पठार पर रंगोली
परिचय खुद का
खुद से ही तो हुआ नहीं है ।
संवेदन का
पहन मुखौटा
छल मुस्काता
मन हुए कसैले
रोज आता दिन
घायल हैं साये
परिचय
भारतेंदु मिश्र
भारतेंदु मिश्र |
मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन भोपाल का प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान-2017 मालिनी गौतम के नवगीत
संग्रह "चिल्लर सरीखे दिन" को दिए जाने की घोषणा हुई |संग्रह पर भारतेंदु मिश्र जी की समीक्षा के साथ
कुछ नवगीत "रचना प्रवेश " पर
नवगीत की सर्जना में
कवयित्रियों के नाम बहुत कम हैं, फिर भी शान्ति
सुमन,राजकुमारी]रश्मि,इंदिरा मोहन,शरद सिंह ,पूर्णिमा वर्मन,रजनी मोरवाल,यशोधरा राठौर जैसी नवगीत
कवयित्रियाँ हमारा ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं|
इसी नवगीत की
परंपरा में कुछ दिनों से मालिनी गौतम के नाम की भी चर्चा हो रही है|‘चिल्लर
सरीखे दिन’
मालिनी गौतम के नवगीतों की पहली पुस्तक है|इसमें 55 गीत नवगीत संकलित हैं,जिनमें अधिकाँश गीत भाषा और छंद की दृष्टि से निर्दोष हैं|जीवन में हम सबको छोटी छोटी खुशियों की ही तलाश रहती है|कवयित्री मालिनी गौतम को घर में ही कविता का सार्थक संस्कार अपने पिता
से मिला जो आज उसकी काव्य भाषा और रूपकों में देखा जा सकता है|
यू तो मध्य
प्रदेश की सांस्कृतिक धरती पर नवगीत जितना फला फूला और उसकी समझ विकसित
हुई उतना किसी अन्य प्रदेश में संभव नहीं हो
पाया|
संयोगवश मालिनी
जी को इसी मध्यप्रदेश की मोहक सांस्कृतिक छवियों वाली काव्य भूमि विरासत
में मिली|अपनी जिज्ञासा और पढाई लिखाई
के परिश्रम से कवयित्री ने अपनी काव्य अनुभूतियों को
मांजा और बेहतरीन ढंग से
चमकाया है|ये नवगीत मालिनी गौतम की सजग काव्य चेतना का
प्रकटीकरण हैं|
वे कविता की अनेक
विधाओं में लिखती हैं| आज इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जब मनुष्य
संवेदना की बात लगभग
बेमानी हो गयी है तब मालिनी गौतम अपनी सशक्त नवगीत सर्जना से नवगीत प्रेमियों को न
केवल आश्वस्त करती हैं बल्कि किसी हद तक चकित भी करती हैं| संयोगवश संकलन के अंतिम गीत पर मेरी नजर पहले पडी,फिर सभी गीत पढ़ने का मन बनाता गया|अन्तिम गीत का
अंश देखिये- झूठ दौड़ता पहन जूतियाँ /अफवाहों की बातें करती कानाफूसी/घर घर जाकर
छल की भाषा शोर मचाती /मौक़ा पाकर भटक रहीं हैं आवाजें /सच की आहों की|(पृ-96) ये जो अफवाहों की जूतियाँ कवयित्री
ने झूठ को पहना दी हैं असल में यही नवगीत की अंतर्चेतना है| एक शब्द या एक रूपक के निर्वाह भर से ही कविता में जो अर्थ की छवि
उद्भासित होती है वही रचनाकार की शक्ति का पता बता देती है|ऐसे अनेक नवगीत इस संकलन में दिखाई देते हैं जिनमें नई सदी की कविता का
मुहावरा धड़कता है|ये नवगीत छंद और लय की दृष्टि से भी
प्रवाह संपन्न हैं|
संकलन के शीर्षक नवगीत का अंश देखिये-
हाँथ में हैं शेष /कुछ चिल्लर सरीखे दिन हडबडाती जिन्दगी/इक रेल सी गुज़री चाहतों
के स्टेशनों पर/चार पल ठहरी उम्र के खाली कपों में /घूँट से पल-छिन |(पृ-11)
असल में जिन्दगी
का फलसफा कवयित्री को बखूबी मालूम है और वह हडबडाते समय को धैर्य पूर्वक
सहज मन से
जी लेने के लिए तत्पर भी है| यह तत्परता ही उसे नास्टेल्जिक होने से बचाती है|
प्राय: जो अतीत का रोना लेकर गीत लिखे जाते हैं उनसे कवयित्री का स्वर
कदाचित भिन्न है| कवयित्री कविता में यथास्थिति तक सीमित
होकर नहीं रह जाती बल्कि वह अपने सामर्थ्य और समझ से समाधान और उपाय भी बताती है- ‘वक्त कबसे कैद है /कब तलक सोओगे तुम/अब उठो घंटा बजाओ|’(पृ-16) इसी क्रूर समय में हमारे जीवन की
दुर्दशा हमारे ही कुछ ठग साथी कर रहे हैं |हमारे जीवन की
सहज गति को रोकने के लिए वे कीलें बिखरा कर हमारे पहियों में पंक्चर करने से भी
बाज नहीं आते|फिर भी संवेदना का घाव लिए हुए मनुष्य अनंत
की यात्रा पर बढ़ता जा रहा है|कवयित्री मालिनी गौतम के पास
जीवन और जगत के यथार्थ को अभिव्यक्त करने की सटीक भाषा संवेदना भी है|
नवगीत का एक अंश
देखें- खुरच खुरच कर खोद रहा है/वक्त हमारे घाव/ यहाँ वहाँ बिखरी कीलों ने
/
पंक्चर किये तमाम कैसे घूमे पहिया कोई /लगे जाम पर जाम सिग्नल सारे टूटे जब जब
/उनपर बढ़ा
दबाव|(पृ-34 ) कवयित्री के मन में खेतिहर किसान की समस्याओं के स्वर भी घुमड़ते हैं,इसलिए
वह धरती और बादल के बिम्ब लेकर संबंधो की खेती करने का सहज
प्रयास करती है- ऊसर धरती
पर /चाहत के बीज उगा दूं एक उदासी/ खाट डालकर कब से
सोयी खाली कोनों में /खुशियों की
चिड़िया रोयी खालीपन को झाड़ पोंछकर/आज सजा दूं|(पृ-82) सहज कविता तो जीवन और जगत
के प्रेम
से ही निकलती है|मालिनी जी के इन नवगीतों का सौन्दर्य इनकी
लोक धर्मी चेतना से
पथरीले यथार्थ की जमीन पर अल्पना सजाने जैसा है| जिनके मन की अटारी खाली हो वह उसे
भरने की कोशिश अवश्य करता है|प्रेम की झीनी चदरिया बुनने की कोशिशें करने वाले सजग
रचनाकार ही
मनुष्यता को भटकाव से बचा सकते हैं|किसी बड़े आलाप- विलाप
पक्ष -विपक्ष के
बिना, सहज ढंग से रचे गए मालिनी गौतम के
ये नवगीत नई सदी की नवगीत सर्जना का नया
प्रस्थान बिंदु प्रतीत होते हैं|अंतत: कवयित्री के इस पहले नवगीत संग्रह का मैं ह्रदय से स्वागत
करता
हूँ| बोधि प्रकाशन को भी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई|
लगी हुई है अर्जी
झूठ दौड़ता पहन जूतियाँ
अफ़वाहों की ।
अफ़वाहों की ।
बातें करतीं
कानाफूसी
घर-घर जाकर
छल की भाषा
घर-घर जाकर
छल की भाषा
शोर मचाती
मौका पाकर
मौका पाकर
भटक रही हैं आवाज़ें
सच की आहों की ।
सच की आहों की ।
नकली रंगों ने
मल डाले
मुँह मौसम के
सहमी चिड़िया
मुँह मौसम के
सहमी चिड़िया
ढूँढ रही है
सुर पंचम के
सुर पंचम के
ऊँचे ताड़ बाँटते हैं
छाया चाहों की ।
छाया चाहों की ।
सुविधा के
दलदल में
सच के चिंतन मरते
उजियारों में
सच के चिंतन मरते
उजियारों में
चमगादड़
अँधियारा भरते
अँधियारा भरते
लगी हुई है अर्जी
भरमाती राहों की ।
भरमाती राहों की ।
विज्ञापन झूम
रहा है
चेहरा एक मुखौटा पहने
घूम रहा है ।
गालों पर पड़ते है
लाचारी के चाँटें
खुशियों के दामन में
विपदाओं के काँटें
मन ही मन चुप्पी का
एक हुजुम रहा है।
घूम रहा है ।
गालों पर पड़ते है
लाचारी के चाँटें
खुशियों के दामन में
विपदाओं के काँटें
मन ही मन चुप्पी का
एक हुजुम रहा है।
आश्वासन के भोजपत्र
आमंत्रण लिखते
सुविधाओं की जूठन पर
जनमत हैं बिकते
आमंत्रण लिखते
सुविधाओं की जूठन पर
जनमत हैं बिकते
आयातित धुन पर
विज्ञापन झूम रहा है ।
विज्ञापन झूम रहा है ।
गमगीनी के घट भरतीं
आँखें बेचारी
मुस्कानों के नाम
मुस्कानों के नाम
हुए हैं फ़तवे ज़ारी
सच कोहरे में लिपटा
धोखा चूम रहा है ।
धोखा चूम रहा है ।
छल मुस्काता
परिचय खुद का
खुद से ही तो हुआ नहीं है ।
संवेदन का
पहन मुखौटा
छल मुस्काता
तान चंदोवा
खालीपन का
खालीपन का
मन हर्षाता
सहमी नींदों ने ख़्वाबों को
छुआ नहीं है ।
फ़ुटपाथों के
छुआ नहीं है ।
फ़ुटपाथों के
प्रेक्षागृह में
दुख का नर्तन
कोलाहल का
दुख का नर्तन
कोलाहल का
सन्नाटों में
स्वर परिवर्तन
स्वर परिवर्तन
उम्मीदों के चूल्हों में अब
धुँआ नहीं है।
धुँआ नहीं है।
खुशियों वाली
लिपि चिट्ठियाँ
पढ़ नहीं पाती
सुख के
सुख के
दरबारों में
दु:ख की ठकुर सुहाती
दु:ख की ठकुर सुहाती
पत्थर-सी पीड़ा को
चुभता सुआ नहीं है ।
चुभता सुआ नहीं है ।
धूप झरी
सिकुड़े तट पर बित्ता-भर
फिर धूप झरी ।
तलछट में पसरी है
सपनों की आहट
सीपों के दरवाज़ों पर
विपदा के घट
सपनों की आहट
सीपों के दरवाज़ों पर
विपदा के घट
ख़ामोशी बहने को आतुर
भरी-भरी ।
उम्मीदों की रेती
आँखों में लगती
लहरों की छाती में
इच्छा है जगती
नदी टाँकती
आँखों में लगती
लहरों की छाती में
इच्छा है जगती
नदी टाँकती
फंतासी की गोट-जरी ।
चुप्पी की छतरी
होठों पर तनी रही
चाहों में चुटकी-भर
दूरी बनी रही
होठों पर तनी रही
चाहों में चुटकी-भर
दूरी बनी रही
यादों के सरवर में
प्यासी आस मरी ।
प्यासी आस मरी ।
हत्या का अभियोग
बरगद के सायों पर लगता
हत्या का अभियोग ।
हत्या का अभियोग ।
सुख के पौधे
पनप न पाये
अँधियारों में
धूप रोकते
अँधियारों में
धूप रोकते
दुख के जाले
गलियारों में
गलियारों में
इच्छाओं की अमर बेल पर
सूखेपन का रोग ।
सूखेपन का रोग ।
मोर-मुकुट
चिंता के जब
खुशियों ने पहने
आहत मुस्कानों
आहत मुस्कानों
पर थे
चुप्पी के गहने
चुप्पी के गहने
चाहत की उजड़ी मज़ार पर
लाचारी के भोग।
लाचारी के भोग।
दहशत के
बेताल टँगे
मन की डाली पर
आशंका की
मन की डाली पर
आशंका की
बेल चढ़ी
सच की जाली पर
सच की जाली पर
अनुबन्धों के भी सूली पर
चढ़ने के संजोग ।
चढ़ने के संजोग ।
झीनी चदरिया
प्रीत की झीनी चदरिया
बुन रही हूँ।
बुन रही हूँ।
मौसमों की पीठ पर
कुछ ख़त लिखे थे
पत्थरों में चाह के
वर्तुल दिखे थे
कुछ ख़त लिखे थे
पत्थरों में चाह के
वर्तुल दिखे थे
शोर में भी इक नदी को
सुन रही हूँ ।
रात के आगोश में है
इक चिरैया
भोर के तट पर बँधी है
प्रेम-नैया
इक चिरैया
भोर के तट पर बँधी है
प्रेम-नैया
विरह के इन अश्रुओं को
चुन रही हूँ।
रेत सीने में दबाये
जागती है
इक नदी सूने किनारे
जागती है
इक नदी सूने किनारे
बाँचती है
चुप्पियों के अर्थ अब तक
गुन रही हूँ।
मन हुए कसैले
खाली हुई अटारी मन की
कैसे भर दूँ
सहमे-सहमे
सपनों के
मन हुए कसैले
खाली-खाली हैं
कब से
खुशियों के थैले
धूप-दीप विपदाओं की
चौखट पर धर दूँ ।
कैसे भर दूँ
सहमे-सहमे
सपनों के
मन हुए कसैले
खाली-खाली हैं
कब से
खुशियों के थैले
धूप-दीप विपदाओं की
चौखट पर धर दूँ ।
मटमैली यादों ने
जब-जब
पाँव पसारे
चाहों ने
चाहों ने
चुप्पी में लिपटे
ज़ख्म बुहारे
गूँगे शब्दों को कुछ
तुतलाते-से स्वर दूँ ।
तुतलाते-से स्वर दूँ ।
मानपत्र ने
पढ़े कसीदे
छलनाओं के
परचे कैद हुए
छलनाओं के
परचे कैद हुए
तालों में
इच्छाओं के
इच्छाओं के
सूखी हुई सियाही को
सच के आखर दूँ ।
सच के आखर दूँ ।
छाये जाल घनेरे
धूप न आयी बित्ता भर
आँगन में मेरे
उजियारों ने
हवन किये
मन की धरती पर
समिधा में
मन की धरती पर
समिधा में
डाले अँधियारे
झोली भरकर
झोली भरकर
कृष्ण्पक्ष के फिर भी छाये
जाल घनेरे ।
ओस बिंदु-सी
खुशियाँ उड़कर
भाप हो गईं
चिंताओं का
चिंताओं का
ओढ़ दुशाला
कहीं सो गईं
सूने घर में कब होंगे
किरणों के फेरे ।
रातों की
गलियों में
सूरज के हरकारे
लिये रौशनी
सूरज के हरकारे
लिये रौशनी
के घट फिरते
मारे-मारे
दिन की चौखट पर
मिट जाते हैं बहुतेरे ।
कुछ पैबन्द लगा दूँ
ऊसर धरती पर
चाहत के बीज उगा दूँ ।
चाहत के बीज उगा दूँ ।
एक उदासी
खाट डालकर
कब से सोई
खाली कोनों में
खुशियों की
कब से सोई
खाली कोनों में
खुशियों की
चिड़िया रोई
खालीपन को झाड़-पोंछ्कर
आज सजा दूँ ।
आज सजा दूँ ।
मुँह फेरे
बिस्तर के
कोने पर बैठे हैं
रिश्ते कुछ
रिश्ते कुछ
उलझे-उलझे
ऐंठे-ऐंठे हैं
फटे हुए रिश्तों में
कुछ पैबन्द लगा दूँ ।
कुछ पैबन्द लगा दूँ ।
संवादों के पुल
चुप्पी से
चुप्पी से
जूझ रहे हैं
बातचीत के
बातचीत के
बंद सिरों को
बूझ रहे हैं
बूझ रहे हैं
धुले-धुले शब्दों का
इक तोरण लटका दूँ।
इक तोरण लटका दूँ।
नींद अब आती नहीं है
झील कोई गीत
अब गाती नहीं है ।
कँवल अब खिलते
नहीं हैं चाहतों के
मेघ भी बरसे
मेघ भी बरसे
नहीं हैं राहतों के
इक नदी को नींद
अब आती नहीं है ।
दे रहा चेतावनी
यह मन-ठठेरा
यह मन-ठठेरा
बस्तियों में
चील-गिद्धों का बसेरा
चील-गिद्धों का बसेरा
रात की तकदीर में
बाती नहीं है ।
बाती नहीं है ।
जब उदासी चोट खाकर
मुस्कराती
बेख़याली प्रीत के
घुँघरू बजाती
मुस्कराती
बेख़याली प्रीत के
घुँघरू बजाती
राह पीड़ा की कहीं
जाती नहीं है।
जाती नहीं है।
रोज आता दिन
आस की गठरी उठाए
रोज़ आता दिन।
रोज़ आता दिन।
रात के उलझे सिरों को
ढूँढता-सा
कुछ जटिल प्रश्नों के उत्तर
बूझता-सा
बूझता-सा
नींद को भी राग बैरागी
सुनाता दिन ।
हो रही हैं जर्जरित
संवेदनाएँ
मौन सदियों ने सहीं
मौन सदियों ने सहीं
कितनी व्यथाएँ
बीज खुशियों के दुखों में
रोप जाता दिन ।
साज़िशों की जब
फ़सल उगने लगी हो
उत्सवों की लाश भी
बिछने लगी हो
फ़सल उगने लगी हो
उत्सवों की लाश भी
बिछने लगी हो
पत्थरों पर दूब-सा फ़िर
लहलहाता दिन ।
घायल हैं साये
मुखपृष्ठों के हुए नहीं
किरदार अभी हम
किरदार अभी हम
जाल रेशमी
धूप बुन रही है
खिड़की पर
सीली इच्छा
खिड़की पर
सीली इच्छा
तोड़ रही दम
मन के भीतर
मन के भीतर
खोलें मन की गाँठ
नहीं हैं इतने सक्षम ।
दुख के सिल-बट्टे
पर पिसते
सुख के अवसर
अंध-कुओं से
सुख के अवसर
अंध-कुओं से
कैसे फूटें
पानी के स्वर
पानी के स्वर
लोक-लाज का ओढ़ कफ़न
करते हम मातम ।
क़दम-क़दम पर
अपनों ने ही
जाल बिछाये
अफ़वाहों के
जाल बिछाये
अफ़वाहों के
मौसम में
घायल हैं साये
घायल हैं साये
चीख-चीखकर हुए
परिचय
नाम मालिनी गौतम
जन्म 20 फरवरी 1972 को झाबुआ (मध्यप्रदेश) में
शिक्षा एम.ए., पी-एच. डी. (अंग्रेजी)
लेखन विधाएँ मुक्तछन्द कविता,ग़ज़ल,गीत,दोहा, अनुवाद इत्यादि
कृतियाँ
1 बूँद-बूँद अहसास (कविता-संग्रह)
2 दर्द का कारवाँ ( ग़ज़ल-संग्रह)
3 एक नदी जामुनी-सी ( कविता-संग्रह)
4 गीत अष्टक तृतीय ( साझा गीत संकलन )
5 काव्यशाला ( साझा कविता-संग्रह)
6 कविता अनवरत ( साझा कविता-संग्रह )
सम्मान
1 आगमन साहित्य सम्मान -2014, दिल्ली
2 परम्परा ऋतुराज सम्मान-2015, दिल्ली
3 आशा साहित्य सम्मान-2015, भोपाल (म. प्र.)
4 अस्मिता साहित्य सम्मान-2016,बड़ौदा (गुजरात)
5 भारतीय साहित्य सेवा सम्मान-2016, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, इन्दौर
संप्रति
एसोसिएट प्रोफेसर (अंग्रेजी), कला एवं वाणिज्य
महाविद्यालय, संतरामपुर (गुजरात)
संपर्क
ई मेल - malini.gautam@yahoo.in
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