसे परंपरागत भूमिकाओं में घकेलते रहने का प्रयास करती है। जो स्त्री काम को अपनी पहचान बनाने का प्रयास करतीं हैं उनके पर इसी तरह कतर दिए जाते हैं। आज की सबसे बड़ी बिडंबना यही है कि घर बाहर काम करने वालों मेें स्त्री की संख्या तो बड़ी है, परन्तु वे उस काम को अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं बना पायीं हैं। काम उनके लिए पति की आय में थोड़ी सी वृद्धि करने तक ही सीमित होती है। आज मेरा अपना अनुभव यह जानता है कि मेरे आस-पास काम करने वाली सैकड़ों स्त्रियाँ जो अच्छे पदों पर हैं, वे भी अपनी मर्जी से अपने वेतन को खर्च नहीं कर सकतीं। कई स्त्रियों के साथ यह भी है कि उनका वेतन उन्होंने कभी देखा ही नहीं। बैंक में जमा होने वाला वेतन पति अपनी मर्जी से निकलता है, खर्च करता है और अपना षासन उसी तरह चलाता है जिस तर घरेलू स्त्री का पति। बहुत सी ऊँची तनख्वाह पाने वाली स्त्रियों ने तो कभी बैंक का मूँह भी नहीं देखा। अगर उनको अकेले बैंक भेज दिया जाये तो वे बैंक से पैसा भी नहीं निकाल सकतीं। तो इस स्थिति में वे घर के काम के साथ पैसे कमाने की मषीन और बन जाती हैं। यह स्थिति है आज के समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की।
प्रिया इस स्थिति को स्वीकार करने से इंकार कर देती है। वह पितृसत्ता की किसी भी व्यवस्था में फिट होने से स्वयं को अनुकूलित होने से बचा लेती है। यही उसका शांत विद्रोह है, एक मूक क्रांति है जो धीरे से उपन्यास में घटित हो जाती है। इसकी प्रतिक्रिया में नरेन्द्र आहत होता है, विचलित होता है, इसलिए नहीं की प्रिया उसकी पत्नी उससे अलग हो गई बिना तलाक दिए, बल्कि इसलिए कि वह पति होकर, पितृसत्तात्मक व्यवस्था का संचालक होकर एक स्त्री को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका और इस रूप में वह असफल हो गया। इसी कारण उसके पुरुषत्व को चोट लगती है और वह एकदम अमानवीय स्तर पर उतर आता है। उसकी प्रतिक्रिया में कहे गऐ वाक्य पुरुषत्व के अंह को लगी चोट की प्रतिक्रिया ही अभिव्यक्त करते हैं।
उसका कहना है ‘‘दरअसल तुम्हें इतनी खुली छूट देने की गलती मेरी ही थी। मुझे पहले ही चिड़िया के पंख काट डालने चाहिए थे। पर मैं तुम्हारी बातों में आ गया। तुम्हारे इस भोले चेहरे के पीछे एक मक्कार औरत का चेहरा है।’’12 जब नरेन्द्र उससे प्यार और वफादारी, ईमानदारी, समर्पण की बात करता है तो प्रिया का जबाव पितृसत्ता की भाषा के चक्रव्यूह को विखेर कर रख देता है। ‘‘कुछ नहीं। सच कहूँ नरेन्द्र, ये शब्द भ्रम हैं। औरत को यह सब इसलिए सिखाया जाता है कि वह इन शब्दों के चक्रव्यूह से कभी नहीं निकल पाए ताकि युगों से चली आती आहुति की परंपरा को कायम रखे।’’13 पुरुष का अहं जब चोट खाता है तो वह बौखला जाता है। नरेन्द्र में इस बौखलाहट को देखा जा सकता है। ‘‘हाँ, यह घर मेरा है, और सुनो, संजू भी मेरा है। कानून की नजर में बेटे की कस्टडी बाप को मिलती है।’’..... यह मत भूलो प्रिया कि मैं पुरुष हूँ, इस घर का कर्ता। यहाँ मेरी मर्जी चलेगी; हाँ सिर्फ मेरी।’’14
पितृसत्ता कभी यह सहन नहीं कर सकती है कि उसकी पत्नी उससे अधिक कमाये और उसकी जगह वह घर पर अपना वर्चस्व कायम कर ले। प्रिया एक नया रास्ता चुनती है। वह घर की सुरक्षा और पति के संरक्षण को ठोकर मार देती है। उसमें इंकार करने का साहस है। वह पितृसत्ता के समक्ष अपने का कमजोर नहीं करती। स्वयं को स्थापित करती है, एक व्यक्ति के रूप में, एक व्यवसायी के रूप में, एक मित्र के रूप में, एक भाभी (नीना की) के रूप में। वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उन सारे रूपों को नकार देती है जो उसे जन्म से घुट्टी की तरह पिलाये जा रहे थे।
प्रिया कई अवसरों पर स्वतंत्र निर्णय लेती है। वह बिना पति की इजाजत के अपनी दूसरी सास और ननद से मिलने जाती है। संजू को भी ले जाती है। पति के मना करने पर भी उनसे मिलना नहीं छोड़ती। नीना जो उसकी ननद है, उसे भावी पीढ़ी के रूप में देखती है और उसे स्वयं के बारे में निर्णय करने के लिए स्वतंत्र छोड़ती है। पति से अलग रहने का फैसला बहुत मायने रखता है। स्वतंत्र रूप से व्यवसाय करने का निर्णय भी उसका अपना है। वह सुरक्षा और मोह के मायाजाल को तोड़ने का निर्णय भी करती है।
एक स्त्री को संस्कार के रूप में स्त्री की पराधीनता की बेड़ियाँ मिलती हैं, अधिकांष स्त्रियाँ इन्हीं बेड़ियों को अपना स्वभाव बना लेती हैं। इसे ही स्त्री की नियति भी मान लिया जाता है। प्रिया अपने बचपन के शोषण में ही इस द्वंद्व को झेलती है- ‘’क्यों? मैं क्यों इतनी दब्बू? इतनी कायर? क्या दाई माँ के कारण भय का संस्कार पनपा? या अम्मा की उपेक्षा में या फिर हमारे समाज की हजारों-लाखों स्त्रियों के साथ ऐसा ही घटता रहा है? पर हर औरत मूँह खोलने से घबड़ाती है। क्या सबको एक ही निर्देष मिला है अपनी माँ से? अपनी बहन से? मत बोलना, बिटिया! कभी नहीं। क्या घुटती हुई हर माँ ने औरत के जनम को ही नहीं कोसा? क्यों? नहीं, मैं औरत होना नहीं चाहती। मैं कभी किसी से प्रेम नहीं करूँगी। कभी शादी नहीं। सेक्स से घृणा है मुझे, बेहद घृणा। मैं एक ठंडी औरत हूँ, ठंड़ी रहूँगी। पुरुष से बदला लेने का मुझे एक यही तरीका समझ आया।’’15 पुरुष के लिए स्त्री चाहे पत्नी रूप में हो या बहन या दोस्त, एक सेक्स की चीज ही होती है। नरेन्द्र प्रिया से कहता है ‘‘प्रिया, नहीं, तुम मेरी चीज हो....लोग इतनी अच्छी चीज को देखकर लार टपकाएँ, इसके पहले मुझे स्वाद चखने दो।’’16
पुरुष की यह सोच स्त्री के लिए उस क्षण के सुख को नफरत में बदल देती है। प्रिया के साथ भी यही होता है। बचपन में भाई की कामुकता, कॉलेज में प्रोफेसर का दिया हुआ घोखा और अब पति की बहषी भूख ने उसकी ‘देहिकता’ की आवष्कता और उससे मिलने वाले मानसिक सकून को घृणा और नफरत में बदल दिया।
नरेन्द्र के लिए प्रिया की इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती। न ही सेक्स के मामले में और न अन्य स्थलों पर, वे चाहे हॉटल में खाने का आर्डर देना हो या कोई सामान खरीदना हो।
‘‘नरेन्द्र ने मेरे अतीत के बारे में जानने की कोई चेष्टा ही नहीं की, ना ही मेरी पसन्द-नापसन्द के बारे में उसने कुछ पूछा। वह खाने का आर्डर भी अपनी मर्जी से दे दिया करता और खाते-खाते जब पेट भर जाता तो अचानक पानी पीकर उठ जाता। यह भी नहीं देखता कि मैं अभी तक पहली रोटी ही नहीं निगल पाई हूँ।’’17 प्रिया स्त्री की रूढ़ छवि के किसी भी रूप में अपने को फिट महसूस नहीं करती। उसे गहने पसंद नहीं है, जो स्त्री समाज के लिए स्टेट्स का प्रतीक बना दिए गए हैं। वह अपनी सास से कहती है ‘‘मम्मी मुझे गहने नहीं सुहाते.....और यह साड़ी तो अच्छी ही है, मम्मी।’’18 घर की तरह स्त्री का सजना भी उसे नहीं भाता था। ‘‘पार्टी में न केवल घर और मेज ही सजाना पड़ता, बल्कि खुद को भी।’’19
इस बात पर उसकी प्रतिक्रिया थी कि उसकी इन सब में रुचि कम होती जा रही थी और वह बात-बात पर झल्ला पड़ती। दाई नौकरों पर बरस पड़ती। उसकी जिन्दगी में पैसे से आयातित मँहगी वस्तुओं के खिलाफ विद्रोह पनपने लगा था। इस सबके बीच जो संबंधों की मिठास और जीवन की महक होती है वह इस दो ढाई पैसे वाले मारवड़ियों के बीच नहीं थी। एक रसता, ऊब और वातावरण में व्याप्त नंगेपन की घुटन से उसका जी विद्रोह कर उठता था। वह भिन्न प्रकार की वस्तुओं के बीच सजी संवरी माँसल जिस्म बन कर रहने से इंकार करती है और अपने होने का वस्तु में तब्दील नहीं होने देना चाहती। इस सबसे घबराकर ही उसने अपना व्यापार प्रारंभ किया और अलग इंसानियत के रिष्ते बनाए।
प्रिया कभी हार न मानने का संकल्प करती है और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है। वह कीमत चुकाती है, अकेलापन चुनती है, पति और बेटे का साथ और सुरक्षा की कीमत चुकाती है। ‘‘नहीं, मैं हार नहीं मानूँगी, और बड़ी कीमत दूँगी.... और बड़ी आहूति। देखूँ कैसे कोई मेरी उपेक्षा करता है? मैं जरूरी हूँ। इस समाज का, अपने परिवार का बहुत जरूरी खम्भा हूँ, नींव का पत्थर हूँ। मेरे बिना सब कुछ ढह जायेगा।’’20
नीना - छिन्नमस्ता की दूसरी स्त्री चरित्र है जो स्त्री विमर्ष की आधुनिक कड़ी को रेखांकित करती है और स्वयं को पितृसत्ता के दलदल में फँसने ही नहीं देती। नीना नरेन्द्र की सौतेली बहन है। नरेन्द्र के पिता की रखैल या प्रेमिका की बेटी। यह एक अलग किस्म का चरित्र है। इसकी सामाजिक स्थिति द्वंद्वपूर्ण है क्योकि बिन ब्याही माँ की बेटी को समाज में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। पितृसत्ता के इस षड्यंत्र और पिता की दयनीय विवषता को वह अपनी मजबूरी और विवषता नहीं बनने देती। वह पितृसत्ता के हर तरह के जाल को छिन्न-भिन्न करती है और अपनी अलग स्वंतत्र पहचान कायम करती है। इसी तरह का एक चरित्र दिलो दानिष की महकबानो की पुत्री का भी है। नीना से जब प्रिया पहली बार मिली तो वह उन्नीस वर्ष की थी।
‘‘नीना को देखकर मैं निहाल हो गई थी। उन्नीस बर्ष की वह लम्बी छरहरी नवयौवना, घने काले बाल, बड़ी-बड़ी आँखे और होंठ तथा चिबुक पापा की तरह निखर आई है।’’21
नीना एक आधुनिक विचारों वाली आत्मविष्वासी स्त्री है। उसके विचार और निर्णय उसके स्वयं के हैं। वह अपने बारे में स्वयं निर्णय लेती है और उन पर चलती है। अपने विवाह के संबंध में उसका कहना है कि ‘‘देखो भाभी, पापा चाहते हैं कि मेरी शादी हो जाए लेकिन मैं नहीं करूँगी। मैं पहले अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी।’’22
यह जो उसका आत्मविष्वास है, वह उसे एक नई स्त्री के प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित कर देता है। वह अपने अपमान, उपेक्षा और पीड़ा को भी अपने अंदर सहेज कर रखती है, उसे अपनी प्रेरणा और ताकत के रूप में इस्तेमाल करती है। उसका यह कहना ‘‘नहीं, जिन्दा रहने और अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपमान और बंचना को भी याद रखें। मुझे आप ये सब ‘चुप-चुप रहो’ वाली बातें न सिखलाएँ तो!’’23
‘‘यदि दुखी हूँ तो सुख को भी अर्जित करूँगी। अपने पैरों पर खड़ी स्त्री का कोई निरादर नहीं कर सकता। भाभी! पापा का यों महीने का महीने रुपया देना? मुझे नफरत होती है उनसे। सच कहती हूँ भाभी, ऐसे बुजदिल इंसान से मुझे सख्त नफरत है।’’24 प्रिया को उसकी दाई माँ ने हमेषा चुप रहने का पाठ पढ़ाया था, वह उस समय चुप भी रही और अपने प्रति होने वाले अन्याय और उत्पीड़न को सहती रही, परन्तु आज की नई स्त्री की प्रतिमूर्ति नीना यह चुप रहने वाला पाठ नहीं सीख सकती। उसे स्वयं पर विष्वास है, संघर्ष करने की क्षमता है और सुख पाने का संकल्प और साहस भी। ‘‘सुख नहीं है तो उसे अर्जित करके दिखा दूँगी।’’25
नीना अंत में अपने प्रेमी से विवाह करती है और अपने निर्णयानुसार जीवन यापन करती है।
जूडी - छिन्नमस्ता की एक और स्त्री चरित्र है जूड़ी जो कि फिलिप की पत्नी है और प्रिया की दोस्त। जूड़ी एक सुलझे हुए विचारों वाली संतुलित स्त्री है। जिसका जीवन और संबंधों का आधार एक दम स्पष्ट है। खुले विचारों की है और फिलिप के साथ पति-पत्नी के रिष्तों के साथ-साथ दोस्ती के रिष्ते में भी बंधी है। पूर्व और पष्चिम के बीच स्त्रियों को लेकर जो भ्रम है, वह उसकी सच्चाई और वास्तविकता को जानती है और प्रिया के समक्ष स्पष्ट भी करती है।
‘‘नहीं, सारी भूमिकाओं से परे एक हमदर्द औरत हूँ। औरत के दर्द को समझती हूँ। प्रिया, क्या केवल तुम्हीं ने नहीं सहा है? एक तुम ही नहीं जो दुख पा रही हो, हर औरत के अपने-अपने दर्द के तहखाने हैं।’’26
स्त्री विमर्ष के बीच अक्सर पूर्व और पष्चिम के परिवेष और भिन्न विचारधाराओं का आरोप लगाया जाता है। भारतीय स्त्री विमर्ष में देहवाद और यौन स्वच्छन्दता के लक्षणों को पष्चिम का असर और प्रभाव बताया जाता है। जूडी एक ऐसी स्त्री चरित्र है जो यह बताता है कि ‘औरत’ हर जगह औरत है और उसे औरत होने के नाते लगभग एक से दुखों को भोगना पड़ता है।
‘‘जिन्दगी जीने के लिए अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। यदि औरत व्यवस्था के बाहर कदम बढ़ाती है तो उसे ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पडे़गी। मैं जानती हूँ कि पष्चिम की हम स्त्रियों पर तुम लोग हँसते हो, तुम्हें लगता होगा कि हम स्वच्छन्द हैं, घरफोडू हैं, हर किसी के साथ पलँग पर साझा करने को तैयार रहती हैं।’’27
जूड़ी प्रिया से कहती है कि तुमने जितनी पीड़ा सही और संघर्ष किया है उससे तुम्हारे अनुभवों का संसार व्यापक हुआ और दुनिया के बारे में संबंधों के बारे में भ्रम टूटे हैं। ‘‘तुमने जितनी भी पीड़ा झेली पर तुम्हारी चेतना का विकास ही हुआ है, तुम्हारे भ्रम टूटे हैं, सीमाओं से बाहर आकर तुमने पारस्परिकता का संबंध स्थापित किया है। पर नरेन्द्र की पीड़ा देखो, उसकी चेतना तो मालिकाना अहम में ठस होती जा रही है। धन और सत्ता का मद उसे कितना अहंकारी और पागल बनाए रखता है। वह सोचता है कि पैसे से वह सब कुछ हासिल कर सकता है। पर जरा सोच कर देखो, उसने क्या हासिल किया? किसको उससे सहानुभूति है? कौन उससे प्रेम करता है? उसकी मुट्ठियों में बन्द संजू क्या खुली हवा में सांस लेने के लिए नहीं छटपटा रहा? और नरेन्द्र ने संजू को कौन से मूल्य दिए?’’28
छिन्नमस्ता के अन्य स्त्री चरित्र - इन स्त्री चरित्रों के अतिरिक्त कम से कम चार और स्त्री चरित्र हैं जो उल्लेखनीय हैं। इनमें प्रिया की माँ, दाई माँ, सास और सौतेली सास। दो माँ मायके में दो सास ससुराल में। दोनों ही स्थानों पर दूसरी माँ से प्रिया को प्रेम और स्नेह मिलता है। प्रिया की माँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चलाने के लिए कटिबद्ध है। प्रिया उसके लिए फालतू ही आ गई इसलिए वे उसकी उपेक्षा और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं। प्रिया का बड़ा भाई जो उसके साथ यौन संसर्ग बनाता है। उसकी माँ और दाई माँ उसके पुरुष होने के नाते उसके इस कूकृत्य पर परदा डालती हैं। इधर सास भी अपने लड़के के पुरुषत्व और आर्थिक स्रोतों पर वर्चस्व के कारण उसकी नाजायज हरकतों को सहन करती रहती हैं। और अपने खालीपन को जेवरों, साड़ियों और इसी तरह की वस्तुओं से भरने की कोषिष करती हैं।
संदर्भ ग्रंथसूची
1. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, प्रभा खेतान के उपन्यास ’छिन्नमस्ता’ का फ्लैप नंबर 2
2. छिन्नमस्ता, पृ. 184
3. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 55
4. छिन्नमस्ता, पृ. 98
5. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 55
6. छिन्नमस्ता, पृ. 183
7. आलोचना जुलाई-सितम्बर, 2003, रोहिणी अग्रवाल, पृ. 174
8. औरत अस्तित्व और अस्मिता, पृ. 57
9. छिन्नमस्ता. पृ. 10
10. वही, पृ. 10
11. वही, पृ. 10
12. वही, पृ. 11
13. वही, पृ. 11-12
14. वही, पृ. 12
15. वही, पृ. 103
16. वही, पृ. 115
17. वही, पृ. 115
18. वही, पृ. 116
19. वही, पृ. 115
20. वही, पृ. 172
21. वही, पृ. 124
22. वही, पृ. 124
23. वही, पृ. 125
24. वही, पृ. 125
25. वही, पृ. 130
26. वही, पृ. 161
27. वही, पृ. 161
28. वही, पृ. 163
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522 आधारशिला, ईस्ट ब्लाक एक्टेंसन
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इतनी सारगर्भित समीक्षा, शायद पहली बार पढ़ी !
ReplyDeleteजिन्होंने लिखी, उनको नमन !!
dhanywaad Mukesh sinha
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